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आदर्श जीवन ।
जयपुर में दीनदयालजी तिवारी एक बहुत ही सज्जन पुरुष थे । उन्हें धार्मिक बातोंसे विशेष स्नेह था । वे हरेक मजहबकी बात को समझते और धर्मगुरुओंसे मिलते थे । वे उस समय मुन्सिफ थे । उन्हें ऐसा शौक लगा कि वे हमेशा आपका व्याख्यान सुने बिना नहीं रहते । यदि कभी किसी खास कार्यके कारण व्याख्यानके समय नहीं आ सकते थे तो दुपहरको अथवा शामके वक्त आकर उस दिन के व्याख्यानकी बातें संक्षेप में आपसे पूछ कर पहलेका अनुसंधान कर लेते थे ।
सं० १९६५ में लार्ड कर्जनने बंगालको दो भागों में विभक्त कर दिया था । इससे बंगालमें बड़ी हल चल मची हुई थी । क्रान्तिकारी बंगाली लोग खीजकर षडयंत्रकारी बन गये और सरकारी अफ्सरोंकी हत्याएँ करने लग गये थे । वे रहा -करते थे प्रायः सन्यासियों और साधुओंके वेशमें । इस लिए उनपर सरकारी अफ्सरोंकी कड़ी निगाह रहती थी ।
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एक दिनकी बात है । हमारे चरित्रनायक अपने दो तीन शिष्यों सहित जयपुर स्टेशनके पासवाले मंदिरजके दर्शन करके वापिस आरहे थे । साथमें जयपुरवाले गुलाबचंद्रजी ढड्डा एम. ए. के बड़े भाई लक्ष्मीचंद्रजी भी थे । उसी समय किसी गोरे अफ्सरकी बग्घी वहाँसे निकली । उसने साधुओंको देखा । एक तो बंगाली लोग वैसे नंगे सिर ही रहा करते हैं, दूसरे उस समय क्रान्तिकारी बंगाली प्रायः साधुओंके वेशमें रहते थे; गोरा यह जानता नहीं था कि बंगालियोंके
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