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आदर्श जीवन ।
_ 'तीर्थभूता हि साधवः । शास्त्रकारों ने साधु महात्माओंको तीर्थस्वरूप लिखा है। तीर्थ उसको कहते हैं जिसके आलम्बनसे मनुष्य अपनी आत्मामें विकास प्राप्त कर सके अर्थात् जिसके जरियसे आत्माका 'उद्धार हो सके । तीर्थके शास्त्रकारों ने स्थावर और जंगम ऐसे दो भेद भी किये हैं। स्थावर वे हैं जो सदा एक ही स्थानमें स्थिर रहते हैं जैसे शत्रुञ्जय, रैवताचल और सम्मेत शिखरादि।
जंगम तीर्थ उनको कहते हैं जो चलते फिरते और सदाके लिए कहीं पर स्थिर नहीं रहते, वे जंगम तीर्थ साधु मुनिराज हैं । वे जहाँ कहीं भी जाते हैं वहाँ पर उनके उपदेश द्वारा अनेक जीवोंका उद्धार होता है। बहुत से ऐसे जीव हैं जो कि महात्माओंके सदुपदेशसे प्रबुद्ध हो कर अपनी बिगड़ी हुई जीवनचर्याको सदाके लिये सुधार लेते हैं। बहुतसे लोगों पर इन महापुरुषोंके विशुद्ध जीवनका ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे उससे प्रभावित होकर आजन्म प्रभावना युक्त कार्योंमें ही सतत लगे रहते हैं। इस लिये शास्त्रकारोंने महात्मा पुरुषोंको तीर्थकी उपमासे अलंकृत किया है।
एक उदाहरण लीजिये । आजसे अनुमान साठ वर्ष पहले पंजाके जैन समाजकी वह सुदशा नहीं थी जो कि सौभाग्यवश उसे आज प्राप्त है । उस समय वह अपने
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