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(१६) परिणत कर लेता है । इसी तरह वक्तासे मुखरूपी कूएसे निकलता हुआ शब्दरूप जल, श्रोताओंके कर्णरूप कुल्याद्वारा अनेक अन्तःकरण रूप वृक्षोंका सिंचन तो एक जैसा ही करता है, मगर उसके रसकी परिणति उनके स्वभावके अनुसार होती है। जैनाचार्य श्रीहरिभद्रसूरिनी एक स्थानमें लिखते हैं कि
" एकतड़ागे यद्वत्पिबति भुजंगमो जलं तथा गौश्च ।
परिणमति विषं सर्प तदेव गवि जायते क्षीरम् ॥" यद्यपि साँप और गौ दोनों एक ही तालाबमें पानी पीते हैं पर साँपमें तो वह विषके स्वरूपको धारण करता है और गौके शरीर में उसे दुग्धका रूप प्राप्त होता है । इसी तरह जिस जलके प्रभावसे उद्यानमें अनेक प्रकारके सुन्दर पुष्पोंकी उत्पत्ति होती ह, वही तीक्ष्ण कांटोंका भी उत्पादक होता है । तात्पर्य कि, जैसे जलमें स्वच्छता और मधुरताका स्वाभाविक गुण होने पर भी अन्याय पदार्थोके संयोगसे उसके रसमें परिवर्तन हो जाता है। इसी तरह वाणी चाहे कैसी भी सरस और हितकर हो, तो भी श्रोता उसको अपने स्वभावके अनुकूल बना लेता है । इसी लिए सब श्रोताओं पर वक्ताकी वाणीका एक जैसा असर नहीं होता । वक्ताके विचारोंका श्रोताओं पर अच्छा या बुरा असर होना उनके अन्तःकरणके स्वभाव पर निर्भर है। इसमें वाणीका कुछ दोष नहीं, उसका अच्छे या बुरे रूपमें परिवर्तन श्रोताके आशय पर अवलबित है । इसलिए मेरे शब्दोंके विषयमें नुक्ता
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