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आदर्श जीवन ।
आप
" भाग्यशालीयो ! शक्तिके होते हुए भी रुपया रुपया आठ आठ आने माँग कर अठाई महोत्सव कराना क्या शोभा देता है ? ऐसे महोत्सवसे न करना ही अच्छा है । जो लोग भक्तिवश अपने घरबार छोड़कर यहाँ आते हैं उन्हें रोकनेका यह रस्ता है । यहाँ जितने मौजूद हैं उनमें से एक भी तुम्हें धनिक दिखाई देता है ? बड़ी बड़ी मिलोंवाले और पेढ़योंवाले तो भूले चूके ही व्याख्यानमें आते हैं और वे भी पर्युषणों । हमेशा आनेवाले तो साधारण स्थितिके ही श्रावक हैं। इस तरह बार बार चंदा होनेसे कई तो व्याख्यानमें आते ही डरते हैं । वे सोचते हैं व्याख्यानमें जायँगे और कहीं कोई चंदेकी फर्द आ जायगी तो शर्म के मारे उसमें कुछ न कुछ लिखना ही पड़ेगा | इससे तो न जाना ही अच्छा हैं । "
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श्रावक - “ साहिब ! आपका फर्माना बिलकुल ठीक है; परन्तु किया क्या जाय ? काम तो करना ही पड़ता है और सेठिये आते नहीं; इस लिए चंदेके सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं है । "
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आप " इसी लिए तो मैं ऐसे कार्यको आवश्यक नहीं समझता और न ऐसे आठ आठ आनेके चंदेको ही पसंद करता हूँ । हाँ यदि आपको यह काम करना ही हो तो उपाश्रयके बड़े बड़े सेठोंके यहाँ जाकर अच्छी रकमें ले आओ और अठाई महोत्सव कर अपना मनोरथ पूर्ण करो । " एक - " महाराज ! सेठ तो वे ही हैं जिनमें से एकने
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