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(२)
साधुओंका फिरसे शहर समानामें आगमन हुआ। मुनि श्री वल्लभविजयजीने ऐसी व्याख्यानकी झड़ी लगाई कि मेघको ईर्ष्या हो गई और वह व्याख्यान झडीको अपने जलप्रपातमें बहा लेजानेको तैयार हुआ मगर वह मुनिराजकी समानता न कर सका। हार कर चला गया। मुनिराजके वचनामृतकी झड़ी लगातार होती ही रही। उसने सच्चे धर्मवृक्षको पल्लवित कर दिया और हूँढियोंके मानको गाल दिया । इस वक्त जो धर्मका उद्योत शहर समानामें हुआ ऐसा पहले कभी उसे नसीब नहीं हुआ था । हमारे और सभी सेवकोंके (श्रावकोंके ) हौसले बहुत बढ़ गये । सबको यह निश्चय हो गया कि, बड़ोंके कथनको इन्होंने सफल किया है और करेंगे । हमारे गुरु महाराजनीको तथा मुनि श्रीवीरविजयनीको जो तकलीफें जैनाभास ढूंढियोंने दी थीं उनका बदला मिल गया। अर्थात् जैनधर्मका झंडा सदा फर्गता रहे इस गर्नसे जिन-मंदिर बनाना शुरू हो गया । दूँढियों के मुखसे बेतहाशा निकल पड़ा--" हमारे छाती पर जन्मभरके लिए यह साल हो गया।"
ढूंढियोंने मंदिर न बनने देनेके लिए शक्तिभर प्रयत्न किया मगर उनको सफलता न हुई । शासनदेवकी कृपा और मुनिनीके प्रभावंसे मंदिर बनना न रुका । सभी हिन्दु-मुसलमान इस मंदिरके बननेमें खुश थे । नाराज थे केवल दूँढिये । x xxx ..: लुधियाना, जैडिआला, पट्टी, दिल्ली, गुजराँवाला, आदि
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