Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
जुलाई १६३५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara
www.umaragyanbhandar.com
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
1000000
350BARCASSESSORGOP290233AR
EBEE
▬▬▬▬▬▬▬ac ba☐☐
सचित्र हिन्दी - महाभारत
די
महाभारत अद्भुत ग्रन्थ है । वह पञ्चम वेद कहता है समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र, नीतिशास्त्र, राजनीति, काव्य, आख्यान सभी कुछ उसमें है । सबसे बढ़कर उसमें उन पुण्य पुरुषों की चरितावली है जिसके अनुशीलन और अनुकरण से हम दयनीय दशा से मुक्त होकर वीरोचित कार्य करने
प्राप्त कर सकते हैं ।
་ ་ ་
इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का जो इकतालीस ङ्कों (दस खण्डों) श्रङ्क अनेक रङ्गीन और सादे चिकना और पुष्ट है । टाइप सरल और मुहावरेदार सबकी
योग्य है ।
हिन्दी अनुवाद करवाया है, में सम्पूर्ण हुआ है । प्रत्येक चित्रों से अलंकृत है । काग़ज़ बड़ा और सुन्दर है । समझ में अच्छी तरह श्राने
भाषा
पूरे सेट का नकद मूल्य ५०); माहवारी किस्त के हिसाब से १० खण्डों का ६०) | 'महाभारत' के फुटकर अङ्क नहीं मिल सकते । शीघ्र ही श्रार्डर देकर मँगाइए ।
मैनेजर (बुक डिपो), इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
Baad CHHODOopopopogonam
=========8888888888888
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
A
CsxsxsxsxSxSXSXSXSXSXsx5XSXSXSXSXSXSXSXSXSXSUP MsxsxsxSxSXSXSXSXSXSXSXSXSXSXSXSSAS/SAS/Ssen
卐 सरस्वती
सचित्र मासिक पत्रिका
C AS SASXSXSXSXSsSsSsSsSsSsSsSXSXSXSXSXSXSXS SASASHSXE 2xSXSXSXSXSXSXSXSXS:3S:S:S:S:S:SXSXSS:S:S:SxSxSxSxs şxSxSxSxe
भाग ३६, खण्ड २ जुलाई-दिसम्बर
१६३५
2nsssssssssssxSXSXSXSSASASSASASASASSASASAS:SxsssSKSsSsSsSsSse UPDASAS SASXSXSXSXSXSXSXSXSXSXSXSXS S SSXSXSXSxSxSxSxS SAS/Sise U
सम्पादक देवीदत्त शुक्ल श्रीनाथसिंह
प्रकाशक इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
वार्षिक मूल्य साढ़े छः रुपये
25xssssssssssssssssssssssssssssssssssssssskole nxsssssss$$$sssssssssssssssssssssssssssssssss
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
लेख-सूची
नम्बर नाम १ अनुरोध (कविता) २ अपरिचित से (कविता) ३ अबीसीनिया ४ अभिलाषा (कविता) ५ अभिलाषा (कविता) ६ अभिशापित प्रेमी (कविता) ७ अमृत
लेखक ... श्रीमती कुमारी शकुंतला देवी 'अकर्मण्य' श्रीवास्तव ४६७ ... श्रीयुत पद्मकान्त मालवीय ...
५०२ ... श्रीयुत दीनदयाल शास्त्री
२७० श्रीयुत रुस्तम सैटिन
२२५ श्रीयुत उपेन्द्र ... श्रीयुत भगवतीचरण वर्मा अनुवादक, श्रीयुत माईदयाल जैन, बी० ए०
(आनर्स), बी० टी० श्रीयुत कपिलदेव नारायणसिंह 'सुहृद' श्रीयुत बालकृष्ण राव
३७२ श्रीयुत सुमित्रानन्दन पंत
x30
::
२२०
३७०
::::
४०४
८ अमौलिक (कविता) ६ असीम का बन्धन (कविता) १० श्राकाश-मार्ग में ११ आकांक्षा (कविता) १२ इंग्लैंड में विद्यार्थियों के छुट्टी के खेल
और विनोद ... १३ इटली और अबीसीनिया १४ उदयपुर में विजयादशमी १५ उद्गार (कविता) १६ उछाह (कविता) १७ उछवास (कविता) १८ उपहार १६ ऋणग्रस्त रियासत-सम्बन्धी कानून २० ऐरोमा २१ अोझा ...
४८६ ५३५
३३४
श्रीयुत श्रीमनारायण अग्रवाल, एम० ए० श्रीयुत नगेन्द्रनाथ गुप्त ... श्रीयुत कुँवर चाँदकरण शारदा श्रीयुत कुञ्जबिहारी चौबे ... श्रीयुत शैलेन्द्र ... ...
श्रीयुत कुँवर सोमेश्वरसिंह, बी० ए० ... श्रीमती शान्तादेवी ज्ञानी ... ... श्रीयुत सीतलासहाय ... श्रीयुत उपेन्द्रनाथ अश्क, बी० ए० .. श्रीयुत मोतीचन्द्र, एम० ए०, पी० एच० डी०
(लंदन) ... श्रीयुत उमेश
श्रीयुत सीतलासहाय ... श्रीयुत अनूप शर्मा, एम० ए०, एल० टी० ... श्रीयुत सुमित्रानन्दन पन्त ... ... श्रीयुत अनसूयाप्रसाद पाठक ... ... श्रीयुत धर्मवीर, एम० ए० ... ... श्रीयुत तिलकराज भसीन, बी० ए०, एल-एल.
बी० वकील
१३६
११३
२२ ओढ़नी (कविता) २३ कर्ज़-सम्बन्धी कानून २४ कलिङ्ग-युद्ध (कविता) २५ कोकिल (कविता) २६ कोणार्क की यात्रा २७ कोयटा में प्रलय २८ कोयटे का प्रलयकारी भूकम्प ...
...
६४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
लेखक ... श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन
...
... ४१३
... ५१३
श्रीयुत वंशीधरसिंह प्रोफ़ेसर इन्द्रनाथ मदन, एम० ए० श्रीयुत रामविलास शर्मा
श्रीयुत बालकृष्ण राव ... श्रीयुत सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
... ४४८ श्रीयुत भाई परमानन्दजी, एम० ए०, एम० एल० ए०
श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन
... १०१
:३६४
नम्बर नाम २६ कोयासान ३० कोरिया का वज्रपर्वत ... ३१ खेलों का महत्त्व ३२ गाल्ज़वर्दी और सामाजिक क्रांति ३३ गीत (कविता) ३४ गीत (कविता) ३५ गीत (कविता) ३६ गोविन्दचन्द्रिका ३७ चिट्ठी-पत्री '३८ जवाहरलाल नेहरू और हिन्दू-संस्कृति ३६ जाग्रत महिलायें ४० जापान के रास्ते में ४१ जापान में ... ४२ जीवन (कविता) ४३ जीवन (कविता) ४४ जीवन के काँटे (कविता) ४५ जीवन-सरिता (कविता) ४६ जुगनू-गीत (कविता) ४७ जेमी ४८ ज्योतिर्धारा (कविता) ४६ तलाक ५० तसवीर (कविता) ५१ ताराकाश (कविता) ५२ तोक्यो शहर ... ५३ दीनानाथ ... ५४ दुर्लभ पदार्थ ... ५५ द्वापर (कविता) ५६ धन की शोभा ... ५७ नई पुस्तकें ... ५८ नारी-अपहरण में हिन्दू समाज की ज़िम्मेदारी ५६ निशा-प्रेमी जीव-जन्तु ६० पक्षियों का अद्भुत सहज ज्ञान ६१ पग-ध्वनि (कविता) ६२ परिवर्तन (कविता)
५१२
जमा
श्रीयुत व्यथितहृदय श्रीयुत कुँवर सोमेश्वरसिंह, बी० ए०
श्रीयुत श्रीमन्नारायण अग्रवाल, एम. ए. ... श्रीयुत एक 'राष्ट्रीय आत्मा' ... ... श्रीयुत मोहनलाल महतो ... श्रीयुत धर्मवीर, एम० ए० ...
श्रीयुत पारसीप्रसादसिंह
कुंवर सुरेशसिंह ... कुँवर सोमेश्वरसिंह, बी० ए०
१६८ श्रीयुत सुमित्रानन्दन पन्त
४८१ श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन
३१८ श्रीयुत आत्माराम देवकर ... श्रीयुत मावलीप्रसाद श्रीवास्तव .. श्रीयुत मैथिलीशरण गुप्त
... ३७१ श्रीयुत अात्माराम देवकर
४३२ ... १५६, २४६, ३७४, ४५७, ५४५ ... पंडित मोहनलाल नेहरू ...
५०३ ... श्रीयुत वनमालीप्रसाद शुक्ल ... ... श्रीयुत सन्तराम, बी० ए० ...
३६१ ... श्रीयुत बच्चन ...
...
... २५६ श्रीयुत उदयशङ्कर भट्ट
... ३३३
... २१५
... २२६९
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
लेख-सूची
पृष्ठ
२३३
१७७
५२६
U0
२४८
म्बर नाम
लेखक ६३ पावस (कविता)
श्रीयुत नर्मदाप्रसाद खरे ... ६४ पीपल-पत्र (कविता)
श्रीयुत धनराजपुरी ६५ पुजारी
श्रीयुत रा० सा० ६६ पृथ्वी पर स्वर्ग
श्रीयुत महाराजकुमार रघुवीरसिंह, एम० एल-एल०बी०
३२६ ६७ प्राणदण्ड . ...
श्रीयुत योगेन्द्रनाथ गुप्त ... ६८ प्रेमचन्द जी की रचना-चातुरी का एक नमूना श्रीयुत श्रीनाथसिंह ६६ फारसी में भागवत
श्रीयुत महेशप्रसाद मौलवी आलिम फ़ाज़िल .. ५३३ ७० बढ़ा (कविता)
... श्रीयुत सुमित्रानन्दन पन्त ... ७१ बस्ती है यह किन मस्तों की (कविता
श्रीयुत रामानुजलाल श्रीवास्तव ... ७२ बहुरूपिया साधु
... श्रीयुत धर्मवीर, एम० ए० ७३ बाबू शिवप्रसाद गुप्त
.. श्रीयुत सीतलासहाय ७४ बिदा (कविता)
... श्रीयुत नरेन्द्र, बी०. ए० ७५ बीता वैभव (कविता) .... श्रीयुत छैलविहारी दीक्षित 'कण्टक'
३२८ ७६ ब्रसेल्स से हार्बिन ... श्रीयुत भगवानदीन दुबे ...
२६५ ७७ भाई परमानन्द और स्वराज्य ... ..... पंडित जवाहरलाल नेहरू ... ७८ भारत में औद्योगिक उन्नति का प्रश्न
श्रीयुत प्रोफेसर शंकरसहाय सक्सेना, एम० ए०
(इकान), एम० ए० (काम), विशारद ७६ भारतीय ज्वायंट स्टाक बैंक ...
श्रीयुत प्रेमनारायण माथुर, बी० काम ८० भूषण का दूषण
श्रीयुत विनोदविहारी ८१ भूषण का महत्त्व
श्रीयुत कमलाकर शर्मा ८२ भ्रमरी (कविता)
श्रीयुत दिनकर ...
३१३ ८३ मल्लियों से सिकन्दर का मुकाबिला
श्रीयुत वनमालीप्रसाद शुक्ल ...
३०६ ८४ माननीय सर सीताराम ... ... श्रीयुत रूपकिशोर अग्रवाल बजाज़
४२५ ८५ मानव-शरीर के अद्भुत कार्य
श्रीयुत डाक्टर गाडगील, एम० डी०
२५८ ८६ मुहम्मद इकबाल और उनकी शायरी
प्रोफेसर इन्द्रनाथ मदन, एम० ए० ८७ मूर्ति में अमूर्त (कविता) ...
श्रीयुत हरिकृष्ण 'प्रेमी' ... 4. मेरी कविता (कविता) ..
श्रीयुत बालकृष्ण राव ८६ मेरी श्री बदरीनाथ जी की यात्रा
श्रीयुत रायबहादुर पंडित राजनारायण मिश्र, पी० सी० एस०
.... ४४० ६० मेरे प्राणों में तुम बोलो (कविता)
श्रीयुत रामनाथ सुमन
... १०७. ६१ मैं सोचा करता हूँ प्रतिपल (कविता)
श्रीयुत कुञ्जविहारी चौबे ... ... ३०८ १२ मैथिल कवि श्री मँगनीराम झा ...
श्रीयुत शुकदेव ठाकुर, बी० ए० (श्रानर्स) ... २०६ ९३ युद्धों की अनिवार्यता
प्रोफ़ेसर इन्द्र वेदालङ्कार, एम० ए० १४ योरप-जैसा कि मैंने उसे देखा
श्रीयुत हरिकेशव घोष.
१,४५०,५३६
३४६
:
:
:
... ३८६
:
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
०.८५
M MM
३५५
com
नम्बर नाम
लेखक
पृष्ठ ६५ रँगा सियार ...
... पंडित मोहनलाल नेहरू ... १६ रजकण (कविता)
... श्रीयुत रुस्तम सैटिन ६७ रस
... श्रीयुत कुँवर राजेन्द्रसिंह भूतपूर्व मिनिस्टर १८ रहस्य (कविता)...
... श्रीयुत राजाराम खरे ... ६६ रूप
श्रीयुत कुँवर राजेन्द्रसिंह भूतपूर्व मिनिस्टर १०० लाला देवराज जी
श्रीयुत संतराम, बी० ए० ... १०१ वह
श्रीयुत विजय वर्मा ... १०२ विजय के पथ पर
... श्रीयुत ऋद्धिकरण लखोटिया ... १०३ विभ्रम (कविता)
... श्रीमती रामकुमारी चौहान ... १०४ विवाह की कुछ विचित्र प्रथायें ...
श्रीयुत मार्कण्डेय वाजपेयी, एम० ए०,
एल-एल० बी० १३२, ४३५ १०५ व्यर्थ प्रयास
श्रीयुत नगेन्द्रनाथ गुप्त १०६ शब्द
श्रीयुत कुँवर राजेन्द्रसिंह भूतपूर्व मिनिस्टर ... ५०६ १०७ शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता ... श्रीयुत खुशालमणि पर्वतीय, बी० ए० १०८ श्रद्धा-गीत (कविता)
... श्रीयुत जयशङ्कर 'प्रसाद' १०६ संगीतमय मारवाड़
... श्रीयुत बालकृष्ण पोद्दार ... ११० संसार (कविता)
.... श्रीयुत कुँवर हरिश्चन्द्रदेव वर्मा 'चातक' कविरत्न ४२४ १११ संसार की गति
- ८६, १८५, २८२ ११२ सत्यं शिवं सुन्दरं
... श्रीयुत राधामोहन गोकुल जी ... ... ८ ११३ समाधि-निर्माण (कविता)
श्रीमती रामकुमारी चौहान ... ... ३६३ ११४ सम्पादकीय नोट
___८६, १८८, २८४, ३७८, ४७५, ५६५ ११५ सरल समस्या (कविता)
... श्रीयुत जीवन, एम० ए० ११६ सरिता (कविता)
... श्रीयुत कुँवर हरिश्चन्द्रदेव वर्मा 'चातक' कविरत्न ५ ११७ सामयिक साहित्य
१७८, २७६, ४७१, ५५३ ११८ साहित्य में सङ्केतवाद
श्रीयुत गुलाबप्रसन्न शाखाल, बी० ए० ... १५२ ११६ सिंहावलोकन ...
श्रीयुत कृष्णमोहन, एम० ए० ... . १२० सुदामापुरी का कलाकार
श्रीयुत शङ्करदेव विद्यालङ्कार ... १२१ स्वागत-गीत ...
श्रीयुत नरेन्द्र ... १२२ स्वदेशी में अड़चन
पण्डित मोहनलाल नेहरू ... १२३ स्वर्ग का एक कोना
... श्रीमती महादेवी वर्मा, एम० ए० १२४ स्वराज्य क्या है ?
श्रीयुत भाई परमानन्द एम० ए०, एम० एल० ए० ६८ १२५ हदीस
श्रीयुत महेशप्रसाद मौलवी श्रालिम फ़ाज़िल ... ४१० १२६ हमारे प्रान्त के विश्वविद्यालयों में पाली-भाषा का
अध्ययन
... बाबा राघवदास
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
चित्र-सूची
मुखपृष्ठ
नम्बर नाम
लेखक १२७ हास-परिहास ... ... श्रीयुत सदानन्द
... १६६ १२८ हे देवि (कविता)
श्रीयुत जगन्नाथप्रसाद, एम० ए०
... ३४२ चित्र-सूची
रङ्गीन चित्र १ उषा और चित्रलेखा ... [जुलाई
८० २ कृष्ण और अर्जुन ... [दिसम्बर
५२२ ३ चिन्तामग्ना
... [अगस्त ४ भारत का फूल ... [दिसम्बर
मुखपृष्ठ ५ मन्दिर के द्वार पर
[सितम्बर ६ लवकुश [अगस्त]
मुखपृष्ठ ७ वह पगध्वनि मेरी पहचानी [सितम्बर
२५६ ८ शरद-पूर्णिमा
[नवम्बर
मुखपृष्ठ ६ शाहजहाँ और ताजमहल [जुलाई]
मुखपृष्ठ १० शिव-शृङ्गार ... [आक्टोबर
मुखपृष्ठ ११ श्रीकृष्ण और रुक्मिणी ... ... [आक्टोबर
३६८ १२ श्रीकृष्ण और स्यमन्तक मणि ... [नवम्बर
सादे-चित्र नम्बर विषय
पृष्ठ १.५ अबीसीनिया-सम्बन्धी ५ चित्र
२७०-२७१ ६-६ श्राकाश-मार्ग में-सम्बन्धी ४ चित्र ... .
३७२-३७३ १०-१६ इंग्लेंड में विद्यार्थियों के छुट्टी के खेल और विनोद-सम्बन्धी ७ चित्र
४०४-४०८ १७ इटली और अबीसीनिया-सम्बन्धी व्यङ्गय-चित्र
... २५७ १८-२० इटली और अबीसीनिया-सम्बन्धी ३ चित्र ...
.. २२३-२२४ २१.२८ उदयपुर में विजयादशमी-सम्बन्धी ८ चित्र
.... ४८६-४६४ २६ कुँवर राजेन्द्रसिंह ...
.. ३०३, ५०६ ३० कुँवर सुरेशसिंह ...
... २४ ३१-४४ कोणार्क की यात्रा-सम्बन्धी १४ चित्र ...
... ३२-३७ ४५-५५ कोयटे का प्रलयकारी भूकम्प-सम्बन्धी ११ चित्र
६४-६६ ५६-६६ कोयासान-सम्बन्धी १४ चित्र
... ४१३-४२३ ७०.७७ कोरिया का वज्रपर्वत-सम्बन्धी ८ चित्र ...
... ५१३-५२० ७८ चारु चित्रावली ...
५६, १५२, २३२, ३३६, ४३२,५२८ ७९-८० जाग्रत महिलायें-सम्बन्धी २ चित्र
... २५३-२५५ ८१-८५ जापान के रास्ते में-सम्बन्धी ५ चित्र ...
१०२-१०३
::::::::::::
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
नम्बर
विषय ८६-६६ जापान में-सम्बन्धी ११ चित्र १७-१०८ तोक्यो शहर-सम्बन्धी १२ चित्र १०६-१११ दीनानाथ-सम्बन्धी ३ चित्र
११२ नेहरू जी बमरौली में ...
११३ पण्डित मोहनलाल नेहरू ११४-११५ प्राणदण्ड-सम्बन्धी २ चित्र
११६ फारसी में भागवत-सम्बन्धी १ चित्र ११७-११८ बहुरूपिया साधु-सम्बन्धी २ चित्र ... ११६-१२३ बाबू शिवप्रसाद गुप्त-सम्बन्धी ५ चित्र ... १२४-१२८ ब्रूसेल्स से हार्विन-सम्बन्धी ५ चित्र ...
१२६ भारत के भावी वायसराय लार्ड लिनलिथगे। १३०.१३१ माननीय सर सीताराम-सम्बन्धी २ चित्र ... १३२.१४२ मानव-शरीर के अद्भुत कार्य सम्बन्धी ११ चित्र ...
१४३ महाराजकुमार रघुवीरसिंह, एम० ए०, एल-एल० बी० । १४४-१६८ योरप--जैसा कि मैंने उसे देखा-सम्बन्धी २०चित्र १६६-१७० रँगा सियार-सम्बन्धी २ चित्र ...
१७१ लाला देवराज जी ... १७२-१६७ विजय के पथ पर-सम्बन्धी २५ चित्र .. १६८-२०१ विवाह की कुछ विचित्र प्रथायें-सम्बन्धी ४ चित्र
२०२ शहीदगंज की मसजिद २०३ श्री गाल्जवर्दी ... २०४ श्रीमती कमला नेहरू ... २०५ श्रीयुत महेशप्रसाद मौलवी श्रालिम फ़ाज़िल २०६ श्रीयुत मोतीचन्द्र, एम० ए०, पी-एच० डी० (लन्दन) ... २०७ श्रीयुत भाई परमानन्द, एम० ए०, एम० एल० ए० ...
२०८ श्रीयुत रायबहादुर पंडित राजनारायण मिश्र, पी० सी० एस० . २०६ श्रीयुत सीतलासहाय ...
२१० श्रीयुत सुमित्रानन्दन पन्त ।
२११ श्रीयुत सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला" २१२-२१६ स्वर्ग का एक कोना-सम्बन्धी ५ चित्र २१७२२२ सम्पादकीय नोट-सम्बन्धी ६ चित्र ... २२३-२२६ सामयिक विचार-सम्बन्धी ४ चित्र २२७-२३२ सुदामापुरी का कलाकार-सम्बन्धी ६ चित्र २३३-२४० संगीतमय मारवाड़-सम्बन्धी ८चित्र ... २४१-२४३ हास-परिहास-सम्बन्धी ३ चित्र
.... २३४-२३७
३१८-३२८ ... ८१-८३ ... २८६
३१५ ... ५२६-५२७
५३३ ४२-४३
१७-२१ ... २६५-३००
२८४ ४२५-४२६ ... २५८-२५६
... ३२६ १-३, ४५०.४५६, ५३६.५४४
... १४६-१४७ ... ४६८
१६४-२०७ १३२-१.५, ४३६-४३७
२३० २८७ ४१०
१३६ ६८, ४८३
४४० ... १२०,३३४
४३१ ... ५२१-५२५ ४७६-४८०, ५७१-५७५
५६२ ... ११४-११६
४६-५१
७०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
[चित्रकार-श्रीयुत शम्भूनाथ मिश्र
शाहजहाँ और ताजमहल
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
जुलाई १९३५ । श्रापाट १६६२
भाग ३६ खंड २ | संख्या १ पूर्ण संख्या ४२७
मम्पादक
देवीदत्त शुक, श्रीनामद
योरप-जैसा कि मैंने उसे देखा
१-जहाज़ पर
गताङ्क में पाठकों ने पढ़ा होगा कि हमारे प्रेस के का जेनरल मैनेजर श्रीयुत हरिकेशव घोष योरफ गये है। इनकी इस यात्रा का एक उद्देश सरस्वती को हिन्दी की की प्रतिनिधि और सुव्यवस्थित पत्रिका बनाना भी जैसा कि इस लेख से विदित होगा। इस यात्रा सम्बन्ध में आप 'सरस्वती' के लिए एक लेख माला
लिख रहे हैं। उसका यह पहला लेख
लेखक श्रीयुत हरिकेशव
घोष
ह पहला ले
गोरख की यह मरी पहली
दिन लोकप्रिय होती जा रही थी पायात्रा है। गत पन्द्रह वर्षा
और मैं मित्रों और पाठकों का में मुझं छुट्टी मनाने का अवसर
कनज्ञ हूँ कि हमें अब इसे बहुत बड़े बिलकुल नहीं मिला। पिछले वर्ष
पैमाने में छापने की आवश्यकता म में छुट्टी का अानन्द लेने एवं
प्रतीत हुई है। यह स्पष्ट था कि व्यवसाय गोर यानन्द का एक
यदि हम अपने पाठकों को अधिक म मित्तानबीयान सोच रहा था।
पाय-सामग्री. अधिक चित्र दे गत नवम्बर मास में यह अवसर
मक और बापिक मूल्य में कुछ आया जः कि एक प्रमुग्य जमन
की कर दें तो इस पत्रिका को निर्माता ने मुझे एक 'गंटरी प्रिंटिंग
इंग्लंड या योरप की सुव्यवस्थित मशीन' देने को कहा। मुझं एक
पत्रिकाओं के समकक्ष ला सकग। विशेष प्रकार की मशीन मँगानी थी ताकि वहत दु:ग्य की बात है कि यद्यपि भारतवर्ष की बड़े पैमाने पर पुस्तकं विशेषकर मासिक पत्रिकायें सम्पृण जन-संख्या का दो-तिहाई भाग हिन्दी-भाषी , छापने में विधा हो। हमारी सरस्वती दिन प्रति- है, तथापि अभी तक ऐसी कोई पत्रिका नहीं है
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
जो वास्तव में हिन्दी की प्रतिनिधि पत्रिका कही के डंक के दो मंजिला नीचे थी। यह बन्द और जाय । हिन्दी-पत्रिकाओं की ग्राहक-संख्या अत्यन्त अँधेरी जगह थी। खैर, अब मैं कर ही क्या सकता कम है, कदाचित् ही किसी की ६००० से अधिक हो। था ? मुझे इसी से संतोष करना पड़ा। ऐसी दशा में शीघ्र से शीघ्र एक ऐसी पत्रिका की आव- हमारे बहुत-से पाठक जहाजी यात्रा के आराम श्यकता है जिसके द्वारा मध्यवर्ग के ऊँच और नीचे और तकलीफ़ से परिचित होंगे, इसलिए मैं विस्तार दर्जे के लोगों में हिन्दी-साहित्य के प्रचार का उद्देश के साथ उनका वर्णन न करूंगा। यात्री-जहाज़ के सिद्ध हो सके। मैने सोचा कि यदि अमरीकन ढंग विषय में साधारण तौर पर हमारी जो धारणायें पर पत्रिका निकाली जाय, जहाँ कि मूल्य बहुत कम होती हैं उनसे वह भिन्न होता है। यहाँ मैं पाठकों रक्खा जाता है, करोब करीव उसका आधा जो को यह बता देना चाहता हूँ कि तकलीफों के सम्बन्ध कि हम 'भारतवर्ष में देते हैं, तो हम हिन्दी-भाषी में हमारा भय बहुत अतिशयोक्तिपूर्ण होता है। मैंने जनता के एक बड़े भाग तक पहुँच सकेंगे । अभी हम इटालियन लाइन लायड ट्रिस्टिनी के जहाज से यात्रा की वैसा नहीं कर सकते, क्योंकि प्रकाशन की वर्तमान और जहाज़ पर चढ़ने से पूर्व हमारे मन में भय की पद्धति अधिक व्यय-साध्य है।
जो आशङ्कायें रहती हैं उनका मुझे कोई सबूत नहीं इस प्रकार अपनी पत्रिका और स्टैंडर्ड साहित्य मिला। जहाज़ के कर्मचारी बड़े ही विनम्र होते हैं को बहुत बड़े पैमाने पर छापने की आवश्यकता से और वे यात्रियों की सहायता करने के लिए मदेव प्रेरित होकर मैंने रोटरी प्रिंटिंग मशीन का आर्डर तैयार रहते हैं। भोजन बहुत अच्छा और स्वादिष्ट दिया । योरप जाने और वहाँ प्रचलित विभिन्न कार्य- मिलता है। कई प्रकार का भारतीय भोजन भी वे प्रणालियों के देखने का इसे मैंने अच्छा अवसर देते हैं और यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि समझा । २३ मई से पहले मैं नहीं रवाना हो सका, व्यक्तिगत माँगों का वे कितना ध्यान रखते हैं ! कोई यद्यपि इसमें सन्देह था कि समुद्र शान्त मिलेगा। भी शाकाहारी अपनी रुचि के अनुसार भिन्न भिन्न मुझे समुद्र-यात्रा, समुद्री-बीमारी और उनसे सम्बन्ध प्रकार का भोजन प्राप्त कर सकता है। फल सुरक्षित रखनेवाली समस्त परेशानियों का सदैव बड़ा भय रूप में और यथेष्ट मात्रा में मिलते हैं। रहा है। परन्तु मैं अपनी इच्छा के अनुसार कार्य आम तौर से सब यात्री-जहाजों में चार दर्जे होते नहीं कर सकता था, क्योंकि मुझे प्रेस और अपनी हैं। पहला दर्जा, दूसरा दर्जा, दूसग इकानोमिक शूगर कम्पनी के बहुत-से महत्त्वपूर्ण मामलों को साफ़ दर्जा और डेक । हमारे जहाज़ के पहले दर्जे में बहुतकरना था। मेरे बहुत- मित्रों ने १० मई को रवान में भारतीय थे, जिनमें श्रीयुत घनश्यामदास बिड़ला, हान की सलाह दी, परन्तु मैं वैसा नहीं कर सका। और सर चिमनलाल सीतलवाद मुख्य थे। इकाकभी कभी मुझे बड़ी निराशा होती थी, क्योंकि यात्रा नोमिक दर्जे में लाहौर की मिसेज़ दत्त थीं। ये से पूर्व मुझे जो कार्य करने बाक़ी थे उनका अन्त ही भारतवर्ष की कुछ छात्राओं को योरप के शिक्षान मिलता था। खैर, मैने यथासम्भव उन्हें समाप्त सम्बन्धी वातावरण से परिचित कराने के लिए वहाँ किया और 'एस० एस० कोन्टेरेसो' नामक जहाज़ से अपने साथ ले जा रही थीं। जहाज़ खूब भरा था। यात्रा करने के लिए लिखा-पढ़ी की। मेरे कलकत्ता के इस प्रकार की यात्रा में एक ऐसा भव्य अवसर मित्रों ने, जिनके सुपुर्द मैंने यह काम किया था, देरी मिलता है जो अन्यत्र सम्भव नहीं होता। भूमंडल के कर दी। इससे जहाज में मुझे अनुकूल स्थान न मिल विभिन्न भागों के लोगों का एक कासमोपालिटन समूह सका । अन्तिम घड़ी में मुझे एक 'बर्थ' मिली जो ऊपर दम अच्छे दिन एक साथ व्यतीत करने के लिए एकत्र
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
MENZALEH LAKE
TO CAIRD.
EDEL GEREPA
GEBEL ATAKA
RED SEA
योरप जैसा कि मैंने उसे देखा
PANESTHE FARMA
ELKANTARA
TO CAIBO
ARABIAN DES
ISPALLIA ETIMBAH DAkR
AREAT ANTER
SUEZ
POST TEWFI
B
Taken from Sex Evapors.
ऊपर-- एस. एस. कान्ते रेसो बीच में नहर स्वेज़ और जहाज़ से सिंगापूर का दृश्य। नीचे पोर्ट सईद । - । Ste Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
-
www.umaragyanbhandar.com
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
कर दिया जाता है। वे साथ साथ खाते हैं, साथ साथ कर लिये हैं और अपने व्यवसाय में उन्नति करने के खेलते हैं, साथ साथ टहलते हैं और अपने अपने लिए इन देशों से वे समुचित सलाह पाते रहते है। जीवन के दृष्टिकोणों के सम्बन्ध में परस्पर विचार- पाश्चात्य वेषभूषा और रहन-सहन को वे शीघ्रता के विनिमय करते हैं। विभिन्न स्वभावों और विचित्र साथ अपनाते जा रहे हैं। जापान को वे भय के भाव रुचियों के लोग परस्पर एक दूसरे को करीब से देखते से देखते हैं और वे जानते हैं कि वे शीघ्रता के साथ हैं और अपने देश और अपने रहन-सहन की मर्यादा जापानी तरीकों का अनुसरण करके ही सफलता का परिचय देते हैं। कदाचित् शरीर-विज्ञान की दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं। हम भारतीय विदेश जानेसे मनुष्य के अध्ययन के लिए इन कुछ दिनों के उदा- वाले अनेक भारतीय विद्यार्थियों के अनुभवों से लाभ हरणों से बढ़कर उदाहरण नहीं मिल सकते जब हम उठाने से वञ्चित रह जाते हैं। इसका एक बड़ा सजायहाँ चीनियों, जापानियों, जावावासियों, इटालियनों, तीय कारण यह है कि हम अपने विद्यार्थियों को फिलिपाइनवालों और भूमंडल के कोने कोने के लोगों पारिभाषिक तरीकों के अध्ययन करने के लिए बहुत से मैत्री-सूत्र में आबद्ध होते हैं।
थोड़ा समय देते हैं। तीन वर्ष का कोर्स काफ़ी नहीं __यह मेरी प्रथम समुद्र-यात्रा थी, इसलिए मुझमें होना चाहिए। हमारे नवयुवकों को व्यवसाय और पास-पड़ोस के सम्बन्ध में पूछताछ करने का विशेष उत्पादन में प्रयुक्त होनेवाले विभिन्न पारिभाषिक तरीकों भाव पैदा हुआ। मैंने यह निश्चय किया कि मैं बहुत- का अध्ययन और अभ्यास करने के लिए योरप में से लोगों का परिचय प्राप्त करूँगा। इस यात्रा से मुझे लगभग दस वर्ष दत्तचित्त होकर रहना चाहिए दूसरे देशों की स्थिति-राजनैतिक और आर्थिक दोनों ताकि वे प्रत्येक व्यवसाय में वह पारिभाषिक दक्षता के जानने का यथेष्ट अवसर मिला। चीन के एक प्रधान और ज्ञान प्राप्त कर लें जो उन्हें अपने पूर्ण पारिभाव्यापारी से, जो चीन की वर्तमान स्थिति समझाने षिक ज्ञान के द्वारा दूसरे देशों से प्रतिद्वन्द्विता करने के लिए लेबर कान्फरेंस में भाग लेने जनेवा जा रहे में समर्थ बनाये। हैं, मेरो घनिष्ठतापूर्ण बातें हुई। यह देखकर मुझे मेरे मित्र जावा-निवासी मिस्टर इस्सर ने मुझसे
आश्चर्य हुआ कि चीनी व्यापारी कितनी सतर्कता जावा के सामाजिक और आर्थिक जीवन का बड़ा दिलके साथ पाश्चात्य तरीकों का अनुसरण कर रहे हैं। चस्प वर्णन किया। उन्होंने अच्छी डच-सरकार के कोड़ियों चीनी नवयुवक काहिल चीन को व्यावसायिक सम्बन्ध में अपनी इस टिप्पणी पर जोर दिया कि रूप देने के निश्चित उद्देश स शिक्षा ग्रहण करने के लिए. वहाँ वर्णगत भेद-भाव नहीं है। वे एम्सटर्डन जा दूसरे देशों को गये हैं। वस्त्र, चीनी, इनेमिलिङ्ग, काँच रहे हैं। वहाँ वे अपने परिवार को छोड़ देंगे और और मिट्टी के बर्तनों आदि के अब वहाँ तमाम कारखाने तब अटलांटिक पार करके दक्षिणी अमर खुल गये हैं। यह सच है कि बड़े पैमाने पर इन चीजों पिता से मिलने जायँगे। मैं ने उनसे एम्सटर्डन में का निर्माण करने में वे जापान से बहुत पीछे हैं, जैसा मिलने का वादा किया। वे बहुत अच्छे और प्रसन्नकि मेरे चीनी मित्र ने स्वीकार किया, पर अपने चित्त अधेड़ पुरुष हैं। वे सदैव मुस्कुराते हुए मिलते तरीकों में सुधार करते हुए वे क्रमशः आगे बढ़ रहे और सवेरे ऊपरी डेक पर टहलते समय हर किसी हैं। बहुत-से नवयुवक व्यवसाय को प्रभावित करने से, जो मिलता, परिचय प्राप्त करने को तैयार रहते। वाली समस्याओं का अध्ययन करने के लिए जर्मनी ये दस दिन पहाड़ हो जाते हैं। यद्यपि समय
और अमरीका गये है। अमरीका और जर्मनी के काटने के लिए आनन्द-विनोद की यथेष्ट सामग्री साथ उन्होंने अच्छे व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित रहती है, तथापि उन आनन्दों में लिप्त होना बहुतों के
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
योरप - जैसा कि मैंने उसे देखा
संख्या १]
स्वभाव के अनुकूल नहीं होता - विशेष कर उनके जो शान्तिमय आनन्द पसन्द करते हैं । सौभाग्य से इस जहाज का पुस्तकालय सज्जित है और समय व्यतीत करने के लिए यहाँ नई से नई पुस्तकें प्राप्त हो सकती हैं । सिनेमा, नृत्य और शिकार का भी प्रबन्ध है ।
पहले यह आस्ट्रिया का जहाज था । परन्तु जब इटलीवाला ने ट्रीस्ट पर अधिकार किया तब युद्ध के बाद से यह भी उनके अधिकार में आ गया। समस्त महत्त्वपूर्ण बन्दरों पर ठहरता हुआ यह शंघाई से ट्रोस्ट तक जाता आता है। मेरे मित्र इस्सर बड़े निपुण फोटोग्राफर हैं। उन्होंने कृपापूर्वक कुछ फोटो मुझे भी दिये जो उन्होंने मार्ग में लिये थे । वे यहाँ छापे जाते हैं।
एक बड़े यात्री जहाज का सुन्दर प्रबन्ध देखकर हम सब आश्चर्यचकित हुए हैं। भारतीय इटालियन लाइन को बहुत पसन्द करते हैं, क्योंकि इसके जहाजों में भोजन अति उत्तम और विभिन्न प्रकार का मिलता है । संसार के विभिन्न भागों के फल, योरप अमरीका और भारत की खाद्य सामग्री और आठ विभिन्न देशों के रसोइयें इसके जहाज में यात्रियों की सेवा करने के लिए उपस्थित हैं । इस जहाज में ५०० मुसाफ़िर और लगभग ३५० नाविक हैं । सब मिलाकर ९०० आदमी हैं, जिन्हें प्रतिदिन चार बार नियत समय पर भोजन मिलता है । कोइ भी फल जितने आप चाहें, मिल सकता है । जहाज़ का भाण्डार अक्षय्य प्रतीत होता है । इस जहाज में एक बड़ा तापहारी कमरा है, जिसमें सब प्रकार के फल, मांस और अन्य प्रकार की खाद्य सामग्री रक्खी जा सकती है। हमें यहाँ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
गोभी, जो अब उत्तर भारत में शायद ही मिले, और बहुत-सी भारतीय फलियाँ जो अब वहाँ बे-मौसम हैं, मिल सकती हैं । जहाजवालों ने इन वस्तुओं को महीनों पहले खरीदा था और तापहारी कमरे में जमा कर रखा है।
मरे मित्र......, मुझे यह उल्लेख करते हुए दुःख होता है, बुरी सोहबत में पड़ गये और यदि हम उन्हें सचेत करने का शीघ्र प्रयत्न न करते तो हालत और भी ख़राब हो जाती। उनकी सदिच्छा और हमारे अनु नय-विनय को धन्यवाद है कि उन्होंने वह सोहबत छोड़ दी और हमारे बीच में आ गये। फिर वे उस 'काकटेल बार' में न गये, जिसमें वे कुछ विदेशी मित्रों के साथ आधे दर्जन बार जा चुके थे और बहुत बेवकूफ़ बनाये गये थे । श्रीयुत तिवारी भी जो मेरे ही कमरे में थे, बड़े आनन्द के साथ जा रहे हैं । वे लन्दन में क़रीब तीन महीने ठहरेंगे । वहाँ उन्होंने
से मिलने का वादा किया है ।
जो लोग मिस्र की एक झलक - प्राचीन पिरामिड, रहस्यमयी ममी और गंदा बाजार देखना चाहते हैं। उन्हें यह जहाज बड़ा सुन्दर अवसर देता है । वे स्वेज़ में उतर सकते हैं। टामस कुक एण्ड सन्स के कर्मचारी वहाँ से मुसाफ़िरों को 'लाञ्च बोट' पर किनारे और वहाँ से मोटर पर कैरो ले जाते हैं । कुछ मित्रों ने, जिनमें मैं भी हूँ, इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए लिखा-पढ़ी की है। मुझे आशा है कि जब मैं शहर
लौहूँगा तब मैं अपने पाठकों को मिस्र और उसके निवासियों के बारे में कुछ नई बातें बता सकूँगा ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
DID
E
..
बमारे जात्रा वियानों में पानी
हमारे प्रान्त के विश्वविद्यालयों में पाली
भाषा का अध्ययन
लेखक, बाबा राघवदास पाली किसी समय में भारतवर्ष की राष्ट्र-भाषा थी। आज भी चीन, जापान, तिब्बत आदि बौद्ध देशों पर उसका प्रभाव है । उसके अध्ययन से हिन्दू, बौद्ध और बौद्ध धर्म का पारस्परिक सम्बन्ध ही नहीं प्राचीन भारतीय संस्कृति का भी ज्ञान प्राप्त होता है । इस लेख में इसी बात का उल्लेख कर यह माँग,पेश की गई है कि अन्य विश्वविद्यालयों की भाँति यू०पी० के विश्वविद्यालयों में भी पाली के अध्ययन की व्यवस्था होनी चाहिए ।
- भा
जरत में संयुक्त-प्रान्त प्राचीन इस प्रकार बौद्धधर्म का इस प्रान्त सं बहुत
काल सं अपना एक खास घनिष्ठ सम्बन्ध है। इतना होने पर भी यह बड़े दुख स्थान रखता है। भारतीय का विषय है कि पाली-साहित्य के अध्ययन-अध्यापन संस्कृति का अधिकांश का कोई प्रबन्ध इस प्रान्त के शिक्षा-विभाग की ओर
निर्माणकार्य इसी प्रान्त में से या विश्वविद्यालयों की ओर से नहीं हुआ है। TRAC हुआ है। गंगा-यमुना का दूरस्थ कलकत्ता, बम्बई तथा मदरास के विश्वZM AGN यह प्रान्त भारतीयों के विद्यालयों में तो पाली भाषा के अध्ययन-अध्यापन लिए आदर तथा गौरव का स्थान है। काशी, प्रयाग, का प्रबन्ध हो, पर इस प्रान्त के प्रयाग, लखनऊ, अयोध्या, हरिद्वार, मथुरा, वृन्दावन, बदरीनाथ, काशी, अलीगढ़ तथा आगरा, काँगड़ी के विश्वकेदारनाथ, गंगोत्तरी, यमुनोत्तरी आदि तीर्थ-स्थान विद्यालयों में इस विषय की शिक्षा के सम्बन्ध में अध्यात्म-विद्या, ऐश्वर्य तथा पावित्र्य के लिए चुप्पी साधे देखकर किसको हार्दिक दुख हुए बिना भारत में सदैव आदरणीय रहे हैं। यह तो है न रहेगा। ही। संसार के एक महान धर्म-बौद्धधर्म का आज भी पाली भाषा संसार के लगभग ४० करोड़ क्रीड़ास्थल होने के कारण भी यह प्रान्त संसार के भाई-बहनों की धर्म-भाषा है। इस भाषा में लिखा विभिन्न देशों के यात्रियों के लिए तीर्थस्थान हो हुआ साहित्य भारतीय. संस्कृति से ओतप्रोत भरा गया है। भगवान बुद्धदेव का जन्म स्थान (गोरख- हुआ है। भारतीय संस्कृति का अमर सन्देश संसार के पुर-जिले के नौतनवा स्टेशन से ८ मील दूर नेपाल- कोने कोने तक पहुँचाने में इस भाषा ने बड़ी सहायता राज्य में) लुम्बिनी, प्रथमोपदेश-स्थान काशी से ४ की है और आज भी कर रही है। जापान, चीन, मील दूर सारनाथ तथा महापारिनिर्वाण-स्थान ब्रह्मदेश, सिंहलद्वीप, तिब्बत आदि देशों के साहित्य गोरखपुर जिले में कुशीनगर (कसया) है। इसके तथा वहाँ की भाषाओं पर पाली भाषा का खास अतिरिक्त बलरामपुर आदि बौद्धों के प्रसिद्ध प्रभाव आज भी विद्यमान है। यह भारतीय संस्कृति ऐतिहासिक स्थान भा हैं। बौद्धधर्म के पाली भाषा के की विजय-पताका है। साहित्य-निर्माण में इस प्रान्त का भी हाथ रहा है। ऐसी भारतीय भाषा का स्वागत कौन न करेगा!
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १ ]
हमारे प्रान्त के विश्वविद्यालयों में पाली भाषा का अध्ययन
हमारे विश्वविद्यालयों, इण्टर कालेजों तथा हाईस्कूलों में संस्कृत पढ़नेवाले छात्रों की संख्या दिनप्रति-दिन घटती जा रही है । संस्कृत भाषा के प्रति बढ़नेवाली उदासीनता के कारण हमारे युवकों में भारतीय संस्कृति के प्रति न केवल उदासीनता किन्तु घृणा भी जोरों से फैल रही है।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब जब हम लोगों ने अपनी संस्कृति के ठुकराकर दूसरी संस्कृति को अपनाने का प्रयत्न किया है तब तब लाभ के बजाय सदैव हानि ही हुई है। इसलिए भी यह आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति को समझाने में सहायक संस्कृत-भाषा के अध्ययन के औदासिन्य को दूर करने के लिए पाली भाषा का आश्रय हम लोगों को लेना चाहिए ।
पाली (पल्लम् - ग्राम) ग्रामीण भाषा है, जिसे बौद्ध काल में संस्कृत साहित्यिक रूप प्राप्त हुआ था । इसके अध्ययन में विशेष सरलता भी है। मैं यह अनुभव से जानता हूँ कि मेरे साथ पढ़नेवाले एक भाई ने नवीं कक्षा तक द्वितीय भाषा संस्कृत ली थी, पर उसमें वह नवीं कक्षा में जाकर फेल हो गया । मैट्रिक क्लास में उसने अपनी द्वितीय भाषा संस्कृत से बदल कर पाली ले ली और कोचिंग क्लास में जाकर पढ़ी। एक वर्ष में ही उसने उसमें इतनी योग्यता प्राप्त कर ली कि वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ । इससे यह स्पष्ट है कि जो छात्र आज संस्कृत को केवल कठिन समझकर छोड़ रहे हैं वे छात्र इस सरल पाली भाषा को प्रसन्नता से द्वितीय भाषा के तौर पर चुन सकेंगे। हिन्दी से उसका पुराना सम्बन्ध होने के कारण भी इस प्रान्त के युवक उसके अध्ययन में एक विशेष प्रकार के रस का अनुभव करेंगे। साथ ही वे इस बात का भी अनुभव करेंगे कि भगवान बुद्धदेव ने प्राकृत जन भाषा पाली को अपनाकर राष्ट्रभाषाप्रचार का पाठ हमें किस प्रकार आज भी पढ़ा रहे हैं।
युग-प्रभाव से कहिए या यंत्रयुग के कारण बढ़ने बाले भौतिक सुख के कारण कहिए, इस समय नव
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
युवक ईश्वरवाद को जनता को नशा में डालनेवाली अफ़ीम की तरह मान रहे हैं। उनकी इस निराशापूर्ण अवस्था से हम इतना तो अवश्य जान सकते हैं कि बाहर से ईश्वर को मानकर भी भौतिक सुख प्राप्त करने के लिए दुर्बलों को लूटने-खसोटने में जरा भी संकोच न करनेवाले पण्डे-पुजारियों और महन्तों के अन्यायपूर्ण व्यवहार के कारण ही ईश्वर के प्रति यह श्रद्धा बढ़ रही है। रूस का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिन धर्माचार्यों ने ज़ार के जघन्य शासन की निन्दा न करके उसका समर्थन करने में ही अपनी वाणी तथा क़लम का उपयोग किया उन्हीं आचार्यों के कारण रूस में ईसाई धर्म को गहरा धक्का पहुँचा है। इसके यह माने नहीं है कि रूसवाले दुर्बलों
प्रति सक्रिय सहानुभूति रखनेवाले धर्म को नहीं चाहते । रूस के विद्वान बौद्धधर्म के अध्ययन की ओर विशेष रूप से लग रहे हैं । मास्को में बौद्धधर्म के अध्ययन के लिए एक संस्था विशेष रूप से प्रयत्न कर रही है। इससे हम यह समझ सकेंगे कि हमारे देश में फैलनेवाले धर्म के प्रति निराशा को दूर करने में हमको इस पाली और तद् द्वारा बौद्धधर्म के अध्ययन से कितनी सहायता मिलेगी ।
हिन्दू तथा बौद्धधर्म का जो प्राचीन संबंध है उसका जीर्णोद्धार करने में पाली भाषा के प्रचार से विशेष सहायता मिलेगी ।
इन सब बातों की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित करते हुए मैं शिक्षाप्रेमियों, शिक्षा-संस्थाओं के अधिकारियों तथा इण्टर बोर्ड तथा विश्वविद्यालयों के अधिकारियों से साग्रह निवेदन करता हूँ कि वे इस महत्त्वपूर्ण विषय की ओर ध्यान देकर शीघ्र से शीघ्र अपनी अपनी संस्थाओं के अभ्यासक्रम में पाली भाषा को भी स्थान देने की व्यवस्था कर दें । सम्पादकगण तथा अन्य लेखकवर्ग भी इस विषय पर अपने अपने विचार प्रकट करके इस आन्दोलन में हमारा हाथ बँटावें ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
कला-सम्बन्धी एक विचार-पूर्ण लेख ।
सत्यं शिवं सुन्दर
लेखक, श्रीयुत राधामोहन गोकुल जी क) वों के व्यक्त करने का सर्वोच्च और अन्तःक्रिया का हाथ होता है, क्योंकि इन सबका || साधन कला है। कला- प्रभाव उसके मन पर पड़ता है। भाव या विचार
द्वारा ही भाव मूर्त्तिमान वास्तविक जगत के बाद पैदा हुआ है। इस जगत किये जा सकते हैं। कला की चीजों का जो प्रभाव हम पर पड़ता है उन्हीं को के अस्तित्व का हेतु ही हम जानते हैं। निरपेक्ष, निद्वन्द्र और सर्वथा पूर्ण व्यञ्जना या व्यक्तीकरण है। भाव मानवीय मन की गति के बाहर है। हमारा ज्ञान
कला मनोगत विचारों को उन्हीं सम्बन्धों तक परिमित है जो वास्तविक चीजों प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर कर देती है। भावों की पीठ या के पूर्ण योग वार्थान प्रकट विश्व और उसके उस आधार है इच्छा, आकांक्षा, प्रतिभाशालिनी साधा- प्रभाव में है जो हम पर पड़ता है। उचित और अनुरण समझ की निरन्तर मननशीलता, मन का चित का विचार भी हममें अनुभव और विवेक के। मातृत्व और वह प्रबल अनुराग जिसस अवस्थान- निर्णय से ही होता है । वस्तुओं का सौन्दर्य भी भङ्गी, क्रमशः विस्तार, बाह्य रेखा, रंग और उल्लास उसी सम्बन्ध पर निर्भर होता है जो रूपों, रंगों और , का आविर्भाव होता है।
व्यक्त करने के दंगों में होता है और हमम संपृक्त होता ___ यह तो मानना ही पड़ता है कि जिस तरह सर्वथा है। सौन्दर्य का मूल हमें सब के तथ्य में मिलता है, पूर्ण नीतिमत्ता नहीं हो सकती, चैम ही मौन्दर्य भी इन्द्रिय-ज्ञान की परिधि में जान पड़ता है. उस
सा नहीं हो सकता जहां इत्यलम कहने का कार्ड अानन्द में प्रतीत होता है जो हमें अपने वद्धिबल से साहस कर सके । इससे प्रकट होता है कि सौन्दर्य या किसी नवीन याविष्कार या अन्वेपण से मिलता है। आचार सापेक्ष होता है, निरपेक्ष नहीं होता । जहाँ सौन्दर्य प्राणों को उदाधित करता है. निद्रा और तक मनुष्य का व्यापार देखा जाता है, हमें यही प्रतीत प्रमाद को हटाता है, किन्तु यह क्रिया प्रत्ययों, स्मृतियों, होता है कि उसके विचार उसके परिकर से उत्पन्न अनुभवों श्रादि से होती है। होते हैं, उसके विचारों की उत्पत्ति में क्रिया, प्रतिक्रिया कला कल्पना-शक्ति को उत्कर्पित भार उद्रोधित
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
सत्यं शिवं सुन्दर
करती है, अन्तरात्मा को अनुप्राणित करती है। अर्थात् (धर्मयाजक) कहते हैं, स्वर्ग में हूरें मिलेंगी, कल्पना से ही हम अपने को दूसरे की परिस्थिति में आबेकौसर मिलेगा, मद्य की नदी, मधु और शर्करा रखकर विचार करते हैं। यदि कल्पना के पर काट मिलेगी। हे साक़ी ! मुझे एक प्याला आज और दिये जायँ तो स्वामी में सेवाभाव न हो, अत्याचारी दे दे, क्योंकि एक नक़द सहस्रों उधार से बढ़कर है। को दण्ड न मिले। कल्पना-हीन हृदयों को इस बात सच तो यह है कि प्रतिफल के पाने का लालच का पता नहीं लगता कि आत्मोत्सर्गकारी को उसके आते ही दया, धर्म, नेकी, सदाचार और सब प्रकार अत्याचार से किस ज्वाला में जलना पड़ रहा है। की समाज-नीति का सौन्दर्य नष्ट हो जाता है, जिन्दगी कल्पना-शक्तिशील पुरुष जब किसी के दुख को दूर का सारा मज़ा मिट्टी में मिल जाता है। ऐसे लोग जो करता है तब वह अनुभव करता है कि मैंने अपना ही फेरी करके धर्म-पुस्तकें बेचा करते हैं, बात के तथ्य दुख दूर किया है। दयालु हृदय जब किसी को सताया को नहीं जान सकते। कविता, चित्रकारी, दया, प्रेम जाता देखता है तब उसे ऐसा दुख होता है, मानो का भाव तो धरती, आकाश, चाँद, सूर्य, नदी, वह स्वयं सताया जा रहा है और जब वह अत्याचारी पहाड़, समुद्र आदि हमारे हृदय में उत्पन्न करते हैं। यहाँ पर आठमण करके निर्बल-निस्सहाय को बचा लेता दलाली काम नहीं देती। 'सत्यं शिवं सुन्दर' के मन्त्र है तब समझता है कि मैंने अपने निज प्राण और से मुग्ध प्राणी स्वत्व और दायित्व के उस पचड़े में शरीर की ही रक्षा की है। प्रेम और दया आदि नहीं पड़तं जो औरों को पापी और अपने को धर्मात्मा कल्पना-प्रसूत भावनायें हैं।
कहना सिखाता है। इनका मार्ग सीधा है, सुगम है, जिन कवियों और लेखकों ने मनुष्य के मन को स्वतन्त्र है और स्वतः दिखलाई पड़ता है। तभी तो रुग्ण और निर्बलताओं का भाण्डार चित्रित करके उपदेशकों से खैयाम कहता हैउसकी धार्मिक चिकित्सा का उद्योग किया है वे विषय गर मय न खुरी तानः मजन मस्ताँ रा । को ठीक नहीं समझे। मानसिक चिकित्सा का यह गर दस्त देहद तोबः कुनम यजदाँ रा ॥ विधान प्रशस्त नहीं जंचता। यह भी कहना समी- तू फन बिदी कुनी कि मन मय न खुरम । चीन नहीं प्रतीत होता कि नेकी करने का अर्थ पर- मद कार कुनी कि मय गुलामस्त आँरा ॥ लोक के लिए सुख का साधन एकत्र करना है। यह अर्थात यदि तू शराब नहीं पीता तो मस्तों को तो एक स्वार्थ-पूर्ण व्यापारियों की नीति है। अन्तः- ताने क्यों देता है ? तुझे अभिमान है कि तू मद्य नहीं करण को विशुद्ध कल्पना का तो ऐसी बातों में नामों- पीता । हजारों काम तू ऐसे करता है जिसके सामने निशान तक नहीं है, हमें तो इसमें सौन्दर्य का सर्वथा मद्य-पान तो बहुत तुच्छ ठहरता है। अभाव ही दीखता है। व्यापार-बुद्धि-प्रेरित कवियों- कला का प्रेमी उन्मत्त होता है। उसे न घासलेट कोविदा की कवितायें और शिक्षायें तो प्रत्यक्ष ही की परवा होतो है, न चाकलेट की; श्लोल और सत्यता-सौन्दर्य सं हीन हमारे आन्तरिक सुखों को अश्लील का उसे पता ही नहीं रहता। बिना प्रबल हानि पहुँचानेवाली हैं। इसी से तो एक स्थल पर अनुराग के कोई भलाई होती ही नहीं; प्रबल अनुराग खैयाम कहता है
रखनेवाले ही धर्मात्मा हैं। विशुद्ध हृदय की सच्ची गोयन्द बहिश्तो हूरो कोसर बाशद । गतिमति का पता उपदेशकों को नहीं होता। कला जए मयो शहदो शक्कर बाशद ॥ नीति-अनीति के बन्धन से मुक्त होती है। इसका एक जाम बिदेह ज्यादः अभ ऐ साकी। जीवन उसी की खातिर है, इसे दूसरों के झगड़े से नकदे जहजार नसिया बेहतर बाशद ॥ क्या मतलब ?
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
जो कला-रसात्मा दूसरों को शिक्षा देने के लिए नुसार सादृश्य, अनुधर्मता, अनुरूपता आप ढूँढ़ लेती अपनी कला को काम में लाता है वह तो धर्मापदेशक है। विरोध और प्रतिकूलता को हटाती चली जाती है. है, कलारस से छका हुआ उन्मत्त नहीं। इसी प्रकार विरोध में सामञ्जस्य और प्रतिकूलता में अनुकूलता जो कला-कुशल अपनी कला-द्वारा संसार में अनीति उत्पन्न करती हुई अग्रसर होती रहती है।
और अनाचार फैलाने का अभिप्राय रखता है वह भाषा भी चित्रागार है। प्रत्येक शब्द एक प्रस्तुत विट है, कुट्टन है, लम्पटों का दूत है-कला रसोन्मत्त कला है । शब्दों से क्या कान को केवल आवाज ही नहीं है। दिगम्बर और नग्न में, नैसर्गिक शरीर और सुनाई देती है ? नहीं। हाँ, शब्द के सुनते ही एक असज्जित में कहीं बड़ा अन्तर होता है। पवित्रहृदय चित्र हमारे हृदय-पट पर खिंच जाता है। सर्वोत्तम बालक नंगे और ढंके हुए में कैसे भेद कर सकता है ? चित्र तो शब्दों से ही चित्रित होते हैं। कितने ही लज्जा का उद्गम दुर्बुद्धि और पापपरता है। नंगे को सहस्रों वर्ष पुराने शब्द-चित्र आज भी अनूठे और मूर्ख, गॅवार, भद्दा और असभ्य कहेंगे। दिगम्बर को हृदयग्राही प्रतीत होते हैं। पवित्र हृदय समझेगे।
__ अगणित सुधारकों ने समय समय पर भरपूर * नीतिमत्ता क्या है ? यह भी तो क्रिया और चेष्टा की है कि संसार से अनुराग, वासना, इच्छा उठ अवस्था की अनुकूलता (या सामञ्जस्य) का ही नाम है। जाय, पर उठा नहीं सके। अरब में, ईरान में गानवाद्य आचरणों की मिली हुई स्वर-लहरी या मधुर गति और चित्रकारी का बीज लाख उपदेश करने पर भी नीति है। समाज में रहनेवाले की आचरणरूपी वंशी नहीं नष्ट हुआ। इन मानव-स्वभाव के स्वयम्भूत गुणों में बाल न हो, इसी को तो कहते हैं मिल कर बजे के नष्ट होने का अर्थ है मनुष्य-जीवन का ही अन्त
और खटका न हो। गान में सुर-तान की मधुरता, हो जाना। चित्रकारी में रंग-रूप की सारूप्यता, नीति में आचरण संसार की जरूरतों की ही खोज और चिन्ता में की संगतिता का लक्ष्य एक ही है। बड़े बड़े चित्रों यदि मनुष्य पड़ा रहे तो जीवन भार हो जाय, घर और मूर्तियों के निर्माता मजूर नहीं होते। वे अपने कारागार बन जाय, आत्मीय जंगल के हिंसक जन्तु आनन्द के लिए अपनी कल्पना को व्यक्त करते हैं। प्रतीत होने लगें। कला के सहारे जीवन-क्षेत्र फैलता हाँ, वे चित्रकार अवश्य मजूर हैं जो केवल पैसे के है, दीवारें हटती हैं, छत और ऊँची हो जाती है, भावों लिए विशाल चित्र चित्रित किया करते हैं। इसी तरह के स्वतन्त्र विकास का मैदान विस्तीर्ण हो जाता है। अगर चित्रकार नीति सिखलाने का प्रयास करता है दर चश्मे मुहक्तिककाँ चे जेबा व चे ज़िस्त । तो उसे खींचतान का श्रम करना पड़ेगा, उसमें मंजल गहे आशिकाँ चे दोजख चे बहिश्त ॥ स्वाभाविक प्रवाह (रवानी) न होगा, इसलिए वह पोशीदने बेदिलाँ चे अतलस चे सास । चित्रकार नहीं, मजूर कहलायेगा।
ज़रे सरे आशिकाँ चे बालीनो चे ख़िश्त ।। उपन्यास-लेखक, कवि किसी को भी ले लें, जहाँ अर्थात् तस्वदर्शियों की दृष्टि में क्या भला और कल्पना के स्वतन्त्र प्रवाह में कहीं किसी भी बाह्य क्या बुरा ? प्रेमी का स्थान जैसा स्वर्ग वैसा नरक । विचार ने बाधा डाली कि वस्तु की असलियत जाती आपे को भूले हुए मस्तों के पहरने के लिए जैसा रहती है, कृत्रिमता प्रविष्ट होकर सारा सौन्दर्य नष्ट अतलस वैसा पश्मीना। प्रेमियों के सिर के नीचे कर देती है। संसार-रूपी महाविश्वकोष हमारे सामने तकिया (उपधान) हो या ईट दोनों बराबर हैं। खुला पड़ा है, हमारी प्रतिभा इसमें से आवश्यकता
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिक्षाप्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता
लेखक, श्रीयुत खुशहालमणि पर्वतीय, बी० ए०
शिक्षितों में बेकारी की वृद्धि देखकर बहुत-से लोग कहते हैं कि हमारे यहाँ शिक्षा का आवश्यकता से अधिक प्रचार हो गया है । पर बात ऐसी नहीं है। वास्तविक बात यह है कि हमें जैसी शिक्षा चाहिए वैसी नहीं मिलती, इससे हम और भी पंगु होते जाते हैं। इस विषम स्थिति से निकलने का एक मात्र उपाय यह है कि हम अपनी शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन करें। इस लेख में विद्वान् लेखक ने इसी विषय को बड़े सुन्दर ढङ्ग से उपस्थित किया है और बताया है। कि हमारी नवीन शिक्षा प्रणाली का क्या ध्येय होना चाहिए ।
प्र
कृति मनुष्य को पूर्ण पैदा करती है । पूर्णता प्राप्त करने के लिए उसको शिक्षा की आवश्यकता है । शिक्षित मनुष्य पढ़ मनुष्य से लिए श्रेष्ठ है कि उसने अपनी
इस
कमी पूरी की है । शिक्षा का उद्देश ही यही है कि वह मनुष्य को पूर्ण बनावे | परन्तु जिस शिक्षा के पाने के बाद भी मनुष्य अपने को पढ़ मनुष्य की अपेक्षा अधिक असहाय पावे तो यह समझ लेना चाहिए कि वह शिक्षा शिक्षा नहीं, उसमें कोई दोष अवश्य है । विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ शिक्षा का प्रेम सबसे पहले मनुष्य के हृदय में अंकुरित हुआ था और उसका व्यापक प्रभाव भी पड़ा था । परन्तु आश्चर्य है कि ब्रिटिश राज्य जैसे सभ्यतम राज्य के अधीन एक सौ सत्तर वर्ष से रहते हुए भी भारत शिक्षा के अन्धकार में
बा हुआ है । परन्तु इसके विपरीत कुछ लोगों की यह धारणा भी है कि शिक्षितों का इतने अधिक परिमाण में बेकार होना इस बात को सिद्ध करता है कि भारत में शिक्षा की गति बहुत तेज़ है और इसको कुछ धीमी करने की आवश्यकता है । परन्तु यह दृष्टिकोण ग़लत है । बेकारी का उग्र रूप धारण करना शिक्षा के अधिक प्रचार से नहीं, बरन् शिक्षा प्रणाली की दोष- पूर्णता से या कुशिक्षा के प्रचार से है। सच्ची शिक्षा तो मनुष्य को बेकार बनाने ११
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठता से जीविका उपार्जन करने के योग्य ही बनाती है । इसलिए शिक्षा के प्रचार को कम करना बेकारी की दवा नहीं है। हाँ, शिक्षा-प्रणाली को अधिक उपयुक्त बनाने से उद्देश की सिद्धि हो सकती है ।
सरकार के शिक्षा-विभाग की रिपोर्ट के अनुसार शिक्षित नरनारियों का प्रतिशत सन् १६२१ में ७२ था । सन् १९२७ में पुरुष - जन संख्या का केवल ६°६१ प्रतिशत और स्त्री- जन-संख्या का केवल १९४६ प्रतिशत स्कूलों में शिक्षा पा रहा था । सब स्कूलों और कालेजों की सम्पूर्ण उपस्थिति का जोड़ भारतवर्ष में सन् १६२१-२२ में ७५ लाख था । इसमें से लगभग ५० लाख तो प्राइमरी या प्रारम्भिक स्कूलों की पहली कक्षा (बाल - कक्षा मिलाकर ) में थे और बाक़ी एक तिहाई प्राइमरी स्कूलों की बाकी तीन कक्षाओं और विश्वविद्यालयों और कालेजों के सहित अन्य सम्पूर्ण शिक्षा संस्थानों में था । बालकों की अधिक संख्या पहली कक्षा में ही छूट जाती है और प्राइमरी स्कूलों की पहली कक्षा में भर्ती होनेवाले बालकों की संख्या का केवल १६ प्रतिशत ही चौथी कक्षा तक पहुँच पाता है । पहली कक्षा के बच्चे लिख-पढ़ नहीं सकते और जो थोड़ा-बहुत उन्हें सिखला दिया जाता है उसे वे जल्दी ही भूल जाते हैं । हाल की सरकारी रिपोर्ट में इस बात की गम्भीर प्रतिध्वनि है कि ये अंक जिस अपव्यय और अशिक्षा का पता देते हैं वह भयानक है ।
www.umaragyanbhandar.com -
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
सरस्वती
जहाँ प्राइमरी स्कूलों की अवस्था इस प्रकार श्रव्यस्थित है, वहाँ रात्रि - पाठशालों या सयानों के लिए शिक्षा की व्यवस्था होने की आशा करना भ्रममात्र है ।
माध्यमिक शिक्षा प्रदान करनेवाले स्कूल भी पर्याप्त शिक्षा के विचार से बहुत ही पिछड़े हुए हैं । जो शिक्षा उनमें दी जा रही है वह विदेशों में वैसे ही स्कूलों में दी जानेवाली शिक्षा की अपेक्षा बहुत निम्नकोटि की है और शिक्षा को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए बहुत ही पर्याप्त है। ये स्कूल इस बात में भी दोष-पूर्ण हैं कि इनमें बालकों को केवल साधारण शिक्षा ही दी जाती है - व्यावसायिक शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। ऐसे स्कूल बहुत थोड़े हैं जिनमें कृषि, व्यापार या शिल्प-कला की शिक्षा दी जाती हो । जो हैं भी वे बहुत पूर्ण हैं । उस प्रकार की कृषि, व्यापार और शिल्प-कला आदि का जो पाठ्यक्रम इंग्लैंड के सेन्ट्रल स्कूलों में प्रचलित है उसके प्रचलित होने की यहाँ के स्कूलों में श्राशा करना व्यर्थ है ।
उक्त सरकारी रिपोर्ट में माध्यमिक स्कूलों के विषय में लिखा है – “मेट्रिकुलेशन और विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में फेल होनेवालों की अत्यधिक संख्या शिक्षाप्रचार के प्रयत्न की हान् असफलता और अपव्ययता का द्योतक है । व्यवसाय और शिल्प सम्बन्धी शिक्षा प्रदान करने का जो उद्योग किया गया है उसका साधारण शिक्षा-प्रणाली से कोई सम्पर्क नहीं है, फलतः वह अपने उद्देश में असफल हुआ है ।"
विश्वविद्यालयों की तुलना उन वृक्षों से की जा सकती है जिनका मूल प्राइमरी स्कूल-रूपी पृथ्वी की गहराई में घुसा हु है । ये वृक्ष अपनी खाद और बल माध्यमिक स्कूलों से प्राप्त करते हैं । जहाँ ये दोनों दुर्दशा ग्रस्त और सदोष हों, जहाँ विद्यार्थियों का व्यावसायिक पाठ्यक्रम की ओर झुकने के लिए व्यवस्था ही न हो, जहाँ लगभग प्रत्येक छात्र एक ऐसे पाठ्यक्रम को पढ़ने के लिए बाध्य हो जो उसको एक मामूली क्लर्क के काम को छोड़कर और सब कामों के अयोग्य बनाती हो, वहाँ कोई आश्चर्य नहीं है यदि विश्वविद्यालयों को बिना विचार के
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
ऐसे छात्रों को भर्ती करना पड़ता है, जो विश्वविद्यालय की शिक्षा पाने की क्षमता नहीं रखते हैं और अधिक - तर दूसरे प्रकार के जीवन-क्रम में सफल हुए होते। प्रकृत दशा में विश्वविद्यालयों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे पाठ्यक्रम की कक्षा को जितना ऊँचा चाहें, कर लें । इसलिए यह स्पष्ट है कि ऐच्छिक सुधार और उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि सार्वजनिक अनिवार्य और निःशुल्क प्रारम्भिक शिक्षा की राष्ट्रीय प्रणाली एवं श्राकर्षक व्यावसायिक पाठ्यक्रम से युक्त माध्यमिक शिक्षा का प्रचार और उपयोग किया जाय। इसी मार्ग पर चलने से वर्तमान असन्तोषप्रद स्थिति से छुटकारा मिल सकता है ।
विश्वविद्यालयों और कालेजों से निकले हुए स्नातकों की बेकारी का यह कारण है कि विश्वविद्यालय भी छात्रों को जीविका की उपयुक्त शिक्षा प्रदान करने के लिए भिन्न भिन्न पाठ्यक्रमों से युक्त नहीं हैं । इसलिए साधारणतः वे छात्र जो कला या शुष्क विज्ञान की डिग्री प्राप्त करते हैं, अध्यापकी या शासन प्रबन्ध के किसी पद को छोड़कर और किसी काम के योग्य नहीं होते। लेकिन स्कूल, कालेज और सरकारी नौकरियाँ हर साल बहुसंख्या में निकलनेवाले स्नातकों में से इने-गिनों को ही जीविका प्रदान कर सकती हैं। रोज़गार और व्यवसाय की शिक्षा का पाठ्यक्रम न होने से बहुत-से छात्र क़ानून पढ़ने को बाध्य होते जहाँ उनको निराशा ही निराशा है । इसलिए इस रोग का उपचार तो इसी में है कि उपयुक्त प्रकार के व्यापारिक, कृषि सम्बन्धी, शिल्पकला-सम्बन्धी तथा इंजीनियरिंग की शिक्षा उचित मात्रा में प्रदान करने की व्यवस्था की जाय। यह कहना कि कृषि और व्यापार में अधिक लोगों की आवश्यकता नहीं है, बुद्धिमानी का उत्तर नहीं है । शिक्षा को इस प्रकार व्यावहारिक बना होगा कि उसकी माँग हो सके — और इस माँग को भी बढ़ाना ही पड़ेगा। सरकार और विश्वविद्यालयों को नवयुवकों को उचित शिक्षा देने के लिए सहयोग से कार्य करना और उनके लिए उपयुक्त जीविका के द्वार निश्चित करना होगा । भिन्न भिन्न सार्वजनिक विभागों में से कोई भी, एक विभाग किसी असीम संख्या में शिक्षितों को नहीं खपा
www.umaragyanbhandar.com
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
शिक्षाप्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता
सकता, परन्तु सब विभाग मिलकर उसका अधिकांश खपा सकते हैं ।
वर्तमान- शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि बीस बरस तक स्कूल और कालेज की शिक्षा प्राप्त करने पर भी बेचारा भारतीय युवक अपना, अपनी पत्नी और बच्चों का तथा अपने माता-पिता का पालन करने में असमर्थ रहता है । इसलिए इसमें श्रामूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है। बालक की शिक्षा का प्रारम्भ उसी समय से होना चाहिए जब से वह माता के गर्भ में आता है । इसके लिए युवकों और युवतियों को माता-पिता होने के पहले ही शिक्षित करना होगा । जिस प्रकार इंग्लेंड या दूसरे देशों में अपने पने देश काल के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था होती है, उसी प्रकार हमें भी अपने देश काल के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। इंग्लैंड में माता भी शिक्षित, पेता भी शिक्षित और पड़ोसी भी शिक्षित होते हैं । वहाँ नगभग प्रत्येक व्यक्ति को विद्यालय से लाभ उठाना ही पड़ता है । शिक्षा संस्थायें और शिक्षा सम्बन्धी प्रत्येक कार्य - कम एक दूसरे से सहयोग करते हैं। समाचारपत्र और पुस्तक प्रत्येक के हाथ में रहती है। प्रत्येक सम्भव उपाय पे पढ़ने-लिखने और ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा को प्रोत्साहन दिया जाता है- जनता के हृदय में शिक्षा के प्रेम ने अपनी जड़ जमा ली है । वहाँ शिक्षा जीवन की एक श्रावश्यक वस्तु हो गई है। इस बात का तन-मनवन से प्रयत्न किया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति जन्म से लेकर जीवनान्त तक प्रत्येक दशा में शिक्षा प्राप्त कर सके । इसी प्रकार के वातावरण में अँगरेज़ बच्चे का जन्म और पालन-पोषण होता है । क्या बाल-पाठशाला में, क्या प्रारंभिक पाठशाला में, क्या माध्यमिक स्कूल में और क्या शिल्प-स्कूल में, सब कहीं बड़ी तत्परता, रुचि और मनोयोग से उसकी शिक्षा होती है और अन्त में जब वह स्कूल से निकलता है तब उपयुक्त रोज़गार के सर्वथा योग्य होता है और इसमें भी उसकी समुचित सहायता की जाती है । यदि वह विश्वविद्यालय में प्रवेश करता है तो इसके लिए भी वह पूर्ण रूप से तैयार होता है और उत्साह एवं उच्चाभिलाषा से भरकर वह उच्च शिक्षा प्राप्त करने
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
१३
में जुटता है । यदि भारतीय युवक को भी ऐसी ही परिस्थितियाँ प्रदान की जायँ, उसको भी समुचित अवसर और सुविधायें प्राप्त हों, तो वह भी जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है ।
भारतवर्ष के बाहर अँगरेज़ी भाषा की उपादेयता चाहे कितनी ही अधिक क्यों न हो, पर यहाँ तो लाभ की अपेक्षा उससे हानि ही अधिक हुई है । योग्यता प्राप्त करने के मार्ग में यहाँ वह तो नाधक ही हुई है । हमारे स्कूलों में शिक्षा का माध्यम सात समुद्र पार की एक विदेशी भाषा बनाई गई है। संसार के किसी सभ्य देश में शिक्षा का ऐसा स्वाभाविक माध्यम नहीं है । यद्यपि भारत में 'कुछ प्रान्तों में शिक्षा तथा परीक्षा के लिए कुछ विषयों में देशी भाषा का माध्यम स्वीकार किया गया है, तो भी अँगरेज़ी का प्रयोग अभी बहुत ही व्यापक रूप से होता है। यहाँ बालक सात वर्ष की ही अवस्था से अँगरेज़ी पढ़ना प्रारम्भ कर देता है और उसी समय से मातृभाषा की शिक्षा की उपेक्षा शुरू हो जाती है । फल यह होता है कि उस समय से लेकर स्कूल छोड़ने के समय तक उसका बहुमूल्य समय ऐसी भाषा की जानकारी प्राप्त करने में नष्ट होता है 'जिसके शब्दों के हिज्जे याद करना किसी भी विदेशी को पागल बना सकता है।' भारतीय जनता के जितने धन और परिश्रम एवं समय का इस प्रकार विनाश होता है उसका हिसाब लगाना कठिन है । कालेज की शिक्षा की भी यही दशा है । तिस पर तुर्रा यह कि कभी कभी कतिपय मनचले शिक्षा निरीक्षक यह कहते हुए संकोच नहीं करते कि हमारे युवकों में बहुत थोड़े ही अँगरेज़ी में शुद्धता से अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। जब स्वयं पूज्य मालवीय जी ऐसे अँगरेज़ी में धारा प्रवाह वक्तृता देनेवाले महापुरुष यह स्वीकार करते हैं कि “सात' वर्ष की अवस्था से लेकर आज तक लगातार अँगरेज़ी पढ़ने पर भी मैं अँगरेज़ी में उसकी आधी आसानी और विश्वास से नहीं बोल सकता जिस प्रकार कि अपनी मातृभाषा में" तब समझ में नहीं आता कि इन स्कूलों और सरकारी दफ़्तरों में अँग
१ - कनवोकेन ऐड्रेस हि० वि० वि० १९१६
www.umaragyanbhandar.com
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
रेज़ी के व्यवहार का क्या प्रयोजन है ? वर्षों के परिश्रम के कर हम अपने छात्रों का बहुत बड़ा अपकार कर रहे हैं । पश्चात् भी हमारे नवयुवकों को अपना काम चलाने भर की भला अपने जीवन में सम्पादक या व्यापारी का काम भी अँगरेज़ी में योग्यता नहीं होती । अँगरेज़ी के माध्यम- करनेवाले छात्र के लिए स्कूल में पढ़ाये जानेवाले द्वारा पढ़े हुए किसी भी शास्त्र की पूर्ण योग्यता उन्हें नहीं रेखागणित या बीजगणित किस प्रयोजन के हैं ? वर्ष होती। अतः राष्ट्रीय शिक्षा की समुन्नति तब तक नहीं हो में तीन बार अपने विषय की परीक्षा पास करने का सकती जब तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा नहीं होता। अवसर प्रत्येक छात्र को मिलना चाहिए। इंग्लैंड और
परन्तु श्रीमती सरोजनी नायडू और प्रिंसपल शेषाद्रि दूसरे देशों में तीन-चार ऐच्छिक विषयों में से किसी ऐसे विद्वान् अँगरेज़ी को ही शिक्षा का माध्यम बनाने पर एक या दो की परीक्षा कोई भी छात्र प्रथम अवसर ज़ोर देते हैं। यह आश्चर्य की बात है, क्योंकि भारतवर्ष की परीक्षा में पास कर सकता है और बाकी विषयों की संस्कृति संसार की किसी भी संस्कृति से हीन नहीं है। को तीन मास पश्चात् होनेवाली दूसरी परीक्षा में पास कर फिर हमारी भाषा भी ऐसी नहीं है कि उसमें उच्च विचार लेता है । यह बड़े सुभीते की बात है। यहाँ ऐसा मिडिल न प्रकट किये जा सकें। जब काशी-विद्यापीठ, कांगड़ी- स्कूल की पढ़ाई समाप्त होने पर ही करना उचित होगा। गुरुकुल, हिन्दू-विश्वविद्यालय तथा उस्मानिया-विश्वविद्या- यहाँ तक पहुँचने पर छात्र अपना उत्तरदायित्त्व समझने लय ऐसी संस्थायें देशी भाषाओं के द्वारा ऊँची से ऊँची लग जाते हैं । विशेष विषयों के प्रति प्रत्येक छात्र की रुचि शिक्षा सफलतापूर्वक दे रही हैं और जिनकी प्रशंसा पहचानने के लिए मिडिल क्लास तक की पढ़ाई पर्याप्त मेकेंज़ी साहब जैसे शिक्षा के विशेषज्ञ उच्च अधिकारी भी है। उसके पश्चात् उसके ऊपर अरुचिकर विषयों की स्वयं कर चुके हैं तब कोई कारण नहीं देख पड़ता कि पढ़ाई का भार नहीं लादना चाहिए । अनुभवी और हमारे बालकों के ऊपर अँगरेज़ी-भाषा का भार लादा जाय। शिक्षित अध्यापक और स्वयं छात्र भी यह बहुत अच्छी
जैसा कि मैं ऊपर कह चुका हूँ, प्राइमरी स्कूलों से ही तरह कह सकते हैं कि उनकी रुचि किस विषय की शिक्षा के पाठ्य-क्रम में कई विषयों-(व्यावसायिक, चित्र- अोर है। कला तथा शिल्प-सम्बन्धी) का समावेश होना चाहिए, देशी भाषाओं में शिक्षा का माध्यम करने के साथ जिससे उपयुक्त बालक को उपयुक्त शिक्षा दी जा सके। साथ शिक्षा का स्टैण्डर्ड अाज की अपेक्षा ऊँचा करना सबकी रुचि एक नहीं होती-'मुंडे मुंडे रुचिर्भिन्ना'। हर होगा, जिससे साधारण नागरिकता के लिए मिडिल स्कूल एक मनुष्य प्रतिभावान् होता है, ऐसा मेरा विश्वास है। की पढ़ाई पूर्ण साबित हो सके। अध्यापकों और छात्रों में परन्तु उसकी प्रतिभा अपने विषय को पाकर ही विकसित अधिक प्रेम और अधिक सम्पर्क स्थापित करने के लिए होती है। प्रत्येक छात्र साहित्य, गणित, भूगोल, इतिहास, यह उचित होगा कि प्रारम्भिक कक्षात्रों को छोड़कर विज्ञान, चित्रकला एवं शिल्पकला में एक साथ ही रुचि बाकी कक्षाओं के छात्रों के लिए अनिवार्य रूप से नहीं रख सकता । बीजगणित या रेखागणित की जो शिक्षा रेज़िडेंशल स्कूल होने चाहिए। ये स्कूल केवल किताबी हाईस्कूलों में दी जाती है वह उन छात्रों के किस काम की है शिक्षा देनेवाली या अकर्मण्य पुरुष पैदा करनेजो उन विषयों के पढ़ने में रत्तीभर रुचि नहीं रखते और उनको वाली संस्था न बनाये जायें। व्यावहारिक ज्ञान की भारस्वरूप ही समझते हैं । साधारण व्यावहारिक जीवन के आवश्यकता जिस प्रकार कालेज में पूर्णता को प्राप्त लिए प्रत्येक शास्त्र के जितने ज्ञान की आवश्यकता है। होनी चाहिए, उसी प्रकार उसका प्रारम्भ स्कूल से ही उतना आज-कल के अँगरेजी स्कूलों की आठवीं कक्षा तक हो जाना चाहिए । परन्तु जब यहाँ के कालेजों में ही की पढ़ाई में प्राप्त हो जाता है। आठवीं कक्षा के बाद सब व्यावहारिक शिक्षा नहीं दी जाती है तब स्कूलों की क्या विषय ऐच्छिक होने चाहिए । वर्तमान क्रम को जारी रख- बात है। स्कूल या कालेज से निकले हुए छात्र मामूली
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
देहाती पढ़ की अपेक्षा व्यावहारिक ज्ञान में बिलकुल कच्चे ही रहते हैं । और तो और, वे गेहूँ, धान या कपास का पौधा तक नहीं पहचानते । रेज़ीडेंशियल स्कूलों में यह प्रबन्ध अच्छे प्रकार हो सकेगा कि वर्ष में कुछ सप्ताह के लिए वे व्यावहारिक शिक्षा देने के लिए, प्रकृति का निरीक्षण करने के लिए कारखानों या देहातों में ले जाये जायँ ।
शिक्षाप्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता
शिक्षा का महत्त्व इसी में है कि वह हमारे बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक भावों को सुषुप्ति से जाग्रत करती है तथा संकुचित अवस्था से विकसित अवस्था लाती है। शारीरिक विकास भी इसी की परिधि के अन्तर्गत है । मनुष्य शिक्षा की वास्तविक पूर्णता तब तक नहीं प्राप्त कर सकता जब तक उसकी शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक एवं श्राध्या - त्मिक शक्तियों का एकरस विकास न हो जाय । निरा ज्ञानसंग्रह शिक्षा नहीं है । यदि कोई मनुष्य शिक्षित कहलाने का अधिकारी है तो उसमें दृढ़ नैतिक विश्वास, श्राचरण की सभ्यता और दूसरों को समझने की शक्ति होनी चाहिए । शिक्षा का अर्थ यह नहीं है कि अमुक भाषा पढ़ी जाय । कोई मनुष्य एक अक्षर भी किसी भाषा का न जानता हो, परन्तु यदि वह विचारवान् विवेकी, विश्वासपात्र, पक्षपात हीन और धर्मात्मा है, यदि उसे इस बात का ज्ञान है कि मेघ कैसे बनते हैं, वर्षा का आवि - र्भाव कहाँ से होता है, एक ऋतु का अनुगमन दूसरी ऋतु कैसे करती है, स्वास्थ्य किस प्रकार बनाया जा सकता है, यदि वह भले प्रकार जानता है कि इस जगत् में उसके कर्त्तव्य क्या एवं उसके जीवन का उद्देश और अर्थ क्या है, यदि वह दूसरे प्राणियों सुख-दुःख को समझता है और ईश्वर की शक्ति और अपनी श्रात्मा में विश्वास रखकर कार्य करता है, तो वह वास्तव में शिक्षित मनुष्य है। प्रयाग-विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा अर्पण किये गये मानपत्र के उत्तर में राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्रप्रसाद ने उस दिन कहा था - " शिक्षा का ध्येय मनुष्य तैयार करना है । मनुष्य से मेरा अर्थ उस व्यक्ति से है जो ज्ञानी और दयावान् एवं सच्चा सेवक है। मनुष्य कई प्रकार के होते
| पुस्तकें पढ़ लेने से कोई ज्ञानवान् नहीं हो सकता
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
.
१५
. यदि आपने पुस्तकों को अपने मस्तिष्क में भर लिया अथवा लाद लिया तो श्राप मनुष्य नहीं बन सकते । पुस्तकों के ज्ञान तथा उस पर मनन करने से आप मनुष्य बन सकते हैं । धर्म और सचाई पर चले बिना पुस्तकों का ज्ञान अधूरा है । विद्या और ज्ञान में अन्तर है । हमारे विश्वविद्यालयों में विद्या का अंश अधिक होता हैज्ञान की ओर ध्यान नहीं दिया जाता ।"
भारत में शिक्षा की उपेक्षा जिस भयानकता से की गई है अथवा की जा रही है उसकी ओर बहुत कम लोगों का ध्यान गया है । इन सहस्रों नये ढंग के स्कूलों और बड़े बड़े कालेजों की इमारतों से यह समझना कि भारत में शिक्षा का प्रचार हो रहा है, भूल है । ये स्कूल और कालेज भारतवर्ष के प्रतीक नहीं, ये भारतीय सभ्यता के द्योतक नहीं, इनमें भारत की संकृति की छाप नहीं ।
हम यह अप्राकृतिक, अनुपयुक्त एवं भारतीय शिक्षा पुरुषों एवं स्त्रियों दोनों के ऊपर लाद रहे हैं । हम लोग अपनी कन्याओं को भी ऐसे ही पाठ्यक्रम को पढ़ने को कहते हैं जो हमारे नवयुवकों को पढ़ाया जाता है और इस बात का तनिक भी विचार नहीं करते कि इसका परिणाम क्या होगा । स्त्रियों और पुरुषों की प्रकृति में प्राकृतिक वैषम्य है । उनकी शिक्षा पृथक् एवं भिन्न पद्धति पर होनी चाहिए । सहशिक्षा से केवल शिक्षा-विषयक हानि ही नहीं होती, बरन चारित्रिक निर्बलता भी उत्पन्न होती है । फिर स्त्रियों की शिक्षा स्त्री-समाज के मध्य में होनी चाहिए । भारत का जीवन गार्हस्थ धर्ममय है - श्रर्थात् सम्मिलित जीवन; वह निर्द्वन्द्व और उच्छृङ्खल नहीं है ।
भारत की विशेषता श्राध्यात्मिकता से है, भौतिकता से नहीं । उसका सानिध्य प्रकृति से है, विलासिता और ऐश्वर्य से नहीं । उसकी संस्कृति का संस्कार एवं विकास सादगी, नम्रता, त्याग और तप के वातावरण में हुआ है- धूर्तता और दिखावट में नहीं । भारतीयता हृदय और मस्तिष्क के मेल में है - कोरा मस्तिष्क नहीं । जब तक योरप की नकल को छोड़कर स्वतन्त्र रूप से भारतीयता के आधार पर हम अपने विद्यालयों का पुनस्संस्कार नहीं कर लेते तब तक भारत ऐसी ही दयनीय दशा को प्राप्त रहेगा ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
· सरस्वती
[भाग ३६
हम लोग योरप और अमरीका एवं जापान जाकर ही है। क्योंकि उस दशा में उसको अपनी हर वस्तु में उनकी शिक्षाप्रणालियों से प्रभावित होते हैं और वैसा ही दोष ही दोष और दूसरों की हेय वस्तु तक में गुण ही गुण
आदर्श यहाँ भी स्थापित करना चाहते हैं। हमारा यह दिखाई देते हैं। हम लोगों की आज यही दशा है। हम दृष्टिकोण ग़लत है, हमारा अपना अादर्श होना चाहिए, हर एक बात में-खान-पान में, बोल-चाल में, आचारजिससे जिस प्रकार हम विदेशों की प्रणाली पर मोहित होते व्यवहार में एवं शिक्षा में हम परमुखापेक्षी हैं और दूसरों हैं उसी प्रकार विदेशी लोग हमारी प्रणाली पर मोहित हों। की वस्तुओं को अपना आदर्श समझने लग गये हैं। अन्धाधुन्ध का अनुकरण कल्याणकारक नहीं हो सकता। विज्ञान की बात छोड़ दीजिए । हमारे विश्वविद्यालयों के अनुकरण होना चाहिए तात्त्विक बातों का बाह्याडम्बर स्नातक आज दर्शन-शास्त्र, ज्योतिष-शास्त्र, यहाँ तक कि का नहीं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हिन्दी और संस्कृत में भी विशेषता प्राप्त करने के लिए हम पुरुषत्व एवं नारीत्व दोनों में अपना आदर्श इंग्लेंड आदि देशों को जाते हैं और वहाँ के विद्वानों-द्वारा रक्खें।
हिन्दी-संस्कृत तथा दर्शन में परीक्षित होकर उपाधि___ दूसरों की रहन-सहन एवं दूसरों के प्राचार-विचार पर विभूषित होकर अपने को धन्य समझते हैं । यह हमारी मोहित होना किसी संस्कृतिशील जाति के लिए अनिष्टकारक दुर्दशा का कितना दयनीय चित्र है।
-
सरल समस्या
लेखक, श्रीयुत जीवन, एम० ए० अगणित सपने ले लेकर,
जीवन की अन्तिम घड़ियों, रवि नित प्रति मुसकाता है।
से पहले ही क्षय होती ।। झूठे सपनों की नभ में,
जीवन तो मधुमय होता, नित चिता जला जाता है ।
पर मृत्यु सुधा ही होती। राकापति भी आता है,
सुख जीना अथवा मरना-- दल-बल से साज सजाकर ।
यह सरल समस्या होती ।। अपने मिटने से पहले, हम जिसे आज डरते हैं,
जाता है सभी मिटाकर । करते उसकी अगवानी। ये जीवन की अरमाने,
'जीवन' तेरा भी जीवन, यी हा ! ऐसी ही होती।
बन जाता अमर कहानी ।।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिवप्रसाद गुप्त
बाबू
लेखक, श्रीयुत सीतलासहाय
हिन्दी-लिपि और हिन्दी-साहित्य का गर्व करनेवाले बहुत हैं परन्तु कड़ाई के साथ अपने जीवन में उस गर्व को निभानेवाले एक मात्र बाबू शिवप्रसाद गुप्त ही हैं। राष्ट्र के साथ साथ उन्होंने राष्ट्र-भाषा की भी अभूतपूर्व सेवा की है। हमारे विशेष अनुरोध से बाबू सीतलासहाय ने आपके आदर्श जीवन की कुछ बातें यहाँ बताई हैं।
बाबू शिवप्रसाद जी गुप्त के यहाँ अतिथि होने का
सौभाग्य मुझे इस वर्ष वैशाख में करीब एक वर्ष के बाद प्राप्त हुआ । ‘सेवा-उपवन' वहीं स्थित है जहाँ गत वर्ष था। सुन्दर और सुगन्धित पुष्पों की क्यारियों और वृक्षों से तथा नाना प्रकार की लताओं और वल्लरियों से युक्त सेवाउपवन की वाटिका पूर्ववत् मनोहर है । श्री गंगा जी की उज्ज्वल धारा ग्राज भी इस उपवन की दूसरी मंज़िल से विश्वनाथ की निवास-भूमि काशी नगर
को परिष्कृत करती हुई दिखाई देती है । किन्तु यहाँ एक बहुत बड़ी तब्दीली यह श्रा गई है। कि इस उपवन का स्वामी इस विशाल और रमणीक स्थान को छोड़कर सेवाउपवन के हाते के भीतर
1
ही एक फूस की झोपड़ी में निवास कर रहा है । उदारचरितों के मन में जीवन के किसी न किसी काल में जीवन की मधुर और मनोहर चीज़ों से एक प्रकार की अरुचि पैदा हो जाती है । जिन चीज़ों की प्राप्ति की अभिलाषा में साधारण पुरुष अपना सारा जीवन व्यतीत करते हैं उन्हीं चीज़ों से ये लोग दूर भागने लगते हैं। पूर्वीय संस्कृति में पले हुए व्यक्तियों में तो इस भावना का उदय और भी विशेषता से होता
Tree Sudharmaswami. Cyanbhandar-Umara, Sural
है । पिछले सत्याग्रह आन्दोलन के बाद से बाबू शिवप्रसाद जी सेवा उपवन के मुख्य भवन में न रहकर निकटस्थ एक पर्णकुटी में रहते हैं, जिसमें पहले पुस्तकालय था ।
इस मर्तबा एक वर्ष के बाद मुझे गुप्त जी से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था । अपनी पर्णकुटी में फूस के बरामदे के नीचे वे हैरिंगटन चेयर पर बैठे थे, जहाँ कभी कभी गरम 'हवा का झोका हम सब लोगों को वास्तविक
लू का मज़ा चखा देता था । डेढ़ फुट लम्बाचौड़ा एक छोटा स्टूल उनके पास रक्खा था, जिस पर वे दो-चार चीजें रक्खी हुई थीं जिन्हें वे अपनी नज़र के सदा सामने रखते हैं । श्राश्रम - भजनावलि, गीता, तकली का छोटा बक्स, एक साधारण क़लमदान जिसमें लिफ़ाफ़ा खोलने की सलिया भी मौजूद थी, उस
स्टूल पर रक्खा था। एक टेलीफ़ोन भी पास ही लगा हुआ था, मानो वह इस बात का प्रमाण था कि इस स्थान पर पूर्वीय और पश्चिमीय सभ्यता का मधुर सम्मिश्रण हो रहा है।
जिसने बाबू शिवप्रसाद जी को दो-तीन वर्ष पहले देखा है उसे अब उन्हें पहचानने में कठिनाई होगी। दो आँखों का और चार अंगुल चौड़े माथे को छोड़कर
www.umaragyanibhandar.com
210
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[ भाग ३६
ललाट-पट को विशेष रूप से रेखाङ्कित कर दिया है। उनकी पिछली बीमारी बड़ी भयंकर थी। उनसे कम संयम और सम्पत्ति का मनुष्य फ़ालिज के ऐसे प्रबल प्रकोप से नहीं बच सकता था। ईश्वर की कृपा है कि इस भयंकर रोग ने उनकी प्रकृति में हलकी-सी बेसबरी के अलावा और कोई भी दुष्प्रभाव नहीं छोड़ा। हमारा मतलब यह नहीं है कि गुप्त जी बिलकुल नीरोग हैं। अभी तक वे चल-फिर नहीं सकते और न हर एक चीज़ खा-पी ही सकते हैं । अओषधि का सेवन अभी तक जारी है।
में बैठा ही था कि टेलीफ़ोन की घंटी घनघना उठी। गुप्त जी ने रिसीवर उठाकर कान से लगाया। रिसीवर ज़रा तेज़ किस्म का था, इसलिए कुछ आवाज़ बाहर भी सुनाई देती थी।
"हलो !” गुप्त जी ने कहा,
“हलो !” पुकारनेवाले महाशय बोले । [श्री शेरसिंह-दौहित्र व उत्तराधिकारी। अवस्था १८
"फर्माइए" गुप्त जी बोले । वर्ष, बनारस-हिन्दू-विश्वविद्यालय के द्वितीय वर्ष के छात्र ।
"का क क का के कोक के को' । इङ्गितज्ञ के पास उनकी वदनाकृति से उनकी मनोदशा
टेलीफ़ोन से आवाज़ आई, जैसे कठपुतलीवाले बोलते जानने के लिए अब और कोई साधन बाकी नहीं रह गया
हैं, जिसका अर्थ मैंने समझा कि श्राप कहाँ से बोल रहे हैं । है। बालों की विपुल वृद्धि से उनका मुखमण्डल सम्पूर्ण
“सेवा-उपवन से" । गुप्त जी बोले । रूप से आच्छादित रहता है। उनके होंठ और ठुड्ढी
“कहाँ से ?” फिर आवाज़ पाई। पर की प्रचुर उपज उनकी मधुर मुसकराहट को राहु के
“सेवा-उपवन से' । गुप्त जी ने फिर कहा । समान ग्रस लेने को सदा सावधान रहती है । और दर्शक
"नहीं सुना।” पर यह असर पड़ता है कि शायद दिन भर में वे किसी
“सेवा-उपवन से !” शिवप्रसाद जी ने बहुत | भी समय मुसकराते न हों। पहले-पहल पहुँचने पर ज्यों
सहूलियत से समझाया। ही मैंने उनके समक्ष जाकर प्रणाम किया, मैंने देखा कि
"अापका नाम ?" मेरे सत्कार के लिए उनके चेहरे पर वही पहले की-सी
"शिवप्रसाद गुप्त" मुसकराहट चमक गई। लेकिन वह मुसकराहट उनके
"अायें !" दाढ़ी और मूछों में उसी प्रकार उलझकर रह गई जैसे
"शिवप्रसाद गुप्त"। आश्विन मास में हलके मेघों से आच्छादित आकाश में
"कौन ?" चन्द्रमा की ज्योति कभी-कभी फँस कर रह जाती है। "शिवप्रसाद गुप्त"। । आँखों में मैंने पूर्ववत् स्नेह पाया, किन्तु ललाट पर कुछ मैंने देखा कि बाबू शिवप्रसाद जी की पेशानी पर शिकन आ गई है। दोनों भ्रप्रदेश साधारण आघात पर शिकन आ गई। भी आसानी से निकटतर अा जाया करते हैं। और मुझे यह "श्रापका नाम ?” फिर टेलीफ़ोन से पुकारनेवाले देखकर दुख हुआ कि पिछले १२ मास की बीमारी ने उनके ने पूछा ।
www.umaragyanbhandar.coms
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १ ]
बाबू शिवप्रसाद गुप्त
"भाई", गुप्त जी बेसबरी से बोले – “मेरा नाम है यह प्रपंच इनको जीवित रखने के लिए किया शिवप्रसाद गुप्त, मेरे बाप का नाम है नरोत्तमदास और उनके बाप का नाम था सीतलप्रसाद । अब आप समझे " |
लेकिन टेलीफ़ोन बन्द हो गया। हम
लोग भी शान्त हो गये ।
गुप्त जी ने रिसीवर को
लटका दिया और यंत्र
को बक्स पर रख दिया ।
" इडियट्स"
(मूर्ख) ! वे बोले । क्षण भर में ही
पेशानी की शिकन जाती रही और फिर वे
हम लोगों से पूर्ववत् प्रेम से बातें करने लगे। बाबू शिवप्रसाद गुप्त का जन्म काशी में
आषाढ़ कृष्ण अष्टमी संवत् १६४० को हुआ था। इनके जन्म के
पहले इनके माता-पिता
शिवना
ला
की कई सन्तानें छीज चुकी थीं । इसलिए इनके जन्म के अवसर पर इनकी माताश्री अपना घर छोड़कर बनारस में चौकाघाट पर शिवलाल जी दुबे के बाग़ीचे में एक फूस की कुटिया में रहा करती थीं। वहीं इनका जन्म हुना था । पैदा होते ही ये नाल काटनेवाली चमारिन के हाथ सात कौड़ी पर बेच दिये गये थे और फिर बहुत धन देकर इनके माता-पिता ने इनको उसी चमारिन से खरीद लिया था । उस समय के हिन्दू-समाज के प्रचलित विचारों के अनुसार
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
गया था।
इनके पिता का देहान्त संवत् १६४८ के चैत में जब
ये केवल ८ वर्ष के ही थे, हो गया था। इसके बाद ये लोग बनारस चले आये थे और अपने चचा के कुटुम्ब के साथ रहने लगे थे । बाल्यावस्था में इन्होंने फ़ारसी की शिक्षा पाई, किन्तु कुछ दिनों के बाद इन्होंने अँगरेज़ी भी पढ़नी शुरू कर दी । संवत् १६६१ में इन्होंने
बनारस के जयनारायण
स्कूल से मेट्रीक्यूलेशन पास किया और दूसरे वर्ष हिन्दू-कालेज में नाम लिखाया । किन्तु इन्होंने एफ०ए० प्रयाग से पास किया। और बी० ए० पास न कर सके थे कि स्वास्थ्य के कारण तथा दूसरी वजहों से इन्हें पढ़ना छोड़ देना पड़ा । इन्ट्रेंस पास करने के बाद से इनका मन अनेक सामाजिक और धार्मिक प्रश्नों के हल करने में लग गया था । बुद्धि और हृदय के विकास में कभी ये इस्लामधर्म की ओर, कभी ईसाई धर्म की ओर झुके, कभी शालग्राम, हनूमान जी आदि की उपासना करते, कभी वल्लभमत मानते और कभी सूर्य की पूजा करते । किन्तु अन्त में आर्य समाज ने इन्हें कुछ दिनों के लिए शान्ति दी ।
www.umaragyanbhandar.com
नरेन्द्रल
१९
[बाबू शिवप्रसाद गुप्त, श्री नरेन्द्रदेव शास्त्री और श्री सम्पूर्णानन्द जी ]
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
[यह तसवीर अमरीका में १६१४ में ली गई थी बाई ओर से (१) लाला लाजपतराय, (२) बाबू शिवप्रसाद गुप्त खड़े हुए, (३) श्री सरकार
सामाजिक सेवा करने का इन्हें बचपन से ही शौक़ वैशाख सुदी ५ संवत् १६७१ को अर्थात् ३० अप्रेल था । संवत् १९६१ में काशी में 'अग्रवाल स्पोर्टस क्लब' १६१४ को ये पहली बार विलायत गये । बम्बई से वैशाख की स्थापना हुई । इसके श्राप सदस्य बने और इसी संस्था सुदी १३ अर्थात् ८ मई १९१४ को जहाज़ पर बैठे। ये में रहते हुए इनके सामाजिक और राजनैतिक विचारों का केवल ६ मास की यात्रा का विचार करके घर से बाहर उदय हुअा और इन्हें भाषण देने का भी अभ्यास यहीं निकले थे। किन्तु इन्हें लग गये २१ मास । इस यात्रा में हुअा । ये संवत् १९६१-६२ (सन् १६०४-५ ई०) से ही इन्होंने इंग्लिस्तान, आयर्लेड, अमरीका, जापान, कोरिया, राजनैतिक प्रवृत्तियों में दिलचस्पी लेने लग गये थे । बम्बई चीन आदि देशों का भ्रमण किया। की कांग्रेस में इसी वर्ष ये पहली बार कांग्रेस के डेलीगेट बन अमरीका में रहते हुए ये लाला लाजपतराय जी के कर गये । सन् १६०५ में बनारस में कांग्रेस हुई । उस समय अच्छी तरह सम्पर्क में आये और अपने राजनैतिक इन्होंने स्वयंसेवक की हैसियत से कांग्रेस की सेवा की। विचारों को निर्भीकता-पूर्वक प्रकट करते रहे। इसी उस समय पंचनद-केशरी लाला लाजपतराय, लोकमान्य बीच में योरपीय महायुद्ध छिड़ गया और सिंगापुर तिलक और श्री विपिनचन्द्र पाल का राष्ट्रीय क्षेत्र में में हिन्दुस्तानी फ़ौज ने विद्रोह कर दिया। स्वभावतः बोलबाला था। इन नेताओं के विचारों ने गुप्त जी के शासकगण विशेषरूप से सख्त हो गये । पुलिस ने ग़लती हृदय में देश की सेवा करने का भाव बढ़ा कर दिया। से गुप्त जी के बारे में शायद यह रिपोर्ट कर दी कि ये
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
बाबू शिवप्रसाद गुप्त
विद्रोही हैं और ब्रिटिश गवर्नमेंट के दुश्मनों से मिले हुए भारत में राष्ट्रीय सेवा के अर्वाचीन इतिहास में अद्वितीय हैं। जब ये पिनाँग पहुँचे, गिरफ्तार कर लिये गये कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।
और बहुत दिनों तक फ़ौजी जेल में गिरफ़्तार रहे। देश में राष्ट्रीय विचारों को हिन्दी-भाषा-द्वारा प्रचार फ़ौजी जेल की यातनायें
करने के उद्देश से अवर्णनीय होती हैं ।
इन्होंने कृष्ण-जन्माष्टमी उनके वर्णन की यहाँ
संवत् १९७७ को 'ज्ञानआवश्यकता नहीं है।
मण्डल-यंत्रालय की पुलिस की ओर से कुछ
स्थापना की। इस यंत्रादिन तक तहकीकात होती
लय से हिन्दी की बहुरही। अन्त में इनके
संख्यक अमूल्य पुस्तकें खिलाफ कुछ न पाकर
प्रकाशित हो चुकी हैं उसे इनको छोड़ देना
और हो रही हैं। हिन्दी पड़ा।
का प्रसिद्ध दैनिक कष्ट संसार में सबसे
'अाज' इसी यंत्रालय से बड़ा शिक्षक है। पीनाँग
प्रकाशित होता है और के जेल में रहकर अपनी
इस प्रयत्न में गुप्त जी तथा अपने देश की
का अब तक करीब ४ परवशता का अनुभव
लाख रुपया लग चुका केवल महीने भर में
है। 'काशी-विद्यापीठ जितना अधिक हुअा १०
इन्हीं की दानवीरता वर्ष के कठिन राजनैतिक
और अनुकरणीय देशअध्ययन से भी उतना
प्रेम का प्रमाण है। यह सम्भव नहीं था। उसी
संस्था इन्होंने संवत् समय के अनुभव ने गुप्त
१६७७ में स्थापित की जी के ऊपर ऐसा असर
थी। निम्नलिखित वाक्य डाला है कि आज तक यह तसवीर १६२६ में जेनवा में ली गई थी और इसमें
जो विद्यापीठ के 'समउनकी देश-प्रेम और निम्नलिखित व्यक्ति हैं।
पंण-पत्र' से उद्धृत राजनैतिक सेवा की खड़े हुए बाई ओर से (१)-श्री विनयकुमार सरकार,
किये जाते हैं, स्थिति - प्रवृत्ति कञ्चन के समान (२) श्री अन्नपूर्णानन्द सेक्रेटरी, बाबू शिवप्रसाद गुप्त,
को स्पष्ट करते हैंनिष्कलंक देदीप्यमान है।
(३) बाबू शिवप्रसाद गुप्त । बैठी हुई -१) श्रीमती "१–में शिवप्रसाद बाबू शिवप्रसाद की
सरकार, (२) सरकार की कन्या, (३) श्रीमती गुप्त जी। गुप्त, श्रीनरोत्तमदास देश-सेवा ज़बानी जमा
परलोकवासी का पुत्र, खर्च की सेवा नहीं है । उन्होंने देश के नाम पर अपना जीवन जाति से वैश्य-अग्रवाल, काशी का रहनेवाला हूँ। तो खतरे में डाला ही है, अपनी सम्पत्ति का भी उतना मैं अजमतगढ़वालों के नाम से विदित कुल का एक सदस्य अधिक अंश देश के काम के लिए समर्पित किया है कि हूँ। और मैं अब अपने कुल के दूसरे सदस्यों से पूर्णतया
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
सरस्वती
पृथक हो गया हूँ । श्रतएव मैं उस सब सम्पत्ति का जिसका उल्लेख नीचे किया गया है, स्वयं बिना किसी दूसरे की शिरकत के मालिक हूँ और मुझे अधिकार है कि अपने इच्छानुसार इसको जिस तरह चाहूँ, खर्च करूँ या दान दूँ | मेरी ज़मींदारी बनारस, जौनपुर, फ़ैज़ाबाद, छपरा (सारन), चारा, भागलपुर इत्यादि जिलों में है और मेरी एक सर्राफ़े की कोठी काशी में है जो श्री बालकृष्णदास विश्वेश्वरप्रसाद' की कोठी के नाम से प्रसिद्ध है और जिसमें लेन-देन आदि का काम होता है ।
“२ - मेरे एक कनिष्ठ सहोदर भ्राता थे । उनका नाम श्री हरप्रसाद था । उनकी अकाल और सोचनीय मृत्यु १६ वर्ष की अवस्था में संवत् १६६० विक्रमी में हो गई । उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने की कामना से मैं इस समर्पण-पत्र (ट्रस्टडीड)- द्वारा एक निधि (ट्रस्ट) की प्रतिष्ठा करता हूँ, जिसका नाम 'श्री हरप्रसाद - शिक्षानिधि' होगा ।
“३ – इस शिक्षानिधि के लिए मैंने दस लाख रुपया अपनी निजी पृथक् सम्पत्ति में से निकालकर समर्पण कर दिया है और उसकी स्थायी रूप से एक निधि (ट्रस्ट) बना 'दी है, जिसका जमाखर्च मेरी कोठी 'श्री बालकृष्णदास विश्वेश्वरप्रसाद' के बही-खाते में समर्पण (ट्रस्ट) के नाम से हो गया है और यह रुपया मेरी कोठी में जमा है, जिसका सूद दर II) सैकड़ा माहवारी के हिसाब से कोठी इस समय 'काशी विद्यापीठ' को दे रही है । श्रागे चल कर सुविधे से इस मूल्य की उपयोगी और बिना जोखिम की चल अथवा अचल सम्पत्ति खरीद करके अलग कर दी जायगी, जो सूद की आमदनी अथवा मुनाफ़ा इससे होगा वह नीचे लिखे हुए उद्देश की पूर्ति में लगाया जायगा । जिनके लिए यह निधि स्थापित की जाती है किन्तु मूलधन या सम्पत्ति जो उस धन से खरीदी जाय वह किसी अवस्था में भी खर्च नहीं की जायगी ।"
गुप्त जी की एक दूसरी प्रशंसनीय योजना 'भारत माता का मन्दिर' है, जिसका शिलान्यास २४ लाख गायत्रीजप और हवन के बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् १६८४ को किया गया है । इस मन्दिर की बुनियाद में बहुत हिफ़ाज़त के साथ पार्चमेंट में अनेक पुस्तकें रक्खी गई हैं, जिनमें
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
भारतीय इतिहास की मुख्य मुख्य घटनाओं की विक्रमसंवत् में ५००० वर्ष पूर्व के समय से तालिका दी गई हैं । श्रार्य-विद्या का परिचय दिया गया है । वेद, ब्राह्मणग्रंथ श्रादि जो इस समय विद्यमान हैं उनकी सूची है। नास्तिक-दर्शन, जैन, बौद्ध, चार्वाक सिद्धान्तों के ग्रंथों की भी सूची है । इस मन्दिर में भारतवर्ष का ३० फुट लम्बा और ३० फुट चौड़ा एक मानचित्र होगा जो देश-सेवकों का और भारतवर्ष के समस्त रहनेवाले हिन्दुत्रों, मुसलमानों और ईसाइयों का एक व्यापक पूजा-स्थान होगा। इस मन्दिर का निर्माण अभी तक जारी है और इसमें गुप्त जी क़रीब एक लाख रुपया लगा चुके हैं ।
बाबू शिवप्रसाद जी इस प्रान्त के अग्रणी नेताओं में हैं । अनेक वर्ष तक ये ग्राल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के सभासद् रहे हैं । सन् १६२७-२८ में 'युक्तप्रान्त कांग्रेसकमेटी' के ये प्रमुख चुने गये और उसके बाद 'कांग्रेसवर्किङ्ग कमेटी' के मेम्बर बनाये गये । सत्याग्रह आन्दोलन में अनेक बार जेल गये हैं। नमक - सत्याग्रह का आरम्भ होने पर २५ जून सन् १६३० में बस्ती में इन पर दफ़ा १४४ लगाई गई थी । श्री पुरुषोत्तमदास टण्डन और श्री नरेन्द्रदेव उस समय इनके साथ थे। गुप्त जी ने दफ़ा १४४ का उल्लंघन किया और दफ़ा १८८ में ३ महीने की सख्त क़ैद की सज़ा पाई और ३०० ) जुर्माना हुया । सज़ा की यह अवधि समाप्त न हो पाई थी कि ८ अगस्त १६३० को दफा १२४ ए में इनके ऊपर दूसरा मुक़दमा चलाया गया और राजविद्रोह के अपराध में इन्हें एक वर्ष की सज़ा मिली। इसके बाद गान्धीइरविन समझौते की बात शुरू हुई और वर्किङ्गकमंटी के मेम्बर होने के कारण २७ जनवरी १६३१ को ये सजा की अवधि समाप्त होने के पहले ही छोड़ दिये गये। दूसरी बार १६३२ में जब फिर आन्दोलन शुरू हुआ, ५ जनवरी १६३२ को ये दफा १२४ ए में बनारस में व्याख्यान देने के अपराध में गिरफ़्तार किये गये और ६ महीने की सज़ा पाई । १ जुलाई १६३२ को ये इस क़ैद से छूटे । लेकिन १७ अगस्त १६३२ को फिर गिरफ़्तार हो गये और एक वर्ष के लिए कड़ी क़ैद
www.umaragyanbhandar.com
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाबू शिवप्रसाद गुप्त
संख्या १ ]
सज़ा मिली। लखनऊ-जेल में रहते हुए १५ अक्टोबर १९३२ को इन पर फ़ालिज गिरा और बायाँ अंग बेकार हो गया । यह रोग बहुत भयंकर था और डाक्टरों को इनके बचने की कोई आशा नहीं रह गई थी । इनकी नाजुक हालत देखकर गवर्नमेंट ने इन्हें २३ आक्टोबर को अवधि से पहले ही छोड़ दिया ।
बाबू शिवप्रशाद जी ने दो दफ़े विदेश यात्रा की है । पहली बार ये १६१४ में विदेश गये थे । इस यात्रा में इन्होंने मिस्र, इंग्लैंड, आयर्लंड, अमरीका, कोरिया, चीन, जापान आदि देशों का भ्रमण किया था । 'पृथ्वी प्रदक्षिणा ' नाम की पुस्तक में इन्होंने अपने इस भ्रमण का वृत्तान्त प्रकाशित किया है, जो अत्यन्त रोचक और शिक्षाप्रद है । दूसरी बार ये १६२६ के मई मास में योरप गये और २४ अप्रैल १६३० को भारत वापस आये । इस यात्रा में इन्होंने इटली, स्वीज़लैंड, फ्रांस, इंग्लेंड, जर्मनी, ज़ेकोस्लोवेकिया, आस्ट्रिया आदि देशों का भ्रमण किया । इनकी पत्नी इस यात्रा में इनके साथ थीं। इस बार ये अपने प्राइवेट सेक्रेटरी हास्य रस के द्वितीय लेखक श्री अन्नपूर्णानन्द जी को भी अपने साथ ले गये थे ।
हिन्दी भाषा के और हिन्दू संस्कृति के श्री गुप्त जी बड़े भक्त हैं । कहने की आवश्यकता नहीं कि 'मंगलाप्रसाद पारितोषिक' की स्थापना में गुप्त जी का काफ़ी हाथ था। सौर तिथियों का प्रचार और सौर पंचाङ्ग का प्रकाशन जो राष्ट्रीय दृष्टि से इतना महत्त्वपूर्ण है, इन्हीं के प्रबन्ध में और इन्हीं के पैसे से होता है। अपने जीवन के प्रत्येक कार्य में ये हिन्दी को ही स्थान देते हैं । इन्होंने अपने मोटरकार के पीछे हिन्दी में नम्बर का प्लेट लगाया था। पुलिस ने हिन्दी - लिपि में लिखे हुए नम्बर को कानून की दृष्टि से काफ़ी नहीं समझा और मोटर का चालान कर दिया । स्थानीय अदालत से ५) जुर्माना हो गया । गुप्त जी ने हिन्दी की प्रतिष्ठा कायम करने के नाम पर इस मुक़दमे को हाईकोर्ट तक पहुँचाया, लेकिन वहाँ से भी उक्त जुर्माना कायम रहा ।
हिन्दी - साहित्य की जो कुछ सेवा 'ज्ञान मण्डल' और 'आज' के द्वारा हुई है उससे हमारे देशवासी अच्छी
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
२३.
तरह
परिचित हैं । इसके अलावा गुप्त जी स्वयं अनेक बहुमूल्य पुस्तकों के प्रकाशक हैं, जैसे 'बुद्धचर्या', 'तिब्बत में बौद्धधर्म' 'हिन्दुत्व' इत्यादि। इनका पुस्तकालय हिन्दी, संस्कृत और अँगरेज़ी की प्राप्य और दुष्प्राप्य पुस्तकों का भाण्डार है, जिसका मूल्य ( यदि ऐसे पुस्तकालयों का मूल्य लगाया जा सकता है) कम से कम ४ लाख रुपया होगा ।
गुप्त जी का स्वास्थ्य अभी तक पूर्ण रूप से सन्तोषजनक नहीं है, तो भी पहले की अपेक्षा बहुत अच्छा है । प्रातःकाल ५ बजे उठते हैं और सवेरे का समय गायत्री के पाठ में लगाते हैं । ७ से ८ बजे तक का समय भजन सुनने में जाता है। इसके बाद ११ बजे तक समाचारपत्रों को पढ़ाकर सुनते हैं । दोपहर का विश्राम करते हैं और ३ बजे से ५ बजे तक फिर अखबार सुनते हैं । सूर्यास्त होने के पहले ही संध्या करके भोजन कर लेते हैं । शाम को थोड़ी देर मोटर पर हवा खाने जाते हैं। शाम का यह समय अर्थात् ८ || से ६ || तक ज्यादातर पूज्यपाद पंडित मदनमोहन मालवीय जी के पास बातचीत में समाप्त होता है। रात को ६ बजे से १० बजे तक वाल्मीकीय रामायण का या किसी अन्य धर्म ग्रन्थ का पाठ सुनते हैं ।
गुप्त जी ने अपने जीवन से भारतीय रईसों और ज़मींदारों के सामने एक अनुकरणीय और श्रादर्श जीवन पेश किया है । इनकी ठोस सेवाओं ने और इनके अनुकरणीय राष्ट्र प्रेम ने देश में इनके नाम का इतनी ख्याति दे दी है कि मेरे लेख या मेरे ऐसे लेखकों के अनुग्रह की उसे ज़रा भी ज़रूरत बाक़ी नहीं रह गई है ?
अन्त में मैं बाबू शिवप्रसाद जी गुप्त के दौहित्र और उत्तराधिकारी श्री शेरसिंह जी को हृदय से धन्यवाद दूँगा, जिनकी सहायता से ही इस लेख का लिखना सम्भव हो मका है। श्री शेरसिंह जी इस समय काशी-विश्वविद्यालय में द्वितीय वर्ष में शिक्षा पा रहे हैं । अत्यन्त योग्य और होनहार व्यक्ति हैं और जिनसे यह पूर्ण ग्राशा है कि गुप्त जी के सिद्धान्तों और आदर्शों को ये चिरकाल तक जीवित रक्खेंगे ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
तलाक़ के पक्ष और विपक्ष में सरस्वती में कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं। यह लेब उन सब लेग्वों से भिन्न और अधिक विचार-पूर्ण है। इस लेख में विद्वान लेखक ने बड़े जोरदार तों से यह सिद्ध किया है कि सभ्य-समाज में सर्वत्र तलाक़ का प्रचार हुआ है और होना चाहिए।
वश्यकताअाविष्कार की जननी पुराने सिद्धान्तों को लेकर वास्तविक जगत् से एक-दम दूर ही नहीं, प्रत्येक परिवर्तन के चले जाते हैं और यह सोचना एक-दम छोड़ देते हैं कि पूर्व की अवस्था भी है । जब अमुक प्रश्न मनु के साँचे में ढलकर भी समाज की हम किसी प्रकार के परिवर्तन- वर्तमान समस्या के हल करने में समर्थ हो सकेगा या किसी प्रकार की क्रान्ति को नहीं । हम लोगों को विदेशियों के फैशन-परस्त की उपाधि जन्म देते हैं तब उसके पूर्व दी जाती है, पर हमारे वे भाई यह सेाचना भूल जाते हैं
अावश्यकता और असंतोष का कि पीरपरस्ती तो सदैव ही पीरपरस्ती ही रहेगी, चाहे वह एक ऐसा विक्षुब्ध वातावरण पाते हैं जिसे उस समय की देश की हो या विदेश की-अन्धविश्वास जैसे भारत का प्रचलित प्रणाली किसी प्रकार नियंत्रण करने में समर्थ नहीं त्याज्य है, वैसे ही योरप का। हो सकी थी। समाज के सारे नियम-उपनियम किसी 'सरस्वती' के पिछले किसी अंक में एक सजन ने तलाक़ अतीत अवस्था के द्योतक भले ही हो, वे मदा के लिए सत्य के विपक्ष में एक लेख लिखा है। उसमें विवाह की मार्थनहीं हो सकते। मनुष्य समय समय पर इन नियमों का, इन कता और उसकी उपादेयता के प्रमाण में उन्होंने रूढ़ियों का परिष्कार करता आया है। इसी को हम सामाजिक सुधार का नाम देते हैं।
जब जब समाज रूढ़ियों और अन्धपरम्पराओं के बाहुल्य से व्याकुल हो उठता है तब 'धर्म की हानि' का कारण बताकर ईश्वर महाराज चाहे अवतार लेने में पिछड़ जाते हो, पर समाज-सुधार के सच्चे पुजारी सामाजिक क्रान्ति करके समाज को विनाश की ओर जाने से बचाने में श्रागा पीछा नहीं करते । बुद्ध और ईसा ने जिस प्रकार सामाजिक क्रान्ति का प्रारम्भ किया था, महात्मा गान्धी भी अाज उसी सामाजिक दासता को दूर करने का प्रयत्न कर रहे हैं।
आज-कल यह कुछ नियम मा हो गया है कि सामाजिक स्वतंत्रता का ज़िक्र यात ही हमारे रूढ़िवादी भाई बिना ममझे ही विरोध करने को तैयार हो जाते हैं। इसे हम अपने देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे । वास्तव में हमारा सामाजिक दृष्टिकोण ही ऐसा हो गया है कि हम अपने
लेखक, कुँवर सुरेशसिंह
PORN
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
पशु-विज्ञान के कुछ उद्धरण दिये हैं । पशु-जगत् के सभी उदाहरण मनुष्यों पर लागू हो जायँ, ऐसी बात नहीं है । सामाजिक मनुष्य पशु का पशुत्रों की जिस श्रेणी से विकास हुआ है, हमें उसके सम्बन्ध में उदाहरण भी उसी श्रेणी के पशु का देना चाहिए | स्तनपायियों का स्वभाव पक्षियों से भिन्न होता है, अतः पक्षियों के वैषयिक सुकुमारता की तुलना एक स्तनपायी जीव से नहीं की जा सकती । पक्षियों में विवाह की ओर अग्रसर करनेवाली सौन्दर्योपासना बहुत ही विकसित है । वे साधारणतः बलात्कारी नहीं होते । फिर भी उनमें सबका जोड़ा स्थायी नहीं होता, बहुत-से स्थायी भी होते हैं ।
अब रहा पशु-जगत्, सेा उसमें अधिकतर बहुपत्नीक बलात्कारी होते हैं । रीछ, शेर आदि एकपत्नीक भी हैं। पर हमें तो मनुष्यों के सम्बन्ध में उदाहरण उस श्रेणी के पशुओं का लेना चाहिए जिसमें से उसका विकास हुआ है। मनुष्यों के सबसे निकट के सम्बन्धी गोरिला और शिम्पैज़ी हैं। ये छोटे छोटे गोलों में रहते हैं, जिसमें से प्रत्येक में एक नर होता है और बाक़ी मादायें । यह अवस्था मनुष्यों की सभ्य और जंगली जातियों में अभी तक विद्यमान है | अतः इस प्रकार के निरर्थक उद्धरणों और उदाहरणों से समाज की सामूहिक माँग की उपेक्षा नहीं की जा सकती । सच बात तो यह है कि हमें इस समय यह देखने का अवकाश नहीं है कि अमुक काल में अमुक राजा के समय में तलाक़ की प्रथा थी या नहीं अथवा शेर आदि दो-चार एकपत्नीक प्राणियों में जोड़ा विच्छेद होता है या नहीं। हमें तो इस समय अपने वर्तमान समाज, वर्तमान समय और वर्तमान परिस्थिति को सम्मुख रखकर इस प्रश्न पर विचार करना है। पहले क्या था, इसका सवाल यहाँ नहीं है । यहाँ तो प्रश्न यह है कि इस वर्तमान अवस्था में तलाक़ का जो प्रश्न उठाया गया है वह कहाँ तक सही है । यदि यह माँग सही है तो यह ज़रूरी नहीं कि हम अपने पूर्वजों की ग़लती में हाँ में हाँ मिलाकर अपने को गुमराह होने दें। हमें तो उसे सच्चे हृदय से स्वीकार करके उसका वैसा प्रबन्ध कर देना चाहिए । ईमानदारी का तकाज़ा तो कम से कम यही है !
V
तलाक़
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
वैसे भौतिक सुविधाओं के होने से इस प्रकार के सामाजिक परिवर्तन अपने आप ही हो जायँगे और किसी का इस ओर ध्यान भी नहीं जायगा । आज परिस्थिति के कुछ प्रतिकूल होने के कारण इस प्रश्न पर कुछ हल्ला ज़रूर मचा दिया गया है, नहीं तो जिस प्रकार बहुपत्नीक और बलात्कारी होते हुए भी भौतिक वातावरण के अनुसार मनुष्य सरीखा एक स्तनपायी पशु एकपत्नीक और सौन्दर्यप्रिय हो सकता है, उसी प्रकार उसका भावी विकास भी भौतिक सुविधाओं और परिस्थितियों के कारण ऐसा आकार ग्रहण कर सकता है जिसकी हम कल्पना नहीं कर सके हैं। इससे हमारे धर्म-प्रारण भाइयों को ज्यादा शोरगुल मचाने की आवश्यकता नहीं है । यदि यह प्रश्न कुछ विदेशी विचारों के नक्कालों की क्षीण पुकार है तो यह अपने आप ही शान्त हो जायगी और यदि यह हमारी बहनों की परम्परा की दासता का क्रान्तिमय सामूहिक विरोध है तो इस ज्वाला को कोई भी समाज शान्त नहीं कर सकता। तब इस जर्जर हिन्दू-समाज की तो बात ही दूसरी है ।
विदेशों में इस विषय पर काफ़ी छान-बीन हुई है और हो रही है । आज उन देशों में यह एक बड़ी जटिल समस्या-सी हो गई है । विवाह की निस्सारता और फिर खासकर हिन्दुओं की ज़बर्दस्ती स्थायी जोड़ा मिलाने की संकीर्णता का अनुभव धीरे-धीरे जन-समुदाय को हो रहा है।
पाश्चात्य में विवाह प्रथा में क्या भूल है, इस प्रश्न को तय करने के लिए सौ विवाहित पुरुषों और सौ विवाहिता स्त्रियों के सामने भिन्न प्रकार के लगभग ४०० प्रश्न रक्खे गये थे । इन प्रश्नोत्तरों को तैयार करने में चार वर्ष का समय लगा । उनको यदि हम किसी प्रथा को नष्ट कर देने का आधार न भी मानें तो भी उनसे हम जन-साधारण की प्रवृत्ति का अन्दाज़ा तो लगा ही सकते हैं ।
उन दो सौ स्त्री-पुरुषों में से केवल २६ पुरुष और २१ स्त्रियाँ ऐसी निकलीं जो अपने दाम्पत्य-जीवन से सुखी हैं। शेष लोगों में २२ पुरुष और २४ स्त्रियों के भाग्य में सुख-दुःख दोनों पड़े हैं । वे किसी प्रकार वैवाहिक सुखदुःख के मार्ग में होकर अपनी गृहस्थी की गाड़ी का खींचे
www.umaragyanbhandar.com
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
लिये जा रहे हैं। शेष ३६ पुरुष और ४१ स्त्रियों की परि- विवाह-व्यवस्था की कहानी बहुत ही सरल है, और स्थिति में श्राशा की कहीं झलक भी नहीं है।
उसका उद्देश भी बहुत ही स्वाभाविक था। पर समाज जब हम इनके असंतोष के मुख्य कारण की अोर के धर्मान्ध सूत्रधारों ने जब से इसे धार्मिक पवित्रता का देखते हैं तब हमें ज्ञात होता है कि इनमें ३७ स्त्रियाँ और प्रावरण पहनाकर इसे अटूट जोड़ाबन्दी का स्वरूप दे ४६ पुरुषों के दुःख का कारण स्वभाव-मूलक असन्तोष दिया है तब से इसके नाम पर स्त्रियों पर बहुत अत्याचार था। दःख का दूसरा कारण शारीरिक निर्बलता प्रकट हुए हैं । परन्तु अब संसार के साथ ही समय में भी बहुत हा है। इसमें ३० स्त्रियाँ और ३६ पुरुष निकले हैं। परिवर्तन हो गया है । उर्मिला को अकेली घर में छोड़ व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के कारण भी १० पुरुष और १८ कर जङ्गल को चले जानेवाले लक्ष्मण को उनकी वीरता स्त्रियाँ असन्तुष्ट पाई गई। डाह भी ११ स्त्रियों और ८ के लिए विक्टोरिया क्रास भले ही दे दिया जाय, पर अपने पुरुषों के असंतोष का कारण हुआ। बच्चों के कारण ७ ऊपर आश्रिता को इस प्रकार घर में रहकर बाल सफ़ेद स्त्रियाँ और ८ पुरुष, रिश्तेदारों के कारण ४ स्त्रियाँ और करने को मजबूर करने का अधिकार समाज अब मर्दो ७ पुरुष असन्तुष्ट पाये गये। परन्तु सबसे ज्यादा अाश्चर्य के हाथ में नहीं रहने देगा। यह जानकर होगा कि शराब पीने के कारण केवल ३ विवाह वास्तव में स्त्री-पुरुष का स्थायी अथवा स्त्रियों ने झगड़ा किया था।
अस्थायी सम्बन्ध है, जो वासना की भित्ति पर ही स्थित इस तालिका को देखकर तो हम इस निष्कर्ष पर है । इसमें किसी प्रकार की धार्मिक पवित्रता की आवश्यपहुँचते हैं कि वैवाहिक जीवन में दुख का सबसे बड़ा कता नहीं, न यह किसी ईश्वरीय नियम से निर्धारित होता कारण स्वभाव-मूलक असंतोष ही है। वास्तव में हम है। इसका वास्तविक रूप ईश्वर के रूप की भाँति अभी किन्हीं दो प्राणियों से जिनके दो भिन्न भिन्न मस्तिष्क हैं, तक निर्धारित नहीं हो सका है। गोरिला आदि मनुष्यों जिनका अलग अलग दृष्टिकोण है और जिनकी पृथक् के पूर्वजों और सामाजिक असभ्य जातियों के समाज का पृथक् अनुभूतियाँ हैं, यह कैसे अाशा कर सकते हैं कि वे निरीक्षण करके विद्वान् लोग इस परिणाम पर पहुँचते हैं सभी विषयों पर एक-मत होंगे। अलग अलग सोचनेवाली कि संकरता, बहुपत्नीत्व, बहुपतित्व, एकपतित्व या एकशक्तियाँ अक्सर नहीं, ज़्यादातर सब विषयों पर एक-दूसरे पत्नीत्व आदि भिन्न भिन्न वैवाहिक सम्बन्धों के अलावा से मतभेद रक्खेंगी। हाँ, कोई स्त्री या कोई पुरुष दूसरे के मुताह, नियोग, धार्मिक संयोग आदि की अस्थायी प्रथायें लिए यदि अपनी सच्ची भावना को दबाकर दूसरे को भी हममें अब भी विद्यमान हैं, जिनको देखते हुए यह - खुश करने के लिए अथवा दूसरे पर आश्रित रहने के कहना उचित नहीं जान पड़ता कि स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध कारण उसकी हाँ में हाँ मिला देता है तो इसे कम से कम की कौन-सी प्रथा ग्रहण करने योग्य है और कौन-सी मैं तो दाम्पत्य-सुख नहीं कहूँगा। यह तो सुख और प्रेम नहीं । विवाह के सम्बन्ध में समाज अनेक प्रयोग कर दोनों के नाम पर मक्कारी करना है । सुख और प्रेम परा- चुका है और कर रहा है। धीनता की छाया में नहीं पलते। मेरा तो खयाल है कि अब तलाक की बात पर पाइए । विवाहरूपी मरुभूमि में स्नेह की मृगतृष्णा के पीछे दौड़ने- विवाह-विच्छेद के वैसे तो बहुत-से कारण भिन्न भिन्न वाले प्रेमी युगल अन्त में असंतोष के ही किनारे देशों में प्रचलित हैं, पर सबसे मुख्य कारण जिसे प्रायः पहुँचते हैं।
सभी देश स्वीकार करते हैं-स्त्री का परपुरुष से अनुचित ___ यहाँ तलाक के प्रश्न पर विचार करने के पहले उससे सम्बन्ध स्थापित करना है। इस अवस्था को पुरुष-समाज अधिक महत्त्वपूर्ण विवाह के प्रश्न के बारे में भी कुछ महन नहीं कर सकता। अपने को तो वह इस नियम से जानकारी कर लेना ज़रूरी है।
मुक्त रखता है, पर स्त्रियों को इसकी स्वतन्त्रता नहीं दी है।।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
तलाक़
चीन में पति अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है, पर पर जिन बालक-बालिकाओं का विवाह बालकों के माताउसे वहाँ की कानूनी पुस्तक में दिये हुए व्यभिचार आदि पिता दुलार के मारे कर देते हैं उनको तो विवाह दुखान्त दोपों को साबित करना ज़रूरी है। चीनी स्त्रियाँ किसी भी होने पर अपने पूज्यवरों की अक्लमन्दी पर सारा जीवन दशा में पुरुषों को तलाक़ नहीं दे सकतीं। जापान में भी रोना पड़ता है और भाग्य के सिर इसका दोष मढ़कर यही नियम था। पर १८१३ में कानून में संशोधन हुश्रा अपने जी को किसी प्रकार शान्त करना पड़ता है। समाज
और वहाँ के न्यायालय ने स्त्री और पुरुष के समान की इसी अव्यवस्था को बदलने के लिए तलाक की आवअधिकार की माँग को स्वीकार करके स्त्रियों को भी तलाक श्यकता है। देने का अधिकार दे दिया। इसका फल यह हुआ कि उदाहरण के लिए मैं योरप के दो देशों ग्रीस और तलाकों की संख्या उस देश में बहुत कम हो गई। रोम को लेता हूँ। हिन्दुओं के समान इन देशों के निवायहूदियों के समान मुसलमानों में स्त्रियाँ अपने पति को सियों में भी विवाह एक स्थायी सम्बन्ध माना जाता था। कभी तलाक़ नहीं दे सकतीं।
ग्रीस में पहले तलाक का कोई नाम भी नहीं जानता था । हिन्दुनों की दुनिया तो काशी के समान सबसे न्यारी पर धीरे धीरे सामाजिक माँग की अवहेलना नहीं की जा ही है। उनकी विवाह-पद्धति के अनुसार एक दफ़ा सात सकी और तलाक ग्रीस में रोज़मर्रा की मामली-सी बात हो बार चक्कर कर लेने पर आजीवन कालेपानी की सज़ा गई । पुरुष जब चाहे अपनी स्त्री को बिना किसी प्रकार मिल जाती है। शादी वैसे तो लाटरी के समान एक का दोष लगाये छोड़ सकता था। हाँ, उसे ऐसा करने के जोखिम-सी है, पर हिन्दुओं के विवाह में तो जुआरी को पूर्व अपनी स्त्री को उसके पिता के घर से पाये हुए दहेज़ के इतना भी मौका नहीं दिया जाता कि वह हारने पर इस साथ लौटाल देना पड़ता था। पत्नी को तलाक के लिए बला से तोबा कर सके । एक स्त्री व्यभिचार की इल्लत में अदालत में कारण-राहित प्रार्थनापत्र देना पड़ता था। दोषी ठहराई जाने पर जाति से और घर से निकाली जाने पर रोम में भी विवाह एक प्रकार से स्थायी ही था। पति को भी पति से मुक्ति नहीं पा सकती। धर्म और जाति का परिवर्तन कुछ ऐसे अधिकार प्राप्त थे जिनके द्वारा वह अपनी पत्नी भी हिन्दुओं की स्थायी वैवाहिक शृङ्खला से छुटकारा नहीं को छोड़ सकता था, पर उसके इन अधिकारों पर जनता दिला सकते । एक ओर तो बिना देखे-सुने दो प्राणी- का नियंत्रण रहता था। यही कारण था कि रोम में पाँच स्त्री-पुरुष समाज के कठोर नियम में सदा के लिए जकड़ सौ वर्ष तक जनता की सम्मति की अवहेलना करके किसी दिये जाते हैं और दूसरी ओर उन्हें कभी यह स्वतंत्रता भी को तलाक देने का साहस नहीं हुआ। पर बाद को सभ्यनहीं दी जाती कि वे अपने माता-पिता की ग़लतियों के समाज में तलाक का प्रचार हो गया और इतना अधिक शिकार बनने से अपने को रोक सकें। जब तक दोनों- हो गया कि उस समय की सभ्य स्त्रियाँ बीते हुए वर्षों की स्त्री-पुरुषों के लिए कानून तलाक की व्यवस्था नहीं कर गिनती अपने छोड़े हुए पतियों से करने लगीं। देता तब तक यदि कोई माता-पिता अपने प्रिय सन्तानों को तलाक के विरोधी जो दलीलें पेश करते हैं उनमें इस लाटरी में फँसाने का उद्योग करते हैं तो मैं तो उनसे कोई तथ्य नहीं है। उदाहरण के लिए वे बच्चों के हित यही कहूँगा कि वे अपने बच्चों के शुभैषी नहीं, उनके की आड़ लेकर इस प्रश्न को निस्सार साबित करना चाहते शत्रु हैं। जो बालक-बालिकायें अपना विवाह अपने हैं । तलाक देने से बालकों के हित पर कोई विशेष आघात इच्छानुसार करते हैं उनके लिए तो मुझे कुछ नहीं कहना पहुँचता है, इसे मैं स्वीकार करने को तैयार नहीं हूँ। मैं है। वे समझबूझकर यदि इस प्रकार का जुआ खेलते हैं तो उस गंदे वातावरण में जहाँ माता-पिता के नित्य तो ठीक है। सुख या दुख जो भी हाथ लगे उसमें उन्हें झगड़े होते हैं, बालकों के नवीन मस्तिष्क खराब हो जाने सन्तोष ही करना चाहिए, क्योंकि उसके वे ज़िम्मेदार हैं। की अधिक संभावना पाता हूँ और मेरा तो विश्वास है कि
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८
सरस्वती
[भाग ३६
इस प्रकार के झगड़ालू वातावरण में बालकों को रहने देने तलाक भी विवाह का सुधार करने के लिए एक आवश्यक से उनके माता-पिता को तलाक की स्वतंत्रता देकर अलग वस्तु है। किसी भी पवित्र सम्बन्ध की रक्षा कानून के हो जाने का मौका देने से हम बालकों के हितों की अधिक दबाव से करना उसका अपमान करना है। यदि विवाह रक्षा कर सकेंगे। तलाक के लिए कानूनी स्वीकृति मिल कृत्रिमता की भित्ति पर नहीं, बरन दो हृदयों के पारस्परिक जाने पर भी कुछ कारण ऐसे हैं जो विवाह-सम्बन्ध के प्रेम की सुदृढ़ चट्टान पर स्थित है, तो तलाक का कानून विच्छेद में बाधक होंगे। उदाहरणार्थ हम संतान के स्नेह होने पर भी वह पूर्ववत् सुरक्षित बना रहेगा और यदि को ही ले सकते हैं।
विवाह स्त्रियों को गुलाम बनाने का पुरुषों का एक साधनतलाक विवाह-प्रथा का शत्रु है । ऐसा कहना भ्रमपूर्ण मात्र है तो इसके नाश को संसार की कोई भी शक्ति रोक है। यदि वास्तव में विवाह एक पवित्र सम्बन्ध है तो नहीं सकती।
जुगनू-गीत
लेखक, श्रीयुत मोहनलाल महतो जगमग कर जुगनू छनछन पर,
तू ज्वलन्त स्मृतियों का निर्भर, जीवन-मग का तम प्रतिपल हर।।
जगमग कर जुगनू छनछन पर । किसलय किसलय पर हँस सजनी,
अपने नवगीतों में कविवर, सिहरे प्रोस बूंद मिस रजनी ।।
रख न सका जिसको सँभाल कर ॥ तम-अञ्चल हीरक से दे भर, .
तू है वही उपेक्षित सुस्वर, जगमग कर जुगनू छनछन पर।
जगमग कर जुगनू छनछन पर । चूरचूर धन अभिलाषा-सी,
एक आह भर चले गये जो, दीप्तिमान-नीरव भाषा-सी॥
अपनापन दे छले गये जो॥ मूर्तिमान कविता-सी सुखकर,
तू उनका हे जरजर-अन्तर, जगमग कर जुगनू छनछन पर ।
जगमग कर जुगनू छनछन पर। तू भूतल की तारावलियाँ,
जिनको भूला जग हँस, रोकर, विद्युलता की जगमग कलियाँ ॥
उनकी चिताकणा हे सुन्दर ॥
उड़ती है तू आज लगा पर, जगमग कर जुगनू छनछन पर ।
विरहपत्रिका वह सकरुणतर
जिसके तू ज्वालामय अक्षर ।। पढ़ता जिन्हें निशा भर अम्बर, जगमग कर जुगनू छनछन पर !
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
भूषण
का
हिन्दी में 'शिवाबावनी' की अराष्ट्रीयता का प्रश्न महात्मा जी के सम्मेलन के भाषण से उठ खड़ा हुआ है । इसी सम्बन्ध में हम यहाँ यह लेख छाप रहे हैं।
श्राशा है, हिन्दी के विद्वान् इस महत्त्व के प्रश्न दूषण पर धैर्यपूर्वक विचार करने का कष्ट करेंगे।
लेखक, श्रीयुत विनोद विहारी कायरता वाबावनी वीर-रस की उच्च उदाहरण न होकर रीति-ग्रन्थ-काल की अन्य शृङ्गारी
कोटि की कविता का कविताओं की भाँति ही कामुकता-पूर्ण भी है। ग्रन्थ माना जाता है। अब पंडित लक्ष्मीधर वाजपेयी ने महात्मा जी के से लगभग ३०० वर्ष पूर्व उक्त भाषण का प्रतिवाद किया है। भाषण के इस महाकवि भूषण ने इसकी अंश के सम्बन्ध में उदाहरण-स्वरूप शिवाबावनी रचना करके अपार धन का एक कवित्त उद्धृत करके वाजपेयी जी जोश में
और यश का अर्जन क्या कह गये हैं, ज़रा यह भी सुन लीजिए-- किया था। तब से अब तक इस कविता की हिन्दी "जब कोई ग्रामीण बुड्ढा कड़ककर यह कवित्त में वैसी हो काक जमी चली आ रही है। परन्तु अब पढ़ने लगता है तब सुननेवालों का खून खौल उठता समय बद ना है। अब लोगों ने कहना शुरू किया है, भुजायें फड़कने लगती हैं.........सुननेवाले चाहे है-"राष्ट्रीय दृष्टि से इस कविता का कोई महत्त्व मुसलमान ही क्यों न हों, वे भी अपने जातीय भाव नहीं।" महात्मा गांधी ने इन्दौर-सम्मेलन में सभा- को भूलकर एक बार कीर-रस के प्रखर प्रवाह में बह पति के आसन से जो भाषण किया था उसमें उन्होंने जाते हैं।" वाजपेयी जी ने जो कवित्त उद्धृत इसकी ओर इशारा किया है और कहा है- किया है उसकी अन्तिम पंक्ति इस प्रकार है"परीक्षाओं की पाठ्य पुस्तकों में से एक पुस्तक के तेज तम-अंस पर कान्ह जिमि कंस पर. बारे में एक मुसलमान की भी, जो देवनागरी लिपि त्यों मलेच्छ-बंस पर सेर शिवराज है। अच्छी तरह जानते हैं. शिकायत है। उसमें मुग़ल परन्तु इस प्रकार के रूपक बाँधकर कोई किसी बादशाह के लिए भली-बुरी बातें हैं। वे सब ऐति- के हृदय में वीर-रस का संचार नहीं कर सकता। हासिक भी नहीं हैं। मेरा नम्र निवेदन है कि पाठ्य खून तब खौलता है, भुजायें तब फड़कती हैं, पुस्तकों का चुनाव सूक्ष्म विवेक के साथ होना युद्ध की प्रवृत्ति तब होती है, जब किसी प्रकार चाहिए और उसमें राष्ट्रीय दृष्टि रहनी चाहिए।" का अपमान या अनाचार का अवसर सामने ___ महात्मा गांधी ने जो प्रश्न उठाया है उस पर उपस्थित होता है और कवि पूर्व-गौरव की याद हमें गम्भीरता-पूर्वक विचार करने की आवश्यकता दिलाता हुआ उसका चित्र उपस्थित करता है और है। शिवाबावनी केवल इसी लिए त्याज्य नहीं है कि उसका मुकाबला करने के लिए मरने-मारने का संदेश वह साम्प्रदायिकता की आग को भड़कानेवाली है, देता है। यदि भूषण औरंगजेब के अत्याचारों का बल्कि इसलिए भी कि वह वीररस का वास्तविक वर्णन करते और हिन्दुओं को उन अत्याचारों का
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
मुकाबला करने का जोश दिलाते तब बेशक उनकी डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी-सी रहति छाती, कविता वीर-रस की कही जाती और वह हिन्दुओं बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिन्दुवाने की। को फड़कानेवाली होती। हमारा ख़याल है कि उनकी कढ़ि गई रैयति के मन की कसक सब, कविता हिन्दुओं में मुस्लिम-विरोधी भाव न तब पैदा मिटि गई ठसक तमाम तुरकाने की ॥ कर सकी थी और न अब कर सकती है। इसलिए तो हम अपने उठते हुए राष्ट्र का अहित ही जहाँ तक हिन्दुओं को भड़काने का सवाल है, यह करेंगे। यह जहर हम अपने बालकों को, भारत के कविता निर्जीव है और इससे निर्दोष है। पर मुसल- भावी नागरिकों को क्यों पिलायें ? पाठ्य पुस्तकों का मान इससे भड़क सकते हैं। वाजपेयी जी चाहे निर्माण हम नवीन दृष्टिकोण से क्यों न करें? । जितना कहें, यह बात कोई भी स्वीकार नहीं कर आखिर शिवाबावनी का हममें इतना मोह क्यों सकता कि मुसलमान अपने आपको 'मलेच्छ-बंस' का है ? केवल इसी लिए न कि पिछले तीन सौ वर्षों कहलवाना पसन्द करेंगे। यह बात उन्हें ज़रूर बुरी से हम उसे वीर-रस का काव्य मानते चले आ रहे लगेगी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि एक हैं और अब इस जाग्रति के युग में हमें उसकी और भी मुसलमान ने ही महात्मा जी से इसकी शिकायत की आवश्यकता है। परन्तु मैं कहूँगा कि शिवाबावनी है। वाजपेयी जी तो राष्ट्रीय विचारवाले हैं। हिन्दू- में वह वीर-रस नहीं है जिसका आस्वादन कर मुसलिम-एकता पर वे बहुत-कुछ लिख-पढ़ चुके हैं। हम वीर बाँकुरे बनना चाहते हैं। वह तो भटैतीमिश्रबन्धु तक जो राष्ट्रीयता में वाजपेयी जी से मात्र है। धन की इच्छा से लिखा गया सत्रहवीं बहुत पीछे है और हिन्दू-मुसलिम प्रश्न पर इतने शताब्दी के अन्य साहित्यिक प्रयत्नों की भाँति वह उदार विचार भी नहीं रखते, अपनी भूषण-ग्रन्थावली भी एक प्रयत्न है। उस कविता को पढ़ने से ज्ञात की भूमिका में जो काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा से होता है कि कवि का उद्देश एकमात्र शिवाजी का प्रकाशित हुई है, लिखते हैं-"वर्तमान समय की गुणानुवाद करना है। उस कविता में उस समय के दृष्टि से इस कवि की मुसलमानों के प्रति कटूक्तियाँ हिन्दुओं को जगानेवाली कोई बात नहीं है। हिन्दू बहुत ही अनुचित एवं विषगर्भित ज्ञात होती हैं।" तो मानो उस समय असमर्थ थे, भयत्रस्त थे। यद्यपि मिश्रबन्धुओं ने यह भी लिखा है कि "इनकी शिवाजी न होते तो वे सब मुसलमान हो जाते। कविता को इस दृष्टि से न जाँचना चाहिए,” तथापि फिर उस कविता में यह भी नहीं है कि शिवाजी हम कहेंगे कि औरंगजेब के समय में चाहे जो परि- ने किस प्रकार लड़ाइयाँ लड़ी, किस प्रकार मुसीस्थिति रही हो, हमारे देश को वर्तमान स्थिति ऐसी बतों का सामना किया, किस प्रकार शत्रु का दमन नहीं है कि हम इस प्रकार की कविताओं को प्रोत्साहन किया तथा उन्होंने कौन-सा बल, साहस या पराक्रम दें। उस समय हिन्दू-मुसलमान दोनों शासक थे। दिखाया। अधिकांश पद्यों में भयत्रस्त मुग़लों की दोनों राजनैतिक शक्ति के लिए लड़ रहे थे। दोनों एक स्त्रियों का वर्णन है और औरंगजेब को कोसा है कि दूसरे को हिन्दुस्तान से हटा देने का स्वप्न देख रहे तूने बाप को कैद किया, भाई को मारा, तुझे नक थे। आज वह बात नहीं रही। आज दोनों पराधीन होगा। यह असमर्थों और अपाहिजों की वाणी है। हैं और यह अनुभव कर रहे हैं कि मिलकर रहने में समर्थ अन्याय का दमन स्वयं करते हैं, ईश्वर का ही कल्याण है। इस दिशा में प्रयत्न भी जारी है। सहारा नहीं लेते। ऐसी दशा में यदि हम औरंगजेब और शिवाजी का वह असल में रोति-ग्रन्थों का युग था। सभी कवि समय बनाये रहें और गायें कि
अलङ्कार के ग्रन्थ बनाते थे और नायिकाभेद लिखते
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
भूषण का दूषण
थे। युग के प्रभाव से भूषण भी नहीं बचे। उनका ग्रीषम तपनि एती तपनी न सुनि कान, शिवराजभूषण अलङ्कार का ही ग्रन्थ है और शिवा- कंज कैसी कली बिनु पानी मुरझाती है । बावनी के कवित्तों में भयत्रस्त मुग़ल-स्त्रियों का वर्णन तोरि तोरि आछे से पिछौरा सों निचोरि मुख, नायिकाभेद का ही एक स्वरूप है। वे कहते हैं, शिवाजी कह 'अब कहाँ पानी मुकतों मैं पाती हैं ?" || की धाक सुनकर मुग़लानियाँ डरी हुई भागी जा रही तात्पर्य यह कि जिस वक्त शिवाजी और औरङ्गहैं, उनकी साड़ियाँ ढीली हुई जा रही हैं, पैजाम जब में लड़ाई हो रही थी भूषण यह देखने में लगे खिसकते जा रहे हैं, बाल बिखर रहे हैं, बहुतों की थे कि मुग़ल-राजघराने की सुन्दर सुकुमार औरतें सुथनियाँ उतर भी गई है, स्तन खुल गये हैं। पर्दे से निकल कर कहाँ किस प्रकार धक्के खा रही कुछ उदाहरण लीजिए---
है। वीर योद्धा अपने शत्रु की स्त्रियों के साथ बाजि गजराज सिवराज सैन साजतहि, उदारतापूर्वक पेश आते हैं। उन्हें इस प्रकार भयत्रस्त दिली दिलगीर दसा दोरघ दुखन की। नहीं करते-उनका इस प्रकार उपहास नहीं करते। तनियाँ न तिलक सुथनियाँ पगनियाँ न,
फिर यह भी एक प्रश्न है कि शिवाजी से शाही घामै घुमरात छोड़ संजियाँ सुखन की ।।
औरत ही क्यों इतना डरी हुई थीं। मुग़लों की फौज भूषन भनत पतिबाँह बहियाँ न तेऊ, नहीं भगी, सरदार नहीं भगे, स्वयं औरङ्गजेब नहीं छहियाँ छबीली ताकि रहियाँ रुखन की। भगा। उसके महलों पर शिवाजी का क़ब्ज़ा नहीं बालियाँ बिथुरि जिमि आलियाँ नलिन पर, हुआ, पर उन महलों से शाही औरतें भग निकलीं। ला लियाँ मलिन मुगलानियाँ मुग्खन की।
ग़रीबी और विवशता ने उनके वस्त्र उतार लिये । इस
प्रकार कामुक हिन्दू-समाज ने उनके नग्न अङ्गों को आगरे अगारन कै फाँदती कगारन छ्वै,
देखा । वीर-रस की आड़ में भूषण ने तत्कालीन बाँधती न बारन मुखन कुम्हिलानियाँ।
कामुक हिन्दू-समाज के सामने मुग़ल-राजवंश की कीबी कहैं कहा औ गरीबी गहे भागी जाहिं,
सुकुमार सुन्दरियों को नङ्गी करके इस प्रकार उपबीबी गहे सूथनी सु नीबी गहे रानियाँ ।
स्थित करके खूब यश और धन लूटा है ! खेद है अन्दर ते निकसी न मन्दिर को देख्यो द्वार, कि उनकी इस गंदी मनोवृत्ति को आज भी हम बिन रथ पथ ते उघारे पाँव जाती है।
वीर-रस की पवित्र मन्दाकिनी समझते और उसी हवा हू न लागती ते हवा ते बिहाल भई, रूप में उसका आदर करते हैं । यदि हमारे साहित्य में लाखन की भीरि में सम्हारती न छाती हैं। वीर-रस का अभाव है तो हमारा यह कर्तव्य है कि भूषन भनत सिवराज तेरी धाक सुनि, हम उसकी वृद्धि करें। न कि यह कि जिसमें वीरता हयादारी चीर फारि मन मुझलाती हैं। का नाम-निशान नहीं है उसका दंभ करके अपने ऐसी परी नरम हरम बादशाहन की,
आपको धोखा दें। शिवाबावनी धोखे की टट्टी है । नासपाती खाती ते बनासपातो खाती हैं ।।
महात्मा जी ने यह प्रश्न बहुत ठीक उठाया है।
हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का यह कर्तव्य है कि वह सांधे को अधार किसमिस जिनको अहार, शीघ्र स शीव्र समस्त पाठ्य पुस्तकों से ऐसे जहरीले चारि को सो अंक लंक चंद सरमाती हैं। अंश निकाल दे और जैसा कि महात्मा जी कहते ऐसी अरि-नारी सिवराज बीर तेरे त्रास, हैं, नवीन राष्ट्रीय दृष्टि-कोण से नये पाठ्य ग्रन्थों पायन में छाले परे कन्द-मूल खाती है ।। का निर्माण करे।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोणार्क
लेखक, श्रीयुत अन
'कोणार्क' उड़ीसा प्रान्त का एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। इस लेख में पाठक जी ने वहाँ के
स दिन रात्रि के १२ बजे थे, पौष मास का शुक्लपक्ष था । हम दस व्यक्तियों ने कोणार्क देखने के लिए यात्रा की । कटक से रेलगाड़ी द्वारा पुरी पहुँचे। स्टेशन पर ही स्नानादि से निवृत्त हो गये। रायबहादुर [ मन्दिर का पश्चिमी भाग, हमारे दो साथी खड़े हैं ।] दूधवाले की धर्मशाला में सामान रखकर जगदीशमन्दिर देखने के लिए चले । थोड़ी देर तक मन्दिर का परिदर्शन किया, फिर भात लेकर खाया। इसके बाद कोणार्क जाने के लिए ४ बैलगाड़ियाँ १८) रुपये में ठीक की गई ।
[मन्दिर का उत्तरी द्वार जिसे सरकार ने बन्द कर दिया है । ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat ३२
उ
पुरी से कोणार्क २५ मील की दूरी पर एक बालुकामय स्थान है । वहाँ जाने के लिए दो रास्ते हैं—एक मोटर का, दूसरा बैलगाड़ी का । मोटर अनेक स्थानों का चक्कर
[ कोणार्क-मन्दिर के भोगशाला का पूर्व द्वार । ]
www.umaragyanbhandar.com
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
की या त्रा
सू या प्रसाद पाठक
प्रख्यात मन्दिर का जो संक्षिप्त विवरण दिया है, वह पाठकों को काफ़ी मनोरञ्जक प्रतीत होगा। मारते-मारते कोणार्क के ५ मील इधर ही पसर जाता है-- बालू को देखकर उसके नथुने फूल जाते हैं । और बैलगाड़ी कितने ही मुर्दे बैल क्यों न हों, मन्दिर तक ले ही जाती है। हम लोग गाड़ियों में बैठ कर कोणार्क को ४ बजे संध्या-समय रवाना हुए।
पुरी नगर के बाहर आने पर बालुकामय मार्ग का श्रीगणेश हो गया। सारे हिन्दुस्तान भर में जिसकी लोग इतनी खोज करते हैं वही केवड़ा, यहाँ मार्ग के दोनों तरफ़ बन्दनवार-सा सुशोभित था। जहाँ तक मार्ग दिखता, दोनों तरफ़ केवड़ा या माऊ के ही वृक्ष दिखते । रात को १० बजे हम लोग एक गाँव में पहुँचे । यह गाड़ीवालों का गाँव था। बैल बदलने और भोजन करने के लिए वे लोग रुक गये। हम लोगों ने भी यहीं जलपान कर लेना उचित समझा।
रात को १२ बजे वहाँ से चले । पौष मास का
[ मन्दिर का पूर्वी द्वार।]
[मन्दिर का दक्षिणी भागा-रश के साथ शिलाखंड का सिंह।]
[कोणार्क-मन्दिर के ऊपर की मूर्ति । ]
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
सरस्वती
[ कोणार्क मन्दिर के प्रकाण्ड शिलाखण्ड के हाथी जिनका वज़न ३५० मन से ऊपर माना जाता है । ] कृष्णपक्ष था । त्रयोदशी की अँधेरी रात थी। लालटेन की रोशनी के सिवा और कुछ भी दिखाई नहीं देता था। रास्ते से हम सब यात्री अपरिचित थे । बालू की खर-खर की आवाज़ के सिवा कुछ न सुनाई देता था । गाड़ी कहाँ जा रही है, पता नहीं था । रामभरोसे चल रहे थे। सूर्योदय की प्रतीक्षा में सारी रात बीत गई। जब सुदूर पूर्व की ओर लाल-लाल किरणें खेलती दिखलाई दीं, मन प्रफुल्लित हो उठा। गाड़ी से उतर कर सब पैदल ही चलने लगे। चारों ओर बालू थी। बालू के टीले थे । कहीं कहीं भाऊ के वृक्ष दिखलाई पड़ रहे थे । समुद्र का गर्जन सुनाई दे रहा था। चलते-चलते हम लोग एक नदी के पास आये । गाड़ीवालों से पूछने पर पता लगा कि इस नदी का नाम “लियाखिया” (लेना-खाना) है । गौराङ्ग महाप्रभु जिस समय कोणार्क के दर्शनार्थ यहाँ श्राये थे उस समय इस नदी में स्नान कर इसी ग्राम में लेकर भोजन किया था, इसी लिए इसका नाम पड़ा 'लियाखिया' । हम लोग भी प्रातःकर्म कर नदी के ऊपर के ग्राम में गये और मूड़ी (चावल भाजा) और नारियल लेकर खाया । गाड़ीवालों ने खाया । बैलों को भी खिलाया। गाँव छोटा था, १०-१५ घर थे ।
८ बजे यहाँ से प्रस्थान किया। बालू के सिवा दूर तक किसी बस्ती का पता न था। बालू में चलने में बड़ा
-
[ भाग ३६
श्रानन्द श्राता था । बीच-बीच में कहीं-कहीं पीली, कहींकहीं कालो बालू भी मिलती थी । चलते चलते ४ मील चले ग्राये | समय ११ के क़रीब हो गया था। पूछने पर पता लगा कि समुद्र के किनारे रामचण्डी नाम का एक ग्राम है । यहाँ से क़रीब एक मील होगा । हम लोगों ने निश्चय किया कि वहीं समुद्र में स्नान करेंगे, भोजन आदि बना कर खायेंगे ।
यथासमय रामचण्डी पहुँच गये। यह स्थान एकदम समुद्र के किनारे पर था। यहाँ से कोणार्क दो-तीन मील
उत्तर-पूर्व के कोने में था । मन्दिर का ऊपरी भाग साफ़ दिखलाई देता था । रामचण्डी ६-७ घरों की बस्ती थी । एक काली मन्दिर भी था। हम समुद्र स्नान करने के लिए गये । नदी की छोटी लहरियाँ, सूर्य की किरणों से चकचक होती चल रही थीं। उधर महासागर की उत्ताल तरंगें आकर उनसे मिलती थीं। बड़े श्रानन्द के साथ दो घंटे तक समुद्रस्नान किया। दो बजे भोजन-सामग्री जुटाई गई। खापीकर ४ बजे कोणार्क को चल पड़े। फिर पैदल चलना आरम्भ किया । गाड़ी का मार्ग छोड़कर मन्दिर को देखते बालू से होकर सीधा चले और ६ बजे शाम को कोणार्क पहुँच गये ।
कोणार्क में बाबू दिव्यसिंह महन्ती के यहाँ हम लोग उतरे। उनके विनम्र, शान्त एवं सुशील स्वभाव से सबों को बड़ा आनन्द मिला । कोणार्क २०-२५ घर की बस्ती
[ मन्दिर के पीछे का रसोईघर, जिसमें भगवान् सूर्य्य का भोग बनता था | ]yanbhandar.ocn
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोणार्क की यात्रा
संख्या १ ]
है। यहाँ एक सरकारी डाक बँगला भी है। दिव्यसिंह बाबू के घर में बड़ी भीड़ थी, कोई सभा हो रही थी, इसलिए भोजन के लिए १२ बज गये। रात को यह निश्चय किया गया कि सवेरे ३ बजे उठकर चन्द्रभागा चला जाय । यहाँ का सूर्य-दर्शन प्रसिद्ध है । माघ- सप्तमी के दिन यहाँ एक बड़ा भारी मेला होता है। १० हज़ार के क़रीब नरनारियों का जमाव होता है। कोणार्क से २ मील की दूरी पर चन्द्रभागा समुद्र से मिलती है ।
३५
[पत्थर पर सहस्रदल कमल ]
क़रीब ४॥ बजे नींद खुली। प्रातःसमीर में विचरते हुए चन्द्रभागा-पुलिन पर पहुँचे। चन्द्रभागा में पानी नहीं था । केवल १५-२० हाथ लम्बा ४ हाथ चौड़ा एक कुण्ड था । उसी में थोड़ा पानी था, थोड़ी दूर चलकर चन्द्रभागा का मुहाना था। पर पानी का प्रवाह न होने के कारण मुहाने लगे। पूर्व की ओर समुद्र की कोख से द्वितीय चन्द्रकार के को देखकर आनन्द नहीं मिला। यह चन्द्रभागा पहले 'चित्रोत्पला' के नाम से पुकारी जाती थी। चीनी यात्री हूएनसाँग ने अपने यात्रा वर्णन में जिस 'चित्रोत्पला' का उल्लेख किया है वह यही है । ग्रीक लेखक टोलेमी ने मुहाने पर जिस नागर बन्दर का उल्लेख किया है वह यहीं
समान एकदम लाल दिखलाई दिया। थोड़ी ही देर में वह अरुण अर्ध चन्द्राकार में परिणत हो गया। अब वह सोने के घड़े के आकार में परिणत हुआ । साफ़ मालूम देने लगा जैसे कुंभकार चाक में घड़े को फिराता है। इसके बाद यह देखा गया, मानो कोई लाल लट्टू घुमाया जा रहा हो। फिर वह एकाएक ऊपर उठ गया । दिग्दिगन्त में किरणें दौड़ गई । शान्ति भंग हो गई । यही
बतलाया जाता है 1
हठात् हम लोगों की आँखें पूर्व की ओर गई। अब हम श्रानन्द- सिन्धु की लहरियों में खेलने लगे । सर्वत्र
नीरवता, निस्तब्धता, शान्ति-किसलय-युक्त पौधे लहलहाने
श्रद्भुत दृश्य देखने के लिए माघ-सप्तमी को यहाँ १०-१२ हज़ार ग्रादमी एकत्र होते हैं। उसी दिन का सूर्योदय- दर्शन पुण्यप्रद भी माना जाता है । इस सूर्योदय की सुन्दरता का आँकना चित्रकार की तूलिका की शक्ति के बाहर की बात है ।
इसके सौन्दर्य से विस्मय-विमुग्ध होकर हमारी मण्डली की सरोजनी चौधरानी के ५ वर्षीय नाती ने कहा कि मा (नानी) देख तो कितना सुन्दर दिखाता है । ५ वर्ष के बालक को भी उस अलौकिक सुन्दरता का परिबोध हुआ । यह दृश्य देखने के पश्चात् समुद्र की लहरों के साथ खेलने लगे । २०-२० हाथ ऊँची उदधि-ऊर्मि उठती थी । स्नान कर हम सब कोणार्क को लौटे ।
कोणार्क का प्रसिद्ध मन्दिर अति जीर्ण अवस्था में
[कोणार्क से एक मील दूर दक्षिण रामचण्डी ग्राम का है। प्रधान मन्दिर गिर गया है। सामने का हिस्सा जिसे भोगशाला कहते हैं, विद्यमान है। इसके अन्दर
काली मन्दिर । ]
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
सरस्वतो
[भाग ३६
जाने का द्वार बन्द कर दिया गया है, क्योंकि इसके भी गिर जाने का भय सदा रहता था। घूम-फिरकर मन्दिर देखा। यह मन्दिर उत्कल की शिल्पकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। मन्दिर रथाकार है। इसमें अश्व भी पत्थर के ही बनाये गये हैं, जिनकी संख्या सात है । उत्तर और दक्षिण की तरफ़ पत्थर के बड़े बड़े चक्र (पहिया) हैं । उन्हीं पर यह विशाल मन्दिर स्थित था। यहाँ की छोटी से लेकर बड़ी बड़ी तक-सभी मूर्तियाँ तक्षणकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। छोटी-छोटी मूर्तियाँ इस खूबी से सुसजित की गई हैं मानों सजीव हों। प्रत्येक मूर्ति जैसी चाहिए वैसी ही बनाई गई है-कला [प्रधान मन्दिर जो टूट गया है उसके भीतर की वेदी।। की सूक्ष्म से सूक्ष्म बात अंकित करने में कुछ छोड़ा नहीं उन्होंने इसी मैत्रेयवन में चन्द्रभागा के तट पर सर्य गया है। मख्य मन्दिर में जहाँ सूर्यनारायण की प्रतिमा की आराधना की थी और वे अपने रोग से मुक्त हुए थे। थी. अब भी ऐसी सुन्दर मूर्तियाँ हैं जो हाल की बनाई उन्होंने इस स्थान पर सूर्य-ग्रह-मन्दिर बनवाया था और जान पड़ती हैं। मन्दिर के ऊपर शिला की एक बड़ी मूति उसकी पूजा की व्यवस्था भी की थी। केशरी-शासन-काल खड़ी है। मन्दिर के चारों तरफ़ जगह जगह तरह तरह में परन्दर केशरी ने इसी स्थान पर एक नया मन्दिर बनकी मूर्तियाँ रक्खी हुई हैं। कोई नृत्य का प्रदर्शन कर रही वाया था और पूजा का विशाल आयोजन किया था। हैं तो कोई वाद्य-यन्त्रों का। मन्दिर के सामने जो भोगशाला परन्तु दुर्दैव की प्रेरणा से आज वही स्वर्गापम कोणार्क है उसके द्वार पर सिंह की मूति है। उसके पास ही बालुकामय मरुभमि में परिणत हो गया है। पहले यह एक कमल बनाया गया है।
सम्पत्तिशाली नगर और प्रसिद्ध बन्दर ही नहीं था, किन्तु कोणाक एक प्राचीन स्थान है। प्राचीन काल से इसे उत्कल की राजधानी होने का भी गौरव प्राप्त हा यह सूर्योपासना का एक प्रसिद्ध पीठ रहा है और यह था। कालान्तर में जब यहाँ का प्राचीन मन्दिर जरा'मैत्रेयवन' के नाम से विख्यात था । श्री कृष्ण के पुत्र जीर्ण हो गया तब उत्कल-नरेश नरसिंहदेव ने वर्तमान साम्ब जब शापवश कुष्ठ-रोग से ग्रसित हुए थे तब मन्दिर बनवाया था। नरसिंहदेव के राजत्वकाल में ईसवी
सन् १२२५ में इस मन्दिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया गया था और सन् १२४० में अर्थात् १६ वर्ष में बन कर तैयार हुआ था। उस समय के हिसाब से इसके निर्माण में ४० कोटि रुपया व्यय हुअा था। १,२०० कारीगर तथा मज़दर इसके बनाने में लगे रहे। बड़ा मन्दिर २३० फुट
और भोगशाला १५० फुट ऊँचे थे। बड़ा मन्दिर तो ध्वंस हो गया है। भोगशाला का शिखर भी भग्न हो गया है । तो भी उसकी उँचाई १३० फुट है। मन्दिर १६ फुट की पीठ पर स्थापित है। इसमें जो हाथी थे वे उत्तर
तरफ़ दूर खड़े हैं । दक्षिण तरफ़ भी हैं। जिस आधार [लियाकिया नदी और सागर का संगम । ] पर मन्दिर बनाया गया है उसका भार धारण करनेवाले
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
कोणार्क की यात्रा
[ मन्दिर के रथ का चक्र जिस पर समूचा मन्दिर स्थित है । नक्काशी का सर्वोत्कृष्ट नमूना । ]
चक्रों का घेरा १४ फ़ट है। इसमें नाना प्रकार की चित्रकारी की गई थी। भोगशाला २४ पहियों के सात अश्वों पर स्थित है । मन्दिर के चारों तरफ़ प्राचीर भी है। इसका घेरा ५४० फ़ुट है । यह सब ११ एकड़ भूमि में स्थित है ।
पुरी, भुवनेश्वर और कोणार्क - इन तीनों स्थानों के मन्दिर अपनी कारीगरी के लिए भारत प्रसिद्ध हैं । इन मन्दिरों में तीन बातों की विशेषता दिखाई देती है । पहली है उनकी शिल्पकला, दूसरी है उनकी विशालता और तीसरी है उनकी गंभीर आध्यात्मिकता । कोणार्क में ये तीनों बातें प्रचुर परिमाण में देखने को मिलती हैं। जिन शिल्पियों ने मनोनिग्रह पूर्वक अपनी कारीगरी मूर्तियों की रचना में प्रदर्शित की है उनकी वह कारीगरी इस क्षत-विक्षत अवस्था में भी भले प्रकार दिखाई देती है। टूट जाने पर भी कोणार्क-मन्दिर मनोमुग्धकारी है । उसकी चित्रकला प्रति विस्मयजनक है । मन्दिर के निर्माण में बड़ी बड़ी शिलायें काम में लाई गई हैं । मन्दिर के पूर्व-द्वार पर पत्थर की एक बड़ी पटिया पर नवग्रहों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई थीं । मन्दिर के टूट जाने से वह पटिया गिर गई है। वह वहाँ से उठाकर पास के अजायबघर में रख दी गई है । जिस पटिया में विस्मयजनक सुन्दर सुडौल मूर्तियाँ बनी हुई
Shree Sudharmaswamt Gyanbhandar-Umara, Surat
३७
हैं वह २० फ़ुट लम्बी, ५ फ़ुट चौड़ी और ४ फ़ुट मोटी ७४० मन कहा जाता है। नवग्रहों
है। उसका वज़न की मूर्तियों की इस पटिया का कलकत्ते के म्यूज़ियम में ले जाने का बड़ा प्रयत्न किया गया था । मन्दिर से समुद्र तक ट्रामवे लाइन लगाई गई थी। इस काम में सरकार की ओर से काफ़ी अर्थ व्यय किया गया । पर नवग्रह की मूर्तियों की पटिया टस से मस नहीं हुई। उसके तृतीयांश को तोड़ कर ले जाने का उपाय किया गया, पर वह भी व्यर्थ हुआ । तब से मन्दिर से कुछ दूर पर वह छोड़ दिया गया । चन्द्रभागा के मार्ग में एक झाड़ी के नीचे बालू में वह पटिया दबी पड़ी है। सब मूर्तियाँ वहीं पास के मन्दिर में सुरक्षित रक्खी हैं।
बड़े मन्दिर के ऊपर एक गजसिंह की मूर्ति थी। वह आज वेढ़ा में पड़ी है । उसका वज़न १,३०० मन के क़रीब होगा । यह विशाल मूर्ति मन्दिर के ऊपर १६० फुट की ऊँचाई पर रक्खी गई थी। बड़े मन्दिर के शिखर में जो पत्थर का कलश था, वह एक पत्थर का बना हुआ था और उसका वज़न ५,६०० मन था । यह विशाल कलश २०० फ़ुट की ऊँचाई पर रक्खा गया था । श्राजकल के यांत्रिक युग में नवग्रह की पटियों का तृतीयांश ले जाना संभव नहीं हो सका । किन्तु उत्कल के शिल्पियों ने आज से ६०० वर्ष पूर्व न मालूम किस शक्ति से उन सबको उठाकर उतने ऊँचे चढ़ाया था तथा वे पत्थरों को
[लियाकिया ग्राम में यात्री साथी जलपान कर रहे हैं ।]
www.umaragyanbhandar.com
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
कहाँ से किस प्रकार लाये थे । इस प्रदेश में २५ कोस तक बतलाई। इस पर उसका पिता बहुत नाराज़ हुआ । अन्त केवल बालू ही बालू है । मन्दिर के निर्माण में किसी प्रकार में धर्मा के विशेष अनुरोध पर पिता ने उसे आज्ञा दे दी। का गारा-चूना नहीं लगाया गया है। और यह इतना उसने एक रात में ही मन्दिर के शेष कार्य को तैयार कर विशालकाय मन्दिर बनाकर किस प्रकार खड़ा किया गया दिया । होगा, यह और भी एक इसकी अद्भुत बात है।
सवेरा होते ही मन्दिर को पूरा बना देखकर सब ___ इस मन्दिर के निर्माण में एक और मज़ेदार घटना कारीगर आश्चर्य में डूब गये। और जब उन्हें यह मालूम है | उड़ीसा के प्रसिद्ध नाटककार अासुनी बाबू ने उसका हुआ कि एक १२ वर्ष के बालक ने शिखर को इस तरह उपयोग अपने 'कोणार्क' नाटक में किया है। वह घटना तैयार किया है तब वे और भी चिन्ता में पड़ गये। वे इस प्रकार है-नरसिंहदेव के समय में वीसी महाराणा सोचने लगे कि यदि राजा जानेगा तो सबको बिना मारे नामक एक शिल्प-विशारद था। वह बड़ा बुद्धिमान् था। न छोड़ेगा। इस बात को लेकर वे उसी के ऊपर बिगड़े। उससे भूल कभी नहीं होती थी। और होती थी तो कोई धर्मा यह स्वार्थ-पूर्ण दृश्य देखकर दुखी हुश्रा और उसने पकड़ नहीं पाता था । कोणार्क-मन्दिर के निर्माणकर्ताओं अात्महत्या करने का निश्चय किया। वह उसी समय में वह प्रधान था। उसके नीचे १,२०० कारीगर काम पास के समुद्र में जाकर कूद पड़ा। वीसी भी झपटा, पर करते थे। मन्दिर जहाँ है, पहले वहाँ समुद्र का पानी लोगों ने उसे पकड़ लिया। वीसी शोक में पागल हो भरा रहता था। मन्दिर बनकर तैयार हो गया, पर शिखर गया। राजा ने जब सना कि मन्दिर बन गया है तब का बनना शेष था। इसी बीच में राजा ने हुक्म दिया कि वीसी पर बहुत खुश हुअा और उसे पुरस्कार देने का मन्दिर को बनते १२ वर्ष बीत गये हैं और वह अभी तक निश्चय किया। पर राजा को इसका पता लग गया कि बनकर तैयार नहीं हुआ है । यदि मन्दिर १५ दिन के भीतर धर्मा ने मन्दिर को तैयार किया है और वह समुद्र में डूबबनकर न तैयार होगा तो सब मिस्त्रियों को प्राणदण्ड दिया कर मर गया है। राजा बहुत दुखी हुआ और धर्मा की जायगा। वीसी महाराणा को घर छोड़े १२ वर्ष हो गये प्रतिमा मन्दिर के सामने बनवाने का निश्चय किया। पर थे। उसकी अनुपस्थिति में उसके एक पुत्र हुआ। उसका वह कार्य बाद को न हुआ। नाम धर्मा था। बाल्यकाल से वह शिल्पकला सीखने कोणार्क का यह सूर्यमन्दिर पुरी तथा भुवनेश्वर के लगा। एक दिन माता से उसे अपने पिता का इतिहास मन्दिरों की तरह अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है । मालूम हुआ। अतएव वह अपने पिता के पास जाने का परन्तु यहाँ के इन भव्य मन्दिरों की शृङ्गारिक मूर्तियों से
आग्रह करने लगा। उसकी माता ने बहुत समझाया, उड़ीसा के विलासमय जीवन का भी प्रमाण मिलता है। पर उसने न माना और वह उसके पास चला गया। पुरी, भुवनेश्वर और कोणार्क की विलासमय जीवन के वह उसके पास उसी समय पहुँचा था जब राजा ने उक्त द्योतक मूर्तियों को देखकर आश्चर्य इसलिए होता है कि अादेश किया था। पिता को चिन्ताग्रस्त देख तथा उसका धर्म-स्थानों में यह सब प्रदर्शन क्यों किया गया है और कारण जानकर धर्मा मन्दिर के निकट गया। वहाँ से दुःख इसलिए होता है कि कला का बेरहमी के साथ लौटकर उसने अाकर मन्दिर की त्रटियाँ पिता को दुरुपयोग किया गया है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
कलिंग युद्ध
लेखक, श्रीयुत अनूप शर्मा, एम० ए० एल०टी०
[कलिंग-युद्ध भारतीय संग्रामों में एक ऐतिहासिक संघर्ष है । यह वह युद्ध है जिसने सम्राट अशोक के जीवन को कहाँ से कहाँ प्रवाहित कर दिया । संसार - विजिगीषु चक्रवर्ती को धर्माचार्य बनानेवाला यह युद्ध भारतीय इतिहास में चिर- स्मरणीय रहेगा । प्रस्तुत प्रसंग में उसी युद्ध का संध्याकालीन दृश्य है जब सम्राट अशोक, लाखों की संख्या में वीरों का संहार करके, उसी युद्ध भूमि के मध्य से होकर अपने शिविर ACT जा रहा है । जाते-जाते वह निम्नलिखित मर्मवेधी शब्द म्रियमाण सैनिकों के मुख से सुन रहा है -]
( १ )
साहस ने शक्ति ने, समुन्नति की साधना ने,
नाश को, निपात को, निधन को जगा दिया। आहत जनों के प्राण वायु की प्रतारणा ने,
आह के धुएँ को आसमान में लगा दिया || क्रोधित नृपों के युग लोहित विलोचनों ने,
लौह लेखनी से युद्ध-पटल रँगा दिया | हाय ! प्रतिशोध के पिशाच सूत्र- धारकों ने,
वीर नायकों को रंग- मंच से भगा दिया ||
( २ )
देखो म्रियमाण की दशा को भर लोचनों को,
तड़प रहा है अंग अंग, मृत्यु आई है । पीतभूमिका पै रक्त-रंग के प्रसंग-संग,
लाल लीक ललित ललाट पर धाई है ॥ अटक रही है कंठ-कूप में गिरा की धार,
शुष्क रसना ने कुछ स्नेह-पुट पाई है । उसकी पुकार - लौ गमिष्यमाण दीपक की-
युद्ध-भूमि-मंडल में श्रूयमाण छाई है ||
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
( ३ )
"हाय, हाय ! पुत्र मेरे ! हाय, रे कलत्र मेरे !
हाय, भूप ! जिसके लिए यों मैंने जान दी ।
जिसके लिए ही हा, हा ! पेट भरने के हेतु,
सुभट- संहारिणी लड़ाई घोर ठान दी ॥
३९
सुनता नहीं है आज वह भी नृपाल मूढ़,
जिसने मुझे है ऐसी विपति महान दी ।
ज्ञात होता, भूप के अनूप कर्ण - कुंजरों को,
धिर विधाता ने अहंता की अलान दी |
(8)
तो फिर सहाय सर्व-शक्तिमान शंकर तू,
तेरे दरबार में प्रवेश दोन पाता है । तेरे ही अचल चरणों में क्रोस पीड़ितों का,
टूटता नहीं है जब जाके टकराता है ।।
शेष में शयान एक तू ही शेषशायी नाथ !
तू तो सुनता है, तू ही विश्व का विधाता है।" यह कह लोहू के पलंग पै तड़प वीर,
- गति वाले मार्ग द्वारा स्वर्ग जाता है ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
(५)
(९)
जब लौं नृपाल एक तुच्छ वस्तु के ही हेतु, "एहो प्रजा-पीडक पतित पृथिवी के पति !
___ मरते हुओं को देखते हैं आँख भर के। आपके लिए ही पूतनायें ध्वजा धारतीं। तब लौ सहानुभूति-संयुत न होगी सृष्टि, भ्राता की द्वितीया का सु-बत छुट जाता हाय !
तब लौं रुकेगी न कृपाण नाश करके ॥" वीर-बहनों की श्रेणियाँ 'धिक' पुकारतीं। खोकर असंख्य प्यारे पुत्र संगरस्थल में, आपके लिए ही मायें हृदय विदारतीं। "हत ! वह काल
"हंत! वह काल जब शोणित-पिपासुओं ने, मसक कलेजा आँसू कसक निकालती हैं,
संयम हिलाकर स्वभाव को डुला दिया। आपके लिए ही विधवायें धाड़ मारतीं।"
संगर-निशा में नर-नाह-नीति-नायिका को,
भीति-कुट्टिनी ने नाश-नायक बुला दिया ॥
भेंट भूत-नाथ को दे जब भूमि-नायकों की, "आदिम अनादि में कि इस ब्रह्म-मंडल में,
भूमियों को भूमि में निधन ने सुला दिया । ज्योति भी न जब थी, तमिस्र भी न छाया था। प्यारी शान्ति ! सुखद हमारी शान्ति ! तूने तब, जब सार-संचित असार में-अभाव में-यों,
कैसे वह प्रेम-पूर्ण जीवन भुला दिया ॥" ___ भाव उत्तरोत्तर प्रवर्धमान छाया था। ऐसे एक विपुल विकास को शरीर दे के,
(१०) ___ जब श्री मुकुन्द ने जगत उपजाया था। "आगे मूर्तिमान भय सारथी-समान डटा, युद्ध का प्रचार न किया था अवनीतल पै,
मृतक-मही को पार करता दिखाता है। ऐसा नारकीय कृत्य ध्यान में न आया था।" क्रोश का, प्रहार का, विरोध और संगर का,
चार चक्रवाला रथ जोते लिये जाता है । "तब तो नृलोक-मौलि-मंडित महीप-वृन्द !
धूल के समान संज्ञा उड़ती मनुष्यता की,
ध्वस्त प्रलयानिल से ध्वज फहराता है। एहो भौम ईश्वर ! तुम्हारा यह काम है। .. अपने कुकृत्य का प्रचंड परिणाम लखो,
। भू पै शव-भार और शव पै निधन-भार, . पहुँची पताकिनी समस्त स्वर्ग-धाम है।
निधन पै भार प्रलयाग्नि का गिराता है।" हाय ! वह सुदिन उदित कब होगा नाथ !
. देखें कब होता पारतन्त्र्य का विराम है। "दाह युद्ध-भू की, भग्न-चाह मृत सैनिकों की, माने कब होता न विनाश भू का भूभुजों से,
आह भी अनाथों की, कराह विधवाओं की। जानें कब मिटता नृशंसता का नाम है ॥” चढ़ के समुच्च शव-शैल से प्रकाशती है, (८)
__ अग्नि जलते-हुए गृहों की और गाँवों की॥ "जब लौं क्षितीश ईश-अंश कहलानेवाले, । घोर हाहाकार के विघात से नृपालकों के,
___ होते हैं अनीश अवनीश नाम धर के। हिल उठी चूल है सिंहासनों के पाँवों की। एक शक्ति-मत्त की रहेगी शक्ति भूतल में, ज्ञात होता फिर से विरंचि विश्वामित्र बन,
जब लौं धरेंगे बाण वेष विषधर के॥ रचने लगे हैं सृष्टि प्रथित प्रजाओं की॥"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोविन्दचन्द्रिका
बाराबंकी जिले के शाहपुर के श्रीमान् कुँवर भूषणसिंह गोविन्दचन्द्रिका नाम के एक अप्रकाशित प्राचीन काव्य का पता इस प्रकार देते हैंगोविन्दचन्द्रिका महाकवि इच्छाराम की प्राप रचना है। इसकी रचना विक्रमीय संवत् १६८४ में हुई है। केशवदास के समकालीन होने के कारण केशव की कविता का प्रभाव इच्छाराम जी की कविता पर काफ़ी पड़ा है और इन्होंने रामचन्द्रिका की भाँति ही गोविन्द - चन्द्रिका की रचना की है।
जिस प्रकार रामचन्द्रिका में अनेक प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया गया है, वैसे ही इस पुस्तक में भी अनेक प्रकार के छन्द प्रयुक्त हुए हैं। दोनों पुस्तकों का प्रारम्भिक भाग भी बहुत कुछ एक-दूसरे से मिलता-जुलता है ।
परन्तु गोविन्दचन्द्रिका की कविता प्रसाद-गुण-पूर्ण है, रामचन्द्रिका की कविता की भाँति क्लिष्ट नहीं है । इसके सिवा इसका प्रबन्ध प्रशंसनीय है । कथाप्रवाह सम्यक् रूप से चलता है और वह अन्त तक समान रहता है, कहीं शिथिलता दृष्टिगोचर नहीं होती ।
महात्मा सूरदास जी की कविता मुक्तक रूप में है । उनके सूरसागर में सब कथाओं का पूरा वर्णन नहीं है । व्रजवासीदास-कृत व्रजविलास में कथायें पूर्ण तो हैं, पर उनमें साहित्यिक छटा का अभाव है । गोविन्दचन्द्रिका में इन दोनों बातों का सम्यक योग है । प्रबन्ध खूब गठा हुआ तथा साहित्यिक छटा से परिपूर्ण है । अतएव जो स्थान 'रामचरितमानस' को प्राप्त है, वही स्थान कृष्णकाव्य में 'गोविन्दचन्द्रिका' को प्राप्त होना चाहिए |
यहाँ हम उसके कुछ पद्य उदाहरण स्वरूप उद्धृत करते हैं
कुण्डलिया भाषा प्राकृत संस्कृत, बानि विभेद अनेक | बहुत रंग सुरभीन जस, हरि जस पय सम एक ॥ हरिजस पय सम एक विशदभव श्रामयहारी । गावहिं सुनहिं सुजान दसा मुदमंगलकारी ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
सत्र पूत जल वंग, गंग सँग सुचि सिर राखा । हरि गुन गान प्रमान, करहि काउ कौनिहु भाखा ॥६०॥ हरिगीत
हरिचरित नुपम कथ सब कह कोउ न पावत पार है । बिधि शंभु शारद नारदादिक को मति अनुसार है ॥ तहँ बापुरो मैं कौन गनती काम किल्विष मति भरे । लघु डारन को कमठ कैसा मंद मंदर गिरि धरै ॥ ६१ ॥ श्रीकृष्ण लीला अमृत अर्णव भरयो पूरण ब्रह्म है । तिहि ते कछू ले बुंदन किय यथामति प्रारम्भ है | हरिजन सुपारावार के करतार र आधार है । ले हैं सँवारि विचारि जन सुखसील के भंडार है ॥६२॥ तेहि उदधिते गोविन्द जसु सोई इन्दुपरिपूरन जन्यो । de चन्द्र की यह चन्द्रिका लखि नाम हरिभक्तन भन्यो । खल कमल एक बिहाइ सब कँह सुखद होइ अनादि की । हरिदास है भवरोग औषधि सुधा श्रम श्रवनादि की ॥ गोपाल पुंज प्रताप रवि लखि होइ नहिं छबि छीनता । हरि कृपापूरन छपा छिति बसिन है है हीनता ॥ ६४॥ गोविन्दचन्द्र प्रकाशिका हरि ग्रासिका अविकार है । सुख- रासिका भवनासिका को जान जाननहार है ॥ ६३॥ दोहा हरि की कीरति चंद्रिका, चारों फल की दानि । चारयो जुग श्राश्रमवरण, चारयो श्रुति नवखानि ||६५|| दंडक सुधा सिंधु सोमसेस संत श्री गणेसदंति
ऐरावति रविबाजि विसद बड़ाई है। देवधुनी धारापार नारद श्री शारदाऊ
हरिजू के हाथ शोभा शंखचक्र पाई है | हंस हीराहिमि शंभु शंभुसैल कुन्द कंद
चंदन मदार क्षीर बुद्धि सुद्धि ताई है । कृष्ण जू की कीरति ते सूरति ले एक कन
जग में कनि अनेक छबि पाई है || ६६ ॥ आशा है, कुँवर साहब या कृष्ण - काव्य-भक्त कोई प्रकाशक इस अप्राप्य प्राचीन काव्य ग्रन्थ का प्रकाशन कर साहित्य का उपकार करेंगे ।
४१
www.umaragyanbhandar.com
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक मनोरञ्जक कहानी
बहुरूपिया साधु
लेखक, श्रीयुत धर्मवीर, एम० ए० भ-यूँ ! ५-५--!"
आदमी न नजर आया। बाई ओर से ज़ोर-ज़ोर से १ इंजन को यह आवाज़ कान में चिल्लाने की आवाज़ आई। उधर भागा। देखा तो कई बार पड़ी। काग़ज़ों को वहीं मेज़ पर पटककर जमघट । अँगले के नजदीक पहुँचा तब जहाज के मैं ऊपर डेक पर आया। इधर-उधर देखा। कोई ऊपर के हिस्से से लाइफ़-बोट उतरती देखी। नीचे
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
JODHINJAHA -
[हर एक मुताफ़िर बहुरूपिया बन कर पाया
पानी में लाइफ-बुअाय (कार्क की पेटी) तैर रही थी। भी हो जाती। ख़ासकर उस समय जब नीचे समुद्र समझ गया कि कोई मनुष्य डूब गया है। जंगले के में कार्क की पेटी के पास किसी चीज़ के उभरने पास एक भारतीय महिला या सम्भवतः लंका की का ख़याल पैदा होता। इतने में जहाज का रुख बदल रहनेवाली स्त्री रो रही थी। बीच-बीच में वह चुप गया। पहले वह सीधा जा रहा था, अब बाई तरफ़
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
हो गया। उत्तर से उसने पश्चिम की ओर मुँह कर साधु का भेस बना कर आया तो कोई दूकानदार लिया। इसके बाद फिर मुड़ गया; पश्चिम से दक्षिण का। एक यहूदी बन कर आया तो दूसरा पादरी । को हो गया और दक्षिण से पूर्व को।
एक औरत बुढ़िया बन कर आई, दूसरी जादूगरनी । ___अभी पहला चक्कर पूरा न हुआ था कि लाइफ- सब स्त्री-पुरुष यात्रियों में से किसका रूप, वेष आदि बोट ऊपर से नीचे पहुंच गई। इसमें तीन मल्लाह थे। सर्वोत्तम है, इसका निर्णय करने के लिए तीन एक अधेड़ उम्र का, बाकी दो नौजवान । तीनों खूब निर्णायक नियत किये गये। उन्होंने फैसला दिया कि मजबूत थे। कश्ती के पानी को छूते ही उन्होंने समुद्र साधु का रूप धारण करनेवाला पहले नम्बर पर है। में रस्से फेंके। इनके अतिरिक्त कार्क की कई एक जब ग़पशप और तमाशे की बाते खत्म हो गई तब पेटियाँ भी फेंकी। परन्तु मेहनत बेकार गई; यात्री संगीत प्रारम्भ हुआ। इतने में साधु ने ऊँची आवाज़ का कुछ पता न चला। अब तो उस महिला ने फूट- में कहा-"ठहरो ! शांत हो जाओ!" फूटकर रोना शुरू कर दिया। वहीं दूसरे यात्री खड़े किसी ने पूछा-"क्या बात है ?" थे। नारी के रोने ने सबके दिल दहला दिये। फिर उत्तर मिला-"हम एक बात कहना चाहते हैं।" भी किसी को साहस न हुआ कि उसे तसल्ली देने की "हाँ हाँ, कहिए!" सब ओर से आवाजें आई। कोशिश करे । बेचारी को रोना ही तो एक चारा था। साधु ने अपनी कथा शुरू को-“सीलोन की इसे भी छीन लेना उसके साथ शायद जुल्म होता। राजधानी कोलंबो में मैं पहले डाक्टर था। यह
जहाज तीसरा चक्कर काट चुका था। जहाज पर पिछले जन्म की बात है।" काम करनेवालों में काना-कृसियाँ होने लगी कि अब इस पर सभी यात्री हँस पड़े। यह सीधा चलने लगेगा। तीन चक्कर हो गये है। साधु ने गम्भीरता की मुद्रा बनाते हुए कहाइससे ज्यादा समय देना इसके लिए मुश्किल है। "मेरी पत्नी बहुत अच्छी थी। उसका स्वभाव लेकिन मालूम नहीं, कप्तान के दिल पर उस अबला की बहुत शांत था। लेकिन कभी-कभी वह मुझसे मामूलीअवस्था ने असर किया या किसी अन्य बात ने, सी बात पर भी नाराज हो जाती थी-ख़ासकर उस उसने चौथे चक्कर के लिए हुक्म दे दिया। वह अभा- समय जब वह किसी बात पर अड़ जाती। एक बार गिनी जंगले के साथ सिर पटक रही थी। बाक़ी लोग हम दोनों चीन के शंघाई शहर की ओर जा रहे थे कि भी निराश हो चुके थे। जहाज़ ने आधा चक्कर और एक शाम को खाना खाने के बाद चहलकदमी के काट लिया। इतने में लाइफ़-बोट से कुछ दूर पर एक लिए ऊपर डेक पर आये। अँधेरा हो रहा था, किन्तु सफ़ेद-सी चीज़ तैरती हुई दिखाई दी। उस अधेड़ उम्र रात अभी नहीं पड़ी थी। इतने में हमको समुद्र के के मल्लाह ने बाज की तरह हाथ बढ़ाया और उसे पानी के ऊपर कोई चीज तैरती हुई दिखाई दी। मैंने पकड़ लिया। कश्ती पास आ गई थी। दूसरे मल्लाहा अपने जीवन-साथी से कहा-देखो, वहाँ मछली है । ने भी मदद की।
. तुम्हें भी नजर आती है ?"
____ "मछली ! मुझे तो मछली कहीं नहीं दिखाई [२]
देती। वह तो पक्षी है।" उसने कहा। . अगले दिन दोपहर से ही जहाज़ के डेक को "पक्षी ? हुँ।" मैंने सवाल किया- "अरे पक्षी झंडियों वगैरह से खूब सजाना शुरू कर दिया गया। होता तो अँधेरा हो जाने पर भी क्या वह अपने डिनर (रात्रि-भोजन) के बाद केंसी ड्रेस शो था। घोंसले को वापस न जाता ? क्या इतनी देर तक वह हर एक मुसाफ़िर बहुरूपिया बनकर आया। कोई यहीं उड़ता रहता ?"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
बहुरूपिया साधु
"यहाँ ही उड़ता रहता या नहीं, यह तो मैं नहीं "मैंने ही इस आदमी को बचाया है। हा-हा-हा ! जानती, लेकिन है यह पक्षी ही।" मेरी पत्नी बोली। आप लोग हँसते हैं। अगर आपको विश्वास नहीं ___ "तू भी पगली है।" मेरे मुँह से निकला। तो बेशक इसी समय कोई शख्स पानी में छलाँग
"पता नहीं, उसने इस बात का बुरा माना या लगाकर देख ले।" उसे यों ही गुस्सा आ गया। ज़ोर से कहने लगी- इस पर सभी यात्री खूब हँसे । जब हँसी जरा अच्छा, अगर मछली है तो अभी अभी मेरे काग़ज़ कम हुई तब जादूगरनी ने लाठी डेक पर मारी और फेंकने पर वह नीचे क्यों नहीं चली गई थी?" चिल्लाई-"अच्छा तुम लोग अगर इस बात को ___ "बस, इसी बात पर झगड़ा शुरू हो गया। अंत सच नहीं मानते तो इस आदमी से पूछो। (यहाँ में मैंने कहा-अच्छा तो लो मैं शीशी करता हूँ। उसने साधु की ओर इशारा किया ।) अपने दिल में यह कह कर मैं अँगले के ऊपर चढ़ गया। मैने दोनों यह शख्स जानता है कि मैंने इसे क्योंकर हाथों से ताली बजाने की कोशिश की । इतने में उधर बचाया है।" से धक्का आया। जहाज डोल रहा था। मेरा सिर इतना कहकर जादूगरनी ने अपना लंबा-सा चकराया और मैं पानी के अंदर जा पड़ा। कहते हैं, चोगा उतार दिया। पहले झुकी हुई थी, अब सीधी जब मैं डूब रहा था तब मेरी पत्नी बहुत रोई। इतना खड़ी हो गई। यह एक साधारण महिला थी। उधर कि उससे समुद्र-देवता का दिल पिघल गया। यह उस साधु ने भी बहुरूपियों के कपड़े उतार दिये थे। उस भाग्यवती का ही काम था कि मैं बच गया ।" अब वे दोनों कुर्सियों पर साथ-साथ बैठ गये। __ साधु अभी अपनी बात खत्म न कर पाया था उधर जहाज का कप्तान अपनी कुर्सी पर खड़ा हो कि वह स्त्री जो जादूगरनी बनी हुई थी, लाठी टेकती गया। उसने सबको बताया--"यही साधु हैं जो हुई मैदान में आई । उसने सिर हिलाते हुए कहा- आज डूबते-डूबते बचे हैं।"
लेखक, कुँवर हरिश्चन्द्रदेव वर्मा 'चातक' एकान्त शान्त में सञ्चय कर, लहरों की खींच खींच रेखा, गिरि की गृह गलियाँ छोड़ चुकी, यह स्नेह-धार अतिशय मनहर। या लगा रही हो यह लेखा। बाधा-बंधन सब तोड़ चुकीं । अब चली बाँटने ग्राम नगर, "देखें कब मिलते हैं प्यारे, अब जा अगाध से मिलो प्रिये ! सरिते ! किससे प्रेरित होकर ? जीवन-धन, नयनों के तारे" ? हाथों में फेनिल-फूल लिये !! प्रियतम का ध्यान हृदय में धर, दिन स्वर्ण लुटाता है आकर, मैं भी तुम-सा ही मिलनातुर, काल्पनिक मिलन भावों से भर। चाँदी बरसाती निशि लाकर। चल पडूं लगूं प्रियतम के उर। हो उठा रही लहरों के कर, पर तुम्हें न इनसे काम सखी!. फिर मेरापन सब बह जाये, सरिते ! तुम हो कितनी सुन्दर ? प्रियतम बिन कब आराम सखी! प्रियतम ही प्रियतम रह जाये।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
संगीतमय
मारवाड
गीत विश्व की एक अमर विभूति है। संसार
. में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ गीत का अस्तित्व न हो। मनुष्यों की पहुंच से दूर, प्रकृति के राज्य में भी, जहाँ न हारमोनियम है, न तबला है और न गीत बनानेवाले कवि ही हैं, संगीत का सच्चा रूप विद्यमान रहता है। प्रत्येक देश में, प्रत्येक जाति में, किसी न किसी अंश में गीत अवश्य गाये जाते हैं। जङ्गली जातियों में भी उनके विशेष अवसरों पर गायन और नृत्य होते हैं, यद्यपि उनका वह संगीत सभ्य समाज की समझ के बिलकुल बाहर होता है।
भारतवर्ष में अन्य देशों की अपेक्षा गीतों का अधिक प्रचार है। वैसे तो यहाँ भी ऐसा कोई स्थान नहीं बचा है जहाँ गीत न गाये जाते हों, तो भी कई प्रान्त गीतों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। उन प्रान्तों के गीतों पर अनेक लेखकों द्वारा खासा प्रकाश भी डाला गया है । किन्तु अभी तक मारवाड़ के गीतों के सम्बन्ध में हिन्दी-साहित्य में एक प्रकार से कुछ भी नहीं लिखा गया है। कुछ साहित्यिकों ने वैसा करने का प्रयास ज़रूर किया है, किन्तु एक तो उनके मारवाड़ी न होने के कारण, दूसरे गीतों की भाषा सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य न होने से वे विशेष रूप से अपने प्रयत्न में सफल नहीं हो सके। इसके अतिरिक्त मारवाड़ के गीतों के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की गलतफ़हमियाँ भी हिन्दी-साहित्य में फैली हुई हैं।
कई एक पुस्तकें एवं पत्रों के विशेषांक इस ढंग के प्रकाशित हुए हैं कि उनमें केवल चुन चुनकर मारवाड़ के गीतों की गन्दगी पर ही प्रकाश डाला गया है। इसके अलावा मारवाड़ के वे गीत जिनसे किसी दिन मारवाड़ का समूचा वायुमण्डल चारणों और बारहठों के सिंहनाद से गूंजा करता था, जिन गीतों से किसी दिन मारवाड़ के नवयुवकों में अद्भुत शक्ति उत्पन्न होती थी, आज वे गीत अन्धकार में पड़े हुए
JODHIN.ARN
लेखक, श्रीयुत बालकृष्ण पोद्दार
४६
mataganbhandar.com
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १ ]
हैं। कुछ अश्लील गीतों को लोगों के सामने रखकर जो घृणित प्रचार किया गया है वह निन्द्य है । इससे स्वयं मारवाड़ी नवयुवक भी अपने गीत-साहित्य को घृणित समझने लग गये हैं । किन्तु उन गीतों के सौन्दर्य की कहानी आज भी वहाँ बड़ी दिलचस्पी के साथ सुनी जाती है ।
संगीतमय मारवाड़
मारवाड़ में गीतों का यथेष्ट प्रचार है, और वहाँ उनका उपयोग बड़े सुन्दर रूप से किया जाता है। वहाँ कई ऐसी श्रेणी के लोग बसते हैं जिनका पेशा ही गीत गाना है । उनमें से एक श्रेणी के गायक 'भोपाभोपी' कहलाते हैं; उनमें एक स्त्री और एक पुरुष होता है। जिस समय संसार शान्ति की गोद में विश्राम करता है, उसी समय प्रायः इनका गाना प्रारम्भ होता है। ठीक दो पहर रात बीते ये लोग गाना प्रारम्भ करते हैं और प्रातःकाल तक गाते रहते हैं। इनके गाने का विषय अमर आत्माओं की कथायें एवं विशेष कर 'पाऊजी' की कहानी होती है। इन पाऊजी ने बड़ी कठिनाई के पश्चात् राजस्थान में ऊँटों का प्रचार किया था । अनेक लड़ाइयाँ लड़ने के बाद इन्हें काबुल से ऊँटों के लाने में सफलता मिली थी। 'भोपाभोपी' के गीत का कथानक एक पर्दे पर चित्र के रूप में लिखा रहता है। जब वे गीत गाते हैं उस समय श्रोता संसार के दुःखों को भूलकर आनन्द से श्रोत-प्रोत हो जाते हैं ।
उस समय सत्तर
मारवाड़ के ग्रामों में ब्राह्म मुहूर्त में उठकर पनिहारे कुत्रों पर जाकर पानी भरते हैं । अस्सी हाथ गहरे कुएँ के भीतर की तरफ़ मुंह करके वे ज़ोर ज़ोर से गीत के रूप में पानी के ऊपर थाने का अपने साथी को संकेत करते हैं। उनके गीतों की प्रतिध्वनि कुएँ से निकलकर निस्तब्ध गाँव में फैल जाती है । उस मौलिक राग के द्वारा शान्ति का अनन्त प्रवाह प्रवाहित होने लगता है । दूर से सुनाई पड़नेवाले उन गीतों का राग हृदय में शान्ति, शक्ति, कोमलता और निर्मलता की वृद्धि करता है ।
उसी ब्राह्म मुहूर्त में ग्रामीण स्त्रियाँ उठकर चक्की पोसा करती हैं । चक्की पीसने के साथ वे गीत भी गाती
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
४७
श्रीयुत बालकृष्ण पोद्दार मारवाड़ी नवयुवक हैं। अपने प्रान्त के जन-गीत का आपने यहाँ सुन्दर परिचय दिया है। नीचे का चित्र भोपाभोपी का है और उसके बाद स्वयं लेखक का।
www.umaragyanbhandar.com
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
EVERE
DTURVESTSusreeMRIBENIHORIRINEEMEENA
BaraunmummaNSARAHIMIREAL
जाती है, यहाँ तक कि अन्त में वह नृत्य इतना उन्मादकारी हो जाता है कि अनेक नर्तक संज्ञाविहीन होकर ज़मीन पर गिर पड़ते हैं। नर्तकों में कई व्यक्ति स्त्री, साधु, राजा, रानी इत्यादि के स्वाँग भी बनाते हैं। ___ मारवाड़ में 'गनगोर', 'तीज', 'बासेड़ा' इत्यादि बहुत-से त्योहार होते हैं । इन त्योहारों के दिन वहाँ की स्त्रियों के झुण्ड के झुण्ड गीत गाते हुए किसी निश्चित स्थान पर जाते हैं, और अपना त्योहार मनाते हैं। उस समय एक साथ अनेक सुरीले गलों से गाये गये गीत समूचे ग्राम में संगीत की स्वर्गीय छटा उपस्थित कर देते हैं। _मारवाड़ में सन्ध्या का बड़ी सुन्दरता-पूर्वक प्रवेश होता है। सन्ध्या के समय ग्राम के बाहर बागीचों के इर्द-गिर्द मोर प्रकृति के सौन्दर्य पर मुग्ध हो गायन प्रारम्भ कर देते हैं। कितने ही मोर तो भावुकता में इतने अधिक
[चित्रकला से सुसज्जित मारवाड़ की इमारतें ।।
हैं। उस समय चक्की की घर घर्र आवाज़ के साथ उनके गीतों में सरसता या जाती है। वे सुनने में स्वर्गीय प्रतीत होते हैं।
राजस्थान के रेगिस्तान में रात के समय ऊँटों पर यात्रा करनी पड़ती है। वहाँ के निर्जन रास्तों में डाकुत्रों का भय रहता है, इसलिए ऊँटवालों को बहुत सतर्क रहना पड़ता है। वे लोग जागते रहने के लिए रास्ते भर 'निहालदे', 'वनजारे' इत्यादि के गीत गाते हैं। कई व्यक्तियों के मुँह से एक साथ निकले हुए वे गीत दूर से बहुत मधुर प्रतीत होते हैं।
होली के दिनों में गुजरात के 'गर्वा-नृत्य' की ही भाँति मारवाड़ में रात के समय 'गींदड़' हुअा करती है । बीच में एक व्यक्ति नगाड़ा बजाता है। उसके चारों ओर कुण्डली के आकार में सौ तक की संख्या में ग्रामीण लोग दो दो डंके लेकर नृत्य और गायन करते हैं। डंके की चोट के साथ ही साथ उनके नृत्य की गति भी तेज़ होती hree Sudharmaswami Gyanbhandar Umara Surat
[मारवाड़ के भावुक मोर ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १
संगीतमय मारवाड़े
हम यहाँ मारवाड़ के कुछ प्रचलित गीत एवं उनके अनुवाद उद्धृत करते हैं। ये गीत प्रायः प्रेम के ही गीत हैं । इन गीतों में अतीत के गौरव और भविष्य के सुन्दर स्वप्न का सौन्दर्य और यौवन विद्यमान है।
अाज से एक शताब्दी पूर्व जब राजस्थान के वणिक व्यवसाय के लिए कलकत्ता, बम्बई, मदरास इत्यादि दूर स्थानों को जाया करते थे तब उनकी वह यात्रा पाँच-सात वर्ष से कम की नहीं होती थी। किसी किसी को तो बारह वर्ष भी बीत जाते थे। उन दिनों के कवियों ने उन वणिकों की विरहिणी युवती पत्नियों के हृदय के चित्र बड़े सुन्दर ढंग से खींचे थे । और वे कवितायें गीतों के रूप में समूचे मारवाड़ में गाई जाती थीं। उन गीतों में उनकी अाशा-निराशा और सुख-दुःख पूर्णरूप से अङ्कित है।
किसी युवती का पति परदेश को गया है। उसकी अनुपस्थिति में श्रावण महीने का श्रागमन हुअा। उस मादक महीने में वह विरहिणी अपने पति की याद करती है
सावण तो लाग्यो पिया, भादवो जी काँई बरसण लाग्यो,
[मारवाड़ की एक ग्रामीण युवती ।] उन्मत्त हो जाते हैं कि अपनी सुनहरे पंखों की पूँछ को छत्र के रूप में विकसित कर नृत्य करने लगते हैं।
इसी भाँति मारवाड़ की प्रत्येक साँस में संगीत लबालब भरा रहता है। किन्तु वहाँ से हज़ारों मील की दूरी पर बसनेवाले वहीं के शिक्षित नवयुवक आज वहाँ के गीतों के इतने सुन्दर रूप का भी घोर विरोध करते हैं । उनकी शिकायत है कि वैसे गन्दे गीतों से हमारी सभ्यता की रक्षा नहीं हो सकती। इसका कारण है उनका जन्म से ही राजस्थान से सुदूर प्रवास एवं वहाँ की प्रकृति-कला से अपरिचित होना । इसके अतिरिक्त एक और भी कारण है, और वह यह कि उन शिक्षित युवकों के सम्मुख 'मारवाड़ी-गीत-संग्रह' जैसे गन्दे साहित्य का प्रचार ।
खैर, जो कुछ भी हो, अब भी यथेष्ट समय है। यदि और कुछ नहीं तो कम से कम बङ्गाली समाज का ही अनुकरण कर वे अपनी कला के भग्नावशेषों को एकत्र करने में संलग्न हो । अस्तु
फा. ७
[पनिहारा, पानी खींचने के साथ ही गीत भी गा रहा है।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०
बरसण लाग्यो मेह, हो जी ढोला मेह । घराय जा गोरी रा बालमा हो जी ॥ प्यारे ! श्रावण मास प्रारम्भ हो गया है, भादों भी आनेवाला है, प्रियतम मेघ का भी बरसना शुरू हो गया है । गोरी के बालम ! अब तुम घर ना जाओ ।
छपर पुराणा पिया पड़ गया रे कोई तिड़कण लाग्या, तिड़कण लाग्या बोदा बाँस, हो जी ढोला बाँस; अब घर ग्राय जा बरसा रुत भली हो जी ॥
प्यारे ! मकान का छप्पर बहुत जीर्ण हो गया है । इसके पुराने बाँस भी फटने लगे हैं। प्रियतम, अब तुम घर श्रजाश्रो, जिससे वर्षा ऋतु भली भाँति व्यतीत हो जाय । बादल मैं चिमक पिया बीजली रे,
कोई हलाँ मैं डरपै,
हाँ मैं डरपै घर की नार, हो जी छोटी नार, अब घर आ जा, फूल गुलाब रा हो जी ॥ प्यारे ! बादल में बिजली चमक रही है, उसकी चमक से तुम्हारी युवती पत्नी अपने महलों में भयभीत हो रही
है। गुलाब के पुष्प, अब तुम घर आ जाओ न !
क्वो तो है तो पीया डाक ल्यूं जी ढ़ोला,
समदर डाक्यो, समदर डाक्यो न जाय,
सरस्वती
T
हाँ जी ढोला न जाय; अब घर श्रायजा फूल गुलाब रा हो जी ॥
प्रियतम ! तुमसे मिलने के लिए यदि कुछ ही बहता होता तो मैं उसे भी लाँघ सकती थी, किन्तु इतना चौड़ा समुद्र तो मुझसे नहीं लाँधा जा सकता । अत्र घेर श्री जाओ न बालम !
नेड़ी-नेड़ी करो पिया चाकरी जी छैला, साँझ पड्याँ घर, साँझ पड्याँ घर ग्राव, हो जी ढोला अब घर श्रायजा बरसा रुत भली हो जी ॥
;
प्यारे ! नज़दीक की ही नौकरी किया करो ताकि सन्ध्या होते ही घर या सको । अब घर था जाश्रो, जिससे वर्षा ऋतु सफल हो जाय ।
थाँन तो प्यारी लाग चाकरी जी ढोला, म्हान तो प्यारा लागो,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
महान तो प्यारा लागो, हो जी ढोला श्राप; अब घर व मृगानैणी रा बालमा हो जी ॥ तुम्हें तो नौकरी ही प्रिय लगती है प्यारे ! किन्तु मुझे केवल तुम ही प्यारे लगते हो। मृगनयनी के बालम ! अब घर पर अवश्य श्रा जानो ।
अस्सी रेटका री ढोला चाकरी रे कोई लाख मोहर की नार, लाख मोहर री भोली नार, हो जी ढोला ; घराय जा गोरी रा बालमा हो जी || नौकरी तो केवल अस्सी टकों की है प्यारे ! किन्तु तुम्हारी भोली नार लाख मोहर की है। गोरी के बालम अब घर अवश्य श्रा जाओ ।
मैं नहीं मावे का चली जी,
लड़े नहीं मावे, हिवड़े नहीं मावे हार, हो जी ढोला; अब घर प्रायजा गोरी रा बालमा हो जी ॥
मेरे अंग में अँगिया एवं छाती पर हार नहीं टता है । अब घर आ जाओ न प्रियतम !
श्रावण आवण कह गयो रे ढोला,
कर गया कवल नेक,
कर गया कवल अनेक;
अब घर आजा बरसा रुत भली हो जी ।। प्यारे ! आने के लिए कह गये थे, और तुमने आने की बहुत-सी प्रतिज्ञा भी की थी। अब तो घर वा जाश्रो, जिससे वर्षा की ऋतु सफल हो जाय ।
दिनड़ा तो गिरा गिरण ढोला,
घिस गई म्हारी गलियाँ, काँई आँगलियाँ री रेख, हो जी ढ़ाला;
घराय जा फूल गुलाब रा हो जी ॥ तुम्हारी प्रतीक्षा में दिन गिनते गिनते मेरी अँगुलियों की रेखायें घिस गई । गुलाब के पुष्प, अब घर पर अवश्य आ जाओ प्यारे ।
तारा तो छाई रातड़ी, जी ढ़ोला, फुलड़ा छाई, फुलड़ा छाई सेज, हो जी ढोला सेज,
घर या गोरी रा बालमा हो जी ॥
www.umaragyanbhandar.com
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
सगीतमय मारवाड़
संख्या १ ]
रात्रि नक्षत्रों से सजी है एवं मेरी सेज पुष्पों से सजी हुई है। गोरी के बालम अब घर या जात्रो प्रियतम ! बिरछा विलूंबी वेलड़ी पिया,
नरौँ विलूँबी नार हो जी ढ़ाला;
अब घर श्राय जा बरसा रुत भली हो जी ॥ वृक्षों से लतायें श्रालिङ्गन कर रही हैं और स्त्रियाँ भी अपने अपने पति से श्रालिङ्गन कर रही हैं। अब तो घर आ जाओ ताकि वर्षा की ऋतु सफल हो जाय, प्रियतम !
उपर्युक्त गीत की भाषा यद्यपि ग्रालङ्कारिक नहीं है, तो भी भावों में लालित्य भरा हुआ है। वृक्षों से लताओं के श्रालिङ्गन का सादृश्य कुछ कम काव्यमय नहीं है। यह गीत "निहालदे सोढ़ा" का है। वर्षा ऋतु में 'मेघमल्लार' के स्वर में गाया जाता है।
( २ )
नीचे के गीत में किसी नवयौवना का पति परदेश जा रहा है । उस विछोह के समय उसकी पत्नी सजल नेत्रों से अपने पति को विदाई दे रही है
ऊँची तो खींव ढ़ोला बीजली,
नीची खींव छै निवाण जी ढोला;
श्री जी श्री गोरी रा लस्करिया,
श्री लँगड़ी लगायर कोट्ये चाल्या जी ढोला ॥ प्रियतम ! बिजली ऊँची ही चमका करती है और पानी नीचे ही बहता है। अजी गोरी के बालम ! प्रीति का सम्बन्ध स्थापित कर अब कहाँ जा रहे हो ?
चढ़ो येतो राँधाँ ढ़ाला खीचड़ी,
रहो येतो जींमवारा भात जी ढोला । प्रियतम ! यदि तुम यहीं रहो तो तुम्हें अच्छा से अच्छा भात पका कर खिलाऊँगी, और यदि जाओगे तो केवल खिचड़ी ही ।
जीम चढाँगा गोरी खीचड़ी,
श्राय जीमाँगा जमवारा भात ये गोरी ।
प्रिये ! खिचड़ी खा कर मैं चला जाऊँगा । तुम्हारे वे बढ़िया चावल जब परदेश से लौट कर ग्राऊँगा तब खा लूँगा। चढ़ो येतो श्रोढ़ाँ ढाला चूनड़ी, रहो येतो दिखणीरो चीर जी ढोला ।
Shree Sudbarmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
५१
[आमेर की एक सड़क -गीत के सहारे एक लम्बा रास्ता तय करके ये ऊँटों पर सवार लोग बस्ती में पहुँचे हैं ।]
प्यारे ! यदि तुम जाओगे तो हैं एक साधारण चुनड़ी ही ओगी और यदि यहाँ रहो तो दक्षिण से मँगाया हुआ सुन्दर चीर ओढ़ सकती हूँ ।
निरख चढ़ाँगा गोरी चूनड़ी,
श्राय निरखाँगा दिखणीरो चीर ये गोरी ।
प्रिये ! मैं तुम्हें चुनड़ी पहने देख कर ही परदेश के लिए प्रस्थान करूँगा । जब मैं वापस आऊँगा, उस समय तुम दक्षिण से मँगाया हुआ चीर पहनना । चढ़ो येतो धालाँ मारूजी ढोलियो, रहो येतो फूलड़ाँरी सेज जी ढोला ।
प्रियतम ! यदि जाओगे तो तुम्हारे लिए केवल खटिया ही बिछाऊँगी और यदि यहाँ रहो तो पुष्पों की सुन्दर से सुन्दर सेज बिछा दूँगी ।
www.umaragyanbhandar.com,
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
पोढ़ चढ़ाँगा गोरी ढोलिये,
कर जिस समय लड़की ससुराल को जाती है, उस समय श्राय पोढ़ाँगा फूलडाँ री सेज ये गोरी। गाया करते हैं । उस अवसर के उपयुक्त बनाने के निमित्त, जाने के समय तो उस साधारण खटिया पर ही सो इसमें बहुत-सा संशोधन भी कर दिया गया है। किन्तु लूँगा प्रिये ! जब वापस आऊँगा तब फूलों की सेज बिछाना। जितना लालित्य उपर्युक्त गीत में है, उतना संशोधित ___ इतने प्रलोभन देने पर भी जब प्रेमिका अपने गीत के भावों में नहीं है । प्रियतम को परास्त नहीं कर सकी तब अपनी असफलता पर झुंझला कर वह कहती है
प्रियतम के विछोह में प्रेमिका पति-मिलन का स्वप्न __ चढ़ाँये चढ़ाँडो ढाला के करो,
देखती है - कोई पुछो म्हार मनड़ री बात जी ढोला। सुपन मैं देख्या भँवरजी न आवताँ जी, तुम तो केवल जाने ही जाने की बातें करते हो, मेरे काई माथ पचरंग येडी ये पाग; हृदय की तो तुमने एक भी बात नहीं पूछी।
काँदे ये जी ये सबज रुमाल, निरुत्तर प्रियतम, अपनी सिसकती हुई वेदना को हाथ में शीशी-प्याला प्रेम का जी। हृदय में दबाये, घोड़े पर सवार हो जाने के लिए प्रस्तुत स्वप्न में प्रियतम को आते दुए देखा। उनके मस्तक हो गया।
पर पचरंग पगड़ी थी, कंधों के ऊपर हरे रंग की चादर जद पग मेल्यो ढ़ाला पागड़,
थी और हाथों में प्रेम की मदिरा का मधुघट एवं प्याला डब डब भरिया छै नैण जी ढोला।
लिये हुए थे। जब प्रियतम ने पागड़े में पाँव डाला, उस समय आँगण मोचा भँवर जी रा मचकिया जी, प्रेमिका के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली।
काई थलिया ठिमक्या ये जी ये सेल; आँसू तो पुँछ्या ढाला पेच स्यूँ ,
गोरी रे आँगण खुड़को कुण करयो जी । लीनी छै हिवड़े लगाय जी ढोला ।
आँगन में प्रियतम के जूतों की चरचराहट एवं भाले प्रियतम ने अपनी पगड़ी के पेंच से आँसू पोंछे एवं की टिमकन की आवाज़ आने लगी। प्रेमिका को हृदय से लगा लिया। (सिसकती हुई प्रेमिका टग टग म्हलाँ भँवर जी चढ़ गया जी, कहती है।)
कोई खोल्या धण सजड़ ये जी ये किवाड़, थारी तो अोलूँ ढाला म्हे कराँ,
साँकल तो खोली बीजल सालकी जी । घड़ी दोय लस्कर थामो जी ढोला ।
वे टग टग महल में चढ़ गये और व्यग्रता के साथ तुम्हारी तो प्यारे ! मैं हमेशा याद करती रहूँगी, इस जिस कमरे में उनकी प्रेमिका सोई हुई थी उसके किवाड़ों समय कम से कम दो घड़ी के लिए अपना लश्कर रोक की साँकल खोली। रक्खोन!
हाथ पकड़कर भँवर बैठी करी जी, म्हारो तो थाम्यो लस्कर न थम,
कोई बू जी म्हार मनड़रीये जी ये बात, म्हारा बाबाजी रे हुक्मा लस्कर थमसी ये गोरी। अँखिया निमाणी पापण खुल गयी जी। प्रिये ! यह लश्कर मेरा रोका नहीं रुकेगा। यह तो हाथ पकड़ कर प्रियतम ने मुझे जगाया, और मेरे पिता जी की आज्ञा से ही रुक सकता है।
हृदय की बातें पूछने लगे। इतने में निर्मोही आँखें खुल गई। उपर्युक्त गीत में सरलता, अाग्रह और करुणा के सुपना रे बैरी तन मार धू जी, भावों का सुन्दर समावेश हुया है। यह गीत जिस उद्देश कोई के थारी कतल ये जी ये कराय, से गाया जाता था, आज-कल इसे उस अवसर पर न गा सूती नै ठगली भँवर जी री गोरड़ी जी।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
संगीतमय मारवाड़
हे स्वप्न ! तुमने मेरे साथ बड़ा विश्वासघात किया, उस पर ज़ीन कस दी और किसकी आज्ञा से तुम परदेश यदि मेरा वश चलता तो तुझे मैं क़त्ल करा देती । जा रहे हो ? हे मेरे हृदय के जीव ! तुम कमाने के लिए इस पर स्वप्न कहता है
पूरब की ओर मत जाओ। म्हे छाँ सुपना सरव सुलखना जी,
बड़े बीरे घुड़ला गोरी ! कस दिया जी, कोई बीछुड्या न देवा ये जी ये मिलाय,
हाँ ए गोरी ! साथीड़ा कस दीनी जीन, म्हें छाँ सुपना ढ़लती रैन का जी।
__बाबा जी रे हुकमा चाल्या चाकरी जी। सुन्दरी ! मुझे क़त्ल क्यों कराती हो ? मैं तो बिछुड़े पति ने कहा-प्रिये ! बड़े भाई ने मेरा घोड़ा कस. हुए प्रेमियों का मिलन कराता हूँ।
दिया है, और साथियों ने उस पर ज़ीन रख दी है। पिता
जी की आज्ञा से मैं कमाने के लिए जा रहा हूँ। एक और गीत का कुछ अंश
ऐक रुपैयो भँवर जी मैं बाजी, बाय चल्या भँवरजी पीपली जी,
हाँ जी ढोला बन ज्याऊँ पीली पीली म्झेर, हाँ जी ढोला हो गई घेर घुमेर,
भीड़ पड़ जद भँवर जी बरत ल्यो जी, बैठन की रुत चाल्या चाकरी जी,
श्रो जी म्हारी सेजा रा सिणगार, ओ जी म्हारी सास सपूती रा पूत,
पिया जी ! प्यारी न साग ले चलो जी। मतना सिधारो पूरब की चाकरी जी ।
स्त्री ने कहा- हे नाथ ! मैं तुम्हारे लिए रुपया बन स्त्री कहती है-हे प्रियतम ! तुमने जो पीपल का जाऊँगी। मैं तुम्हारे लिए पीली पोली मोहर बन जाऊँगी। वृक्ष लगाया था वह अब खूब घनी छायावाला हो हे प्राणधन ! जब आवश्यकता हो उस समय उसे काम गया है। जब उसकी छाया में बैठने की ऋतु आई तब में लाना । हे मेरी सेज के शृङ्गार ! प्रियतम ! अपनी तुम परदेश को चले । हे मेरी सुपुत्रवती सास के पुत्र! प्रेमिका को साथ लेते चलो। तुम कमाने के लिए पूरब मत पधारो।
पति परदेश को चला गया । स्त्री पति को पत्र ब्याय चल्या छा भँवरजी गोरड़ी जी.
लिखती है ... हाँ, जी ढोला हो गई जोध जवान,
कदे न ल्याया भँवर जी ! सीरणी जी, बिलसन की रुत चाल्या चाकरी जी,
हाँ जी ढोला कदे न करी मनुवार, श्रो जी म्हारी लाल नणद राश्रो वीर,
कदे न पूछी मनड़े री बारता जी, मतना सिधारो पूरब की चाकरी जी।
श्रो जी म्हारी लाल नणद रा ओ बीर, तुमने जिस गोरी से विवाह किया था वह यौवनमद थाँ बिन गोरी न पलक न श्रावड़ जी।। से मतवाली हो गई है। जब विलास की ऋतु आई तब हे स्वामी ! तुम न कभी मिठाई लाये और न मुझे - तुम कमाने चले । हे मेरी प्यारी ननद के भाई ! कमाने प्यार से खिलाया। न कभी तुमने मन की बात ही पूछी। के लिए पूरब की ओर मत जायो ।
हे मेरी प्यारी ननद के भाई ! तुम्हारे बिना तुम्हारी गोरी कुँण थारा घुड़ला भँवर जी कस दिया जी, को एक क्षण भी चैन नहीं पड़ती। हाँ, जी ढोला कुँण थारी कस दिनी जीन,
इस गीत में विरहिणी पत्नी की बड़ी मार्मिक पुकार है । कुण्यारे हुकमा चाल्या चाकरीजी,
इस गीत में उसके अंतस्तल का प्रेम छलका पड़ता है। अो जी म्हार हिवड़ा रा जिवड़ा,
उपर्युक गीतों के द्वारा प्रत्येक साहित्यसेवी इस तह मतना सिधारो पूरब की चाकरी जी ।
तक पहुँच सकता है कि इन गीतों की उपयोगिता तथा हे नाथ ! किसने तुम्हारा घोड़ा कस दिया, किसने व्यापक महत्त्व कितना अधिक है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारत के एक प्रसिद्ध व्यक्ति की
श्रात्म कथा
का
एक
अंश
पुजारी
लेखक, श्रीयुत रा० सा०
जारी यह उनका निजी नाम न
था, किन्तु गाँववाले जवानी से ही उन्हें इस नाम
से
रते थे ।
पुका
पुजारी का जन्म १८७५ ईसवी में ठेठ देहात के एक बहुत ही छोटे गाँव में हुआ था । उनके गाँव से कोस कोस भर तक कोई कच्ची-पक्की सड़क न थी, डाकखाना भी आठ मील दूर था और बाज़ार भी प्रायः उतनी ही दूर । यही हाल पाठशाला या मदरसा का था ।
पुजारी अपने पिता की ज्येष्ठ सन्तान थे । उनके पिता की अपने गाँव में ही प्रतिष्ठा न थी, बल्कि ग्रास-पास के कितने ही गाँवों में उनके बिना पंचायत न होती थी। ईमानदारी और विशालहृदयता उनकी पैत्रिक सम्पत्ति थी । पुजारी के पिता एक बड़े परिवार के प्रधान थे । यद्यपि वे अपने पिता के एकमात्र पुत्र थे, तो भी अपने चचेरे तीन भाइयों के साथ उनका सगे भाई से भी अधिक प्रेम था । सबसे छोटे को तो उन्होंने दूर के गाँव में संस्कृत पढ़ने के लिए भेज दिया था । यद्यपि उसकी पढ़ाई 'सत्यनारायण' और 'शीघ्रबोध' से आगे नहीं बढ़ी थी, तो भी वह गाँव में पंडित कहा जाता था, और वह था भी उस गाँव के लिए वैसा ही ।
पुजारी के पिता का देहान्त ४५-४६ वर्ष की ही उम्र में हो गया था । उस वक्त पुजारी १५ वर्ष के हो पाये थे । उनसे छोटा एक भाई और तीन बहनें थीं, जिनमें सबसे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
छोटी ६-७ वर्ष से अधिक न थी । पिता ने बड़े लड़के और बड़ी लड़की की शादी, रवाज के मुताबिक, १०-१२ वर्ष की ही अवस्था में कर दी थी। उनके पिता के मरने के समय तीनों चचेरे चचे एक ही घर में रहते थे । तीनों ही भलेमानस थे और अपने भाई के प्रेमपूर्ण बर्ताव के चिरकृतज्ञ थे । यदि उनकी चलती तो वे पुजारी को बाप के मरने का खयाल भी न श्राने देते, किन्तु पुजारी की मा दूसरी धातु की बनी थीं। मीठी बोली तो मानो वे जानती ही न थीं। ज़रा-सी बात में चार सुना देनी उनकी आदत में थी। पति के जीते समय तो ज़बान पर भारी अंकुश था; किन्तु पीछे कोई रोकनेवाला न था । उनका हृदय बहुत संकीर्ण था । वे कुढ़ा करती थींखेतों और धन में हमारा आधा हिस्सा होता है । दिवर और उनके लड़के - बाले कैसे हमारे धन को खायँगे ? ज़रा-सी बात में वे ताना दे डालती थीं । उनके देवर और देवरानियाँ पहले बहुत लिहाज़ किया करती थीं, किन्तु श्राये दिन की किचकिच से उनका नाकों दम हो गया, और तीन वर्ष बीतते न बीतते उन्हें अलग हो जाना पड़ा । ( २ )
पुजारी की मा बहुत प्रसन्न थीं । उन्होंने घर में ही नहीं, हर एक खेत में आधा आधा करवाया था । खेत उनके पास काफ़ी थे । काम करने के लिए कुछ चमारों और भरों के घर भी मिले थे । किन्तु पुजारी को खुशी कहाँ से हो सकती थी ? मा के झगड़ालू स्वभाव के कारण १८ वर्ष की ही उम्र में एक परिवार का सारा बोझ उनके कंधे पर ा पड़ा था । कहाँ खाने खेलने का समय और कहाँ यह ज़िम्मेदारी ! उन्हें खेती-बारी और परिवार
५४
www.umaragyanbhandar.com
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
पुजारी
को ही सँभालना न था, बल्कि छोटे भाई और दो बहनों पटवारियों के पास बैठकर पैमाइश का हिसाब भी सीख की शादी भी करनी थी। भाई-बंधु इच्छा रहते भी सहा- लिया। यता न कर सकते थे, क्योंकि पुजारी की मा के स्वभाव से पुजारी की धर्म में बड़ी श्रद्धा थी, इसी से अठारह वे परिचित थे। कहावत थी, पुजारी की मा के मारे कुत्ते वर्ष की उम्र में ही वे पुजारी कहे जाने लगे थे। वे बिना भी दरवाज़े पर फटकने न पाते थे ।
स्नान-पूजा के पानी भी नहीं पीते थे। उनके पाठ में गाँव के आस-पास पढ़ने का कहीं इन्तज़ाम न था, यद्यपि पहले हनूमान-चलीसा था, किन्तु धीरे धीरे हनूमानयह कह आये हैं। किन्तु पिता के जीते समय जब पुजारी बाहुक और रामायण भी शामिल हो गये । रामायण के तेरह-चौदह वर्ष के थे, तभी कहीं से भूलते-भटकते एक उन्होंने बहुत पाठ किये थे, और उसके ज्ञानदीपक जैसे मुंशी जी उस झारखंड के गाँव में पहुँच गये थे । यद्यपि स्थलों का उनका किया अर्थ बहुत बुरा न होता था। पीढ़ियों से उस गाँव के ब्राह्मणों ने विद्या से नाता तोड़ हर एक धर्मभीरु ब्राह्मण को अच्छी-बुरी साइत का ज्ञान रक्खा था, तो भी उनमें अभी कुछ श्रद्धा बाकी थी, और रखना ज़रूरी ठहरा । पुजारी के सारे गाँव के ब्राह्मणों के भुंशी जी के पास आधा दर्जन से ऊपर लड़कों ने पढ़ाई लिए कुल मिलाकर सिर्फ एक घर यजमान था । यदि शुरू कर दी। किन्तु दो-ढाई सप्ताह के भीतर ही अधिकांश यजमानी बड़ी होती, तो कौन जानता है, उसके कारण घर बैठ गये । डेढ़ महीने में मुंशी जी भी समझ गये- पुजारी को कुछ और पढ़ने का अवसर मिला होता । जब "धोबी बसि के का करे, दीगंबर के गाँव ।” मुंशी जी के उनकी स्त्री बीमार पड़ी उस समय तो उन्होंने 'रसराजचेलों में पुजारी ही थे, जो अन्त तक डटे रहे । कोदो देकर महोदधि' भी मँगा लिया, और यदि लोग कच्चीअोषधि पढ़ने की कहावत बहुत मशहूर है। पुजारी ने कोदो तो की भयंकरता का डर न दिखलाते तो शायद वे अपने नहीं दिया, किन्तु कहते हैं, दक्षिणा में मुंशी जी को कुछ बनाये मंडूर से ही पत्नी की चिकित्सा करते। उस समय धान ही मिलता था।
अखबार अभी गाँवों तक नहीं पहुंचे थे, तो भी जिन इस प्रकार अठारह वर्ष की उम्र, डेढ़ महीने की पुस्तकों का गाँवों में प्रवेश था, पुजारी उन्हें पढ़-समझ पढ़ाई और नीम से भी कड़वी ज़बानवाली मा-इन तीन सकते थे। साधनों के साथ पुजारी गृहस्थी सँभालने के काम में लगाये एक ओर पुजारी कट्टर पुजारी थे, दूसरी ओर नई
बातों के सीखने के लिए उनका दिमाग़ बिलकुल बंद न
था । पुजारी की बस्ती के भीतर सिर्फ एक कुआँ था, पुजारी असाधारण मेधावी थे । बत्तीस वर्ष की उम्र जिसके लम्बे-चौड़े आकार और टूटी-फूटी हालत को देखकर में उनका जो ज्ञान था उसे देखकर कोई नहीं कह सकता लोग उसे सतयुग के आस-पास का बना कहते थे । उसकी था कि उनकी पढ़ाई सिर्फ डेढ़ महीने की है। उनमें ज्ञान ईंटें एक ओर से पहले ही गिर चुकी थीं। एक दिन वह की बड़ी प्यास थी। अथवा ज्ञान कौन कौन हैं, यह भी सारा ही कुआँ बैठ गया। अब लोगों को दूर के कुएँ से तो उन्हें मालूम नहीं था। फिर प्यास कहाँ से होती ? हाँ, पानी भरकर लाना पड़ता था। पुजारी उस समय ३०-३१ काम में जब जब जिस ज्ञान की आवश्यकता होती, वे वर्ष के हो चुके थे। उनके पास धन भी था। उन्होंने उसके पीछे पड़ जाते, और न जाने कहाँ और किसके , अपने द्वार पर एक कुआँ बनवाना चाहा। अपने दिल में पास से सीखकर ही छोड़ते । उन्हें जोड़, बाकी, गुणा, भाग कुएँ का नक्शा खींचा-कुआँ ऐसा हो, जिसकी दीवार ही नहीं मालूम हो गया था, बल्कि भिन्न, त्रैराशिक और से घड़ा न टकराये। यदि नीचे की अपेक्षा कुएँ का ऊपरी पंचराशिक भी वे लगा लेते थे। एक समय गाँव में सर- भाग संकीर्ण कर दिया जाय तो यह हो सकता है। ईंटों कारी पैमाइश शुरू हुई । उस समय उन्होंने अमीनों और के भी प्रचलित आकार को छोड़कर उन्होंने अपने मन
गये।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
के आकार की ईंटों का साँचा बनवाया। उनमें कुछ तो और अनाज बचने लगा। पुजारी ने उसे सूद और सवाई डेढ़ फुट तक लम्बी और ६-७ इंच चौड़ी थीं। अपने पर देना शुरू किया । सूद और मूल में गाँव के कुछ लोगों गाँव के बड़े पोखर की मौर्यकालीन ईंटों को देखकर के खेत भी अपने पास रेहन रख लिये। यद्यपि गाँव में शायद उनको इतनी लम्बी ईटों के बनवाने का साहस ट्रीनीडाड से लौटे एक दूसरे आदमी के पास सबसे अधिक हुआ था। उस काल की ही भाँति यदि ईधन की खेत थे, किन्तु अगहन बीतते बीतते वह घर अनाज से इफ़रात होती और लकड़ियाँ ठीक तरह लगाई जाती तो खाली हो जाता था, और उधार और खरीद की नौबत कदाचित् वे पक जातीं। किन्तु पुजारी का ध्यान इधर पाती थी; इसी लिए पुजारी गाँव में सबसे अधिक धनी न गया, और ईटें बहुत-सी अधपकी रहकर टूट गईं। समझे जाते थे। तो भी उनके काम भर के लिए ईंटें तैयार मिल सकी। पुजारी का जीवन अब सुख का जीवन था। यद्यपि पुजारी के बुलाने पर उनके ससुर कुआँ बँधवाने के लिए फाटके के रोज़गारियों और सौदागरों की भाँति तो नहीं, राज लिवाकर आये। ईंटों के विचित्र आकार को ही देख फिर भी पुजारी का धन प्रतिवर्ष बढ़ रहा था। उन्हें अभी कर ससुर और राज दोनों का माथा ठनका। उस पर तक कचहरियों से वास्ता न पड़ा था, किन्तु इसी समय पुजारी ने कुआँ बाँधने की अपनी स्कीम पेश की। राज पुजारी के गाँव में पैमाइश होने लगी। अभी तक खेत, चिल्ला उठा-अरे! यह क्या कर रहे हो ? यदि कुएँ का बाग़, परती सभी का हिसाब पटवारी के यहाँ रहता था; मुँह सिकोड़ दिया जायगा तो ईटे कुछ ही दिनों में आगे किन्तु अमीनों ने पैमाइश के साथ दखल-कब्ज़ा पूछना शुरू की ओर गिर जायँगी । पुजारी ने कहा-और मेहराब में किया । यही तो कमाने का समय होता है। यदि इधर की ऐसा क्यों नहीं होता ?
उधर और उधर की इधर न करें तो क्या खाक कोई अमीन खैर, पुजारी के अाग्रह को देखकर राज ने उसी को पूछेगा । हाँ, यह ऐसा भी समय है, जब पहले की पैमाप्रकार कुएँ को बाँधना शुरू किया। कुछ दूर बाँधने और इश की बेईमानियाँ भी प्रकट होने लगती हैं । हम कह मिट्टी निकालने पर कुआँ भीतर से बहुत बालू फेंकने लगा। चुके हैं, पुजारी बड़े मेधावी पुरुष थे। गाँव में प्राये राज ने सारा दोष कुएँ की नई चिनाई के मत्थे मढ़ा और हुए अमीन के पास जाकर वे काग़ज़-पत्र देखने लगे। फिर से उधेड़कर पुरानी चाल से बाँधने के लिए कहा। उन्हें मालूम हुआ कि पहले के कितने ही उनके खेत औरों किन्तु पुजारी कब माननेवाले थे। जब कुआँ सही-सला- के कब्जे में हैं। कुछ में इधर नये सिरे से गोल-माल मत बनकर तैयार हो गया तब ससुर जी कहने लगे-तैयार हुआ है । पुजारी उन आदमियों में से थे जिनका सिद्धान्त तो हो गया, किन्तु इसकी शकल तो कुइयाँ-सी है। पुराने होता है न अपना एक पैसा जाने देना और न दूसरों ढंग से बनवाने पर यह एक अच्छा खासा कुआँ मालूम का एक पैसा लेना। अब पुजारी के लिए बन्दोबस्त के होता।
डिप्टी के पड़ावों और ज़िला तथा तहसील की कचहरियों
पर धरना देना ज़रूरी हो गया। जिस पूजा के नियम पुजारी ने छोटे भाई को अपने बहनोई म०...... के कारण उनका नाम पुजारी पड़ा था वह छुटे कहाँ से ? पंडित के घर पढ़ने के लिए भेजा था, किन्तु उसने इतना उसमें तो कुछ वृद्धि भी हुई थी। यदि पहले एकादशी का ही पढ़ा-अोनामासिधम् । बाप पढ़े न हम् । दो चार बार ही व्रत होता था तो अब महीने के चार अलोने एतवार भाग आने पर पुजारी ने और ज़ोर देना छोड़ दिया। भी शामिल कर लिये गये थे। कचहरी का काम तो घर की दोनों बहनों और भाई की भी शादी कर दी। अब दोनों तरह अपने वश का नहीं, और बिना पूजा-स्नान के पुजारी भाई मिलकर खूब मेहनत करते थे। घर के प्रबन्ध में पानी भी नहीं पी सकते थे। फलतः कभी कभी सूर्यास्त मा बहुत दक्ष थीं। हर साल ही खर्च करने पर कुछ पैसा और पुजारी की स्नान-पूजा साथ साथ होती थी। उन्होंने
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
品
55
हैदराबाद स्टेशन पर अपने मा बाप को
कोटा में सदा के लिए छोड़कर ये
हुए चार अँगरेज़ बच्चे । साथ की स्त्रियाँ इन्हें सँभालेंगी ।
55 5
5 55
भूकम्प के बाद कोयटा — ढहे
हुए
मकानों का एक ढेरमात्र रह गया है।
बाब
55
5
5 55
भूकम्प पीड़ित अपने बचे हुए माल-अस
के साथ कोयटा
से बाहर जाने के
लिए स्टेशन पर एकत्र हो रहे हैं।
55
Simaragyanbhanidal.com
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस वर्ष भारतवर्ष के विश्वविद्यालयों से इन बीस स्त्रियों का जत्था शिक्षा-सम्बन्धी विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिए योरप भेजा गया है। यह दल मिसेज़ दत्त (दाहिनी ओर से नं०३) के चार्ज में है।
अखिल भारतीय सेवासमिति के सदस्य, मिस्टर चिन्तामणि उपसभापति, और पं० हृदयनाथ कुँजरू, प्रधान मंत्री बीच में बैठे हैं। यह चित्र वार्षिक बैठक के अवसर पर प्रयाग में लिया गया है।
कुमारी पी० गहलोत, जोधपुर के ज़नानाअस्पताल की लेडी डाक्टर, जो अपने कार्य में इन्दौर के पंडित लक्ष्मीनारायण कुमारी वेणुताई दत्रालय विशेष योग्यता प्राप्त करने विलायत गई हैं। त्रिवेदी, जिन्होंने हिन्दी विश्वविद्या- चिताले–ये भी उच्च शिक्षा इस दिशा में इतनी उन्नति करनेवाली ४८ लाख लय के लिए ५०,००० रु० की प्राप्त करने के उद्देश से मारवाड़ी महिलाश्री में श्राप प्रथम महिला हैं |ara, Surak इमारत दान की।
विलायत गई हैं pandar.com
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिमला में मानसून का आगमन
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
卐卐
कोयटा बाज़ार-भूकम्प के पूर्व । इस बाज़ार में बड़ी चहल-पहल रहती थी जो सदा के लिए नष्ट हो गई।
卐 ) हैदराबाद-स्टेशन पर अपने मा-बाप को कोयटा में सदा के लिए छोड़कर आनेवाले चार सिन्धी बालक । साथ के हमदर्द लोग इन्हें अपने साथ लिये
जा रहे हैं। 卐卐
骗
骗
रेस-कोर्स का मैदान जहाँ बेघरबार के
भूकम्प पीड़ितों ने -आश्रय ग्रहण किया
है। यहाँ से ये अन्य स्थानों को भेजे
जायँगे। SILA Surmaswami Gyanbhandar Umara, Stirati
www.umaragyanbhandar.com
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १] .
गंगा तट या काशी में बाल बनवाने का नियम कर लिया था, इसलिए उनके दाढ़ी -बाल दो-दो, चार-चार महीनों तक नहीं बन पाते थे ।
पुजारी यद्यपि धार्मिक और श्रद्धालु श्रादमी थे, तो भी उनकी श्रद्धा अंधश्रद्धा न थी । यही कारण था, जहाँ गाँव के लोग सभी लम्बी दाढ़ी, भारी जटा, छोटी लँगोटी और सफ़ेद भभूत को साष्टांग दंडवत् करना अपना धर्म समझते थे, वहाँ पुजारी बिना गुण की परख पाये ऐसे साधुत्रों की श्राव-भगत से दूर रहते थे। हाँ, उनके गाँव से कुछ दूर एक निर्जन स्थान में एक वृद्ध परमहंस रहा करते थे, जिनकी आयु के बारे में बूढ़े-बूढ़े लोग भी क़सम खाने के लिए तैयार थे कि उन्होंने जब से होश सँभाला तत्र से परमहंस बाबा का ऐसे ही देखा है । यह भी कहा जाता था कि परमहंस बाबा अपनी जन्मभूमि (पोखरा) नेपाल से विद्या पढ़ने के लिए बनारस आये थे, वहीं पीछे विरक्त हो राजघाट के पास एक कुटिया में रहते थे । जब राजघाट में रेल आई और उसकी गड़गड़ाहट से उनके ध्यान में विघ्न पड़ने लगा तब मुफ़्त में मुक्ति देनेवाली काशी को छोड़कर वे अपने एक भक्त के साथ पुजारी के आस-पासवाले प्रदेश में चले गये । पुजारी परमहंस जी के प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे । हर चौथे-पाँचवें वे दर्शनार्थ वहाँ पहुँचते थे । बंदोबस्त के मुक़दमों से छुट्टी पाने पर तो उन्हें और भी सत्संग का मौक़ा मिलने लगा ।
I
पुजारी
( ४ )
पुजारी के सुखमय जीवन की दशा का अत्र अन्त हो रहा था । इतने समय में उनकी आर्थिक अवस्था ही अच्छी नहीं हो गई थी, बल्कि उनके एक कन्या और चार पुत्र भी हो चुके थे । पिता की मृत्यु के बाद घर में किसी की मृत्यु से उन्हें अपनी आँखें भिगोनी नहीं पड़ी थीं। एक तरह वे भूल ही गये थे कि संसार में मृत्यु भी कोई चीज़ है । इसी समय पुजारी की धर्मपत्नी बीमार पड़ीं। पुजारी के उस झारखंड के गाँव में वैद्य पहुँचते ही कहाँ थे ? श्रोमा - सयाने ही सुलभ थे, किन्तु पुजारी उन्हें फूटी आँख से भी देखना नहीं चाहते थे। उनकी मा ने एकआध बार चुपके से जाकर अपने पड़ोसी ओझा से पूछा
फा. ८
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
५७
और सहृदया ने बताया कि घर के पास की बाँसवाली चुड़ैल का फ़िसाद है, किन्तु पुजारी के मारे उसकी शांति पूजा हो तब तो ! पुजारी इस समय स्वयं रसराज - महोदधि के पन्ने उलट रहे थे । उन्हें यह मालूम हो गया कि स्त्री को पांडु-रोग है । कुछ अपनी और कुछ दूसरे यमराज-सहोदर वैद्यों की दवा भी की और भी जो उपचार बन पड़ा, किया । किन्तु कुछ महीनों की बीमारी के बाद स्त्री चल बसी । बाहर प्रकटं न करने पर भी पुजारी को मर्मान्तक दुःख हुआ ।
इस समय पुजारी पूरे तीस वर्ष के भी न हो पाये थे। खाते-पीते व्यक्ति का ब्याह करने के लिए सभी लोग तैयार रहते हैं । स्त्री की वर्षी भी न पाई थी कि ब्याह करनेवाले मँडराने लगे। लेकिन पुजारी ने साफ़ कह दिया - मेरे पाँच बच्चे हैं । ब्याह का फल मुझे मिल गया है । मुझे शादी नहीं करनी है ।
पुजारी के इस दुःख को कम करने की कुछ बातें थीं । सबसे पहले तो उनके अपने मन की दृढ़ता थी । बच्चों का प्रेम भी उसका सहायक था। उनका भाई बहुत ही आज्ञाकारी था - इतना आज्ञाकारी कि कभी कभी इसके लिए उसे अपनी स्त्री का ताना सुनना पड़ा था । पुत्रों के सयाने होने पर पुजारी को और अच्छे दिनों की आशा थी ।
( ५ ) पुजारी धार्मिक विचार के आदमी थे, और उनमें उदारता, दया आदि कितने ही गुण भी थे । वे क्या थे, इसके लिए उनके जीवन की कुछ घटनायें दे देना ज़रूरी है ।
एक समय की बात है । पुजारी उस समय २०-२१ वर्ष से अधिक के न रहे होंगे। एक जगह चुपचाप उदास बैठे थे । साधारण उदास नहीं, बहुत ही उदास, यहाँ तक कि कभी कभी श्रात्महत्या कर डालने का ख़याल तक उनके में उठ श्राता था । कारण यह था । पुजारी के पूर्वज छः-सात पीढ़ी पहले सरयूपार से आकर इधर बस गये थे । अब भी लोग कम से कम अपनी कन्याओं को सरयूपार (गोरखपुर - जिले में ) ही ब्याहना पसंद करते थे । अपनी
मन
www.umaragyanbhandar.com
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८
सरस्वती
[भाग ३६
दोनों छोटी बहनों के लिए वर ढूँढ़ने वे सरयूपार गये। लड़का और तीन लड़कियाँ थीं। ब्याह हो जाने पर लोगों ने भुलावा देकर एक घर के दो लड़कों का तिलक लड़कियाँ अपने घर चली गई, और कुछ समय बाद चढ़वा दिया । घर आने पर पता लगा कि वरवाला घर चिनगी का एकलौता बेटा मर गया। पुत्रस्नेह बहुत किन्हीं कारणों से नीच समझा जाता है। उन्होंने तिलक बड़ी चीज़ होती है, किन्तु इन मज़दूर जातियों के लिए बेटा लौटा देने की बात कही, जिस पर वरवाले तरह तरह की तो बुढ़ापे का बीमा ही होता है। खुशी-नाराज़ी जैसे भी हो, धमकी देने लगे। पुजारी के भाई-बन्धु भी उन्हें समझाने उसे अपने बूढ़े मा-बाप का बोझा उठाना ही पड़ता है। लगे। किन्तु पुजारी कब अपनी बहनों को कुजात के घर किन्तु बूढ़े चिनगी के लिए पुजारी भारी अवलम्ब थे। वे ब्याहने लगे ! बहुत ज़ोर देने पर वे फूट फूटकर रोने उसके पुत्रशोक और भूख को मिटाने का बहुत ध्यान रखते लगे, और बोले—मैं दोनों बहनों को गले से बाँधकर पानी थे। इसके लिए पुजारी की मा कभी कभी बोल भी उठती में डूब मरूँगा, पर उस घर में शादी न करूँगा। थीं। कुछ दिन बीमार रहकर एक दिन माघ की बदली में आखिर पुजारी ने शादी नहीं की।
चिनगी चल बसे। लोगों को बहुत अचरज हुआ जब और जगहों की भाँति पुजारी के गाँव में भी ग़रीब पुजारी ने कहा, चिनगी भगत की दाह-क्रिया गंगातट पर व्यक्ति बिना ब्याहे ही बूढ़े हो जाते थे। गाँव का एक (जो वहाँ से प्रायः तीस मील पर था) होगी । शर्म, संकोच ब्राह्मण तीस वर्ष से ऊपर का हो गया था, और अब या दबाव से ही चिनगी के भाई-बन्धु उस बदली में लाश तक उसका ब्याह नहीं हुआ था, न होने की आशा ही ले जाने के लिए तैयार हुए। पुजारी ने साथ जाकर थी। दूसरे गाँव में उसकी रिश्तेदारी में एक तरुण गंगातट पर चिनगी का दाह-कर्म कराया, और क्रिया-कर्म विधवा थी। दोनों का देवर-भाभी का नाता था। नित्य भी हुअा । लोग कहते थे, पुजारी पर चिनगी का पहले की अवाजाही से दोनों में प्रेम ही नहीं हो गया, बल्कि जन्म का क़र्ज़ था; और वे अच्छी तरह उऋण हुए। छिपकर रखने की अपेक्षा वह अपनी भावज को घर पुजारी का एक बलिष्ठ बैल एक दिन लड़ते लड़ते पर लाकर रखने लगा। पहले तो मालूम हुआ, वह उनके अपने बनवाये कुएँ में गिर पड़ा। बहुत प्रयत्न से मेहमानी में आई है, किन्तु पीछे बात प्रकट हो गई। जीता तो निकल आया; किन्तु उसका पिछला एक पैर पुजारी को यह बात असह्य मालूम हुई और वे बलपूर्वक बेकार हो गया। पुजारी के लिए अपने लँगड़े बैल से उस विधवा को गाँव से निकालने के लिए गये। बड़ी कोई काम लेना असम्भव था। कम खेतवाले कुछ लोगों मुश्किल से लोग उन्हें मनाकर लाये। वे कहते थे-गाँव ने कई बार कहा, बैल हमें बेच दीजिए। पुजारी का में यह बहुत ही बुरा उदाहरण होगा, जिसे देखकर यह कहना था, यह बैल न बेचा जा सकता है और न काम रोग औरों में भी फैलेगा।
के लिए दिया जा सकता है। तन्दुरुस्त और मज़बूत होते इस घटना से पुजारी की सामाजिक अनुदारता सिद्ध . वक्त उसने हमें कमाकर खिलाया है। क्या काम न कर होगी, किन्तु साथ ही यह भी था कि यदि पुजारी को सकने पर बूढ़े मा-बाप बेच दिये जाते हैं ? दुनिया के बारे में और अधिक सुनने-जानने का मौका थोड़ी-सी महाजनी के अलावा पुजारी का प्रधान पेशा मिलता तो वे अपने विचारों को जल्दी बदल भी देते, था खेती। खेती के सम्बन्ध में किसान कट्टर सनातनी होते क्योंकि समझ में आ जाने पर वे किसी बात का दुराग्रह हैं। पुजारी का गाँव बाज़ार, स्टेशन, शहर, सड़क सभी नहीं करते थे।
से बहुत दूर था, इसलिए खेती-सम्बन्धी नई बातों का . पुजारी की तीन हर की खेती थी, जिनमें एक हरवाहा उनके गाँव में पहुँचना मुश्किल था । तो भी पुजारी लोगों
था चिनगी चमार । चिनगी किसी समय कलकत्ता में के मज़ाक करते रहने पर भी घर के काम के लिए बालू, किसी साहब का साईस भी रह चुका था। उसके एक मूली, गाजर और गोभी भी बोने लगे थे। एक बार वे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
पुजारी
कहीं लाल रंगवाली बड़ी ऊख देख पाये। उसे लाकर उन्होंने पाँच बिस्वा खेत में बो दिया। गाँव और घरवाले पुजारी की सुनहरे बालोंवाली गोरी गोरी एक मात्र कहते ही रह गये, यह ऊख क्या कोल्हू में जाने पायेगी, कन्या मा की मृत्यु के एकाध ही वर्ष बाद मर गई । पुत्रों इसे तो लोग दाँतों से ही साफ़ कर डालेंगे। ऊख की में बड़ा ननिहाल में पढ़ता था, बाकी तीन को गाँव से फ़सल अच्छी हुई, साथ ही लोगों की बात भी बहुत-कुछ तीन मील दूर के मदरसे में पढ़ने के लिए बैठा दिया था। सच निकली, और नरम तथा मोटी ऊख पर छिप छिपकर पुजारी अभी भविष्य का सुख-स्वप्न देख रहे थे। इसी बहुतों ने दाँत साफ़ किये। किन्तु उससे यह फ़ायदा हुया समय एक घटना घटी, जिसने उस स्वप्न को चूर चूर कर कि दूसरे साल गाँव में कई और आदमियों ने उसी गन्ने दिया। उनका बड़ा लड़का अब अपने पिता के गाँव की खेती की। तीसरे साल तो पुजारी ने डेढ़ दो एकड़ अधिक आने-जाने लगा था। पिता और उनके मित्रों बोया। ऊख इतनी ज़बर्दस्त हुई कि घरवाले चिन्ता करने की देखादेखी वह भी परमहंस बाबा की कुटिया में पहुँचने लगे, यह ऊख तो साझेवाले पत्थर के कोल्हू में अाषाढ़ लगा, और परमहंस जी के एक शिष्य लगे उसके कान में तक भी खत्म न होगी। पुजारी ने पहले आस-पास से वेदान्त और वैराग्य का मन्त्र फूंकने । वैराग्यशतक और पत्थर का कोल्हू खरीदना चाहा । न मिलने पर बनारस विचारसागर के साथ देश देश के नदी-पर्वत, नगरके पास तक की हवा खा आये। पुजारी किसी बात का अरण्य के मनोरम चित्र उसके सामने खींचे जाने लगे। फैसला तुरन्त न कर डालते थे, उन्हें सोचने में देर उनका असर पड़ना ज़रूरी था । आखिर पुत्र ने भी लगती थी। इसी लिए उन्हें अनेक बार मीठी-कड़वी भी पिता की भाँति पूजा-पाठ शुरू कर दिया । त्रिकाल संध्यासुननी पड़ती थीं। उनके एक सम्बन्धी तो उन्हें 'जड़वा- स्नान और एकाहार प्रारम्भ किया। पुजारी को तो इससे रोग' (ठंडक का रोग) कहा करते थे । दो-तीन बार खाली अधिक चिन्ता न हुई, किन्तु घर के सारे लोग सोलह हाथ लौटने तथा काम के डेढ़-दो मास निकल जाने पर वर्ष के लड़के के इस रंग-ढंग को देखकर आशंकित घरवाले और नाराज़ हुए। अन्त में हफ़्ते भर गुम रहने होने लगे। के बाद एक दिन पुजारी बैल पर लोहे का कोल्हू लदाये एक दिन (१९१० ईसवी में) अचानक वह ग़ायब हो पहुँच ही गये। गाँव में, और शायद उस देहात में भी, गया। यद्यपि दो बार पहले भी वह भागकर कुछ महीने वही पहला लोहे का कोल्हू था। लोग डर रहे थे, कल कलकत्ता रह पाया था। किन्तु उस समय वैराग्य का तो अक्सर बिगड़ जाया करती है। बिगड़ जाने पर कौन भूत सिर पर सवार न होने से उतना डर न था, इसी लिए मरम्मत करेगा ? किन्तु पुजारी बेफ़िक थे । संयोग से उस समय इतनी चिन्ता न हुई थी। पुजारी की चिन्ता कोल्हू बहुत अच्छा निकला । उसी साल उसका दाम सध तब दूर हुई जब उन्होंने सुना, लड़का घूम फिर कर गया । तीन-चार साल काम लेकर पौन दाम पर उन्होंने बनारस लौट आया है, और वहाँ संस्कृत पढ़ रहा है। उसे बेच भी डाला।
पुजारी ने खुशी से संस्कृत पढ़ने की अनुमति दे दी, और पुजारी सादगी के पुजारी थे । वे एक नम्बरवाली उन्हें आशा हो चली कि अब वह हाथ से न जायगा। मार्कीन को बहुत पसन्द करते थे। कहा करते थे, यह दो वर्ष बीतते बीतते उन्होंने सुना-लड़का बनारस बहुत मज़बूत होती है, जाड़ा-गर्मी दोनों में काम आ से कहीं चला गया है । कुछ महीनों बाद जब उन्हें मालूम सकती है । इसको पहननेवाला न शौकीन ही कहा जायगा हुआ कि वह दूसरे प्रान्त के एक मठ में साधु हो गया है और न दरिद्र ही । खद्दर के युग से कुछ दिन पूर्व ही वे तब वे अपने बहनोई .....पंडित को लेकर वहाँ पहुँचे । इस संसार से चल दिये। नहीं तो पुजारी उसके अनन्य उन्होंने लड़के की अनुपस्थिति में समझा-बुझाकर महन्त जी भक्त होते।
को इस बात पर राजी कर लिया कि वे घरवालों को दर्शन
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[ भाग ३६
देने के लिए एक बार अपने चेले को जाने दें। आने पर पुजारी उन आदमियों में से थे, जो घोर से घोर लड़के को यह बात अरुचिकर मालूम हुई, किन्तु दूसरा वेदना को हृदय के भीतर इस तरह छिपा सकते हैं कि चारा न था। लौटाने का वादा तो झूठा था, किन्तु अाँख तक उसकी छींट भी नहीं पहुँचने पाती । तो भी एक भोले-भाले महन्त जी पंडित की चिकनी-चुपड़ी बातों में बार उन्होंने पुत्र के सामने दिल खोलने का प्रयास किया।
आ गये । लड़का घर पर लाया गया। अब एक ओर तो 'नहीं' कहके अभी हल्ला गुल्ला सुनने की हिम्मत न होने लड़के को (पुजारी के स्वभाव के विरुद्ध) शौक़ीन कपड़ों से पुत्र ने उन्हें वहीं कहीं रहकर प्रतीक्षा करने के लिए तथा पान श्रादि का प्रबन्ध किया गया और दूसरी ओर कह दिया। पुजारी यद्यपि पुत्र की मानसिक अवस्था को उसके जाने-आने पर कड़ी निगाह रक्खी जाने लगी। समझने लगे थे, और कभी कभी चाहते भी थे कि वह लड़का एक बार भागा तब स्टेशन पर पुजारी ने जा अपनी मर्जी पर रहने दिया जाय, किन्तु अन्त में पकड़ा । इस तरह काम न बनते देखकर लड़के ने विश्वास पुत्रस्नेह का पल्ला भारी हो जाता था। पैदा कराना चाहा, और तीन मास तक अवसर ढूँढ़ने के उनकी वह अर्द्ध विक्षिप्तावस्था जानकारों के हृदय में बाद वह अपने इस बन्दी-जीवन से मुक्त हुआ। सहानुभूति पैदा किये बिना नहीं रहती थी । लड़का जिनका
अतिथि था उनकी माता तो पुजारी की अवैतनिक गुप्तचर पुजारी को इसका कितना दुःख हुआ, यह इसी से ही थीं। कुछ सप्ताहों के बाद जब लड़का चुपचाप इक्के मालूम होता है कि चिन्ता के मारे दो वर्ष बीतते-बीतते पर सवार होकर स्टेशन की ओर भाग चला तब पुजारी उनके दिमाग़ में एक प्रकार का उन्माद-सा हो गया। को भी खबर मिलते देर न लगी; और इक्के के पहुंचने लड़का उस समय आगरे में पढ़ता था। एक मित्र ने सब से कुछ ही देर बाद वे भी स्टेशन पर आ धमके । मालूम हाल बतलाकर एक बार पिता को देखने के लिए कहा। होता था, दस या बारह मील के रास्ते को उन्होंने दौड़कर इस पर लड़का घर आया । पुजारी को प्रसन्नता ही नहीं ही काटा था। वे तो जानते ही थे कि एक बार रेल हुई, बल्कि जब उनके दिमाग़ की गर्मी दूर करने के लिए में बैठ जाने पर उसे पाना उनके लिए असम्भव हो फ़स्द खोलनेवाला लाया गया तब उन्होंने कहा-क्या जायगा। ट्रेन के आने में पन्द्रह-बीस ही मिनट की करोगे? अब मेरी तबीअत अच्छी हो गई है। एक देर थी। हफ्ते के बाद लड़का उसके इच्छानुसार जाने भी लड़के ने साथ छोड़ देने के लिए जब कुछ अधिक दिया गया।
___ कहना चाहा तब पुजारी बच्चों की भाँति फूट फूटकर रोने
लगे। स्टेशन के यात्री इकट्ठे होकर लगे उसकी लानतदो वर्ष और बीत गये। लड़के का कोई पता न था। मलामत करने । उससे जान बचाने के लिए उसे फिर एक दिन पता लगा, वह बनारस आया हुअा है। फिर बनारस आना पड़ा । बनारस में श्राकर उसने. भले प्रकार ज़बर्दस्ती घर पर लाकर नज़रबन्दी का वही अस्त्र काम में समझाकर कह दिया--श्राप पकड़कर मुझे नहीं रख लाया गया। इस बार उसने अपने बन्धुत्रों से कह दिया- सकते। मेरी इच्छा घर जाने की बिलकुल नहीं है । घर एक बार निकल जाने पर फिर तुम नहीं पकड़ सकोगे। न जाने की मैं प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। आपके हठ से ध्येय अाखिर आदमी का बच्चा कब तक बाँधकर रक्खा जा को छोड़ने की अपेक्षा मुझे मरना प्रिय होगा। सकता है ? और एक दिन वह फिर निकल भागने में समर्थ पुजारी शायद पहले से काफ़ी सोच चुके थे। उन्होंने हुआ। बनारस से वह विन्ध्यपर्वत की तलहटी में पहुँचा। तुरन्त और बहुत संक्षेप में कहा-अच्छा अब मैं तुम्हें किन्तु पुजारी को लड़के के एक मित्र ने पता बता दिया, नहीं रोकूँगा, किन्तु मैं भी घर न जाऊँगा। यहीं काशी में और वे भी वहाँ जा पहुँचे ।
रहकर ज़िन्दगी बिता दूंगा।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
लड़के को इतनी आसानी से छुटकारा पाने की कभी आशा न थी । वह दूसरी ट्रेन से चला गया ।
X
X
X
कितने ही महीनों के बाद घरवाले मनाकर पुजारी को ले गये । सचमुच ही घर उन्हें काल-सा लगता था । धीरे धीरे फिर चिन्ता ने उनकी देह और दिमाग़ पर प्रभाव जमाया। इसी दुःखमय चिन्ताग्रस्त अवस्था में उन्होंने चार वर्ष और बिताये । १६२० ईसवी का जून
आई सन्ध्या शशि की प्यारी ! प्यारे प्रियतम के चिन्तन में की लजाती नत चितवन, मिलन- निशा की सुख-आशा में दिशि दिशि कभी डोलते लोचन,
कोमल चरणों के दर्शन से कमल जाये - से कुम्हलाये, - हंस के विहार-शर ने ज्यों गति लख अपने नयन नवाये
X
-
पुजारी
विभ्रममयि सन्ध्या सुकुमारी ! अपने नीलम के महलों से आई अब पश्चिम- दिशि-पथ पर, कोमल - अरुण चरण-नख छू छू अरुण रेणु रँगती है अम्बर,
नभ में खिलती केसर - क्यारी !
स्वागत - गीत
लेखक, श्रीयुत नरेन्द्र
उन चरणों पर सुखमा वारी ! उत्सुक धरणी पर धीरे से धरती पग सन्ध्या कोमल तन,
दरस परस पा मुसका रज-कन खिल उठते ज्यों गेंदा के बनकनक-सुरभि-घन ज्यों नभचारी !
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
या जुलाई का महीना था, जब सुदूर दक्षिण में पुत्र को उनके बालमित्र का पत्र मिला— मामा का देहान्त हो गया । पुत्र की आँखों में आँसू नहीं आये | चिट्ठी की बात पूछने पर उसने जिस प्रकार अपने मित्रों को यह ख़बर सुनाई उससे वे बोल उठे, तुम्हारा दिल पत्थर का है, पिता की मृत्यु को सुनकर भी तुम्हें रंज नहीं हुआ ! उन्हें पुत्र के हृदय के भीतर की वास्तविक दशा यदि मालूम होती तो वे ऐसा न कहते ।
६१
चिर सुहागिनी के पद-नख छ बनती अवनी भी सुहागिनी, व्योम - माँग में सेंदुर भरती हँसती सरसों-सी सुहागिनी, -
नव वसन्त की प्राणपियारी ! नीलम की नभ - सरसी में भी जागी कुन्द कुमुद की कलियाँ,उठीं मिलन की सरस रास को चाँदी की नन्हीं सी परियाँ, जागी शशि की निशि-प्रतिहारी ! सन्ध्या के नत मुख पर लज्जा होली - मिस बरसाती रोली, केशर - रंजित चचल अञ्चल केशाच्छादित सुवरन-चोली,
सोने में मुकुलित उजियारी ! पुलकित तन के ङ्ग-राग को कुसुमों का पराग हर आई, मद प्रकरन्द मंदिर नयनों में अपने मधुकर को भर लाई,
आई सन्ध्या शशि की प्यारी !
www.umaragyanbhandar.com
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
VOEMS
जाग्रत महिलायें।
सिनेमा में भारतीय ___ee स्त्रियों का स्थान
लेखिका, श्रीमती वासंतीदेवो पडकोण विराज-कल की परिस्थिति में अनेक ध्यान रखना होगा कि उनकी मर्यादा-रक्षा का समुचित या स्त्रियाँ पुरुषों के समान हर प्रबन्ध है या नहीं। सिनेमा में उनको अपमानजनक
D तरह के उद्योग कर रही पार्ट करने को न देना चाहिए। हमें भारतीय या l हैं और समाज-सुधारक महिलाओं का सम्मान करना चाहिए। युगयुगान्तर ATLI पुरुषवर्ग उनको उत्तेजन देता से भारतीय महिलायें अपनी सहनशीलता, नम्रता,
है। यह आनन्द की बात लज्जा, प्रेमपूर्ण स्वभाव के लिए प्रसिद्ध हैं। अतएव
है। भारतीय महिलाओं ने उनके इन गुणों की रक्षा सिनेमा में ज़रूर होनी चाहिए। हर एक उद्योग में भाग लेने का प्रयत्न किया है और क्या हर एक पुरुष कलाप्रेमी है ? सिनेमा-कम्पउन्होंने सफलता भी पाई है। सिनेमा भी एक उद्योग नियों के मालिक और उसमें भाग लेनेवाले युवक है और सिनेमा में भाग लेने के बारे में आज-कल क्या सभी कलाप्रेमी हैं ? कभी नहीं। हिन्दुस्तान में स्त्रियों में--यहाँ तक कि पढ़ी-लिखी और उच्चकुल की : न जाने कितनी सिनेमा-कम्पनियाँ हैं, परन्तु इनमें कुमारी और विवाहित स्त्रियों में भी काफी चर्चा हो सिर्फ एक या दो कम्पनियाँ ही ऐसी हैं जो स्त्रियों को रही है।
गौरवपूर्ण पार्ट देकर उनकी मानमर्यादा का ख़याल परन्तु मेरा कहना यह है कि उच्चकुल की स्त्रियों के रखती हैं। सिनेमा में भाग लेने के पहले हमारे सुधारक-समाज को इसी प्रकार डायरेक्टर देवकी बोस के कलम सिनेमा-सम्बन्धी अनेक विषयों पर ध्यान देना होगा। से उतरे हुए और उनके ही 'डायरेक्शन' में किये गये यह सच है कि हमारी भारतीय महिलायें इस कला कई चित्रपट हैं। बंगाली चण्डीदास, हिन्दी मीराबाई, में भाग लेने के योग्य हैं। उनकी कार्य-कुशलता, नम्रता, पूरणभक्त, सीता-इन सब फ़िल्मों में उन्होंने अपना तथा कला-प्रेम भूषणास्पद है। पुरुष स्त्रियों का पार्ट कला-प्रेम सचाई और दिल से प्रकट किया है और लेकर स्त्रियों की नक़ल करने में कभी समर्थ नहीं हो स्त्री-पार्ट का गौरव किया है। इनमें भारतीय महिलाओं सकते, इसलिए स्त्रियों को चित्रपट में भाग लेने के लिए का सद्गुण, मर्यादा, प्रेमपूर्ण स्वभाव पूर्णरूप से प्रोत्साहित करना चाहिए। अगर चित्रपट-कला के दिखाया गया है। प्रभात फ़िल्म कम्पनी के कई चित्रधन्धे को आगे बढ़ाना है तो इस बात की ओर ध्यान पटों में भी उन्होंने इसीतरह स्त्रियों को उनके स्वभावानुदेना ही होगा!
सार ही पार्ट दिये हैं। उनके चित्रपट ये हैं-चन्द्रसेना, परन्तु स्त्रियों को सिनेमा भेजने पर इस बात का अयोध्या का राजा, जलती निशानी, सैरंध्री, अमृत
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १)
जाग्रत महिलायें
मंथन । ये सब चित्रपट ऐसे हैं कि अनेक बार देखने से भगवान् ने पुरुष और स्त्री में प्रत्येक विषय में भी आँखों को तृप्ति नहीं होती। बाल-बच्चों से लेकर भेद-भाव नहीं किया है। तो भी आर्य स्त्री में शील, युवक-युवती, बूढ़े आदि सभी ये चित्रपट देख सकते विनय, आत्मगौरव, लज्जा और प्रेम जन्मगत ही हैं। धन्य है उनका कला-प्रेम ! आनन्द की बात है कि होता है। तो क्या आज सिनेमा घरों में इन सब कई पढ़ी-लिखी कुमारियाँ और विवाहित स्त्रियाँ और भूषणास्पद बातों को तिलाञ्जलि दे देना ठीक होगा ? मर्यादाशील कुटुम्ब की महिलायें इन दोनों कम्पनियों यह एक प्रश्न है। में काम कर रही हैं।
सभ्य गृहिणियों को या सभ्य कुल की कुमारियों मेरे ख़याल में ऐसे कई फिल्म हैं जिनमें भारतीय को चित्रपट में काम करने के पहले इन सब बातों ललनाओं का विनय-स्वभाव, लज्जा-नम्रता आदि पर जरूर ध्यान देना चाहिए । सिनेमा के डायसबका छिन्न-विछिन्न कर दिया गया है । कई दृश्य तो रेक्टर से इस बात की गारंटी लेनी होगी कि इतने लज्जाजनक हैं कि उन्हें देखते ही आँखें मीचनी 'स्टुडियो' में डायरेक्टर से या चित्रपट में भाग लेनेवाले पड़ती हैं। क्या हमारी हिन्दू ललनायें परपुरुषों से पुरुषों से या वहाँ के अन्य पुरुषों से उनको किसी मिल-जुल सकती हैं ? कितनी ही पढ़ी-लिखी स्त्री हो, तरह की तकलीफ न होने पायेगी। यदि ये लोग इस क्या वह अपने पति से अन्य लोगों के सामने लज्जा- बात की व्यवस्था करें कि स्त्रियों के चरित्र पर किसी स्पद बर्ताव करने को तैयार होगी या अपने पति तरह का कलंक न लगने पावेगा तथा उन्हें स्वभावको ही ऐसा व्यवहार करने देगी ? कभी नहीं । चाहे विरुद्ध पार्ट करने को न दिये जायेंगे तो अवश्य ही जो हो योरपीय महिलाओंकी नकल करते हुए भी उच्चकुल की महिलायें चित्रपट-कला में भाग लेंगी भारतीय महिला अपना लज्जाशील स्वभाव कभी नहीं और इस कला को समुन्नत करेंगी। छोड़ेगी। और एक बात । पुरुष-वेश धारण करना, सबसे पहले आवश्यकता यही है कि आर्यपुरुषों अपने पति को छड़ी से मारना, पति से नौकर को में पूर्णरूप से परिवर्तन होना चाहिए। भारतीय तरह बर्ताव रखना, बार बार चुम्बन करना—यह स्त्रियों को वे अपना भोग्य वस्तु समझते हैं। अगर सब अँगरेजी चित्रपटों की नक़ल है। आर्य-महिलाओं वे कला-प्रेम से भारतीय महिलाओं को भी चित्रपटकी इज्जत रखना आर्य-पुरुषों का धर्म है। हम लोग कला में भाग लेने का अवसर देना चाहते हैं तो यह प्रत्येक विषय में अन्य देशवासियों की नक़ल करने में जरूरी बात है कि वे पहले महिलाओं को गौरवपूर्ण अपना हिन्दूत्व भूल जाते हैं। हाँ, हम लोगों को दृष्टि से देखें, और हर एक विषय में योरपीय पश्चिमवासियों से सीखने लायक अनेक बातें हैं, पर चित्रपटों की उन बातों की नकल न करें, जिनसे हमारे हम लोग उन पर ध्यान ही नहीं देते।
हिन्दूत्व को कलंक लगता है। पाश्चात्यों का अन्धाधुन्ध ___ आज-कल पति-पत्नियों का सम्बन्ध पिछले ज़माने अनुकरण करना भारतवासियों को उचित नहीं है। की तरह नहीं रह गया है। पति-पत्नी में ऊँच-नीच क्या समाज-सुधारक और कला-प्रेमी पुरुष इस का भेदभाव नहीं रहता है, न यह रहना उचित है। विषय पर ध्यान देंगे ?
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोयटे का प्रलय
लेखक, श्रीयुत तिलकराज भसीन,
[इस लेख के लेखक महोदय कोयटा भूकम्प के सम्बन्ध में श्रीयुत जयराम दास दौलत
राम से बातें कर रहे हैं ।]
[मेघराज मोटर कंम्पनी का ध्वंशावशेष रेड क्रास के कार्य-कर्ताओं के साथ लेखक महोदय घुटने पर हाथ
रक्खे खड़े हैं ।]
CNN
यटा भूकम्प, वह रोमांच- कोयटा में भूकम्प पीड़ितों के सहायतार्थ बाहर कारी दुर्घटना, जिसने केवल से कोई नहीं जाने पाया। यह सौभाग्य केवल हिन्दुस्तान में ही नहीं बरन ।
रेड क्रास सोसाइटी को मिला, जिसके साथ सारे सभ्य-संसार में सनसनाहट और व्याकुलता सुन्दर नगर एक-दम बंजर-उजाड़ हो गया, जहाँ अब उत्पन्न कर दी है, संसार के मृत्यु, दुर्गन्ध और धूएँ का साम्राज्य है। पर्वत
इतिहास में सदा के लिए अब भी वैसे ही शोभायमान खड़े हैं, चश्मे अब भी प्रकृति के क्रूर प्रकोप, उद्दण्डता व बर्बरता का एक वैसे ही बह रहे हैं, फल-फूल-युक्त बारा अब भी विशेष दृष्टान्त रहेगा-कोयटे का भूकम्प जिसने अपनी छटा दरसा रहे हैं, चन्द्र, सूर्य, तारागण अब हाल में इसी ३१ मई की रात को २ बजने के भी उस नगर का अन्धकार दूर करने का प्रयत्न पूर्ववत् ४५ मिनट बाद उस “हिन्दुस्थान की सुन्दर उद्यान करते हैं; मगर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति ने वाटिका” को श्मशान में परिणित कर दिया मनुष्य और उसकी बनाई सभ्यता से बदला लिया है, हमें पुराणों में वर्णित उस महाप्रलय का, जब है ! उस रमणीक इलाके के अत्यन्त स्वास्थ्यप्रद भोले बाबा महादेव नग्न होकर डमरू बजाते ताण्डव- जलवायु में पले हुए हजारों सुन्दर स्वस्थ नरनारी नृत्य करेंगे और सारी सृष्टि 'त्राहिमाम्' पुकारेगी, सदा की नींद सो गये ! बड़े बड़े नगरसेठ दाने-दाने स्मरण कराता है। यह विश्वास नहीं होता कि कैसे को मुहताज हो गये, हजारों बच्चे अनाथ, और कुछ मिनटों में वह फल-पुष्प-वाटिकाओं से सुसज्जित सैकड़ों सधवायें विधवायें हो गई। धन-माल की
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
कारी भूकम्प
'बी० ए०, एल-एल० बी०, वकील
घायल । स्टेशन पर घायलों को ले जाने वाली स्पेशल
गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।]
[ब्रूसरोड-कोयटा
हमारे इस लेख के लेखक श्रीयुत तिलकराज और जानों की भी काफी हानि हुई है। सरयाब-स्टशन भसीन भी वहाँ गये । इस लेख में अापने कोयटा पर केवल स्टेशन मास्टर ही बचा था जो एक बाजू का अपनी आँखो-देखा हाल लिखा है।
में पट्टी बाँधे लेटफार्म पर दफ्तर लगाये अपने काम में
जुटा हुआ था। सरयाब से कोयटे तक लाइनों के क्षति का तो कोई अनुमान ही नहीं। कई-एकों का अनु- दोनों ओर हृदय-विदारक भूकम्प का नग्न चित्र देखने मान है कि केवल कोयटा नगर के बसाने में ही १ में आया। एक भी मकान अथवा छप्पर ऐसा न था करोड़ से अधिक धन लग जायगा।
जो भूकम्प के प्रकोप से बचा हो। कोयटा-स्टेशन तो जैसे ही हमारी ट्रेन कोलपुर पहुँची, हमें भूकम्प बुरी तरह गिरा हुआ था और बाहर लेटफार्म पर या के जर्जर दृश्य प्रथम दृष्टिगोचर हुए। कोलपुर के तंबुओं में दफ्तर खुले हुए थे। कोयटा शहर को क्षति स्टेशन का एक भाग गिर गया है, किन्तु शहर बिलकुल का अनुमान यहाँ दिये हुए नक़शे से अच्छी तरह लग बच गया है, क्योंकि वहाँ की बहुत-सी इमारतें भूकम्प- सकता है। यह कहना कोई अत्युक्ति न होगी कि प्रूफ हैं। उससे आगे खेज़द-स्टेशन है जो एक कोयटा शहर अब ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह पहाड़ी के नीचे विद्यमान है, जिसकी बाबत विशेषज्ञों सदियों से भूगर्भ में सोया हुआ था और हाल में ही का अनुमान है कि इसी ने भूकम्प को जन्म दिया। किसी भूगर्भ-वेत्ता ने उसे खोदकर निकाला है। बाबूखेज़द के स्टेशन और आस-पास की इमारतों को मोहल्ला, शिकारपुरी बाजार,ब्रूस-रोड, कन्धारी बाजार, काफी क्षति पहुंची है। सरयाब-स्टेशन, जिससे पुराना बाबू-मोहल्ला, रामगढ़, इस्लामाबाद, ग्वालमंडी, अगला स्टेशन कोयटा है, बिलकुल नष्ट हो गया है, लिटन-रोड आदि स्थानों में धन-जन की विशेष हानि
Shree SudharmaswamiGyanbhandar-umara. Surat
६ ५
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
कोयटा नगर का नकशा
निराशियों का कैम
घुड़दौड़ का पैदान/
कम्पायर सिनीषा
का वहाबनी नी
कन्सी
सूरजगज सिनीया रंडियों की बस्ती व
प्रेपटाकी
केटा से ७ पोल २०. झोपड़े नष्ट
N
कान्धारी राज़ार
इसलामावाद
सिविल
रोड
अस्पताल
गरीबाबाद
ग्वाल मण्डी
रामगराव
बूस
मिशन रोड
लिटन
रेजिडेन्सीN
पुराना बाबू मोहल्ला
कोर्ट
एन्डरसन रोड
पोहल्ला
सैन्डेसैन लाइबरेरी प्रिंस रोड
प्रिंस रोड
'जी. एस.
बेलवे स्टेशन
रेलवे बस्ती
म्युनिस्पल टाउन हाल
१०%हिन्दू म%Dमुसलमान
नष्ट हुए स्थानों का नकशा
हुई है। बड़ी बड़ी अट्टालिकायें गिरकर मिट्टी में मिल साधारण तौर पर ९ ब्रिगेड यानी क़रीब ४०,८०० गई हैं। अगर बचे हैं तो वे ग़रीब लोग जो शहर के मिश्रित सिपाही रहते हैं। बाहर फूस की झोपड़ियों में रहते थे।
___ सरकारी रिपोर्टो द्वारा यह अनुमान किया जाता कोयटा-छावनी शहर की अपेक्षा बहुत-कुछ बच है कि इस भूकम्प से मरे अथवा घायल हुए मनुष्यों गई है। वहाँ न तो इमारतों की विशेष हानि हुई है, की संख्या लगभग ५६,००० है, जिसमें से कोई न उतने मनुष्यों का ही नुकसान हुआ है । तो भी ३०,००० के क़रीब तो कोयटा शहर के ही निवासी बहुत-सी इमारतें भूचाल के झपेटे में बुरी तरह आ हैं। बाक़ी छावनी और आस-पास के इलाके के लोग जाने के कारण हिल-सी गई हैं--कई-एकों में दराज़ हो हैं। जैसा कि नक्शे से विदित होता है, शहर में गये हैं, कई बीच से फट गई हैं और शायद अब अधिक आबादी हिन्दुओं की ही थी। मुसलमान लोग भूकम्प का एक भी झटका न सह सकें। बहुत-से तो शहर के आस-पास छोटे-छोटे गाँवों में या शहर के पाठक इस बात से अवश्य परिचित होंगे कि कोयटा- बाहर झोपड़ियों में रहते थे। हिन्दुओं में भी सिंधियों - छावनी उत्तर-पश्चिम-सीमा-प्रान्त में एक बहुत बड़ी और पंजाबियों का अधिक नुकसान हुआ है। कोयटे छावनी है। कोयटा से १५ मील आगे कलात स्टेट का करीब सारा व्यापार सिंधियों व पारसियों के हाथ शुरू हो जाता है, जिसकी सीमा खूखार जातियों के में था, और बाबू क्लास में पंजाबियों की बहुतायत सरहद्दी इलाके से जा मिलती है। कलात स्टेट में भी थी। प्रायः लोगों की आय के दो ज़रिये थे-मकानब्रिटिश फौजों का शासन है। कोयटा-छावनी में जायदाद का किराया-भाड़ा या सरहद्दी वस्तुओं का
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
कोयटे का प्रलयकारी भूकम्प
जिसमें डाक्टर, नर्स, और रेडक्रास सोसायटी के कार्यकर्ता थे। रास्ते में हमें रोहरी और सिब्बी में दो स्पेशल गाड़ियाँ मिलीं, जिनमें वे भाग्यवान् भरे हुए थे जो इस प्रलय में भी बच गये थे। सिब्बी में फोज का कड़ा पहरा था ताकि कोई फालतू मनुष्य कोयटा न जा सके। गाड़ी की तलाशी पहले सिब्बी में होती थी
और फिर कोयटा-स्टेशन से तीन मील इधर । यहाँ रेल की लाइन के दोनों ओर सिपाही खड़े रहते थे जो चलती गाड़ी में चढ़कर मुसाफिरों की अच्छी तरह जाँच पड़ताल करते थे।
कोयटा-स्टेशन पर भी कड़ा फौजी पहरा था। [कायटा और मुस्तङ्ग के बीच में चुङ्गी की चौकी।
जिस दिन हम कोयटा पहुँचे, स्टेशन पर पीड़ितों ईरान और बलोचिस्तान को व्यापार का मार्ग यहीं से है।]
का एक बड़ा जमघट मौजूद था। ये सब लोग व्यापार । हमें ऐसे आदमी मिले जो भूकम्प के पहले बाहर भेजे जाने की प्रतीक्षा में थे। लखपती थे और बाद को एक मामूली हैसियत के जिमखाना-रेसकोर्स के इर्द-गिर्द भी कड़ा पहरा भी न रहे।
था। उसके एक नुक्कड़ पर भोजनालय खुला हुआ था। भूकम्प के करीब दो घण्टे के बाद फौज ने सारे यहाँ सब फ़ौजी प्रबन्ध था। भोजनालय के आस-पास शहर पर कब्जा कर लिया और सफ़रमैना (Sappers भूखे मनुष्यों का टकटकी लगाये खड़े रहना एक and miners) के आदमियों ने मलवे की खुदाई शुरू अत्यन्त हृदयस्पर्शी दृश्य था। अमीर-गरीब, ऊँचकर दी। विशेषकर दो दिन दो रात तो फौज ने नीच, नरनारी, सबको फौजी न्याय के अनुसार दो लगातार काम किया और करीब ५,००० आदमी चपातियाँ और प्याला दाल प्रत्येक बार मिलती थी। निकाले, जिनमें से आधे से अधिक जीवित थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि फौज की इस फुर्ती के कारण बहुत-सी जान बच गई। मरे हुओं की लाशें सड़कों पर ही जला दी गई। बहुत-से आदमियों ने स्वयं अपने सम्बन्धियों का दाह-संस्कार किया और राख अपने साथ रख ली। तीसरे दिन जीवित और घायल सब 'जिमखाना रेसकोर्स' के मैदान में एकत्र किये गये और उनके रहने का प्रबन्ध तम्बुओं में किया गया। सारे शहर के इर्द-गिर्द फौज का पहरा लगा दिया गया। कोई भी अन्दर नहीं जाने पाता था। अधिक घायल अस्पताल में भेजे गये। इसी दिन हमारी स्पेशल गाड़ी कोयटा पहुँची,
[मुस्तङ्ग का मुख्य बाज़ार
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
रेलगाड़ियाँ रेसकोर्स-ग्राउंड से छूटती थीं और स्टेशन पर मुसाफिरों को फर्जी टिकट मुफ्त दिये जाते थे। गाड़ी के चलने से पहले हर एक को पानी, चाय और बच्चों के लिए दूध-बिस्कुट दिया जाता था, और एक दफ़ा फिर डाक्टरी मुआयना होता था । प्लेटफार्म पर भी डिस्पेंसरी खोल दी गई थी। अधिक घायल व्यक्ति स्ट्रेचर पर रेडक्राससोसायटी के सेवकों या रेलवे वालंटियरों के कन्धों पर लाये जाते थे। एम्बुलेंस गाड़ियों के बहुत देर बाद पहुँचने के कारण मुसाफिरों को दो दिन तक काफी कष्ट पहुँचा, क्योंकि
[भूकम्प की जननी कोयटा की पहाड़ी-इसकी विभिन्न मामूली घायल और अधिक घायल दोनों प्रकार ।
चोटियों से अब भी धुंवा और गंधक निकल रहा है ।। के मनुष्य फल की गाड़ियों में भरकर भेजे जाते रहे। यह रेलवालों की ग़फ़लत का परिणाम पर कड़ा पहरा था, क्योंकि अत्यन्त दुर्गन्धि के कारण था। बाद को एम्बुलेंसकारों के आ जाने पर अधिक कुछ समय के लिए खुदाई बन्द कर दी गई थी। इधर घायल व्यक्ति विशेष हिफाजत से भेजे जाने लगे। बबर पठान लुटेरों का सदा भय बना रहता है। हमारे इस प्रकार पाँच-छः दिन में कोई १० या १२ हज़ार- कोयटा पहुँचने के दूसरे दिन हमें पता चला कि भूकम्प पीड़ित कोयटे से बाहर लाहार, मुल्तान, हैदरा- पिछले रोज़ ४० पठानों की मंडली लूट-मार के लिए बाद इत्यादि जगहों को भेजे गये।
शहर में आ धमकी थी, जिसमें से २० तो गोली का जिस दिन हम कोयटा से वापस चले, उस दिन शिकार बनाये गये और २० पकड़े गये। बाद में २-३ फौज का शहर, छावनी और आस-पास के दुर्गा पठान शहर के चौराहों पर लटका दिये गये।
इसमें शक नहीं कि ऐसे असाधारण समय में फौज के बिना कोई सरकारी या गैर-सरकारी संस्था इस फुर्ती, सफ़ाई और ईमानदारी के साथ भूकम्प पीड़ितों की सहायता नहीं कर सकती थी। परन्तु तो भी अन्य संस्थाओं को सेवार्थ न आने देने की नीति उचित नहीं मानी जायगी। जब पब्लिक संस्थायें फौजी शासन के अधीन होकर कार्य करने को तैयार थीं तब इनकी माँग को ठुकराकर सरकार ने बुद्धिमानी का काम नहीं किया है। वापसी पर मेरी सिंध के कांग्रेसी नेता श्रीयुत जयरामदास
दौलतराम से भेंट हुई। उन्होंने भी यही कहा कि [मुस्तङ्ग का एक बाज़ार]
कोयटा के फौजी शासक हमको सेवा करने की
Surat
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
[सैकड़ों घायल व्यक्ति हैदराबाद सिंध और अन्य स्थानों को भेजे जा रहे हैं। यहाँ एक जत्था हैदराबाद स्टेशन पर उतर रहा है ।]
कोयटे का प्रलयकारी भूकम्प
आज्ञा क्यों नहीं देते जब कि हम उनके शासनविधान में रहकर काम करना चाहते हैं।
केवल रेडक्रास सोसायटी और रेलवे वालंटियरों को ही भूकम्प पीड़ितों की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।
इस भूकम्प में अधिक हानि धनाढ्यों या मध्यम स्थितिवालों की ही हुई है। झोपड़ियों में रहनेवाले दरिद्रनारायण भूकम्प-प्रकोप से बहुत साफ़ बचे जैसा कि एक ग़रीब मुसलमान मजदूर ने मुझसे हँसकर कहा - "बाबू जी ! हमारी गरीबी आखिर एक ही दफ़ा तो काम आई ।"
रोहरी स्टेशन पर पीड़ितों का नाम-पता इत्यादि लिख लिया जाता है ताकि बाद को जायदाद के मामले में सरकार उनको बुला सके ।
यह तो रहा कोयटे का हाल । परन्तु इस भयानक भूकम्प का असर कोयटे के इर्द-गिर्द ६ मील तक कलात स्टेट व अफ़ग़ान सरहद्द तक हुआ है। कलात स्टेट की राजधानी मुस्तङ्ग का तो सिवा कुछ सरकारी इमारतों के, जो शाहीबाग़ के सामने पहाड़ी पर हैं,
naswami Gyanbhandar-Umara, Surat
६९
[मुस्तङ्ग — मृत्यु के निकट पहुँचता हुआ एक बुड्ढा आदमी ।]
कुछ भी नहीं बचा, और जन-धन की भी क़ाफ़ी हानि हुई है।
www.umaragyanbhandar.com
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोयटा में प्रलय
लेखक, श्रीयुत धर्मवीर, एम० ए०
har के भूकम्प के पीड़ितों का वर्णन श्रीयुत धर्मवीर जी ने अपने इस महत्त्वपूर्ण लेख में उन्हीं की जबानी दिया है। इससे इस लेख में और भी विशेषता आ गई है। इस लेख के पढ़ने से इस कोयटा के भूकम्प का पूरा इतिहास तो मालूम ही होगा, साथ ही इसका भी बहुत कुछ ज्ञान हो जायगा कि उस महाप्रलय से जो लोग बच सके वे कैसे बच सके और उनकी इस समय क्या दशा है।
ड़ी लाहौर के रेलवे स्टेशन पर
कर खड़ी ही हुई थी कि सबसे पहले सत्रह अठारह बरस की एक युवती उतरी । उसके तन पर एक बनिया इन और धोती थी । बाल खुले हुए थे। सिर में मिट्टी पड़ी
हुई थी। नाक, मुँह और आँखें सूजी हुई थीं। उसके साथ एक बुड्ढा था । प्लेटफार्म पर खड़े लोगों ने वृद्ध पुरुष ar थाम कर डिब्बे से बाहर निकाला। वह जहाँ का तहाँ बैठ गया । अपने दोनों हाथ उसने आगे को फैला दिये। आँखें उसकी गाड़ी की खिड़की में गड़ी हुई थीं। वह चिल्लाया- " हट जाओ ! हट जाओ! भूचाल या रहा है ! चंद्र, चंडू ! उठ, भाग !”
यह कहते हुए वह कभी सिर के बाल नोचता, कभी डाढ़ी के । वह नौजवान लड़की उसके पास बैठी कभी उसके कपड़े सँभालती, कभी अपना तन ढाँकती ।
इतने में स्टेशन की दूसरी तरफ़ से एक अन्य वृद्ध पुरुष आया । उसे देखकर नवयुवती ने बाँहें फैला दीं। वे दोनों एक दूसरे से लिपट गये और फूट-फूट कर रोने लगे ।
गा
मालूम हुआ कि कमला का ब्याह हुए अभी सिर्फ़ तीन मास हुए हैं। अपने नौजवान पति चंडूलाल और बुड्ढे ससुर के साथ वह कोयटे गई थी । भूचाल आने पर पति मर गया। इस पर लड़के की मौत से बाप पागल ही हो गया । जो मनुष्य बाद में आया वह कमला का पिता
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
था। कुछ मास पहले उसने अपनी बेटी को सोहाग की साड़ी पहनाकर भेजा था, परन्तु अब उस लड़की के तन पर सोहाग की फटी हुई धोती भर है।
इस प्रकार की दुःखप्रद घटनायें आज कल लाहौर के रेलवे स्टेशन पर हर रोज़ देखने में आती हैं। कहीं माता बेटे से बड़ गई है तो पत्नी पति से, बहन भाई से बिछुड़ गई है तो लड़की मा से, कराँची से लेकर लाहौर तक और लाहौर से नीचे देहली और ऊपर पेशावर तक जानेवाली लाइनों पर जितने बड़े-बड़े स्टेशन हैं उनमें से लगभग हर एक पर ऐसी हृदयवेधी घटनायें देखने में आ रही हैं।
तीस और इकतीस मई की दर्मियानी रात को ३ बजकर २० मिनट पर कोयटा में भूचाल आया । एक कहता है, का एक मिनट तक रहा; दूसरा कहता है, ये झटके कई मिनट तक आते रहे। ये भूकम्प कोयटा में ही नहीं महसूस हुए, बल्कि उसके इर्द-गिर्द के समस्त प्रदेश में भी । अफ़ग़ानिस्तान के दक्षिण भाग - उदाहरणार्थं कुलात, चमन और कंधार में, सिंध के उत्तर-भागउदाहरणार्थ लड़काना, शिकारपुर, सक्खर आदि में और पंजाब में भी भूकम्प श्राया । इसी समय जहाँ इधर भारत के कई अन्य भागों, उदाहरणार्थ देहरादून और लाहौर में, लोगों ने इसके झटके मालूम किये, वहाँ उधर इंग्लैंड में ही नहीं, बल्कि जापान के ताइचो और शानशेकेा के प्रदेशों में भी इससे लाखों मनुष्य मर गये ।
गत वर्ष बिहार और नैपाल में भूचाल आया था, और ग़ज़ब का श्राया था। लेकिन कोयटा का भूचाल तो
७०
www.umaragyanbhandar.com
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
सख्या १]
कोयटा में प्रलय
उससे भी बाज़ी मार ले गया । बिहार और नेपाल में भूकम्प जेनरल पोस्ट आफ़िस, टेलिग्राफ़ आफ़िस, सिविल दिन के समय आया था इसलिए लोग मकानों और दुकानों अस्पताल और सिविल एरिया विनष्ट हो गये हैं । से बाहर निकलकर खुली जगह में जा खड़े हुए थे। लेकिन कोयटा से ८ मील के फासले पर सरयान नाम का कोयटा में यह रात को अाया, जिस वक्त लोग मीठे एक स्टेशन है। यहाँ जब भूचाल अाया तब ज़मीन फट सपने ले रहे थे। कोयटा की सरदी में लोगों के चेहरे गई और सारे मुलाज़िम तथा उनके परिवार इमारतों में लिहाफ़ों से ढंके थे जब कि यह मुसीबत उन पर टूटी। बैठे-बिठाये धरती के अन्दर धंस गये। नतीजा यह हुआ कि लोग अभी अपने शरीर से कंबल शहर कुलात में भी बहुत नुकसान हुआ है-जान भी न हटा पाये थे कि दीवारें उनके ऊपर आ गिरी। और माल दोनों का। वर्तमान नवाब के चाचा पैंतीस हजार की आबादी में से तीस हज़ार श्रादमी भूतपूर्व नवाब, के शाही महल में साढ़े तीन सौ दब कर मर गये। बाकी के बच तो गये, लेकिन से ऊपर बीबियाँ रहती थीं। यह महल अब मिट्टी किसी का हाथ कट गया तो किसी का पाँव, किसी में मिल गया है। इन बीबियों को नवाब ने देहात से का सिर ज़ख्मी हो गया तो किसी की कमर । बहुत एकत्र किया था। जो सुन्दर स्त्री नवाब को पसंद आती ही थोडे ऐसे निकल पाये जो सही-सलामत है। लेकिन उसे वे अपने महल में ले पाते। यहाँ तक कि अपने वे बचे क्या, बचे जो अपनी संतानें खो बैठे हैं, जो अपनी पतियों से अलग करके लाई जाती थीं। नवाब जब मरे धन-दौलत गँवा चुके हैं और निकट सम्बन्धियों से वंचित तब ये औरतें अपने पहले के पतियों के पास वापस भेजी गईं। हो गये हैं।
परन्तु पतियों ने आपत्ति की कि अब तो ये बूढ़ी हो गई __ कोयटा और उसके इर्द-गिर्द के इलाके में जान-माल हैं, हम इन्हें नहीं लेंगे। इस पर हर एक वृद्धा के साथ उन्हें का कितना नुकसान हुआ है, इसके बारे में इस समय एक एक युवती स्त्री भी दी गई। नवाब की इन बीबियों (१४ जून) तक कुछ नहीं कहा जा सकता। विभिन्न अनु- को वे आभूषण भी दे दिये गये जो वे महल में पहना मान लगाये गये हैं। एक सूत्र के अनुसार ५६ हज़ार करती थीं। इसके अतिरिक्त उन्हें दो दो ऊँट और एक एक मनुष्य मरे हैं, दूसरे के मुताबिक़ ६० हज़ार और तीसरे घोड़ा भी दिया गया। उन नवाब को एक अन्य बात का के अनुसार एक लाख । माल के नुकसान का अंदाज़ा भी शौक था। वे घोड़ों की पूँछे काटकर उन्हें एक तो शायद हो ही नहीं सकता। जो कल लखपति थे वे पहाड़ी कन्दरा में बन्द कर दिया करते थे। उस कन्दरा में अाज पराये टुकड़ों पर अस्पतालों में पड़े हैं। अकेले रेलवे ऐसे छः सौ घोड़े कैद थे जो दस वर्ष तक अँधेरे में रहे के महकमे का नुकसान एक लाख का बतलाया जाता है। थे। उनके उत्तराधिकारी वर्तमान नवाब अपनी पत्नी और महकमा नहर और पलिस के स्टार नष्ट हो गये हैं । रायल बच्चे-सहित बच गये हैं, परन्तु उनकी राजधानी की एयर फ़ोर्स के ४३ उड़ाके मर गये हैं। शहर से चार अत्यधिक हानि हुई है। मील की दूरी पर मुस्तङ्ग-नाम का कस्बा श्राबाद था। एक मित्र ने जो भूचाल के समय कोयटा में थे, उसकी आबादी के तीन-चौथाई भाग का खातमा हो अपनी आँखों-देखी कई बातें बतलाई। ये बहुत ही गया है । श्रास-पास के एक सौ पचास देहात, उदाहरणार्थ करुणाजनक हैं। इन्होंने कहा --"भूकम्प का झटका तो डाँगरा, हराँगाबाद आदि, अब उजड़े हुए मालूम देते ज़्यादा से ज्यादा पाँच क्षण तक रहा होगा, किन्तु इन हैं। स्वयं कोयटा का बाबू-महल्ला, मोती-महल्ला, पाँच क्षणों में समस्त कोयटा नष्ट हो गया । वह नगर मुलतानी महल्ला, पूरन महल्ला, पुरानी श्राबादी, बस- जिसकी ऊँची इमारतें मानव-श्रम की सुन्दर कृतियाँ थीं, रोड, संडेमन-रोड, ग्लास्टर-रोड, फेनी-रोड, गिरजा, देखते-देखते ईटों और मलवे का ढेर हो गया। वे क्लबघर, टाऊन-हाल, संडेमन-हाल, सिविल कोर्टस, महिलायें जो मखमली बिछौनों पर आराम कर रही थीं
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
७
शाहजादे जो ज़मीन पर पैर धरना गवारा न करते थे और वे बच्चे जो मा की गोद और मकान की चहारदीवारी का स्वर्ग समझे बैठे थे, श्राज छतों और दीवारों के नीचे दबे पड़े हैं । या अगर मलवे से निकाले गये हैं तो उनकी लाशें सड़कों और गली-कूचों में दूसरे का मुँह ताक रही हैं । मा का बच्चे का पता नहीं, पत्नी का पति का नहीं है | बालक बिलबिला रहे हैं, पुरुष सिर धुनते हैं और स्त्रियाँ रुदन कर रही हैं। कोई घर ऐसा नहीं जिसे सदमा न पहुँचा हो। कोई भाग्यवान् घराना ही होगा जो बच गया हो । लाखों के मालिक रात के २ बजे तक सुख की नींद सो रहे । परन्तु २ बजे के बाद वे या तो परलोक सिधार गये या शरीर पर पहने हुए कपड़ों के सिवा सब कुछ खो बैठे। उम्र भर की कमाई तो एक तरफ, बीबी, बच्चे और आत्मीय भी खो बैठे। एक ओर मर्द “दौड़ो ! बचाओ !” की आवाज़ें लगा रहे थे, दूसरी ओर औरतें "कोई पहुँचो ! निकाले !" की दुहाई दे रही थीं । जिस महल्ले में मैं रहता था वहाँ चार नवयुवकों ने अपनी जानों को संकट में डालकर कई जीवित स्त्री-पुरुषों और
सरस्वती
ज़मीन के अंदर से निकाला। इधर रात अँधेरी, उधर बिजली के तार टूट जाने से रोशनी नहीं। सर्दी से ठिठुर रहे लोगों ने लकड़ियाँ जला जलाकर रिश्तेदारों की तलाश की। किन्तु बे-बस । खोदने का सामान न था । अंत में हारकर सवेरे तक रोते-चिल्लाते रहे। पहले झटके के बाद उसी रात तीन बार और भूचाल आया । परन्तु किस्सा तो पहले ने ही ख़त्म कर दिया था, इसलिए बाद में आनेवाले झटकों की कोई हस्ती न थी । लोग डर रहे थे कि फिर भूचाल न जाय । करते भी तो क्या करते ! हर महल्ले में पाँच-पाँच, सात-सात आदमी ही बचे। वे अपने रिश्तेदारों को बचाते या दूसरों को ।
" जब दिन निकला तब एजन्ट गवर्नर जनरल ने कमांडर-इन-चीफ़ से फ़ौज की सहायता माँगी क्योंकि areer- छावनी में भूचाल से बहुत कम हानि हुई थी । इसके फलस्वरूप ब्रूस-रोड आदि पर गोरखों और गोरों के फ़ौजी दस्ते पहुँच गये । यह संख्या भी अपर्याप्त थी। फिर भी फ़ौजियों ने कई दबे हुए लोगों की जानें
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
बचाई। सिविल अस्पताल गिर चुका था, इसलिए जख्मी एंबुलेंस कारों में बिठलाकर ब्रिटिश मिलिटरी अस्पताल पहुँचाये गये । रात होने से पहले-पहल बचे हुए लोग मेकमॉहन पार्क, जनाना मिशन हास्पिटल, जिमखाना आदि में आश्रय लेने के लिए जा पहुँचे ।
" रात होते ही शहर के गिर्द फ़ौज का पहरा लगा दिया गया । बाहर तोपें खड़ी कर दी गई । हवाई जहाज़ भी उड़ते रहे। इस रात भी पाँच भटके श्राये । इनमें से अंतिम जो ५ बजे श्राया, पहले दिन के झटके से किसी तरह कम न था ।
" कहते हैं, इस रात (३१ मई) पेशीन के मौज़ा से चालीस-पचास पठान शहर को लूटने के लिए रात के साढ़े ग्यारह बजे कोटा आये। लेकिन गोरखों ने इन पर गोलियाँ चलाई, जिससे पन्द्रह पठान मारे गये बानी भाग गये ।
"पहली जून की सुबह को लोग फिर लाशें निकालने में संलग्न हो गये । उस दिन लोगों को कुछ बलोची भी मिल गये । वे दस रुपये फ़ी लाश की उजरत पर लाश निकालते थे । लेकिन वहाँ दस रुपये क्या, दस पाइयाँ भी किसी की जेब में न थीं। उनकी संपत्ति शरीर पर लिपटे हुए कपड़ों के सिवा कुछ न थी । तो भी लोगों ने इधरउधर से रुपये माँगकर उनकी भेंट किये ।
"इधर लाशों की मुसीबत थी, उधर मछली - बाज़ार, बाज़ार सराफ़ा, कंधारी बाज़ार और ब्रूस-रोड पर गिरी हुई दूकानों से प्रज्वलित हो उठी। पहले दो बाज़ारों
तो इसलिए कि वहाँ पर मुसलिम होटलों के होने के कारण दिन-रात के चौबीसों घंटे आग जलती रहती थी । अंतिम दो में इसलिए कि वहाँ बिजली के तार परस्पर टकरा गये। चोरों और बदमाशों ने इस अवसर पर बहुत हाथ-पाँव मारे । परन्तु सबके सब गिरिफ़्तार कर लिये गये । दिन के क़रीब ११ बजे गुरुदत्तसिंह-रोड पर दो मुसलमान पठानों ने एक स्त्री के बाज़ काटकर उसके सोने के कड़े उतार लिये। लोगों के शोर मचाने पर गोरखा सिपाही जमा हो गये और उन्होंने दोनों को पकड़ लिया । " इसके बाद शहर के अंदर और बाहर गोरखा- फ़ौज
www.umaragyanbhandar.com
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
कोयटा में प्रलय
+
का पहरा लगा दिया गया । पहाड़ियों और शहर के गिर्द उन्हें प्रयत्न करना पड़ा। उन्होंने अनुभव किया कि पाँच-पाँच मील तक हथियारबंद फ़ौज खड़ी कर दी अंतिम घड़ी आ पहुँची है। ऊँची आवाज़ से कहना शुरू गई।"
_ किया कि परमात्मा, मेरा जीवन समाप्त कर दो या मुझे ___ कानपुर के दयानन्द ऐंग्लों वैदिक कालेज के प्रिंसि- बेहोश कर दो । ये चार घंटे उन्होंने बगैर फ़िक्र और मानपल लाला दीवानचन्द के बड़े भाई लाला काहनचन्द सिक दुःख के गुज़ारे। उनकी शक्ति खत्म होने को थी भूचाल से दो दिन पहले अपने निज के एक काम से कोयटा कि उन्होंने भजन पढ़ना और प्रार्थना करना शुरू कर गये थे। उन्होंने जो बातें बतलाई हैं वे भी वर्णनीय हैं। दिया । ऐन ज़रूरत के वक्त तीन-चार आदमी वहाँ श्रा वहाँ से बचकर लौटने को लाला जी “यमद्वार से वापसी" पहुँचे जिन्होंने आवाज़ सुनी। उन्होंने पूछा-कौन बोलता कहते हैं । २८ मई को वे कोयटा पहुँचे । डाक-बंगले के है ? लाला जी ने कहा -मैं दबा पड़ा हूँ। उन लोगों ने सामने एक कोठी में ठहरे । प्राऊट-हौस में एक मिस्त्री - कुछ कोशिश करके लाला जी के शरीर के ऊपर के हिस्से
और एक नाई भी थे । डाक-बँगले में गुजरात के रईस राय से मलवा अलग किया। निकल आने पर कहा, केदारनाथ ठहरे हुए थे। राय केदारनाथ के सम्मान में अब मुझे छोड़ दो। इस मकान के अमुक भाग में दो ३० मई की शाम को कुछ मित्रों ने एक पार्टी दी जो ११ मनुष्य और दबे पड़े हैं। उनको देखो। उनमें से एक बजे तक जारी रही। जब बाकी सजन अपने-अपने घर जीवित निकला दूसरा मर चुका था। लाला जी ने उन को चले गये तब राय केदारनाथ और लाला काहनचंद मजदूरों से कहा-"डाक-बँगले के फ़लाँ कमरे में राय दर्मियानी सड़क पर एक घंटा के करीब टहलते रहे, परस्पर केदारनाथ को देखो । अगर उनको जिन्दा निकाल सकोगे बातें होती रहीं। १२ बजे म्युनिसिपलटी की बत्तियाँ बुझा तो तुम्हें एक हज़ार रुपया दिया जायगा। अगर सिर्फ दी गई, इसलिए दोनों अलग होकर सोने के लिए चले उनकी खबर ला दोगे तो दस रुपये दूंगा। मेरे कोट में गये । लाला काहनचंद को नींद नहीं पाई। उन्होंने लेटे- जो दबा पड़ा है, करीब सौ रुपया होगा, वह तुम ले लेटे पढ़ना शुरू कर दिया। दो-ढाई घंटे तक वे पढ़ते रहे। जानो।" कुछ मिनटों के बाद ये मज़दूर राय केदारनाथ यह असाधारण बात थी। इतने में उन्होंने बहुत ज़ोर की के नौकर के साथ आये और बताया कि वे मर चुके
आवाज़ सुनी। देखा कि मकान की छत दीवारों से अलग हैं । लाला जी दूसरे दिन कोयटा से निकल आये। एक होकर उनके ऊपर पा रही है। न समय मिला, न साहस ताँगे में बैठ गये। उसने डेढ़ रुपया माँगा । यह रुपया हुअा कि कुछ करें । एक क्षण में छत उनके वे उधार लेकर ही दे सकते थे। परन्तु यह अब सम्भव न ऊपर थी। कुछ झटके और पाये। इससे शरीर तथा था। उनकी सारी मिलकियत एक कुरता और एक धोती मलवे के दर्मियान जो जगह खाली थी वह भी भर थी। धोती का आधा हिस्सा उन्होंने एक अन्य मनुष्य को गई । सिर के नीचे एक ईट चुभ रही थी। उसे हिलाना जो ज़रूरतमंद था, दे दिया। चाहते थे, लेकिन कुछ न कर सकते थे। कभी खयाल इस अवसर पर कुछ लोगों को एक अन्य विचित्रश्राता कि कोशिश करें और मलवे के नीचे से निकलें, सी तकलीफ़ भी हुई। वह डी० ए० वी० स्कूल के एक कमी खयाल होता कि इस व्यर्थ प्रयत्न में अपनी शक्ति शिक्षक की ज़बानी सुनिएक्यों खत्म करें । मलवे में इत्तिफ़ाक़ से ज़रा-सा सूराख "रात सख्त अँधेरी। तीन साढ़े तीन का समय । रह गया जो उनकी आँखों में प्रकाश की कुछ किरणे एकाएक ज़ोर-ज़ोर से चूं-धूं की आवाज़ कानों में पड़ी।
और नाक में कुछ हवा लाता रहा । चार घंटे इसी प्रकार सन् १६३१ के भूचाल के वक्त भी ऐसी ही आवाज़ आई गुज़रे । इसके बाद फेफड़ों और गर्दन पर ज्यादा बोझ थी।मेरे साथ चारपाई पर तीन बरस का लड़का साया पड़ा होने से उनका दम घुटने लगा और साँस लेने के लिए था। उसे छाती से लगा लिया। बाँया हाथ उसके सिर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
.
पर रख दिया ताकि ऊपर से अगर छत गिरे तो उसकी दूर की दूकानों से आग भड़क उठी। सेंक आने लगा। कुछ रक्षा हो जाय । अपनी धर्मपत्नी को "सँभल बच्चे और धर्मपत्नी को उठाकर अब आर्यसमाज के जाओ!" कहने को था कि पैरों से दीवार निकल गई। मैदान में पहुँचे।" बेहोश-सा हो गया। कुछ हौसला किया। बच्चे को कोयटा में भूचाल आया है, इसकी खबर बाहर कैसे छाती से दबाते हुए सिर की तरफ़ ज़ोर से उछ- गई, यह भी एक दिलचस्प कहानी है । कोयटा में डाकलने की कोशिश की। उसी ओर भूचाल का झटका भी खाना और तारघर गिर चुके थे, रेल की लाइन जा रहा था। हमारे ऊपर गिरी हुई साबूत दीवार हटकर उखड़ चुकी थी। अब बाहर को दुनिया को कैसे सूचित दूसरी तरफ़ जा गिरी। साथ ही मैं भी निकल गया। किया जाय ? एक फ़ौजी अफ़सर ने साहस किया। शहर मेरी धर्मपत्नी छः मास की लड़की सहित नीचे दब गई। से सोलह मील की दूरी पर स्पेजद नाम का क़स्बा है। ___"मुझे फ़िक हुई कि धर्मपत्नी और लड़की को भी वहाँ पर बेतार के तार (वायरलेस) का स्टेशन है। वह निकालूँ । पर पता न लगता था कि मेरा मकान कौन-सा अफ़सर भागकर वहाँ पहुँचा और वायरलेस के द्वारा है और मकान के किस कोने में वे सोये हुए थे। बैठी पहले मरी-पर्वत और फिर शिमला तथा लाहौर को सूचित हुई छतें और खड़ी हुई दीवारें। मिट्टी के ज़ोर से उड़ने किया । (रिलीफ़ की गाड़ियाँ इस स्पेज़द के स्टेशन तक के कारण गर्द-गबार । हर तरफ़ से चीखों की आवाज़ । ही जाती हैं ।) क्या करता?
___कोयटा में भूचाल पहली बार ही नहीं आया है । बम्बई __ "कुछ देर के बाद एक जगह से ईंटें उठा-उठाकर की वेधशाला का कथन है कि इससे पूर्व सन् १८६२, दूसरी तरफ़ फेंकनी शुरू की और नीचे से स्व-पत्नी को १६०६ और १६३१ में भी भूकम्प आये थे। इतने भूचाल निकालने लगा। लेकिन वहाँ से एक पड़ोसी निकला। यहाँ क्यों आते हैं, इसका भी वेधशालावाले एक कारण उसने बताया कि यह तो हमारा मकान है। पहले बताते हैं। खोजक पर्वतों के साथ-साथ ज्वालामुखी तो मैंने न माना, पर उसके बहुत बार कहने पर पहाड़ हैं । जब जब इस जगह की ज़मीन के नीचे गरमसमझ गया कि सचमुच यह हमारा मकान नहीं है। गरम तरल पदार्थ और गैसें जमा हो जाती हैं और बाहर नीचे से जो आवाज़ आ रही थी वह एक अन्य की स्त्री थी निकलने की कोशिश करती हैं तब तब भूकम्प आया जो एक मकान छोड़ तीसरे में रहते थे। वह बार-बार करता है । यह इन लोगों की एक 'थियरी' ही है, इसलिए कहती थी-“भाई साहब, जल्दी निकालो; आपका भला कहा नहीं जा सकता कि इसमें सचाई कहाँ तक है । होगा!" मैं उसे अपनी पत्नी समझकर उसे अाश्वासन आज से चार बरस पूर्व जब यहाँ भूचाल आया था देता - "हौसला करो; मैं अभी निकाले देता हूँ।" पास तब बोलन का दर्रा और इर्द-गिर्द का इलाका इसके ही, चौबारे का मलवा पड़ा था। लड़के को एक ढेर प्रभाव में आये थे । मछ, अाबेगुम अादि शहर विनष्ट हो पर बिठलाकर फिर ईटें हटाने लगा। जब चौबारेका मलवा गये। इनके रेलवे स्टेशन और इमारतें गिर गई। हट गया तब लोहे की चादर के नीचे स्त्री का सिर नज़र लेकिन जान का नुकसान बहुत कम हुअा। इसका एक अाया। बड़ी मुश्किल से चादर दूर की तब वहाँ से दूसरे कारण था । पहले मामूली झटके आये, जिनसे लोग सचेत पड़ोसी की स्त्री निकली। अब हिम्मत जाती रही। फिर भी हो गये और मकानों से बाहर सोने लगे। जब बड़ा तीसरी जगह से ईंटें हटाने लगा। पत्नी की टाँगें नजर झटका आया तब मकान ही गिरे, श्रादमी बच गये। उन
आई। दूसरे लोगों की मिन्नत की तब कहीं ११ बजे पत्नी दिनों मछ का जेलखाना भी गिर पड़ा, जिसमें से ४७३ को निकाल पाया । वह पीड़ा से मर रही थी। गुरुद्वारे कैदी भाग निकले। एक एक्स्ट्रा-असिस्टेंट ने अनुभव के मैदान में पहुंचे। वहाँ पर थोड़ी ही देर बैठे थे कि किया कि ये डाकू इलाके में तबाही मचा देंगे, इसलिए
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
कोयटा में प्रलय
वह रात ही रात एक टट्ट पर सवार होकर कोयटा को ऊँटों पर लाद कर मँगवाये और उन्हें सड़कों पर लगवाया। चल पड़ा । रास्ते में पहाड़ियाँ उसके इर्द-गिर्द घूमती तभी लिटन रोड तैयार हुई। पाला-ग्राउंड भी बारनेस नज़र पड़ती थीं । उसके घोड़े के पैरों-तले ज़मीन नीचे साहब ने ही बनवाई। को धंसी जाती थी। कोयटा में उसी ने जाकर भूचाल गरमियों के मौसम में कोयटा में दिन के वक्त ज़्यादा
की सूचना दी। फ़ौजी सिपाहियों के साथ लारी में बैठ- गरमी नहीं पड़ती, और रात के समय तो सदा कमरे के .. कर वह वापस मछ अाया। देखा कि कैदी भागे नहीं हैं, अन्दर कम्बल वगैरह अोढ़ करके सोना पड़ता है। फूलों के
क्योंकि भूकम्प के कारण वे भयभीत थे । उन दिनों कोयटा दिनों में वहाँ गुलाब खूब खिलता है। दिसम्बर और मार्च पाँच दिन के लिए संसार से अलग हो गया था, क्योंकि महीनों के बीच यहाँ हर साल वर्षा हुआ करती है। मैदान कोई गाड़ी वहाँ से किसी दूसरी जगह नहीं जा सकी। से गये हुए लोगों को तब बहुत ज़्यादा सर्दी मालूम हुआ इसके अतिरिक्त खास कोयटा में क्लब-घर और अस्पताल करती है। भी गिर गये थे।
यों तो कोयटा में भारत के हर प्रान्त के लोग श्राबाद भूचालों का इतिहास जानने के बाद हमारे सामने थे, किन्तु अधिकतर श्राबादी पंजाबियों और सिंधियों की प्रश्न होता है कि खुद कोयटे की कितनी उम्र है। क्या थी। पंजाबी, सिंधी, कुछ योरपीय और पारसी ही वहाँ के . यह कोई प्राचीन नगर है, जिसके पीछे भूकम्प इस बुरी बड़े व्यापारी थे । स्थानीय सरकारी दफ्तरों में भी ज्यादातर तरह से पड़े हुए हैं ?
पंजाबी और सिंधी ही थे। ___ कोयटा नाम की एक तलहटी भी है जो समुद्र-तल से सन् १८२८ में इस प्रदेश में पहला योरपीय पहुँचा। साढ़े पाँच हज़ार फुट ऊँची है। कोयटा-नगर इस समय उसने देखा कि कोयटा मेरी के इर्द-गिर्द बसा हुआ है। विशेष भौगोलिक एवं युद्ध-सम्बन्धी महत्त्व रखता है। (जिस स्थान पर मेरी-कस्बा श्राबाद था वहाँ भूचाल से नार्थ वेस्टर्न रेलवे ने इसे भारत से मिला दिया है। लाहौर पूर्व अस्त्रालय था ।) उन दिनों मिट्टी की एक कच्ची से यह ७२७ मील की दूरी पर है और कराँची से ५३६ दीवार मेरी के चारों तरफ़ बनी हुई थी और कस्बे में मील की दूरी पर । एक सड़क पेशीन को कोयटा से मिलाती कुल तीन सौ मकान थे। है । पेशीन से डेरा गाज़ीखान तक छकड़े चलते हैं। इन सन् १८४० में इस जगह पर आस-पास के कबीलों दोनों के दर्मियान २७० मील का फ़ासला है। के एक लश्कर ने आक्रमण कर दिया जिसे ब्रिटिश फौज ___ कोयटा का हिन्दुस्तानी कस्वा दक्षिण-पूर्व की ओर ने तीन घंटे में तितर-बितर कर दिया। उसी साल कुलात स्थित है और सिविल लाइन दक्षिण-पश्चिम की ओर । के कुछ कबीलों ने कोयटा पर हमला कर दिया। लेकिन छावनी तीसरी तरफ़ है। छावनी को बाकी दो भागों से उनमें परस्पर फूट पड़ गई और वे वापस चले गये। अलग करनेवाला हबीब नाम का एक नाला है।
जहाँ इस समय कोयटा श्राबाद था वह ज़मीन __कोलान के दर्रे तक पक्की सड़क बनी हुई है। जब गवर्नमेंट ने सन् १८७८ और १८८३ के बीच में प्राप्त द्वितीय अफ़ग़ान-युद्ध समाप्त हुआ और ब्रिटिश सेना की । तब केवल मूलवासियों को ही यहाँ रहने की इजाज़त कन्धार से वापस आई तब सेना के एक बड़े भाग ने उस थी या उनको जो सदा के लिए यहाँ रहना चाहते थे। समय कोयटा में आकर दम लिया। यह बात सन् १८८१ प्रारम्भ में गवर्नमेंट ने ३,७५४ एकड़ ज़मीन खरीदी। की है। कोयटा तब वीरान-सा था। इधर-उधर कीका इसमें से ३,४६६ एकड़ तो छावनीवालों ने घेर ली। और शहतूत को छोड़ किसी दूसरे वृक्ष का नाम भी न बाकी सिर्फ २५८ एकड़ सिविल टाउन के हिस्से में आई । था। सर राबर्ट संडेमन की स्वीकृति से तब मिस्टर बारनेस सारी ज़मीन के लिए ढाई लाख से कुछ ज्यादा रुपया ने कन्धार से कई प्रकार के पेड़ और पौधे दो-तीन सौ खर्च किया गया। छावनी की ज़मीन तो पथरीली-सी थी।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[ भाग ३६
पत्थर भी कुछ कीमती न था । परन्तु सिविल लाइन के है। आर्यसमाज, डी० ए० वी० स्कूल और मुलतानहिस्से में जो पत्थर आया वह काफ़ी कीमती था। तब सेवा-समिति के स्वयंसेवक चौधरी श्यामलाल वकील की तेरह हज़ार रुपया पानी जमा करने के प्रबन्ध पर खर्च अध्यक्षता में यहाँ पीड़ितों की सेवा कर रहे हैं । हुश्रा, पाँच हज़ार सफ़ाई तथा मरम्मत पर और साढ़े एक तरफ़ भारी लंगर लगा हुआ है, जहाँ हज़ारों चार हज़ार पुरानी कब्रों को साफ़ करने और ढाँपने पर। लोगों को हर वक्त खाना मिलता है। लोहे के बड़े-बड़े
छावनी का भाग पथरीला ही नहीं, बरन शहर की तवों पर रोटियाँ पक रही हैं और पीड़ित हाथ फैलाये निस्बत ऊँचा भी है। यह उँचाई ही इसके भूचाल से बचे दाल-रोटी ले रहे हैं । यदि किस्मत अच्छी हुई तो एकरहने का कारण बताया जाता है। एक अन्य कारण शहर अाध श्राम और कुछ खुरमानियाँ भी मिल गई । तम्बुओं
और छावनी के बीच बड़ा नाला है। कहते हैं, इसने · में पानी का प्रबन्ध भी सन्तोषजनक है। तीन फुट ऊँचे भूकम्प के झटकों को अपने अन्दर जप्त कर लिया और और दस वर्ग फुट कन्वेस के बैगों में पानी एकत्र किया छावनी बच गई।
जाता है। ज्यों ही कि भूकम्प का समाचार बेतार-के-तार-द्वारा अभी ये लोग त्रस्त हैं, इसलिए अगर इनके खयाल संसार में फैला, त्यों ही भिन्न-भिन्न देशों से पीडितों के प्रति में भी ज़मीन ज़रा-सी हिलती है तो इनका कलेजा मुँह को सहानुभूति के संदेश श्राने लगे। इधर सम्राट जार्ज ने आने लगता है । इस जगह मालूम नहीं कितने अमीरज़ादे संदेश भेजा, उधर नैपाल के महाराज ने, एक तरफ़ रोटी के लिए मोहताज हैं । कुछ एक ने मलवा खोदकर जापान से संदेश आया तो दूसरी तरफ़ अमरीका और एक-श्राध चारपाई निकाल ली है। वे उस पर बैठे आस्ट्रेलिया से। कई स्थानों से रुपया भी पहुँचा। आकाश की ओर एकटक देखते रहते हैं। न जाने किस
लेकिन डाक्टरों, नो, खाने-पीने की सामग्री तथा सोच में डूबे होते हैं । श्रम से पले-पोसे खूबसूरत चौड़े दवाइयों की मदद सबसे पहले संभवतः नथियागली से चेहरेवाले इनके बाल-बच्चे आपको अपनी तरफ देखने पहुँची, क्योंकि इसी छावनी का वायरलेस के द्वारा सबसे पर मजबूर करते हैं। परन्तु श्राप उधर देख नहीं सकते । पहले भूकम्प का पता मिला था। नथियागली के अतिरिक्त घायल हुए लोगों के लिए कोयटा में चार जगह लाहौर और कोहाट से कई एक हवाई जहाज़ इन्हीं चीज़ों प्रबन्ध किया गया है। रेस-कोर्स में वे बीमार जाते हैं जिनको से भरे हुए कोयटा पहुँचे। लाहौर से फल, दूध, घी मामूली चोटें आई हैं। दूसरा केन्द्र इंडियन मिलिटरो मक्खन, कपड़ा, दवाई आदि की कई गाड़ियाँ डाक्टरों अस्पताल है । इसके साथ ही कैन्टोन्मेंट जेनरल हास्पिटल नसों और वालंटियरों के सहित कोयटा को गई। साढ़े तीन भी है। इसमें कई हज़ार बीमारों के रखने का प्रबन्ध है। हज़ार से ज्यादा मनुष्य तो जख्मी ही पड़े थे। दूसरों को बीमार इतने ज्यादा हैं कि उनके लिए संतोषजनक प्रबन्ध छोड़ उनकी सेवा ही बड़ा काम था। वहाँ जो डाक्टर गये होना असंभव-प्राय है। अस्पताल का दृश्य मनुष्य को उन्होंने दिन-रात, चौबीस घंटे, मरीज़ों के पट्टियाँ बाँधीं। वहाँ खड़ा नहीं होने देता। रोगियों की चीख-पुकार ___अब हम कोयटा में उस जगह चलते हैं जहाँ रिलीफ़ कलेजा फाड़ देती है। उनकी अवस्था देखकर पत्थर का काम हो रहा है। घुड़दौड़ के मैदान में आज- दिल भी पिघल जाता है। एक रोगी पीड़ा के मारे चिल्ला कल तम्बू ही तम्बू दिखाई देते हैं। जिस स्थान पर रहा है और अपना तकिया सिर के नीचे से खींच कर किसी समय फैशन और सौन्दर्य का प्रदर्शन हुआ शरीर के साथ दबा रहा है ताकि किसी तरह दर्द कम हो करता था, अब वहाँ फटे हुए कपड़े पहने लोग पड़े जाय । कोई चीखें मारता हुश्रा अपनी चारपाई की पाये जाते हैं । यहाँ जिस किसी मनुष्य से सामना होता सलाखों को ही पकड़कर दबाता है। एक अन्य अपने है वही अपने मरनेवाले रिश्तेदारों की संख्या बतलाता आत्मीयों की याद में फूट-फूटकर रोता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
कोयटा में प्रलय
तीसरा स्थान रेलवे स्टेशन है, जहाँ सी० एम० ओ० बच्चा था, कहने लगा-"मैं और यह, एक कमरे में की अध्यक्षता में रेलवे और बाहर के डाक्टर काम करते सोये हुए थे। स्त्री, पिता आदि दूसरे कमरे में । ३ बजे . हैं। यहाँ सहायता बहुत मामूली मिलती है। ज्यादा काम धमाका हुअा । हम जाग पड़े। मैं अभी सँभलने भी न रोगियों को गाड़ियों पर चढ़ाना रहता है। मरहम-पट्टी की पाया था कि पैरों के नीचे से मकान निकल गया। अब और ट्रेन में बिठला दिया। यह केन्द्र अब बन्द हो रहा लोहे की चादर हमारे ऊपर थी। अगले दिन हम छत के है । परन्तु अन्तिम केन्द्र ब्रिटिश हास्पिटल है, जो योरपीय नीचे से निकाले गये । हम दोनों तो बच गये, लेकिन वे मरीज़ों के लिए अलग रक्खा गया है।
हमारा साथ छोड़ गये।" इसके बाद वह रोने लगा। कोयटा के अतिरिक्त सक्खर और लाहौर के बीच एक अन्य सज्जन ने बताया -"मैं तीसरी छत पर बड़े-बड़े स्टेशनों पर रिलीफ़ का काम जारी है । खाने-पीने सोया हुआ था । झटका आया तब मैंने उठकर दरवाज़े का सामान, सोने-पहनने की चीजें, दवाइयाँ और दूसरी को मज़बूती से पकड़ लिया। इस बीच में मकान फटा वस्तुएँ- कई सभा-समितियों की ओर से मुफ़्त प्रस्तुत की और मैं बाज़ार में आ रहा । मेरे पाँव और टाँगें कट गई। जाती हैं। लेकिन ये लोग कोयटा से चलने के समय घरवाले दब कर मर गये।" किस मुसीबत में होते हैं, इसकी एक झाँकी देखिए। माता अपनी सन्तान के लिए क्या कर गुज़रती है, एक महिला गाड़ी पर सवार हुई । गाड़ी चली तब उसने यह भी देखिए । भूकम्प से मकान गिर गया। करतारसिंह अपने बाल नोचने शुरू कर दिये (क्योंकि उसके सभी की स्त्री रामप्यारी ने अपने तीन मास के बालक को बचाने बच्चे मर गये थे।) कोई चीज़ निकालने के लिए उसने के लिए उसे अपनी छाती के नीचे रख लिया और आप अपना ट्रंक खोला। जब अपने मृत बच्चों के कपड़े उसकी उसके ऊपर हो गई। मकान के शहतीर ने माता के प्राण नज़र पड़े तब वह फूट-फूट कर रोने लगी | दरवाज़े ले लिये, बाप भी मर गया, परन्तु बच्चा बच गया। के साथ सिर पटकने लगी। करीब था कि वह खिड़की से जो कल लखपति थे, आज दरिद्र हैं। सक्खर-स्टेशन छलाँग लगा जाती कि पास बैठे लोगों ने उसे काबू पर एक हिन्दू-महिला गाड़ी से उतरी। कपड़े फटे हुए कर लिया।
थे और रो रही थी। पूछने पर बड़ी मुश्किल से उसने __ जब ये लोग इधर आते हैं तब इनकी जो हालत बताया कि उसका पति लाखों का मालिक था, लेकिन अब होती है, यह भी देखिए । १० जून को लाहौर में कोयटा उसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। कोयटा में उसके के पीड़ितों की ऐम्बुलेंस ट्रेन पहुँची। इसमें वे लोग थे जो शरीर पर कपड़ा भी न रहा। एक मुर्दा लाश से उसने हिल-डुल न सकते थे। स्ट्रेचरों पर डालकर वे उतारे कमीज़ उतारकर अोढ़ी और गाड़ी में उसे एक अन्य गये । किसी की टाँग कटी हुई थी, किसी की बाँह, किसी का स्त्री ने पहनने के लिए धोती दी। हाथ नहीं था, किसी का पाँव; किसी की पसली टूटी थी, एक ईश्वरविश्वासी सिक्ख ने बताया- "हम बीस किसी की हड्डी। हर एक डिब्बे में बिजली के पंखे चल आदमी इकहे काम करते थे, परन्तु सिर्फ चार बचे । रात को रहे थे । नर्से, डाक्टर और खाने का सामान मौजूद था। सुख की नींद सोया था। सुबह आँख खुली तब अपने ये रोगी मेयो अस्पताल, आर्यसमाज-अस्पताल, महिला- आपको मलवे में दबा पाया। वाहगुरु ने सिर बाहर विद्यालय आदि में पहुँचा दिये गये।
रक्खा । बार-बार पुकारा, लेकिन कौन सुनता था। सबको ये मूक दृश्य दिल को पिघला देते थे, परन्तु इनसे अपनी अपनी पड़ी हुई थी। ज़ोर-ज़ोर से रोना शुरू कर शायद बढ़कर प्रभाव करनेवाली मुसीबत की वे मूर्तियाँ दिया। चार घंटे के बाद वाहगुरु ने कृपा की। दूसरा थीं जिनको न सिर्फ आँखों ने देखा, बल्कि कानों ने सुना जन्म प्रदान किया और ताकत बख्शी। ज़ोर लगाया और भी। एक सिक्ख नवयुवक जिसके पास एक छोटा-सा मिट्टी धीरे-धीरे हट गई।"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
एक सज्जन १२ घंटे दबे रहने के बाद कैसे निकले, कि हम सब दबे हुए हैं। इस पर शान्तिदेवी ने साहस यह भी सुनिए-“भूचाल से कुछ मिनट पहले मैंने पानी किया । दूध पीती बच्ची को चारपाई के नीचे फेंक कर पिया और चारपाई पर लेट गया। जब गड़गड़ाहट की मुश्किल से गार्डर के नीचे से निकली और सास को लेकर
आवाज़ आई तब समझा कि शायद कोई बला पा रही सभी आदमियों को बचा लिया। फ़ौजी सिपाहियों ने जब है। दूकान से बाहर भागा। क्या देखता हूँ कि सामने उसे इस प्रकार काम करते देखा तब हैरान रह गये। का मकान गिर रहा है। डर कर अन्दर भागा। अँगीठी मुसीबत में भी कई बार उपहासजनक बातें हो जाया के साथ मेज़ के नीचे छिप गया । इतने में हमारा मकान करती हैं । कराँची के सेठ तोलाराम की विश्वस्त सूत्र से भी गिरा । ३५ आदमी साये पड़े थे। सब दब गये। ६ सूचना मिली कि सेठ साहब भूचाल से मर गये हैं। घंटे के बाद मुझे ऊपर अँगरेज़ी में बातचीत करते हुए रिश्तेदारों ने मातम किया। दो लड़कों ने अपने सिर भी कुछ आदमी सुनाई पड़े। मैंने समझा, मेरा ही मकान मुंड़वा दिये। पर दो दिन के बाद उन्हें सक्खर से इत्तला गिरा है, इसलिए मुझे निकालने आये हैं। लेकिन वे चले मिली कि सेठ साहब सक्खर के अस्पताल में बीमार पड़े गये। मैं हैरान था कि बात क्या है। अँगीठी के रास्ते हैं। घरवालों की ग़मी खुशी में बदल गई। मुझे हवा पा रही थी। ३ घंटे के बाद फिर कुछ गोरे मुज़फ़्फ़रगढ़ का एक दम्पति मलवे में दब गया। लेकिन उधर से गुज़रे । मैंने आवाज़ दी कि मुझे निकालो। वे पत्नी को किसी तरह होश रहा। पति को प्यास लगी थी। खड़े हो गये, एक ने कहा- "बहुत नीचे दबा है इसलिए स्त्री की छातियों में दूध उतर आया। उसने दूध पिलाचलो।" वे भी गये । तीसरी बार फिर अँगरेज़ी में बातचीत पिला कर ३ दिन तक पति को जीवित रक्खा। इसके बाद सुनी। मैंने उनको पुकारा, लेकिन उन्होंने जवाब न दिया। वे दोनों निकाल कर बचा लिये गये। मैं चिल्लाया-"अरे अभी जिंदा हूँ, मुझे निकालो।" इस कई बार थोड़ी-सी नासमझी के कारण बहुत हानि पर उन्होंने मलवा खोदा और मैं बाहर आया।" हो जाती है। जगदीशकुमारी कहती है-"हमारा ब्याह
एक बच्चा और स्त्री सात दिन तक दबे पड़े रहे। नौ हुए तीन मास हुए थे। हम दर्मियानी मंज़िल में सोये पड़े मास का बालक अपनी नानी के पास डोली में सोया पड़ा थे। जब पहला हिचकोला आया तब हमें होश था, पर था। मकान गिरा तब उसकीमा आदि सभी दब कर मर एक-दूसरे को देख न सकते थे। दोनों चारपाइयों में एक गये। लेकिन डोली के नीचे लोहा लगा हुआ था। इसने गज़ का फासला था। हम दोनों चिल्लाते रहे। कोई उन दोनों की रक्षा की। डोली कोठरी बन गई और उसमें मनुष्य सुननेवाला न था। मेरे ऊपर मलवा था, पति के हवा अाती रही। ७ दिन के बाद उन दोनों को जीवित ऊपर शहतीर । ६ बजे एक पड़ोसी लड़के ने मुफ मंदनिकाला गया। लेकिन दबे रहने का रिकार्ड चार सिंधी भागिनी को निकाला। उस वक्त मेरे पति की आवाज़ सज्जनों का है, जो ग़रीबाबाद-महल्ले में नौ दिन तक आनी बन्द हो रही थी। उस लड़के की मैंने हजाः मलवे के अन्दर रहे, और जब बाहर निकाले गये तब मिन्नतें की, लेकिन वह न माना; कहने लगा---"मैं जीवित थे।
मुर्दे को नहीं निकालता। मैंने अाध घंटे में उनके चेहरे और कई स्त्रियाँ मर्दो से आगे निकल जाती हैं। लायल- छाती पर से मलवा साफ़ किया, लेकिन जब साढ़े ६ बजे पुर की शान्तिदेवी ऐसी ही वीरांगना है। यह और तब मेरी सारी आशाओं का अंत हो गया ।" उसके बाकी १३ रिश्तेदार मकान के अन्दर सोये हुए थे, ऐसे समय मनुष्य जब चाहता एक बात है और होती केवल सास सहन में थी। भूचाल के कारण ईंटों और दूसरी है तब उसे बहुत दुःख होता है । मा और भाई को लोहे के गार्डरों का भारी बोझ आ गिरा। रज़ाई से मुँह लेकर छोटे युधिष्ठिर की बहन कोयटा में हिन्दी-रत्न की निकाल कर उसने आवाज़ दी, लेकिन जेठ ने उत्तर दिया परीक्षा देने गई। साथ में एक अध्यापिका और उसकी दो
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोटा का प्रलय
संख्या १]
लड़कियाँ भी थीं। जब भूचाल याया तब युधिष्ठिर पेशाब करने के लिए उठकर बाहर गया था । वह बच गया, बाकी दब गये । उसने ३ बजे ही मलवा खोदना शुरू कर दिया । अध्यापिका और उसकी छोटी लड़की जीवित निकल आई। वह अपनी माता और बहन को आवाज़ें दे रहा था कि अन्दर से किसी के साँस लेने और चूँ-चूँ करने की आवाज़ आई । युधिष्ठिर ने अपनी कोशिश जारी रक्खी। लेकिन जब बहुत मुश्किल से मलवा हटा पाया तब अन्दर पालतू कुतिया निकली जो ज़ंजीर से बँधी थी। इसे देखकर युधिष्ठिरं खुश हुआ, लेकिन साथ ही उसके आँसू बहने लगे । वह थक चुका था ।
इसी प्रकार जब पहला झटका ग्राया तब बटाला की एक महिला अपने पति के साथ मकान से बाहर निकल आई | पति ने कहा कि भूचाल अब खत्म हो गया है, चलो अन्दर लौट चलें । अभी पति ने एक ही पाँव अंदर रक्खा था कि सारा मकान गिर पड़ा और वह कमर तक ईंटों और मिट्टी में गड़ गया । " उन्होंने पुकारा, पानी लायो । मैं नल की तरफ़ दौड़ी। परन्तु वह भी मिट्टी के नीचे दबा पड़ा था । बड़ी मुश्किल से मिट्टी हटा कर जब मैं अपना दुपट्टा भिगोकर उनके पास ले गई तब वे तड़फ तड़फ कर स्वर्ग सिधार चुके थे। मैं पापिनी वहीं खड़ी रह गई ।”
एक स्त्री ने बताया - " मैं अपने भाई के पास कोयटा गई हुई थी। मैं तो बच गई, पर भाई अपने परिवार सहित वहीं मर गया ।" एक छोटी बच्ची उसके साथ थी । इसे छाती से लगाकर वह फूट पड़ी। मालूम हुआ कि स्त्री बालविधवा है और इसे सिर्फ़ भाई का ही सहारा था ।
संकटग्रस्त हिन्दुनों में आत्माभिमान का भी भाव बहुत ज्यादा देखने में आया है । हिन्दू सभा के स्वयंसेवक एक महिला के पास गये और उसे कमीज़, धोती तथा दुपट्टा पेश किया, क्योंकि उसके सारे कपड़े फटे हुए थे। कपड़ों को देखकर वह ज़ोर-ज़ोर रोने लगी । अन्त में बोली"मैं अपना सारा घराना भूचाल की भेंट कर आई हूँ, मुझे इन कपड़ों की ज़रूरत नहीं। मैं आपसे एक बात चाहती हूँ । आप प्रार्थना करें कि ईश्वर मुझे भी सँभाल
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
७९
ले ।" बहुत मजबूर करने पर भी उस देवी ने उन कपड़ों को हाथ न लगाया ।
कोटा से आनेवाली कई गर्भवतियों ने रेलगाड़ी में बच्चे जने हैं । लेकिन भूचाल की आवाज़ सुनकर भय के मारे कई एक के गर्भ गिर गये । एक अँगरेज़ मैनेजर की स्त्री के ३१ तारीख को सुबह साढ़े तीन बजे लड़की पैदा हुई ।
एक बात जो अभी तक समझ में नहीं आई वह पशुपक्षियों के सम्बन्ध में है। क्या जानवरों को भूचाल के ने की खबर पहले ही हो जाती है ? एक सज्जन बताते हैं- "यह बात हमने अपनी आँखों देखी है कि भूचाल के ाने से एक रात पहले कोयटा से सभी पक्षी उड़ गये थे । इसी कारण भूकम्प में कोई मरा हुआ परिंदा नहीं मिला । उस रात कुत्ते भी ज़ोर-ज़ोर से भूकते रहे थे । ऐसे जैसे रा रहे हों ।" बहुत से लोगों के लिए यह एक समस्या ही बनी रहेगी ।
अक्सर लोगों को यह कहते सुना गया है कि कोयटा में जो आदमी बचे हैं उनमें अधिकतर ग़रीब और बुड्ढे हैं । इसके अतिरिक्त यह भी कि अँगरेज़ों की अपेक्षा हिन्दुस्तानियों की ग्रार्थिक हानि अधिक हुई है । कहा नहीं जा सकता कि इन बातों में सचाई कहाँ तक है, लेकिन दो-एक बातें साफ़ हैं । अमीर बड़े-बड़े मकानों में रहते थे, ग़रीब झोंपड़ियों में; यह हर जगह देखने में श्राता है । बुड्ढों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता, सिवा इसके कि प्रकृति को उनसे विशेष प्रेम हो । बाक़ी रही अँगरेज़ों का कम नुकसान होने की बात । इसका कारण यह है कि कोटा में अधिकतर अँगरेज़ सैर करने के लिए जाते हैं, लेकिन हिन्दुस्तानी तो वहाँ बरसों से घर बनाकर रहते थे ।
यह खेद की बात है कि ऐसे मौकों पर भी मनुष्य का अन्धकारमय पार्श्व देखने में आता है । १० जून को लाहौर में कोयटा से एक ट्रेन आई। इसमें पीड़ित अधिक थे, ज़ख्मी कम । कई मुसलमानों ने हिन्दू अबलाओं और बच्चों को बर्गलाने और साथ ले जाने की कोशिश की । लेकिन हिन्दू स्वयंसेवक
www.umaragyanbhandar.com
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
इस पहलू में होशियार हो चुके थे, इसलिए कोई बच्चा लड़का अमृतसर की मजलिस अहरार इसलाम का उनके कब्जे में न जा सका। एक अबला मुसलमानों बिल्ला छाती पर लगाये हुए केंप के दरवाज़े पर के कब्जे में थी। एक मुसलमान यहाँ तक कहता था कि खड़ा था। केंप के एक अधिकारी को संदेह हुअा और यह स्त्री मेरी है । अंत में मजिस्ट्रेट को सूचना दी उसने लड़के से कुछ प्रश्न किये । परन्तु वह संतोषजनक गई। उसने आकर सभी के बयान लिये और हिन्दू स्त्री उत्तर न दे सका। मामला कैप के सभापति के सामने पेश को मुसलमानों के पंजे से छुट्टी दिलवाई।
किया गया । खोज करने पर उस लड़के के अतिरिक्त एक ६ जून की रात को कुछ मुसलमान स्वयंसेवकों ने अन्य हिन्दू बालक भी केंप के बाहर मिला। उन्होंने एक लावारिस हिन्दू लड़के को गाड़ी से उतार लिया। बताया कि वे दोनों मजलिस अहरार के कप्तान के साथ इस पर कुछ हिन्दुओं ने आपत्ति की। लेकिन मुसलिम रहते हैं। अब यह मामला डिप्टी कमिश्नर के पास स्वयंसेवक लड़ाई करने पर उतारू हो गये। हिन्दू स्वयं- पहुँचा। उसने तहकीकात करने के बाद अहरारी मजलिस सेवक लड़के को अपने खीमे में ले आये, परन्तु मुसल- के कप्तान को तत्काल केंप के बाहर निकाल दिया। मान वहाँ ज़बरदस्ती घुस आये। उन्हें विश्वास दिलाया ये दोनों लड़के अपने-अपने निवासस्थान, बटाला गया कि लड़का हिन्दू है । लड़के ने अपना नाम भी बताया। और राजा-सांसी, पहुँचाये गये। ऐसा मालूम होता अब मुसलमान स्वयंसेवक शरारत करने लगे कि इतने है कि मुसलमानों की मजलिस के कप्तान ने इन दोनों में लड़के के माता पिता वहाँ पहुँच गये।
के पते नोट कर लिये और फिर अपने आदमी भेज मुलतान में एक गाड़ी में दो बुर्का-पोश स्त्रियों से कर उन दोनों को वहाँ से बरग़ला लिया । यह मुसलिम नाम पूछने पर मालूम हुआ कि वे हिन्दू हैं। लेकिन मनोवृत्ति हिंदुओं के लिए कितनी घातक है, यह बात अब मुसलमानों ने कहा कि ये मुसलमान हैं। किन्तु खानेवाल- हिंदू धीरे-धीरे समझने लग गये हैं। स्टेशन पर भेद खुल गया। मालूम हुआ कि ये दोनों कहा जाता है कि इस बात का क़रीब-करीब फैसला स्त्रियाँ गुजरांवाला की हैं । भूचाल में दोनों के पति मर हो गया है कि एक साल के लिए कोयटा 'सिंगल स्टेशन' गये थे । इस पर दो पठानों ने इन्हें डराया-धमकाया और रहेगा अर्थात् कोई मुलाज़िम अपने परिवार को कोयटा में अब बुरके पहनाकर भगा ले जा रहे थे । एक सिपाही न रख सकेगा। नया कोयटा तीन मील की दूरी पर मेरी की मदद से दो हिन्दू स्वयंसेवकों ने इन अबलात्रों को के मैदान में तम्बुत्रों का बनाया जायगा। कुछ मेडिकल उनके घर पहुँचाया।
विशेषज्ञ इस बात को देख रहे हैं कि खुदवाई का काम अमृतसर-रिलीफ़-कैप में १२ जून को कुछ मुसल- कब शुरू किया जाय । अगर इन्होंने राय दी कि फ़ौरन मान स्त्रियाँ आई और अपने लिए लावारिस बच्चे माँगने खुदवाने से बीमारी नहीं फैलेगी तो खुदवाई तुरन्त शुरू हो
लगीं । केप के इन-चार्ज ने उत्तर दिया कि यहाँ कोई जायगी; नहीं तो कुछ मास बाद । जिन लोगों का रुपया : लावारिस बच्चे बाँटे नहीं जाते। इस पर उन्होंने अाश्चर्य और माल-असबाब दब गया है वे अगर अपनी
प्रकट करते हुए कहा-“इमी रिलीफ़-कैप ने एक हवल- चीज़ों की सूची बनाकर एजन्ट आफ़िसर कमांडिंग । दार को तो एक बच्चा दिया है; अब हमें क्यों नहीं दिया रेस-कोर्स, कोयटा केम्प, के नाम भेज देंगे तो खुदवाई : जाता ?" इस बात ने केंप के सदस्यों को हैरान कर दिया के समय उनका खयाल रक्खा जायगा-इस बात का
और वे इस भेद की तह तक पहुँचने का यत्न करने लगे। आश्वासन दिया गया है। खुदवाई के समय विभिन्न : अगले दिन सुयोग से एक छोटी उम्र का सभा-समितियों के प्रतिनिधि भी साथ ले लिये जायेंगे।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
उषा और चित्रलेखा tee Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[चित्रकार-श्रीयुत उपेन्द्रकुमार मित्र
www.umaragyanbhandar.com
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
सेवा और सहानुभूति के भावों से युक्त एक कहानी।
दीनानाथ
लेखक,
श्रीयुत आत्माराम देवकर
“दादा भैंस कहाँ गई"
Sunnfaha.
ANS
दीना मजदूरी करता था। उस पर पंडित दीनानाथ के
पचास रुपये आते थे। पंडित जी धनी-मानी पुरुष थे। दीना जब उनके यहाँ नौकर था, किसी आवश्यक कार्य के लिए उसने उनसे ये रुपये उधार लिये थे। पंडित जी एक उदार
C
Shree Suche
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
व्यक्ति थे। दीना से प्रायः कहा करते थे—दीनू, जब दिन दीना को बुला कर कहा-दीनू, तुम्हारे ऊपर मेरा तक मैं हूँ, मेरे ही यहाँ बने रहो। वह भी कह देता, जो रुपया आता है उसे अब दे न दो । आख़िर देना आपको छोड़ कर कहाँ जाऊंगा। वह बड़ा स्वामि-भक्त ही तो है। दीना ने कहा-पंडित जी, इस समय मेरे था, किन्तु अकारण किसी की डाँट-डपट सुनने का पास रुपया नहीं है। पर अब मैं उसे अदा करके ही अभ्यस्त नहीं था। पंडित जी की सहधर्मिणी का स्वभाव रूखातथा कठोर था। इससे उनके यहाँ कोई टिकता नहीं था। दीना यद्यपि सहनशील था, तो भी उसकी भी सीमा थी।
आख़िर उसको भी एक दिन पंडित जी के चरण छूकर अपने घर की राह लेनी पड़ी। पंडित जी को परिस्थिति का ज्ञान था ही, अतः कुछ न कह सके । वे दीना के सरल एवं निश्छल व्यवहार से यद्यपि
उन्होंने पत्नी से
कहासन्तुष्ट थे, और
"अाज से तुम इच्छा भी हुई कि कुछ कहें, पर कहते कहते
इसकी माता और रुक गये। किसी ने
यह तुम्हारा पुत्र" कान से लग कर कहा, 'दरिद्र दीना को मनाकर रखने की क्या आवश्यकता है।'
(२) इस घटना के दो महीने बाद पंडित जी ने एक
Mon-JAMI
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
दीनानाथ
रहूँगा। पंडित जी ने वात्सल्य-पर्ण दृष्टि से दीना की
ओर देखकर कहा—इसका क्या अर्थ है ? दीनू , मैं तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं देना चाहता। अभी सुभीता न हो तो फिर दे देना। मैंने तो याद दिलाने के लिए तुम्हें बुलाया था। दीना ने हाथ जोड़कर कहा-महाराज, यह आपका तकाजा नहीं है, घटघटवासी भगवान का आदेश है। जिन्दगी का क्या भरोसा है ? आज हूँ, कल न रहूँ ! तब यह ऋण कोन चुकायेगा ? पंडित जी थोड़ी देर चुप रह कर बाल-तब क्या करना चाहते हो?
दीना ने नम्र स्वर से उत्तर दिया-मेरे पास एक भैंस है। वह अभी दूध दे रही है। उसे लेकर मुझे उद्धार कर दीजिए।
दीनानाथ का हृदय दयार्द्र हो उठा। उन्होंने कहा-देखो दीनू, इस समय वह भैस तुम्हारा प्रतिपालन कर रही है। उसे अपने ही पास रहने दो। मैं अब कभी तुमसे रुपया न माँगूंगा। जब सुभीता हो, दे जाना।
दीना ने कृतज्ञता-भरे भाव से पंडित जी की ओर देखकर कहा-ऐसी आज्ञा न हो अन्नदाता । मेरा अब निस्तार ही कर दीजिए। यह आधार भी यदि हाथ से निकल जायगा तो मैं फिर ऋण न चुका सकूँगा। मैं मजदूरी करके अपना पेट पाल लूँगा और आपका गुण गाऊँगा। मुझे कोई कष्ट न होगा।
दीनानाथ ने कुछ तेज़ स्वर में कहा-तुम्हारी यही इच्छा है, तो ले आओ। पीछे देखा जायगा।
दीना ने भैंस लाकर दरवाजे पर बाँध दी और पैरों पर गिरकर रुद्ध कंठ से कहा-मैं दीन और
आप दीनानाथ हैं। मुझे इस ऋण से उद्धार कर दीजिए।
पंडित जी का कोमल हृदय विचलित हो उठा। उन्होंने चाहा कि दीना को भैंस ले जाने की आज्ञा दे दें। किन्तु स्वार्थ-बुद्धि ने ऐसा न कहने दिया। उन्होंने सोचा कि आई हुई लक्ष्मी को कौन छोड़ता है ! फिर जब दीना उसे अपनी इच्छा से दे रहा है
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४
सरस्वती
तब लेने में क्या दोष है ? इस प्रकार किस किसको भैंस लौटाता फिरूँगा |
पंडित जी का मुँह बंद रह गया । दीना प्रणाम करके चला गया ।
( ३ )
दीना के घर में एक छोटे-से बालक के अतिरिक्त कोई न था । छ: माह का अबोध शिशु दीना के भरोसे छोड़कर उसकी स्त्री ने अनंतधाम की यात्रा की थी। वह उस समय चार वर्ष का था । दीना अब रोगी और अशक्त हो गया था। इससे वह नियमित रूप से काम पर भी नहीं जा पाता था । उसे अपने पेट की चिन्ता नहीं थी। जो कुछ रूखा सूखा पा जाता, खा लेता था और बालक को भैंस का दूध पिलाता था । वह उसके लिए यथेष्ट होता ।
सवेरे का रक्खा दूध दीना ने दोपहर के भोजन के समय बालक को पिला दिया था । किन्तु शाम के लिए क्या प्रबंध किया जाय, दीना को इसकी चिन्ता हुई । वह लोटा लेकर ग्वाले के घर गया और दो पैसे का दूध लाकर बालक को पिलाने लगा। वह दूध खट्टा हो गया था, इससे बालक ने बर्त्तन से मुँह लगाकर हटा लिया। उसने विह्वल दृष्टि से इधर-उधर देखा और दीना से कहा- दादा, भैंस कहाँ गई ? दीना ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से उत्तर दियाबेटा, भैंस तो पंडित जी के यहाँ चली गई । कल से
तुम्हें अच्छा दूध ला दिया करूँगा | यह सुनकर बालक रोने लगा। दीना ने उसे उठाकर गोद में ले लिया और रोटी मसल मसलकर उसके मुँह में देने लगा। बालक ने दो-चार कौर खाकर मुँह बन्द कर लिया । दीना थपकियाँ देकर उसे सुलाने लगा। बालक सो गया । दीना उसे चारपाई पर लिटाकर पास ही बैठ गया । उसके शुष्क मुख को देखकर दीना का हृदय व्यथित हो उठा । नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प उसके मन में उठ उठकर उसे सत्पथ से हटाने की चेष्टा करने लगे । वह सदा का दुखी था । बाल्यकाल से दुख की ही गोद
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
में पला था । अतएव उसमें सहिष्णुता का होना स्वाभाविक था। मजदूर लोग प्राय: एक ही दिन की चिन्ता करते हैं। दूसरे दिन की बात दूसरे ही दिन पर छोड़ देते हैं। दीना की भी यही दशा थी 1 नैराश्य के अन्धकार में आशा का धुंधला प्रकाश ही बहुत होता है। उसने सोचा कि पंडित जी के पास जाकर थोड़ा सा दूध ले आऊँ । वह उठकर दरवाजे तक गया। पर ज्यों ही किवाड़ खोलने लगा, उसके मन में अचानक यह आशंका उत्पन्न हुई कि बालक के संकट की बात सुनकर वे कहीं भैंस ही न लौटा दें। मान लो कि उन्होंने ऐसा ही किया तो बालक का दुःख तो दूर हो जायगा, पर मैं उनका जैसा ऋणी पहले था, वैसा ही बना रहूँगा । इस दुर्भावना के अकाट्य बंधन ने उसके पैर जकड़ लिये । वह लौटकर बालक के पास चारपाई पर लेट रहा और सूर्योदय की प्रतीक्षा करने लगा । ( ४ )
माघ का महीना था। रात को पानी के साथ छोटी छोटी बिनौलियाँ भी पड़ गई थीं। इससे आज शीत का अधिक प्रकोप था। ऐसे कठिन समय में दीना कभी मजदूरी करने के लिए नहीं जाता था । किन्तु दूध की चिन्ता ने उसे विवश कर दिया । बिना मजदूरी किये पैसों का प्रबन्ध कैसे होगा ? अस्तु वह बालक को सोता छोड़कर सवेरे ही घर से निकल पड़ा |
उस दिन उसे बहुत दूर काम मिला। कोई ठेकेदार पत्थर की ढुलाई करवा रहा था । गाड़ियाँ लगी हुई । दीना भी पत्थर लादने लगा । उसने दिन भर खूब काम किया और अच्छी मजदूरी पाई । किन्तु ज्यों ही सूर्य डूबा और शीत ने अधि कार जमाया, दीना को कँपकँपी देकर ज्वर आगया । उस समय वह घर आ रहा था । ज्यों-त्यों कर उसने हलवाई के यहाँ से दूध लिया और घर आया । बालक पड़ोसी के लड़के के साथ दरवाजे पर खेल रहा था। वह दिन भर का भूखा था। बाप को देखकर
www.umaragyanbhandar.com
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
दीनानाथ
दौड़ा हुआ आया और दूध दूध कहकर चिल्लाने उनकी भी पहुँच नहीं है। . मैं समझता हूँ, हृदय का लगा। दीना ने उसे दूध पिलाया। जो बच रहा अनुताप ही मनुष्य का सच्चा गुरु, पथ-प्रदर्शक और उसे सवेरे के लिए रख दिया।
जीवन-सुधार का सर्वोच्च ध्येय है। यह कहकर बालक का पेट भर चुका था। उसे शीघ्र ही उन्होंने उस अनाथ बालक को अपनी गोद में ले लिया नींद आ गई। दीना ने भी भगवान का नाम लेकर और मुनीम को दीना की अन्त्येष्टि-क्रिया कराने की चारपाई पकड़ी। ज्वर का वेग क्रमशः बढ़ने लगा आज्ञा देकर घर चले गये। और फिर एक-दम घट गया। शीत ने बिजली की स्त्री के निकट जाकर उन्होंने वेदना-पूर्ण गंभीर नाई सारे शरीर में फैलकर उसे अोले-सा ठडा कर स्वर में कहा-आज से तुम इसकी माता और यह दिया। दीना का घट बन्द हो गया। उसकी व्यथित तुम्हारा पुत्र! लो, इसका पालन-पोषण करो। आत्मा बन्धन-मुक्त हो शान्ति-धाम में पहुंच गई। पत्नी का हृदय आलोड़ित हो उठा। उसके नेत्रों
में अश्रु-जल देखकर घर के नौकर विस्मित हुए। दीना की मृत्यु का संवाद पाकर दीनानाथ आखिर स्त्री ही तो थी। मर्माहत हुए। वे अपने मुनीम के साथ उसके घर दीनानाथ के दो कन्यायें थीं। बड़ी का नाम पहुँचे। दीना के दीन मुख को देखकर उनका हृदय पन्ना और छोटी का होरा था। पन्ना कटोरे में दूध भर आया। उन्होंने क्षण भर निस्तब्ध रहकर भर लाई और बालक के पास आकर बोली-भैया, कहा-दीनू, मैं नहीं समझता था कि तुम बात के तुम भूखे होओगे, लो यह दूध पी लो। बालक दूध ऐसे धनी हो। नहीं तो रुपयों की कभी चर्चा तक न पीकर कातर-दृष्टि से इधर-उधर देखने लगा। यह करता । जो वस्तु लखपतियों और करोड़पतियों में देख कर हीरा ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया, प्रयत्न करने पर भी नहीं मिली वह मिथ्या-संसार और हँसकर कहने लगी-तुम डरते क्यों हो ? को सत्य में परिणत करनेवाली अमूल्य निधि तुमने चलो, अब हम सब खेलें । कैसे पाई ? सभी शास्त्र और पुराण सत्संग को बालक उस अतीत स्मृति को भुला कर आनन्द
आत्मा की उन्नति का एक-मात्र साधन बतलाते हैं। से खेलने लगा। उस समय बालक हँसता था और किन्तु देव के इस विचित्र विधान के अनुसंधान तक दीनानाथ का हृदय रोता था।
मरी कविता
लेखक, श्रीयुत बालकृष्णराव जब सुख के निर्मल नयनों में दुख के आँसू, तब लय में, भाषा में, छविमय शब्दजाल में, छा जाते हैं, विमल व्योम में तारागण से; हो जाती है व्याप्त काव्य की मूक रागिनी । भव्य भावना-भूमि दिव्य छविमय तब होकर, छन्दों के मादक गीतों में, शब्दजाल की, भर देती है मधुर विकलता, सजनि, शान्ति में । हो जाती समष्टि, सखि, अनुपम अलंकार में;
आन्दोलित हो–हर्ष, व्यथा से, सखि, प्रेरित हो, श्रा न सकी जो, सजनि, मधुरिमा के प्रसार में, बज उठती है हृत्तन्त्री तब नीरव स्वर में; केवल वह अस्फुट ध्वनि ही है मेरी कविता ॥ .
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
१- क्या योरप में युद्ध छिड़ेगा ?
नी ने अपनी नई प्रगति से योरप की राजनीति का मानो कायापलट कर दिया है । यही नहीं, उससे योरप के राजनीतिज्ञों के डम्बर का भण्डाफोड़ भी हो गया है और यह प्रकट हो गया है कि कौन कितने पानी में है। अभी तक यह समझा जाता था कि विजयी राष्ट्र ऐक्य के सूत्र में श्राबद्ध हैं और वे एक मत से वहाँ की राजनैतिक अवस्था के सँभालने का भार अपने ऊपर लिये हुए हैं । परन्तु जर्मनी के हिटलर ने इसका रहस्य खोल दिया है और यह स्पष्ट रूप से प्रकट हो गया है कि पहले चाहे जो कुछ रहा हो, पर अब वह बात नहीं रही । और तो और, मध्य-योरप तथा बाल्कन श्रादि के जिन राज्यों की फ्रांस ने स्वाधीनता प्राप्त करने में पूरी सहायता की और जिनका वह भरोसा करता था कि मौके पर वे साथ देंगे उनमें से पोलेंड का झुकाव प्रकट रूप से जर्मनी की ओर है। और अब तो यह जान पड़ता है कि ज़ेचोस्लावेकिया और जुगोस्लाविया भी जर्मनी से घनिष्ठता बढ़ाना चाहते हैं ।
ज
संसार को पति
की सन्धि भी हो गई । इस सन्धि का जर्मनी ने विरोध ही नहीं किया है, किन्तु इसके जवाब में उसने अपने नौबल के सम्बन्ध में ग्रेट ब्रिटेन से समझौता भी कर लिया है । एक इसी बात से प्रकट हो जाता है कि योरप की राजनीति का क्या रुख है । अन्यथा जिस जर्मनी ने वर्सेलीज़ - सन्धि-पत्र के विरुद्ध आचरण किया है उसके साथ क्या न्याय की दृष्टि से समझौता हो सकता था ? परन्तु इस समय योरप में यही हो रहा है ।
और ऐसी अवस्था में अर्थात् जर्मनी को सन्धि-पत्र के विरुद्ध सैनिक तैयारी करते देखकर फ्रांस को अपना बल बढ़ाना श्रावश्यक हो गया है। इधर सोवियत रूस अचानक महत्त्व या गया था। उसने योरप के कतिपय छोटे छोटे राष्ट्रों से राजनैतिक सम्बन्ध स्थापित कर लिया था। इस बात से तथा इस बात से भी कि उसका जर्मनी से विरोध है, फ्रांस ने झट अपना मैत्री का हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया । फलतः वह राष्ट्र संघ का सदस्य हो गया और फ्रांस से उसकी परस्पर सहायता करने
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
.. फ्रांस, ब्रिटेन तथा इटली - ये तीन ही योरप के महायुद्ध-विजयी राष्ट्र हैं। यद्यपि अभी तक एकमत होकर ही ये तीनों महाशक्तियाँ सब कार्य करती आई हैं और आज भी पूर्ववत् ही सम्मिलितरूप से राष्ट्र संघ का कार्य संचालित करती हैं, तथापि ये कुछ खास मामलों में अपने अपने दृष्टिकोण से ही काम करने लग गई हैं। फ्रांस ने रूस से और ब्रिटेन ने जर्मनी से अलग अलग समझौता कर ही लिया है। इटली भी आस्ट्रिया और हंगेरी का अपना एक गुट बनाये हुए है । श्रास्ट्रिया के ही कारण उसका जर्मनी से समझौता नहीं हो सका। अभी हाल में एक और नई बात हुई है। ब्रिटेन और फ्रांस ने इटली और एबीसीनियी के मामले में हस्तक्षेप किया है। इटली जापान की तरह अबीसीनिया को मंचूकों नहीं बना पाया और मुसोलिनी को अपने ोंठ काटकर चुप रह जाना पड़ा । उपर्युक्त अवस्था से यह बात भले प्रकार स्पष्ट जाती है कि योरप के छोटे-बड़े सभी राष्ट्र अपनी रक्षा तथा उन्नति की व्यवस्था तो कदाचित् निर्वाध रूप से कर तो सकते हैं, पर ऐसा कोई काम नहीं कर सकते या नहीं करने पायेंगे जिससे युद्ध छिड़ जाने की सम्भावना होगी ।
इस प्रकार योरप की राजनैतिक अवस्था विषमता को प्राप्त है ।
परन्तु योरप की इस अवस्था का रूप अब भयंकर
www.umaragyanbhandar.com
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
संसार की गति
होता जाता है। पिछली सन्धियाँ तथा समझौते उठाकर करते देखकर अवश्य ही भयभीत होगा। इन सबको एक ओर रख दिये गये हैं और सभी राष्ट्र अब नये सिरे दृष्टि में रखकर विचार करने से यही प्रकट होता है कि इस से गुट बनाने में लग गये हैं। रही जङ्गी तैयारी सो प्रदेश के कारण कहीं यहाँ भयंकर युद्ध न छिड़ जाय । उसका तो इस समय दौरदौरा ही है। ऐसी दशा में यदि चीन के इस प्रदेश का रकबा तो छः लाख वर्गमील है, विशेषज्ञ यह अन्दाज़ लगाते हैं कि योरप के आगे भयङ्कर पर श्राबादी ५० लाख ही है। यहाँ खनिज द्रव्यों की समस्या उपस्थित है और महायुद्ध की पुनरावृत्ति का समय भी बहुतायत है। यहाँ मुसलमानों की ही आबादी है। निकट प्राता जा रहा है तो यह सर्वथा स्वाभाविक ही ये लोग गत दस वर्ष से विद्रोह का झंडा उठाये हुए हैं। माना जायगा। तो भी आशावादी निराश नहीं हैं और १६३१ से तो यहाँ से चीनी सत्ता भी जाती रही है। वे यही कहते जा रहे हैं कि ऐसी आशङ्का की गुञ्जाइश परन्तु चीनी अधिकारी परास्त हो होकर भी अभी तक जमे ही नहीं है । भगवान् करे, ऐसा ही हो।
हुए हैं।
कहते हैं कि वहाँ के हामी नामक मुसलमान शासक के २-सिनकियांग की दयनीय दशा उत्तराधिकारी को चीन सरकार ने नहीं स्वीकार किया। इस चीनी तुर्किस्तान या सिनकियांग ही अब एक ऐसा पर चीन के कंसू-प्रदेश के मुसलमान जनरल ने सिनकियांग प्रान्त रह गया है जो अभी चीन-साम्राज्य के अन्तर्गत पर चढ़ाई कर दी। उसने इन दो प्रान्तों को मिलाकर माना जाता है । उसके साम्राज्य के अन्य प्रदेश-तिब्बत, एक स्वाधीन मुसलमानी राज्य स्थापित करने का निश्चय मंगोलिया और मंचूरिया-अब उसके अधिकार में नहीं हैं। किया। सिनकियांग के चीनी गवर्नर ने रूसियों (ह्वाइट तिब्बत तो बहुत पहले से ही स्वतन्त्र है। सोवियट रूस रशियन) की एक सेना का संगठन कर कंसूवालों को मार की संरक्षा में मंगोलिता भी एक ज़माने से स्वतन्त्रता का भगाया। परन्तु बाद को उन्हीं रूसियों ने उस चाना उपभोग कर रहा है। मंचूरिया को अभी हाल में जापान गवर्नर को भी यहाँ से खदेड़ बाहर किया। इस पर दबा बैठा है। एक यही सिनकियांग उसके अधिकार १६३३ में कंसू के उस मुसलमान जनरल ने सिनकियांग में रह गया था, सो वहाँ भी सालों से विद्रोह मचा हुआ है, पर फिर आक्रमण किया । इसका वारण करने के लिए और अब तो जान पड़ता है कि मंगोलिया की भाँति वह भी नये चीनी गवर्नर ने रूस से उन चीनी सैनिकों को प्राप्त रूस की संरक्षा में स्वतन्त्रता का उपभोग करना शुरू किया जो मंचूरिया के युद्ध में जापान से हारकर कर देगा।
साइबेरिया भाग गये थे। और जब उनसे पूरा न पड़ा तब चीन का यह प्रान्त एशिया के मध्य में स्थित है और उसने रूस-सरकार से सैनिक सहायता प्राप्त करके उक्त मध्य-एशिया का सारा भू-भाग रूस के अधिकार में है। मुसलमान जनरल को परास्त किया। इस प्रकार रूस का अतएव यदि सिनकियांग को रूस अपनी दृष्टि में किये उस प्रदेश पर अब अधिक प्रभाव स्थापित हो गया है। रहे तो यह उसके लिए स्वाभाविक ही है। इधर कुछ और यह बात चीन, जापान तथा भारत के लिए विशेष समय से रूसियों की गतिविधि भी चीन के इस अशान्त चिन्ता का कारण है। तथापि इतना स्पष्ट है कि चीन का प्रदेश में अधिक बढ़ती गई है, जिससे वहाँ के व्यापार को यह एक प्रान्त भी उसके हाथ से जाता हुआ दिखाई दे भी रूस ने अपने हाथ में कर लिया है । इसका मंचूरिया रहा है । तथा भारत से भी व्यापार-सम्बन्ध है। अतएव रूस की उक्त गतिविधि से इन देशों का चौकन्ना होना सर्वथा
३–चीन की दुर्दशा स्वाभाविक है । मंचूरिया का ताज़ा दृष्टान्त सामने रहने चीन की दुरवस्था की कोई सीमा नहीं है। से चीन भी अपने प्रदेश में रूस को इस प्रकार प्रवेश बोल्शेविकी चीनियों के गृह-युद्ध के कारण वह कुछ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग३६
कर-धर नहीं पा रहा है। आज भी चीन में अस्सी या होमरूल का प्रचलन हो जायगा। इस प्रकार उस हज़ार साम्यवादियों की शक्तिशाली सेना किाँग-सी द्वीप-पुञ्ज को स्वाधीनता-प्रदान करने का श्रीगणेश हो
और फूकेन के प्रान्तों में डटी हुई सरकारी सेनाओं गया और जब तक वह पूर्णरूप से स्वतन्त्र नहीं कर दिया से युद्ध कर रही है । इस संकट में वह पड़ा ही हुअा था कि जाता तब तक संयुक्त-राज्य उसकी रक्षा एवं वैदेशिक इसी समय उसे जापान ने फिर एक बार अा दबाया सम्बन्धों की देख-भाल खुद करेगा। है। उसने इस बात का अन्तिम पत्र दे दिया है कि आत्मशासन-सम्बन्धी जिस व्यवस्था-पत्र पर रूजवेल्ट उत्तरी चीन के चिहली-प्रान्त को चीनी सेनायें खाली कर साहब ने हस्ताक्षर किया है उसे फ़िलीपाइन के निवासियों जायँ और यहाँ के अधिकारियों को वापस बुलाकर उनके के मनोनीत सदस्यों ने ही तैयार किया है। इसके लिए स्थान में ऐसे लोगों की नियुक्ति की जाय जो जापान की उनकी एक सभा बैठी थी और उन्होंने परस्पर वाद-विवाद निगरानी में उस भूभाग की देख-रेख करें। चीन में बल करके श्रात्मशासन-सम्बन्धी अपनी मांगों को क्रमपूर्वक नहीं है कि वह इस अन्तिम पत्र को अस्वीकार कर सके। लिपिबद्ध किया। इस महत्त्वपूर्ण शासन-विधान की इस बात की आशा भी नहीं है कि जापान के विरुद्ध स्वाधीन भावना का पता केवल इस बात से ही भले प्रकार उसे किसी पाश्चात्य राष्ट्र से सैनिक सहायता मिलेगी। अतएव लग जाता है कि उसमें अँगरेज़ी-भाषा के पठन-पाठन उसके लिए दो ही रास्ते हैं । या तो वह बोल्शेविकी लोगों की व्यवस्था नहीं की गई है। वहाँ के स्कूलों में इस से मेल कर सोवियट रूस से परस्पर की सहायता की सन्धि समय शिक्षा का माध्यम अँगरेज़ी ही है, परन्तु वहाँवालों कर ले या चुपचाप जापान की बात मान ले। ने इस शासन-विधान द्वारा अँगरेज़ी को शिक्षा का माध्यम चीन की राष्ट्रीय सरकार कदाचित् जापान से मेल-जोल ही बनाये रखने से इनकार कर दिया है। बनाये रखना चाहती है । अतएव उसने कुछ हुजत कर इसमें सन्देह नहीं कि इस शासन-विधान से फ़िलीचुकने के बाद जापान की माँगों को स्वीकार कर लिया है। पाइनवालों को आत्मशासन के सारे अधिकार प्रदान इससे यही जान पड़ता है,कि कुछ दिनों में समग्र उत्तरी कर दिये गये हैं और इसके वहाँ दृढ़ता से चल निकलने चीन भी मंचूरिया की भाँति जापान की संरक्षा में श्रा के बाद संयुक्त राज्यों की सरकार रक्षा और वैदेशिक नीति जायगा ।
के सञ्चालन का उत्तरदायित्व भी उन्हें उपयुक्त समय उधर रूस चीनी तुर्किस्तान को हड़पे ही लिये जा पर सौपकर पूर्ण रूप से उन्हें स्वतन्त्र कर देगी। संयुक्तरहा है, इधर जापान भी अकस्मात् और सो भी एक राज्य की प्रजातंत्र-सरकार का यह सत्कार्य सर्वथा उसके मामूली बात का बहाना करके चीन के उत्तरी भाग को अनुरूप हुअा है और इसके सफलता प्राप्त करने पर यह भी हथिया लेने का यत्न कर रहा है। जापान और रूस दूसरों के लिए श्रादर्श का कार्य करेगा। इस सम्बन्ध में दोनों जानते हैं कि चीन की रक्षा के लिए न तो ब्रिटेन फ़िलीपाइन के निवासी भी प्रशंसा के पात्र हैं कि उन्होंने
और न अमरीका के संयुक्त राज्य ही अस्त्र ग्रहण करेंगे। अपनी स्वाधीन-भावना का परित्याग नहीं किया और इस प्रकार संसार में जिसकी लाठी उसकी भैंस की कहावत संयुक्त राज्यों के गत ४० वर्ष के शासन काल में वे उसके अाज. भी सोलहो पाने चरितार्थ होती दिखाई दे रही है। लिए दृढ़ता के साथ आन्दोलन करते पाये हैं। यही
कारण है कि आज संयुक्त राज्यों के अधिकारी तक उन्हें ४-फिलीपाइन द्वीपों की स्वाधीनता समझदार राजनीतिज्ञ कहकर उनकी प्रशंसा कर रहे हैं फ़िलीपाइन द्वीप-समूह को जो नया शासन-विधान और उन्हीं की निश्चित की हुई माँगों के अनुसार उन्हें दिया जा रहा है उस पर प्रेसीडेंट रूजवेल्ट ने हस्ताक्षर कर शासनाधिकार दे रहे हैं। दिया है। इसके अनुसार अगले नवम्बर से वहाँ आत्मशासन
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादकाय नाट
उसक मलव के
कोयटा का लोकसंहार
हुई सम्पत्ति का उद्धार करके उन्हें सौंप देने का भार हम जा मई को कोयटा में भूकम्प ने लोग अपने ऊपर लें । प्रसन्नता की बात है, अपने इस कर्तव्य -SI सर्वनाश का जो भयंकर दृश्य का पालन करने में क्या सरकार ने और क्या जनता ने
उपस्थित किया है उस सम्बन्ध ज़रा भी अवहेलना नहीं की और शुरू से ही बराबर अभी में हम इसी अंक में अन्यत्र तक तत्परता से भूकम्प पीड़ितों का बिना किसी भेदभाव के दो लेख छाप रहे हैं । उनसे सेवा-कार्य किया जा रहा है। आशा है, सभी लोग पाठकों को इस प्रलयंकर भूकम्प पीड़ित भाइयों की सहायता करके अपने कर्तव्य
घटना का यत्किंचित् परिचय का पालन करेंगे। अवश्य प्राप्त हो जायगा । एक क्षण में किस तरह एक विशाल जनाकीर्ण नगर ढह गया और उसके मलवे के
सङ्घ-शासन-विधान नीचे बाबाल-वृद्ध-वनिता-सारे निवासी दब मरे, इसकी नये शासन-सुधारों का जो बिल हाउस अाफ़ कामंस करुणकथा बताने को यद्यपि दस-पाँच हज़ार श्रादमी में पेश था उसके तीन वाचन हो गये और वहाँ से वह बच गये हैं, तो भी वे उसका शतांश भी नहीं बता सकते। कुछ परिवर्तन के साथ पास हो गया। अब वह हाउस इस दुर्घटना के स्मरणमात्र से रोएँ खड़े हो जाते हैं। अाफ़ लार्डस में पेश है, जहाँ से, अाशा है, वह अपने यह भूकम्प १५० मील लम्बे तथा २० मील चौड़े भूभाग वर्तमान रूप में जैसा का तैसा ही पास हो जायगा। उसके में आया था, जिसके परिणाम स्वरूप कोयटा तथा मातुंग बाद उस पर सम्राट के हस्ताक्षर होंगे और तब उसे कानून नाम के दो शहर तथा उनके आस-पास के १०० गाँव का रूप प्राप्त हो जायगा । इस प्रकार इस वर्ष की समाप्ति नष्ट हो गये हैं। और सम्पत्ति के विनाश का अन्दाज़ के पहले ही इस कानून के सारे संस्कार पूरे हो जायँगे ५० करोड़ रुपये से ऊपर लगाया जाता है। इसी प्रकार और भारत में अगले वर्ष से प्रान्तीय 'स्वराज्य' का यह भी कहा जाता है कि एक लाख के लगभग जाने गई प्रवर्तन हो जायगा। हैं। इसमें सन्देह नहीं, कोयटा तथा मातुंग ये दोनों हाउस अाफ़ कामंस में इस बिल के विरुद्ध मिस्टर विशाल नगर अाज मलवे के ढेर हो गये हैं, जिसके साथ चर्चिल तथा उनके दल के लोगों ने बड़ा वाद-विवाद वहाँ के हज़ारों निवासी तथा उनकी करोड़ों की सम्पत्ति किया, किन्तु भारतमंत्री सर सेमुअल होर के आगे उनकी भी मिट्टी में मिल गई है। इस अचिन्त्य त्रासदायक एक न चली और सरकार ने अपने बहुमत से उसे तीनों दुर्घटना की यादकर इटली के प्राचीन पंपिाई नगर का बार हाउस अाफ़ कामंस से पास करवा लिया। केवल चित्र सामने आ जाता है जिसे ज्वालामुखी के लावे ने भारत के देशी नरेश ही उसमें अपने पक्ष में यत्किंचित् बात की बात में उदरस्थ कर लिया था। इस समय अाव- परिवर्तन करवा लेने में सफल मनोरथ हुए हैं। पर श्यकता इस बात की है कि जो अल्पसंख्यक लोग इस अँगरेज़ी भारत की भिन्न भिन्न संस्थानों में से किसी एक मरणान्तक विपत्ति से बच निकले हैं और जिनमें आधे के की भी नहीं सुनी गई । यहाँ तक उन मुसलमान नेताओं लगभग बुरी तरह से घायल हो गये हैं उनकी जान बचाने ने भी असन्तोष प्रकट किया है जिनको नये शासन-सुधारों का, साथ ही सभी बचे हुओं की मलवे के नीचे दबी पड़ी में अन्य जातियों की अपेक्षा विशेष सुविधायें दी गई हैं।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
८
+
+
+
इन मुसलमानों का कहना है कि इस बिल में उनकी सभी मात्र है । साम्प्रदायिक बँटवारे के विरुद्ध ऐसे विचार माँगों की पूर्ति नहीं की गई है। और जब मुसलमान तक रखते हुए भी उन्होंने भारतमंत्री का पद स्वीकार किया है। असन्तोष प्रकट करते हैं तब अन्य जातियों के सम्बन्ध में उस दिन हाउस श्राफ़ लास में 'इंडियाबिल' को उपस्थित क्या कहा जाय-कांग्रेस या दूसरी संस्थाओं की आकांक्षाओं करते समय उन्होंने अपने भाषण में अपनी सफ़ाई देते की पूर्ति का होना तो इस बिल से सोचा ही नहीं जा हुए कहा है कि यद्यपि वे साम्प्रदायिक बँटवारे के विरुद्ध हैं, सकता।
तथापि उन्होंने बहुमत के आगे सिर झुका दिया है और वे आश्चर्य तो यह है कि पार्लियामेंट के अनुभवी अपने कार्य-काल में उस 'बहुमत' के अनुसार ही कार्य राजनीतिज्ञों तक ने भारतीय लोकमत के दृष्टिकोण को करेंगे । लार्ड जेटलेंड के भारतमंत्री बनाये जाने से संप्रदासमझने की परवा नहीं की। यह बात हाउस अाफ़ यवादी हिन्दू प्रसन्न हुए होंगे। परन्तु लार्ड महोदय की उक्त कामंस के उक्त बिल-सम्बन्धी वाद-विवादों से बहुत कुछ सफ़ाई से उन्हें निराशा भी हुई होगी। वास्तव में भारत के प्रकट हो चुकी है और जो थोड़ा-बहुत प्रकट होना बाक़ी सम्बन्ध में ब्रिटेन के मंत्रिमंडल की एक निश्चिन्त नीति रहती रह गया है वह अब हाउस अाफ़ लाड्स के वाद-विवाद है, जिसका पूर्ण रूप से अनुभव मज़दूर-दल की सरकार के से व्यक्त हो जायगा । अभी उस दिन हाउस अाफ़ लाड्स समय ही भारत को हो चुका है। परन्तु आशावादी हार में स्वयं भूतपूर्व भारतमंत्री लार्ड क्रू ने साफ़ कहा है कि नहीं मान सकते और वे मंत्रिमण्डल के इस परिवर्तन में लार्ड भारत को डोमीनियन स्टेटस का पद कभी से प्राप्त है, जेटलेंड के भारतमंत्री बनाये जाने से और भी अधिक रहा उसके अधिकार प्राप्त करना से धीरे धीरे वे भी प्राप्त अाशान्वित हुए होंगे। ऐसे लोगों को जान लेना चाहिए हो जायँगे । पार्लियामेंट के बहुमत का ऐसा ही दृष्टिकोण कि 'इंडिया-बिल' पास हो चुका है और उसके साथ ही है । एक अकेला मज़दूर-दल अलबत्ता भारतीय लोकमत साम्प्रदायिक बँटवारा भी पास हो चुका है। यही नहीं, को पार्लियामेंट में बार बार प्रकट करता आया है। परन्तु उसके अनुसार नूतन शासन-प्रणाली भी अगले वर्ष से कार्य उसका वहाँ कुछ भी ज़ोर नहीं है । अतएव नये शासन- में परिणत होगी। मंत्रिमण्डल का कोई भी परिवर्तन अब सुधार भारत में वही जारी किये जायेंगे जिनका जारी होना उसकी प्रगति में बाधा नहीं दे सकेगा। तथापि इतनी बात वहाँ की वर्तमान राष्ट्रीय सरकार ने स्वीकार किया है । यह स्पष्ट है कि वर्तमान भारतमंत्री को भारत का व्यावहारिक बिल उसी का लिखित रूप है।
ज्ञान है और वे भारतीय प्रश्नों पर अधिक सहानुभूति के
साथ विचार करेंगे । कम से कम हिन्दुओं को तो उनसे साम्प्रदायिक बँटवारा
ऐसी ही आशा है। उन्होंने अपने हाउस अाफ़ लार्डस ग्रेट ब्रिटेन के मंत्रिमण्डल में जो परिवर्तन जून में के भाषण में इस बात का आश्वासन दिया है कि हना है उसके अनुसार अनुदारदल के नेता मिस्टर हिन्दू-मुसलमानों में समझौता करा देने का वे अपने बाल्डविन प्रधान मंत्री बनाये गये हैं और भारतमंत्री का भरसक प्रयत्न भी करेंगे। पद लार्ड जेटलेंड को दिया गया है। लार्ड ज़ेटलेंड बंगाल के गवर्नर रह चुके हैं और ये प्रसिद्ध साम्प्रदायिक
हिन्दुओं का विकट ह्रास बँटवारे के पूर्ण रूप से विरुद्ध रहे हैं। इनका कहना है संसार में केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ कि विधान द्वारा व्यवस्थापक सभाओं में हिन्दुओं को हिन्दू बसते हैं। परन्तु उनकी संख्या में दिन प्रतिदिन निम्न स्थान देकर यह अाशा करना कि नियत समय के भारी कमी होती जा रही है । यह हिन्दुओं के लिए सचमुच बाद हिन्दू और मुसलमान आपस में समझौता करके विशेष चिन्ता की बात है। १६३१ की मनुष्य-गणना के सम्मिलित चुनाव-प्रणाली ग्रहण कर लेंगे, केवल दुराशा. आँकड़ों से प्रकट होता है कि उनकी संख्या की कमी का
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादकीय नोट
संख्या १]
क्रम पहले की ही भाँति जारी ही नहीं है, किन्तु ऐसा जान पड़ता है कि निवार्य रूप से जारी ही रहेगा । हिन्दुत्रों की संख्या में जो यह कमी हो रही है उसका एक कारण धर्मपरिवर्तन भी है । और यह धर्मपरिवर्तन धर्म - जिज्ञासा के भाव से उतना नहीं होता है जितना कि आर्थिक संकट या सामाजिक अनाचार के कारण होता है । यह सच है कि हिन्दू ग्रार्थिक संकट से अपने जाति-बन्धुत्रों की रक्षा करने में असमर्थ हैं, पर वे सामाजिक अनाचार से उनकी रक्षा ज़रूर कर सकते हैं । खेद की बात है कि उनका ध्यान इस ओर जाकर भी नहीं जा रहा है ।
१९३१ की मनुष्यगणना की रिपोर्ट से प्रकट होता है कि पंजाब, बंगाल और ट्रावनकोर एवं कोचीन राज्यों में हिन्दुओं की संख्या जहाँ घटी है, वहाँ मुसलमानों और ईसाइयों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई है । पञ्जाब, बंगाल और आसाम में मुसलमान वृद्धि पर हैं । पंजाब में हिन्दू १६२१ की गणना में ३,१८१ प्रतिशत थे, जो घट कर व २,६८४ प्रतिशत रह गये हैं । इसी प्रकार बंगाल में वे १९२१ में ४,३२० प्रतिशत थे जो अब घटकर ४,३०४ प्रतिशत रह गये हैं । हाँ, आसाम में मूलनिवासियों के कारण उनकी संख्या में कुछ वृद्धि हुई है, परन्तु उस प्रान्त में मुसलमानों की जो संख्या वृद्धि होती जा रही है उसके आगे हिन्दुओं की यह संख्या वृद्धि नगण्य है ।
उधर ट्रावनकोर और कोचीन में ईसाइयों की संख्या में सबसे अधिक वृद्धि हुई है। गत दस वर्षों में भारत में उनकी संख्या में ३२५ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । ट्रावनकोर में और कोचीन में तो गत ५० वर्षों के भीतर उनकी संख्या कहीं दुगुनी और कहीं तिगुनी बढ़ गई है । और इनकी इस संख्या वृद्धि में अछूतों ने बहुत अधिक योग दिया है । दक्षिण में अछूतों के साथ जो होता है वह लोक - विदित है । और इस अवस्था के होते हुए भी यदि वहाँ के सभी अछूतों ने अपना धर्मपरिवर्तन अभी तक नहीं किया है तो इसे आश्चर्य ही समझना चाहिए। यह वहाँ के 'अछूत' हिन्दुओं के दुराग्रह का परिणाम है कि दक्षिण में ईसाइयों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जाती है ।
व्यवहार
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
९१
निस्सन्देह हिन्दुत्रों की संख्या का यह भारी हास हिन्दुओं के लिए विशेष चिन्ता की बात है । उनके समाज के जो लोग उनसे असन्तुष्ट होकर धर्म-परिवर्तन करेंगे वे लोग उनके साथ प्रेम का व्यवहार कैसे कर सकेंगे ? देश में इस समय सम्प्रदायवाद का जो ज़ोर है उसका एक कारण यह भी है । अतएव हिन्दुत्रों को इस विकट समस्या की ओर विशेष सावधानी से ध्यान देना चाहिए और उन्हें अपनी जाति का पुनः संगठन इस विधि से करना चाहिए कि निम्न समझी जानेवाली जातियाँ भविष्य में वैसी न समझी जायँ । यही नहीं, उनके साथ ऐसा व्यवहार हो कि वे स्वयं अपने को सबके समान ही समझें ।
स्वर्गीय पंडित गोपीनाथ पुरोहित
स्वर्गीय रायबहादुर सर गोपीनाथ पुरोहित की मृत्यु हो गई । श्राप जयपुर - राज्य के नररत्न थे ।
पुरोहित जी का जन्म संवत् १६१६ के चैत्र में हुआ था । आप केवल ३ वर्ष के ही थे जब श्रापके पूज्य पिता का स्वर्गवास हुआ था । अनेक आर्थिक एवं कौटुम्बिक आपदाओं को वीरता पूर्वक फेलते हुए ग्रापने बी० ए० (नर्स) और एम० ए० की उच्च उपाधियाँ प्राप्तकर जयपुर के महाराजा - कालेज का मुखोज्ज्वल किया। जयपुर-राज्य के श्राप सर्वप्रथम ग्रेजुएट थे । श्रतएव श्रापका राज्य द्वारा हाथी, घोड़े और राजकीय लवाजमे से स्वागत किया गया ।
प्रारम्भ में पुरोहित जी जयपुर- कालेज में प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए। आपकी साधारण योग्यता से प्रसन्न होकर जयपुर-नरेश ने आपको जयपुर-राज्य की ओर से आबू अपना वकील नियुक्त किया। इस सम्मानित पद पर नियुक्त होनेवाले श्राप सर्वप्रथम जयपुरी थे । १५ वर्ष तक इस पद पर आपने बड़ी तत्परता और योग्यता से कार्य किया । इन सेवाओं के फलस्वरूप आपको 'रायबहादुर' की उपाधि मिली ।
इसके पश्चात् पुरोहित जी पुलिस मेम्बर हुए और अन्त में जयपुर - केबिनेट के वाइस प्रेसिडेण्ट तथा होममेम्बर बनाये गये । पेन्शन होने के पूर्व आप 'सर' की उपाधि से विभूषित किये गये ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
९२
सरस्वती
पुरोहित जी साधारण स्थिति में जन्म लेकर जयपुर जैसे समृद्ध राज्य के प्रधान सचिव बने, फिर भी आपमें अभिमान लेशमात्र भी न था, विनय सादगी और सज्जनता आप उदाहरण थे ।
पुरोहित जी हिन्दी के लेखक तथा वृद्ध साहित्यसेवी थे । मित्रता, वीरेन्द्र, सती-चरित, चमत्कार श्रादि पुस्तकें लिखी हैं तथा शेक्सपीयर और भतृहरि के शतकत्रय के सुन्दर अनुवाद हिन्दी में किये हैं । हिन्दी-कोविद - रत्नमाला में आपका चरित प्रकाशित हुआ है
1 शैशवकाल से लेकर मृत्युपर्यंत आपको विद्या का व्यसन बना रहा। मृत्यु के समय श्रापकी अवस्था ७३ वर्ष की थी और इस समय आप ग्रामीणों के जल-कष्ट से दुखी होकर एक बड़ा बाँध बँधवाने में दत्तचित्त थे । आपकी मृत्यु से जयपुर का एक श्रेष्ठ व्यक्ति उठ गया है ।
नेत्ररोग की व्यापकता
भारत नाना प्रकार की आधि-व्याधियों का घर बन गया है । उसे उन सबसे मुक्त करने के प्रयत्न सरकार तथा इतर परोपकारी जन यथाशक्ति बराबर करते रहते हैं, परन्तु रक्तबीज की तरह वे घटने के स्थान में बढ़ती ही जाती हैं और सो भी नये नये रूपों में । ऐसी दशा में पुरानी व्याधियों का उन्मूलन होना पीछे रह जाता है और सर - कार तथा दूसरे लोग नई व्याधियों का प्रतीकार करने में लग जाते हैं । फलतः पुरानी व्याधियाँ जड़ पकड़ लेती हैं। उदाहरण के लिए आँखों के रोग को ही लीजिए । श्राज क्षय, काला आज़ार, गर्दन तोड़ बुखार के आगे उसकी ओर कौन ध्यान देता है ? परन्तु वह इस दशा में देशव्यापी होता जा रहा है। अलीगढ़ के श्रीमोहनलाल जी जैसे कुछ लोग लाख अखबारों में अन्धों के पक्ष में शोरगुल मचाया करें, पर किसे फुर्सत है कि उनकी ओर समुचित रूप से ध्यान दे। काशीनिवासी स्वर्गीय राजा मोतीचन्द ने इधर कई वर्ष से नेत्ररोगियों की सहायता के लिए विशेष आयोजन किया था, पर उनके निधन से अब वह सहारा भी नहीं रहा । अन्धसहायक सभा के मन्त्री श्री मोहनलाल जी का कहना है कि
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
सिन्ध के बाद अन्धों की संख्या संयुक्तप्रान्त में ही सबसे अधिक है। इस बात में सिन्ध सारे भारत में सबसे आगे है । वहाँ की जन-संख्या में लाख पीछे ३०० आदमी अन्धे हैं । संयुक्त प्रान्त में वही संख्या २५० है । अतएव यह दूसरे नम्बर पर है। आँख के रोगों में रोहे का रोग 'ट्राकोमा' सबसे भयंकर होता है। आँख के रोगियों में २५ फ़ीसदी लोग इसी रोग से ग्रस्त हैं । पञ्जाब में आँख के रोगियों में ५० फ़ी सदी लोगों में यह फैला हुआ है ।
भारत में श्राविष्कार
सदा की भाँति पेटेन्ट आफ़िस की रिपोर्ट इस बार भी निकली है । इस रिपोर्ट से उन आविष्कारों का ब्योरा प्राप्त होता है जिनका पेटेन्ट श्राविष्कार करनेवाले प्राप्त करते हैं। इसकी वार्षिक रिपोर्टों से प्रकट होता है कि नये
विष्कारों की संख्या बराबर बढ़ती जा रही है । यह प्रसन्नता की बात है कि भारतीय यंत्र - विशारद अपने कार्य में उत्साहपूर्वक लगे हुए हैं और वे कोई न कोई नया विष्कार करते ही रहते हैं । पेटेंट आफ़िस की पिछली रिपोर्ट से प्रकट होता है कि रिपोर्ट के साल पेटेंट कराने की दरख्वास्तें १,००७ श्रई, जिनमें ३४२ भारत की थीं और इनमें १२६ अकेले बंगाल की थीं । आविष्कार की प्रक्रिया में बंगाल अन्य प्रान्तों की अपेक्षा पहले की ही तरह अब भी आगे है ।
बिजली के भिन्न भिन्न उपयोगों के सम्बन्ध के यन्त्रों का पेटेन्ट कराने के लिए इस वर्ष गतवर्ष के मुक़ाबिले में ७० फ़ीसदी अधिक दरख्वास्तें आई । परन्तु इनमें भारत की लगभग ८ फ़ीसदी ही रहीं । यह प्रसन्नता की बात है। कि बिजली - सम्बन्धी यन्त्रों के आविष्कारों की ओर लोगों का ध्यान विशेषरूप से रहा है। इसी तरह खेती के छोटे छोटे यन्त्रों के आविष्कारों की ओर भी भारतीय श्राविकारकों ने विशेष रूप से ध्यान दिया है और उनमें भी सिंचाई सम्बन्धी यन्त्रों का आविष्कार करने में । इस प्रकार के यन्त्रों के निर्माण में पंजाबवालों ने विशेष रूप से दिल - चस्पी दिखाई है ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १]
सम्पादकीय नोट
संयुक्त-प्रान्त में हिन्दी और उर्दू
राष्ट्र-भाषा का प्रश्न प्रान्तीय सरकार की शासन-रिपोर्ट अभी हाल में निकली अभी तक हिन्दीवालों की यही धारणा थी कि है। उससे प्रकट होता है कि रिपोर्ट के साल हिन्दी में राष्ट्र-भाषा का प्रश्न तय हो गया है और हिन्दी भारत की २,२४०, उर्दू में ३७८ और संस्कृत में १२८ पुस्तकें राष्ट्र-भाषा के रूप में स्वीकार कर ली गई है । परन्तु प्रकाशित हुई। और इन पुस्तकों की एक तिहाई पुस्तकें जान पड़ता है कि यह प्रश्न अभी तय नहीं हुआ है और कविता में निकलीं, शेष गद्य में निकलीं, जिनमें ५०५ हिन्दीवाले भ्रम में रहे हैं । इन्दौर के सम्मेलन के १६ वें भाषा की, ३३२ धर्म-विषयक, २२७ उपन्यास, २८६ प्रस्ताव-द्वारा इस मामले पर पूरा प्रकाश पड़ता है । उस प्रकृति-विज्ञान, गणित तथा यंत्र-विज्ञान-विषयक तथा प्रस्ताव में कहा गया है कि इस सम्बन्ध में 'हिन्दुस्तान के २०७ इतिहास एवं भूगोल-सम्बन्धी पुस्तकें निकलीं। भिन्न भिन्न प्रान्तों में कुछ ग़लतफ़हमी फैली हुई है', अतएव
रिपोर्ट में उर्दू की पुस्तकों के सम्बन्ध में लिखा गया 'यह सम्मेलन घोषित करता है कि राष्ट्र-भाषा की दृष्टि से है कि गुण और परिमाण की दृष्टि से उर्दू इस वर्ष गिरी हिन्दी का वह स्वरूप मान्य समझा जाय जो हिन्दू-मुसलरही । परन्तु हिन्दी के ग्रन्थ-प्रणेताओं ने मुस्तैदी दिखाई है मान आदि सब धर्मों के ग्रामीण और नागरिक व्यवहार
और उन्होंने विज्ञान, कृषि, पशु-विज्ञान, प्रसूतिशास्त्र, करते हैं, जिसमें रूढ़ सर्वसुलभ अरबी, फारसी, अँगरेज़ी स्वास्थ्य, ग्रामसुधार तथा चरित-विषयक ग्रन्थों की रचना या संस्कृत शब्दों या मुहाविरों का बहिष्कार न हो और की ओर विशेष ध्यान दिया है।
जो नागरी या उर्दू लिपि में लिखी जाती हो ।' ___ समाचार-पत्रों तथा मासिक-पत्रों की संख्या ६६६ सम्मेलन की इस घोषणा का यह मतलब निकलता बताई गई है, जिनमें ६१ नये हैं । इनमें २७ दैनिक, ८ है कि वह वर्तमान साहित्यिक हिन्दी या उर्दू को राष्ट्र-भाषा अर्द्ध साप्ताहिक, २३१ साप्ताहिक और २५६ मासिक हैं। नहीं स्वीकार करता, किन्तु उसके लिए एक ऐसी भाषा का
इनमें ६२ अँगरेज़ी के, २६५ उर्दू के और २३३ संकेत करता है जिसको अभी कोई साहित्यिक रूप नहीं हिन्दी के हैं । इनमें से २ अँगरेज़ी के, ३ उर्दू के और प्राप्त हुआ है, पर सब धर्मों के लोग जिसका बोलचाल में ६ हिन्दी के पत्रों में से प्रत्येक की ग्राहक-संख्या ४ हज़ार व्यवहार करते हैं । एक शब्द में उसका नाम 'हिन्दुस्तानी' से ऊपर है । इसी तरह ३ अँगरेज़ी के, ४ उर्दू के और या 'हिन्दोस्तानी' हो सकता है। प्रयाग की 'हिन्दुस्तानी ११ हिन्दी के पत्रों में से प्रत्येक की ग्राहक संख्या दो हज़ार एकेडमी' का भी यही उद्देश है और उसके प्रधान सर से चार हज़ार तक है । ५३.४ फ़ी सदी हिन्दू, ४१.२ फी तेजबहादुर सपू ने भी अभी हाल में लन्दन में अपने एक सदी मुसलमान तथा ५.४ फ़ी सदी ईसाई सम्पादक उप- भाषण में उक्त घोषणा जैसी ही बात कही है । 'सम्मेलन' ने युक्त पत्रों का सम्पादन करते हैं । यह विवरण कहाँ तक अपनी घोषणा से इस सम्बन्ध की 'ग़लतफ़हसी' दूर करके सन्तोषप्रद है, यह विचारणीय है। भले हिन्दी या बहुत अच्छा काम किया है । आशा है, हिन्दीवालों का उर्दूवाले अपने अपने प्रकाशन के प्रतिवर्ष बढ़ते हुए भ्रम दूर हो जायगा और वे यह बात गाँठ बाँध रक्खेंगे
आँकड़ों को देखकर अपने अपने साहित्य की उन्नति का कि उनकी 'हिन्दी' 'हिन्दुस्तान' की राष्ट्र-भाषा नहीं है, दम्भ किया करें, परन्तु यहाँ की जन-संख्या और संस्कृति किन्तु वह भाषा राष्ट्र-भाषा होगी जिसे सब धर्मों के ग्रामीण को देखते हुए उनके ये आँकड़े कुछ भी नहीं हैं। इन और नागरिक व्यवहार में लाते हैं तथा जो हिन्दी या उर्दू
आँकड़ों से एक यह बात भी प्रकट होती है कि उर्दू का में लिखी जाती है । इस सम्बन्ध में खेद की बात इतनी हिन्दी की अपेक्षा यहाँ ज़्यादा प्रचार है। इन प्रान्तों में ही है कि राष्ट्रभाषा के इस रूप का समर्थन करनेवाली मुसलमानों की आबादी कुल १४ फ्री सदी है । परन्तु यहाँ भारत की एक-मात्र संस्था 'हिन्दुस्तानी एकेडमी' अभी उर्दू के पत्रों और सम्पादकों की संख्या ज्यादा हैं । तक उसको लिखित रूप में नहीं ला सकी। क्या हम
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
आशा कर सकते हैं कि 'सम्मेलन' ही इस पुनीत कार्य का भार अपने ऊपर लेकर इस जटिल प्रश्न की मीमांसा सदा
अलमोड़े का वसन्त के लिए कर डालने का श्रेय लेगा ?
गत अङ्क में उपर्युक्त शीर्षक में पन्त जी की एक
कविता प्रकाशित हुई थी । हमारे कुछ मित्रों को उसकी हिन्दुस्तानी एकेडेमी का नया आयोजन ।
प्रथम चार पंक्तियों के अर्थ में भ्रम हुअा है। इसकी 'सरस्वती' के गत अंक में हमने एकेडेमी के जिस
सूचना हमने पन्त जी को दी। कविता का जो स्पष्टीकरण नूतन प्रकाशन का उल्लेख अपने एक नोट में किया था वह
पन्त जी ने एक प्राइवेट पत्र में किया है उसे हम यहाँ जिस ग्रन्थमाला के रूप में होगा उसका उद्देश कला और
ज्यों का त्यों छापते हैं। श्राशा है, अब लोगों का भ्रम विज्ञान तथा उसके भिन्न भिन्न अंगों पर सस्ती सार्वजनिक
दूर हो जायगा, साथ ही 'सरस्वती' के पाठकों का भी उपयोग की पुस्तके प्रकाशित करना होगा । इस ग्रन्थमाला
मनोविनोद होगा। की प्रत्येक पुस्तक का मूल्य साधारणतया १) रक्खा जायगा
___ "विद्रम मूंगा (नव पल्लव); मरकत -- पन्ना और प्रत्येक पुस्तक की छपाई, जिल्द, आकार-प्रकार तथा
(हरे पत्र); लाल और हरे पत्रों का मिश्रित वर्ण (छाया)। पृष्ठ-संख्या समान होगी। प्रत्येक पुस्तक प्रायः २०० पृष्ठों
सोने चाँदी का सूर्यातप । प्रातः-सन्ध्या की सुनहरी धूप; की होगी।
मध्याह्न की चाँदी की धूप। वसन्तागम के करीब दिगन्त पुस्तकें साधारण बोलचाल की भाषा और सरल शैली
में धूल भरी रहने के कारण भी यहाँ के सूर्यास्त अधिक में लिखी जायँगी और इनमें भिन्न भिन्न विषयों के सम्बन्ध
रक्तिम होते हैं एवं दोपहर अधिक चमकीले । हिमकी अपटुडेट और प्रामाणिक पाठ्य सामग्री रहेगी।
परिमल-श्रोस-वाष्प एवं सुगन्ध से पूर्ण रेशमी वायु । एकेडेमी का यह कार्य वास्तव में अधिक लोकोप
अर्थात् कोमल-उष्ण चमकीली वायु । हेमन्त की अत्यन्त योगी जान पड़ता है। इधर पिछले दिनों वह चुपचाप
ठण्डी वायु के बाद वसन्त की वायु गरमी लिये अत्यधिक ही अपना निर्दिष्ट कार्य करती रही है। परन्तु उसकी वह
प्रिय लगती है। साथ ही शीत-काल की जड़ता के बाद नीति कदाचित् उसके अधिकारियों को उसके उपयुक्त
पहाड़ों पर वसन्त ऋतु में वायु में अधिक उज्ज्वलता एवं नहीं प्रतीत हुई। इसी से उसने अपने कार्य का उक्त
कोमलता आ जाती है। शतरत्न-छाय-सौ सौ रत्नों के आयोजन ही नहीं किया है, किन्तु वह अब पहले
रंगों के नभ पर जिसमें उड़ते हुए पक्षी ऐसे लगते हो की भाँति साहित्यिक जलसा भी किया करेगी जैसा
मानो किसी ने नीले रेशम पर चित्रित कर दिये होंकि उसकी 'कार्यकारिणी समिति' की विज्ञप्ति से प्रकट
खग-चित्रित नभ । अल्मोड़े की घाटी के दोनों छोर होता है। समिति ने यह निश्चय किया है कि आगामी
रंग-विरंगे फूलों से ढंक जाने पर तितली के पंखों से जाड़े के दिनों में एक साहित्यिक सम्मेलन किया जायगा,
__ लगते हैं-अतः चित्रशलभ-सी पंख खोल उड़ने को जिसमें हिन्दी-उर्दू के विद्वान् एकत्र होकर साहित्यिक
है उद्यत घाटी। इसका पाठान्तर यां भी है लो चित्रविषयों पर विचार करके इस बात का उपाय ढूँढेंगे कि .
शलभ-सी पंख खोल उड़ने को है कुसुमित घाटी।" हिन्दी-उर्दू-साहित्य की उन्नति में सहायता कैसे पहुँचाई
. श्राशा है इससे आपको 'अल्मोड़े का वसन्त' की जाय । इस सम्मेलन में अनेक साहित्यिक विषयों पर लेख
प्रथम चार पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट हो जायगा। पढ़ने तथा व्याख्यान देने का भी प्रबन्ध रहेगा।
हम हृदय से चाहते हैं कि एकेडेमी अपने प्रयत्न में सपल-मनोरथ हो ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या १ ]
कर्सियाङ्ग में मारवाड़ी सार्वजनिक पुस्तकालय
कर्सियाङ्ग (दार्जिलिङ्ग) में पिछले चार वर्षों से कतिपय मारवाड़ी नवयुवकों ने एक सार्वजनिक पुस्तकालय स्थापित कर रक्खा । इतने ही समय में इस संस्था ने कर्सियाङ्ग के बाहर के लोगों का भी ध्यान आकर्षित किया है और श्री घनश्यामदास बिड़ला जैसे लोग इसका निरीक्षण भी कर आये हैं । कर्सियाङ्ग जैसे स्थान में उत्साह के साथ हिन्दी द्वारा ज्ञान प्रचार का जो कार्य हो रहा है वह प्रशंसनीय है और प्रवासी हिन्दी भाषियों के लिए अनुकरणीय है । आशा है, यह संस्था इसी प्रकार उन्नति करती जायगी ।
सम्पादकीय नोट
देव पुरस्कार
के सम्बन्ध में हमें निम्न सूचना प्राप्त
उपर्युक्त पुरस्कार हुई है
सर्वसाधारणको सूचित किया जाता है कि इस वर्ष सवाई महेन्द्र महाराजा श्रीमान् वीरसिंहदेव ओरछा - नरेश द्वारा प्रदत्त दो सहस्र रुपये का देव पुरस्कार खड़ी बोली के पद्य-ग्रन्थों पर दिया जायगा ।
प्रतियोगिता में सम्मिलित होनेवाले ग्रन्थों की ग्यारह ग्यारह प्रतियाँ ३१ जुलाई सन् १९३५ तक पुरस्कार समिति में जानी चाहिए |
देव- पुरस्कार के लिए जीवित कवियों के दो वर्ष के भीतर प्रकाशित ग्रन्थ पर ही विचार किया जायगा । पर वह ग्रन्थ ग्रन्थ कहलाने योग्य अवश्य होना चाहिए | विषय और छन्द का चुनाव कवि की इच्छा पर निर्भर है । विशेष जानने के लिए पत्र-व्यवहार कीजिए । गौरीशङ्कर द्विवेदी 'शङ्कर' प्रधान मंत्री, श्री वीरेन्द्रकेशव-साहित्य-परिषद् टीकमगढ़, ओरछा राज्य
महात्मा गांधी और प्रार्थना
ईश- प्रार्थना के सम्बन्ध में महात्मा गांधी 'हरिजनसेवक' में लिखते हैं
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
९५
जब कोई मनुष्य गिर पड़ता है तब उठने के लिए वह ईश्वर से प्रार्थना करता है । तामिल भाषा में एक कहावत है कि वह निराधारों का आधार है । कोयटा का यह भयंकर महानाश मनुष्य की बुद्धि को चक्कर 'डाल देता है । यह हमारे पुनर्निर्माण के तमाम प्रयत्नों पर पानी फेर देता है । इस महानाश के विषय में सम्पूर्ण सत्य शायद कभी मालूम न हो सकेगा। जो बेचारे इस दुर्घटना में मर गये उन्हें फिर से जीवन-दान नहीं दिया जा सकता ।
पर मनुष्य को तो अपना प्रयत्न जारी रखना ही चाहिए । जो बच गये हैं उन्हें सहायता अवश्य मिलनी चाहिए। ऐसा पुनर्निर्माण जहाँ तक संभव है, किया जायगा । पर यह सब और इसी प्रकार का और भी काम ईश्वर-प्रार्थना का स्थान नहीं ले सकता ।
मगर प्रार्थना ही क्यों की जाय ? अगर कोई ईश्वर है तो क्या उसे इस भयंकर दुर्घटना का पता न होगा ! उसे क्या इस बात की आवश्यकता है कि पहले उसकी प्रार्थना की जाय तब कहीं वह अपना कर्त्तव्य पालन करे ।
नहीं, ऐसी बात नहीं है, ईश्वर को याद दिलाने की कोई ज़रूरत नहीं । वह तो घट-घट का वासी है। बिना उसकी आज्ञा के एक पत्ता भी नहीं हिल सकता । हमारी प्रार्थना तो सिर्फ़ इसलिए है कि हम अपने अन्तर का शोधन करें । प्रार्थना के द्वारा तो हम खुद अपने को यह याद दिलाते हैं कि उसके अवलम्ब के बिना हम सब कितने समर्थ और असहाय हैं । हमारा कोई भी प्रयत्न बिना ईश्वर-प्रार्थना के विफल ही है। वह प्रयत्न तब तक किसी प्रकार पूर्ण नहीं कहा जा सकता जब तक उसमें प्रार्थना का पुट न हो । मनुष्य के जिस प्रयत्न के पीछे ईश्वर का आशीर्वाद नहीं वह कितना ही अच्छा क्यों न हो, बेकार हो जाता है । यह एक मानी हुई बात है । प्रार्थना से हम विनम्र बनते हैं । वह हमें ग्रात्म-शुद्धि की ओर ले जाती है, अंतर निरीक्षण करने के लिए प्रेरणा देती है ।
जो बात मैंने बिहार के भूकम्प के समय कही थी उसे मैं आज भी कहूँगा। हर एक भौतिक विपत्ति के पीछे
www.umaragyanbhandar.com
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
--+
+
+
कोई-न-कोई ईश्वरीय अभिप्राय रहता है । एक समय ऐसा साम्यवादियों के बीच में, पारस्परिक मतभेद बढ़ते ही आयेगा जब पूर्ण विज्ञान की बदौलत पहले से ही हमें जाते हैं । भूकम्प श्राने की बात उसी तरह मालूम हो जायगी जिस यह मेरा विश्वास है, जिसे समय समय पर मैं प्रायः तरह कि हमें ग्रहण पड़ने की खबर पहले से ही मालूम हो प्रकट करता रहता हूँ कि इस सारे झगड़े की जड़-हृदयजाती है। मनुष्य के दिमाग़ी ज्ञान की यह एक और विदारक, संहारकारी और शक्ति नष्ट करनेवाली कलह का विजय होगी। पर ऐसी एक नहीं असंख्य विजयों से भी असली कारण यह है कि कांग्रेस का पुराना दल हमेशा
आत्मा की शुद्धि नहीं हो सकती, और बिना श्रात्मशुद्धि के ही इस बात की व्याख्या करने से दूर भागता है, बचता सब व्यर्थ है।
फिरता है कि हिन्दुस्तान के लिए किस तरह की सामाजिक इसमें कोई मन्देह नहीं कि जिस प्रकार हम बिहार की व्यवस्था उपयुक्त होगी और समाज की शिक्षा-सम्बन्धी, विपदा को भूल गये हैं, उसी प्रकार कोयटा की इस महा- आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक नीतियाँ क्या होगी। विपदा को भी भूल जायँगे । जो लोग अात्मशुद्धि की किन्तु यह बात मैं निस्संकोच भाव से कहता हूँ कि श्रावश्यकता में विश्वास करते हैं, मैं उनसे कहूँगा कि वे वर्तमान शाब्दिक संग्राम के लिए मुख्यतया कांग्रेस कार्यमेरे साथ प्रार्थना में शरीक हों ताकि ऐसी दारुण विपत्तियों समिति अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी और उसके नेता में हम ईश्वर के अभिप्राय को समझ सकें और जब कभी ज़िम्मेदार हैं। आज कांग्रेस के भारत की अनिश्चित ऐसी विपदा आवे तब हम विनम्र भाव से अपने सिरजन- अवस्था के लिए उक्त संस्थायें ही दोषी हैं। यह उनका हार की शरण लेकर बिना किसी तरह के भेदभाव के कर्तव्य है कि वे अपने उद्देश की व्याख्या स्पष्ट और अपने विपद्ग्रस्त भाइयों की सेवा-सहायता कर सकें। सरल शब्दों में कर दें। जिस स्वराज्य के लिए हम इतने
दिन से लड़ रहे हैं और आगे भी लड़ते रहेंगे वह क्या है, कांग्रेस में दलबन्दी
. इसका खुलासा क्यों नहीं कर दिया जाता ? कांग्रेसमैन कांग्रेस की दलबन्दी के सम्बन्ध में डाक्टर भगवानदास ठीक ठीक अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर रहे हैं, बिलने श्रीमती कमलादेवी चटोपाध्याय को एक विचार-पूर्ण कुल अपूर्ण करांची के प्रस्ताव को ही वे सब कुछ समझ पत्र लिखा है। उस पत्र का कुछ अंश यह है-- कर सन्तोष कर बैठ गये हैं, कांग्रेस-साम्यवादियों के साथ
प्रिय श्री कमलादेवी, पत्रों में प्रकाशित जबलपुर दिल खोल कर हृदय से विचार-विनिमय नहीं करती। यही ' की कार्यवाहियों की रिपोर्ट पढ़ी है। यह देखकर मुझे कारण है कि कांग्रेस-साम्यवादी अाज विपथगामी हुए जा
अतीव कष्ट होता है कि कांग्रेस के पुराने दल और कांग्रेस रहे हैं।
A
· Printed and published by K. Mittra, at The Indian Press, Lul., Allahabad,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmeswemiyemtoa
mara, Suita
www.umaragyanbhandar.com
TITAM TIZIE
59
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
सचित्र मासिक पत्रिका
अगस्त १६३५ }
सम्पादक
देवीदत्त शुक्ल श्रीनाथसिंह
भाग ३६, खंड २ संख्या २, पूर्ण संख्या ४२८
ग्राकांक्षा
लेखक, श्रीयुत सुमित्रानन्दन पंत
मैं
भर पड़ता जीवन- डाली से पतझड़ का-सा जीर्ण-पात ! - केवल, केवल जग-कानन में लाने फिर से मधु का प्रभात !
मधु का प्रभात ! - लद-लद जातीं वैभव से जग की डाल-डाल, कलि-कलि, किसलय में जल उठती सुन्दरता को स्वर्गीय ज्वाल ! नव मधुप्रभात ! — गूंजते मधुर उर-उर में फिर आशाऽभिलाष, सुख-सौरभ, जीवन कलरव से भर जाता सूना महाकाश !
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
{ श्रावण १६६२
: मधु-प्रभात ! जग के तम में भरती चेतना अमर प्रकाश, मुरझाये मानस-मुकुलों में पाती नव मानवता विकास !
मधु- प्रात! - मुक्त नभ में सस्मित नाचती धरित्री मुक्त पाश, रवि-शशि केवल साक्षी होते अविराम प्रेम करता प्रकाश !
मैं भरता जीवन- डाली से साह्लाद, शिशिर का शीर्ण-पात, फिर से जगती के कानन में आ जाता नव मधु का प्रभात !
www.umaragyanbhandar.com
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वराज्य क्या है ?
Shree
लेखक, श्रीयुत भाई परमानंद,
राज्य' शब्द ऐसा आम हो गया है कि हमको कभी ख़याल भी नहीं आता कि जरा इसका वास्तविक अर्थ समझने का प्रयत्न करें । इस समय यदि किसी बच्चे से भी पूछा जाय तो वह कह देगा कि हम स्वराज्य प्राप्त करना चाहते हैं। उसने अपने मन में स्वराज्य का कोई-न-कोई चित्र भी ज़रूर बना रक्खा होगा । परन्तु वह चित्र कोई हक़ीक़त रखता है या सिर्फ खयाल है, यह बात वह बच्चा नहीं जानता । पाठक यह सुन कर हैरान हो जायेंगे अगर मैं यह कह दूँ कि कांग्रेस और हिन्दू महासभा के बीच में भेद या ग़लतफ़हमी का कारण ही यह है कि यद्यपि दोनों स्वराज्य प्राप्त करना चाहते हैं, तथापि वास्तव में वे स्वराज्य को एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न समझते हैं। यदि आज हम इस बात का फ़ैसला कर लें कि स्वराज्य किसे कहते हैं तो हमारे बहुत-से पारस्परिक मतभेद तुरन्त दूर हो जायँ ।
'स्वराज्य' का शाब्दिक अर्थ 'अपना राज्य' या 'सेल्फ-गवर्नमेंट' है । राज्य-शब्द के प्रयोग में भी बहुत
९८
श्रीभाई जी हिन्दुत्रों के एक परम आदरणीय नेता हैं । कांग्रेस से आपका मतभेद है और उस मतभेद को आपने सदैव ज़ोर के साथ प्रकट किया है । स्वराज्य किसे कहते हैं ? इस प्रश्न का श्राप कांग्रेस से भिन्न उत्तर रखते हैं। इस लेख में आपने अपने उसी भिन्न दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है ।
एम० ए०, एम० एल० ए०
'स्व
मतभेद हो सकता है । एक मनुष्य 'राज्य' का अर्थ राजसत्तात्मक गवर्नमेंट करता है तो दूसरा इसका अर्थ प्रजासत्तात्मक गवर्नमेंट समझता है। एक भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत रहते हुए 'सेल्फ-गवर्नमेंट' को स्वराज्य कह देता है तो दूसरा इसके अर्थ ब्रिटिश गवर्नमेंट से स्वतंत्र होना समझता है। विधायक रूप के संबंध में इस प्रकार के भेद-भाव हमारे दर्मियान हो सकते हैं, परन्तु जिस भेद को मैं यहाँ प्रकट करना चाहता हूँ वह स्वराज्य- शब्द के पहले भाग 'स्व' के सम्बन्ध में है ।
'स्व' का अर्थ 'अपना' या 'सेल्फ' है । परन्तु तुरन्त ही यह प्रश्न उठता है कि 'अपना' - शब्द में हम किसको सम्मिलित करते हैं। हमारे कुछ भाई तो यह कह देंगे कि इस प्रश्न के हल करने में दिक्कत ही क्या है; 'अपना' - शब्द में वे सब लोग शामिल हैं जो इस देश में रहते हैं । परन्तु मैं इस प्रश्न को इतना आसान नहीं समझता । मैं यह पूछूंगा कि अगर इंग्लैंड की गवर्नमेंट यहाँ भारत में कोई ऐसा वाइसराय भेज दे जो यहाँ आकर हमेशा के लिए. आबाद हो जाय और अपने शासन के रक्षार्थ समय समय पर इंग्लैंड से अपने आदमियों को बुलाता रहे तो क्या वह राज्य हमारे लिए 'स्वराज्य' होगा या नहीं ? कुछ सज्जन कह देंगे कि
"
Thai Sahin.
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २ ]
यह तो काल्पनिक बात है । मैं यह बताना चाहता हूँ कि यह बात काल्पनिक नहीं है । इस देश में मुग़लों का राज्य था । मुग़लों से पहले अन्य कई मुसलमान वंशों की हुकूमत रही। वे शासक और उनके सिपाही जिनको वे साथ लाये थे, इस देश के निवासी बन गये । क्या उस युग के हिन्दुओं ने उस राज्य को अपना राज्य समझा या ग़ैरों का ? अगर उन्होंने उसे ग़ैरों का समझा तो क्या वे ग़लती पर थे या जिन लोगों ने उन विदेशी शासकों को अपना समझा वे सचाई पर थे ?
स्वराज्य क्या है ?
इस बात को स्पष्ट करने के लिए हमें समझ लेना चाहिए कि स्वराज्य लेने के दो विभिन्न तरीक़ हैं । एक तो यह कि हम राज्य की शकल को बदल दें और दूसरा यह कि हम अपनी शकल को बदल लें । इस देश पर जब मुसलमानों ने आक्रमण किये और स्थान-स्थान पर अपना शासन क़ायम करने का प्रयत्न किया तब भारत की हिन्दू आबादी में दो प्रकार के मनुष्य पाये जाते थे । एक वे थे जिन्होंने यह समझा कि उनके लिए स्वराज्य लेना बहुत मामूली बात है । उन्होंने अपना धर्म छोड़ दिया, अपने पूर्वजों को तिलांजलि दे दी, अपनी जातीयता को त्याग दिया और इस्लामी मज़हब इख्तियार कर लिया । मुसल मान होते ही वे इस्लामी राज्य को अपना राज्य समने लगे । उनके लिए स्वराज्य लेने का तरीका बहुत आसान था । केवल 'स्व' को बदल लेने से, विना किसी प्रकार का बलिदान किये, बिना किसी चरित्र के, बगैर किसी मेहनत के उन्होंने स्वराज्य प्राप्त कर लिया । उस समय जितने लोग स्वधर्म तथा स्वजाति को छोड़कर मुसलमान बन गये वे महमूद ग़ज़नवी और तैमूर को अपना भाई समझने लगे और नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के हिन्दुओं पर किये गये अत्याचार उन्हें हर्ष एवं गर्व प्रदान करनेवाले कार्य दिखलाई पड़ने लगे । और, आज उन लोगों के वंश के जितने मुसलमान भारत आबाद हैं उन सबके लिए इस्लामी शासन स्वराज्य
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
९९
हो गया है । भारत के इतिहास के सम्बन्ध में उनका दृष्टिकोण हो बदल गया है। स्वराज्य-प्राप्ति का यह एक निहायत आसान तरीका है ।
एक अन्य तरीक़ा था जिससे दूसरे लोगों ने स्वराज्य प्राप्त करने का प्रयत्न किया । उसका एक उदाहरण हमें राजपूतों के इतिहास में मिलता है । उसका दूसरा उदाहरण हमें महाराज शिवाजी और मराठों के उत्कर्ष में मिलता है। उसका एक और उदाहरण हमें गुरु गोविंदसिंह, वीर वैरागी और सिक्ख साम्राज्य में मिलता है। राजपूतों, मराठों और सिक्खों ने भी स्वराज्य प्राप्त किया। स्वराज्यप्राप्ति का इनका तरीक़ा पहले तरीके से सर्वथा विरुद्ध था । इन्होंने बड़े भारी बलिदान किये, बड़ी-बड़ी यातनायें उठाई, अपने कुटुम्बियों एवं महिलाओं तक को क़त्ल करवा दिया। इस प्रकार इन्होंने अपनी गिरी हुई जाति के अंदर सचरित्र उत्पन्न किया और नवजीवन संचार किया। यह उसी नये जीवन की बदौलत था कि महाराष्ट्र के मामूली देहातियों ने और पंजाब के ग्रामीणों ने अपने-अपने साम्राज्य बना लिये । परन्तु स्वराज्य - प्राप्ति का यह तरीका इस लेख के विचार के बाहर की है 1
बात
खैर, इन लोगों ने 'स्व' का अर्थ बिलकुल दूसरा समझा। इनके 'स्व' या 'सेल्फ' और उनके 'स्व' या 'सेल्फ' में जमीन-आसमान का फर्क है। थोड़ी देर विचार करने से मालूम होगा कि वे लोग मिस्त्रियों और ईरानियों के समान थे जिन्होंने अपनी जातीयता का नाम मिटा दिया और अपने आपको एक विदेशी जाति के अंदर जज्ब करवा दिया। नस्ल और खून, जाति और रक्त की जो अखंडता हजारों सालों से उनकी रगों में चली आती थी उसे उन्होंने मिटा दिया और अपनी कायरता या पतन के कारण कुछ से कुछ बन गये । यह अखंडता जातीयता है; यही जाति का जीवन और उसकी आत्मा है। जो लोग इस अखंडता को मिटाकर दूसरे तरीके से स्वराज्य
www.umaragyanbhandar.com
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
प्राप्त करना चाहते हैं उनका स्वराज्य गर्हणीय है । उनके स्वराज्य की अपेक्षा मृत्यु हज़ार दर्जे बेहतर है।
वर्तमान काल में हमारे सामने स्वराज्य की वही दोन शकले विद्यमान हैं। हमारे कांग्रेसी भाई हैं जो इस जातीय अखंडता को इसलिए मिटा देना चाहने हैं कि उन्हें स्वराज्य प्राप्त हो जाय। वे कहते हैं कि भारत के पुराने इतिहास को भुला दो; महाराज शिवाजी, महाराना प्रताप, गुरु गोविंदसिंह और वीर वैरागी को भूल जाओ, क्योंकि उनको जातीयता का ठीक ज्ञान न था । आज हमको जातीयता का ठीक-ठीक ज्ञान है; न हमें हिन्दूत्व की परवा है, न हिन्दू - इतिहास की; हम तो स्वराज्य लेना चाहते हैं। हमने एक नई जातीयता ढूँढ़ निकाली है, जिसमें पिछला सारा जमाना मिट जायगा और इस देश में एक नई जातीयता उत्पन्न होगी। मैं इस 'थियरी' या कल्पना को बिलकुल ग़लत समझता हूँ। यह उन लोगों का सा ख़याल है जिन्होंने मुग़लों के समय में बड़ी आसानी के साथ स्वराज्य लेना चाहा। उन्होंने अपना 'स्व' बदल लिया । हमारे ये भाई भी अपना 'सेल्फ' मिटा देना चाहते हैं। मैं ऐसे स्वराज्य को धिक्कार देता हूँ। अगर हमें इसी तरीके से स्वराज्य
जीवन की ज्योतिर्धारायह किसके ललाट पर चमका प्राची का प्रभात-तारा ?
सरस्वती
[ भाग ३६
लेना है तो इससे भी ज्यादा एक और आसान तरीक़ा है । हम सब अपना धर्म छोड़कर ईसाई बन जायें। हमारा 'स्व' इंग्लेंड के लोगों का 'सेल्फ' हो जायगा और हम स्वतन्त्र हो जायेंगे। यह बात कि इससे हमें वास्तविक स्वतन्त्रता मिलेगी या नहीं, सर्वथा असंगत है । सवाल तो सिर्फ समझने का है । हम अपने 'स्व' को मिटाकर उसे इंग्लेंड के 'स्व' में जज्ब करवा देंगे तो इंग्लेंड का राज्य हमारे लिए स्वराज्य का समानार्थक हो जायगा ।
जीवन की ज्योतिर्धारा
प्रतिगुंजित पल्लव- पल्लव पर
तो
!
हिम का प्रखर स्रोत प्यारा ? ज्योतिर्वाण जीवन की ज्योतिर्धारा जन
महाकाश के नील नीड में
भर जाने दे तनिक- रश्मियों से मेरी तमसा द्वारा ! मंगलमय यह बेला, नोरवंवातावरण, शान्त उपवन-वन; द्रुमद्रुम पर, उत्पल - उत्पल पर छारे सफल कामना उन्मन !
जीवन की ज्योतिर्धारासंचित कर दे नव कलियां में अपना स्नेह-पुलकसारा !
जागे पद्म - मुकुल - मानस में सुख मधु - नैश- जागरित अलिगण;
सिहरा क्यों यह विश्व विहङ्गम ? लेखक. श्रीयुत सप्रसाद सिंह
किरणों की स्वर्णाभ शलाका भेद चली तम का अन्तर्तम !
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
एक अन्य युक्ति जो मैं इस ' थियरी' या कल्पना के विरुद्ध देना चाहता हूँ वह यह है कि हम हिन्दू अपने आपको चाहे कितना ही भुला दें और नई जातीयता की खातिर हिन्दू-जातीयता को मिटा दें, पर पिछला सारा अनुभव हमें यही बतलाता है कि मुसलमान लोग कांग्रेस की इस थियरी को मानने के लिए बिलकुल तैयार नहीं हैं। वे किसी भी अवस्था में न इस्लाम को भुलायेंगे और न नई जातीयता को ग्रहण करेंगे । इसलिए कांग्रेस की यह थियरी जहाँ तर्क की दृष्टि से बिलकुल गलत है, वहाँ क्रियात्मक दृष्टि से भी सर्वथा संभाव्य है ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
जापान के रास्ते में
सरस्वती के विद्वान लेखक श्रीमान राहुल सांकृत्यायन जी इस बार जापान गये हैं । आपने संस्कृत के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का तिब्बती- अनुवाद से उद्धार किया है। उसके उपोद्घात लिखने की सामग्री प्राप्त करने के लिए ही आपने सुप्राच्य की यह लम्बी यात्रा की है। इस लेख में आपने अपने शंघाई पहुँचने का हाल लिखा है और यह भी बताया है कि चीन की राष्ट्रीय सरकार का और चीन बोल्शेविकों का कैसा संघर्ष हो रहा है।
शाड़-घाई
ग्रन्योमारू
२ ५ ३५ अप्रेल को उठकर केबिन के छिद्र से देखा । ग्रासमान में कुहरा छाया हुआ था । कहाँ मई का महीना और कहाँ कुहरा ! प्रायः दिन भर कुहरा ही रहा । जहाज़ हर दस दस मिनट पर इसलिए भोंपू बजाता था कि अँधेरे से आकर कोई जहाज़ टकरा न जाय । आवाज़ अच्छी नहीं मालूम होती थी। मालूम होता था, जंगल में कोई भैंस केली पड़ गई है और चिल्ला रही है । २६ तारीख को दोपहर को हम २६ अक्षांश में जा रहे थे, अर्थात् प्रायः बनारस के बराबर के। उस वक्त बनारस में कैसी गर्मी पड़ती होगी, दोपहर को घर से बाहर निकलना कितना मुश्किल होता होगा, यह तो वहाँ के रहनेवाले ही जानते होंगे । यहाँ दोपहर को भी टेम्परेचर सिर्फ़ ६३ डिग्री था। मालूम होता था, गर्मी का मौसिम है ही नहीं । मुझे तो रह रह कर भ्रम हो जाता था कि हम दक्षिणी गोलार्द्ध के २६ अक्षांश में तो नहीं जा रहे हैं ।
२८
३० तारीख को सर्दी और अधिक बढ़ गई । डेक पर जाने पर मालूम होता था, हम बनारस के माघपूस में हैं । आज १२ बजे हमारा जहाज़ याङ्-सी महानद और सागर के संगम पर पहुँचा । याङ-सी की महाजल - राशि समुद्र के जल को अपना रंग दे रक्खा है । आज हमें रास्ते में बहुत-से द्वीप मिले । सभी थे पहाड़ी । दाहनी ओर के द्वीप की खाड़ी में सैकड़ों मा नौकायें थीं । बाई ओर दूर, पीछे की ओर हटकर, समुद्र में एक पहाड़ दिखाई पड़ रहा था । हमारे ग्रास्ट्रियन साथी हर हन्कल बतला रहे थे कि वह रमणीय द्वीप बौद्ध मठों से भरा है और उसका नाम 'पोतो' है। ल्हासा में भी मैंने सुना था कि चीन में भी पोतला नाम का एक द्वीप है, जिस पर बहुत से मठ और मन्दिर हैं, और जो बहुत हरा-भरा है । शायद वह यही पोतोate होगा ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
पानी सभी जगह एक-सा न था । कहीं उथला पानी न आ जाय और जहाज़ वहीं फँस जाय, इस लिए अन्य मारू देर तक मार्गदर्शक स्टीमर की प्रतीक्षा करता रहा । कुछ दूर तक याङ्-सी में चलने के बाद वह बाई ओर से आनेवाली बाङ-पू नदी में
लेखक, श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन
१०१
www.umaragyanbhandar.com
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
सरस्वती
[भाग ३६
[शाङ्-घाई जापान द्वारा ध्वस्त नगर में खेती]
मुड़ा । यह नदी छोटी है । शाङ्-घाई इसी नदी के तट पर बसा हुआ है। यद्यपि जहाज़ अँधेरा होते ही शाङ्घाई पहुँच गया था, तो भी उस वक्त हम क्या देखते ? और फिर यह चीन है। शाङ्-धाई के विदेशी अधिकृत भाग से भी तो डाकू आदमियों को पकड़ ले जाते हैं। हमारा प्रफ़ देखना समाप्त हो गया था। हमने उसके और यात्रा के प्रथम खंड का पार्सल बना लिया। चिट्ठियाँ भी तैयार कर रक्खीं।
१ ली मई को बड़ा-नाश्ता साढ़े सात बजे मिल गया । एन० वाई० के० जापान की सबसे बड़ी जहाज़ी कम्पनी है। इसके जहाज़ सातों समुद्रों में बराबर घूमा करते हैं। यहाँ शाङ-घाई में नदी के दोनों तरफ़ इसके कितने ही बड़े बड़े गोदाम हैं। उस वक्त हमारा जहाज़ नदी के दाहने तट पर खड़ा था। इस तरफ़ भी कुछ बस्ती है, किन्तु असली शहर नदी के बायें तट पर है। यहाँ कपड़ा बुनने के कई जापानी कारखाने हैं। अन्योमारू बम्बई से हज़ारों गाँठे रुई लाया था। वह धड-धड़ उतारी जा रही थीं। नौ बजे हमें पार जाने की मोटर-नौका मिली। नदी बहुत चौड़ी नहीं है। कलकत्ते की भागीरथी से आधी होगी। लेकिन जहाज़ों, अगिनबोटों, मोटरनौकाओं तथा नावों और डोंगियों की भरमार है। यहाँ डालर-लाइन का पैसेंजर-जहाज़ खड़ा है और वहाँ फ्रेंच मेसाजिरी मारीतीम का विशाल जहाज़ । परले पार सफ़ेद जापानी गन-बोट तोपों से सुसजित खड़े हैं। पार के घरों के शिखर गगन-चुम्बन कर रहे थे--विशेषकर सासून बिल्डिंग । यह बीस मंजिला मकान इस ओर पूर्व का सबसे ऊँचा मकान समझा जाता है। यह उसी यहदी सासून-खानदान का मकान है जिसकी कितनी ही कपड़े की मिले बम्बई में चल रही हैं । हम लोग चुंगीवाली जेटी पर गये।
शाङ-घाई शहर तीन भागों में बँटा है - इन्टनेश्नल कन्सेशन, फ्रेंच-कन्सेशन और बृहत्तर शाङ्-घाई । पहला भाग अँगरेज़ों ने १८४२ ईसवी में लिया था। उस समय शाङ्-घाई एक छोटा-सा ग्राम था। पीछे फ्रांसवालों और अमेरिकनों तथा दूसरी जातियों का भी हिस्से मिले ।
[शाङ्-घाई नदी और नौकायें]
[शाङ-घाई नदी और सासून बिल्डिङ्स]
Ovenonende
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
जापान के रास्ते में
[ शाङ-घाई- चीनी सर्कार का भवन ]
बाद में फ्रांसवालों को छोड़ बाक़ी ने अपने हिस्से एक में कर दिये और उसका 'इन्टर्नेशनल कन्सेशन' नाम रक्खा। तो भी इस भाग पर अँगरेज़ों का ही सबसे अधिक प्रभाव है। इसका एक प्रमाण यह है कि हाङका की तरह यहाँ भी सड़कों के चौराहों पर सिक्ख कान्स्टेबल ही रास्ते की व्यवस्था करते हैं । बृहत्तर शाङ्घाई खास चीनी नगर है । सन् १६३२ में जापान की तोपों ने यहीं प्रलयकाण्ड मचाया था ।
हमारे सामने की सड़क पर सैकड़ों मोटर और रिक्शा खड़े थे | बैजनाथ के पंडों की भाँति उन्होंने हमें घेर लिया । एक टैक्सीवाला तीन डालर घंटे के हिसाब से शहर दिखलाने के लिए तैयार था। एक डालर आजकल प्रायः अठारह आने का है। लेकिन हमें पहले डाकखाने से निपटना था । पास में ही 'नार्थ-चाइना डेली न्यूज़' की विशाल इमारत थी। हाङ-का के बाद समाचारपत्र पढ़ने को नहीं मिला था और चीन के सम्बन्ध में कुछ साहित्य भी लेना था, इसलिए हम पहले वहाँ गये । इसका साप्ताहिक 'नार्थ-चाइना - हेरल्ड' के नाम से निकलता है। दो संख्यायें साप्ताहिक और एक दैनिक की लीं। चीन-संबंधी कोई अच्छा साहित्य नहीं मिला । रास्ते में एक सरदार साहब से बड़े डाकखाने का रास्ता पूछा। उन्होंने बड़ी नम्रता के साथ बतलाया। डाकखाना दो
ree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat,
१०३
7
[ शाङ्-घाई की सड़क ]
घुमावों के बाद था ।
यह मुहल्ला खास कर बड़ी बड़ी योरपीय कम्पनियों का है । बालीशान मकानों में चीजें खूब सजाकर रक्खी गई हैं। खैर, घूम-धाम कर हम वहाँ पहुँचे । तीन पार्सल और छः चिट्ठियाँ डालीं । (हाङकाजू से भी कोई चिट्ठी नहीं डाली थी)। वहीं एक सरदार साहब से भेंट हो गई। उन्होंने ३ डालर घंटे पर टैक्सी कर देने को कहा। हमने पहले समझा, शायद कोई हिन्दुस्तानी ड्राइवर होगा। लेकिन टैक्सी के अड्डे पर जाने पर मालूम हुआ, चीनी है और अँगरेज़ी के दोएक शब्द ही जानता है । पास में ही एक हिन्दुस्तानी होटल था, जहाँ हमने खाना खाने के लिए कहला दिया ।
दस बजे हम शहर देखने चले। दो घंटे में सब देख लेने का निश्चय हुआ । तीस लाख की आबादी (कलकत्ता और बम्बई दोनों मिलाकर भी उतने नहीं) का शहर क्या दो घंटे में देखा जा सकता है ? पहले हमारी टैक्सी बृहत्तर शाङ-घाई (चापइ) की ओर चली । रास्ते में जापानी अड्डा मिला। सैनिक मोटर (आर्मर्डकार) तोपों के साथ तैयार खड़े थे । कुछ ही आगे म्युनिसिपल बाग़ है। भीतर जाने के लिए कुछ सेंट देने पड़ते हैं । भीतर गये । अधिक मैदान और कुछ वृक्ष हैं । उस वक्त बंदूक लिये हुए चीनी सिपाही लुकाछिपी खेल रहे थे। चीनी सिपाहियों और उनके जनरलों के बारे में बाद में
www.umaragy
.com
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
सरस्वती
[भाग ३६
कहेंगे। यहाँ इतना ही कहना है कि यद्यपि देखने रंग-बिरंगी सजावट थी। शाङ्-धाई के चीनी लोगों में में वे मोटे-ताजे मालूम होते थे, किन्तु कपड़े के पहनावे बिगड़े हुए पाश्चात्य फ़ैशन का खूब प्रचार है, विशेषकर और दौड़ने से तो महादेव बाबा की बरातियों से कुछ ही मध्यम श्रेणी के लोगों में। अधिकांश स्त्रियाँ बाल कटाये आगे मालूम होते थे।
मिलेंगी। मक्के के भूये की भाँति रूखे एक एक बीता ___ थोड़ा ही आगे जाने पर खेत आ गये। हरे गेहूँ लम्बे उनके बाल गर्दन पर दूर तक बिखरे हुए थे, जो लहरा रहे थे। होला खाने के लिए मन हो आया था। बहुत ही बीभत्स-सा मालूम होते थे। वे टोपी नहीं पहनती यहाँ जहाँ-तहाँ जापानी तोपों का लंकाकांड दिखलाई हैं, नहीं तो शायद वे इतना बीभत्स न मालूम पड़तीं। पड़ रहा था। किसी मकान की आधी दीवार खड़ी है, ऊपर से पैर तक लम्बा बिना कमरबन्द का उनका जातीय किसी के जंगले और दरवाज़े टूट-फूट गये हैं, किसी के अँगरखा रही-सही कमी को पूरी कर देता है। यदि किसी सामने से देखने से बहुत कम नुकसान मालूम होता है, ने बिना मोज़े का हाफ़पेंट पहन लिया तो फिर पूछना ही लेकिन छत गिर गई है। ध्वस्त मकानों में कहीं-कहीं क्या ? और ऐसों की संख्या यहाँ काफ़ी है (यद्यपि हाङजली लकड़ियों का कोना भी दीवार में लगा दिखाई दे काङ् जैसी नहीं, क्योंकि शाङ्-घाई में अभी काफ़ी जाड़ा रहा था। आगे चीन की राष्ट्रीय सरकार की कुछ इमारतें थीं। है) इसके विरुद्ध प्राप शाङ्-धाई की जापानी स्त्रियों दूर हरे खपरैल की चीनी ढङ्ग की एक विशाल इमारत को देखिए (यहाँ १८,८०० जापानी बसते हैं)। उनका थी। हमारी टैक्सी वहाँ पहुँची। छत और सामने की सुन्दर कमर-पट्टी से बँधा कियोनो और केशों की सजा दीवारें दोनों ही चीनी शिल्प-कला के अाधुनिक नमूने बिलकुल ही दूसरे तरह की है। हैं। कितने ही पुलिस और फ़ौजी सिपाही दिखाई पड़े। पीछे हम 'फ्रेंच कन्सेशन' में गये। सब पास ही दर्शकों को भीतर जाने की इजाज़त न थी। होनी भी पास हैं । फ्रेंच और इन्टर्नेश्नल-कन्सेशनों में कोई फ़र्क नहीं चाहिए। कहीं श्राफ़िस भी अजायबघर होते हैं! नहीं है। एक फ़ोटो लिया और फिर लौट पड़े। इस उजड़ी भूमि में १२ बजे से कुछ पहले ही हम हिन्दुस्तानी भोजनाराष्ट्रीय सरकार सड़कें बनवा रही है । एक जगह नये शहर लय में पहुँच गये। पंजाब की प्यारी माह (उड़द) की की स्कीम का नक्शा भी देखा। बड़ा भारी आयोजन दाल, एक तरकारी, चपाती, चावल और मांस तैयार था। है । अब फिर हमें जले और टूटे मकान मिलने लगे। भोजन हुआ । एक गिलास दही की लस्सी पीने को मिली। बहुत-से मकानों को लोगों ने फिर से बनवा लिया है भोजनालय के बारे में पता लगा कि इसे कई आदमी और बहुत-से. वैसे ही खड़े हैं। एक सीमेंट की दीवार- मिल कर चलाते थे । आपस में झगड़ा हो गया। मामला वाले ऊँचे मकान को सूना खड़ा देखा। मालूम होता है, अदालत में जाना चाहता था । परन्तु हाल में हिन्दुस्तानियों मकान कुछ ही समय पूर्व बन कर तैयार हुश्रा था । गोलों के एक मुकद्दमें में जज ने बड़ी कड़ी टिप्पणी की थी, के जगह जगह पर निशान थे। छत जहाँ-तहाँ टूट गई इसलिए आपस में समझौता करने के लिए हिसाब-किताब थी । मालूम होता है, मालिक के पास फिर से बनाने के तैयार हो रहा है। झगड़े से पहले, कहते हैं, डेढ़ लिए रुपया नहीं रह गया।
सौ डालर तक की रोज़ बिक्री हो जाया करती थी।
सौ साल . __फिर घनी बस्ती मिली, 'इन्टर्नेश्नल-कन्सेशन' में हिन्दुस्तानियों की संख्या शाङ्-धाई में दो हज़ार से आये । यहाँ सिक्ख पुलिसमैन मिले । मोटरों और राह- ज्यादा है। गीरों के चलने की व्यवस्था करने के लिए यहाँ यंत्र- छः श्रादमी के भोजन पर साढ़े चार डालर (५ रुपये संचालित हरी, लाल रोशनियाँ थीं । चीनी' मुहल्ले में से अधिक) खर्च हुए । फिर हम लोग जहाज़-घाट की ओर हाङ्-काङ की भाँति विज्ञापनों और साइनबोर्डो की चले । चीनी चित्रों की प्राज-कल यहाँ एक प्रदर्शिनी हो
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
जापान के रास्ते में
- १०५
रही थी । हमारे पास घंटा भर का समय था । साथी लोग ओर से या पहले से नियुक्त गवर्नर मनमानी करने लगे। चित्र देखने गये, और हम जेटी पर जा अखबार पढ़ने उनके लिए चीनी प्रजातन्त्र का कोई अस्तित्व न था। लगे । मोटर-नौका के आने में अभी कुछ देर थी। प्रजा का रक्त चूस-चूस कर अपनी थैली भरना तथा
राष्ट्रीय सरकार के प्रधान जनरल चाङ्-कै-शक ने पल्टनों का संग्रह करके आपस में लड़ते रहना, बस साम्यवादियों के प्रति जहाद बोल रक्खी है। आज-कल इतना ही काम था । जहाँ किसी ने अपने भाग्य का पल्टा
को सबसे अधिक सामग्री उसी से मिल रही है। खाते देखा कि वह भाग कर शाङ-घाई चला पाया. १६४४ ईसवी में (अर्थात् अकबर के मरने से ३६ जहाँ घर और बैङ्क में रुपये का वह पहले से ही प्रबन्ध वर्ष बाद शाहजहाँ के समकाल में) चीन में छिन या मंचू- किये रहता है। डाक्टर सुन-यात्-सेन चीनी प्रजातन्त्र के वंश का राज्य स्थापित हुश्रा । तब से १६११ ईसवी तक जन्मदाता कहे जाते हैं । लेकिन प्रजातन्त्र स्थापित होने पर मंचू-वंश का शासन चीन पर रहा । योरपियों से बार-बार उसकी बागडोर यु-अान शिकाई के हाथ में चली गई। युहारने तथा नई शिक्षा के प्रचार से चीन के नवयुवकों प्रान्-शिकाई ने महायुद्ध के समय अपने का सम्राट भी में नई इच्छा और नई लहर पैदा हुई। अन्त में १६११ उद्घोषित किया; किन्तु वह कु: ही महीनों में मर गया । ईसवी में मंचूवंश का अन्त करके चीन में प्रजातन्त्र की उस समय सुन्-यात्-सेन ने दक्षिण में कान्टन में अपना स्थापना की गई। किन्तु साधारण जनता में न वैसा पैर मज़बूत किया था। लड़ाई के बाद और गृह-युद्ध के खयाल था और न उतनी जाग्रति । अब प्रजातन्त्र की समाप्त हो जाने पर सुन्-यात्-सेन् और रूसी सोवियट
सरकार की मैत्री स्थापित हो गई। रूसी विशेषज्ञ दिल * चीन का ऐतिहासिक राजवंश इस प्रकार है- खोल कर चीन को मदद देने लगे और कुछ ही समय में चिन
२५५ ई० पू० - २०६ ई० पू० सुन्-यात्-सेन् के पक्ष की कु-मिङ्-ताङ् की सेना उत्तर हान (पश्चिमी) २०६ ई० पू० -- २५ ई. की ओर बढ़ने लगी। चाङ्-कै-शक् डाक्टर सुन्-यात्-सेन् हान (पूर्वी
२५ ई०. २२१ ई० के साले हैं । इस रिश्ते ने उन्हें आगे बढ़ने में बहुत मदद तीन क्षुद्र राज्य
२२१ ई०-२६५ ई० दी। उन्होंने रूसी विशेषज्ञों से भी बहुत सीखा। फलतः चिन (पश्चिमी)
२६५ ई० - ३१७ ई० सुन्-यात्-सेन् के मरने के बाद चाङ्-कै-शक ही कु-मिङचिन (पूर्वी)
३१७ ई०-४२० ई० ताङ के प्रभावशाली सेनापति हो गये। जब तक उन्हें उत्तर-दक्षिण-विभाग ४२० ई० - ५८६ ” ज़रूरत थी, उन्होंने कुछ नहीं किया। किन्तु जब देखा
५८६ ई०-६१८ ” कि कू-मिङ्-ताङ्-दल में साम्यवादियों का प्रभाव बढ़ थाङ्
६१८ ई०-६०७ " रहा है तब उनके खिलाफ़ जेहाद बोल दी। अकेले पाँच वंश
६०७ ई० . ६६० ” कान्टन में ही बीस हज़ार साम्यवादी बड़ी निर्दयता ल्याउ
६०७ ई०-११२५ " से मारे गये। यदि किसी तरुण के पास साम्यवादी ल्याउ पश्चिमी) ११५२ ई० . ११६८" साहित्य का एक पन्ना भी निकल पाता था तो गोली से उड़ा चिन (काँचन तातार) १११५ ई० -१२६० " देने के लिए वही प्रमाण काफी समझा जाता था। यह बात
६६० ई०-११२७ " १६२७ की है । उस समय कितने ही साम्यवादी चीन के सुङ (दक्षिणी) ११२७ ई०-१२८० " भीतरी भाग क्याङ-सी आदि में भाग गये । वहाँ उन्होंने युअान् (मंगोल) १२८० ई० १३६८ ” धीरे धीरे अपना प्रभाव बढ़ाकर 'चीनी' सोवियट सरकार की मिङ
१३६८ ई० . १६४४ " स्थापना की। चाङ-कै-शक उनका जानी दुश्मन था । चा ङ छिन् (मंचू) १६४४ ई० . १६११ ” ने दो बार उन पर हमला किया, किन्तु सफलता नहीं
फा. २ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
सुई
सुङ
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६
.
सरस्वती
[भाग ३६
मिली । इस बीच में चीनी सोवियट ने अपना प्रभाव और उन्हें उस ओर अधिक उत्साहित नहीं कर सकी । चाङ-कैअधिक बढ़ा लिया, तो भी उसके मार्ग में अनेक बाधायें शक ने पहले के युद्धों में देख लिया था कि साम्यवादियों थी । कोई भी बंदरगाह हाथ में न रहने से समुद्र-द्वारा को हराकर एक कोने से दूसरे कोने में भगा देने से कोई चीनी साम्यवादी बाहरी देशों से सम्बन्ध स्थापित नहीं कर फल नहीं, क्योंकि वैसा करने में एक ओर तो नान-किङ सकते थे । स्थल-मार्ग से भी उनका रूस के साथ कोई की भारी-भरकम सेना की शक्ति क्षीण हो जाती थी और सम्बन्ध न था । इस प्रकार अस्त्र-शस्त्र तथा दूसरी मशीनें साम्यवादी पीछे से लौटकर उन स्थानों को फिर अपने या तेल आदि आवश्यक सामग्री वे मँगा नहीं सकते दखल में कर लेते थे। इसलिए चाङ ने साम्यवादियों के थे। उन्होंने अनेक बार समुद्र तक पहुँचने की कोशिश की, छोड़े स्थानों पर जगह जगह ब्लाक-हौस या फ़ौजी किन्तु उनके इस काम में नानकिङ्-सरकार (चीनी राष्ट्रीय चौकियाँ टेलीफोन और बेतार के साथ बैठानी शुरू की। सरकार, चाङ-कै-शक जिसके सर्वेसर्वा हैं) ही नहीं, विदेशी यह अप्रेल का महीना चीनी साम्यवादियों के लिए बहुत शक्तियाँ भी बाधक थीं। फलतः विदेशी गनबोटों के मारे हानिकारक सिद्ध हुआ। अप्रेल के पहले सप्ताह में चीनी उन्हें फिर पीछे हट जाना पड़ा। उस समय इन साम्य- सोवियट का प्रधान सेनापति चू-ते मारा गया। चू-ते, होवादियों को अस्त्र-शस्त्र मिलने का एक ही रास्ता था, लुङ् और सू-ची-सेन- चीनी सोवियट के ये तीन प्रधान और वह था नानकिङ्-सरकार की बाग़ी सेना का उनकी स्तम्भ थे। चू-ते ने जर्मनी में शिक्षा पाई थी और वह साम्य
जाना और यह अक्सर हुआ भी। इसी प्रकार वादियों का सर्वप्रिय नेता था। साम्यवादी सेना कितने ही नानकिङ-सरकार के पाँच हवाई जहाज़ भी उनकी ओर दिनों तक अपने नेता के शव को लाल झंडे के साथ एक चले गये, किन्तु एक बार का भरा पेट्रोल सदा तो नहीं जगह से दूसरी जगह लेती फिरी। इसी महीने में उन्हें चल सकता था, और न टूटे-फूटे पुजें ही वहाँ मिल सकते कई जगह हार खानी पड़ी और कितने ही और नेताओं से थे, इसलिए वर्तमान लड़ाई में उनका कोई उपयोग न हाथ धोना पड़ा। अपने आदर्श के लिए प्राण की बाज़ी हो सका । चाङ्-कै-शक ने १६३२ वाले जापानी आक्रमण लगाना कितना आसान है, इसका उदाहरण है इन में तो ऐसी चुप्पी साधी कि उनके होने में भी सन्देह नेताओं में एक साम्यवादी नेता तु-चि-लुङ । उसे विचार मालूम होता था। किन्तु जापान के अपना काम खत्म कर बदल देने के लिए बहुत प्रलोभन दिये गये, किन्तु उसने लेने पर उन्होंने फिर साम्यवादियों की ओर मुँह किया। स्वीकार नहीं किया । फलतः १२ अप्रेल को फू-चाव में उन्होंने पिछले अनुभवों से भले प्रकार जान लिया था कि उसे फाँसी दे दी गई। स्थल-सेना पर वे पूरा विश्वास नहीं कर सकते। इसके इस वक्त नान्-किङ्-सरकार की सारी शक्ति साम्यलिए उन्होंने मध्यम श्रेणी के युवकों की हवाई सेना तैयार वादियों का जड़मूल से विनाश करने पर लगी हुई है। की। ५०० हवाई जहाज़ों का बेड़ा सुसजित कर अब वस्तुतः साम्यवादियों की अधिकृत भूमि बहुत-कुछ फिर साम्यवादियों पर हल्ला बोल दिया गया। नान्- छिन चुकी है, और वे इधर से उधर खदेड़े जा रहे हैं। किङ की विशाल और साधनसम्पन्न स्थल-सेना तथा सरकार उनके साथ गोरीला युद्ध के लिए तैयार उससे अधिक विनाशक उसके हवाई जहाज़ों ने अब की है; किन्तु यह काम उतना आसान नहीं है । खब तैयार होकर चढाई की। साम्यवादियों ने वीरता के इस वक्त 'चीनी सोवियट सेना' की संख्या पचास साथ मुताबिला किया, किन्तु कब तक । आखिर एक हज़ार बतलाई जाती है, जो तीन टुकड़ियों में बँटी हुई के बाद एक स्थान उनके हाथ से निकलता गया। नान्- है। उसके एक बड़े भाग ने कन्-सू (तिब्बत और. मंगोकिङ के कुछ सिपाही इस बार भी दूसरी ओर जा मिले; लिया के बीच का चीनी प्रान्त) में निकल जाने की कई किन्तु हवाई जहाज़ों की मार और साम्यवादियों की हार बार कोशिश की, किन्तु उनका रास्ता रोक दिया गया।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
जापान के रास्ते में
कन्-सू की सीमा बाहरी मंगोलिया से लगी हुई है, जो लिए ईसाई बनना स्वीकार किया । यह कोई ज्यादा दिन की सोवियट शासन में है । वहाँ जाने पर उन्हें एक तो चीनी बात नहीं है, सिर्फ एक डेढ़ वर्ष की है। और ऐसी अस्थिरता सरकार की सेनाओं से उतना भय न होता और दूसरे उन्हें के साथ स्वार्थान्धता और अदूरदर्शिता बहुत अधिक मात्रा सीमा के पार से लालसेना की मदद की अाशा थी। में उनके सहायकों में भी है। यही कारण है कि उक्त
चाङ्-कै-शक का इस वक्त चीन के धनियों और दोनों अान्दोलन तमाशा बनते जा रहे हैं। लाल-अान्दोविदेशी व्यापारियों पर बहुत प्रभाव है। वे चीन के दूसरे लन के पोषक तो वस्तुतः भयंकर दरिद्रता में फँसकर जनरलों की भाँति अपने और अपने खानदान के लिए ज़मींदारों द्वारा सताये गये चीनी किसान हैं । जब तक काफ़ी धन एकत्र कर चुके हैं। इसलिए उन्हें उसकी उतनी उनकी अवस्था आर्थिक अवस्था के बेहतर बनाने का प्यास नहीं है। इस वक्त वे चाहते हैं कि साम्यवादी उपाय नहीं होता तब तक लाल-अान्दोलन के चीन से उठ चीन से निकाल बाहर किये जायँ और चीनी राष्ट्र मजबूत जाने की अाशा नहीं की जा सकती। चाङ-कै-शक् की बनाया जाय । इसी लिए उन्होंने 'नवजीवन भादोलन' शक्ति यदि इतनी प्रबल न होती तो सारा चीन अब तक एक तथा 'राष्ट्रीय पुनर्रचना-आन्दोलन' चलाये हैं। चाङ्-कै- हो जाता । सशस्त्र डाकुओं के बड़े-बड़े दल तथा स्वच्छंद शक के स्वभाव में गम्भीरता और स्थिरता कितनी है, यह सैनिक गवर्नर बतला रहे हैं कि 'हनोज़ देहली दूरस्त' । तो इसी से सिद्ध है कि उन्होंने अपनी दूसरी शादी के
मेरे प्राणों में तुम बोलो !
लेखक, श्रीयुत रामनाथ 'सुमन'
[१] मेरे प्राणों में तुम बलो!
जीवन है जीवन का अभिनय, मधु जीवन हो, मधुमय जग हो,
इसमें कहाँ निलय है किसका ? मधुर पगों से झंकृत मग मम
फिर किसका, कितना, क्या संचय ? तुमसे मुखरित और सजग हो। पीड़ा के आँसू से जग-मग के जलते पग धो लो। उग जाने दो प्यारी चंदा यूंघट के पट खोलो।
मेरे प्राणों में तुम बोला। मेरे प्राणों में तुम बोलो।
इस पनघट से उस पनघट पर, मन-घन रसमय जीवनमय हो,
जीवन का रीता घट भरकर । तन मूञ्छित विस्मृत ममत्व मम
कहाँ चली अमरित की रानी, तुममें जागे तुममें लय हो।
मुझे छोड़ प्यासे मरघट पर । -- हृदय-कुंज की डाली डाली प्राण-पिकी रस घोलो। आज मृत्यु में जाग्रत जीवन, आओ दो क्षण सो लो। मेरे प्राणों में तुम बोलो॥
मेरे प्राणों में तुम बोलो॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
•OAD
GOOD
00000
..
.......___
OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO
.
.....OOOOOOOOOOO
कुँवर राजेन्द्रसिंह की दर्शन-शास्त्र से बड़ी रुचि है और आपका खयाल है कि इस दिशा में भारत अन्य देशों से आगे है । 'गंध' और 'स्पर्श' पर ग्राप 'सरस्वती' में दो अच्छे निबन्ध लिख चुके हैं । इस लेख में अापने 'रूप' क्या है, यह बताया है । श्राशा है, पाठकों का आपके इन लेखों से पर्याप्त मनोरञ्जन होगा।
लेखक, कुँवर राजेन्द्रसिंह हने को चाहे जो कोई कुछ कहे, ने कहा है---"फिर वही कुंज कफस फिर वही सय्याद पर यह मानना पड़ेगा कि का घर ।" भाव कितना हृदयस्पर्शी है ! अस्तु, प्रोफेसर दर्शन-शास्त्रके मैदान में हमसे मैक्समूलर की पुस्तक 'वॉट इंडिया कैन टीचअस'
और देशवाले कोसों पीछे पढ़ने के योग्य है। उसमें उन्होंने बतलाया है कि PSI हैं। यह कहना कोई अत्युक्ति भारतवर्ष हमें क्या सिखला सकता है। उनकी और
नहीं है कि जहाँ से हमारे भी पुस्तकें हैं, जिनमें उन्होंने हमारे वेदान्त और
तत्त्व-विज्ञान-विशारदों ने दर्शन-शास्त्र पर अच्छे लेख लिखे हैं। किसी विदेशी 'श्रीगणेशाय नमः' किया है, वहाँ और लोगों की को हमारे शास्त्रों से केवल सहानुभूति ही प्रकट करना 'इति श्री' हुई है। अभाग्यवश अब वे दिन हमारे बड़ी बात है। वही आज मैं फिर कहने जा रहा हूँ सामने हैं जब हमी से कहा जाता है कि हिन्दुस्तान जिसे मैंने प्रायः कहा है कि मुझे कभी अन्य देशमें कभी खोज करने की प्रथा ही नहीं थी। अगर वालों के आक्षेपों से दुख नहीं होता है, पर आँखें खोज करने की प्रथा नहीं थी तो जो कुछ लिखा हुआ अश्रुपूर्ण हो जाती हैं जब अपनों के ही मुँह से अपने है वह लिखा कैसे गया था। यह आक्षेप तभी ठीक देश या साहित्य की निन्दा सुनाई देती है। मेरे एक मालूम होता जब आक्षेप करनेवालों ने इस ओर मित्र जो अँगरेजी-साहित्य के अच्छे मर्मज्ञ हैं, कुछ परिश्रम किया होता, और जिन्होंने परिश्रम एक रोज़ मुझसे कहने लगे कि ज्ञानेन्द्रियों के विषयकिया है वे जानते हैं कि हमारे दशन-शास्त्र के जोड़ वर्ग के सम्बन्ध में अँगरेज़ी में शायद संस्कृत से का किसी देश का दर्शन-शास्त्र नहीं है। अब जो अधिक लिखा गया है। मुझे विश्वास नहीं हुआ आक्षेप हम पर किये जायें वे सब ठीक ही हैं। स्वतन्त्रता और विश्वास न होने का कारण यह था कि यह के खोते ही सब कुछ खो जाता है। आचार, विचार, विपय बहुत रूखा-सूखा है, जिस पर कोई भी स्वार्थसंयम, नियम, साहित्य, संगीत, कला-सभी पर सेवी जाति खोज करके कुछ भी नहीं लिख पराधीनता का गहरा प्रभाव पड़ता है। और बातों का सकती, और जो कुछ लिख सकती है वह तो क्या कहना, कुछ जीवन से ही अरुचि-सी मालूम केवल विलासिता की दृष्टि से। यह देखने की मुझे होने लगती है। यही हाल प्रत्येक जाति का, प्रत्येक · उत्सुकता हुई कि अँगरेजी विद्वानों का क्या मत है। मनुष्य का और प्रत्येक जीवधारी का होता है । परा- पहले मुझे वह पुस्तक मिली जिसमें 'गन्ध' के विषय धीनता के दुख का वर्णन करते हुए उर्दू के एक कवि पर लेख थे। उन्हें पढ़ते ही मुझे मालूम हो गया कि
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
रूप
मेरा अनुमान ठीक ही था। उन लेखों में एक बार मृदु और दारुण” (विश्व-कोष) इन सबको उन्हें भी दर्शन-शास्त्र का नाम नहीं आया था और न समझाना जिनकी खोज इस ओर कुछ भी नहीं है, उस दृष्टि से वे लेख लिखे ही गये थे। उन्हीं लेखों कठिन नहीं बरन असम्भव है। विश्व-कोष में यह के आधार पर मैंने 'गन्ध' नामक लेख लिखा था, जो भी लिखा है कि “पदार्थों में एक शक्ति रहती है जिससे सितम्बर १९३३ की सरस्वती में प्रकाशित हुआ है। उनका तेज इस प्रकार विकृत होता है कि जब यदि ध्यान-पर्वक देखा जाय तो उसमें केवल भिन्न वह आँखों पर लगता है तब देखनेवालों को उस भिन्न देशों के मनुष्यों की शारीरिक गन्ध का वर्णन पदार्थ की आकृति, वर्ण आदि का ज्ञान होता है। है, और इसका भी वर्णन है कि किस गन्ध का इस शक्ति को भी रूप ही कहते हैं। इन सबकी 'रूप' कामोद्दीपन पर प्रभाव पड़ता है। अब जब 'स्पर्श' संज्ञा हमारे शास्त्र जाननेवालों ने बड़ी खोज के विषय के लेख देखे तब उनमें भी वही रङ्ग और बाद की होगी। अभी स्पेकट्रास्कोप-यंत्र का आविवही दृष्टिकोण पाया। मेरा 'स्पश' शीर्षक लेख कार हुए बहुत दिन नहीं हुए हैं, जिसके द्वा
आक्टोबर १९३४ की सरस्वती में प्रकाशित हुआ है। के उस पर्दे के नीचे का प्रकाश तुलसीदास जी ने लिखा है-“जाकी रही भावना जिसे अँगरेज़ी में 'स्पेकट्रम' कहते हैं। यह वही पर्दा जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।" जिस दृष्टि से जो है जिस पर प्रकाश प्रतिबिंबित होता है और जिस दुनिया को देखेगा, वैसे ही उसके विचार होंगे, पर प्रकाश-द्वारा प्रतिमायें बन जाती हैं। 'स्पेकट्रम'और जैसे विचार होंगे, वैसा ही उनके प्रकट करने शब्द लेटिन-भाषा का है, जिसका अर्थ उस भाषा में का ढङ्ग होगा। इस जीवन के परे जीवन पर आकार या प्रतिमा है। जो अब खोज करके जाना हिन्दओं की सदैव दृष्टि रहती है और अन्य देश- गया है या जाना जा रहा है वह हमारे विद्वान बहत वासियों की निगाह क़ब्र के उस ओर पहुँचती ही पहले से जानते थे। यदि न जानते होते तो 'रूप' नहीं है। कदाचित् इस पर हमारे विचार करने का शब्द के अर्थ आकार या चिह्न के न होते। आँख यह समुचित स्थान नहीं है कि जो भारतवासी उसी को तो देख सकेगी जिसका कुछ आकार मानते हैं वह ठीक है या जो और देशवाले मानते होगा, और आकार ही का तो नाम रूप है। हैं वह ठीक है। इसका वाद-विवाद निर्धारित पथ 'रूप' के देवता अग्नि हैं । इस पर भी हम लोगों से हमें बहुत दूर हटा ले जायगा।
पर बड़े आक्षेप होते हैं और कहा जाता है कि हम सब लोग जानते हैं कि तन्मात्राओं में 'रूप' हिन्दुओं को हर चीज़ का एक देवता होता है। एक का तृतीय स्थान है, और यह भी हम सब लोगों को विद्वान् का कथन है कि किसी पर आक्षेप करना मालूम है कि यह नेत्र ज्ञानेन्द्रिय का विषय है। नेत्र- सहज है, पर उसके गुण परखना कठिन है। द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे 'रूप' कहते हैं । 'रूप' बात है तो ठीक । किसी पर मिथ्या दोषारोपण शब्द के अर्थ आकार और चिह्न इत्यादि हैं। करने के लिए योग्यता की आवश्यकता नहीं होती, "दर्शन-शास्त्र में रूप को चक्षु इन्द्रिय का विषय माना परन्तु गुणों के परखने के लिए पूर्ण पाण्डित्य की है। सांख्य ने इसे पञ्चतन्मात्राओं में एक माना है। जरूरत होती है। भावों को प्रकट करने के लिए बौद्ध-दर्शन में इसे पाँच स्कन्धों में पहला स्कन्ध कहा केवल शब्द का व्यवहार पर्याप्त नहीं है। हमें अपने है। महाभारत में सोलह प्रकार के रूप माने गये हैं- मुख की आकृति से, आँखों से, और हाथों से काम जैसे, ह्रस्व, दीर्घ, स्थूल, चतुरस्र, वृत्त, शुक्ल, कृष्ण, लेना पड़ता है और जब-तब लक्षणा, अलङ्कार, संकेत नीलारुण, रक्त, पीत,कठिन,चिक्करण, श्लक्षण,पिच्छिल, इत्यादि की भी सहायता आवश्यक होती है। लाक्षणिक
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
११०
सरस्वती
[ भाग ३६
भाव का अर्थ जब हम शहार्थ के अनुसार करेंगे में अग्नि का अंश है। इस गूढ विषय पर और या सरूपक को अरूपक समझ लेंगे तब अवश्य उल- अधिक प्रकाश डालने के लिए हमारे आचार्यों ने झन बढ़ जायगी। इसमें लेखक का तो कोई दोष नहीं बहत अधिक परिश्रम किया होगा। अग्नि और है, दोष है समझनेवाले का। इसी कारण यह कहा सूर्य में बहत घनिष्ठ सम्बन्ध है। सूर्य का एक नाम जाता है कि लेखक की शैली से परिचित होना संस्कृत में उष्णरश्मि है। उष्ण-शब्द अग्नि का आवश्यक है। काायल ने कहा है कि शैली लेखक बोधक है, क्योंकि अग्नि का प्रथम गुण उष्णता का कोट नहीं है, यह उसका चर्म है। शैली का है। और अग्नि का एक नाम संस्कृत में बृहद्भानु लेखक से ऐसा ही घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। कोई है। यह नाम इस बात का सूचक है कि बड़ा भानु अपने भावों को बहुत सीधे-मादे ढङ्ग से प्रकट अग्नि है। इससे यह सिद्ध होता है कि जहाँ उष्णता करता है, कोई उन्हीं भावों को चित्ताकर्षक भाषा के और प्रकाश का प्रश्न है, वहाँ अग्नि का प्रथम भूषणों से सुसज्जित करता है। यदि एक को व्यङ्गय स्थान है। फिर यदि हमारे आचार्यों ने 'रूप' का से रुचि है तो दूसरे को परिहाम से । इससे अधिक देवता अग्नि को माना तो कोई अपराध नहीं
और कोई बड़ी भूल नहीं हो सकती है कि बिना किया। जिनमें वृद्धिविषयक शुचिता है वे तुरन्त भाषा पर पूर्ण ध्यान दिये हुए किसी लेखक के भावों स्वीकार कर लेंगे कि दर्शन-शास्त्र के हर एक विषय के समझने की कोशिश की जाय। हमारे आचार्यों पर भारत में बहुत अधिक खोज की गई होगी। ने 'रूप' का देवता अग्नि को माना है, जिसकी जैसी कि अंगरेजी में एक कहावत है, 'तसवीर की वजह से आक्षेप किये जाने हैं। अब जरा 'देवता' दूसरी ओर देखिए', मैं भी यही करूँगा कि ज़रूर शब्द पर ध्यान दीजिए। 'देव'-शब्द के अर्थ व्याव- देखिए, लेकिन दूसरी ओर' देखने से नसीम का हारिक भाषा में अपने से बड़े के हैं, जैसे हे देव, गुरु- एक मिसरा याद आ जाता है-"तब तो यक सूरत देव इत्यादि और उसी से देवता-शब्द बना है। भी थी अब साफ वीराना किया।" वहाँ कोई देखेगा हम उसी को अपने से बड़ा समझते हैं जिसकी क्या ? सफाचट मैदान है। अँगरेजी में 'रूप' का योग्यता, विद्वत्ता और गुरुता स्वीकार करते हैं। यदि अनुवाद फ़ार्म' होगा। अर्थ में भी अन्तर नहीं है, हमारे आचार्यो ने अग्नि की गणना देवताओं में और जहाँ अन्तर शुरू हुआ, वह बड़ा अन्तर है। की तो क्या भूल हुई। अग्नि उन पञ्चमहाभूतों में ज्ञानेन्द्रियों के विषयवर्ग की संज्ञा तन्मात्रा है, जैसे से एक है जिनसे शरीर का निर्माण हुआ है। यदि त्वचा का विषय स्पर्श है, नासिका का गन्ध है, वैसे आचार्यों ने कृतज्ञतावश अग्नि की झूठ ही प्रशंसा ही नेत्रों का विषय रूप है। हमारे शास्त्रानुसार देवता मान करके की होती तो भी कुछ बुरा नहीं तन्मात्रायें विषयों के नाम से प्रसिद्ध हैं, न कि ज्ञानेथा जब कि आधुनिक समय में तुच्छ स्वार्थ के लिए न्द्रियों के नाम से या उनके कर्मों के नाम से । और 'गधे को दादा' कहना राजनीति-कुशलता की प्रथम ठीक भी यही है । नेत्रों का विषय 'रूप' है न कि दृष्टि पहचान समझी जाती है।
या देखना। यहीं से अन्तर की नींव पड़ती है। कोई भी चीज़ दिखलाई नहीं देगी यदि वह 'रूप' को नेत्रों का विषय न कहकर अँगरेजी प्रकाशरहित है। काले को रङ्गों की क्षयराशि इसी लेखकों ने 'दृष्टि' 'विजन' को तन्मात्रा मान लिया वजह से कहते हैं कि काले में प्रकाश का अभाव है और यही उनके लेखों का शीर्षक है। अब उनके होता है । जहाँ प्रकाश का प्रश्न है वहाँ अग्नि का दर्शन और सांख्य-शास्त्र का अवलोकन कीजिए। प्रश्न पहले है। प्रकाश में उष्णता है और उष्णता वे यो प्रारम्भ करते हैं-"दृष्टि एक मुख्य स्रोत है,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
१११
जिसके द्वारा मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होता है। एक “सौन्दर्य सभी जगह अभिमत अतिथि है।" फिर बड़ी हद तक यह और विषयों को उल्लंघन कर गया इसका वर्णन है कि किस समय में कैसे कपड़े है। इसका गोचर अतीत है। यह दूरवर्ती संसार पहने जाते थे और "कपड़े पहनने का प्रायः यह को हमारे सामने लाता है और हमें इसके योग्य अभिप्राय होता है कि पुरुष की यह इच्छा उत्पन्न हो बनाता है कि अपनी रचना के सूक्ष्म से सूक्ष्म कि स्त्री के शरीर को नग्न देखे, और इससे कामकारी विस्तार को समझ सकें । यही कलाओं के समझने इच्छायें पैदा होती हैं।” फिर “नग्नता कामकारी की नींव है और इसी कारण यह कोई आश्चर्य नहीं प्रभाव में प्रबल है, क्योंकि आँखों को अत्यन्त रुचिहै कि संभोग की निगाह से यह और सब विषयों कर है।" नग्नता के विरुद्ध आज-कल कल कहना से अति श्रेष्ठ है, और यह कि मनुष्य के स्नेहमय असभ्यता का टीका लगवाना है। विदेशों में इसकी विचार सुन्दरता की सदैव कल्पना करते रहे हैं।" बड़ी धूम है । इस विषय पर अगणित पुस्तकें प्रकाएक का यह मत है और दूसरे का यह है-“काम- शित हो चुकी हैं और रोज़ होती जाती हैं। मामले प्रिय जीवन में सबसे बड़ी, महान शक्तिशालिनी का यहीं अन्त नहीं हुआ। उन पुस्तकों में तसवीरें भी
और उद्योगिनी इन्द्रिय आँख है। यह सत्य है कि हैं। कहा जाता है कि नग्नता में वह सौन्दर्य है जो हमारी आँख वही ढूँढ़ा करती है जो सुन्दरता कह- विश्व भर में और कहीं नहीं देखने को मिलेगा और लाती है।" 'सुन्दरता'-शब्द का अर्थ क्या है ? उस सौन्दर्य को वे ही पहचान सको हैं जो प्राकृतिक लेखक स्वयं उत्तर देता है-"इसका अर्थ है बहुत- सौन्दर्य पहचानने के लिए आँखें रखते हैं। यह सी दृष्टिगत उत्तेजक चीजों का जोड़, जो एक एक ईश्वर की परम कृपा है कि उस सौन्दर्य के पहचानने करके तुच्छ हैं, पर जिनकी संयुक्तता मस्तिष्क में के लिए उसने अभी तक भारतवासियों को आँखें
आनन्द की, प्रशंसा को, और उसे प्राप्त करने को नहीं दी हैं। फैशन की तुलना एक संक्रामक रोग से भावना और इच्छा उत्पन्न कर देती है।"
की जा सकती है, और यह भारतवर्ष का अभाग्य है हम सुन्दरता हूँढ़ते हैं, क्योंकि हम आनन्द के कि जो रोग अन्य देशों में फैला उसका आक्रमण इच्छुक हैं। नेत्र और सब ज्ञानेन्द्रियों को अपेक्षा हमारे देश पर अवश्य हुआ और जो आया वह यहीं कामप्रिय जीवन के अधिक सहायक हैं। हम भारत- का हो गया । बस यही डर है। एक दिन मुझ एक वासियों के लिए यह बतलाना कठिन है कि ऐसे योरपोय महाशय से बात-चीत करने का मौका पड़ा। लेखों का स्थान किस शास्त्र में होना चाहिए । आक्षेप आपको प्रयाग के मेले से लौटे हुए थोड़े ही दिन हम लोगों पर चाहे जितने हों, परन्तु यह कहना ही हुए थे। आपने बातें करते करते कहा कि आप चाहे पड़ेगा कि दर्शन या सांख्यशास्त्र यदि अन्य देशवालों जो कुछ कहें, परन्तु यह आपको मानना पड़ेगा कि का यही है तो उस साहित्य पर ईश्वर कृपा करे। हिन्दुस्तान को अभी सभ्य होने में बहुत दिनों की यह कुछ अप्रासंगिक-सा जान पड़ता है कि “पुरुष देर है, क्योंकि मैंने इलाहाबाद में बहुत-से नंगे को पराजित करने के लिए केवल थोड़ी-सी सुन्दरता, साधुओं को देखा है। और यह भी कहा कि हमारे मनोहर आकार या स्त्री की आसन्नता पर्याप्त है।" पादरियों को देखिए। मुझे बहुत बुरा मालूम हुआ। यदि वह ठीक है तो यह भी वाक्य दर्शन-शास्त्र में मैंने कहा कि आपके पादरी असभ्य हैं, क्योंकि स्थान पाने के योग्य है कि "खूबसूरत चेहरे की जर्मन देश की सभ्यता ने जिसे आप भी मानते हैं, हर जगह फोह है।" इसी तरह की एक और कपड़ों का पूर्ण बहिष्कार कर दिया है और उस कहावत जर्मन-भाषा में है, जिसका अनुवाद यह है- सभ्यता से बहुत-से आपके यहाँ के लोग भी सहमत
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
सरस्वती
[भाग ३६
हैं । सभ्य कहलाने के अभिप्राय से यदि हमारे साधुओं बेकन ने कहा है कि सौन्दर्य का वह अंश सबसे ने कपड़े छोड़े तो क्या बुरा किया? तब आपने कहा कि उत्तम है जिसे तसवीर न प्रकट कर पाये। इस देश में तो बहुत पहले से साधू नग्न रहते थे। मैंने अब तक सौन्दर्य कविता की दृष्टि से देखा गया कहा, यह इस बात का चिह्न है कि हम पुराने सभ्य हैं। अब यह देखना है कि किस देशवाले किसे सौन्दर्य अस्तु । इस सम्बन्ध में मुझे केवल यही कहना है कि कहते हैं । मलाया-देशवालों की दृष्टि में स्त्रीजातीय यहाँ हिन्दुस्तान में यदि किमी पुस्तक में एक भी सौन्दर्य में यह गुण आवश्यक है कि "माथा एक अश्लील शब्द आजाय, तसवीर तो दूर रही, तो रात्रिवाले चन्द्रमा का-सा हो, भ्रकुटियाँ मुर्ग के नखों फौरन पुस्तक के लिखने और छापनेवाले पर आफत की तरह झुकी हुई हों, कपोल कटे हुए आम के आ जाती है, पर जो ऐसी पुस्तकें बाहर से आती हैं टुकड़ों के से हों, नासिका विकसित चमेली की-सी वे हाथों हाथ बिकती हैं और कोई रोक-टोक नहीं कली हो, गर्दन पतली हो, कमर फूल के डंठल के होती है।
समान हो, सिर अण्डाकृति हो, आँखें शुक्र-ग्रह की ___ एक दूसरे लेखक के भी विचार देखिए। उस तरह चमकती हों और अधर छिद्रित दाडिम के-से लेखक का अधिकांश समय सौन्दर्य के निरीक्षण हों।" जापान के पुराने किस्सों में एक षोडश वर्षीया
और उसका विवेचन करने में व्यय हुआ है। उसने युवती के सौन्दर्य का इस प्रकार वर्णन किया गया "सौन्दर्य सुख की प्रतिज्ञा है ।" यह एक वाक्य उद्धृत है-“न बहुत मोटी, न वहुत दुबली, न बहुत लंबी किया है। एक दूसरे का कहना है कि “सौन्दर्य और न बहुत ठमकी, चेहरा खरबूजे के बीज के स्वास्थ्यसूचक है।" यह अभी तक निश्चित नहीं हो समान, रङ्ग गोरा, आँखें संकीर्ण और चमकती हुई पाया है और न निश्चित हो पाने की आशा है कि (हिन्दुस्तान में नेत्रों की उपमा कमल से दी जाती है), सौन्दर्य क्या है । एक उर्दू कवि ने कहा है
दाँत छोटे और बराबर (हिन्दुस्तान में दाँत अनार के "किसी ने जाके मजनू से
दाने के-से कहलाते हैं-दूसरी उपमा मोतियों की है) ___ यह पूछा था कि ऐ भाई, सुन्दर मुख, खूबसूरत लाल अधर, भौंहें बड़ी और "हसीं इतनी नहीं लैला
पतली, बड़े और काले बाल । पुराने जमाने में जापानकि जिसका तू है शैदाई, वाले सफेद चेहरा, लम्बी गर्दन, संकीण वक्षःस्थल बहा कर अश्क (आँसू) आँखों से
और छोटे हाथ और छोटे ही पैर पसन्द करते लगा कहने वह सौदाई, थे । एक का कहना है कि सौन्दर्य की इन तीन चीजों तमीजे खूब (अच्छे) व जिश्त (बुरे) से पहचान होती है-(१) सुकुमारता, (२) पीलापन
ऐ आशना कब इश्क ने पाई, और (३) तनुता । सुकुमारता और तनुता की क़द्र मुहब्बत में सभी यकसाँ हैं
इस देश में भी है, पर पीलापन इस देश में रोगग्रस्त जिससे जिसकी बन आई।" होने का सूचक है। सिंहल-देश में ऐसे लम्बे इसी ढङ्ग का एक हिन्दी में भी दोहा है- बालों की बड़ी क़द्र है जो घुटनों तक हों (अपने देश "रहिमन मन महराज के दृग से नहीं दिवान, में उनसे भी बड़े बालों की तारीफ़ है-"बढ़ि जाहि देखि रीझे नयन मन तेहि हाथ बिकान ।” केश छवान (एंडिया) सो लागे अरुभन ।” पतली एक और भी उर्दू का शेर है
कमर की भी वहाँ प्रशंसा है (हमारे यहाँ केहरि"देखा जो हुस्न यार तबीयत बदल गई, कटि कहते ही हैं)। कामसूत्र में वात्सायन ने पद्मिनी आँखों का था क़सूर छुरी दिल पे चल गई।" की प्रशंसा की है-"मुख पूर्णचन्द्र का-सा हो, शरीर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
११३
में मांस की कमी न हो, चर्म मुलायम और पतला दिखाई दे । यहाँ 'दुर के बोल सुहावन' वाला सिद्धान्त हो (कदापि उसका कृष्णवर्ण न हो), आँखें सुन्दर नहीं है । तुलसीदास जी की हथौटी में जितनी कविता
और चमकीली हां, इत्यादि इत्यादि । अब यह सिद्ध थी वह सब उन्होंने खर्च कर दी। वे कहते हैंहोता है कि सब जगह सौंदर्य का एक ही आदर्श "सब उपमा कवि रहे जुठारी, नहीं है और इस कारण सब जगह इसका एक ही
केहि पटतरिय विदेहकुमारी।" भाव और दर नहीं है। प्रत्येक अङ्ग का वर्णन न उपमा का काम प्रभाव को द्विगुणित कर देने का है, करके सौन्दर्य के समूह का वर्णन हिन्दी-कविता में पर ऐसे अवसर भी होते हैं जब उपमा प्रभाव को बहुत उत्तम है । एक कवि कहता है
घटा देती है। उसी से बचने के लिए गोस्वामी जी “विहँसै दुति दामिनि-सी दरसै
ने यह लिखा कि उपमायें सब जूठी हो गई हैं और तन जोति जोन्हाई उई-सी परै। उनसे विदेह-कुमारी का सौन्दर्य कहीं अधिक है । तब लखि पायन की अरुनाई अनूप
कौन-सी अनूठी उपमा का प्रयोग किया जाय ? धन्य ललाई जपा की जुई-सी परै।
तुलसीदास जी ! कविता इसे कहते हैं, कुछ नहीं । निकरै-मी निकाई निहारे नई
कहा और सब कुछ कह गये। __रति रूप लोभाई तुई-सी परे।
__अब यह पाठकों पर प्रकट हो गया होगा कि सुकुमारता मंजु मनोहरता मुख,
'रूप' को और देशवाले 'दृष्टि' समझते हैं और उनके __ चारुता चारु चुई-सी परै'।
मतानुसार संसार में केवल स्त्री ही एक देखने की मतिराम ने और भी कमाल कर दिया है। उन्होंने वस्तु है । 'दृष्टि' स्त्री में क्या देखती है, इस पर जो कहा है-"ज्यों ज्यों निहारिये नेरे कै नैनन त्यों कुछ लिखा गया है उसका कोई भी अंश उद्धृत त्यों खरी निकरै सी निकाई।" कितनी बड़ी प्रशंसा करना उचित नहीं प्रतीत हुआ। यही उनका दर्शनकी हैयह नहीं कि दूर से ही देखने में सुन्दरता शास्त्र है और यही उनका सांख्य-शास्त्र है।
प्रोढ़नी
लेखक, श्रीयुत उमेश
ओढ़ने को दी तमोगुण की मुझे क्यों ओढ़नी ? घिर गई मेरे हृदय में सघन घन की कालिमा। शून्य-जीवन में मचा दुख-वात का उत्पात-सा, छिप गई वह कनक-किरणों की प्रभामय लालिमा, हिल रहा है गात मेरा पीत पीपल पात-सा, चन्द्र-तारक-रहि न नभ की यामिनी-सी मैं बनी। मूक-प्राणों में सिमट कर सो रही पीड़ा घनी ।
दीप-लौ-सी थी कभी जो लालसा सोल्लास में, रात्रि के मरु-विजन-पथ-सी अंधतम आगार में, - धूम बन मँडरा रही है अब वही श्लथ-श्वास में, मैं युगों से हूँ पड़ी इस रेणुमय संसार में, __ सजल-स्मृतियों की हगों पर स्वप्न जाली-सी तनी। प्रिय ! मुझे दोगे न क्या तुम एक भी द्युति की कनी ?
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
सदामापरी का कालाकार
श्रीकृष्ण नामकरण—यह चित्र भो विलायत की प्रदर्शनी में गया था।
म्बई की सरकारी कलाशाला खींची हैं। अपराह्न-काल की छुट्टी के समय भी जे० जे० स्कूल आफ आर्टस- छात्र-मंडली उस व्यक्ति को घेरे रहती है। कलाशाला की वाटिका में एक व्यक्ति के अध्यापक-वृन्द में मधुर दृष्टिवाले इस व्यक्तिचला आ रहा है। उसके भाई जगन्नाथ अहिवासी-को पहचानने के लिए चेहरे पर अभिमान की रेखा इतनी पहचान पर्याप्त है। तक नहीं है। वह सौम्य
है, शान्त है और गंभीर है। उसकी चाल से एक कलाकार की शान्तवृत्ति प्रतिभासित होती है। एकहरे शरीर पर पहने हुए कुर्ते, खादी के साफ़ और गले में लिपटे हुए दुपट्टे से उस व्यक्ति की सरलता निखर रही है, जिसे आप कभी नहीं भूल सकते। विद्यार्थियों का वह प्रिय है, मित्र है; शिक्षक का निर्भय भाव उसकी वाणी में मधुरिमा भर रहा है। भारतीय चित्रकला की सेवा को धुन उसके मानस में समाई हुई है। कलाशाला में प्रविष्ट होनेवाला उसकी ओर बिना आकृष्ट हुए नहीं रह सकता। ऐसी ही भाग्य-रेखायें विधाता ने उसकी हथेली पर लेखक, श्रीयुत शंकरदेव विद्यालंकार
११४
www.umaragyanbhandar.com
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या
२]
सुदामापुरी का कलाकार
कुछ ही विद्यार्थी यह जानते होंगे कि इतनी सुन्दर प्रतिभा और व्यक्तित्ववाला यह व्यक्ति सुदामा
बनवानवाब पुरी (पोरबन्दर) की ओर से भारत-माता को दिया हुआ एक अमूल्य उपहार है । आज सैंतीस वर्ष का यह नौजवान बम्बई की सरकारी कलाशाला की सबसे अन्तिम कक्षा में अनेक उदीयमान चितेरों को भारतीय चित्रकला की दीक्षा दे रहा है। कलाशाला के विशाल पाठ-भवन में मेज़-कुर्सी लगाकर रोबदार शैली में बैठने का मोह उसको नहीं है। इसी लिए वाटिका के वृक्षों की शीतल छाया में, लकड़ी के बनाये हुए दो मंडपों में, वह अपनी कक्षायें चलाता है। उसकी कक्षा में प्रविष्ट होते ही आप भारतीय ढंग से नीचे लगाई हुई बैठकों पर बैठकर शान्त-भाव से कार्य करते हुए विद्यार्थियों को देखेंगे। अहिवासी जी को अपने ही ढंग से कार्य करना पसंद है और इसी लिए कलाशाला के प्रिन्सिपल ने भी उनको सब प्रकार की सुविधा और स्वाधीनता प्रदान की है।
श्री जगन्नाथ अहिवासी के पूर्व-पुरुष तो व्रजवासी थे, परन्तु इनका जन्म हुआ है सुदामापुरी में,
[मेरे पिताजी जो आज-कल पोरबंदर कहा जाता है और सौराष्ट्र चित्रकार अहिवासी के पितृदेव का चित्र-यह चित्र भी (काठियावाड़) का एक अच्छा बन्दरगाह है। बम्बई के प्रिन्स ऑफ वेल्स म्यूजियम ने खरीद लिया है। इसी नगरी को महात्मा गांधी की जन्मभूमि होने का भी सौभाग्य प्राप्त है। अहिवासी जी के पिता आर्थिक स्थिति बहुत सामान्य थी। इनके बालपन में श्री मुरलीधर अहिवासी एक अच्छे कीर्तनकार थे, ही माता का स्वर्गवास हो गया। अकेले पिता ने ही और भगवान् के कीर्तनकार ग़रीब होते ही हैं। उनकी इनका पालन-पोषण किया। कृष्ण-भक्ति के कीतनों
PARTMERIE
[अभिजात कवि और कलाकार को हम सामान्यतया उसके लेखन और अंकन के द्वारा ही देखते हैं, परन्तु उसकी यथार्थ प्रतिभा उसके हाथ के उतने ही कार्य में आबद्ध नहीं होती । वह हमको उसके व्यवहार, दैनिक जीवन तथा उस जीवन की प्रात्यहिक भाषा और भावभंगियों द्वारा ज्ञात होती है। कलाकार की अपनी निसर्गसिद्ध कुलीनता-श्राभिजात्य- का परिचय उसके जीवन और चरित्र के द्वारा ही मिलता है ।]
श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६
सरस्वती
द्वारा ही बालक जगन्नाथ के हृदय में भारतीय कला के गहरे संस्कार प्रविष्ट हुए। पढ़ने लायक उम्र होने पर ये पाठशाला में भेजे गये। वहाँ इन्होंने गुजराती की तीन कक्षायें पूरी की। यहीं से इनका अध्ययन समाप्त हुआ । चित्रकारी का शौक तो ताज़ा ही था । सात वर्ष तक इन्होंने भावसिंह- हाईस्कूल के चित्रकला - शिक्षक श्री मालदेव भाई राणा से चित्रकला का शिक्षण प्राप्त किया। धीरे धीरे श्री मालदेव भाई की तालीम ने इनको बम्बई की कलाशाला के द्वार तक पहुँचा दिया ।
अहिवासी जी बम्बई की कलाशाला में प्रविष्ट हो जाते हैं। इनकी प्रतिभा दिनों दिन विकसित होती जाती है । प्रतिवर्ष अपनी कक्षा में प्रथम नम्बर पर पास होकर ये अध्यापकों के स्नेहभाजन बन जाते हैं। इसी समय गांधी-युग का पहला अवतरण होता है। कलाशाला के आचार्य-पद पर श्री महादेव वामन धुरंधर आसीन होते हैं। अधिकार के आसन पर आसीन होकर धुरंधर महोदय कहते हैं- "तुम्हें खादी पहननी है तो कलाशाला छोड़नी पड़ेगी ।" श्री अहिवासी आर्ट स्कूल को नमस्कार करते हैं और पोरबंदर आकर पिता जी के कीर्तनकार के स्थान को स्वीकार करते हैं ।
परदेशी होते हुए भी भारतीय कला के परम प्रेमी श्री ग्लैडस्टन सालोमन महोदय कलाशाला के आचार्य नियुक्त होते हैं । ये महोदय आते ही पुरानी शिक्षणप्रणालिका को बदलना आरम्भ करते हैं। स्वतंत्र सर्जन तथा सर्जनात्मक वृत्ति को विकसित करने के प्राथमिक परन्तु मुख्य सिद्धान्त को आर्ट स्कूल के अध्ययन क्रम में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है । दूसरी ओर कलाशाला को छोड़कर कीर्तन के भावनाप्रधान गीतों को गाते हुए अहिवासी जी छात्रवृत्ति ढूँढ़ते फिरते हैं । "दो वर्ष और निकाल लो। आज तक के वर्ष कैसे चलाये हैं ? " - इस प्रकार के उत्तर अनेक स्थानों से मिलते हैं। श्री अहिवासी विफल हो जाते हैं, पर निराश नहीं। श्री मालदेव भाई पीठ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
ठोकते हैं और धीरज देते हैं। पुरुषार्थी के लिए सिद्धि का द्वार खुलता है ।
श्री अहिवासी को ज्ञात होता है कि बम्बई में ठाकुर जी के दो-तीन मंदिरों में कुछ विद्यार्थियों को रहने के लिए स्थान दिया जाता है । कीर्तन -द्वारा प्राप्त की हुई अपनी थोड़ी-सी पूँजी लेकर वे बम्बई जाते हैं । वहाँ मंदिर में रहने का प्रबन्ध हो जाता है । वे शाला में प्रविष्ट हो जाते हैं और जे० जे० स्कूल ऑफ आर्ट्स तथा केलकर-कला-मंदिर में तालीम प्राप्त करना शुरू करते हैं। प्रिन्सिपल सालोमन देखते हैं कि पतली देहयष्टी और लम्बी ग्रीवावाले इस विद्यार्थी के हृदय में कला के लिए नैसर्गिक शक्ति निहित है। सालोमन साहब उनको सम्मान - पूर्वक कलाशाला में प्रविष्ट करते हैं और इस कलाविद् आचार्य के सहवास में रह कर वे एक अच्छे कलाकार बन जाते हैं ।
श्री अहिवासी को अपनी कला-साधना में आचार्य सालोमन की सहायता तथा प्रेरणा प्राप्त हुई है । इसके लिए वे उनके बहुत कृतज्ञ हैं तथा उनके लिए बहुत सम्मान का भाव रखते हैं। अहिवासी जी की कलाकृतियाँ वेम्ब्ली की विश्वप्रदर्शनी, वाइसराय के राजप्रासाद और लंदन की पिकाडिली प्रदर्शिनी तक पहुँच चुकी हैं। हाल में ही उनके कुछ कलापूर्ण चित्र लंदन की कला प्रदर्शिनी में भेजे गये हैं ।
सन १९९४ की गर्मी की छुट्टियों में अहिवासी जी अपने कुछ छात्रों के साथ अजन्ता और एलोरा की यात्रा करने गये थे । तीन दिन के निवास के उपरान्त उन कलाधामों को छोड़ते हुए उनका हृदय रोता हुआ प्रतीत होता था । उनके मुख से अजन्ता के गुहाचित्रों की प्रशस्ति सुनने में बहुत आनन्द आता है । कलाशाला के उपहार गृह में बैठे हुए एक दिन वे अपनी यात्रा का वृत्तांत सुना रहे थे। एक अन्तेवासी ने पूछा - "अजन्ता की कला के विषय में आपका क्या विचार है ?" अहिवासी जी ने कहा--- "अजन्ता
www.umaragyanbhandar.com
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
सुदामापुरी का कलाकार
संदेश यह चित्र प्रिन्स ऑफ़ वेल्स म्यूजियम (बम्बई) ने खरीद लिया है । यह विलायत में भी भेजा गया था, वहाँ
इसकी बड़ी प्रशंसा हुई थी। की चित्रकला पर तो मैं बलि जाता हूँ। ऐसा प्रतीत नहीं हुआ है, बरन लोक-जीवन के प्रत्येक पहलू को होता है कि बन्धन-मुक्त साधु-सन्तों की तरह अनेक अंकित करने का उन कलाकार अवधूतों ने ध्यान रक्खा है। कलाकार युग-चित्र बनाने का निश्चय करके वहाँ जा बैठे एक छात्र ने पुनः प्रश्न किया—'अजन्ता का थे। उन चित्रों में लोक-जीवन की बातों का विस्मरण वातावरण आपको कैसा प्रतीत हुआ ?”
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८
सरस्वती
[भाग ३६
करती है तब सुन्दर कला-कृति का जन्म होता है।" इस प्रकार उत्तर देते हुए उनकी कल्पना शत-शत संवत्सर बीत जाने पर भी अमिट रहनेवाले अजन्ता के उन भित्ति-चित्रों का सूक्ष्म विवेचन करने लगती है और मानो हमको हठात वहीं ले जाकर खड़ा कर देती है । उनका प्रवचन अभी जारी है। वे कहते हैं"वायसरीगल लॉज में हमने भित्तिचित्र बनाये हैं, परन्तु वे सब कॅनवास पर बने हुए हैं, क्योंकि हमको विश्वास नहीं है कि वे चिरकाल तक दीवार पर अंकित रह सकेंगे। परन्तु यहाँ-अजन्ता के कलामंडपों में तो मिट्टी के रंगों से बनाई हुई कृतियाँ सदियाँ बीत जाने पर भी नित्य नूतन प्रतीत होती हैं। _एक दिन साँझ-समय श्री अहिवासी जी बम्बई के एक उपनगर की ओर भ्रमणार्थ गये। एक विशालकाय बँगले के पास से गुजरते हुए उन्होंने अपनी एक कृति खराब स्थिति में देखी। कलाकार के मन में अतिशय ग्लानि उत्पन्न होती है-“मेरी कला की यह दशा” ! मन-ही-मन अहिवासी जी बोल उठते हैं कि
खरीदने के लिए पैसे हों तो इस चित्र को मोल लेकर भिक्तिभेंट
अपने कुटीर में लगाऊँ। उनके हृदय में इसी प्रकार "बॉम्बे कानिकल" के "कांग्रेस अंक' के टाइटल
की कला-भक्ति है। इस घटना से यह स्पष्टतया प्रतीत पेज के लिए बनाया गया ।
होता है कि आधुनिक अर्थयुग में कला का व्यापार "इस प्रश्न का मैं क्या उत्तर दें? कलाकारों ने करनेवाले कलाकारों में उनकी गणना नहीं है। कलानिर्माण के लिए स्थान भी सौन्दर्य से भरपूर ही कवि-सार्वभौम श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शान्तिचुना है।” इतना कहते ही श्री अहिवासी की कल्पना निकेतन के कलामंदिर के अध्यक्ष अभिजात कलाकर उस स्थान का सौन्दर्य बताने के लिए सजीव-सी हो श्री नन्दलाल वसु श्री अहिवासी की कला पर मुग्ध गई। वे कहने लगे-"लोक-जीवन का श्वासोच्छ्वास है। उनका यह अभिप्राय है कि बंगाल-स्कूल के सामने उन चित्रों में भरा हुआ प्रतीत होता है. मानो कोई गुजरात में कोई भी यदि भारतीय कला की मशाल बौद्ध साधु हाल में ही आकर उन चित्रों का परिचय लेकर खड़ा रह सकता है तो वे हैं श्री अहिवासी। देने के लिए हमको वहाँ लिये जा रहा है।" नन्दलाल बाबू ने गुजरात छोड़कर बंगाल में आ जाने _एक सहृदय-व्यक्ति फिर प्रश्न करता है- "भार- के लिए उनको कई बार आमंत्रित किया है, परन्तु तीय कला की विशेषता क्या है "
बम्बई की कलाशाला के आचार्य और छात्रवृन्द उनको "अखंड बहती हुई चित्ररेखा ही हमारी कला छोड़नेवाले थोड़े हो हैं ! का विशिष्ट अंग है। पानी के अखंड प्रवाह की तरह श्री अहिवासी जी के मन में भी नन्दलाल बाबू एक परिपूर्ण रेखा प्रवाहित होकर जब चित्र-निर्माण के प्रति अपूर्व श्रद्धा है। इन पंक्तियों के लेखक को
Shree Sudharmaswami Gyanbhanda
ra Surat
www.umaraganbhandar.com
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
- संख्या २]
सुदामापुरी का कलाकार
पत्र लिखते हुए श्री अहिवासी ने अपने पत्र में नन्दलाल बाबू के प्रति अपनी श्रद्धा को बहत संदर शब्दों में व्यक्त किया है। वे लिखते हैं-"यदि मुझसे पूछा जाय तो नन्द बाबू के चरणों के पास बैठकर और भी कला-उपासना करूँ, यही मेरे जीवन की अन्तिम इच्छा है।"
दुःख का विषय है कि इस सौम्य कलाकार का समुचित समादर अभी तक गुजरात ने तथा भारत के कलाप्रिय सज्जनों ने नहीं किया है। अभी तक यह कलाकार अप्रसिद्धि के आँचल से बाहर नहीं आया है ! गुर्जर-भूमि के सर्वश्रेष्ठ और अभिजात कलाकार श्री रविशंकर रावल ने अपने विख्यात मासिक पत्र 'कुमार' के शतांक में श्री अहिवासी का परिचय देते हुए निम्नलिखित वचन लिखे थे—“बम्बई की सरकारी कलाशाला में भारतीय चित्रकला के शुद्ध स्वरूप में आदर करनेवालों में भाई अहिवासी जी पहले ही हैं। मूल ब्रजवासी होने पर भी ये सौराष्ट्र-भूमि में पालित और परिपोषित हुए हैं। ब्रज की भक्ति और सौराष्ट्र की सादगी को ये अपने जीवन में तथा कला में अनुप्राणित कर रहे हैं । सुकोमल रेखाओं और सुरम्य रंगों के द्वारा इनकी कला-साधना सफल हुई है। गुर्जरभूमि के अभिनव कलाकारों में इनका नाम -अग्रगण्य है।"
श्री अहिवासी भारतीय चित्रकला के आशास्पद कलाकार हैं। इन्हें पदक तथा ख्याति प्राप्त करने का मोह नहीं है। अपनी तथा अपने छात्रों को सृजनात्मक शक्ति को विकसित करने की ही एकमात्र अभिकांक्षा इनके हृदय में है। शिष्यों से बहुत-कुछ सीखने को मिलता है, यह बात नम्रभाव से स्वीकार करते हुए इनका मुख आनन्दोल्लास से छा जाता है।
[उत्कण्ठिता
आधुनिक युग में जब ज्ञानसाधना अनुदिन कष्टसाध्य और व्ययसाध्य बनती जा रही है, अनेक साधनहीन और असहाय विद्यार्थी श्री अहिवासी भाई के जीवन से स्वावलम्बन, सरलता, साधुता और सादगी का पाठ सीख सकते हैं ।
* 'हनुमान जर्नल' से सङ्कलित ।
Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्ज़-सम्बन्धी कानून
लेखक, श्रीयुत सीतलासहाय अभी हाल में संयुक्त प्रान्त की सरकार ने ऋणग्रस्त किसानों तथा जमींदारों की रक्षा के लिए कई उपयोगी कानून बनाये हैं। किसानों और जमीदारों को उन सबका जानना जरूरी है। श्रीयुत सीतलासहाय जी ने इसी उद्देश से इस लेख में
उन क़ानूनों का पूर्ण परिचय दिया है।
जं के नये कानूनों की चर्चा कृषि-व्यवसायियों की सहायता का कानून, दूसरा है। करीब दो वर्ष से चल रही 'दि इन्कम्बर्ड इस्टेट्स एक्ट' अर्थात् ऋणग्रस्त रियासतों है। संयुक्त प्रान्तीय व्यवस्थापक के सम्बन्ध का क़ानून, तीसरा है 'दि रेगूलेशन अाफ़ सेल्स सभा में इन कानूनों के मसविदे एक्ट' अर्थात् नीलाम के नियंत्रण का कानून, चौथा । सन् १६३३ में ही पेश हुए थे। कानून है 'दि टेम्पोरेरी रेगूलेशन अाफ़ एकज़ीक्यूशन | इन मसविदों ने कौंसिल में एक्ट' अर्थात् इजरा-नियंत्रण का अस्थायी कानून, |
और कौंसिल की कमिटियों में पाँचवाँ है 'दि यू पी० युजूरियस लोन्स एक्ट' अर्थात् | अनेक रंग बदले। साल डेढ़ साल के बहस-मुबाहिसे के संयुक्त-प्रान्त का अत्यधिक ब्याज का कानून, छठा है |
बाद ये क़ानून १० अप्रेल १६३५ को व्यवस्थापक सभा से एग्रीकल्चरिट्स लोन्स एक्ट' अर्थात् किसानों को ऋण | ___ मंजर होकर गवर्नर-जनरल-द्वारा स्वीकृत हो गये और ३० देने का कानून ।
अप्रेल सन् १६३५ से इन क़ानूनों के अनुसार संयुक्त प्रान्त इन कानूनों के मसविदे करीब २० हज़ार शब्दों में हैं। | में अमल भी होने लगा। तथापि अभी तक इनकी रूप- इसलिए 'सरस्वती' के संकुचित स्तम्भों में इन कानूनों का रेखा पूर्णतया निश्चित नहीं कही जा सकती। इन केवल संक्षेप ही दिया जा सकता है । अभी तक इस सम्बन्ध कानूनों से सम्बन्ध रखनेवाले अनेक कायदे अभी तक में जो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, ज़्यादातर अनुवाद हैं, जो तय होने को बाक़ी हैं। गवर्नमेंट ने ४ मई १६३५ के कानूनी भाषा से अपरिचित साधारण मनुष्य के लिए बेकार गज़ट में इन कायदों का मसविदा प्रकाशित कर दिया है हैं। अतएव इस लेख में उन कानूनों का प्राशय समझाने
और अब उन पर लोग अपने विचार प्रकट कर रहे हैं। का ही प्रयत्न किया गया है। जुलाई के प्रथम सप्ताह में ये कायदे प्रान्तीय व्यवस्थापक पहले हम 'कृषि-व्यवसायियों की सहायता के कानून सभा के सामने मंजूरी के लिए रक्खे जानेवाले हैं। और पर विचार करेंगे । ये कौंसिल से स्वीकृत होने के बाद अमल में श्रावेंगे। (१) कृषि-व्यवसायो की सहायता का कानून तब ये कानून सींग-सम्पूर्ण समझे जा सकेंगे।
इस कानून के जारी होने से निम्नलिखित नई बातें पैदा __कर्ज़ के सिलसिले में ६ नये कानून जारी किये गये हुई हैं। अदालत और महाजन इस बात के लिए मजबूर हैं, पहला है 'एग्रीकलचरिस्ट्स रिलीफ़ एक्ट' अर्थात् कर दिये गये हैं कि वे कर्जदार कृषक के मामले में साधारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandarbara Surat
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
कर्ज-सम्बन्धी कानून
१२१
कर्ज़ की अदायगी के लिए या रहन रख कर प्राप्त किये हुए न १,०००) का मालगुज़ार जो १२०) सालाना कर्ज की अदायगी के लिए क़िस्त बाँध दें । दस्तावेज़ में या इन्कमटैक्स देता है। किन्तु इस कानून के अनुसार मुबाहिदे में सूद की चाहे जो दर रक्खी गई हो, इन कानूनों हर एक कृषि करनेवाला चाहे वह तालुकदार ही क्यों में निश्चित की हुई दर से किसी भी हालत में अब ज्यादा न हो, इस कानून की निम्नलिखित बातों का फायदा सूद नहीं दिलाया जा सकता। छोटे किसानों के ऊपर उठा सकता है । जैसे वे-- डिगरी की मियाद १२ बरस से घटा कर केवल ४ वर्ष की (१) अदालत से अपने कर्ज़ के मतालबे की किस्तबन्दी कर दी गई है। महाजन इस बात के लिए मजबूर कर करा सकते हैं; दिया गया है कि वह प्रत्येक कर्ज़ का स्पष्ट और सही हिसाब (२) अगले सूद की शरह में कमी करा सकते हैं; रक्खे और इस हिसाब की एक नकल प्रतिवर्ष एक (३) डिगरी हो जाने के बाद भी किस्त बन्दी करा सकते हैं; निश्चित तारीख के अन्दर ऋणी के पास पहुँचा दे। (४) महाजन से हिसाब की नक़ल बाकायदा और बराबर महाजन कर्ज की वसूलयाबी का दावा उसी जिले में कर माँग सकते हैं। सकेगा जहाँ क़र्ज़दार किसान रहता है।
किस्तबन्दी–नये कानून के अनुसार कर्जदार के दरइस कानून के अनुसार कृषक शब्द की परिभाषा में ख्वास्त देने पर अदालत का यह कर्तव्य समझा जायगा कि निम्नलिखित श्रेणी के किसान आ जाते हैं ।
डिगरी देते समय मतालबे की ऐसी किस्तें बाँधे जो क़र्ज़दार (१) छोटे ज़मींदार जो एक हज़ार रुपया तक मालगुज़ारी की हैसियत को देखते हुए मुनासिब कही जा सके । (५) देते हैं।
डिगरी देते समय अदालत इस कानून-द्वारा सूद की निश्चित (२) ठेकेदार जिनकी ज़मीन की मालगुज़ारी १,०००) से दर से अधिक सूद न लगा सकेगी। इस कानून में 'किसान'अधिक नहीं है।
शब्द की परिभाषा में आनेवाले लोगों के लिए डिगरी की (३) जो १२०) तक सालाना अबवाब देते हैं । मियाद केवल चार बरस की कर दी गई है। (६) अगर (४) जो अवध में मातहतदार अर्थात् मालिक अदना हैं किसी महाजन ने १ जनवरी १६३६ को किसी किसान के
और जिसकी मालगुज़ारी १,०००) सालाना से अधिक ऊपर डिगरी करा ली तो वह १ जनवरी सन् १९४० नहीं है।
तक तो डिगरी इजरा करा के अपना मतालिबा वसूल कर (५) जो ८० एकड़ तक का माफ़ीदार है ।
सकता है। यदि इस बीच में मतालबा वसूल नहीं हुआ (६) जो ५०० से अधिक लगान देनेवाले काश्तकार तो आयन्दा वसूल नहीं किया जा सकेगा। नहीं हैं।
इस प्रान्त में एक कुप्रथा यह भी थी कि एक जिले के (७) साधारण मजदूर, गड़रिये, ग्वाले, लोहार, बढ़ई, महाजन दूसरे जिले के किसान को बिला ज़मानती कर्ज
मछवे, मल्लाह, नाई, चमार, भङ्गी, बँसफोड़, कुम्हार, देते और वसूल या बाकी के लिए अपने जिले में दावा धोबी, जुलाहे आदि भी जो किसी म्युनिसिपेलिटी से करके डिगरी ले लेते थे। कर्जदार किसान महाजन के बाहर रहते हैं, चाहे उनके पास खेत हो या न हो, इस जिले की अदालत तक अपनी आर्थिक कमजोरी के कारण कानून से फायदा उठा सकते हैं। ८० एकड़ का पहुँच ही नहीं सकता था और उसकी गैरहाज़िरी में उसके माफ़ीदार अगर ५०) से अधिक इन्कमटैक्स देता है ऊपर एकतरफ़ा डिगरी हो जाती थी। इस कानून की तो वह इस कानून से फ़ायदा न उठा सकेगा, और दफ़ा 9 के मुताबिक अब ऐसे क़ों का दावा उसी ज़िले
की अदालत में होगा जहाँ कर्जदार रहता है। * छोटा किसान वह है जो इस कानून में बयान किये सूद की दर-गवर्नमेंट ने ३० अप्रेल १६३५ के हुए 'किसान' शब्द की परिभाषा में आ जाता है। बाद सूद की दर निम्नलिखित निश्चित की है
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
-
कर्ज ज़मानती
कर्ज बिला ज़मानत
सूद दरसूद
सादा
सूद दरसूद सालाना हिसाब
सादा सूद सालाना
सालाना हिसाब
w
is
५०० और उससे कम ५०१ से ५,००० तक ५००१ से २०००० तक २०००१ से ज़्यादा
a
w
-
-
-
-
सूद दरसूद सालाना, सालाना
हिसाब
सादा सूद
सूद दरसूद सालाना, सालाना
हिसाब
सादा सूद
५०० या उससे कम ५००१ से ५,००० तक ५००१ से २०,००० तक २०,००० से अधिक
9ur
over ale
orroraMov
MY
८ मई १९३५ से निम्नलिखित दर लगाई जायगी।
५०० से कम ५००१ से ५००० तक ५००१ से २०,००० तक २०,००० से ज्यादा
FMGM
oriawardoorior
wopur
M
जो क़र्ज़ ३० अप्रेल १६३५ से पहले लिये गये हैं अदालत से दी जा चुकी हैं। अगर किसी डिगरी का कुल उन पर पहली जनवरी १६३० से ८ मई १६३५ तक सूद मतालबा या उसका कुछ अंश अभी तक अदा नहीं की अग्रलिखित दर रहेगी
हुअा है तो कर्जदार जिस पर डिगरी है, अदालत में दरसूद की यह दर उन डिगरियों पर भी लागू होगी जो ख्वास्त दे सकता है कि उसके ऊपर दी हुई डिगरी में नये
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
कर्ज-सम्बन्धी कानून
१२३
कानून के मुताबिक तबदीली की जाय। अदालत वापस करा देगी। (१३-१४) अगर जमा की हुई रकम दरख्वास्त पाने पर इस डिगरी के मतालबे में ऊपर लिखे काफ़ी नहीं है तो अदालत यह हुक्म देगी कि बाकी रुपया हुए ब्याज की दर के अनुसार ब्याज लगा कर कमी कर एक निश्चित मियाद' के भीतर जमा कर दिया जाय । इस देगी। नई दर के लिहाज़ से जो अधिक रक़म महाजन बाकी रकम के जमा होने के बाद अदालत रहन के छोड़ को सूद में मिल चुकी होगी वह सूद में न समझी जाकर देने का हुक्म दे देगी। (१६) मुरतहिन को अख्तियार असल की अदायगी में समझी जायगी । (३०) होगा कि रहन न छूटने के सम्बन्ध में अपनी उदारी . ३० अप्रेल १६३५ के बाद अगर किसी रकम पर पेश करे। यह प्रकट ही है कि रहन का मतालबा तय इतना सूद चढ़ जाय कि असल के बराबर हो जाय तो करने में अदालत केवल उतना ही ब्याज दिलायेगी जितने फिर उसके बाद उस रकम पर अगर वह कर्ज़ (बाज़मा- की नये कानून में इजाज़त है। नत) है तो केवल ३३ फ़ी सदी सूद दिलाया जायगा; और हिसाब-३० अप्रेल सन् १६३५ के बाद हर एक दो फ़ी सदी और, अगर क़र्ज़ (बिला ज़मानत) है । (३१) महाजन के लिए यह आवश्यक है कि चाहे वह छोटे किसान
३० अप्रेल के बाद अगर किसी ने (बिला ज़मानत) को क़र्ज़ दे रहा हो या बड़े ज़मींदार को, नियमपूर्वक सारे क़र्ज़ लिया हो और वह अपना क़र्ज़ दो वर्ष के अन्दर दे दे तो लेन-देन का बाकायदा हिसाब गवर्नमेंट के मुकर्रर किये हुए उस क़र्ज़ पर (बाज़मानत) क़र्ज़ का सूद लगेगा। (२६) फारम पर लिखे और रक्खे। महाजन के लिए यह भी
ऊपर दिये हुए नकशों से बाज़मानत और बिला आवश्यक है कि वह प्रत्येक क़र्ज़ के शुद्ध और दुरुस्त ज़मानत क़र्ज़ के सूद की दर में फ़र्क मालूम हो सकता है। हिसाब की एक नकल अपने या अपने मुख्तार के दस्तखत
रहन-सम्बन्धी कानून-नये कानून के मुताबिक से कर्जदार किसान के पास प्रतिवर्ष गवर्नमेंट-द्वारा निश्चित 'किसान'-शब्द की परिभाषा में आनेवाले किसान का किया की हुई तारीख के अन्दर भेज दे । इस हिसाब में उस हुआ रहन वा कब्ज़ा जिसमें ज़ेरायती जायदाद का मुनाफा वर्ष के जितने जमा-खर्च हैं, सब स्पष्ट लिखे हों। महाजन मुरतहिन को मिलता जा रहा है, २० वर्ष से अधिक का इस हिसाब में सूद उस दर से ज्यादा नहीं लगा सकता जायज़ नहीं समझा गया है। अब अगर कोई महाजन २० जो 'एग्रीकलचरिस्ट्स रिलीफ़ एक्ट' में मंजूर हुआ है। वर्ष से अधिक मियाद का रहन लिखावे तो लिखा-पढ़ी होते गवर्नमेंट ने यह तय किया है कि महाजन को चाहिए कि वह हुए भी जायदाद २० वर्ष के बाद छूट जायगी। जो रहन अपना हिसाब प्रतिवर्ष या तो दशहरा को या दिवाली को या ३० अप्रेल १६३५ से पहले रक्खे गये हैं उनके बारे में यह ३० सितम्बर को या ३१ दिसम्बर को या ३१ मार्च को बन्द कानून बना है कि तमादी आरिज़ होने के पहले और कर दे। हिसाब बन्द करने के एक महीने के अन्दर ही मूलधन वाजबुल अदा होने पर राहिन अगर अपनी जाय- कर्जदार के पास हिसाब की नकल जवाबी रजिस्ट्री से दाद छुड़ाना चाहे तो अदालत में अपनी जायदाद को पहुँच जानी चाहिए, जिससे उसे यह मालूम हो जाय कि छुड़ाने के लिए या उस पर कब्ज़ा हासिल करने के लिए उसके ऊपर कितना बाकी है और उस साल उसके हिसाब दरख्वास्त दे सकता है। दरख्वास्त के साथ अदालत में में कितना जमा-खर्च हुआ है। उतनी रकम भी जमा करनी होगी जितनी उसके खयाल अगर किसी कर्ज के मुकद्दमे के दौरान में अदालत में रहन छुड़ाने के लिए काफ़ी है । (१२) दरख्वास्त पाने को यह मालूम हो कि महाजन ने किसी कर्जदार को वसूल पर और रकम के जमा हो जाने पर अदालत मुरतहिन शुदा रकम की रसीद देने से इनकार किया है या देने में को तलब करेगी और अगर मुरतहिन जमा की हुई रकम बेपरवाही की है तो इस अपराध में वह महाजन से ऋणी को मंजूर कर लेगा तो उसे उस रकम को देकर उससे को उस बिना रसीदवाली रकम से दोगुना तक हरजाना राहिन की जायदाद और उस सम्बन्ध का दस्तावेज़ दिला सकती है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
सरस्वती
[ भाग ३६
कर्जदार अदालत में दरख्वास्त देकर किसी भी न कर्ज से छुटकारा पाता था। नये कानून में अब यह महाजन से अपने हिसाब की नकल माँग सकता है। कर दिया गया है कि कर्जदार जब चाहे बिला ज़मानती अदालत महाजन से हिसाब तलब करेगी और मतालबे क़र्ज़ की पूरी रकम का या बकाये का चौथाई हिस्सा अदालत को अत्यधिक ब्याजवाले कानून के मुताबिक और 'एग्रीकल- में जमा कर दे और दरख्वास्त देकर इस रकम को महाजन चरिस्ट्स रिलीफ़ एक्ट' की सूद-सम्बन्धी धाराओं के अनुसार के पास अदालत के ज़रिये जमा करा दे । (३८) जिनका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है, तय करेगी। अगर (२) इजरा-नियन्त्रण का अस्थायी कानून अदालत को यह मालूम हुआ कि महाजन को इन कानूनों इजरा के नियंत्रण का अस्थायी कानून जैसा के अनुसार ब्याज में ज़्यादा रकम मिल चुकी है तो उतनी इसके नाम से ज़ाहिर है, अस्थायी है। संयुक्त-प्रान्तीय रकम वह वापस करा देगी। अगर अदालत को यह व्यवस्थापक सभा से मंजूर होकर गवर्नर-जनरल ने निश्चय हो जाय कि महाजन ने किसी कर्ज के मामले में इसे १० अप्रेल १६३५ को स्वीकार किया और ३० बाकायदा हिसाब नहीं रक्खा है तो वह सूद की पूरी रकम अप्रेल १६३५ से यह इस प्रान्त में लागू कर दिया गया या उसका कुछ अंश दिलाये या न दिलाये।
है। इस कानून से फायदा उठाकर किसान केवल १२ अनेक ज़िलों के महाजनों में यह कायदा है कि जितनी अाना अदा करके पूरे रुपये की डिगरी से छुटकारा पा रक्रम देते हैं उससे ज़्यादा का प्रोनोट लिखाते हैं या रकम सकता है। देने के पहले ही कमीशन, कटौती, रसूम, लिखाई इत्यादि इसका आशय यह है कि अगर किसी किसान पर के नाम से असल में से कुछ हिस्सा काट कर रुपया देते १००) की डिगरी है तो वह कम रुपया देकर भी उससे हैं। इस कुप्रथा को मिटाने के लिए दफा ३५ (१) में मुक्त हो सकता है । उसे चाहिए कि अदालत में दरख्वास्त दे यह कहा गया है कि अगर कोई महाजन ३० अप्रेल १६३५ और १००) में से २५ जमा करे। अर्जी पाने पर क़र्ज़दार के बाद अपने बही-खाते में वास्तव में दी हुई रक़म से किसान से ज़्यादा से ज़्यादा ५ किस्तों में कुल ५०) अदालत ज्यादा लिख लेगा या रसूम इत्यादि के नाम से कुछ अंश और दिलायेगी और कर्जदार को ७५) में ही १००) की मूलधन से काट लेगा तो उसके ऊपर पहली बार जुर्म डिगरी से छुटकारा मिल जायगा। महाजन का फायदा साबित होने पर १००) तक जुर्माना किया जायगा और यह है कि १००) की डिगरी में २५) उसे फ़ौरन मिल दूसरी दफ़ा ५००) तक । ३० अप्रेल १६३५ के बाद बिना जाते हैं और बाकी ५०) दस दस रुपये की पाँच किस्तों लिखा-पढ़ी के कोई क़र्ज़ जायज़ न समझा जायगा । (३६) में वसूल हो जाते हैं । २५) का निस्सन्देह उसे घाटा ___महाजन के लिए यह आवश्यक है कि वह हर क़र्ज़ रहता है, किन्तु अनाज के भाव के घट जाने की वजह से की लिखा-पढ़ी करे और अलग अलग पर्चे रक्खे। इन यह घाटा घाटा नहीं समझा गया है। प) की एक एक नक़ल ऋणी को भी दे दिया करे । जब यह कानून एक रुपया तक लगान देनेवाले छोटे तक वह पर्चा ऋणी के पास न पहुँचेगा, महाजन सूद का काश्तकारों के लिए बनाया गया है और ३० अप्रेल सन् अधिकारी नहीं समझा जायगा। इस पर्चे पर टिकट ३५ के पहले दी हुई १,०००) से कम की दीवानी की लगाने की भी ज़रूरत नहीं होगी और न नकल पर ही डिगरियों पर ही लगेगा। यह कानून निम्नलिखित आदटिकट की ज़रूरत है। अनाज के रूप में दिया हुअा कर्ज मियों पर लागू नहीं होगा - ऋणी चाहे अनाज के रूप में अदा करे, चाहे पैसे के रूप (१) जो किसान इनकमटैक्स देता है; में (३७)। अभी तक अक्सर महाजन ऋणी किसान से (२) जो १०) से ज़्यादा मालगुज़ारी देता है; अदायगी के अवसर पर पूरे मतालबे से कम रकम लेते (३) जो ठेकेदार या मुरतहिन है; ही नहीं थे, न किसान कभी पूरी रकम दे सकता था और (४) जो किसान नहीं है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
क़र्ज़-सम्बन्धी कानून
१२५
(५) ३० अप्रेल १६३५ के बाद दी हुई डिगरियों पर तालुक्केदार हैं और न बिलकुल धनहीन किसान । यह कानून __ भी नहीं लगेगा;
खेती की ज़मीन की बिक्री को एक नियम में बाँधना चाहता (६) सहयोग समितियों की डिगरियों पर भी नहीं लगेगा; है। कारण यह है कि अनाजके भाव के कम हो जाने से (७) और न १०) से कम की डिगरी पर;
ज़मीन की भी कीमत कम हो गई है और यदि वर्तमान (८) जो डिगरियाँ कृषि-व्यवसायियों की सहायता के आर्थिक दशा में जमीन को स्वतन्त्रता-पूर्वक नीलाम पर - कानून के अनुसार कम कर दी गई हैं;
चढ़ाने या बेच देने का हक्क कायम रक्खा जाय तो (E) या जो मकान के किराया इत्यादि की हैं, क़र्ज़ की जमीन बड़े सस्ते दामों में बिकेगी और ऋणी कृषक का नहीं है।
नुकसान होगा। इसलिए इस कानून-द्वारा खेती की ज़मीन इस कानून से फ़ायदा उठाने का यह तरीका है कि की बिक्री उसी हालत में कानून की दृष्टि से जायज़ समझी जिस किसान के ऊपर डिगरी हो वह ३० अप्रेल १६३६ गई है जब उसके दाम सस्ती के ज़माने के पहले के के पहले उस अदालत में जहाँ से डिगरी निकली है या लगें। इस कानून में नई बात यह पैदा हुई है कि दीवानी जहाँ इजरा डिगरी की कार्रवाई हो रही है, अर्जी दे अदालत की किसी डिगरी की अदायगी के लिए जिस (दफा ६)। शर्त यह है कि वही श्रादमी अर्जी दे सकता समय कोई महाजन किसी खेती की ज़मीन को नीलाम पर है जो ३० अप्रेल ३५ को किसान रहा हो और अर्जी देने चढ़ायेगा तब उसकी कीमत नीलाम की बोली पर नहीं, के दिन भी किसान हो। अर्जी के साथ या अर्जी देने के बल्कि कलक्टर-द्वारा निश्चित होगी। अगर दीवानी अदामहीने भर के अन्दर उक्त डिगरी के मतालबे का चौथाई लत ने इस डिगरी की अदायगी के सिलसिले में कर्जदार अंश जमाकर दे । (७) अदालत इसके बाद यह देखेगी के लिए किस्तें मुकर्रर कर दी हैं तो उस वक्त कलक्टर कि कर्ज़ जिसके बारे में डिगरी दी गई है, सूद की किस नीलाम की कार्रवाई रोक देगा। कलक्टर जमीन की दर से लिया गया था। अगर सूद की दर २४) सालाना कीमत आज-कल के भाव से निश्चित न करेगा, बल्कि से ज़्यादा है तो अदालत डिगरी के मतालबा का केवल मंदी के पहले के और उस समय के भाव के अनुसार ४० फ़ी सदी सैकड़ा दिलायेगी। अगर सूद की दर २४) करेगा जब लगान और मालगुज़ारी में छूट नहीं हुई थी। सालाना या इसके बराबर है तो ५०) फ़ी सैकड़ा । किस्तें कीमत निश्चित करने में कलक्टर की सहायता के लिए ५ से अधिक न होंगी और किस्तों पर कोई सूद न लगेगा। गवर्नमेंट कायदे बनानेवाली है। अगर कर्जदार की तरफ़ से दो किस्तें बराबर रुक जायेंगी ज़मीन की कीमत तय हो जाने पर महाजन के सामने तो डिगरीदार को हक है कि बाकी पूरी रकम के लिए तीन मार्ग खुले रहते हैं। अगर वह यह समझता है कि ज़मीन वह डिगरी इजरा करा दे।
की जो कीमत कलक्टर ने तय की है, मुनासिब है और उस ___महाजन को उज्रदारी करने का अख्तियार है। और ज़मीन को उस दाम पर खरीद लेने में उसका घाटा नहीं है इस कानून से ग्रामीण मज़दूर, ग्वाले, अहीर, लोहार, तो वह उस दाम पर ज़मीन को खरीद ले और डिगरी का बढ़ई, मल्लाह, चमार, नाई, जुलाहे श्रादि सभी फ़ायदा हिसाब चुकता कर दे। अगर महाजन यह समझता है कि अभी उठा सकते हैं।
ज़मीन की बिक्री ठीक दाम पर नहीं होगी और न वह (२) नीलाम के नियन्त्रण का कानून दाम सन्तोषजनक है जो कलक्टर ने निश्चित किया ___ यह कानून भी अस्थायी है और जिन लोगों पर ऋण- है तो वह ज़मीन का नीलाम १ नवम्बर १९३६ तक मुलप्रस्त रियासत का कानून या इजरा-नियंत्रण का अस्थायी तवी रक्खे । यह कानून १ नवम्बर १६३६ तक ही फ़िलहाल कानून नहीं लगता उनके लिए बनाया गया है । अर्थात् इस लागू किया गया है । उसके बाद सम्भव है, अनुकूल परिकानून से वे लोग फ़ायदा उठायेंगे जो न तो बड़े ज़मींदार या स्थिति आ जाय । अगर यह बात भी महाजन को पसन्द
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६
सरस्वती
[भाग ३६
न हो तो ज़मीन को वह नीलाम पर चढ़ा सकता है, लेकिन जिनका क़ानूनी ज्ञान परिमित है। पहला शब्द है “किस्ती नीलाम में जितने दाम अावेंगे, चाहे कम या ज्यादा, उसी कीमत"। किसी ज़मीन की किस्ती कीमत वह रकम है जो में इस कानून के अनुसार उसकी डिगरी का सारा मता- वसूल की कमी का लिहाज़ रखते हुए उस ज़मीन के लबा चुकता समझा जायगा। यह कानून ३० अप्रेल मौजूदा मुनाफ़े से ज़मींदार और उसके कुटुम्ब के खर्च सन् १९३५ के पहले जितने कर्ज लिये गये हैं सब पर लागू तथा वसूलयाबी के खर्च को निकालने के बाद २० वर्ष है। और १ नवम्बर १६३६ तक ही कायम रहेगा। अगर के अन्दर वसूल हो सकती है। उदाहरण के लिए मान गवर्नमेंट चाहे तो गज़ट में नोटिस निकालकर इस कानून लीजिए कि 'क' एक गाँव है। इसकी आज-कल की कुल की मियाद बढ़ा सकती है । (दफा ६)
निकासी २,०००) साल है पहले २,५०० थी, लेकिन ५००) ___गवर्नमेंट जो कायदे ज़मीन की कीमत तय करने के छूट हो गई। मालगुज़ारी १,०००) है । ज़िलेदार या सिपाही लिए बनायेगी, पहले उन्हें गज़ट में प्रकाशित करेगी, व्यव- जो इस गाँव से लगान वसूल करते हैं उनकी तनख्वाह स्थापक सभा के सभासदों के पास उस मसविदे की एक वगैरह पर २००) साल खर्च करना पड़ता है। किसी भी एक नकल भेजेगी और कौंसिलों में पास होने के बाद गाँव से पूरी पूरी रकम वसूल नहीं होती। इस गाँव में उन कायदों पर अमल दरामद होगा।
१००) प्रतिवर्ष औसतन दब जाता है। ऐसी हालत में (४) ऋणग्रस्त रियासतों का कानून 'क' गाँव की क़िस्ती कीमत निम्नलिखित होगी'ऋणग्रस्त रियासतों का कानून' भी संयुक्त- २,०००) निकासी मौजूदा मालगुज़ारी मौजूदा १,०००) प्रान्तीय व्यवस्थापक सभा से पास होकर १० अप्रेल १६३५
खर्च वसूलयाबी २००) को गवर्नर-जनरल-द्वारा स्वीकृत हुआ और ३०
न वसूल होनेवाली रकम १००) अप्रेल से इस प्रान्त में उस पर अमल दरामद
ज़मींदार का घर का खर्च ५०० हो रहा है। यह कानून गढ़वाल, नैनीताल और
मुनाफ़ा २००) अल्मोड़ा के जिलों में लागू नहीं है और न देहरादून-ज़िले के जौसरवावर-परगने में ही लागू है। इस कानून का
२,०००) उद्देश यह है कि क़र्ज़ से दबी हुई रियासतें बिकने और इस हिसाब से प्रतिवर्ष २००) का मुनाफ़ा हुआ और दिवालिया होने से बचाई जायँ । कानून बनानेवालों के २० वर्ष में ४,०००) की बचत हुई। ४३ फ्री सदी के मतानुसार व्यापार में मन्दी आ जाने के कारण और हिसाब से सूद लगाने पर २,०००) के करीब की रकम कृषि-उपज का भाव गिर जाने की वजह से ज़मींदारवर्ग २० वर्ष में ४,०००) हो जायगी। इसलिए २,०००) की पर कर्ज का भार बहुत बढ़ गया है। अगर क़र्ज़ की यह रकम 'क' गाँव की किस्ती क़ीमत हुई। अदायगी में आज ज़मींदार की ज़मीन बेची जाने लगे किसी ज़मीन की बिक्री की कीमत' वह रकम है जो तो बहुत-सी रियासतों के तबाह हो जाने का डर है। १३३८ फ़सली के पहले उस ज़मीन को बेचकर मिल इसलिए यह नया कानून बनाकर यह इन्तिज़ाम किया सकती थी। गया है कि रियासतों का क़र्ज़ रियासत की आमदनी से उदाहरण के लिए 'क' गाँव.अगर आज बेचा जाय ही किस्त करके २० वर्ष के अन्दर अदा कर दिया जाय। तो मान लीजिए १०,०००) का बिकेगा, क्योंकि छूट की किस्तों के सम्बन्ध में गवर्नमेंट भी सहायता करेगी। वजह से लगान में भी कमी आ गई है और अनाज का
इस कानून को अच्छी तरह समझने के लिए कुछ भाव भी गिर गया है। लेकिन जब भाव मन्दा नहीं हुआ शब्दों का अर्थ और उनकी परिभाषा जान लेना आवश्यक था, अर्थात् १३३८ फ़सली के पहले यह गाँव १५,०००) है। विशेषकर उन लोगों के लिए जो वकील नहीं हैं और का बिकता। ऐसी हालत में इस कानून के मुताबिक 'क'
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
क़र्ज़-सम्बन्धी कानून
- १२७
गाँव की बिक्री की कीमत १०,०००) नहीं, बल्कि १५,०००)
तान में एक निश्चित रकम निश्चित समय पर मुरसमझी जायगी।
तहिन को अदा करता रहेगा। अगर राहिन अपने 'क्रिस्ती कीमत' व 'बिक्री की कीमत' कलक्टर गवर्न- वादे के अनुसार मूलधन और ब्याज का भुगतान मेंट-द्वारा बनाये हुए नियमों के अनुसार तय करेगा। नहीं करता तो मुरतहिन कलक्टर के यहाँ दरख्वास्त
तीसरा शब्द है 'रक्षित भूमि' । इस प्रान्त में दो देकर रहन की हुई भूमि पर ऐसी मियाद के लिए कानून हैं-एक का नाम '१६१७ का अवध सेटेल्ड कब्ज़ा माँग सकेगा जिसे कलक्टर कर्ज़ की अदास्टेट्स एक्ट' है और दूसरे का नाम '१९२० का यू० पी० यगी के वास्ते मुनासिब समझे । किन्तु यह मियाद सेटेल्ड स्टेट्स एक्ट' है। संयुक्त-प्रान्त में अगर कोई २० वर्ष से ज्यादा नहीं हो सकती। अगर कलक्टर ज़मींदार या तालुकदार चाहे तो वह अपनी रियासत इन ने मुरतहिन की दरख्वास्त पर किसी मियाद के लिए · कानूनों की मदद से 'रक्षित' करा सकता है। रक्षित हो ज़मीन पर कब्जा दे दिया तो यह ज़मीन मुरतहिन के जाने पर उसकी रियासत को उसके वंशज साधारणतः कब्ज़े में केवल निश्चित समय तक के लिए ही न तो बेच सकेंगे न रहन कर सकेंगे।
रहेगी। उसके बाद वह जमीन कर्जदार को वापस ___'अरक्षित भूमि' वह है जो इन ऊपर बताये हुए दोनों मिल जायगी और राहिन का ऋण पूर्णरूप से चुकता कानूनों के मुताबिक 'रक्षित' नहीं की गई है।
समझा जायगा। राहिन उसे कहते हैं जो अपनी जमीन दूसरे के यहाँ इस कानून के पास हो जाने से ऐसे ज़मींदारों को रहन अर्थात् बन्धक रखता है । मुरतहिन वह महाजन है जिनकी रियासत कर्ज़ से दबी हुई है, यह अधिकार मिल जिसके यहाँ ज़मीन रहन रक्खी जाती है। इस कानून में गया है कि ३० अप्रेल १६३६ से पहले अपने जिले के दो किस्म के रहन जायज माने गये हैं। उनका मसविदा कलक्टर के यहाँ इस कानून के मुताबिक अपने ऋण को - निम्नलिखित है
चुकाने के लिए दरख्वास्त दें। दरख्वास्त में यह जाहिर रहन नं० १-इसमें रहन करनेवाला रहन की हुई ज़मीन करना होगा कि उनके ऊपर कितना महाजनी कर्ज है
का मालिकाना कब्ज़ा मुरतहिन को दे देता है और और कितना सरकारी कर्ज़ है। कितने कर्ज़ की डिगरी हो उसको अधिकार देता है कि वह ब्याज के बदले में गई है और कितना कर्ज़ अभी तक बिना डिगरी का है। और मूलधन के भुगतान में उस भूमि का लगान उस दरख्वास्त पर कलक्टर 'ऋणग्रस्त जमींदारी कानून' और मुनाफ़ा वसूल करता रहे । लेकिन मुरतहिन यह के अनुसार उसकी रियासत का कर्ज अदा करने का मुनाफ़ा एक मियाद तक ही ले सकता है और वह इन्तजाम करेगा । (४) कलक्टर के पास अर्जी आने पर मियाद २० वर्ष से अधिक न होगी। इस मियाद वह इस अर्जी को स्पेशल जज के पास भेज देगा, जिसे के समाप्त होने पर राहिन का ऋण पूर्णरूप से गवर्नमेंट स्थान स्थान पर नियत कर चुकी होगी। स्पेशल भुगता हुआ समझा जायगा और भूमि बिना जज दरख्वास्त देनेवाले ऋणी को तलब करेगा। उससे कुछ और दिये हुए वापस मिल जायगी अर्थात् तहरीरी बयान माँगेगा और निम्नलिखित बातें दरयाफ्त महाजन बिना किसी और वसूलयाबी के उस ज़मीन करेगाको वापस कर देगा।
(१) सरकारी और महाजनी ऋण का सम्पूर्ण ब्योरा, रहन नं० २–बिना कब्ज़े का रहन होगा। इसमें रहन जिससे उस जमींदार या मालिक श्राराजी की स्थावर
रखनेवाला ऋण की जमानत में अपनी किसी ज़मीन सम्पत्ति या सम्पत्ति का कुछ अंश दबा है। को मकबूल करेगा, लेकिन कब्ज़ा न लेगा। राहिन (२) ज़मीन में मालिक अाराज़ी का हक कितना है और यह वादा करेगा कि मूलधन और ब्याज के भुग- . किस प्रकार का है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
सरस्वती
[ भाग ३६
(३) महाजनों का नाम व पता (दफ़ा ७)।
इस नये कानून के मुताबिक ३१ दिसम्बर १६१६ तक ऋणी का हल्फ़िया बयान लेकर स्पेशल जज गज़ट जितना मूलधन और सूद इकजाई करके मूलधन बना में उर्दू और हिन्दी में इन बातों का प्रकाशित करा देगा दिया गया है वह तो कायम रहेगा, लेकिन ३१ दिसम्बर और जिन महाजनों का कर्ज़ है उन्हें तलब करेगा सन् १६१६ के बाद अगर किसी महाजन ने मूलधन और और उनसे ३ महीने के अन्दर सारे कर्ज़ के सम्बन्ध में सूद इकजाई करके रकम पर सूद चलाया है या किसी डिगरी चाहे उन कों के बारे में डिगरी मिल चुकी हो या न मिल में इस प्रकार चलाया गया है तो वह मूलधन नहीं माना चुकी हो, तहरीरी बयान दाखिल करने को कहेगा । (5) जायगा । जोड़े हुए सूद की रकम अलग कर दी जायगी
गज़ट में नोटिस निकल जाने के बाद अगर उस और मूलधन बढ़ा कर ज़्यादा वसूल की हुई रकम असल जमींदार के ऊपर कर्ज के मुताबिक कोई दावा कहीं किसी की अदायगी में समझो जायगी। इस कानून ने ३१ दूसरी अदालत में भी होगा तो वह रुक जायगा, और अगर दिसम्बर १६१६ के बाद सूद की इकजाई रकम को असल डिगरी इजरा भी हो गई है तो वह भी खत्म हो जायगी। में बदल देने की प्रथा को नाजायज़ कर दिया है। महाजन के अपने मतालबे के सम्बन्ध में जितने कर्ज़ निम्नलिखित क्रम से अदा किया जायगादस्तावेज़ होंगे उन्हें उसे स्पेशल जज के यहाँ दाखिल सबसे पहले लगान व मालगुजारी अदा की जायगी। फिर कर देना होगा। (१०) अगर किसी महाजन ने नियत गवर्नमेंट या म्युनिसिपल और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दिया समय के अन्दर दस्तावेज दाखिल न किये तो मुकद्दमे के हुअा क़र्ज़ । फिर कर्ज या ज़मानत । उसके बाद वह कर्ज मौके पर जज उन काग़ज़ों को शहादत में ले चाहे न ले। जो दिये हुए सामान या की हुई सेवाओं के लिए दिया
३० अप्रेल १६३५ के बाद और जज के यहाँ दफ़ा गया हो । (४) के अनुसार दरख्वास्त देने के बीच अगर कोई व्योरा यह है कि जब स्पेशल जज किसी कर्जदार रईर ज़मींदार अपनी ज़मीन रहन करे या बेच देगा तो वह के क़र्ज़ के सम्बन्ध में उसकी और महाजन की सारी बात रहन और बय मन्सूख समझा जायगा। (१२) सुन लेगा और पक्ष और विपक्ष की सारी युक्तियों प __ अगर कोई महाजन अपने क़र्ज़ का मतालबा स्पेशल विचार कर चुकेगा उस समय वह फैसला देगा कि उत्त जज के सामने इस कानून में बताये हुए तरीके से पेश ज़मींदार को वास्तव में कितना रुपया देना है । उस नहीं करता (चाहे उस क़र्ज़ के सम्बन्ध में उसके पास कर्जदार पर उतने रुपये की डिगरी करके स्पेशल जज डिगरी ही क्यों न हो) तो वह उस रकम को ऋणी से डिगरी को इजराई के लिए कलक्टर के पास भेज देगा वसूल न कर सकेगा और ऋणी का वह कर्ज़ अदा समझा और उसे इस बात की भी सूचना दे देगा कि उक्त कर्ज जायगा। (१३)
दार रईस के पास कितनी जायदाद है जो, क़र्ज़ के ___ मतालबे के बारे में महाजनों को नोटिस देने के बाद • अदायगी में कुर्क, रहन या बय की जा सकती है ( दफा पक्ष और विपक्ष के गवाहों और प्रमाणों को अच्छी तरह १६)। कलक्टर स्पेशल जज की डिगरी को पाकर क़र्ज़दार देख-सुन कर स्पेशल जज हर एक महाजन का मतालबा को दो महीने की मियाद देगा कि इसके अन्दर वह मतातय करेगा। (१४) डिगरी देने में स्पेशल जज अत्यधिक लबे का रुपया कलक्टर की अदालत में जमा कर दे और ब्याजी कानून के अनुसार चलेगा, और इस बात का कर्ज से छुट्टी पा जाय । स्पेशल जज के फैसले के बाद ख्याल रक्खेगा कि अर्जी देने के दिन सूद की मात्रा उस एक महीने के अन्दर अगर कोई दरख्वास्त देनेवाला दिन तक बाकी मूलधन से ज्यादा न हो । अर्थात् प्रसिद्ध अर्थात् कर्जदार चाहे तो स्पेशल जज के फैसले को मन्सूख हिन्दू-स्मृतिकार दंडूपंत के सिद्धान्त के अनुसार काम कराने के लिए दरख्वास्त दे सकता है। ऐसी हालत में करेगा।
अदालत विपक्षी का अदालती खर्च दिलाकर स्पेशल
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar com
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
क़र्ज-सम्बन्धी कानून
१२९
जज का फ़ैसला मन्सूख कर देगी और उस क़र्ज़दार अगर इस मियाद के अन्दर कर्जदार रईस ने मतालबे की जमींदार का कर्ज साधारण कानून के अनुसार वसूल रकम नक़द लाकर अदालत में जमा कर दी तो कलक्टर होगा । (२०) इस कानून के अनुसार कर्जदार रईस का इस रकम से उसका सब क़र्ज़ अदा करके डिगरियों को कर्ज संक्षेप में निम्नलिखित तरीके से अदा हो सकेगा- खत्म कर देगा । (दफ़ा २३) लेकिन अगर मियाद के (१) जब कलक्टर द्वारा मियाद के अन्दर कर्जदार रईस खत्म हो जाने तक कर्जदार मतालबे की पूरी रकम - नकद रुपया कलक्टर की अदालत में जमा कर कलक्टर की अदालत में न जमा कर सका तो जितनी दे । (दफा २३)
रकम वह जमा कर सकेगा उसी को कलक्टर क्रम से (२) जमीन की मिलकियत के अलावा कर्जदार की बाक़ी क़र्ज़ की अदायगी में लगायेगा और बाकी कर्ज को __ जायदाद को कुर्क और नीलाम करके कर्ज अदा निम्नलिखित तरीके से अदा करेगाकर दिया जाय । (२४
___ सबसे पहले कलक्टर ज़मींदार की ज़मींदारी छोड़कर (३) जब नं० १ और नं० २ भी काफ़ी न हो तो ज़मीन बाकी जितनी सम्पत्ति है और जिसके बारे में उसे स्पेशल रहन रख कर । (२५)
जज ने सूचना दे दी है कि वह क़र्ज़ की अदायगी में ४) जब क़र्ज़ की मात्रा से अरक्षित जमीन की किस्ती रहन, बय या कुर्क हो सकती है, बेच देगा और उससे कर्ज
कीमत ज़्यादा है तब क़र्ज़ की अदायगी में स्थानीय की अदायगी कर देगा। (२४) लेकिन अगर कर्जदार रईस गवर्नमेंट का २० वर्षीय बांड महाजन को मिल चाहे तो कलक्टर को उसके लिए उसका घर और मालजायगा और कर्जदार रईस को यह रकम २० वर्ष के असबाब छोड़ देना होगा और सिर्फ बाकी सम्पत्ति का ही
अन्दर गवर्नमेंट को अदा कर देना होगा (२७) नीलाम करायेगा । कलक्टर को कर्जदार की उक्त सम्पत्ति (५) अगर अरक्षित जमीन की क़िस्ती कीमत कम है और नीलाम करने के पहले उदारी सुननी होगी। अगर
कर्ज ज़्यादा है, लेकिन कर्ज रक्षित ज़मीन की किस्ती कर्जदार रईस यह दरख्वास्त दे कि उसका कर्ज किस्तवार क़ीमत और अरक्षित ज़मीन की बिक्री की कीमत से अदा कर दिया जाय और उसकी जायदाद से किस्त अदा ज़्यादा नहीं है तो कलक्टर अरक्षित भूमि का कुछ हो सकती हो तो कलक्टर ज़मींदार की सम्पत्ति को नीलाम हिस्सा बेच देगा और जो कर्ज़ बाकी रह जायगा न करेगा। अगर ऐसा नहीं मुमकिन है तो कलक्टर
उसका बांड महाजन को दे देगा। (२८) जमींदारी के अलावा बाकी सारी जायदाद बेच कर उसका (६) अगर कर्ज रक्षित ज़मीन की किस्ती कीमत और क़र्ज़ अदा कर देगा । (दफा २४) अगर कर्जदार जमींदार
अरक्षित ज़मीन की बिक्री की कीमत से भी ज्यादा की जमींदारी के अलावा सारी सम्पत्ति बेच देने पर भी है तो कलक्टर पूरी अरक्षित ज़मीन बेच देगा और उसका कर्ज अदा नहीं होता है तो कलक्टर अगर कोई साकी कर्ज के बदले में कलक्टर गवर्नमेंटी बांड मुरतहिन मिला और उपर्युक्त दोनों रहनों में किसी भी
महाजन को दे देगा । यह रकम गवर्नमेंट ज़मींदार किस्म का रहन रखने के लिए तैयार हो गया तो वह . से २० वर्ष में सूद के सहित वसूल कर लेगी। उसकी मुनाफ़े की अरक्षित जमींदारी रहन रख देगा।
विशेष रूप से स्पष्ट करने के लिए हर एक तरीके को अगर कोई मुरतहिन न मिला और न क़र्ज़दार रईस इतना अलग अलग ब्योरा निम्नलिखित है।
काफ़ी रुपया ही जमा कर सका कि उसका कर्ज़ अदा किया पहला तरीका-स्पेशल जज के यहाँ से कलक्टर के जा सके तो ऐसी हालत में अगर कलक्टर यह देखे कि पास कर्जदार रईस के ऊपर कुल जितनी डिगरियाँ हैं, श्रा क़र्ज़दार रईस का कर्ज उसकी अरक्षित सम्पत्ति की किस्ती जायेंगी। कलक्टर कर्जदार को नोटिस देगा कि वह अमुक कीमत से कम है तो कलक्टर गवर्नमेंट-द्वारा बनाये हुए रकम उसकी अदालत में दो महीने के अन्दर जमा करे। नियमों के अनुसार महाजनों को तो उनके मतालबे की फा.५
www.umaragyanbhandar.com
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
.
अदायगी में सरकारी बांड दे देगा और क़र्ज़दार रईस रईस ने अपने पूर्वजों की जायदाद का कुछ हिस्सा काम को हुक्म देगा कि २० बरस में इस रकम को सूद के में ले लिया है उस हालत में उसकी जाती जायदाद भी सहित जो ४', प्रतिशत सालाना से ज़्यादा न होगा, इस कानून के मुताबिक पैतृक ऋण अदा करने के लिए सरकारी खज़ाने में जमा कर दे । (दफा २७) कुर्क कर ली जा सकती है। ___ मान लीजिए कि रईस कर्जदार का ऋण इतना अगर उक्त कर्जदार को कुछ ज़ाती कर्ज देना है, ज़्यादा है कि वह उसकी अरक्षित भूमि की क्रिस्ती कीमत और जिसकी माँग स्पेशल जज के सामने पेश हो गई है, से अदा नहीं हो सकता, लेकिन रक्षित जायदाद की किस्ती तो उस हालत में स्पेशल जज कर्जदार रईस की गैर कीमत और अरक्षित जायदाद की बिक्री की कीमत से पैतृक सम्पत्ति कुर्क कर सकता है और उससे यह कह अदा किया जा सकता है तो कलक्टर लोकल गवर्नमेंट के सकता है अगर तुम यह नहीं चाहते तोनियमों के अनुसार कर्जदार रईस की अरक्षित जायदाद (१) तुम अपनी दरख्वास्त वापस ले लो। के कुछ अंशों को बेच देगा और उसके कर्ज़ का जो (२) अपना ज़ाती कर्ज अदा कर दो। हिस्सा बच जायगा उसे २० बरस में कर्जदार रईस से (३) जो पैतृक सम्पत्ति से फायदा उठा लिया है उसके मालगुज़ारी के साथ वसूल करने का हुक्म देकर महाजनों बदले में रक्कम जमा कर दो। को उनके मतालबे की अदायगी के लिए २० बरस में अगर कोई रईस दरख्वास्त देने के बाद मर जाय अदा होनेवाले गवर्नमेंटी बांड दे देगा। (२८) यह भी और कलक्टर के ज़रिये से क़र्ज़ की अदायगी न हो चुकी हो सकता है कि किसी कर्जदार रईस का ऋण इतना हो तो भी मुकद्दमा ज्यों का त्यों चलेगा गोया रईस ज्यादा है कि रक्षित सम्पत्ति की किस्ती कीमत से और जिन्दा है और उसके वारिसों को उसी की तरह अपनी अरक्षित सम्पत्ति की बिक्री की कीमत से भी अदा नहीं हो जायदाद को रहन या बय करने का हक न होगा। सकता। ऐसी हालत में कलक्टर कर्जदार रईस की दर्जा दो के स्पेशल जज के फैसले की अपील डिस्ट्रिक्ट सम्पूर्ण अरक्षित सम्पत्ति महाजनों को दे देगा और बाकी जज के यहाँ होगी और स्पेशल जज (दर्जा अव्वल) की रकम २० बरस में रक्षित जमीन की किस्ती कीमत से अपील चीफ़ कोर्ट या हाईकोर्ट में होगी। कलक्टर के वसूल कर लेगा। महाजनों को गवर्नमेंटी बांड मिल यहाँ की अपील बोर्ड अाफ़ रेवेन्यू में होगी। जायगा और गवर्नमेंट जमींदार से अपना मतालबा मय (५) संयुक्त-प्रांत का अत्यधिक ब्याज का कानून सूद के मालगुजारी के साथ २० बरस में वसूल करती यह कानून गवर्नर-जनरल द्वारा १० अप्रेल १६३५ रहेगी । (२८)
को स्वीकृत हुअा। यह कानून २७ अप्रेल १६३५ ___ अगर कर्ज पुश्तैनी है और पुश्तैनी जायदाद से ही के बाद जो मुकद्दमे दायर होंगे उन्हीं पर लगेगा कानून के मुताबिक वसूल हो सकता है तो इस कानून में और हर एक किस्म के ऋण पर अायद होगा, चाहे वह कोई ऐसी बात नहीं पैदा की गई है जिससे क़ज़ेदार रईस कृषि-सम्बन्धी हो या गैर कृषि-सम्बन्धी। की गैर पुश्तैनी जायदाद ज़ेरबार हो जाय (४६) जिस इस कानून के अनुसार अदालत को यह अखत्यार वक्त से कि क़र्ज़दार रईस ने इस कानून के अनुसार दफ़ा दिया गया है कि किसी मुक़द्दमें में जिसे महाजन ने अपना ४ में दरख्वास्त पेश कर दी और उस वक्त तक कि क़र्ज़ वसूल करने के लिए २७ अप्रेल १६३५ के बाद दायर कलक्टर इस दरख्वास्त के मुताबिक कर्जदार रईस के किया हो या किसी कर्जदार ने महाजन से अपना हिसाब ऋण की अदायगी दफा २७,२८,२६ में वहीं कर लेता, माँगने के लिए चलाया हो या किसी ऐसे मुकदमे में जिस कर्जदार रईस न तो खुद दिवालिया होने की दरख्वास्त पर “अत्यधिक ब्याज का कानून" लगता हो; अगर अदादे सकता है और न कोई दूसरा । (४८) अगर कर्जदार लत को प्रतीत हो कि उक्त मामले में ब्याज अत्यधिक है या
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
क़र्ज़ -सम्बन्धी कानून
संख्या २]
तय
यह कि पक्षों के बीच में जो शर्तें तय पाई हैं, काफ़ी श्रन्यायपूर्ण हैं तो अदालत निम्नलिखित बातें कर सकती है (१) उक्त व्यवहार का हिसाब फिर से खोल दे । दोनों पक्षों के जमा-खर्च और लेन-देन का ब्योरा देखे और अगर कर्ज़दार से अत्यधिक ब्याज ले लिया गया है तो उससे उसे मुक्त कर दे । (२) यदि दोनों पक्षों ने अर्थात् महाजन और कर्ज़दार ने मुग्राहिदा करके या दस्तावेज़ लिखकर यह कर लिया है कि पुराना हिसाब-किताब बन्द कर दिया जाय और नया हिसाब नये सिरे से चले, तो भी अदालत पुराने बन्द हिसाब को फिर से खोल सकती है और क़र्ज़दार को अत्यधिक ब्याज से ( अगर उससे अत्यधिक ब्याज लिया गया है) मुक्त कर देगी और अगर अत्यधिक ब्याज की सूरत से कोई रकम हिसाब में डाली जा चुकी है या अदा की जा चुकी है तो उसे वापस करा देगी | (३) अदालत को खत्यार है कि किसी ऋण के सम्बन्ध में किसी दी हुई ज़मानत या किये हुए मुग्राहिदे को पूर्णतया अथवा अंशतः रद कर दे या बदल दे । यदि महाजन ने ज़मानत की वस्तु अपने पास से अलग कर दी है तो अदालत उसे यह हुक्म दे सकती है कि कर्ज़दार की क्षति पूर्ति करे । किन्तु अदालत 'कोई ऐसा मुाहिदा फिर से न खोलेगी जिसका तात्पर्य पहले का हिसाब-किताब बन्द करना और एक नया उत्तरदायित्व स्थापित करना होगा, जो ( मुलाहिदा ) पक्षों ने या उन मनुष्यों ने जिनसे वे अपना अधिकार स्थापित करते हैं ऐसी तिथि में किया होगा जो मामले की तिथि से सत्रह वर्ष से अधिक हो' । इस क़ानून के मुताबिक प्रथम रहन द्वारा सुरक्षित क़र्जों पर अगर १२% प्रति सालाना से ज़्यादा सूद लिया गया है तो वह अत्यधिक ब्याज माना जायगा । लेकिन अगर कोई क़र्ज़ प्रथम रहन द्वारा सुरक्षित नहीं है तो अदालत १२% प्रतिशत से अधिक भी सूद
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
१३१
दिला देगी । असुरक्षित क़र्ज़ पर २४% से ज्यादा ब्याज अत्यधिक है । किन्तु ६% अधिक नहीं समझा गया है । सुरक्षित क़र्ज़ पर ७% सूद ज्यादा नहीं है, लेकिन १२% ज्यादा माना गया है ।
(६) किसानों को ऋण देने का कानून असल में यह क़ानून १८७६ के तक़ावी क़ानून का संशोधित रूप है और सारे प्रान्त में लागू कर दिया गया है । इस क़ानून के अनुसार ज़मीन के “मालिक और दखील" ही गवर्नमेंट से क़र्ज़ पा सकेंगे । अवध के साधारण किसान जिनको ज़मीन में सिर्फ़ आजीवन ही अधिकार है या श्रागरा प्रान्त के साधारण किसान इस कानून के अनुसार गवर्नमेंट से क़र्ज़ नहीं पा सकते । इस कानून के अनुसार गवर्नमेंट ज़मींदारों को जो खेती की ज़मीन के मालिक और दखील हैं, १) कष्ट निवारण के लिए, (२) मौजूदा कर्ज़ अदा करने के लिए, (३) बीज और पशु खरीदने के लिए या ( ४ ) खेती की ज़मीन खरीदने के लिए रुपया उधार देगी ।
उपर्युक्त कर्ज़ के क़ानून महाजनों की दृष्टिकोण से निम्नलिखित बातों में त्रुटिपूर्ण हैं
(१) महाजनों को उनका मताला बहुत दिनों में अर्थात् क़रीब २० बरस में वसूल होता है । (२) सूद कम कर दिया गया है ।
(३) क़र्ज़दार के पास प्रतिवर्ष हिसाब भेजना पड़ता है ।
अगर महाजन हिसाब न भेजे तो उसे सूद और अदालती खर्च से हाथ धोना पड़ता है । (४) सूद असल से कभी न बढ़ता ।
(५) महाजन का क़र्ज़दार की ज़मीन मौजूदा भाव पर नहीं बल्कि सन् १३३८ फ़सली के पहले के भाव पर खरीदनी पड़ती है ।
(६) क़र्ज़ के अदा न करने पर ज़मींदार को महाजन अ गिरफ़्तार नहीं करा सकता ।
(७) छोटे किसानों की डिगरियाँ और क़र्ज़ में २५% से ३५% की कमी कर दी गई है।
www.umaragyanbhandar.com
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह की कुछ विचित्र प्रथायें
वि
वाह संस्कार संसार में सब कहीं है, पर सब जगह एक-सा नहीं है । इसकी बड़ी ही विचित्र प्रथायें प्रचलित हैं। श्रीयुत कार्नोन ने अफ्रीका की प्रथात्रों का कुछ विवरण लिखा है । वे सात वर्ष तक वहाँ की असभ्य जातियों के बीच रहे हैं।
तो प्रायः वहाँ की सभी जातियों की प्रथायें विचित्र हैं, पर 'वाकोनोंगो' नामक जाति की प्रथा विशेषतः उल्लेखनीय है । पश्चिमी टैगानीका के प्रदेश में छोटे छोटे गाँवों में इस जाति के लोग निवास करते हैं । ये लोग स्वस्थ और अच्छे आचरणवाले होते हैं । इनके यहाँ दस वर्ष की कन्या का पन्द्रह वर्ष के लड़के के साथ विवाह होता है, जिसमें कन्या वर के हाथ बेच दी जाती है । पर शायद ही कभी उनका यह विक्रय उनकी इच्छा के विरुद्ध होता हो । साधारणतः उनका वैवाहिक जीवन सुख पूर्ण होता है। पति अपनी पत्नी के साथ कभी बुरा व्यवहार नहीं करता और पत्नी भी पतिव्रता होती है। यदि वह दुराचारिणी हुई और दुराचार में पकड़ी गई तो तलाक़ भाले की नोक पर होता है। इसलिए जिसे अपनी जान प्यारी होती है वह सदाचारिणी ही रहती है । मगर वर्ष में एक दिन ऐसा होता है जब उस दिन रात को पत्नी जितने उपपति चाहे, कर सकती है। जब श्रनाज कट कर आ चुकता है तब दावतें होती हैं और शादी का बाज़ार गर्म होता है । इस त्योहार की प्रथम रात्रि में स्त्रियाँ उपपतियों को वर लेने में पूर्णतया स्वतन्त्र होती हैं । वाकोनांगो में विवाह या तो प्रेम के कारण या अपनी
सत्ता बढ़ाने के लिए होता है। इन लोगों के प्रायः बहुत-सी पत्नियाँ होती हैं, पर पहला विवाह प्रायः प्रेम के कारण ही होता है । इसलिए पहली पत्नी प्रधान पत्नी कहलाती है और वह अपनी सौतों को नौकरानियाँ समझती है। परिवार में मामा प्रधान व्यक्ति समझा जाता है । वह 'माजोम्बा' कहलाता है। वही शादियों का दलाल होता है । पत्नी का मूल्य वही तय करता है। जो पति अपनी पत्नी का जितना ही अधिक दाम देता है वह उससे उतना ही अधिक अपना गौरव मानता है । और जो पत्नियाँ कम दामों में खरीदी जाती हैं वे उस बात से लज्जित रहती हैं। २२५ रुपये सबसे ऊँचे दाम हैं, पाँच बैल मामूली दाम हैं और दस बकरे ग़रीबों के दाम हैं। यह भी हो सकता है कि "दाम एक दफ़े में ही न दिये जायँ और धीरे धीरे अदा किये जायँ, पर ऐसा करने में बड़ी बेइज्जती समझी जाती है। दाम तय होने के पहले दोनों ओर की वंशावलियों के नाम गिनाये जाते हैं । प्रत्येक बच्चा ५०० वर्ष के या उससे अधिक के अपने पूर्वजों के नाम जानता रहता है। यदि पूर्वजों के नाम दोनों ओर एक हुए तो विवाह नहीं होता है । दाम तय हो जाने पर ज्योतिपी बुलाये जाते हैं । यदि उनकी भी सम्मति अनुकूल हुई तो विवाह तय होता है शादी अक्टूबर के महीने में होती है और तीन दिन उसमें लगते हैं । वर-वधूं एक दूसरे को तीसरे दिन के अन्त तव नहीं देख पाते हैं। शादी की रात को उन दोनों के बीच में माता-पिता, माजोम्बा, बहन, भाई इत्यादि रहते हैं शादियों से बहुत दिन पहले शराब बनना शुरू हो जाती १३२
लेखक, श्रीयुत मार्कण्डेय वाजपेयी एम० ए०, एल- एल० बी०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
विवाह की कुछ विचित्र प्रथायें
है । दावत में खाना नहीं दिया जाता, शराब ही चलती है। का!कन साहब ने एक दावत में हज़ार गैलन शराब खर्च होते देखी है । दावत के पहले दिन वर के मामा वधू के दाम लेकर और युद्ध के वस्त्र पहनकर वधू के मकान पर जाते हैं। उधर वधू के मामा दरवाज़ा रोककर वर के मामा लोगों का धावा रोकने की निष्फल चेष्टा करते हैं। वर के मामा अाखिर में आँगन में घुस जाते हैं। वधू का पिता उनसे दाम वसूल करता है और फिर उन्हें शराब पिलाता है। संध्याकाल तक विश्राम करने के लिए वे लोग फिर अपने घर लौट जाते हैं । रात को दावत होती है
और सुबह तक वधू जितने पुरुषों के साथ चाहती है, विहार करती है । पहली रात को पति कुछ नहीं बोल सकता चाहे उसे कितनी ही तकलीफ़ हो । सूर्योदय के कुछ घण्टों के बाद विवाहित स्त्रियाँ वधू के पास जाती हैं । उस समय वहाँ क्या होता है, किसी को नहीं मालूम होने पाता । जिन पुरुषों के जुड़वाँ बहनें होती हैं उन्हें वहाँ का हाल बताया जाता है । पर उनसे किसी और को न बताने की कसम ले ली जाती है । तीसरे दिन दोपहर के बाद दावत शुरू होती है। शराब के दौर चलते हैं, नाच होता है और ढोल बजते हैं। वर भी वहाँ पर होता है और अपने मामा के पास बैठता है। करीब चार बजे के कोई दर्जन भर औरतें कुटिया से चिल्लाती हुई निकलती हैं। उनके साथ एक लम्बी और पतलीबेसिर और बेहाथ की-सी सफ़ेद कपड़े से ढंकी हुई मूर्ति होती है । उस मूर्ति के आगे पीछे औरतों की कृतार होती है । और वह मूर्ति वर के सम्मुख अाकर ठहर जाती है । वधू की एक बहन वर को पकड़कर उसके सामने
अफ्रीका के वाको तोङ्गों में दूल्हा, अपनी बहन के कंधे पर बैठी हुई खड़िया मिट्टी से रंगी एक सफेद मूर्ति परसे पर्दा हटाता है। वही मूर्ति उसकी वधू
होती है।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
सरस्वती
- [भाग ३६
पति था ?” वधू यदि उत्तर नहीं देती है तो मामा वर से घूमकर पूछता है कि "क्या वह अच्छी पत्नी थी ?” यदि दोनों में कोई उत्तर नहीं देता तो वे पति-पत्नी हो जाते हैं और यदि दो में से किसी ने उत्तर में 'नहीं' कहा तो विवाह नहीं होता और वधू का मूल्य लौटा दिया जाता है। वध कोई विवाह के वस्त्र नहीं पहनती है, पर उसके सिंगारदान में किलोलो । नाम की एक जड़ के टुकड़े रहते हैं, जिन्हें खा लेने से बदन से एक खास तरह की सुगन्धि । आती है। __यह तो हुअा अफ्रीका का एक उदाहरण ।। अब उत्तरी ध्रुव के बीले प्रदेशों में रहनेवाली इस्कीमो जाति के विवाह-संस्कार की एक बानगी
लीजिए। इन लोगों के सम्बन्ध में पीटर फ्रय - इस्कीमों में विवाह
रवेन नामक एक महोदय ने खूब लिखा है। की सिर्फ एक रस्म
इस जाति में विवाह-संस्कार में केवल इतना है। वर-वधू भयानक
ही होता है कि वर-वधू में पहले घोर द्वन्द्वरूप से आपस में
युद्ध होता है और अन्त में वर अपनी वधू को अपने कन्धे पर लादकर बरबस अपनी
बर्फ पर फिसल कर चलनेवाली स्लेज़-गाड़ी खड़ा कर देती है और उसे धक्का देकर उस विचित्र लम्बी तक ले जाता है। उस युद्ध का वृत्तान्त श्रीयुत फ़्रय । मूर्ति का उससे सामना कराती है। वर ज़रा झंपकर उस कपड़े रवेन ने बड़ा रोचक दिया है । वे एक बार मायार्क नामक को हटाता है और उसके भीतर अपनी बहन के कन्धों पर ग्राम-मुखिया के उसके बर्फ के बने हुए गोल मकान में बैठी हुई वधू मिलती है । वधू के बालों में रंग-बिरंगी तसवीरें अतिथि थे। दावत हो रही थी। बर्फीले प्रदेशों में पाये होती हैं और उसका नंगा बदन सफ़ेद रँगा होता है । वर जानेवाले मांस का भोजन था और मायार्क की लड़की उसे नीचे उतारता है और दीवार के पास उसे ले जाकर सौनेक की क्रीसुक के साथ शादी थी। क्रीसुक चुपचाप उसका हाथ पकड़ कर बैठता है। उस समय दोस्त और पाकर दावत को देख रहा था । सौनेक ने इतने में ही डकार -रिश्तेदार गन्दा मज़ाक करते हैं। इसके बाद अँधेरा छा ली। इन लोगों में डकार लेकर यह प्रदर्शित किया जाता जाता है। अतिथि अपने अपने घर चले जाते हैं और वर है कि खानेवाला पेट भर खा चुका है। क्रीसुक ने डकार वधू के घर जाता है। रात को वधू, वधू के माता-पिता, सुनकर कहा- “कोई स्त्री मेरी गाड़ी पर चलकर सवार हो वधू के भाई, वधू के मामा और अन्त में वर इस क्रम से जाय तो अच्छा हो।" गाड़ी पर सवार होना ही शादी की एक जगह सोते हैं। सूर्योदय होने पर असली संस्कार रस्म थी। देखने में बड़ी आसान मालूम होती है, पर इस होता है। बाद में मामा लड़की के सामने खड़ा होकर रस्म का अदा करना इतना आसान न था। सौनक ने बड़ी गंभीरता से वधू से पूछता है कि क्या वह अच्छा ज़ोर से हँसते हुए कहा- "मुझे ऐसा मालूम होता है कि
www.omaragyanbhandar.com
लड़ते हैं।
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
सख्या २]
। विवाह की कुछ विचित्र प्रथायें
१३५
कोई बोल रहा है।" सब लोग क्रीसुक की ओर देखने लगे । क्रीसुक ने खफ़ा होकर बड़े
अरवी विवाह ज़ोर से चिल्ला कर कहा-"चल, चल । सुनती नहीं है ?" लड़की ने चिढ़ाने के लिए उत्तर दिया- "जा भी। पहले खा तो लें, फिर सोने की देखी जायगी।” सब लोग हँसने लगे। क्रीसुक की आँखों में खून उतर आया । उसने लपककर अपनी प्रेमिका को पकड़ा और उसे उठाकर अपने कन्धे पर डालने की कोशिश की। पर उसने लात-घूसे चलाये। एक लात पेट में
और एक घुसा नाक पर पड़ते ही दूल्हा साहब नाक के बल ज़मीन पर दिखाई दिये। उठ कर बड़े धीरज से क्रीसुक ने कहा "यह औरत किसी भी प्रादमी के लिए तगड़ी है। कोई इसे उठाकर अपनी गाड़ी पर ले जायगा और फिर इसकी शक्ति का उपयोग अपने काम-काज में करेगा।" फिर द्वन्द्व-युद्ध बड़ा घनघोर छिड़ा। सबसे ज़्यादा मज़ा ससुर साहब को अाया, क्योंकि दुनिया को उन्होंने दिखा दिया कि लड़की का विवाह एक योद्धा के साथ हुआ है । पर सास साहबा के नये कपड़े इस छीना-झपटी में खतरे में पड़ गये। उन्होंने चिल्लाकर अपनी लड़की से
EKAUGO कहा-"अब बस करो । अपने कौमार्य की रक्षा के लिए बड़ा अच्छा युद्ध कर चुकी । पर सोनेक जवान थी। उसने बात अनसुनी कर दी। द्वन्द्व-युद्ध में कुलाटें खाते खाते योद्धाओं ने लालटेन भी तोड़ डाली। कर रहे थे और वह युद्ध वास्तव में लोगों को बहुत दिनों अँधेरे में हाँफने की आवाज़ और अरदब में आ जानेवाले तक याद रहा। इस तरह से विवाहित हो जाने पर वे दर्शकों का चीत्कार ही सुन पड़ता था। एक लड़ती-झग- समुद्र-तट की ओर चले गये और वहाँ से तभी लौटे जब ड़ती पूरी जवान औरत को बर्फीले मकान के तंग दरवाज़े बहुत-सा मांस और बहुत-सी भालुओं की खालें उन्हें मिल से उठाकर ले जाना आसान काम नहीं था। पर क्रीसुक ने गई । लौटकर उन्होंने एक बड़ी दावत की और अपना मर्दानगी की पान में आकर अाखिर उसे भी किया। सुख और हर्ष दर्शाया। बाहर पहुँचकर भी सौनेक ने युद्ध करना न बन्द किया। जापान का हाल श्रीयुत अपटन क्लोज़ ने लिखा है। पर वह युद्ध केवल उन दर्शकों की खातिर था जो भीतर वहाँ शादियाँ दलाल तय करते हैं। वे दलाल नाकाडो न आ पाये थे। दोनों थक गये थे और दोनों लोहूलुहान कहलाते हैं। लड़की जब बड़ी हो जाती है तब लड़की के हो रहे थे, पर प्रसन्न थे । एक दूसरे के युद्ध की सराहना माता-पिता और पास का नाकाडो मिलकर तय करते हैं
www.umaraganbhandar.com
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
सरस्वती
[भाग ३६
कि अब शादी का समय आ गया है । नाकाडो लड़का इस तरह पीना ही है। इसे सान-सान-क-डो कहते हैं । बताता है और उसके बाद वर-वधू एक दूसरे को प्रथम सान-सान-क-डा का शाब्दिक अर्थ "तीन बार तीन बार" बार देखते हैं । यदि दो में से कोई भी एक दूसरे को है। इसका तात्पर्य क्या है, किसी को ठीक तरह नहीं मालूम पसन्द न पाया तो बात वहीं पर खत्म हो जाती है । पर है। इसके बाद वधू उठकर दूसरे कमरे में जाती है और ऐसा बहुत कम होता है । एक दूसरे को पसन्द कर लेने वहाँ शोक-सूचक श्वेत वस्त्र उतारकर काले या गहरे लाल पर कपड़े की सौगात एक दूसरे को भेजी जाती है । फिर वस्त्र पहनती है। इसी पोशाक में वह अतिथियों के साथ मुहूर्त विचार कर विवाह का शुभ दिवस निश्चित किया दावत में शरीक होती है | वधू को दो बार वस्त्र और जाता है । वधू को उस दिन खास कपड़े पहनाये जाते हैं। बदलने पड़ते हैं। पहले तो वह रंगीन कपड़े पहनती है,
और उसके बाल खास तरह का जूड़ा बनाकर बाँधे जाते फिर रात्रि के वस्त्र पहनती है। उसके रात्रि के वस्त्र पहनने हैं । पहले उसके मुँह और उसकी गर्दन पर सफ़ेद चन्दन पर अतिथि उठकर चले जाते हैं । जापानी विवाह में कोई लगाया जाता है और फिर उसे सफ़ेद कपड़े पहनाये जाते धार्मिक संस्कार नहीं होता है। राज्य का भी विवाह से है । वे कपड़े मृत्यु-शोक के सूचक होते हैं। और उनके कोई सम्बन्ध नहीं होता। केवल पुलिस को खबर दे दी पहनाने का तात्पर्य यह होता है कि उस दिन से वधू अपने जाती है, और वह भी इसलिए कि जापान में पुलिस को पिता के घरवालों की दृष्टि में मर जाती है । पर उन यह जानना आवश्यक है कि किसके कौन रिश्तेदार हैं सफ़ेद कपड़ों के नीचे वधू रेशमी लाल रंग के कपड़े पहनती और कौन रात में कहाँ सोता है । दलाल का पेशा जापान है। लाल रंग जापान में जन्म के आनन्द का सूचक है में बड़ा ऊँचा समझा जाता है और यद्यपि बड़े घरानों में और उसके प्रयोग का तात्पर्य यह होता है कि वधू का उसका कोई काम नहीं होता, तो भी नाम के लिए उसकी अपने पति के घर में जन्म हुआ है। एक स्थान में मृत्यु उपस्थिति वहाँ भी अनिवार्य है । तलाक जापान में जायज़ का शोक है तो दूसरे स्थान में जन्म का आह्लाद । संसार है और ऊँचे घरानों के अतिरिक्त साधारण जनों में अच्छा की यही रीति है । जापानी यही बात इतनी अच्छी तरह समझा जाता है । दलाल दूसरा वर या दूसरी वधू फ़ौरन अपने शादी के रवाज में व्यक्त करते हैं। वस्त्र पहन बताने को तैयार रहता है। पर तलाक के बाद नौ महीने चुकने पर वधू अपने पिता के गृहदेवों की मूर्तियों के सम्मुख तक विवाह नहीं हो सकता। जाती है और वहाँ अपने पूर्वजों की आत्माओं को सदा वर्तमान रूस के विवाह-संस्कार का हाल श्रीमती रुथ के लिए प्रणाम करती है। जैसे ही वह अपने पिता के घर एपर्सन केनेल ने लिखा है। सोवियट शासन के पहले से बाहर निकलती है, घर बुहारा जाता है और दरवाज़े विवाह गिरजाघरों में हश्रा करते थे। पर जिन लोगों के पर नमक छिड़क दिया जाता है। वधू का जुलूस वर के पास उन विवाहों के लिए पैसा न होता था वे बिना किसी घर पर पहुँचता है और उसके स्वागत के लिए वहाँ बहुत- संस्कार के ही पति-पत्नी के रूप में रहने लगते थे। अब भी से लोग जमा होते हैं। वधू और वर एक दूसरे का अभि- लोग अक्सर यही करते हैं । रूस में कोई भी बच्चा कानून वादन झुककर करते हैं और फिर दोनों एक छोटे से से वर्णसंकर नहीं है । फिर भी रूसी सरकार ऐसे विवाहों को नीचे टेबिल के सामने बैठते हैं । टेबिल पर शराब की दबाने का प्रयत्न कर रही है। विवाह और तलाक को तीन प्यालियाँ रक्खी होती हैं, वर और वधू उन्हीं में उसने इतना आसान बना दिया है कि विवाह संस्कार से एक एक चूंट एक एक करके पीते हैं। पहले वधू एक अब धीरे धीरे लोकप्रिय हो चला है। हर जगह सरकारी चूँट पीती है, फिर वर उसी प्याली से एक चूंट पीता है। दफ्तर मौजूद हैं। उसमें एक टेबिल विवाह दर्ज करने के फिर वधू पीती है और फिर वर पीता है, यहाँ तक कि लिए है और दूसरा तलाक के रजिस्टर के लिए होता है। प्यालियाँ खाली हो जाती हैं। विवाह का संस्कार शराब का श्रीमती केनेल ने श्राइवन श्राइवानोविच और मारूस्या का
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
विवाह की कुछ विचित्र प्रथायें
विवाह स्वयं होते देखा था। जो लड़की विवाह का रजि- है। भारतीय और अरब-विवाह में बहुत कुछ समता स्टर लिये बैठी थी वह कुछ औघाई हुई और कुछ खीजी है, विशेषतः भारतीय मुसलमानी विवाह में और हुई थी। प्राइवन की बारी आने पर उससे व्यवसाय, जन्म- अरब-विवाह में। अरब-विवाह धार्मिक नहीं है, बरन तिथि, परिवार की स्थिति और स्वास्थ्य-सम्बन्धी सवाल पूछे कानूनी और सामाजिक है। निकाह निकाहनामा अथवा
गये। इन सबके बारे में प्राइवन ने दस्तावेज़ दाखिल विवाह-पत्र से होता है । महर अर्थात् दहेज़ से कन्या का ' कर दिये । वही मारूस्या ने भी किया। नाम के लिए विक्रय-सा होता है। छुहारों से लगाकर महल तक दहेज़
फ़ीस भी दाखिल कर दी गई और प्राइवन और मारूस्या में शामिल होते हैं । इन्हें देकर कन्या खरीदी-सी जाती है। पति-पत्नी हो गये। उन दोनों के पास अलग कमरा लेने शादी तय हो जाने पर और निकाहनामा लिखे जाने पर वधू के लिए रुपया न था। आइवन और उसका एक साथी सजाई जाती है। चाँदी की बालियाँ और चाँदी के कड़े-छड़े एक कमरे में रहते थे और मारूस्या छात्रों के एक बोर्डिंग उसे पहनाये जाते हैं, मुँह रँगा जाता है, आँखों में सुर्मा में रहती थी। शादी के कछ सप्ताहों के बाद श्रीमती केनेल लगाया जाता है. हिना से बाल रंगे जाते हैं और हाथों-पैरों ने मारूस्या से पूछा-तुम्हें विवाहित जीवन कैसा पसन्द पर भी रंग चढ़ाया जाता है । वस्त्र श्वेत पहनाये जाते हैं। आया ? उत्तर में मारूस्या ने कहा-मैं कैसे बताऊँ ? मुहूर्त देखकर जुलूस गोधूलि-बेला के समय घर से निकलता मैं प्राइवन के यहाँ जा नहीं सकती। प्राइवन मेरे यहाँ है। दिन भर मेहमानों की खातिर की जाती है, पर अलग श्रा नहीं सकता। और जब मैंने एक कमरा गर्मी भर के अलग। लड़की के घरवाले अपने मेहमानों को खिलातेलिए ठीक किया तब श्राइवन की हिम्मत न पड़ी कि वह पिलाते हैं और लड़केवाले अपने मेहमानों को। इतर लगाया गृहस्थों में अपना नाम लिखाये, क्योंकि ऐसा करने से जाता है, गुलाबजल छिड़का जाता है, हर तरह की खातिर उसका कमरा सरकार उससे छीन लेती। और बिना होती है । जुलूस डाली के साथ साथ चलता है। चार श्रादपुलिस में इस तरह की इत्तिला किये हुए प्राइवन मेरे मियों के कन्धों पर लदकर सजा हुआ मियाना चलता है । साथ रात में रह नहीं सकता। इसलिए हम लोग साथ तो उसमें वधू बैठी होती है । खूब बाजे बजते हैं, गाने गाये रह ही नहीं सकते । गाँवों में अभी गिरजाघरों में विवाह- जाते हैं, आतिशबाज़ी छूटती है, मशालें जलती हैं । गरज़ संस्कार प्रचलित है । सरकारी दफ्तरों में विवाह दर्ज हो यह कि वधू की वही दुर्गति होती है जो भारत में होती है । जाने के बाद पुराने रंगीन कपड़ेवाले विवाह गिरजाघरों में वर के दरवाज़े पर पहुँचने पर सब आदमी बाहर रह जाते अब भी होते हैं । पर शहरों में अक्सर समय और परि- हैं, वधू भीतर जाती है। भीतर औरतें एक अर्ध-चन्द्र के स्थिति के अनुसार विवाह होते और टूटते हैं। कोई अपना आकार में बैठी हुई ढोलकें पीटती हैं। एक ऊँची वेदी पर कमरा दूसरे को किराये पर नहीं दे सकता, इस- दूल्हा-मियाँ बैठे होते हैं। उनकी रिश्तेदार औरतें एक लिए अक्सर लोग मकान-मालकिन से ही विवाह कर एक करके उनके सामने जाती हैं और उनका गाल चमती लेते हैं। जो कुमार पूरे एक कमरे का मालिक है वह हैं। फिर मा वधू का हाथ पकड़े हुए भीतर दाखिल होती अमीर है और कुमारियाँ उससे विवाह करने को बहुत है। वधू के सिर से रेशमी बुर्का हटाया जाता है । वह उत्सुक रहती हैं, और एक कमरे की मालकिन कुमारी को भी तीन बार अपने पति के सामने घुमाई जाती है और उसे विवाह के इच्छुक कुमार घेरे रहते हैं। बाद में यदि परि• अपनी आँखें बन्द रखनी पड़ती हैं। तीसरे चक्कर के बाद स्थिति में अन्तर हो जाता है तो तलाक से विवाह टूट जाता वर उठता है और वधू का हाथ पकड़कर भीतर के कमरे है। फिर भी विवाह प्रायः प्रेम के कारण ही होते हैं। में चला जाता है । शादी खत्म हो जाती है और दरवाज़ा
अरब-लड़की के जीवन में विवाह का दिवस सबसे बन्द हो जाता है। अरबों का विवाह-संस्कार ऐसा ही महत्त्वपूर्ण होता है। उसका हाल जना वान्त ने लिखा होता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
सरस्वती
[भाग ३६
श्रीमती मार्गारेट मीड ने न्य-गिनी की विवाह-प्रणाली रखता है कि कहीं ऐसा न हो कि उसकी पत्नी जादूगरों को का बड़ा मनोरंजक वर्णन किया है। न्यू गिनी साउथ-सी उसका कोई कपड़ा या बचा हुआ खाना न दे दे। न्यूद्वीप-समूह का एक द्वीप है। वहाँ की भूमि पथरीली और गिनीवालों का विश्वास है कि यदि जादूगर उस कपड़े बेहद ऊँची-नीची है, इस कारण तीन मकान भी एक को या बचे हुए खाने को तमाखू की तरह चिलम में साथ नहीं बनाये जा सकते हैं । वहाँ पैदावार भी बहुत रखकर पी लेगा तो कपड़े का मालिक टोटके से मर कम होती है और अकाल सदा सामने रहता है। जहाँ जायगा । इसलिए यह ज़रूरी है कि पति अाधा रतालू खाद्य पदार्थ बड़ी मेहनत से उत्पन्न किये जाते हैं, उसी अपने पास रक्खे, जिससे ऐसा मौका आने पर वह खुद प्रकार अरापेश-जाति में पत्नी भी बढ़ाई जाती है। लड़का उसी रतालू से जादू कराके पत्नी को मरवा सके। पत्नी जब छोटा होता है तभी से पिता को विवाह की चिन्ता इसी डर के मारे पति के खिलाफ़ कुछ नहीं करती है। सताती है। सात या आठ बरस की सुशील लड़की ढूँढ़- पर यह सब फ़र्जी बातें ही रहा करती हैं, क्योंकि न्यू गिनी कर पसन्द की जाती है और लड़के और लड़की के माता- में पत्नियाँ अपने पतियों से बहुत प्रेम करती हैं। विवाह पिताओं में बहुत कुछ बातचीत होने के बाद दोनों की का कोई संस्कार नहीं होता है। दोनों बड़े हो जाने पर सगाई हो जाती है । सगाई की रस्म बड़ी विचित्र है। पति-पत्नी हो जाते हैं और यह बात इससे ज़ाहिर हो जाती लड़का अपनी भावी पत्नी के सिर पर जाल का एक थैला है कि पत्नी स्वयं अपने हाथ से खाना पकाकर अपने रख देता है और सगाई पक्की हो जाती है । सगाई के बाद पति को खिलाती है । जिस दिन यह हो जाता है, मातासे लड़की अपने भावी पति के घर में रहती है । लड़के के पिता समझ जाते हैं कि विवाह हो चुका। यदि लड़की माता-पिता उस पर बड़ी कड़ी निगाह रखते हैं । लड़का जल्दी जवान हो गई और लड़का तब तक जवान न बाग़ में और जंगल में काम करके खाने का सामान लाता हुअा तो लड़की दूसरे किसी रिश्तेदार को ब्याह दी जाती है, जिसे खाकर लड़की का बदन बने ! जब लड़की जवान है। पर यह अच्छा नहीं समझा जाता, क्योंकि पत्नी वही होती है तब उससे पाँच दिन का व्रत कराया जाता है और अच्छी होती है जिसका बदन उसका पति ही बनाता है। उसके बदन पर बिच्छू-घास खूब मली जाती है। लड़का जीवन भर पत्नी अपने बदन के लिए अपने पति की बहुत ढूँढ़कर जंगल से जड़ी-बूटी लाता है और उनके श्राभारी होती है और यदि उसे खाना पकाने में देर हुई साथ एक रतालू मिलाकर उस सबकी तरकारी बनती है। तो पति कह सकता है कि "मैंने तुम्हें बनाया। मैंने रतालू पाँच दिन के व्रत के बाद लड़की को वही तरकारी खिलाई बोये, मैं साबूदाना लाया, मैंने कंगारू और कैसोबरी का जाती है । रतालू का अाधा भाग लड़की को उसी समय शिकार किया, मैंने तुम्हारा बदन बनाया । जल्दी खाना खाना पड़ता है और श्राधा भाग लड़का अपने पास प्रथम बनायो।" सन्तान होने तक सुरक्षित रखता है। उसे वह इसलिए
उमड़-उमड़ आती है ज्यों-ज्यों चक्षु-स्रोत में आँसू-धारा। क्यों होता जाता क्रम-क्रम सेत्यों-त्यों पुलकित हृदय हमारा ?
रहस्य लेखक, श्रीयुत राजाराम खरे
ज्यों-ज्यों मिलन-मुहूर्त सदा से निठुर ! टालते ही जाते हो। त्यों-त्यों क्यों हो रहा मुझे हैप्रणय तुम्हारा प्रति दिन प्यारा ?
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक मनोरञ्जक कहानी
अोझा
पर इस विषय की छान-बीन करते करते मुझे एक ऐसी जा छ दिनों की बात है। उन घटना से वास्ता पड़ा कि मेरा जादू पर से विश्वास उठMayायाला दिनों मैं कालेज में पढ़ रहा सा गया। घटना इस प्रकार है।
|| था। ज्यादा समय तो मेरा उन दिनों मेरी यादत थी कि जब कभी कालेज से
खेल-कूद या पठन-पाठन में एक-दो दिन की भी छुट्टी मिलती तब मैं देहात में कहीं न ASTI व्यतीत होता, पर जो समय कहीं निकल जाता और धूम-फिरकर वापस आ जाता। दाल बचता उसमें मैं कालेज की देहात की स्वच्छ हवा मेरी थकावट हर लेती और मैं फिर
लाइब्रेरी से प्राकल्ट विद्या, कार्य करने के योग्य हो जाता था। मेरे सैदपुर के एक इन्द्रजाल तथा मेस्मरिज्म के सम्बन्ध की किताबें लाकर मित्र का निमंत्रण बहुत दिनों से सैदपुर आने का था। पढ़ा करता। कर्नल पालकट की डायरी तथा थियोसा- इसलिए अब की संक्रान्ति की छुट्टी वहीं बिताई | बड़ा फ़िस्टों द्वारा लिखी इन विषयों पर की और भी बहुत-सी अानन्द अाया, खूब चहल-पहल रही। तीसरे दिन मैंने कितावें मुझे बड़ी रुचिकर प्रतीत होती थीं। पर इससे यह मित्र से विदा ली और ११|| बजे की दिनवाली गाड़ी पकड़ न सोचना चाहिए कि मेरा विश्वास इन बातों पर था। ली। प्रयाग का माघ-मेला होने के सबब से गाड़ी में इतनी केवल ज्ञानोपार्जन तथा मनबहलाव के लिए ही मैं ये भीड़ थी कि तिल रखने को भी जगह न थी। मैं भी किसी किताबें पढ़ा करता था। तांत्रिक या ऐन्द्रजालिक क्रियायें तरह धक्का खाता हुआ एक डिब्बे में जा घुसा। डिब्बे में पढ़ कर मेरे रोंगटे खड़े हो जाया करते थे और एक जासूसी भीड़ का यह हाल था कि लोग असबाब रखनेवाले रेक पर उपन्यास से कहीं ज्यादा मज़ा मुझे अाता था। बहुत दिन चढ़े हुए थे और जाड़े का महीना होते हुए भी देह के निकले बीत गये हैं, फिर भी कर्नल अालकट
बफारे से कमरा भर गया था । तिस पर की वह बात मैं नहीं भूला हूँ जहाँ वे
भी लोगों ने सर्दी के मारे किवाड़ बन्द कहते हैं कि अजन्ता की गुफाओं को
कर रक्खे थे । मेरा तो डिब्बे में घुसते जब वे देखने गये तब रात्रि को चित्रों
ही दम घुटने लगा। मैंने डाँट-ड्रेट कर के पीछे के दरवाज़े खुल गये और
किसी तरह दो-एक खिड़कियाँ खुलआलकट ने बौद्धों के स्वर्ग का मज़ा
वाई। इतने में गाड़ी सोटी देकर चल लिया। मेरा युवक मन भी उस स्वर्ग
पड़ी। कुछ स्वस्थ होकर अब मैं बैठने को देखने के लिए सदा लालायित
के लिए जगह खोजने लगा। सीटें सब रहता था। पर न तो मुझे कोई ऐसा
भरी थीं। पर मैंने देखा कि एक पंडित जादूगर ही मिला जो मुझे वहाँ ले
जी जिनकी उम्र चालीस वर्ष के करीब जाता, न अलाउद्दीन का चिराग़
रही होगी, पूरी प्राधी बेंच पर दरी ही मेरे पास था, जिसके द्वारा जिन को
बिछाये हुए अानन्द से लेटे हैं । जो बुलाकर मैं उस स्वर्ग में पहुँच जाता ।
कोई पास जाता, फटकार देते । मुझे लेखक, श्रीयुत मोतीचन्द्र एम० ए०, पी० एच० डी० (लन्दन)
१३९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
यह देखकर बड़ा गुस्सा आया। मैंने आव देखा न ताव, झट लोगों को धर्म-कर्म में आस्था तो रहती नहीं । तब मैं अपने लोगों को हटाता-बढ़ाता पंडित जी की बेंच के पास जा बारे में आपसे कुछ कहूँ तो फ़ायदा क्या ? मसल है, पहुँचा और उनकी दरी एक ओर खिसका क आराम से अन्धे के आगे रोवे अपना दीदा खोवे। बैठ गया । मेरी देखा-देखी और भी दो-एक लोग घुसकर इस बात से मेरी उत्सुकता और बढ़ी और मैंने उनकी बैठ गये। पहले तो पंडित जी ने बड़ी तेवरियाँ चढ़ाई और खुशामद शुरू की और उनको विश्वास दिला दिया कि धौंस गाँठने का भी प्रयत्न किया, पर मैंने ऐसे आदमी से मेरी प्रकृति प्रास्तिक है। कुछ दिलजमई होते ही उन्होंने भाषण तक करना उचित न समझा और श्रानन्द से एक कहा-पूछकर क्या कीजिएगा ? मैं अोझा हूँ। कैसी सिगरेट निकाल कर पीने लगा । पंडित जी ने देखा, हुजत बीमारी हो, मैं मंत्र से अच्छा कर सकता हूँ। संसार में करना बेकार है, और वे मन मार कर बैठ रहे। कोई ऐसा भूत-प्रेत नहीं जो मुझे देखकर न काँप जाय ।
पास बैठने पर पंडित जी का श्राकार-प्रकार मैंने भली मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण इत्यादि सब क्रियाओं भाँति देखा। अापकी उम्र चालीस साल की रही होगी, के मंत्र जानता हूँ। आप दिल्लगी मानेंगे, पर सैकड़ों कद मॅझोला और रंग पक्का था। कछाड़ा मारकर धोती, विद्यार्थी मुझसे यंत्र लेकर इम्तिहान पास कर गये और एक चुस्त बग़लबंदी और सिर पर देहाती पगड़ी-यही हज़ारों आदमी मुक़द्दमे जीत गये। श्राज-कल ज़माना अापके वस्त्र थे। सिर पर का भस्म जिसके मध्य में लाल नास्तिकता का है, इसलिए पढ़े-लिखे लोग विश्वास नहीं बिंदी लगी हुई थी और गले में रुद्राक्ष की माला पंडित जी करते । नहीं तो मंत्रों में कौन-सी शक्ति नहीं है ? की धार्मिकता सूचित कर रहे थे। पास में एक झोला भी बस फिर क्या था ? पंडित जी तो मेरे मनचाहे व्यक्ति था, जिसमें सुरती-चूना से लेकर संस्कृत की पुस्तकें तक निकले। मैंने उनको अपनी पढ़ी हुई बहुत-सी भूतों-सम्बन्धी घास-भूसे की तरह भरी थीं। बीच बीच में सुरती-चूना घटनायें बतलाई और उन्होंने अपने ऊपर बीती बहुत-सी मिलाकर हथेली पर ठोंक कर खा जाते थे। एक स्टेशन घटनाओं का उल्लेख किया । कैसे एक आदमी को एक बाद मेरा गुस्सा शान्त हो गया और पंडित जी भी नरम चुडैल तंग करती थी, कैसे एक दिन पंडित जी उस पड़ गये और हम लोगों की बात-चीत होने लगी। आदमी के पलँग के पास सो रहे और जैसे ही चुडैल आई
पंडित जी ने कहा-कहिए कहाँ से पाना होता है। उसके बदन में अभिमंत्रित सुई धुसेड़ दी, चुडैल भागी, कहाँ स्थान है ?
पर सुई में लगा डारा खुलता गया, वह अपने वासस्थान __ मैं-सैदपुर से पा रहा हूँ। बनारस मेरा स्थान है। में जाकर एक हड्डी के टुकड़े में घुस गई और तब पंडित जी श्राप तो बतलाइए, कहाँ से आ रहे हैं और कहाँ तक ने उसे हँडिया में बन्द करके फूंक दिया। बात-चीत के जाने का इरादा है।
सिलसिले में यह भी मालूम हुअा कि पंडित जी कीमिया __पंडित जी हँसकर बोले - वाह ! तब हम दोनों श्रादमी गर भी हैं। सोना-चाँदी बनाना तो उनके बायें हाथ का काशी जी ही जा रहे हैं । मेरा स्थान जिला बलिया में है। खेल है । श्राप गुटिका बना सकते हैं जिसको मुँह में रखते काशी जी में कुछ दिन रहेंगे और ग्रहण नहाकर वापस ही आदमी अंतर्हित हो जा सकता है और मिनट के मिनट आयेंगे।
में जहाँ चाहे पहुँच सकता है। ____ इसी तरह धीरे धीरे बातें होते होते हम दोनों में उनकी धारा-प्रवाह बातों को काटकर मैं बोल उठाघनिष्टता बढ़ी और मैंने पंडित जी से उनका व्यवसाय पूछा। पंडित जी आप अपनी गुटिका को पेटेंट करालें । फिर एरो
पंडित जी ने नीचे से ऊपर तक एक सशक दृष्टि से प्लेन जहाज़, मोटर, रेल इत्यादि सवारियों की कोई ज़रूरत मुझे देखते हुए कहा- अरे ! आपसे उसके बारे में कहना ही न रह जायगी और आपको भी गहरी रकम मिलेगी। वृथा है । आप कालेज के छात्र मालूम होते हैं। श्राप पंडित जी सीधे मालूम पड़ते थे। उन्होंने यह नहीं समझा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
१४१
कि मैं उनसे हँसी कर रहा हूँ । वे समझे, मैं अपनी अज्ञा- इतिहास, अर्थशास्त्र तथा साहित्य ऐसे गंभीर विषयों को नता के कारण ऐसी बातें कह रहा हूँ। वे बोले- आप पढ़ते-पढ़ते मुझे जादू-टोने की पुस्तकों से कुछ अरुचि-सी भला इस मार्ग के बल को क्या समझे ? गुटिका एक बन उत्पन्न होने लगी थी। फिर भी मैं यह नहीं कह सकता कि सकती है। उसके लिए भी बारह वर्ष के साधन की मेरा मन सम्पूर्ण रूप से उस विषय से हट गया था। तो
आवश्यकता है। श्मशान जगाना पड़ता है । फिर भला भी कभी कभी जब मौका मिलता, ऐसे ग्रन्थों को पढ़ सैकड़ों गुटिकायें कहाँ मिल सकती हैं ?
लिया करता था। - इसके बाद जादू पर बात छिड़ी। पंडित जी ने ऐसी इम्तिहान हो चुका था। मैंने निश्चय किया कि इस ऐसी बातें सुनाई कि जी फड़क उठा। बोले, कामरूप- साल पहाड़ की सैर को न जाऊँगा। रोज़ सवेरे गंगा कमच्छा में जहाँ जागती ज्योति है, अब भी ऐसी जादू- स्नान करता और ठीक ६ बजे घूमने निकल जाता । गरिने हैं जो अादमियों को भेड़, कुत्ता, सुग्गा इत्यादि घूमते घूमते अक्सर मैं कच्चे महल्लों में निकल जाता । बना देती हैं और उनको घर में बन्द कर देती हैं। नाना लोग प्रश्न करेंगे कि वहाँ कौन-सी साफ़ हवा मिलती है । चमारिन के जादू में यह असर है कि बात की बात में मैं उनकी बात मानता हूँ कि ऐसे महल्लों में गन्दगी आप दुश्मन को हरा सकते हैं । दूर की बातें जाने दीजिए, अवश्य होती है, पर जो जो अनुभव इन महल्लों में घूमने अब भी आपके संयुक्तप्रान्त और बिहार में ऐसे ऐसे तांत्रिक से अब भी हो जाते हैं वे पक्के महल्लों में ढूँढ़ने से भी हैं कि भूत-भविष्य-वर्तमान सब बतला देते हैं | कभी मौका नहीं मिलते । शिक्षा के बाहुल्य ने वहाँ के रहनेवालों का मिला तो कुछ क्रियायें मैं खुद आपको दिखला दूंगा। दृष्टिकोण संकुचित कर दिया है। अब पक्के महल्लों में
फिर मैंने पूछा--यह सब तो ठीक है, पर क्या आप कितने आदमी हैं जो बन्दरवालों का, भालूवालों का, पर देवी का श्रावेश होता है ? क्या आप दूसरों पर देवी सँपेरों का या नटों का तमाशा देखते हैं। उनकी रुचि तो को बुला सकते हैं ?
सिनेमा-थियेटर या नाच-मुजरे में रहती है। पर कच्चे ____पंडित जी ने गर्व से स्वीकृतिसूचक सिर हिलाते हुए महल्लेवाले बाबाल-वृद्ध-वनिता सभी आज भी इन कहा-- यह आप क्या कहते हैं ? बिना देवी के प्रसाद के तमाशों को बड़े चाव से देखते हैं। जहाँ बन्दरवाले ने कोई क्रिया सिद्ध हो सकती है ? हम लोगों को वही खंजड़ी बजाई या नट ने ढोलक पर धपकियाँ दी कि श्राप आदेश करता हैं । लोगों पर भी देवी का आवेश कराया सैकड़ों की संख्या में महल्लेवालों को इकट्ठा होते देखेंगे। जा सकता है। केवल उनमें भक्ति होनी चाहिए। इन्हीं के उत्साह का फल है कि ग्राज दिन ये पुराने
इतने में छावनी-स्टेशन आ गया और बिस्तरा बटोरते आमोद-प्रमोद जीवित हैं । नहीं तो न जाने कब के खत्म हुए पंडित जी बोले - आपसे मिलकर अानन्द हुअा। हो जाते। मैं अक्सर घूमता-घामता इन महल्लों में पहुँच अभी तो मेरा वासस्थान ठीक नहीं है, पर ठीक होते ही जाता और खेल-तमाशे देखता। कभी इन महल्लों में आपसे मिलूँगा। पता तो आपका मालूम ही है। भूले-भटके जादूगर भी पा जाते ! अाम-सहित ग्राम का
मैं समझ गया कि वह मुझसे छटक रहा था और पेड़ लगा देने की क्रिया मैंने यहीं किसी महल्ले में देखी थी। किसी गहरे मामले की तैयारी में था। उनको नमस्कार अाज का दिन विशेष सुहावना था। गर्मी भी कुछ कर मैं भी चल दिया।
कम थी और सवेरे की ठंडी हवा चल रही थी। गंगा जी
से लौटते ही जलपान करके मैं हनुमान-फाटक को चल । कुछ दिनों तक तो मैं पंडित जी के बारे में बिलकुल पड़ा। रास्ते में बच्चे गुल्ली-डंडा या गोली खेल रहे थे।
भूल ही गया था। इसके दो कारण थे। पहला तो यह कि एक लड़के ने गुल्ली फेंकने में बेईमानी की। फिर क्या इधर मैं अपनी परीक्षा की तैयारी में लगा था और दूसरे था ? दोनों मार-पीट, गाली-गलौज करने लगे। उनको
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
सरस्वती
[भाग ३६
+
समझाकर मैं आगे बढ़ा। कुछ दूर आगे चिर-परिचित मैंने बैठते बैठते पूछा-पंडित जी, क्या मुझ पर देवी का मन्दिर देख पड़ा। मन्दिर बिना शिखर का था। भगवती कृपा नहीं कर सकतीं ? पर खूब स्वच्छ लिपा-पुता था । एक बरगद का वृक्ष उस कान पर हाथ रखते हुए पंडित जी ने कहा-हरे पर छाया किये हुए था । मन्दिर के पुश्ते पर एक लाल राम ! हरे राम ! श्राप कैसी बातें करते हैं ? देवी का झंडी फहरा रही थी। कुछ दूर हटकर एक चबूतरा था, अागमन केवल दर्शनियों पर होता है। भला आप पर जहाँ अक्सर महल्लेवाले आकर बकवाद किया करते थे। वे कैसे आ सकती हैं ? आप उसके पात्र नहीं हैं। . श्राज मैंने इस मन्दिर में विशेष चहल-पहल देखी । लोग मैं अभी पंडित जी से कुछ और बहस करता, पर उत्सुकता-पूर्वक बाहर-भीतर आ-जा रहे थे और कुछ जनता में उत्सुकता बढ रही थी और मुझे देख-देखकर 'औरतै मन्दिर के दालान में सिर खोले हुए बैठी थीं। लोग आपस में बात-चीत करते थे। मैंने समझा, इस समय पूछने पर पता लगा कि बाहर के एक मशहूर अोझा चुप रहना ही ठीक है। आज अपने ऊपर तथा कुछ औरतों के ऊपर देवी का थोड़ी देर में कार्यारंभ हुआ। सर्वप्रथम पंडित जी ने आवाहन करनेवाले हैं। फिर क्या था ? मैं अपने और देवी की पुष्प-धूप-दीप नैवेद्य-द्वारा पूजा की। देवी के सब कामों को भूलकर झट मन्दिर में घुस गया और सामने एक घड़ा धार* से भरा हुअा रक्खा था। भक्तगण देवी को नमस्कार करके ज्योंही बग़लवाले दालान में अपने घर से धार लाकर उस घड़े में डाल रहे थे। बाहर आया, देखा कि हमारे गाड़ीवाले साथी पंडित जी धोती- निकलकर पंडित जी फिर कुशासन पर बैठ गये और कुछ दुपट्टा पहने माथे पर लाल टीका लगाये तथा लाल फूलों देर तक ध्यान करते रहे। फिर उनका शरीर काँपा और की एक माला पहने एक कुशासन पर बैठे हैं और जो ज़ोरों से हिलने लगे । देवी उन पर सवार हो गई थीं। अब कोई आता है बड़े भक्ति-भाव से उनका चरण छूता लोग दौड़ दौड़कर उनका चरण छूने लगे और भाँति है। मेरा मन पुलकित हो उठा । पंडित जी की रेलवाली भाँति के प्रश्न पूछने लगे। कोई पूछता, हमको कब सब बातें याद हो आई । सोचा चलो, आज का इधर लड़का होगा। देवी उसको व्रत रखने का उपदेश देतीं । अाना सुफल हुअा। पंडित जी के सब करिश्मे देखेंगे। कोई पूछता, हमारे ऊपर हमारा शत्रु मारण-मंत्र कर पास जाकर मैंने कहा-पंडित जी, प्रणाम।
रहा है। देवी बोलतीं, अोझा से मिल । मैं उनसे सब ____ मालूम पड़ता था, पंडित जी मुझसे वहाँ मिलने को बातें कह दूँगी । सब भला हो जायगा। एक औरत ने प्रस्तुत न थे। मुझको देखते ही उनका चेहरा फक पड़ पूछा, मेरे पति दूसरे के प्रेम में फँसे हैं । हे देवी माई, वह गया, फिर भी अपने को सँभाल कर बोले-अाइए बाबू कौन औरत है ? देवी जी ने कहा, काले रंग की औरत साहब, बहुत दिनों के बाद मुलाकात हुई। देखिए संयोग है। पड़ोस में रहती है । देवी को खसी मान दे । वह तेरे की बात है। आज मैं आपसे मिलनेवाला ही था, पर पति को आप छोड़ देगी। इसी तरह के व्यर्थ प्रश्न होते आप खुद ही मिल गये। मैंने कहा-पंडित जी, सब जाते थे और पंडित जी नहीं, देवी जी अंड-बंड उत्तर अापकी कृपा है। श्राज श्राप पर भगवती की कृपा होगी। देती जाती थीं। अब देवी जी पंडित जी के सिर से उतरने हम भी दर्शन करने के लिए आ पहुंचे।
ही वाली थीं। वे उठकर बावलों की तरह नाचने लगे ___पंडित जी ने कहा-हाँ, आज आप हम लोगों और लगे चिल्लाने-दे धार ! दे धार! दर्शकगण तो उनकी के तंत्र-शास्त्र का प्रभाव देख लेंगे। सामने बैठी बातें समझ गये और एक एक करके मन्दिर में घुसने स्त्रियों को श्राप देख रहे हैं। सबके पहले देवी मुझ पर कृपा करेंगी, फिर इन सब स्त्रियों पर | श्राप * एक तरह का शरबत जो चिरौंजी, गरी, लौंग इत्यादि इधर बैठिए ।
मिलाकर बनाया जाता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
अोझा
१४३
लगे। पर मैं इन सब बातों में अनभिज्ञ होने से कुछ ठोक जमाई तब उस औरत पर भवानी चढ़ बैठीं। मार से
सका । मैंने समझा कि पंडित जी अपने ऊपर बचने के लिए उसने भी औरों की तरह माथा पीटना धार चढ़ाने को कहते हैं। पीछे से मुझे मालूम हुआ कि और अभुनाना शुरू किया। यह कृत्य थोड़ी देर तक होता घार देने के माने देवी को धार चढ़ाना है । मैं झट मन्दिर रहा और सब भूतों को ठीक करके पंडित जी ने सबको से धार का घड़ा उठा लाया और एक-दम पंडित जी के सिर बिदा किया । मैं भी जाने ही वाला था कि पंडित जी ने पर उड़ेल दिया। बड़ा तहलका मचा औरतें हाथ चमका मुझे रोककर कहा-ठहरिए बाबू साहब, मैं भी चलता चमका कर मुझे गालियाँ देने लगी निगोड़े को देखो, हूँ | अभी जल्दी क्या है ? रास्ते में वे मुझसे अपनी बातें देवी-देवतायों से भी दिल्लगी। माई कच्चा ही खा जायँगी करते रहे । उन्होंने कहा- जैसा मैंने आपसे कहा था, मैं इत्यादि । पंडित जी लथपथ हो गये और भयंकर दृष्टि से बनारस में चन्द्र ग्रहण तक ही रहनेवाला था। पर जिस मेरी ओर देखकर चुनिन्दे शब्दों में मुझे गालियाँ दी। महल्ले में मैं टिका हूँ वहाँ के वासियों को मेरे गुण से बड़ा पर न जाने क्या सोचकर फिर चुप हो रहे । सोचा होगा लाभ पहुँचा है । कितनों का रोग अच्छा हो गया। भूतकि आदमी कठिन है, कहीं ग्राफ़त न मचावे। देवी के पिशाच तो अब उस महल्ले के नज़दीक तक नहीं पाते। सिर पर से उतरते ही पंडित जी पूर्ववत् हो गये। लोग वहाँ से अब मैं भागना चाहता हूँ, पर वहाँ के लोग मुझको मुझे वहाँ से निकाल बाहर कर देना चाहते थे, पर पंडित जाने नहीं देते । मेरे बहुत-से मंत्र अभी सिद्ध नहीं हुए हैं । जी ने सबको ऐसा करने से मना किया और मेरी अज्ञानता क्या करें ? समय ही नहीं मिलता। खैर, इस शरीर से जो की कठोर शब्दों में विवेचना करते हुए बोले- अापने कुछ लोगों को लाभ पहुँच जाय वही ठीक है । इस समय गज़ब ही कर डाला था। मैंने देवी को बहुत सँभाला, धूप अधिक हो गई थी। थोड़ी-थोड़ी लू भी चलने लगी नहीं तो अापकी लाश तड़फती नज़र आती । बिना समझे- थी। घर में लोग रसोई का इन्तज़ार कर रहे होंगे। यह बूझे काम करना आप ऐसे पढ़े-लिखे मनुष्यों को उचित सोचते ही झट मैं पंडित जी को नमस्कार करके डग बढ़ाता नहीं है । भविष्य में इसका ध्यान रखिएगा।
हा घर की ओर चल खड़ा हुआ। __पंडित जी की ये बातें मुझे ज़रा बुरी तो लगीं, पर मन मार कर रह गया । इस समय वाद-विवाद करना अपनी इस घटना को बीते भी कई महीने हो गये। पंडित फजीहत आप बुलानी थी। एक तो आगे की कार्रवाई जी के उस रोज़ के रंग-ढंग से मेरी उन पर अश्रद्धा हो रुक जाती, दूसरे अगर पंडित जी चाहते तो मुझे अर्धचन्द्र गई थी। मैंने समझ लिया कि वे बेवक़फ़ों को ठगने के दिलवा सकते थे। अपने भक्तों को शान्त करके पंडित जी लिए ही यहाँ आये हैं। पहले तो मैंने सोचा कि उनकी अब दूसरों के सिर देवी बुलाने को उठ खड़े हुए। पोल पत्रों में खोल दूँ, पर फिर सोचा कि जब लोग जानदर्शनियों में अधिकतर स्त्रियाँ थीं। जो खेली-खाली थीं बूझ कर भी अपने को ठगवाना चाहते हैं तब उसमें वे तो पंडित जी के पास जाते ही अभुपाने लगी और मेरा क्या । मैं क्यों उस ब्राह्मण की जीविका छीनूँ ? अपने अपने भूत कबूलने लगीं। पर उनमें एक नई बरसात शुरू होते ही मेरा कच्चे महल्लों में घूमना भी मी थी। पंडित जी ने उस पर भी देवी की लकड़ी बन्द हो गया । बरसात के कीचड़ तथा नलों की बदबू ने घुमाई । पर वह सिर नीचा किये रह गई। देवी को उस पर मेरा हौसला पस्त कर दिया। इन दिनों मेरी बैठक एक कृपा न करते देख पंडित जी ने उसको एक लकडी जमाई। मित्र के यहाँ हर शाम को होती थी। आपका मकान ठीक इस पर वह बोल उठी-'हे पंडित, हमके मारा मत। गंगा के किनारे था और उसके पुश्ते पर से एक तरफ़ अब ही तोहार देवी हमरे ऊपर नाहीं पायल बाँटी ।' मुझे रामनगर तक का और दूसरी ओर आदिकेशव तक के तो बड़ी हँसी आई, पर पंडित ने जब एक लकड़ी और दृश्य दिखलाई देते थे। बरसात की मनोरम घटा जो
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
सरस्वती
[भाग ३६
मुझे यहाँ दिखलाई देती थी वह और कहीं नहीं । सामने में ब्राह्मणों की ओर भक्ति होती है। दूसरे वे परदेशी बढ़ी हुई गंगा, उस पार के हरे-भरे पेड़ तथा रंग-बिरंगे ब्राह्मण थे। इसलिए दया करके हम लोगों ने पंडित जी बरसाती बादलों को देखते देखते घंटों बीत जाते थे, पर को अपने घर में टिका लिया। बाबू जी, हमारे घर में तबीअत न थकती थी। हमारे मित्र प्रसिद्ध साहित्यिक थे सब प्राणी कमाते हैं, इसलिए अन्न की कमी नहीं है।
और उनके मुख से घंटों धारा-प्रवाह कवि और कविता- पर पंडित जी ने हमारा अन्न ग्रहण करना कबूल नहीं सम्बन्धी बातें सुनते रहने पर भी मेरा मन कभी नहीं किया। आप खुद खरीद कर खाते थे और दिन-रात पूजा घबराता था।
किया करते थे। धीरे धीरे उनकी शोहरत महल्ले भर में हो आज कुछ बूंदा-बाँदी थी। मैंने सोचा, चलो गंगा गई और लोग अपने बच्चों को उनसे झाड़-फूंक करवाने को का आनन्द लें । मित्र के घर पर पहुँचते ही पता लगा लाने लगे। पंडित जी कुछ मंत्र पढ़कर उनकी झाड़-फूंक कि ऊपर बैठक में बैठे हैं । ऊपर जाते ही उन्होंने स्वागत कर देते और भभूत लगा देते । अक्सर बच्चों को इससे किया। उनके हाथ में सचित्र 'टाइम्स आफ इंडिया' लाभ पहुँचता । होते होते पंडित जी के इन कारनामों से था। मेरे पूछने पर कि वे कौन-सा लेख पढ़ रहे हैं, महल्ले की प्रायः सब स्त्रियाँ अवगत हो गई और दिन उन्होंने बतलाया कि लेख अफ्रीकन जादू के सम्बन्ध में भर मेरे घर पर उनकी भीड़ लगी रहने लगी। पंडित जी ने है। फिर क्या था ? जादू के बारे में बहस छिड़ गई। झाड़-फूंक कर या मार मार कर बहुतों का भूत भगा मैंने पंडित जी की बातें सुनाई और उनकी धूर्तता के बारे दिया और अब वे महल्ले में ईश्वर गिने जाने लगे । में कहा । यह बात सुनते ही उन्होंने चौंक कर कहा-हाँ, ज़रा-सी बात होते ही लोग पंडित जी के पास दौड़ आपने उनका क्या पता बतलाया ?
जाते । धीरे धीरे लोगों पर पंडित जी की यह बात भी खुली ___ मैंने कहा-क्यों? मुझसे तो वह हनुमान-फाटक कि वे देवी का अावाहन भी करते हैं। फिर क्या था ? पर मिला था।
कुंड की कुंड स्त्रियाँ और पुरुष देवी जी के स्थान पर एकत्र मेरे मित्र ने कहा – ठीक है । वही होगा। होते और पंडित जी देवी बुलाते। आप समझ ही
इस 'वही' का मतलब मैं समझ न पाया और मैंने सकते हैं कि इन बातों से हमारे घर की स्त्रियों पर क्या पूछा- वाह जनाब ! आपने तो मुझे अजीब चक्कर में असर पड़ा होगा। वे तो उनको देवदूत या फ़रिश्ता डाल दिया । क्या आप उसे जानते हैं ?
समझने लगीं। बीमारी में भी मेरे घर दवा-दारू का __ मित्र ने कहा-नहीं। मैं अोझा-पंडितों के फेर में आना बन्द हो गया, क्योंकि पंडित जी के रहते दवा की नहीं पड़ता। पर मेरे यहाँ बुद्धू नाम का एक कहार क्या आवश्यकता ? खैर, इसी बीच में ग्रहण पाया। खिदमतगार है । वह हनुमान-फाटक पर रहता है। उसी पंडित जी रात भर अपनी कोठरी में बैठे रहे। भीतर के द्वारा आप पंडित जी का हाल सुन लीजिए। केवल एक टिमटिमाता दीप जल रहा था। और पंडित
बुद्धू कहीं बाहर गया था और जब तक वह वापस जी मिट्टी की एक मूर्ति पर कुछ पुष्प इत्यादि चढ़ाकर नहीं आया तब तक उसका हाल सुनने को मेरा दिल न जाने क्या पढ़ रहे थे। उनकी सख्त ताकीद थी कि बेचैन हो रहा था । आते ही वह ऊपर बुलाया गया और कोई घर के अन्दर न घुसने पावे और न कोई उनकी पूजा जो कुछ उसने कहा उसका सारांश यह है- में विघ्न करे। इस क्रिया का प्रभाव औरतों पर इतना पड़ा __ "चार-पाँच महीने हुए कि घूमते-घामते एक पंडित जी कि मैं कह नहीं सकता। दूसरे दिन पंडित जी से बहुत हमारे महल्ले में आये। बेचारे थके-माँदे थे और कहीं भारत के साथ पूछने पर पता चला कि उन्होंने ऐसा उनको ठहरने का ठिकाना नहीं मिलता था। अपना घर मंत्र सिद्ध किया है कि कोई भूत-प्रेत-पिशाच या जिन उन्होंने बलिया-ज़िला बतलाया था । साधारणतः हिन्दुओं उनके सामने टिक नहीं सकता। कुछ दिनों के बाद
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
प्रोझा
१४५
दुर्भाग्य से मेरी भावज बीमार पड़ी। ज्वर बड़े वेग से अाया उसके प्राणों के ज़िम्मेदार नहीं । मंगल को पंडित जी ने
और वायु के ज़ोर से वह कुछ अंड-बंड भी बकने लगी। गंगा-स्नान किया। देवी का दर्शन किया और घर आकर पंडित जी से पूछा गया। उन्होंने बतलाया, भूत-बाधा है। एक चौड़े मुँह की हँड़िया और गुग्गुल-लोबान, पुष्प, ज़ोर तो उसका अधिक है, पर वश में किया जा सकता कपड़ा इत्यादि मँगाया। सबके सामने गंगाजल से गहने है। उसका स्थान उन्होंने घर की स्त्रियों के गहनों में धोये गये और पंडित जी ने उनको हैडिया में रखकर बतलाया और कहा कि अगर गहनों की शुद्धि नहीं होगी उसका मुँह बाँधकर अपनी कोठरी में एक गड्ढा खोदतो वह घर की सब स्त्रियों को सतावेगा। बाबू जी, हम कर रख दिया, और हम लोगों को फ़ौरन चले जाने लोगों की कमाई इतनी तो नहीं है कि नित नित अपनी को कहा । पंडित जी की बातों ने हम पर ऐसा प्रभाव स्त्रियों को गहने गढ़वा सकें, फिर भी कुछ न कुछ डाल रक्खा था कि कोई औरत-मर्द जूं तक न बोला। ज़ेवर तो सब स्त्रियों के पास होते ही हैं। और मेरे घर में सबके मुखों पर भय की रेखा देख पड़ती थी। इसी तरह भी सब भाइयों की स्त्रियों के पास मिला कर क़रीब हज़ार करीब १२ बजे मुझको अाहट मालूम हुई कि कोई गड्ढा पन्द्रह सौ का गहना था। स्त्रियाँ गहनों को अपने प्राणों खोदकर हँडिया निकाल रहा है। मन में खटका हुआ । से भी बढ़कर समझती हैं, पर भूत का डर जो चाहे सा पर पंडित जी के आदेश को यादकर चुप रह गया। करा डाले। सब औरतों ने एक मत होकर अपने गहनों ज्यों-त्यों करके किसी तरह रात बीती और सवेरा होते ही से भूत निकलवा डालने का पक्का इरादा कर लिया। हम सब पंडित जी की कोठरी की ओर दौड़े। दरवाज़ा खुला पंडित जी ने अाखिरी मंगल इस क्रिया को सम्पन्न करने के हुअा था, पर पंडित जी अपने बिस्तरे और हमारी स्त्रियों लिए रक्खा। और इस बात का महल्ले के सब लोगों में के गहनों के सहित ग़ायब थे। स्त्रियों ने बड़ा कुहराम फैला दिया कि उस दिन भूत सिद्ध किया जायगा। इस मचाया। महल्लेवाले इकट्ठे हो गये, पर अब चिड़िया बात की भी उन्होंने हिदायत कर दी कि दस बजे के बाद उड़ चुकी थी। हम कर ही क्या सकते थे ? पुलिस में उस गली से कोई न गुज़रे, नहीं तो भूत हमला कर बैठेगा रपट लिखाई; पर सरकार, अभी तक उस बदमाश का पता
और फिर जान बचाना मुश्किल हो जायगा। पंडित जी नहीं है । हम लोगों की जितनी कमाई थी, लुट गई । अब का महल्ले में अातंक तो पूरा था ही। सब लोग उनकी हम कहीं के न रहे। इतना कह कर बुधू चुप हो गया। बात सच मान गये और मंगल को दिया जलते ही मेरी उसकी आँखों में आँसू भर आये। गली में सन्नाटा छा गया। मारे डर के हमारे महल्ले उस दिन से मेरी भूत विद्या से रही-सही श्रद्धा जाती के कुछ मनचले युवक सिनेमा तक देखने म गये। रही और आज तक मैंने किसी अोझा को अपने पास फटपंडित जी ने यह भी कहा कि हमारे घर की स्त्रियाँ घर के पिछले कने तक न दिया। सुना कि पंडित जी किसी दूसरे शहर हिस्से में रहें। और उनकी एक हिदायत थी कि कैसा भी में इसी तरह धोखा देते हुए पकड़े गये, पर बुद्धू के गहने खटका किसी को मालूम हो, चूं तक न करें। नहीं तो वे फिर वापस नहीं मिले ।
फा. ७
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
राय साहब चिरंजीतसिंह एम० ए०, एल०-एल० बी०, ज़मींदार और आनरेरी मैजिस्ट्रेट को उल्लू बनाना आसान नहीं। मगर शाह साहब ने कोशिश की । यह कहानी पढ़िए ।
रँगा सियार
लेखक पंडित मोहनलाल
नेहरू
"मुझे उसमें चमकती हुई अशर्फियाँ-सी दिखाई दीं।"
[१] मोरे घनिष्ठ मित्र चिरंजीतसिंह बहुत उदास बैठे थे। - मैं जब उनके बिलकुल पास पहुँच गया तब उन्हें मेरे
१४६
www.umaragyanbhandar.com
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
सख्या २]
रँगा सियार
१४७
आने की खबर हुई। उन्होंने हँसने का यत्न किया, स्कूल के ज़माने से चली आ रही थी। मेरा ख़याल किन्तु उनकी हँसी
तो यह था कि वे से भी उनकी
मुझसे कोई बात चिन्ता ही प्रकट
छिपा नहीं रखते थे।
कम-से-कम मैने तो मेरी और
उनसे कोई अपना उनकी मित्रता
भेद नहीं छिपाया था।
"क्यों, आज कैसे उदास बैठे हो ? खैरियत तो है !" मैंने घबराकर पूछा।
हाँ, सब कुशलमंगल है। यों ही कुछ उदासी-सी आ गई है। उन्होंने कहा।
मुझे कुछ शक हो गया कि कोई ऐसी बात है जो वे मुझसे बता नहीं रहे हैं । मैंने फिर कहा"नहीं कोई बात ज़रूर है। तुम्हें बतानी होगी। मेरे
और तुम्हारे बीच कभी भेद-भाव नहीं रहा। अब क्या कोई नई बात हो गई है ?"
- उन्होंने कुछ मुसकराते कुछ लजाने हुए कहा-"अपनी बेवकूफी का क्या बखान करूँ ? जैसा किया, वैसा पाया। हाँ, रंज ज़रूर है।"
SeSudhamaswamiGyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragvanbhandar.com
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८
सरस्वती
“आखिर मैं भी तो सुनूँ । वह कौन-सी बात है ? शायद कुछ सहायता कर सकूँ । कम-से-कम तुमसे सहानुभूति तो कर सकूँगा ही ।" मैंने बड़े प्रेम से
कहा ।
" अच्छा तो फिर सुनो। तुम हँसोगे जैसे दुनिया मुझ पर हँसेगी। मगर सच तो यह है कि अपने वक्त में सभी उल्लू बन जाने हैं।" उन्होंने कहा ।
मैं ध्यान से उनकी कहानी सुनने लगा। मुझे गत मास की उनकी यह कहानी मालूम न थी । मैं महीने भर से बाहर भ्रमण कर रहा था। बाहर न जाता तो शायद उन्हें बचा लेता । कम-से-कम बचाने की कोशिश तो अवश्य करता । ( २ )
उन्होंने कहना आरम्भ किया -- “ तुम्हें यह तो मालूम ही है कि मेरे पिता मेरे वास्ते बहुत कुछ धन छोड़ कर मरे थे । तुमसे यह भी छिपा नहीं है कि कई कोठियाँ भी बनवा गये हैं जो मेरे क़ब्ज़े में आज तक हैं । उनमें से एक कोठी तो बहुत पुरानी है जो कभी किराये पर नहीं उठती । वह कभी कभी मँगनी पर उठा करती है और दो-एक गरीब आदमी उसकी बाहर की कोठरियों में पड़े रहते हैं। मैं उनसे किराया नहीं लेता, किराये के बदले में वे उसकी चौकी - दारी कर देते हैं। मेरा मुंशी अयोध्याप्रसाद कभी कभी कोठी को खुलवा कर सफाई करवा दिया करता है ।
"बीस-पचीस दिन की बात है कि मेरे पास अयोध्याप्रसाद ने आकर कहा- हुजूर, मेरी लड़की सयानी हो चुकी है, धनाभाव से मैं उसका विवाह नहीं कर सकता । बिरादरी मुझ पर थूकती है । हज़ार रुपया कहाँ से लाऊँ जो उसका व्याह करूँ ? इस वक्त मेरी खुशकिस्मती से एक शाह साहब आ गये हैं । वे कहते हैं, सौ रुपये लाओ तो दस गुना कर दें। सौ भी मेरे पास नहीं हैं। अगर हुजूर इनायत कर दें तो मेरा बेड़ा पार हो सकता है । मेरी तनख्वाह में १०) हुजूर हर महीने काटते जायँ । 'मैंने हँस कर कहा
वे एक के इस बना सकते हैं तो रुपया ही क्यों
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
माँगते हैं' ? मुंशी ने उत्तर दिया- हुजूर, उन्हें किसी बात की कमी नहीं है । वे तो पहुँचे हुए फ़क़ीर हैं, परोपकार करते हैं। मगर जो लाभ उठाना चाहेगा उसे कुछ खर्च करना ही पड़ेगा। मैंने फिर कहा--कोई लुटेरा होगा। मुफ्त में फँसोगे'। मगर अयोध्याप्रसाद ने न माना । वह कहने लगा - कल उन्हें हुजूर के पास लाऊँगा । बड़ी खुशामद से वे कहीं आते-जाते हैं, मगर मैं लाऊँगा । हुज़ूर खुद ही जान लेंगे ।
"अपने वादे के अनुसार वह दूसरे दिन मेरे पास उन्हें लाया। उनका कद लम्बा और माथा चौड़ा था। चाँद गंजी थी, मगर कनपटियों पर बड़े बड़े बाल थे, जो गर्दन तक लम्बे लटक रहे थे। गुठनों से नीचे तक एक कुर्ता पहने थे, टखनों तक पायजामा था । लम्बी दाढ़ी उनकी छाती तक लटक रही थी । मगर मूँछें मुँड़ी हुई थीं। सिर के बाल और दाढ़ी मेंहदी से रंगे हुए थे। हाथ में एक टेढ़ी-मेढ़ी मोटी छड़ी लिये । पीठ और गर्दन को ज़रा झुका कर वे अपनी बड़ी बड़ी आँखों से मुझे घूरते हुए मेरे पास आ बैठे। मैं भी उनके रोब में कुछ गया । उन्होंने अपनी तुर्की टोपी सिर से उतार कर मेज़ पर रख दी और अयोध्याप्रसाद की तरफ़ देखकर बोले- यही तुम्हारे मालिक हैं ? अयोध्या ने मुझसे कहा - बड़ी मुश्किल से मैं शाह साहब को यहाँ तक ला सका । इनके पीछे सेठ छन्नामल पड़े थे। मगर आपने जाने से इनकार कर दिया। शाह साहब ने मुझसे कहाकिसी गृहस्थ के घर आम तौर पर मैं नहीं जाता हूँ । मगर खुदावन्द करीम को इस वक्त यही मर्ज़ी थी कि मैं आपकी दरख्वास्त को नामंजूर न करूँ । इसके पश्चात् वे मुझसे इधर-उधर की बातें करते रहे । उस दिन की बातों का रंग मुझ पर बहुत जमा । जब वे उठकर जाने लगे तब मैंने उनसे सविनय प्रार्थना की कि कल फिर आयें। उन्होंने मुसकराकर स्वीकार किया, चलते समय बोले- अब आप मेरे मुरीद हैं। मैं आपको कुछ भेंट देता हूँ । इतना कह कर हाथ ऊपर उठाया। 'व' ! कह कर एक छोटा
www.umaragyanbhandar.com
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
रँगा सियार
१४९
सा अनन्नास मेरे हाथ में धर दिया। तुम्हीं सोचो, बैठे हैं उनके भगाने को पूजा करा रहे हैं। पिछली बेफस्न की चीज़ मेरी आँखों के सामने कोई बैठे बैठे जुमेरात को वे मुझे उसी मकान में ले गये और मॅगा दे तो मैं कैसे उल्लू न बन जाऊँगा । उस वक्त मैं एक अँधेरी-सी कोठरी में ले जाकर बोले कि इसी में उनका सचमुच पूरा मुरीद हो गया । वे दो-तीन दिन खजाना है। अयोध्याप्रसाद ने उनकी आज्ञा पाकर तक बराबर आये और रोज ही कोई न कोई चीज खोदना शुरू किया। चिराग़ जल रहा था। उसके मुझे भेंट दे गये । चीजें मेरे सामने किसी ऐसी शक्ति प्रकाश से कमरे का अँधेरा कम हो गया था। कुछ से वे मँगा देते जो मैं समझ न सकता, और मुझे उन दर खोद कर वह चिल्ला उठा कि एक देग तो दिख पर पूरी श्रद्धा हो गई। शायद इससे भी ज्यादा रही है। मैंने भी कोई चमकती हुई चीज देखी। जितनी अयोध्याप्रसाद की उन पर थी।
अपनी अमा शाह साहब ने मुझे दी कि ठोंक कर दे । ___ "एक दिन शाह जी ने कहा-मैं तुमसे बहुत खुश ज्यों ही मैंन उस लकड़ी से देग को ठोंका कि फुफकार हूँ। इससे तुम्हें यह बता देना चाहता हूँ कि तुम्हारे मार कर एक साँप फन उठा कर खड़ा हो गया। अमुक मकान में खज़ाना गड़ा हुआ है। मगर उसके "शाह साहब चिल्ला उठे। बस ! बस ! अभी वक्त मिलने के वास्ने खच करना पड़ेगा। में फकीर आदमी नहीं है। गंगा जी की भेंट बाक़ी है। इतना कह कर हूँ। मुझे तुम्हारे पैसे की ज़रूरत नहीं। मगर ग़रीबों उन्होंने मेरे हाथ से असा ले ली और साँपों का खयाल को बहुत-कुछ देना होगा। शायद कुछ गंगा जी के भी न करते हुए देग का ढंकना थोड़ा-सा उठाया। मुझे भेंट करना पड़े। “मैंने पूछा-कितना खर्च होगा और उसमें चमकती हुई अशरफियाँ-सी दिखाई दीं। वे कितनी प्राप्ति होगी ? उन्होंने कहा-यही दो-चार अरबी में कुछ पढ़ते जा रहे थे। शायद साँपों को हजार खर्च होगा। मिलने को लाखों मिल सकते हैं। शान्त रखने का मन्त्र था। इस वक्त तो उस खजाने पर साँप बैठे हैं।
__ "उस कोठरी को यों ही छोड़कर बाहर से ताला ___"मेरे मुँह में पानी आने लगा। परमेश्वर ने डाल में चला आया। शाह जी ने कहा कि ताले की मुझे बहुत-कुछ दे रक्खा था, मगर जब मेरे ही घर कोई जरूरत नहीं। उसे कोई छू नहीं सकता। मगर में लाखों और गड़े पड़े हैं तब उन्हें क्यों छोड़। मेरा दिल कव मानने लगा। शाह जी ने कहा--तो कल जुमेरात है। मुझे "दूसरे दिन अयोध्याप्रसाद ने मुझसे शाह जी के अपने उस्ताद की क़न पर हलवा चढ़ाना पड़ेगा। तरफ़ से कहा कि सौ तोले की सोने की गंगा जी की कंगालों को बाँटना होगा। आप अयोध्याप्रसाद को मूर्ति बीच संगम में मुझे डालनी होगी । फौरन बननी भेज दें कि वे अपने सामने बँटवा दें, खुद आपको चाहिए । मैंने सुनार को बुलाकर उसे मूर्ति बनाने की तकलीफ करने की जरूरत नहीं, जब जरूरत होगी, आज्ञा दी। वह हँसने लगा। मेरे ऐसे नास्तिक से उसे मैं बता दूंगा।
कभी ऐसी आशा न थी। मगर उसका क्या जाता __ "जुमेरात और मंगल को हलवा बँटने लगा। इसमें था ? वह दो-तीन दिन में बना लाया और ३,०००) मेरे ५८०) खर्च हुए। मगर पाँच सौ या पाँच हजार के नोट लेकर चला गया। की लाखों के आगे क्या हक़ीक़त है ? एक दफ़ा कुछ "शाह जी ने मुझसे कहला भेजा कि मैं हर दम देर को मैं भी गया। बड़ी बड़ी देगों में हलवा रक्खा उनका इन्तज़ार करूँ। इन्हीं चार-छः दिन में वे था। कैंगले जमा हो रहे थे। इतना मैंने भी देखा। किसी घड़ी मेरे पास आवेंगे और तब मुझे तुरन्त ___"तीन हफ्ते तक वे कुछ पूजा-पाठ भी कराते रहे। उनके साथ जाना होगा। अभी वे पूजा-पाठ में लगे मेरे पूछने पर बोले कि जो साँप उस धन के ऊपर हुए हैं और समय आते ही आ पहुंचेंगे।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
सरस्वती
"चार दिन, सच कहता हूँ, बड़ी ही बेचैनी से कटे । इतनी दौलत मेरे घर में और मैं छू नहीं सकता ! यह कम्बख्त शाह जी आता ही नहीं, मैं घर में कैदी था न कहीं आने का, न जाने का, कमरे में इधर से उधर टहलता रहता, न बैठे चैन, न लेटे । टहलने टहलते जब टाँगें थक जातीं, लेट जाता। फिर अन्दर
हूक उठती, उठ खड़ा होता और टहलने लगता । मेरी स्त्री मेरी यह दशा देखकर घबराती, डाक्टर को बुलाने को कहती, मगर मैं डाँट फटकार देता । असल में मैं अपने आपे में न था और वह ठीक समझती थी कि मैं पागल होनेवाला हूँ। फिर भी मैंने उससे शाह जी का हाल नहीं बताया। मैं यह सोचता था कि जब अशर्फियों का देग वह देखेगी, मेरी ही तरह फूलकर कुप्पा हो जायगी। थोड़ी-सी फिक्र के बाद खुशी भी अच्छी लगती है ।
" परसों की बात है। रात को बड़े जोर की आँधी उठी थी। शायद आठ बजे होंगे कि शाह साहब आ पहुँचे । अयोध्याप्रसाद उनके साथ था । वे बोले - चलो यही वक्त है। जल्दी करो । सामान साथ ले लो। हम लोग पाँच मिनट के अन्दर घर से चल खड़े हुए। मैं और शाह जी तो खाली हाथ थे और मुंशी के हाथों में कपड़े में लिपटी गंगा जी की मूर्त्ति थी। भाई ठाकुर सिंह ! तुम मेरी उस वक्त की . खुशी का अन्दाज़ नहीं कर सकते। थोड़ी-सी देर में मैं लाखों का मालिक होनेवाला था । मेरी अर्धाङ्गिनी मना भी करती रही कि कहाँ आँधी में जाओगे, मगर मैं क्यों मानने लगा । मुझ पर तो जादू सवार था । यह मुझे पीछे मालूम हुआ कि उन्होंने ड्राइवर से चुपके से कह दिया था कि 'सरकार' का मिज़ाज ठीक नहीं है। जरा खयाल रखना । वह बेचारा क्या ख़याल रख सकता था ।
"गंगा जी पहुँचे तब तक आँधी में कुछ कमी हो गई थी, मगर दरिया उछल-कूद रहा था। शाह जी ने नाववाले को आवाज़ दी। एक नाव दौड़ आई । अँधेरी रात और हवा का जोर ! मैं तैरना जानता
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
नहीं था । नाव पर चढ़ते ही डर मालूम हुआ । मगर शाह साहब कड़क कर बोले कि क्या तीन हफ्ते की मेहनत खो दोना चाहते हो। मुझे हिम्मत
गई और मैं नाव पर जा बैठा । ड्राइवर को शाह जी ने नहीं चढ़ने दिया और मैं कुछ कह भी
न सका ।
"संगम तक जाते जाते शाह जी ने कहा, कहाँ हैं वह मूर्त्ति ? लाओ, जल-प्रवाह के पहले आखिरी पूजा कर लूँ । अयोध्याप्रसाद ने मूर्त्ति उन्हें दे दी । वे पूजा कर ही रहे थे कि संगम आ पहुँचा। उन्होंने मूर्ति मुझे दी और कहा, लो, गंगा जी का ध्यान करके उन्हीं की मूर्ति उन्हीं को चढ़ा दो ।
“मैं बड़ी श्रद्धा से मूर्त्ति को जल में डाल दिया । वह गड़ाप से ग़ायब हो गई। शाह साहब ने कहा, मैं कल शाम को तुम्हारे साथ चल कर खजाने का क़ब्ज़ा तुम्हें दिला दूँगा । उस रात और दूसरे दिन किस मुश्किल से कटे, मैं तुमसे नहीं कह सकता | शाम को अयोध्याप्रसाद बहुत घबराया हुआ आया और बोला, हुजूर, मैं शाह साहब के घर गया था । वहाँ मालूम हुआ कि वे तो कल से ही नहीं लौटे हैं। काटो तो बढ़न में खून नहीं, मैं मुंशी को साथ लेकर खजाने की कोठरी में पहुँचा। वह खुदी पड़ी थी । न देग थी, न साँप। उस शाह साहब ने मुझको - हाँ हाँ राय साहब चिरञ्जीतसिंह एम० ए०, एल-, एल० वी० ज़मींदार आनरेरी मजिस्ट्रेट को उल्लू बना दिया" ।
बस,
( ३ )
यह हाल सुनकर मैं अपनी हंसी न रोक सका और मैं इतना हँसा कि मेरी आँखों में पानी गया । आखिर में वे भी हँसने लगे, मानो दिल के फफोले फूट जाने पर उन्हें शान्ति आ गई हो । “उस बेईमान को सात साल के वास्ते जेल न भिजवाया तो सही" । वे कहने लगे- “मेरे तो दो चार हज़ार रुपये ले भागा तो ले भागा, उस बेचारे अयोध्याप्रसाद के भी सौ ले गया" ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
रँगा सियार
१५१
मुझे उसकी इस सरलता पर और भी हँसी मैंने उसे कुछ धमकाया, कुछ डराया, कुछ आई । मैंने कहा-"भाई साहब, आप निरे बूदम हैं दिलासा दिया कि सच सच हाल बता दे कि वह जो यह समझते हैं कि मुंशी की साजिश इसमें न मूर्ति पानी में फेंकी भी गई या कोई नजरबन्दी थी। थी। वह बिना उससे मिले आपको चरका नहीं दे अयोध्या ने कहा- "मूर्ति फेंकी अवश्य गई, किन्तु सकता था।
वह नहीं । पूजा करने के बहाने जब उसने मूर्ति ली ___ उसे कुछ शक होने लगा और हम दोनों इस तब वही मूर्ति सरकार को नहीं दी। एक दूसरी मामले की
पीतल की मूर्ति चद्दर के भीतर सीसा भरकर नाव उस कोठी के फाटक पर जो दो चमार रहते थे, पर रक्खी थी। वही फेंकी गई। उन्होंने बताया-मुंशी जी और शाह जी कई दफे साथ जिम सुनार ने वह दूसरी मूर्ति बनाई थी उसने साथ उस कोठी में गये थे। दो-चार दफ़ एक ठेला उसका बनाना स्वीकार किया, मगर यह भी कहा भी आता-जाता उन्होंने देखा था, मगर कोठरी में कि बनवाया था अयोध्याप्रसाद ने ही। कुछ खोदने या गाड़ने की उन्हें कोई खबर नहीं हुई। मुझे तो था ही नहीं, चिरंजीतसिंह को भी जिस रात को आँधी आई थी, शाह जी और मुंशी अयोध्याप्रसाद के दोषी होने में अब कोई सन्देह जी उस कोठरी से कोई चीज़ ले गये थे। ठेला साथ नहीं रहा और वे उसे पुलिस में देने को तैयार हो आया था।
गये। मगर मैंने ही इस ख़याल से पुलिस के सुपुर्द मुंशी पुराना आदमी था। इस शहादत के नहीं करने दिया कि मुफ्त मेरा मित्र बेवका बनेगा। आगे गर्दन झुकाये खड़ा रहा। आखिर में बोला- पीछे पता चला कि शाह साहब ने मुंशी को भी चरका "हुजूर, मै खतावार ज़रूर हूँ, मगर अपने बच्चों दिया। आधे का साझीदार उसे ठहराया था, मगर की क़सम खाता हूँ कि मुझ पर उसने बड़ा ही रोब आँधीवाली रात को ही वे गायब हो गये। अयोध्यागाँठा था। मैं बिलकुल अपने आपे में नहीं था। वह प्रसाद इसी से दूसरे दिन घबराया हुआ आया था। जो चाहता था मुझसे करा लेता था।"
उसकी वह घबराहट बनावटी न थी।
लेखक, श्रीयुत शैलेन्द्र आ सँग चल सखि ! सुरसरि-जीरे !
(२) डुबकी भर तन तपन मिटा दे।।
अमल प्रणय जलराशि बह रही, बस न रह गया मेरा मन पर,
उर की मेरे प्यास दह रही; चलती रग रग नव उछाह भर;
सुख-सँयोग अभिलाष बढ़ रही, क्षण में पाँव तीर त्यागें सखि !
भीजी पलकें अलकें बुड़कर । जल छूते हों सब तन सीरे।
उछलूँ नवजीवन ले धीरे।
-
-
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
साहित्य
रहस्य वाद के सम्बन्ध में हिन्दी के क्षेत्र में बड़ी ग़लत फहमी फैली हुई
है। इस लेख में लेखक महोदय __ ने उसी के दूर करने का
सुन्दर प्रयत्न किया है।
सङ्केतवाद
लेखक, श्रीयुत गुलाबप्रसन्न शाखाल, बी० ए० रङ्केत वास्तव में विश्व की प्रथम का केवल कविता के लिए ही प्यार करती है और इसी
और अन्तिम सुन्दर कविता लिए कवि का रहस्य-लोक कला की विभूति में जगमगाने का प्राण है। मानव-जीवन लगता है। प्रकृति की पवित्रता के महत्त्व की आनन्दपूर्ण के अनुसार ही कविता, रूप स्वीकृति और सृजित सुन्दरता के प्रति तीव्र प्रेम के कारण पर नहीं, अप्रत्यक्ष सत्य द्वारा वह सार्थक एवं प्रत्यक्ष सङ्केतों को सजाता है तथा निराजीवित रहती है। सङ्केतवादी कार का साकार में सफल और साधना-पूर्ण रूपान्तर करता
कवि कलाकार एवं दार्श- है। इस प्रयत्न में उसकी साधना की सफलता व्यक्तिगत निक दोनों है। दार्शनिकता कवि के मननशील मस्तिष्क के अनुभवों पर निर्भर रहती है और उसके चित्रण में स्वयं रस में बरस पड़ती है और कला अन्तगनुभूति की चम- के जीवन-पथ के विभिन्न दृश्यों का सौन्दर्य निहित रहता त्कारपूर्ण भावज्ञता में रंग जाती है । कविता को मापेक्ष है। वह अपने जीवन की प्रेरणा से संसार के अन्यतम सत्य अमरता इन्हीं दो स्तम्भों पर स्थित रहती है। कवि सतत से परिचित बनता है और टामस कार्लाइल के शब्दों में एवं अविरल साधना के साथ आत्मा के कार्य कलापों का विश्व के दिव्य-सत्य में प्रवेश करता है। व्यक्तिगत अनुचिन्तन करता है; उत्साह के साथ सत्य का अनुसन्धान भव ही सङ्केतवादी कलाकार की कृति की उद्भावना-शक्ति करता है और परमात्मा के प्रति आत्मा के कामनोद्गारों बनता है और इसी लिए उसकी कविता में स्वयं के जीवन का वर्णन करता है। किन्तु उसकी खोज वैज्ञानिक खोज के मनन, घटनाक्रम और अनुभूति का आधार रहता है। नहीं है । कलाकार कवि, सौन्दर्योपासना की मदिरा पीकर, उसका रचना उसके अन्तर्तम प्रदेश का विकास है । विश्व ऐन्द्रिय जग की सुन्दरताओं का प्रेमोन्माद में अनुभव की दैविक भावना जो सङ्केतवाद का मूल है, अात्मा की करता है; प्रत्यक्ष छवि को अनन्त सौन्दर्य में गुम्फित पाता अभिव्यक्ति है और वही अभिव्यक्ति वास्तव में कविता के है और मानव-जीवन की सरलताओं का निरख-निरख सहा- प्रत्यक्ष सौन्दर्य का अन्तर्धान होने पर पाठक के हृदय पर नुभूति में द्रवीभूत हो जाता है । वह अप्रत्यक्ष सत्य का अंकित-सी जान पड़ती है। मनन और प्रत्यक्ष विश्व को प्यार करता है। स्निग्ध सङ्केतवादी साहित्य विशेषरूप से आधुनिक संसार की
आकाश, निर्मल सागर, प्रतीक्षा-प्रफुल्ल-पुष्य और प्रेरणा- उपज है और उसका प्रत्यक्ष स्वरूप तो हमें बीसवीं शील प्राणी उसके ऐन्द्रिय सौन्दर्य की वस्तुएँ हैं । इन्द्रिय शताब्दी में ही दिखा है इसके पूर्व सङ्केतवाद अपने
और आत्मा का अथवा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष का यही स्वतन्त्ररूप से परिचित नहीं था। साहित्य-संसार में यत्रमधुर-मिलन ही सङ्केतवाद की कविता का प्राण है। तत्र रहने पर भी उसका निज का अस्तित्व नहीं था।
सङ्केतवादी कवि की प्राण-प्रसूत प्रतिभा काव्य-विषय वर्तमान जीवन की जघन्यता ने उसका आविर्भाव अनि
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
www.umar@gyanbhandar.com
बम्बई टाकीज़ लिमिटेड एक सुन्दर सवाक् चित्रपट तैयार कर रहा है। यह उसी का एक दृश्य है जो गत १६ मई को तैयार हुआ था। उस दिन बम्बई के गवर्नर सपत्नीक देखने गये थे । इस चित्र में वे फ़िल्म की शूटिंग देख रहे हैं।
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
ERRIA
श्रीयुत गुरुप्रसाद टंडन (प्रोफेसर विक्टोरिया कालेज, ग्वालियर) अपनी नववधू के साथ। यह विवाह हाल में हुआ है। विवाह के समय के मंत्र एवं प्रतिज्ञायें वरवधू ने हिन्दी में ही
कही थीं।
काँकेर की हर हाइनेस महारानी साहबा अपनी पुत्री श्रीमती गोविन्द कुमारी और अपने दामाद के साथ शिक्षा-सम्बन्धी उद्देश से विलायत गई हैं । बम्बई में जहाज़ पर चढ़ने के समय का यह
चित्र है।
महिला-विश्वविद्यालय (पूना) की इस वर्ष की स्नातिकाये सर सी० वी० रमन और प्रोफेसर कर्वे के साथ । DShree Sudharmaswami Gyanb ऊपर भारतीय महिला समिति, बम्बई, की सदस्यायें हैं।
www.umaragyanbhandar.com
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
कांग्रेस पार्लियामेंटरी बोर्ड के नेता श्रीयुत भूलाभाई देसाई - भूलाभाई देसाई ही भारतीय राजनीति के प्रमुख व्यक्ति हैं। अप्रिय सत्य कहने के कारण श्राप से साम्यवादी तथा रजवाड़ों के राजनैतिक कार्यकर्ता नाराज़ हो गये हैं। आप देशी राज्यों
के सबल समर्थक हैं।
स्वर्गीय बाबू कृष्णगोपाल जी-आप कुशल इंजीनियर, निपुण चित्रकार और अँगरेज़ी तथा फ़ारसी के विद्वान थे। आपका यह चित्र हमें लिपि-विद्या के विशेषज्ञ पंडित गौरीशंकर भट्ट से । प्राप्त हुआ है । भट्ट जी ने आपके ही निरीक्षण में हिन्दी-लिपि में विशेषता प्राप्त की थी। श्राप
चरखारी के निवासी थे।
नवाब सर अकबर हेदरी निज़ाम सरकार की कार्य-कारिणी समिति के उपसभापति नियुक्त हुए हैं। आप हैदराबाद राज्य के बहुत प्रसिद्ध उच्च राजकर्मचारी हैं।
महामहोपदेशक पंडित नन्दकिशोर शुक्ल वाणी-भूषण-श्राप सनातनधर्म के प्रसिद्ध उपदेशक हैं। ग्राप किसी संस्था मैसूर के श्रीयुत एन० नागाप्पा-आपने के संलग्न उपदेशक नहीं हैं, किन्तु कन्नड़ी-भाषा-भाषी होते हुए भी इस स्वतन्त्र रूप से उपदेश करते हैं। वर्ष हिन्दू-विश्वविद्यालय से हिन्दी में __आपके विचार भी राष्ट्रीय हैं।
एम० ए० पास किया है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
डलझील (कश्मीर)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
साहित्य में सङ्केतवाद
१५३
वार्य कर दिया और आज उसका स्वरूप पूर्ण प्रत्यक्ष हो देश है और अठारहवीं शताब्दी क्रान्ति का युग मानी गई गया है।
है। सङ्केतवाद भी उसी युग के क्रान्ति-जनित फ्रेंच___ शारीरिक एवं जड़ सौन्दर्य की आवश्यकताओं की साहित्य का स्वरूप है। फ्रेंच में उसने रोमेंटिक, पूर्ति मानस में आध्यात्मिक सौन्दर्य की प्यास उत्पन्न कलात्मक एवं सौन्दर्य-सम्बन्धिनी पूर्णता प्राप्त की और करती है और फिर शृङ्गार के नख-शिख-वर्णन एवं जर्मन में उसे आध्यात्मिक एवं जीवित सत्य की नायक-नायिका-भेद आकर्षण-विहीन और अचेतन बन नवीन शक्ति मिली। तदुपरान्त सङ्केतवाद की प्रतिष्ठा जाते हैं। उस समय आत्मा के सौन्दर्य-काव्य का निर्माण बढ़ती गई और रहस्यवाद, छायावाद, मायावाद, प्रतिहोता है और नर-हृदय विभूति-सृष्टि में निमग्न हो जाता बिम्बवाद आदि उसकी अनेकानेक शाखाओं-प्रशाखाओं है। उस काल का साहित्य अात्मा की अनुभूति-द्वारा के कलित कुञ्जों की छाया से संसार का साहित्य-उद्यान प्रदत्त अप्रत्यक्ष अनुसन्धान का वर्णन करता है । अात्मा आच्छादित हो गया । सच पूछिए तो सङ्केतवाद आधुनिक अप्रत्यक्ष है और सृजनहार सत्य भी अप्रत्यक्ष है। हम युग के साहित्य के श्रेष्ठतम अङ्ग का नाम है। बंगाल के अप्रत्यक्ष की ओर केवल सङ्केत कर सकते हैं । उसे सङ्केतों रवीन्द्रनाथ, यूनाइटेड किंगडम के यीट्स, इटली के जेब्राके आरोप से ही व्यक्त कर सकते हैं। उसके प्रतिबिम्ब को इल (Gabriele d' Annunzio), पुर्तगाल के यूगेन देख सकते हैं, उसकी वाणी की प्रतिध्वनि सुन सकते (Eugenio de Castro), स्पेन के केम्पोमर (Campoaहै; किन्तु उसकी वास्तविकता को नहीं पा सकते हैं। mor) वर्तमान विश्व के सर्वोत्कृष्ट कवि सङ्केतवादी ही सङ्केतवादी कवि अपने हृदय की तीव्र भावनायें अप्रत्यक्ष हैं। श्रेष्ठ साहित्य ही नहीं, साधारण कृतियों का सौन्दर्य के क्रीड़ा-क्षेत्र में विहरित करता है और अपने चिन्तनशील भी श्राज सङ्केतवाद की व्यापकता का परिणाम बन गया रसात्मक मानस में अव्यक्त सत्य को सत्य के रूप में है। संसार में ऐसा कोई साहित्य नहीं जिसमें इस नवीन देखने लगता है। उसे फिर नायिका के जड़ अाकर्षण धारा के उन्नत-पथ-गामी स्वरूप की अभिव्यक्ति न हुई में शान्ति नहीं मिलती। सारा संसार विभूतिमय हो जाता हो । हिन्दी में सङ्केत की स्पष्ट व्यंजना जायसी ने की और है । रूप और रंग की विभिन्नता नष्ट हो जाती है और उसे सुव्यवस्थित रूप कबीर ने दिया, किन्तु राज-वैभव के विमल एवं चेतन अात्माओं का दिव्य संगीत मुखरित प्रासाद-कारागारों ने अनेक शताब्दियों तक साहित्य-संसार होने लगता है। सत्य की छाया ही विभूति-तादात्म्य से के इस उज्ज्वल एवं मौलिक स्वरूप को बन्दी कर दिया। सत्य हो जाती है और यही सत्य-शक्ति उसकी कविता को आज पुनः वह काव्य देश और काल की गति पाकर अमरत्व प्रदान करती है । आत्मा का विकास और सौन्दर्य प्रस्फुटित हुआ है। ही उसकी अनुभूति और काव्य के विषय होते हैं।
मूल सङ्केतवाद यद्यपि अनादि और अनन्त है, तथापि ___ वर्तमान संसार जड़ एवं निर्जीव वैज्ञानिक शक्तियों- उसका स्पष्ट स्वरूप क्रमागत सोपानों पर चढ़कर श्राता द्वारा शिथिल हो गया है । इन्द्रियों की तृप्त पिपासा जल है। आधुनिक सङ्केतवाद की झलक हमें कल्पनावादी चुकी है और जीवन की सुधा अात्मा में उतर रही है। साहित्य (Romanticism) में मिलती है। वास्तव में यही कारण है कि सङ्केतवाद वर्तमान जीवन का साहित्य अनुभूति-प्रदत्त कल्पना-साहित्य ही उसका श्राधार है। बन गया है। आज प्रत्यक्ष-सृष्टि अलीक प्रतीत हो रही वह सङ्केतवाद को स्वरूप-दृढ़ता और स्थिरता प्रदान करता है और अप्रत्यक्ष लोक-सम्बन्धिनी भावना का स्वप्न-स्वरूप है। इस प्रकार सङ्केतवाद रोमेण्टिसिज़म की एक शाखा नष्ट होकर प्रत्यक्ष हो गया है।
का नाम है। रोमेण्टि सिज़्म कल्पना-प्रदत्त मूर्तिमत्ता के अाधुनिक काल में सङ्केतवाद प्रत्यक्ष रूप में सबसे स्वाभाविक सौन्दर्य का नाम है । यह रूढ़ि-बन्धन पहले फ्रेंच साहित्य में व्यक्त हुआ। फ्रांस क्रान्ति का एवं जड़ता से परे आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति है।
फा.८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
सरस्वती
[भाग ३६
वह हृदय की अविरल साधना का सरल सौन्दर्य है। की है और प्रसन्नता की बात है अब हमारे कुछ नवयुवक उसका स्वरूप सर्वदेशीय और व्यक्तिगत दोनों हैं। कवियों का ध्यान फिर मूल रोमेण्टिसिज़्म की ओर फ्रेंच-साहित्य में आर्थर रिम्बाद, नर्वल श्रादि का जा रहा है। सङ्केतवाद, तेने, झोला, लेकान्त दे लिषिल प्रभृति के हिन्दी में वर्तमान सङ्केत की सृष्टि प्रधानतः तीन कारणों रोमेण्टिसिज़्म का उपपन्न है । सङ्केतवादी युग के बहुत से हुई है। प्रथम तो अँगरेज़ी अथवा योरपीय साहित्य पहले जड़-साधना-क्षब्ध फ्रांस में सुप्रसिद्ध औपन्यासिक के प्रभाव से, दूसरे बंगाली छायावाद के आकर्षण से फ़्लेबन ने प्रत्यक्ष जगत को असत्य मानकर आत्मविकासक और तीसरे कबीर की वाणी के पुनरुत्थान से। बंगाली कल्पना-साहित्य की सृष्टि की है। प्रभाववादी ([mpres- छायावाद अथवा कबीर के रहस्यवाद से उत्पन्न हिन्दी sionist) गनकोर्ल्स ने अपनी रचना में विश्व के उन सङ्केतवाद परिपक्व न होते हुए भी अपनापन लिये हुए काल्पनिक और व्यंजक चित्रों का आधार लिया जिनका सुन्दर है; किन्तु अँगरेज़ी की भावना से उत्पन्न सङ्केत कुछ अस्तित्व और छाया पर निर्भर रहता है। लेकांत ने अस्वाभाविक और अपरिपक्क हो गया है। इसका कारण यह जड़वादी होने पर भी पूर्वीय दर्शनालोक की 'निर्वाण'-उषा है कि बँगला का छायावाद कबीर के रहस्यवाद का सरस के वैभव का चित्रण किया। इस प्रकार कल्पनावाद के रूपान्तर है और इन दोनों में एकदेशीयता तथा जातीयता पश्चात् व्यंजनात्मक साहित्य का निर्माण हुअा और फिर है। हिन्दी के रहस्यवादी, छायावादी कहलानेवाले कवियों सङ्केतवाद की सृष्टि हुई । अँगरेज़ी-साहित्य में भी कालरिज में अधिकांश अँगरेज़ी से प्रभावित हुए हैं। मेरी समझ में शेली, बाइरन, कीटस आदि ने रोमेण्टिसिज्म की सृष्टि की। उनमें से एक भी पूर्णता अथवा परिपक्वता प्राप्त नहीं कर फिर ब्राउनिंग, मेरीडिथ तथा स्टेवेन्सन ने काव्य में व्यंजना सका है। वह या तो कभी केवल दार्शनिक ही रह जाता (suggestive style) का विशेषत्व स्थापित किया और है या कभी इहलौकिक सौन्दर्य के उपासक कवि के रूप तत्पश्चात् यीट्स, मनरो, गोरबूद, लॉ मेयर ने सङ्केतवाद में आता है । वह विशुद्ध सङ्केतवाद की सरसता को नहीं की स्पष्ट कला अंकित की। संसार के सभी साहित्यों में प्राप्त कर सकता, क्योंकि उसकी अनुभूति पर्यायवाची और इसी प्रकार, रोमेण्टि सिज़्म के पश्चात् क्रम से व्यंजकशैली रोमेण्टिक भावनायें अपरिपक्व ही रहती हैं। साथ ही वह और फिर सङ्केतवाद की सृष्टि होती है। सङ्केतवाद की भारतीय सङ्केतवाद का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। भूमि पर कविता अपनी उन्नति की सीमा पर पहँच जाती किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि वह कवि ही नहीं है। हिन्दी-साहित्य का विकास-क्रम निराला ही है। हिन्दी- हो सकता। ऐसे कवियों में कुछ तो महान् कलाकार के साहित्य का पुनरुत्थान अभी-अभी हुआ है, अतएव वह रूप में आते हैं । श्री सुमित्रानन्दन पन्त ऐसे कवियों में शीघ्र से शीघ्र विश्व-साहित्य के सभी अंगों से परिपूर्ण हो प्रमुख हैं। उनकी कल्पना सङ्केतार्थी और उच्च है; उनमें जाना चाहता है और इसी शीघ्रता के कारण उसके किसी काव्य-रस छलका पड़ता है, उनके शब्द-विन्यास में विशेष अंग की पूर्ति नहीं होने पाती । हिन्दी में खड़ी अनुपम सौन्दर्य और संगीत है, किन्तु उनके संकेत वाद में बोली के साथ ही रोमेण्टि सिज़म अाया, किन्तु उसकी (जो विस्मयवाद भी कहा जाता है) रोमेण्टि सिज़्म की शैशवावस्था में ही छायावाद के नाम से सङ्केतवाद का अपरिपक्वता के कारण पूर्णता एवं शाक्तिक एकीकरण नहीं जन्म हो गया। इससे हिन्दी-रोमेण्टि सिज़्म का सुन्दर है। उनमें साधना-उन्माद प्रतीत नहीं होता और साथ विकास न हो सका; उसकी धारा रुक गई। कहने का यह ही उनमें कबीर ऐसी तीव्रता भी नहीं है। उनके 'मौनतात्पर्य है कि हिन्दी में रोमेण्टिसिज़्म प्रगतिशील नहीं है। निमंत्रण' में लक्षणा-शक्ति का सुन्दर चित्रण है, किन्तु 'प्रसाद' जी की कला का प्राधार रोमेण्टिसिज़म ही है। भावों की तीव्रता शब्द-सौन्दर्य में अोझल-सी हो गई उन्होंने तरुणावस्था में सुन्दर रोमेण्टिक काव्य की रचना है। उसमें अप्रत्यक्ष सत्य का 'साकार' स्वरूप नहीं है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २ ]
परन्तु स्फुट रचनाओं के परे जहाँ तक . ' ज्योत्स्ना' का सम्बन्ध है, हिन्दी सङ्केतवाद को पंत जी से बहुत आशा है । 'ज्योत्स्ना' में भारतीय मौलिकता तथा सङ्केतवाद की सजीवता है । वास्तव में हिन्दी का वही एक मात्र सङ्केत वादी पूर्ण-ग्रन्थ है । विभूति-संसार के जीवन का वह हिन्दी में प्रथम और अनुपम काव्य है । सङ्केत के सहारे उसमें स्वर्गिक एवं मानवीय ग्रामात्र (spirits) का सुन्दर मेल हुआ है | उसका सौन्दर्य हृदय और लक्ष्य की क्रीड़ा में सन्निहित है । विश्व एकीकरण का मनोरम चित्र नाटक के प्रत्येक पात्र के प्रत्येक वाक्य से व्यंजित हुआ है। एक-एक शब्द मानो कह रहा है
साहित्य में सङ्केतवाद
Our meddling intellect misshapes The beauteous form of things.
लहरें भी एक नियम में बद्ध हैं। उनका जीवन, विश्वजीवन का एक निमंत्रित अंश है । वे अपना परिचय काव्यमय श्राध्यात्मिकता में देती हैं
अपने ही सुख से चिर- चंचल, हम खिल-खिल पड़ती हैं प्रतिपल; जीवन के फेनिल माती को, लेले, चल - करतल में टलमल,
चिर जन्म मरण को हँस हँस कर हम आलिंगन करतों पल-पल, फिर-फिर असीम में उठ उठ कर, फिर-फिर उसमें हो हो श्रीफल ।
अँगरेज़ी - साहित्य से प्रभावित कवियों में सङ्केतवाद रोमेटिसिज्म का एक अंग नहीं रह जाता, क्योंकि उनकी साङ्केतिक भावनाओं में सर्वरूप-दर्शन (objectivity) की अधिकता के कारण स्वरूप-दर्शन (subjectivity) का आधार नहीं रह जाता और रोमेटिसिज्म का वैयक्तिक मान घट जाता है ।
बँगला का छायावाद चण्डीदास तथा विद्यापति के सरस रोमेटिसिज्म का उपपन्न है और इसी लिए वह सुसंस्कृत है । वर्तमान बँगला - छायावाद - द्वारा प्रभावित कवियों में 'प्रसाद जी' सर्वश्रेष्ठ हैं। मेरी समझ में तो हिन्दी के साम्प्रत साहित्य-संसार में एक वे ही सफल सङ्केतवादी
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
१५५
कलाकार हैं । बौद्ध-युग के दर्प का आध्यात्मिक प्रकाश और आकर्षणमय वंगीय कला उन्हें साहित्य-संसार में सङ्केतवाद के ज्योतिर्मय संदेशवाहक के रूप में लाते हैं । उनकी रचना में भावों की तीव्रता, कला का सुन्दर परिधान पहन कराती है और इन्द्रिय-जगत् अप्रत्यक्ष सत्य के
धार पर स्थित होकर स्थिर सौन्दर्य की वस्तु बन जाता है । उनके सङ्केत में अनुभूति की सरसता और प्रीति - भावना की सजीवता है । अप्रत्यक्ष सत्य को प्रत्यक्ष जगत् की वस्तु मान कर उन्होंने एक स्थल पर सङ्केत किया हैजीवन-वन में उजियाली है ।
किरणों की यह कोमल-धारा, बहती ले अनुराग तुम्हारा; फिर भी प्यासा हृदय हमारा,
व्यथा घूमती मतवाली है । हरित - दलों के अन्तराल से बचता-सा उस सघन जाल से वह समीर किस कुसुम -बाल से
माँग रहा मधु की प्याली है १ एक घूँट का प्यासा जीवन, निरख रहा सबको भर लोचन; कौन छिपाये है उसका धन ?
कहाँ सजनि, वह हरियाली है ?
हिन्दी के ही सङ्केतवाद अथवा कबीर के रहस्यवादद्वारा प्रभावान्वित कवियों में श्री माखनलाल जी चतुर्वेदी 'भारतीय श्रात्मा' हैं । उनमें कबीर ही सी तीव्रता, शक्ति और भावुकता है और यही कारण है कि उनकी कला नितान्त नग्न है । उनके अन्तर में चलनेवाला जीवन वर्तमान राजनीति की हथकड़ियों की भंकार कर कारागृह में भी उस लक्ष्य 'सत्य' को पाने को छटपटाता रहता है । उनमें मौलिकता का दर्शन पाकर भी हम कबीर ही के समान उद्दण्डता पाते हैं । श्रात्मा की प्रेरणा उनके कवि को बाँध-सी देती है । प्रत्यक्ष विश्व की जघन्यता 'भारतीय आत्मा' को अप्रत्यक्ष के सुन्दर तन में छिप जाने को बाध्य करती है
—
www.umaragyanbhandar.com
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६
सरस्वती
[भाग ३६
कहाँ छुपूँ? वन में; ना सखि, वनमाली में। साहित्यिक पुरुषार्थ का विरोध है। सङ्केतवाद कवि की काली के सर के नर्तक उस काले-काले से ख्याली में। भावनाओं का सभ्य स्वरूप है। जिस प्रकार सामाजिक उड़ने दे मुझको तू उस तक
बन्धन एवं शिष्टाचार में नमवाद सुरुचि के प्रतिकूल है, जिसने हैं अंगूर बिखेरे
उसी प्रकार साहित्य में भावनाओं का नग्न चित्रण कला की सिर पर नीलम की थाली में । वन में। क्षति है । समाज में जो नमवाद के विरोधी हैं उन्हें जिसको बन्दी कर लेने को
रूढ़ियों की हठधर्मी को दूरकर एक न एक दिन अवश्य Dथ रही बावली प्रतीक्षा
सङ्केतवाद को अपनाना पड़ेगा, क्योंकि वह सभ्यता के मानस, यौवन की जाली में । वन में ।
अनुरूप वस्तु है। साहित्यिक रूप में विशेषत्व के जिसे खुमारी चढ़ जाने को
अनुसार सङ्केतवाद कुछ ही वर्षों का प्रयत्न भले ही हो, पलकें पागलपन साधे हैं
उसका आधार अमर है। युगल-पुतलियों की प्याली में ।
____ सङ्केतवाद अनन्तकाल की कविता है । सृष्टि के साथ जिसकी साध-सुधा पाने को
ही उसके विकास और अन्त गुंथे हुए हैं । अप्रत्यक्ष संसार पंखिनियाँ चाहों की चहकी,
सदैव अप्रत्यक्ष रहेगा और मानव-जीवन की वियोग-व्यथा जी-तरु की डाली-डाली में । वन में ।
सदा बनी रहेगी। इसी वियोग-भावना से उत्पन्न वर्तमान जिसे मनाने को मैं आली,
काव्य में हम करुणा का आधिक्य पाते हैं । आशावाद गली-गली सी बना भाग्य में,
तो हमारे मानस के कृत्रिम संतोष की एक धारा है; वह ढूँढ़ रही गाली-गाली में । वन में । चिरस्थायी अथवा अन्तर्भूत नहीं है। जब तक हमारा हिन्दी में दिन-प्रति-दिन सङ्केतवाद की उन्नति हो रही अनुसन्धान बना रहेगा, हमारी वेदना-विभूति श्रीमती है। उसका स्वरूप निश्चित करने की चेष्टा की जा रही महादेवी वर्मा के शब्दों में – है । उसका अस्तित्व निःशंक है, क्योंकि वह क्रान्तिकर 'जन्म ही जिसको हुआ वियोग, नवीन रक्त-द्वारा उत्पन्न हुआ है । वह हिन्दी के 'लकीर के
तुम्हारा ही तो हूँ उच्छ्वास ।' फकीर' साहित्य के क्रम-विकास का फल नहीं है, क्योंकि मानव-हृदय को स्पर्श करती रहेगी। काव्य-जीवन संसार में कोई भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन क्रम-विकास की की अनेकरूपता इसी प्रवाह में बहेगी और पूर्णता की ओर मन्थर गति से नहीं पाता। हिन्दी-साहित्य का आधुनिक अग्रसर होगी । सङ्केतवादी कवियों को तर्कपरास्त रूढ़िवादी स्वरूप विगत बीस-पचीस वर्षों के अदम्य साहस की कुशब्दों से भले ही सम्बोधित करें, उनकी रचनाओं को सफलता है और भारत की वर्तमान राजनैतिक जाग्रति भी 'उल्लू की वाणी' कहकर अपनी संकीर्णता का परिचय इतने ही थोड़े समय की क्रान्तिपूर्ण साधना है। सङ्केतवाद देते रहें, वास्तव में वर्तमान और भविष्य के साहित्य के हिन्दी की वांछित वस्तु है। उसका विरोध समूचे भावी निर्माता वेही हैं ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारिस दि कोवा की एक कहानी
उपहार
'सरस्वती' के पाठकों को श्रीमती शान्तादेवी ज्ञानी की यह प्रथम और अन्तिम भेट है। 'सरस्वती' के लिए आपने बराबर ऐसी ही कृतियाँ भेजने का वादा किया था। पर खेद है कि कोयटा के भूकम्प में आप अपनी एक मात्र पुत्री के साथ सदा के लिए सो गई।
लेखिका, श्रीमती शान्तादेवी ज्ञानी Roका मती एलिस ने अपनी चाबी भी कम जबर्दस्त नहीं है। देखो, उस मेज पर
| से होटल का दरवाज़ा काग़ज़ में क्या लिपटा हुआ है।"
खोला और अन्दर श्रीमान् एलिस ले आई। ह्यगो ने खोला। काग़ज़ की श्री
ह्यूगो को आरामकुर्सी तहों में एक छोटी मखमली डिबिया छिपी थी। M पर पैर पसारे मुस्कराते एलिस ने उत्सुकता से पूछा- "अन्दर क्या है ?" - पाया।
"देखो।" ह्युगो ने डिबिया एलिस के हाथों में "तुम भी गज़ब के दे दी। एलिस ने उसे खोला। अन्दर बढ़िया आबआदमी हो ? भला इस वक्त यहाँ कैसे ?" दार हीरे से जड़ी सोने की अँगूठी थी। __ "तुम्हारे लिए एक खुशखबरी लाया हूँ। कुछ "तो क्या यह मेरे लिए है ?” एलिस ने उत्सुकता इनाम दो तो सुनाऊँ ।”
से पूछा। "अच्छा ! क्या इनाम चाहते हो ?" ____ “हाँ प्रिये ! तुम्हारे ही लिए । तुमसे बढ़कर मुझे "बस, वही............"
और कौन प्रिय है ?" "मैं तुम्हारे इशारे नहीं समझती। तुम्हें अपनी "पुरुषों की प्रियाओं का क्या पता चलता है ? खुशखबरी सुनानी हो तो सुनाओ। इनाम-वनाम स्त्रियाँ तो उनकी खिलवाड़ की चीज हैं।" एलिस ने कुछ नहीं मिलेगा।"
मुस्करा कर कहा। . "इनाम तो ज़रूर मिलेगा। अभी नहीं तो थोड़ी “सम्भव है, जो तुम कहती हो ठीक हो। परन्तु देर ठहरकर । अच्छा सुनो। तुम जानती हो कि सब अँगुलियाँ समान नहीं होती।" । आज से छः मास पूर्व मैंने 'सीमेण्ट वर्क्स' में नौकरी ह्यूगो ने प्रेम से वह अँगूठी एलिस की अंगुली में की थी। अफसर की कृपा से मेरा वेतन भी बढ़ा पहना दी और पूछा-"क्यों ! तुम्हें पसन्द है कि
और मेरे काम से सन्तुष्ट होकर कम्पनी ने मुझे २० नहीं ?" हजार के हिस्से बोनस के रूप में दिये । मेरे सौभाग्य एलिस ने बड़े गौर से अपने हाथ को उठाकर से हिस्सों का दाम अल्प समय में ही दूना हो गया देखा। हीरे की चौंध परखी। चेहरे पर सन्तोष की
और अब मैंने उन हिस्सों को पूरे ४० हजार में बेच लहर दौड़ गई। परन्तु उसी क्षण एक शंका की दिया है।"
कालिमा भी उपस्थित हुई। "सचमुच तुम क़िस्मतवाले हो। अच्छा होता, "प्यारे ह्यूगो ! यह अँगूठी कितने की है ?" हमारी भी ऐसी ही किस्मत होती !” ।
"क्यों ? पैसे दोगी?" “एलिस ! जरा हौसला करो। तुम्हारी किस्मत "नहीं । योंही पूछती हूँ।"
१५७
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
.. सरस्वती
[ भाग ३६
"केवल हीरे की कीमत पन्द्रह सौ रुपया है। रखकर सुन्दर काराज में पैक को। एलिस के पति ने सोना और बनवाई अलग।"
उसे जेब में संभालकर रक्खा और उससे कहा-- "तब मैं इसे नहीं लूंगी।"
"तुम ज़रा घर चलो। मैं अभी 'इन्ग्रेवर' के पास "क्यों ?" . .
जाकर इस पर दोनों के नाम लिखाये लाता हूँ।" "इतने भारी दाम की अंगूठो देखकर मेरे पति को फौरन शक हो जायगा और चाहे हमारा पर- पूरे एक घण्टे के बाद पति देवता के आने की स्पर सम्बन्ध कितना ही पवित्र क्यों न हो, वह आवाज़ सुनाई दी। एलिस ने दौड़कर दरवाजा ज़रूर ही दाल में काला देखने लगेगा।" खोला। पति देवता बहुत प्रसन्न दिखाई देते थे। ___ ह्यगो ने कुछ क्षण सिर खुजलाया और फिर पत्नी ने पूछा--"आज क्या मामला है ? इतनी खुशी कहा
का कारण ?" ___"प्यारी एलिस ! मुझे एक युक्ति सूझी है। मैं "कपड़े तो उतारने दो। सब बतलाये देता हूँ। जिस जौहरो से इसे लाया हूँ, यद्यपि उसे पैसे तो दे आज पहली बार मेरी किस्मत खुली है।" चुका हूँ, फिर भी उसे समझा दूगा कि वह कल एलिस को शक होने लगा कि कहीं भला आदमी शाम को अपने 'शो-विंडो' में इसे रक्खे। तुम अपने अंगूठी बेच तो नहीं आया। एलिस ने पूछा-"अँगूठी पति के साथ जाना, इसे देखना, पसन्द करना। पर नाम खुदा या नहीं ?" जौहरी नकली पत्थर कहकर इसे ५०) में तुम्हें बेच "ज़रा सब्र करो। उसी की बात सुनाता हूँ।" देगा। इस प्रकार साँप भी मर जायगा और लाठी एलिस का हृदय धड़कने लगा। भी न टूटेगी।"
"अच्छा ! मैं जब इन्ग्रेवर के पास नाम खुदवाने अगले दिन एलिस ने ऐसा ही किया। अंगूठी गया, वहाँ एक व्यापारी बैठा था। उसने अगूठी देखउसके पति को भी जंच गई । जौहरी ने भी ज़रा कर पूछा-"यह कितने में ली ?" नमक-मिर्च लगाया । “जनाब ! इसका असली दाम मैंन अपनी चीज की क़द्र बढ़ाने के लिए कहा१२५) था । परन्तु जो महिला इसे पहले ले गई थी "१००) में।" उसने आर्थिक कठिनाई के कारण इसे ५० रुपये तक "मैं तुम्हें दो सौ देता हूँ। मुझे बेच दो।" बेचने की आज्ञा दी है। आप भाग्यशाली है जो मैंने समझा, आगया धोखे में । नक़ली हीरे को
आपको ऐसा अवसर हाथ आ रहा है। आप बन- असली समझ रहा है । अब मैंने ज़रा ऐठ कर कहावाने जाइए। आपको १२५) से दमड़ी कम न "जनाब पांच सौ रुपये से कम को नहीं है।" लगेगी। है तो यह नक़ली पत्थर, मगर असली को व्यापारी ने अँगूठी को गौर से देखा और मात करता है । खुद जौहरी भी धोखा खा जाय ।” पूछा-"क्यों ? बेचने का विचार है ?" ___ एलिस के पति ने ४५) देने चाहे। परन्तु दूकान- "ली तो अपने लिए थी। यदि आपको पसन्द दार ने कहा-"५०) देने हो तो दीजिए, नहीं तो ही आगई है तो ५००) में बेच भी सकता हूँ।" रास्ता नापिए।"
___“व्यापारी ने फौरन १००) के पाँच नोट गिन ___ एलिस ने पति की ओर कटाक्ष से देखा। भला दिये । सो ले आया हूँ, जिसमें से ५०) तुम्हारे और स्त्री के प्रेम-कटाक्ष की अवहेलना कौन पुरुष-पुंगव शेष ४५०) मेरे। कर सकता है ?
"देखा ! कैसा होशियार हूँ ! तुम मुझे व्यर्थ में सौदा तय हुआ। जौहरी ने अँगूठी डिबिया में बुद्ध बनाया करती हो।"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
नई मुलक
क
- [प्रतिमास प्राप्त होनेवाली नई पुस्तकों की सूची । परिचय यथासमय प्रकाशित होगा।]
१ - सोम-सरोवर - लेखक और प्रकाशक, श्री (६) वीराङ्गना पन्ना (ऐतिहासिक नाटक -लेखक, चमूपति, एम० ए०, मुख्याधिष्ठाता, गुरुकुल-काँगड़ी, डाक्टर धनीराम प्रेम, एम० आर० ए० एस०, हरिद्वार हैं, सजिल्द पुस्तक का मूल्य १॥) है। मूल्य |) है।
२-प्रदीप (कहानी-संग्रह)-लेखक, श्री वाचस्पति १२--महिला-समाज--लेखक, श्री ओंकारनाथ पाठक, प्रकाशक, भारती-भण्डार, विक्रेता, लीडर प्रेम, 'दिनकर', प्रकाशक, 'परिवर्तन'-प्रकाशन-विभाग अजमेर, इलाहाबाद हैं । मूल्य ११) है।
मूल्य ।) है। ३-प्रवासी भारतीयों की वर्तमान समस्यायें- ५३-- श्री सिद्ध हेमचन्द्र-व्याकरगम-प्रकाशक, लेखक, श्री प्रेमनारायण अग्रवाल बी० ए०, प्रकाशक, सेठ अानन्द जी कल्यान जी, ज़वेरिवाद, अहमदाबाद, मानसरोवर-साहित्य-निकेतन, राजोगली, मुरादाबाद हैं। सजिल्द पुस्तक का मूल्य ४॥) है।
४-जीवन (कहानियों का संग्रह)- लेखक और १४-१५-सुषमा-निकुञ्ज, इलाहाबाद की प्रकाशक, श्री साधुशरण खजुहट्टी, पो० राजोपट्टी, ज़िला
दो पुस्तकेसारन (बिहार) हैं । मूल्य १।) है।
(१) मधुशाला (कविता) - रचयिता श्री 'बच्चन' ____५-एशिया की महिला-क्रान्ति- लेखक, श्री जग- सजिल्द पुस्तक का मूल्य १) है । दीशप्रसाद माथुर 'दीपक', प्रकाशक, हिन्दी-साहित्य- (२) खय्याम की मधुशाला (कविता)-- लेखक, श्री मण्डल, बाज़ार सीताराम, देहली हैं । मूल्य १) है। ___ 'बच्चन', सजिल्द पुस्तक का मूल्य 1) है। ६-११ चांद-प्रेस लिमिटेड, चन्द्रलोक
१६--करुण सतसई (कविता)--रचयिता, अध्या
पक रामेश्वर 'करुण', प्रकाशक, श्री सहदेव जी 'भगवान', इलाहाबाद की ६ पुस्तके
करुण-काव्य-कुटीर, कृष्णनगर, लाहौर, मूल्य २) है। (१) मालती (उपन्यास) - लेखक, श्रीयुत सुरेन्द्र १७-२१- एस० वी० सिंह ऐन्ड को, काशीशर्मा, सजिल्द पुस्तक का मूल्य ३) है ।
पुस्तक-भंडार, बनारस सिटी की ५ पुस्तक । (२) देवी जोन लेखक, डाक्टर धनीराम प्रेम, (१) हमारी स्वतन्त्रता कैसी हो ?--लेखक, श्री एम० आर० ए० एस० (इँगलेंड) हैं । मूल्य १॥) है। अरविन्द घोष, अनुवादक, श्री देवनारायण द्विवेदी,
(३) साहित्य का सपूत (हास्यपूर्ण नाटक)- मूल्य १) है। लेखक, श्री जी० पी० श्रीवास्तव बी० ए० एल-एल० बी०, (२) क्या भारत सभ्य है ?---लेखक, श्री अरविन्द मूल्य १।।) है।
घोष, अनुवादक, श्री देवनारायण द्विवेदी, मल्य ।।। है। ___(४) शरीर और व्यायाम - लेखक, पं० गणेशदत्त (३) कन्या शिक्षा-इपण---लेखिका, श्रीमती पार्वतीशर्मा, गौड़ 'इन्द्र', मूल्य २) है।
देवी, मूल्य ।। है। (५) कायापलट (कहानियों का संग्रह) - लेखक, (४) स्त्री-संगीत गायन-संकलयिता, श्रीमती श्रीयुत सीतलासहाय बी० ए०, मूल्य १।।) है। पार्वती देवी, मूल्य ।-) है।
१५९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
सरस्वती
[भाग ३६
(५) आश्रम-गीताञ्जलि--संकलयिता, श्री सूर्यबली- ३३--प्रेम-निकुंज-लेखक, श्री नगेन्द्रनारायणसिंह, मूल्य 1-) है।
सिंह 'नगेन्द्र', प्रकाशक, श्री राजकृष्ण भवन, सिताब २२-२३ –नवलकिशोर प्रेस लखनऊ, की २ पुस्तक
१ दियारा, छपरा है।
३४--सुषमा--(कविता) लेखक, श्री हरशरण शर्मा, (१) सोहाग की डिबिया (कहानी-संग्रह)-लेखक, प्रकाशक, अोझा-बन्धु-श्राश्रम, इलाहाबाद, मूल्य ।-) है । पंडित तारादत्त उप्रेती, मूल्य सजिल्द का ११) है।
___३५-४०-गंगा-पुस्तक-माला-कार्यालय, (२) माली-लेखक, डाक्टर रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अनुवादक, श्री सूर्यनारायण चतुर्वेदी, मूल्य १।।) है।।
लखनऊ, की ६ पुस्तकें ___२४--बुन्देल-वैभव--लेखक, श्री गौरीशंकर द्विवेदी, (१) पुरानी दुनिया--(इतिहास) लेखक, श्री 'शंकर', प्रकाशक, बुन्देल-वैभव-ग्रन्थमाला, टीकमगढ़ रामचन्द्र वर्मा, मूल्य १॥) है। बुन्देलखंड, सजिल्द पुस्तक का मूल्य २||) है।
(२) अछूत-समस्या (सामाजिक)-मूल-लेखक, २५ -राजस्थानरा दूहा भाग पहलड़ो)--संपादक महात्मा गान्धी, अनुवादक, श्री परिपूर्णानन्द वर्मा, मूल्य श्री नरोत्तमदास स्वामी, प्रकाशक, नवयुग-साहित्य-मंदिर, II) है । पोस्टबाक्स नं० ७८, दिल्ली, मूल्य २) है।
(३) हास्य-रस--लेखक, श्री जी० पी० श्रीवास्तव, __२६-हिन्दी-पर्यायवाची कोश--लेखक, पंडित मूल्य =) है। श्रीकृष्ण शुक्ल 'विशारद', प्रकाशक, भार्गव-पुस्तकालय, (४) राजमुकुट-- (ऐतिहासिक नाटक) लेखक, बनारस सिटी, मूल्य सजिल्द का २॥) है।
पण्डित गोविन्दवल्लभ पन्त, मूल्य १) है। २७--भारतीय चित्रकला--लेखक, श्री नानालाल (५) दुखवा मैं कासे कहूँ--(कहानी-संग्रह) लेखक, चमनलाल मेहता आई० सी० एस०, प्रकाशक, हिन्दुस्तानी श्री जवाहरलाल भार्गव, मूल्य ॥) है। एकेडेमी, इलाहाबाद और मूल्य ६) है।
(६) मधुवन--(कविता) लेखक, श्री आनन्दकुमार २८--देव-सुधा--लेखक, श्री "मिश्र-बन्धु', प्रकाशक मूल्य ।) है। देव-सुकवि, सुधा-कार्यालय, कवि-कुटीर, लखनऊ और ४१--रस-तन्त्र-सार--- (वैद्यक) लेखक, ठाकुर मूल्य १) है।
नाथूसिंह वर्मा, इस्तमरारदार, प्रकाशक, आयुर्वेदिक ____ २९-धर्म और जातीयता--लेखक, योगिराज अर- परमार्थ औषधालय, कलेड़ा, अजमेर हैं। मूल्य विन्द, अनुवादक, श्री देवनारायण द्विवेदी, प्रकाशक, २०) है। हिन्दी-पुस्तकालय, बनारस सिटी मूल्य १) है।
(४२) सूरि शतक-(पद्य) लेखक, पण्डित रामच३०--घर की डाह--(उपन्यास) लेखक, श्री इन्द्र रित उपाध्याय, प्रकाशक, श्री श्रात्मानन्द जैन सभा, बसावड़ा, बी० ए० प्रकाशक, सरस्वती प्रेस, बनारस सिटी, अम्बाला शहर मूल्य 5) है। मूल्य ११) है।
___ (४३) संकीर्तन-सुधा--(पहला भाग) प्रकाशक, ३१---ऊर्मि-- (कविता) संकलनकर्ता श्री देवधर संकीर्तन कार्यालय मेरठ शहर मूल्य ।) है। शर्मा 'विशारद', प्रकाशक, साहित्य-परिषद्, सलेमगढ़, ४४-भूगोल एटलस -सम्पादक, श्री रामनारायण गोरखपुर, मूल्य ॥) है।
मिश्र, प्रकाशक, भूगोल कार्यालय, प्रयाग हैं । मूल्य २) है।। ३२--वीर-पाठावली--लेखक, श्री कामताप्रसाद ४५-राजस्थान--सम्पादक, प्रो. रामलोचन शर्मा जैन, एम० आर० ए० एस०, प्रकाशक, दिगम्बर-जैन- एम० ए०, प्रकाशक, राजस्थान रिसर्च सोसाइटी, कलकत्ता | पुस्तकालय, कपड़िया-भवन, सूरत, मूल्य II) है। वार्षिक मूल्य ५) है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
नई पुस्तकें
१६१
४६-२-बाल-शिक्षा-समिति, बाँकीपुर, से सिद्धान्तों से भी पारसी-धर्म के सिद्धान्त मिलते हैं। इस प्रकाशित बाल शिक्षा मासिक ग्रन्थ-माला -- प्रकार लेखक महोदय ने उपर्युक्त सभी धर्मों की एकता (१) ईश्वर-लीला-(२) भूकम्प
का प्रतिपादन किया है। और यह सब वर्णन विस्तार के (३) हरिजन-बन्धु-लेखक. महात्मा गांधी साथ किया गया है तथा विषय का प्रतिपादन भी - (४) राजा राममोहन राय-लेखक, राय साहिब सप्रमाण किया गया है । विद्वान् लेखक का यह प्रयत्न बेचूनारायण
साधु हुआ है । निस्सन्देह हिन्दू-पार्सियों के एकीकरण का (५) तब और अब-प्रणेता श्री रामदास गौड़ विचार परम उत्तम है। स्पष्ट बात तो यह है कि ये एम० ए०
सारे धर्म और त एक ही वेद-वक्ष की शाखायें हैं. जो (६) अच्छी चाल-प्रणेता एक हिन्दी लेखक, समयान्तर में भिन्न भिन्न नामों से प्रख्यात हो गये। हाँ.
(७) सम्राट पंचम जाज और सम्राज्ञी मेरी- इस एकीकरण का काम जितना ही अधिक महत्त्वपूर्ण है, (रजत जयंती-अंक) लेखक राय साहब बेचूनारायण उतना ही जटिल भी है। अतएव इस विष उक्त पुस्तकों के सम्पादक श्री रामदहिन मिश्र हैं । वार्षिक प्रयत्न करनेवाले लेखकों और वक्ताओं को बहुत बुद्धिमत्ता मूल्य २॥) और प्रत्येक का ।) है।
के साथ आगे बढ़ना चाहिए । उद्दण्डता उद्देश का भूत५३-आलोक-सचित्र सिनेमा का साप्ताहिक पत्र- काल में नाशक रहा है, और आगे भी रहेगा । उपर्युक्त सम्पादक, श्री ललितकुमार 'नटवर' हैं । एक अंक का मूल्य ग्रन्थ में ख्वाजा कमाल उद्दीन की जो चर्चा कहीं-कहीं -) और वार्षिक मूल्य ३) है । प्रकाशक, मैनेजर 'आलोक' आई है वह सुरुचिपूर्ण नहीं है। इसके सिवा अनेक दि स्टौन्च लिमिटेड, पटना ।
बार वही बातें कही गई हैं जिससे पुस्तक में शिथिलता ५४.--मतवाला- साप्ताहिक पत्र है, सम्पादक, चन्द्र श्रा गई है । तथापि यह एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है और शर्मा...रमाशंकर मिश्र, प्रकाशक, देवदत्त कम्पनी, चेम्बर धर्म की जिज्ञासा रखनेवालों को इसे अवश्य पढ़ना लेन रोड, लाहौर, वार्षिक मूल्य ६) और एक प्रति चाहिए। का =) है।
-'एक धर्मप्रेमी'
२-३-दो महत्त्वपूर्ण कोश१-दी इथिकल कनसेपशनस् आफ दी गाथा (१) आयुर्वेदीय कोष - इस विशाल कोष की रचना (The Ethical Conceptions of the Citha)... चुनार के बाबू रामजीतसिंह वैद्य तथा बाबू दलजीतसिंह लेखक, श्रीयुत यतीन्द्रमोहन चटर्जी, एम० ए०, प्रकाशक- वैद्य ने की है। इसमें केवल आयुर्वेदीय औषधियों के ही जहाँगीर, बी० करनीस सन्स, बम्बई हैं। पृष्ठ-संख्या ५६६, नाम नहीं संग्रह किये गये हैं, किन्तु यूनानी तथा डाक्टरी मूल्य २) है।
ओषधियों के भी नाम दिये गये हैं। इस प्रकार इसके प्रस्तुत पुस्तक अँगरेज़ी-भाषा में है । इसमें पार- प्रणयन में इस बात का ध्यान रक्खा गया है कि तीनों सियों के सुप्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ 'गाथा' की महिमा प्रणालियों के श्रोषधि-समूहों का इसमें समावेश हो जाय । का वर्णन है । तात्त्विक दृष्टि से विवेचन किया गया है यही नहीं, इस बात का भी पूरा प्रयत्न किया गया है कि और उस सिलसिले में यह बताया गया है कि पारसी-धर्म जिन ओषधियों के गुण-दोषों के विवेचन में विस्तारपूर्वक के सभी सिद्धान्त वैदिक हैं तथा यहूदियों, ईसाइयों और चिकित्सा-ग्रन्थों में चर्चा की गई है उनका भी इसमें यथामुसलमानों के धर्म पर भी उसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा स्थान समावेश हो जाय, साथ ही चिकि-सा-सम्बन्धी सभी है। इसी प्रसंग में उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि पारिभाषिक बातों का एवं रोगों के निदान तथा उनकी इस समय के सिक्खमत, आर्यसमाज और ब्रह्मसमाज के सम्यक चिकित्सा प्रणाली का भी यथास्थान वर्णन श्रा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
सरस्वती
[भाग ३६
जाय । वास्तव में इसकी रचना 'विश्वकोष' के ढंग पर ४-चारुचरितावली-संपादक पण्डित वेंकटेश की गई है और इसमें सन्देह नहीं कि इस उपयोगी ग्रन्थ नारायण तिवारी, प्रकाशक, लीडर प्रेस, प्रयाग हैं । पृष्ठके बनाने में इसके विद्वान् लेखकों ने बड़ा परिश्रम किया संख्या १६२, मूल्य १) है। है । इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का यह पहला खण्ड है और प्रस्तुत पुस्तक में चुने हुए १६ चरित्र-चित्रणों का इसमें केवल अकारादि शब्दों का ही संकलन हो पाया है। उत्कृष्ट संग्रह है। महात्मा गांधी, महामना मालवीय जी, इस खण्ड में १०,२५० शब्दों का संकलन किया गया है। श्रीमान नेहरूद्वय, कर्मठ पटेल बन्धु श्रादि १७ उच्चतम इससे जान पड़ता है कि यह ग्रन्थ कई खण्डों में भारतीय विभूतियों के तथा दो विदेशीय किन्तु भारत-हितप्रकाशित होगा। इस सम्बन्ध में खेद की बात इतनी ही साधक महान् अात्माओं के चरित्र-चित्रणों का इस पुस्तक है कि यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ उतने सुन्दर रूप में नहीं में समावेश किया गया है । ये सब चित्रण समय समय पर प्रकाशित हो रहा है जैसा कि यह है । छपाई और काग़ज़ 'भारत' में निकल चुके हैं। और तभी लोगों को खूब की बात अलग रही, यह अशुद्ध भी छपा है, जिसके लिए पसन्द आये थे। इनको इस चरितावली' के रूप में पुस्तकान्त में ११ पृष्ठ का शुद्धि-पत्र छापना पड़ा है। निकाल कर तिवारी जी ने एक उपयोगी कार्य किया है। तो भी इसके प्रकाशक बरालोकपुर, इटावा, के वैद्यराज इसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि देश के कल्याण पण्डित विश्वेश्वरदयालु जी प्रशंसा के ही पात्र हैं, जो इस के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि अापस का मनमुटाव भारी ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए उत्साहित हुए हैं। किसी तरह से मिट जाय । इसका सबसे आसान तरीका चिकित्सकों तथा चिकित्सा शास्त्र के प्रेमियों को इसका यही है कि लोगों में विभिन्न दलों के प्रमुख महारथियों के संग्रह कर प्रकाशक को प्रोत्साहन देना चाहिए। पुस्तक व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो. जिससे विचारों में: का मूल्य नहीं दिया गया है। शायद वैद्यराज जी को भेद होते हुए भी व्यक्तिगत मनोमालिन्य और खींचातानी इटावे के पते पर लिखने से मिलती है।
का अन्त हो जाय । दृष्टिकोण में मत-भेद होते हुए भी (२) रूप-निघंटु- यह भी एक आयुर्वेदीय कोप है हम एक दूसरे का आदर कर सकते हैं।" इसी उद्देश से और इसकी रचना श्रीयुत रूपलाल वैश्य ने की है । इसका विभिन्न दलों के प्रमुख महारथियों के खास खास उत्कृष्ट प्रकाशन काशी की नागरी-प्रचारिणी सभा कर रही है। गुणों तथा तज्जन्य प्रभावों का विशिष्ट चित्रण जनता के यह अपने विषय का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और यह भी - सामने इस पुस्तक-द्वारा रक्खा गया है। 'चारुचरितावली' कई संख्याओं में निकलेगा। इसकी पहली संख्या में १,६३६ के पारायण से एक अलौकिक स्फूर्ति, कर्त्तव्य-परायणता, शब्द हैं और इसका मूल्य १॥ है। इसमें अोषधियों करमिट या मरमिट की सुदृढ़ भावना अनायास उदित के चित्र भी दिये गये हैं। इससे इसकी उपयोगिता हो जाती है। हारे हुओं को सान्त्वना और प्रोत्साहन
और भी बढ़ गई है। परन्तु चित्र उतने स्पष्ट नहीं हैं। मिलता है और आगे बढ़नेवालों के दिल दूने हो श्रोषधियों के सम्बन्ध में आवश्यकतानुसार यूनानी तथा जाते हैं । डाक्टरी मतों का भी उल्लेख किया गया है एवं भिन्न भिन्न 'चारुचरितावली' में संगृहीत 'चरित' कई विश्रुत रोगों के सम्बन्ध में उनके उपयोगी प्रयोग भी बताये गये विद्वानों की लेखनियों से प्रसूत हुए हैं। प्रत्येक की भाषा हैं। इसका प्रकाशन भी विशेष सावधानी से किया परिमार्जित और ओजपूर्ण तथा प्रभावोत्पादक है । शैलियाँ जा रहा है। चिकित्सकों तथा चिकित्सा शास्त्र के कुछ भिन्न होते हुए भी अाकर्षक तथा प्रवाहयुक्त एवं विषय प्रेमियों को इसके ग्राहक होकर इससे लाभ उठाना के सर्वथा अनुरूप हैं। एक बात और है। इसका प्रत्येक चाहिए।
चित्रण विशेष अवसर पर पड़े हुए गुण-कर्म विशेष के -- 'रामनिधि' प्रभाव को स्पष्ट रूप से व्यंजित करनेवाला है । निस्सन्देह
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
नई पुस्तकें
इस पुस्तक का अपना निजी मूल्य है । साधारण जीवनियों में लिए वह परमोपयोगी एवं वाञ्छनीय है।" सांसारिक ऐसे प्रभावोत्पादक स्पष्ट चित्रण कम मिलते हैं । यह जीवन के साथ अर्थात् हमारे दैनिक कार्य-कलापों के साथ 'चरितावली' इसी कारण हिन्दी में अपना एक विशेष वेदान्त के अध्यात्म-ज्ञान का सामंजस्य किस प्रकार हो स्थान रखती है । श्री तिवारी जी के स्वर में स्वर मिला कर सकता है, इस बात को गीता के आधार पर लेखक महोयह कहना अत्युक्ति न माना जायगा कि "चारुचरितावली दय ने प्रतिपादित किया है। पुस्तक का यह प्रथम भाग के चित्रण श्रद्धांजलियाँ हैं, जो श्रद्धा, स्नेह और सहानुभूति है और इसमें गीता के चार अध्यायों की विस्तृत व्याख्या के रंगबिरंगे फूलों से सजाई गई थीं। उनमें वीर-पूजा की है । गीता के श्लोकों की व्याख्या के अतिरिक्त लेखक भावना प्रधान है।"
महोदय ने उनका 'स्पष्टीकरण' किया है और उनको यथा__यों यह पुस्तक सभी हिन्दी-प्रेमियों को रुचिकर प्रतीत स्थान व्यवहारोपयोगी सिद्ध किया है। होगी, परन्तु 'चरित-ग्रन्थों' के पाठकों को तो इसका प्रारम्भ में १६२ पृष्ठों की एक विस्तृत भूमिका है । अवलोकन अवश्य ही करना चाहिए ।
'उपोद्घात' एवं 'गीता का व्यवहार-दर्शन' नामक दो ___ -भगवानदास अवस्थी भागों में यह विभक्त है, जिनमें बड़ी छानबीन के साथ ५.--गीता का व्यवहारदर्शन-लेखक, श्रीयुत सेठ अनेक दार्शनिक विषयों का विवेचन किया गया है और रामगोपाल जी मोहता, प्रकाशक, चाँद-प्रेस, लिमिटेड, वेदान्त की अनेक बातें स्पष्ट रूप से समझाई गई हैं। चन्द्रलोक, इलाहाबाद । पृष्ठ-संख्या ३८३ तथा मूल्य लेखक महोदय जगत् और उसके व्यवहार को अविद्या
का ही कार्य नहीं मानते और इस प्रकार जगत् के मिथ्यात्व यह श्रीमद्भगवद्गीता की एक नई व्याख्या है। को भी प्रचलित अर्थों में स्वीकार नहीं करते । वेदान्त के
नेक टीकायें, भाष्य तथा विवृत्तियाँ प्रकाशित सिद्धान्त के अनुसार सृष्टिकर्ता ईश्वर और ब्रह्म दोनों एक हो चुकी हैं और आज भी अनेक मनीषी विद्वान इस पर ही पदार्थ नहीं हैं। ईश्वर को माया-विशिष्ट मानकर ही अपने अपने दृष्टिकोण से अपने अपने भाष्य तथा उसमें सृष्टि का कर्त्तत्व, प.लदातृत्व आदि सिद्ध हो सकते व्याख्या ये प्रकाशित करते जा रहे हैं। भारतीय दर्शन-शास्त्र हैं, अन्यथा नहीं। के क्षेत्र में ज्ञान, कर्म तथा 'ज्ञान-कर्म-समुच्चय'---इन तीन लेखक महोदय ने भूमिका में जहाँ अात्मा को जगत् विचारधारात्रों की त्रिवेणी प्राचीन काल से ही बहती चली का अभिन्न निमित्तोपादान कारण माना है (पृ० ६६), वहाँ
आई है । भगवान् शंकर ने गीता में ज्ञान की श्रेष्ठता प्रतिपा- यह स्पष्ट करने का प्रयत्न नहीं किया है कि जब 'श्रात्मा दित करके उसे निवृत्ति-मार्ग की ओर ले चलनेवाली सिद्ध स्वयं जगदाकार होता है' तब यह परिवर्तन क्या परिणामकिया है। संसार के व्यवहारों से उदासीन जनता को वाद के सिद्धान्त पर होता है या विवर्त्तवाद के सिद्धान्त के कर्मयोग का उपदेश देने के लिए लोकमान्य तिलक ने अनुसार । इसका स्पष्टीकरण होने से सृष्टिकर्ता और शुद्ध एक बार फिर गीता को 'ज्ञान-कर्म-समुच्चय' का प्रति- ब्रह्म का भेद स्पष्ट हो जाने से मायाविशिष्ट ईश्वर किस पादक सिद्ध किया । लेखक महोदय के शब्दों में उनकी प्रकार मायाविशिष्ट होता हुआ भी 'अज्ञानी' अथवा इस गीता-व्याख्या की कथा इस प्रकार है-“लोकमान्य अविद्याग्रस्त नहीं हो सकता, यह शंका स्वयं निर्मूल तिलक महाराज रचित 'गीतारहस्य' को भी मैंने एकाग्र हो जाती। चित्त से पढ़ा और स्वामी श्री रामतीर्थ जी महाराज के पुस्तक की भाषा सरल है। आज-कल के समय में व्याख्यानामृतों का भी अच्छी तरह अध्ययन किया, जिससे हमें ऐसी ही व्याख्यानों की तथा ऐसे ही दार्शनिक ग्रन्थों - यह निश्चय हो गया कि वेदान्त-शास्त्र केवल निवृत्ति-मार्ग की आवश्यकता है जो जनता को मिथ्या निवृत्तिपरायणता का ही प्रतिपादक नहीं है, किन्तु संसार के व्यवहारों के के ढकोसले से हटाकर कर्मशील बनावें और आध्यात्मिक
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
सरस्वती
[ भाग ३६
ज्ञान से उसे उबुद्ध तथा सचमुच बलिष्ठ कर सकें। व्यव- है जिनसे स्त्रियों के प्रति अनादर और अविचार का भाव हार के लिए अनुपयोगी 'दर्शन-शास्त्र' वास्तव में जाति प्रकट होता है और लेखक महोदय जिन्हें 'प्रक्षिप्त' के जीवन में अकर्मण्यता और आलस्य का ही प्रसार समझते हैं। करता है । इस दृष्टि से लेखक महोदय का यह प्रयत्न शिक्षा का रूप' नामक अध्याय में कन्याओं को स्तुत्य है। आशा है, मोहता जी गीता के अन्य शेष 'कन्या-गुरुकुलों' में शिक्षा के लिए भेजने की सम्मति दी अध्यायों की भी व्याख्या करके अपने ग्रन्थ को पूर्ण गई है । जान पड़ता है, लेखक महोदय सहशिक्षा के करेंगे। गीता के प्रेमी सजनों को इस पुस्तक का जो लेखक विरुद्ध हैं । उन्होंने ज़ोरदार शब्दों में सह-शिक्षा से होनेमहोदय के गम्भीर चिन्तन, मनन, अध्ययन और सत्संग वाली हानियों की ओर जनता का ध्यान आकृष्ट किया है। का परिणाम है, उचित आदर करना चाहिए। पुस्तक उपयोगी है।
६--मनु और स्त्रियाँ ---ग्रन्थकार श्रीयुत चिन्तामणि ७-८ --सीतारामीय श्री मथुरादास जी महाराज'मणि', प्रकाशक, इंडिया बुक एजेन्सी, ६७ महाजनी
कृत दो पुस्तकेंटोला, इलाहाबाद हैं । पृष्ठ-संख्या ३८२, मूल्य ६) है। (१) कल्याण कल्पद्रुम--इस ग्रन्थ में प्राप्य (ईश्वर)
इस पुस्तक में लेखक महोदय ने यह दिखलाने का तथा जीव का स्वरूप, कर्म, ज्ञान तथा भक्ति द्वारा प्राप्य प्रयत्न किया है कि 'मनु' की 'मनुस्मृति' में स्त्रियों के प्रति तक पहुँचने के उपाय, नवधा भक्ति तथा प्रेमा भक्ति आदि अन्यायपूर्ण तथा अनुचित नियमों का उल्लेख कहीं नहीं विषयों का प्रतिपादन किया गया है। व्याख्याकार ने है । 'मनु' की दृष्टि में स्त्रियाँ आदर और सत्कार की पात्र शास्त्रीय प्रमाणों तथा हिन्दी के अन्य सन्त कवियों के पद्यों तथा मनुष्यों के समान ही समानाधिकारों की भागिनी कही को उद्धृत करके प्रतिपाद्य विषय को यथासंभव सरल गई हैं । पुस्तक में स्त्रियाँ कौन है, स्त्रियों की स्वतन्त्रता, और सुबोध बना दिया है। सर्व-धर्म-समन्वय की भावना उनके अधिकार, शिक्षा का रूप, दण्ड-विधान, तलाक- से पुस्तक अोतप्रोत है। छपाई सुन्दर है। धर्म-जिज्ञासयों समस्या, विधवा-विवाह, अन्तर्जातीय विवाह आदि अनेक को इसका संग्रह करना चाहिए। पृष्ठ-संख्या ३६५ तथा सामयिक तथा आवश्यक प्रश्नों पर विचार किया गया मूल्य ११) है। है । पुस्तक के रूप में इसे हम एक निबन्ध कह सकते हैं, (२) गीतागुह्यतमोपदेश-प्रस्तुत पुस्तक में लेखक जिसमें लेखक महोदय ने एक ओर तो यह दिखलाने का महोदय ने श्रीमद् भगवद् गीता के “मन्मना भव मद्यत्न किया है कि मनु के ऊपर किये जानेवाले स्त्री- भक्तो” तथा “सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" विषयक आक्षेप निराधार हैं और दूसरी ओर अनेक ऐसे आदि श्लोकों के आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि विषयों का वर्णन किया है जो स्त्रियोपयोगी होते हुए भी ज्ञान, कर्म, भक्ति श्रादि योगों की अपेक्षा 'शरणागतिमनु या उनकी स्मृति से कोई सम्बन्ध नहीं रखते । 'आँखों योग' ही श्रेष्ठ है और इसी शरणागति-योग का प्रतिपादन का परदा' नामक शीर्षकवाले अध्याय में स्त्रियों के प्रति करना गीता का मुख्य विषय है । वैष्णव-संप्रदाय का ग्रन्थ किये गये अत्याचार, अपहरण तथा बलात्कार को कुछ होने के कारण पुस्तक के अन्त में लेखक महोदय ने वैष्णव एक घटनात्रों को भी लेखक ने अखबारों से लेकर पंच संस्कारों, तप्त मुद्राओं से धनुष बाण आदि के चिह्न उद्धृत कर दिया है । हमारी सम्मति में इन घटनाओं को भुज-मूलों पर अंकित करना, ऊर्ध्व पुण्ड्र-धारण आदि का पुस्तक में न देने से भी पुस्तक के प्रतिपाद्य विषय में कुछ करना भी शरणागत के लिए आवश्यक बतलाया है। न्यूनता न आती। मनुस्मृति के अनेक श्लोकों के अर्थ ऋग्वेद के "पवित्रं ते विततम्" इत्यादि मंत्र से भी करने में भी खींचातानी से काम लिया गया है । 'परिशिष्ट' शरीर को वैष्णव-चिह्नों से दग्ध करने का नियम सिद्ध नामक अध्याय में ऐसे श्लोकों की ओर निर्देश किया गया करने का प्रयत्न किया है। रामानन्दी संप्रदाय के श्रद्धालु
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
नई पुस्तकें
१६५
पुरुष पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं । छपाई साधारण ११-- 'शाईने अकबरी'-- इसके अनुवाद के सम्बन्ध है । मूल्य ||) है।
में हम सरस्वती के किसी अंक में एक नोट छाप चुके हैं । उपर्यक्त पुस्तकों के मिलने का पता-श्री सीताराम- प्रसन्नता की बात है कि यह छप कर खण्डशः निकलने भी संकीर्तन-सदन, स्वर्गद्वार, अयोध्या (फ़ैज़ाबाद)।
लगा है। इसका प्रत्येक अंक प्रति तीसरे महीने निकलता ९--भाग्य-निर्माण--अनुवादक, ठाकुर कल्याण सिंह
है। इसका प्रत्येक अंक ६४ पृष्ठ का होगा । इसका आकार बी० ए०, प्रकाशक, छात्र-हितकारी-पुस्तकमाला, दारागंज,
रायल अाठ पेजी और काग़ज़ तथा छपाई भी साफ़ सुथरी प्रयाग हैं । मूल्य १m) है।
है। स्थायी ग्राहकों से इसका वार्षिक मूल्य ४॥) है। एक
अंक का मूल्य ११) है। इसका प्रकाशन इसके अनुवादक यह पुस्तक श्रो. एम० मार्डन की 'श्रा/टेक्ट्स
को ही करना पड़ा है। क्या ही अच्छा होता यदि यह अाफ़ फ़ेट' नामक अँगरेज़ी पुस्तक के अाधार पर लिखी।
काम किसी साहित्यिक संस्था के द्वारा होता। कदाचित् गई है। अनुवाद की भाषा सरल और जोरदार है। .
। पाण्डेय जी की उन संस्थानों तक पहुँच नहीं हो सकी, आज-कल हमारे शिक्षित नवयुवक बेकारी की भीषण ।
___ अतएव उन्हें अब प्रकाशन का भी भार अपने ऊपर लेना समस्या के शिकार हो रहे हैं । इस पुस्तक से उन्हें इस
पड़ा है । हिन्दी के साहित्यकारों को ऐसी ही असुविधाओं का अवस्था में बड़ा सहारा मिलेगा। अनुवादक महोदय ने
सामना करना पड़ता है। हमें आशा है, पाण्डेय जी इस अपने निजी अनुभवों के साथ साथ अनेक भारतीयों के
असुविधा को झेल ले जायँगे और इस व्यवस्था से 'आईने ऐसे उदाहरण नवयुवकों के सामने रक्खे हैं जिन्होंने अपने
अकबरी' हिन्दी में हो ही न जायगी, किन्तु उन साहित्यअध्यवसाय, धैर्य और साहस से अपने भाग्य का निर्माण
अपन भाग्य का निमाण प्रेमियों को भी सुलभ हो जायगी जो इतनी बड़ी पुस्तक किया है। इस दृष्टि से यह पुस्तक नवयुवकों के काम की
का मूल्य एक बार में देने में समर्थ नहीं हैं । इसके दो अंक है। पुस्तक की छपाई तथा 'गेट-अप' अच्छा है।
अब तक निकल चुके हैं। इनको देखने से जान पड़ता है १०--मधुवन--(कविता) लेखक, श्रीयुत आनन्द- कि पाण्डेय जी ने 'आईन अकबरी' का कोरा कोरा अनुकुमार, प्रकाशक, गंगा-ग्रन्थागार, लखनऊ हैं । मूल्य बाद ही नहीं किया है, किन्तु उस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के स्थल
स्थल पर उपयुक्त टिप्पणियाँ लगाकर उसे और भी अधिक इसमें लेखक महोदय की खड़ी बोली और व्रजभाषा उपयोगी बना दिया है। यही नहीं, उन्होंने अपनी टिप्पकी २४ कविताओं का संग्रह है। पहले एक कविता खड़ी णियों को आवश्यक नकशों तथा चित्रों से अलंकृत करके बोली की तब दूसरी व्रजभाषा की छापी गई है । सारी पुस्तक सारे विषय को भले प्रकार बोधगम्य बना दिया है। इसमें में यही क्रम है। कविताओं के विषय सभी तरह के हैं। सन्देह नहीं कि इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के अपने अनुवाद को गान्धी, जवाहर, दयानन्द, ऋतुराज, व्रज, केश आदि तादृश महत्त्वपूर्ण बनाने में पाण्डेय जी ने अपने भरसक विषयों के साथ साथ ऐसी कवितायें भी इस पुस्तक में हैं कुछ बाक़ी नहीं रक्खा और इसके इस तरह तैयार करने के जिनमें रहस्यवाद की झलक मिलती है। हमारी सम्मति में लिए वे धन्यवाद के ही नहीं पात्र हैं, किन्तु इसके साथ व्रजभाषा की अपेक्षा खड़ी बोली में कविता लिखने में यह भी आवश्यक है कि साहित्य-प्रेमी अधिक संख्या में लेखक महोदय को अधिक सफलता मिली है।
इसके ग्राहक बनकर इस ग्रन्थ के प्रकाशन में सहायक कविताओं की भाषा प्रसादगुणयुक्त है।
बनें । इस सम्बन्ध में विद्या-मन्दिर, कानपुर के पते पर -- कैलासचन्द्र शास्त्री, एम० ए० प्रकाशन महोदय से पत्र-व्यवहार हो सकता है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाग्रत महिलायें। स्त्रियों के लिए छ: मूल्य उपदेश
e
दैनिक ‘'हिन्दी-मिलाप' में उपर्युक्त शीर्षक से एक योरपीय महिला श्रीमती ड्रेक के एक अँगरेज़ी लेख का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ है । श्रीमती ड्रेक ने अपने अनुभव की बातें लिखी हैं । ये उपदेश इस उद्देश से तैयार किये हैं कि पति-पत्नी के झगड़ों का अन्त हो जाय और गृहस्थी स्वर्ग-सी प्रतीत होने लगे । 'सरस्वती' के पाठक-पाठिकायों की जानकारी और प्रयोग के लिए हम ये छहीं उपदेश यहाँ उद्धृत करते हैं । यदि हमारे कोई पाठक उस सम्बन्ध में अपने अनुभव लिखकर भेजेंगे तो हम उन्हें भी प्रकाशित करेंगे -
"श्र
पहला उपदेश
अपने पति पर विश्वास रखो। पति के दिल में यह बात जमा हो कि वही एक मात्र मर्द है जिसे वह जानती है। इससे वह भी तुम्हें अपना समझेगा" । याद रक्खो विश्वास से विश्वास होता
है । अपने दिल में यह बात मत लाओ कि मारेही आदमी खराब हैं। मैं यह साहसपूर्वक कह सकती हूँ कि अधिकांश स्त्रियों के दिल में यही धारा घर किये होती है। किसी कारणवश उन्हें पुरुष समाज घृणा होती है। स्त्रियाँ यह जानते हुए भी कि हम पुरुषों के बिना जीवित नहीं रह सकतीं, उनसे घृणा करती हैं. और उनके आचरण पर सन्देह करती हैं। हर एक स्त्री अपने पति की कड़ी निगरानी करती है। जरा पति को बाहर से घर आने में देर हुई नहीं कि पत्नी के मिजाज़ की बारूद भड़क उठी। ऐसी दशा में वह यही समझती
१६६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
1
है कि वह कहीं किसी प्रेमिका से बातें करता रहा पत्नियाँ प्राय: बहुत ही ईर्ष्यालु और चौकन्नी होती हैं । यहाँ तक कि वे यह भी सहन नहीं करतीं कि उनका पति किसी युवती या किसी अन्य की स्त्री से २-४ मिनट के लिए बातचीत करे। यह बात उनके लिए बड़ी आपत्तिजनक है। यदि किसी स्त्री को अपने पति पर ऐसा ही सन्देह है तो इसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि पति भी उस पर इसी प्रकार सन्देह करेगा। यदि आप अपने पति को इन सारी पावन्दियों से आज़ाद कर दें, उस पर सन्देह न करें, वह चाहे जब घर आये, उसे मत टोकें तो उसका व्यवहार आपके साथ बहुत अच्छा रहेगा। हम सब प्रकार की पाबन्दियों से घृणा करती हैं, चाहे वे हमारी स्त्रियों द्वारा ही क्यों न लगाई गई हों । आचार-भ्रष्ट व्यक्ति सभी को अपने जैसा समझते हैं। मैं कह सकती हूँ कि ऐसी स्त्रियाँ अपने कष्टों के लिए स्वयम् उत्तरदायी हैं ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
जात महिलायें
दूसरा उपदेश
।
“ अपने पति की खुशामद करो । आदमी खुशामद को बहुत पसन्द करते हैं ।" परन्तु यहाँ यह समझना भूल है कि खुशामद को आदमी ही पसन्द करता है - स्त्रियाँ नहीं । यह मनुष्य मात्र की स्वाभाविक दुर्बलता है। घुड़की की अपेक्षा खुशामद अधिक लाभदायक होती है। अधिकांश पत्नियाँ इस प्रारम्भिक तत्त्व को भूल जाती हैं। उन्हें जहाँ हँसना चाहिए, वहाँ वे चिढ़ जाती हैं । जहाँ उन्हें मृदु स्वर में बोलना चाहिए, वहाँ वे कर्कश बन बैठती हैं। स्त्रियाँ भी चाटुकार बन सकती हैं, पर वे समझे बैठी हैं कि चाटुकारिता पुरुषों का ही काम है । वे समझती हैं कि हम प्रशंसा कराने के लिए ही पैदा हुई हैं- प्रशंसा करने के लिए नहीं । यदि तुमको पति से कोई काम कराना है तो पहले उसका ढंग देखो । यदि वह अनुकूल है तो उसे इधर-उधर की बातों में लगाकर लुभाओ, इस तरह जब वह पूर्णरूप से तुम्हारी ओर आकर्षित हो जाय तो धीमे स्वर में अपनी बात कहो। तुम्हें ९८ सैकड़ा सफलता होगी। इसके विपरीत यदि उतावलेपन में या ताना मार कर कोई काम कराना चाहो तो वह काम तो कभी पूरा होगा नहीं, हाँ, उसकी जगह कलह और क्लेश बिना मांगे अवश्य मिल जायेंगे । तीसरा उपदेश
" पाक-कला की प्रवीणता और पति को प्रेमपूर्वक खिलाना पति को अपना बना लेता है । यह उसे आकर्षित करने का सर्वोत्तम उपाय है ।" कुशल पत्नियाँ भोजन तैयार करने में बहुत दिलचस्पी लेती हैं । सब कुछ नौकर पर छोड़ देना भूल है । मैंने देखा है कि धनी हिन्दू घरानों की स्त्रियों रसोई के काम को बहुत चाव से करती हैं। वे कम-से-कम एक चीज़ अपने हाथ से अवश्य बनाती हैं और परिणाम यह होता है कि उनका अपने पति पर काफी अधिकार होता है । जब घरवालियाँ भोजन बनाना अपमान समझने लगती हैं और रसोई का सारा काम का नौकर की इच्छा पर छोड़ देती हैं तब भोजन
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
१६७
स्वादिष्ट नहीं बनता । आदमी का मन उकता जाता है। धीरे धीरे उसे बाहर खाने की आदत पड़ जाती है । और इस तरह गार्हस्थ्य सुख के नाश का श्री गणेश हो जाता है । भोजन परोसते समय पत्नी का समीप होना परमावश्यक है ।
चौथा उपदेश
“प्रधान बनने की चिन्ता छोड़ दो, क्योंकि वह दर्जा पति का है । वह स्वभाव से ही अपने को घर का प्रधान व्यक्ति समझता है ।" इसलिए स्त्रियों को यह बात कभी न भूलनी चाहिए कि पति गृहस्वामी है । घर का धुआं उसी के कारण निकलता है । स्त्रियों को पति को अपनी उँगली पर नचाने की चेष्टा करना भारी भूल है और यह भूल कलह का मूल है। माना कि ऐसे दव्यू भी आदमी होते हैं जो चूंचरा किये बिना पत्नी के आदेश का नम्रतापूर्वक पालन करते हैं । वे पत्नी की हाँ में हाँ मिलाना और न में न मिलाना ही अपने लिए श्रेयस्कर और सुखकर समझते हैं। पर यह आदर्श नहीं है । सभी पति आत्मसम्मान के कारण ऐसा नहीं कर सकते । माना कि पति कहीं जान-बूझ कर व जाय, पर यह आशा मत करो कि वह हर जगह और हर बार ऐसा ही करेगा । पाँचवाँ उपदेश
"अपना रहन-सहन वैसा ही सरल और सादा रक्खो जैसा कि विवाह से पहले था ।" यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात है, और प्रायः बहुत ही कम स्त्रियाँ इस सारे उपदेश का पूर्णरूप से त्रानुसरण करती हैं । पर यह भी याद रखना चाहिए कि आदमी को आकर्षित करने का पहला कारगर साधन शृंगार ही है । जहाँ सुन्दरता कम हुई नहीं कि आदमी का मन उचाट हुआ। वह तब सुन्दरता की खोज में इधर-उधर भटकने लगता है। यदि स्वास्थ्य का उचित ध्यान रक्खा जाय तो इस चिन्ता का कोई कारण नहीं रहता । इसका यह अर्थ नहीं कि स्त्रियों को अपनी सुन्दरता बढ़ाने के लिए पाउडर आदि चीजों का खूब प्रयोग करना चाहिए और न मैं यह कहती हूँ कि उन्हें
www.umaragyanbhandar.com
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८
सरस्वती
[भाग ३६
इस काम पर काफी धन व्यय करना चाहिए--बहु- मक रोग है और इससे सारा जीवन दूभर बन जाता मूल्य गहने और वस्त्र बनवाने चाहिए।
है । कठोर वचन हड्डियाँ तो नहीं तोड़ते, परन्तु छठा उपदेश
उनके कारण जो चोट पड़ती है वह अपरिमित होती "कटुभाषिणी मत बनो।" यह तीन शब्दों का है, और वह कहीं अधिक हानिकर सिद्ध होती है। उपदेश अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। पर इसका पालन इससे मानव-हृदय दूक दूक हो जाता है। और अभागे करना भी स्त्रियों के लिए उतना ही कठिन है । जबान पति को कर्कश नारी के वज्रतुल्य कठोर वचन के को काबू में रखने के वजाय आप उनसे चाहे जो कहिए आघात की असह्य पीड़ा सहन करनी ही पड़ती है। वे शायद मान लेंगी। अधिकांश स्त्रियाँ पति को कई यह घाव प्राय: जीवन सर हरा रहता है। पर कभी प्रकार का उपदेश झाड़ना अपना जन्मसिद्ध अधि- कभी तो पत्नी का कोप और उसको कठोर वावर्षा कार समझती हैं। वे पति को ऐसा झिड़कती और आनन्ददायक भी होती है। हर समय शान्त रहना बुरा-भला कहा करती हैं, मानो किसी दुष्ट, शरारती अस्वाभाविक है। कभी कभी की छेड़-छाड़ दुखादायी बालक को झिड़क रही हो । एक लोकोक्ति है कि यदि नही होती। पर हर समय की छेड़-छाड़ जीवन को जबान चलाओगी तो पति को गवाँ बैठोगी । प्रायः दूभर बना देती है। आखिर हर बात को कोई हद स्त्री का वाक्य कोड़े की तरह लगता है और यदि होती है। हर घड़ी का अपमान आदमी को उदंड आदमी गृह-कलह के दुखदायी दृश्य से बचना बना देता है। यदि स्त्रियाँ अपने पतियों को अपने चाहता हो तो उसे येन केन प्रकारेण सब का घुट प्रेम-बन्धन में रखना चाहती हैं तो उन्हें कर्कश पीना पड़ता है। स्त्रियाँ भूल जाती हैं कि यह संक्रा- स्वभाव छोड़ देना चाहिए।
मेरे मृदु सन्तापों को,
है चिर-संगिनि मेरी यह, रहती है निशि-दिन गिनती।
मेरे इस सूनेपन में । तुमसे भी अधिक मुझे प्रिय,
लेखक,
भरती सामर्थ्य सदा जो, तसवीर तुम्हारी लगती ॥ कुवर सामेश्वरासह, वी० ए० मेरे मृद उन्मन मन में।
सुनती सप्रेम हे अवि वल, अनिमेष हगों से प्रतिपल, सब कुछ जो जो कहता हूँ। है मुझे देखती रहती । इसके समीप रोने में, मेरी स्वप्निल इच्छा का,
संकोच नहीं करता हूँ ॥ उपहास नहीं है करती ॥ नीरव अस्फुट अधरों से,
कल्पना मृदुल मेरी जब, वेदना टपकती रहती ।
इसको सजीव कर देती। निस्पन्द सरस नयनों से,
मेरे जर्जर जीवन में, सान्त्वना बरसती रहती ।।
यह नव जीवन भर देती। इसमें कितनी करुणा है, पीड़ा इसको मेरी जब, इसमें कितनी आशा है। लेती है लगा हृदय से । साकार हृदय की इसमें, रो उठती है यह भी उस, मेरी मृदु अभिलाषा है । निष्फलता के अभिनय से ।।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
हास-पारहास
"
म दिन में एक इक पर बैठा मैं चुप हो रहा । मैंने सोचा, शायद जवानी युद्ध चला जा रहा था। उस पर कांग्रेस की मर्यादा के अन्दर आता है। ऐसा न दो आदमी और भी बैठे थे। होता तो वार्पिक चुनाव में कांग्रेसमैन आपस में उन दोनों में एक साहव कुत्तों की तरह भों भों करकं क्यों लड़ने ? कदाचित शरावी थे और दूसरे कांग्रे- कांग्रेसमैन को मुसोलिनी की तरह सदा युद्ध चाहिए।
समैन । वे दोनों नशे में थे। जब सरकार सामने नहीं होगी तब वे आपस में 22
शरावी शराब के नशे में लड़ेंगे। और कांग्रेसमैन देशभक्ति के नशे में । रास्ते में कांग्रेस- x x मैन माहव ने शरावी को उपदेश देना शुरू किया---
कांग्रेस का आगामी अधिवेशन लखनऊ में "तुम शराव क्यों पीत हो ? पैमा क्यों नहीं बचाने ?'
होगा। इस सूबे के कांग्रेसमैन वहाँ जमा हो कर इस पर शगवी ने उत्तर दिया-"तुम इक्के पर क्यों
इम मुस्तैदी के साथ आपस में लड़ रहे हैं कि उनसे चलन हो ? पैदल चलकर पैमा क्यों नहीं बचात ?"
लाहौर के सिव और मुसलमान लड़ने का सबक़
ले सकते हैं। वहुत सम्भव है कि इस वर्ष कांग्रेस वहम में बात बढ़ गई और झगड़ा होने की
लाहौर के मिक्खों और मुसलमानों को अधिकानौवत आगई। मैंन कांग्रेसमैन माहब से कहा
धिक संख्या में मेम्बर बना ले। क्योंकि जब आपस "आप ही चुप हो जाइए, व्यर्थ झगड़ा क्यों बढ़ाते
में लड़ना ही है तब लोग कांग्रेस के झंड के नीचे हैं ?" वे कुछ उत्तेजित हालत में थे, वोले-“कांग्रेस
आकर क्यों न लड़े ? इससे इज्ज़त भी मिलेगी और मैन झगड़े से नहीं डरता। जो इतनी बड़ी सरकार
चित्त का शान्ति भी। स मोर्चा ले सकता है उसकं मामने यह शराबी क्या चीज़ है।"
हिन्दू-महासभा, मुसलिम-लीग, वर्णाश्रम__मैं यह जानता है कि कांग्रम का उद्देश है शान्ति- स्वराज्यमंघ, आय्य-समाज, सिक्ख-लीग, ईमाईमय उपायों से स्वराज्य प्राप्त करना। उसका आन्दो- संघ -ये सब व्यय में साम्प्रदायिकता का अपयश लन अहिंसा, सत्य और संयम पर आश्रित है। मैंन मोल ले रहे हैं । जब कांग्रेस के अन्दर रहकर वे यह वान कांग्रेसमैन से कही। वे बोले—'मैं कहाँ इजत के साथ दिल खोल कर लड़ सकते हैं और तलवार चाँधे फिर रहा हूँ ? आप ही बताइए आपस में सिर-फुटीवल भी कर सकते हैं तब पता कि क्या मैं असत्य भापण कर रहा हैं। रही नहीं, वे कांग्रस के अन्दर आकर राष्ट्रवादी कहे जाने संयम की वात सो अगर मैं संयम से काम न का सम्मान क्यों नहीं प्राप्त करत? अपन राम तो लेता तो इस शरावी को अब तक इक्के के नीचे आज ही कांग्रेस के मेम्बर बनने जा रहे हैं । काम ढकल दिया होता।"
भरा और बे-लगाम हुए।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
संसार के इतिहास में यह लड़ाई अभूतपूर्व होगी। तभी तो इंग्लेंड, फ्रांस आदि इसे चुपचाप देखेंगे ।
उधर जापान चीन को दबाये जा रहा है। जापान के पास भी युद्ध की अप-टु-डेट सामग्री मौजूद है। वह उसका अफीमची चीन पर उपयोग क्यों न करे ? एशिया का वह उदीयमान सूर्य है। उसका प्रकाश चीन में पहुंचना ही चाहिए।
"बेटा, यह समुद्र है।"
इस प्रकार संसार में 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' की कहावत चरितार्थ हो रही है। और जिनके पास बम-गोले हैं वे उनका उपयोग कर रहे हैं। बेचारे भारतवासियों के पास कुछ नहीं है और रक्षक ब्रिटिश सरकार है, इससे रूम या जापान के हमले का डर भी नहीं है। पर वे घायल होना चाहते हैं। कदाचित् यही कारण है कि यदि सरकार विदेशी हमलों से उन्हें बचायेगी तो वे आपस में ही सिरफुटौवल करेंगे। जिनकी खोपड़ी इतनी मजबूत नहीं है वे वाक्-युद्ध ही करेंगे।
-सदानन्द
"बेटा, यह ज़मीन है।" ऊपर मुसोलिनी का जिक्र आया है। शाबास ! बहादुर हो तो ऐसा हो । ३०० लड़ाकू हवाई जहाज
और लाखों अप-टु-डेट अस्त्रों से सज्जित सैनिक लिये एबीसीनिया पर चढ़ा जा रहा है। और उधर एबीसीनिया भी तलवार और बा लेकर मैदान में आ डटा है । मुसोलिनी आसमान से बम गिरावेगा और एबीसीनिया ज़मीन पर से उसे तलवार दिखावेगा।
La Vangu
JI
" और प्यारे पुत्र, यह आसमान है !"
. -'रिव्यू अाफ़ रिव्यूज़' से।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रेमचन्द जी की रचना-चातुरी का एक नमूना
लेखक, श्रीनाथसिंह
I
जा सम्बर सन १९३३ की और भावों पर कहानियाँ या उपन्यास लिखने से
'सरम्वती' में मैंने 'घृणा के उनकी मौलिकता की धाक बनी नहीं रह सकती, प्रचारक प्रेमचन्द' शीर्षक इसलिए उन्होंने और उपाय सोचे। पर इतने दीर्घएक लेख लिखा था। उसमें काल तक मौलिक ढङ्ग से सोचने और विचार करने
मैंने यह दिखाया था कि का अभ्यास न होने के कारण उन्हें कठिनाई का S E प्रेमचन्द जी अपनी रच- अनुभव हुआ। उन्हें कोई न कोई आधार चाहिए LU O नाओं-द्वारा पाठकों के ही, इसलिए वे भारतीय उपन्यासों की ओर झुके। हृदयों में घृणा और तिरस्कार के बीज किस प्रकार और मुझे प्रसन्नता है कि सबसे पहले उन्होंने बोते हैं। उस लेख में मैंने जो तर्क उपस्थित किये थे मुझे ही यह आदर प्रदान किया। उन्होंने हाल उन्हें प्रेमचन्द जी या उनके समर्थक काट नहीं में प्रकाशित मेरे उपन्यास 'उलझन' के आधार सके। कुछ लोगों ने यह सिद्ध करने का असफल पर एक कहानी लिखी। सम्भव है, उन्होंने अन्य प्रयत्न अवश्य किया था कि प्रेमचन्द जी ने प्रेम का कहानियों में हिन्दी के और भी उपन्यासों का भी प्रसार किया है, पर जब स्वयं प्रेमचन्द जी ने सहारा लिया हो । खैर। 'जागरण' में यह घोपित किया कि समाज में घृणा मेरे उपन्यास के आधार पर प्रेमचन्द जी ने जो की भी आवश्यकता है तब वे बेचारे भी चुप हो रहे। कहानी लिखी है उसका नाम है 'जीवन का शाप' उस लेख में मैंने यह भी लिखा था
और वह गत जून मास के 'हंस' में प्रकाशित हुई ___ "प्रेमचन्द जी में मौलिकता भी नहीं है। अपने है। मैं ऊपर ही कह चुका हूँ कि दूसरों की चीज़ों को उपन्यासों के प्लाट और भाव सभी वे पाश्चात्व अपनाते समय प्रेमचन्द जी उन्हें इतना भद्दा बना लेखकों से लेते हैं। पर उनको भारतीय रूप देने में देते हैं कि अर्थ का अनर्थ हो जाता है। अपनी इस उन्हें इतना भद्दा बना देते हैं कि अर्थ का अनर्थ हो कहानी में भी चोरी के अपराध से बचने के लिए जाता है।"
उन्होंने मेरे उपन्यास के प्लाट, पात्रों, तर्को और __मुझे प्रसन्नता है कि मेरे उस लेख के बाद भावों की इतनी छीछालेदर की है कि पढ़कर दु:ख प्रेमचन्द जी ने जो कहानियाँ लिखी हैं उनमें उन्होंने होता है। मौलिक उपन्यासकार या कहानी-लेखक उन त्रुटियों को न आने देने का प्रयत्न किया है कहलाने का भूत प्रेमचन्द जी पर सवार न होता जिनकी ओर मैंने संकेत किया था। परन्तु बुढ़ाई और वे जिन लेखकों के आधार पर अपनी रचनायें उम्र में पहुँच कर स्वभाव बदलना मुश्किल होता है। करते हैं उन्हें छिपाने का व्यर्थ प्रयत्न न करते, तो भी पर यही क्या कम संतोप की बात है कि उन्होंने उनका साहित्य में वही नाम और स्थान होता जो उचित दिशा की ओर प्रयत्न तो किया।
इस समय है। उनके पास भाषा है, बात कहने का ___ मेरे उस लेख से कदाचित् प्रेमचन्द जी के हृदय अपना ढङ्ग भी है। किसी बात को अपने शब्दों में वे में यह बात बैठ गई कि पाश्चात्य लेखकों के प्लाटों रोचक ढङ्ग से उपस्थित करने की कला में भी निपुण
१७१
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
हैं। यही उनकी खूबी है और अपनी इस खूबी के बल पर वे सदैव लोकप्रिय बने रहेंगे। पर मौलिकता का दम्भ उन्हें साहित्य की इस सच्ची सेवा से वञ्चित किये हुए है । दूसरों की चीजों को अपनी करके जनता के सामने उपस्थित करने और इस प्रकार वाहवाही लूटने की धुन में वे उनमें जो परिवर्तन और परिवर्धन कर देते हैं उससे उनका सारा सौन्दर्य नष्ट हो जाता है और जिस लेखक का कृति - महल ढहा कर उसी ज़मीन पर, उसी की नींव पर, उसी मसाले से वे अपना महल खड़ा करते हैं, उसके उद्देश, भाव और संदेश की हत्या हो जाती है ।
सरस्वती
मैं इस 'लेख में साबित करूँगा कि प्रेमचन्द जी ने मेरे उपन्यास --'उलझन के आधार पर किस तरह अपनी इस कहानी -- जीवन का शाप की रचना की और फिर अपनी मौलिकता की धाक बनाये रखने के उद्देश से उन्होंने अपनी ओर से भी कुछ जोड़कर किस प्रकार मेरे उपन्यास के सुन्दर उद्देश को अपनी कहानी में सुन्दर बना डाला ।
'उलझन' समस्या - मूलक एक दुःखान्त उपन्यास है । उसमें विवाहितों की समस्या पर मैंने वर्तमान समाज से जीवित उदाहरण लेकर कुछ विचार सामग्री उपस्थित की है। पति-पत्नी में परस्पर आकर्षण और प्रेम कैसे बना रह सकता है, यह बताने का मैंने उसमें प्रयत्न किया है । पाठक उपन्यास पढ़ने पर जिस नतीजे पर पहुँचेंगे वह यह है कि विवाहित स्त्री-पुरुप एक-दूसरे को अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न वल प्रयोग या क्रोध-प्रदर्शन के द्वारा न करके उदारता, सहिष्णुता, क्षमा, प्रेम और सहयोग के द्वारा करें एक-दूसरे की त्रुटियों और भूलों के लिए जहाँ तक क्षमा कर सकते हों, करें ।
।
1
'जीवन का शाप' भी समस्यामूलक एक दुःखान्त कहानी है । उसमें भी विवाहितों की समस्या पर प्रेमचन्द जी ने वर्तमान समाज से जीवित उदाहरण लेकर कुछ विचार - सामग्री उपस्थित की है। पतिपत्नी में परस्पर प्रेम और आकर्षण कैसे बना रह
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
क्षमा,
सकता है, यह उन्होंने भी बताने का प्रयत्न किया है । परन्तु मैं पहले ही कह चुका हूँ कि उनमें प्रेम नहीं, घृणा के प्रचार की प्रवृत्ति है । इसलिए उन्होंने अपने स्वभाववश पति-पत्नी को एक दूसरे के अनुकूल बनाने के प्रयत्न में उदारता, सहिष्णुता, प्रेम और सहयोग की ओर पाठकों को न ले जाकर उन्हें छल और कपट की ओर ले जाने का प्रयत्न किया है। कुमार्ग पर जानेवाले पतियों की पत्नियों को उन्होंने उपदेश दिलाया है कि वे भी छिपकर कुमार्ग की ओर अग्रसर हों और 'कुढ़ना छोड़कर विलास का आनन्द लूटें ।' यह अन्तिम वाक्य उन्हीं का है जो उन्होंने अत्यन्त शान्त भाव से एक भद्र महिला से कहलाया है। यह बात इस भद्र महिला ने एक सम्पादक से कही है और उसे इस शुभ सन्देश को एक दूसरी स्त्री के पास पहुँचाने का आदेश दिया है । सम्पादक ने इसका खंडन नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि विवाहितों की समस्या प्रेमचन्द जी इसी प्रकार सुलझाना चाहते हैं । उनकी कहानी में सिर्फ यही बात ऐसी है जो 'उलझन' में नहीं है। शेप सारी बातें 'उलझन ' की हैं। पर पाठक देखें कि अपनी तरफ़ से यह नई बात जोड़कर उन्होंने अर्थ का कैसा अनर्थ किया है और मजा यह है कि इतने पर भी वे आदर्शवादी लेखक कहलाना चाहते हैं ।
'उलभान' के पात्र उत्तर भारत के हैं। प्रेमचन्द्र जी हाल में बम्बई गये थे और वहाँ लगभग साल भर रहे थे । अपने साथ वे 'उलझन ' के इन पत्रों को भी बम्बई लेते गये और उनका नाम बदल कर और पारसियों की पोशाक पहना कर उन्हें पारसी बना डाला । शायद इस ख़याल से कि जब वे उन्हें साल भर बाद उत्तर भारत लेकर आयेंगे तब उन्हें कोई पहचान नहीं सकेगा । यहाँ मैं प्रेमचन्द जी के इन बहु-रूपियों को 'उलझन' में दिखाये गये उनके वास्तविक स्वरूप के साथ उपस्थित करता हूँ । पाठक स्वयं विचार करें कि ये वही हैं या नहीं ।
प्रेमचन्द जी की कहानी के एक पात्र हैं
www.umaragyanbhandar.com
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
प्रेमचन्द जी की रचना-चातुरी का एक नमूना
.
१७३
कावस जी। ये बम्बई में संपादक हैं, बड़े मेहनती हैं, लीजिए। यह उत्तर-भारत के एक धनी सेठ की सीधे हैं, संतोषी हैं, पर ग़रीब हैं, इसलिए इनकी स्त्री स्त्री है। वह सुशिक्षिता, अप-टु-डेट और मधुरगुलशन निरन्तर कटुभाषण करती है और बात बात भाषिणी है, पर उसे दाम्पत्य-सुख नहीं प्राप्त है, में व्यङ्गय बोलती है। स्त्री के इस व्यवहार से ये मन क्योंकि उसका पति अपना सारा समय धन कमाने में ही मन खिन्न रहते हैं और अपने एक मित्र की मधुर- लगाता है और उसको बहुत कम समय देता है। भाषिणी स्त्री की ओर आकर्षित होते हैं और कहते हैं- साथ ही शीला को उसमें परस्त्रीगामी होने का भी "गुलशन की जगहशीरी होती तो उनका जीवन कितना सबूत मिलता है। इसलिए वह एक दिन घर से गुलजार होता।" हंस जून सन १९३५ पृष्ठ ३३] निकल पड़ती है। एक बाग़ में अपने और अपने पति
पाठक देखें कि प्रेमचन्द जी के कावस जी के एक परिचित मित्र के साथ मिलती है और क्रोधा'उलझन' के जगतनारायण तो नहीं हैं। क्योंकि वेश में उसके साथ कहीं भी निकल भागने को यद्यपि वे सम्पादक नहीं हैं, स्कूल मास्टर हैं, तैयार हो जाती है और कहती है-"इस समय कोई तथापि उनकी तकशैली, समझ और सूझ ऐसी है कहे तो मैं नरक में भी इसके साथ जा सकती हूँ।" कि बम्बई में जाकर बड़े मज़े में सम्पादक हो सकते (उलझन पृष्ठ ९८) हैं। उलझन के ये जगतनारायण भी बड़े मेहनती उलझन की इस शीला को भी प्रेमचन्द जी हैं, सीधे हैं, संतोषी हैं, पर ग़रीब हैं, इसलिए उनकी बम्बई ले गये। उसका शीला नाम बदल कर शीरी स्त्री मानवती निरन्तर कटुभाषण करती है और रक्खा जो एक प्रकार से शीला का उर्दू रूपान्तर है। बात बात में व्यङ्गय बोलती है। स्त्री के व्यवहार से वे इस बेचारी उत्तर-भारतीय नारी को भी उन्होंने मन ही मन खिन्न रहते हैं और अपने एक मित्र की पारसी बना डाला और एक धनी पारसी के साथ मधुरभाषिणी स्त्री की ओर आकर्षित होते हैं और उसे ब्याह दिया। यह शीरी भी सुशिक्षिता, सोचते हैं-"उन्हें चम्पा जैसी स्त्री मिली होती तो अप-टु-डेट और मधुरभाषिणी है। यह अवश्य है कि उनका जीवन सफल हो जाता।" (उलझन पृष्ठ ४३) यहाँ इसे पति उत्तर-भारत से कुछ भिन्न मिला है।
खेद है कि प्रेमचन्द जी ने 'उलझन' के इस वह पारसी है, इसलिए कुछ भिन्नता होनी ही चाहिए गरीब पात्र को बम्बई ले जाकर भी गरीब ही रक्खा पर प्रेमचन्द जी के साथ बम्बई जाकर पारसी हो
और वहाँ भी उसे स्त्री की कटूक्तियाँ सुनवाई और जाने पर भी सभ्य पारसी के साथ विवाह करके भी, उसके सामने वही उलझनें पेश की जो यहाँ उत्तर- नाम बदल डालने पर भी इस शीरी को अर्थात् भारत में थीं। खद तो फ़िल्म-कम्पनी में काम करने 'उलझन' की शीला को यहाँ उसी समस्या का सामना गये थे, पर इस बेचारे को किसी अमीर दोस्त के करना पड़ा जो उसके सामने उत्तर-भारत में मौजूद साथ किसी दिन सिनेमा भी न दिखलवाया। थी। अर्थात् उसे दाम्पत्य-सुख प्राप्त नहीं है, क्योंकि बम्बई में उन्होंने उसके जीवन में कोई भी ऐसी बात पति उसको बहुत कम समय देता है और उसके नहीं दिखाई जो उसके यहाँ उत्तर-भारत के जीवन परस्त्रीगामी होने का भी सबूत मिलता है, इसलिए वह से भिन्न हो। ऐसी दशा में यदि मैं कहँ कि उन्होंने एक दिन घर से निकल पड़ती है, एक बाग़ में अपने 'उलझन' के इस पात्र को चुराकर अपनी कहानी का और अपने पति के परिचित एक मित्र से मिलती है पात्र बना लिया है तो मुझे ऐसा कहने का सर्वथा और क्रोधावेश में उसके साथ कहीं भी निकल भागने अधिकार है।
को तैयार हो जाती है और कहती है- "मैं तुम्हारे साथ __ अब 'उलझन' के एक स्त्री पात्र शीला को चलूंगी अभी इसी दम।” (हंस जून १९३५ पृष्ठ ४१)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
पाठक मेरे उपन्यास की शीला और प्रेमचन्द जी की इस शीरीं की परीक्षा करें। उनका कैसा दाम्पत्य जीवन है और उस जीवन से किस प्रकार विद्रोह करने पर तुली हुई हैं, यह देखकर स्वयं सोचें कि क्या दोनों एक ही नहीं हैं। नाम और स्थान का भेद कोई भेद नहीं है ।
प्रेमचन्द जी की कहानी में दो पात्र और हैं। गुलशन और शापुर जी। ये दोनों भी 'उलझन' की मानवती और धर्मदास से मिलते-जुलते हैं -- गुलशन कटुभापरण में और शापुर जी धन कमाने में। एक उदाहरण लीजिए । गुलशन अपने ग़रीब पति से कहती है- " जब तुम्हारे घर में रोटियाँ न थीं तब मुझे क्यों लाये ।” (हंस जून १९३५ पृष्ठ ३३) इधर मानवती अपने ग़रीब पति से कहती है- “तुमने मुझे क्या सुख दिया है, क्या बनवा दिया है- ” (उलझन पृष्ठ ५)
"
सरस्वती
माना कि ग़रीब घरों में सर्वत्र स्त्रियाँ इसी प्रकार की बातें कर सकती हैं और करती हैं। इसलिए ऐसे पात्रों को उपस्थित करना जो सर्वत्र पाये जाते हैं, चोरी नहीं है । परन्तु जिस परिस्थिति में, जिस उद्देश से, जिस समस्या को सुलझाने के लिए ये पात्र उपस्थित किये गये हैं, वे सब एक ही हैं। इसलिए यह भी चोरी के अन्दर अवश्य ही आवेगा ।
प्रेमचन्द जी की कहानी में चार पात्र हैं और उलझन में छ: हैं । प्रेमचन्द जी ने जैसे कहानी को
३ -- धर्मदास -- धनी व्यापारी ।
४ - - शीला - - सभ्य महिला पर पति से सन्तुष्ट । -भ्रमर -कवि ।
५
६- चम्पा - सरल पर समझदार स्त्री ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
संक्षिप्त किया है वैसे ही पात्रों को भी ६ की जगह ४ कर दिया है। दोनों के पात्रों का संक्षिप्त पर तुलनात्मक परिचय मैं नीचे कोष्ठक में देता हूँ ।
उलझन
१--जगतनारायण--ग़रीब पर विद्वान, मेहनती और १ - कावस जी - गरीब पर विद्वान, मेहनती, और सन्तोषी |
सन्तोषी |
२- मानवती - पति की ग़रीबी के कारण कटुभाषिणी ।
इस प्रकार उलझन के ६ पात्रों की जगह प्रेमचन्द जी ने ४ पात्रों से ही काम चलाया है । 'उलझन' लगभग ३०० पृष्ठों का उपन्यास है और कहानी 'हंस' के सिर्फ ७ पृष्ठों में समाप्त हुई है। संक्षिप्त करने में दो पात्रों का कम कर देना उचित ही था । 'उलझन' में एक बुढ़िया का ज़िक्र है, जो अपने घर में दूसरों को आया देख उदास हो जाती है। प्रेमचन्द्र जी की कहानी में भी यह बुढ़िया इसी रूप में आई है । ( उलझन पृष्ठ २१७ हंस पृष्ठ ३७ ) इस बुढ़िया का 'उलझन' में कोई नाम नहीं रक्खा गया है, इसलिए प्रेमचन्द जी ने भी अपनी कहानी में इस बुढ़िया का कोई नाम नहीं दिया । विवाहित स्त्री-पुरुषों का वर्णन होते हुए भी 'उलझन' में किसी के बच्चे नहीं हैं । यह इसलिए कि मेरा बच्चों की समस्या पर अलग. से लिखने का विचार है। पर प्रेमचन्द जी के सामने 'उलझन' ही है, इसलिए विवाहित स्त्री-पुरुषों का वर्णन आने पर भी उनकी कहानी में भी किसी के बच्चे नहीं हैं। मैं मानता हूँ कि मौलिकता मेरे हिस्से में नहीं पड़ी है। एक ही बात को, एक ही समस्या को एक ही साथ अनेक मनुष्य एक ही ढङ्ग से सुलझा सकते हैं। पर दो कहानी लेखकों को एक ही प्रश्न पर विचार करने के तरीक़ों में उतना साम्य नहीं हो जीवन का शाप
२-- गुलशन - पति की ग़रीबी के कारण कटुभाषिणी ।
३--शापुर जी -- धनी व्यापारी ।
४ - शीरीं - - सभ्य महिला पर पति से असन्तुष्ट । ५ - इस पात्र को उन्होंने कावसजी में मिला दिया है । ६ – इस पात्र को उन्होंने गुलशन में मिला दिया है ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
प्रेमचन्द जी की रचना-चातुरी का एक नमूना
१७५
+
+
सकता जितना कि मेरे उपन्यास-'उलझन' और प्रेम- असन्तुष्ट स्त्रियाँ अपने पतियों के गरीब मित्रों के चन्द जी की इम कहानी--'जीवन का शाप' में साथ निकल भागने को उद्यत हैं । इतने पर भी यदि मौजूद है।
प्रेमचन्द जी यह कहें कि उन्होंने 'उलझन' को नहीं ___'उलझन' में क्या है ? तीन भिन्न स्वभाव के पढ़ा, उसका दर्शन भी नहीं किया, यह कहानी उन्होंने विवाहित स्त्री पुरुपों के जोड़े परस्पर मिलते हैं। उसके आधार पर नहीं लिखी, यह तो उनके बम्बईस्त्रियाँ अपने पतियों को अपनी चि के अनुकूल नहीं प्रवास का एक ताजा अनुभव है, तो यह उनकी पाती और पति अपनी स्त्रियों को अपनी रुचि के 'जिद' के सिवा और क्या कहा जायगा। अनुकूल नहीं पाते। पति सोचते हैं, उन्हें अमुक स्त्री चोरी का दोप छिपाने के लिए प्रेमचन्द जी ने न मिलकर अमुक मिली होती तो अच्छा होता अपनी कहानी में जो परिवर्तन और परिवर्द्धन
और त्रियाँ सोचती हैं, उन्हें अमुक पति न मिल किया है, अब जरा उस पर भी विचार कर लीजिए। कर अमुक मिला होता तो अच्छा होता। उनमें ऊपर वाग़ की घटना का उल्लेख किया गया है। कुछ की इच्छायें किसी हद तक पूर्ण भी हो जाती हैं, वहाँ अनुचित प्रेम का प्रस्ताव 'उलझन' में पुरुष __ पर उन्हें फिर भी असन्तोप बना ही रहता है। की ओर से हुआ है। पर प्रेमचन्द जी की कहानी
और इसी असन्तोष के साथ उपन्यास की समाप्ति में प्रस्ताव पहले-पहल स्त्री की ओर से हुआ है, यद्यपि होती है।
पुरुप बहुत पहले से आकर्षित है और सदैव अवसर प्रेमचन्द जी ने इमो असन्तोष का नाम 'जीवन की प्रतीक्षा में रहा है। मेरा खयाल है, यह अस्वाभाका शाप' रखा और बिलकुल इसी लाट पर कहानी विक है। ऐसे प्रस्ताव प्रायः पुरुप की ओर लिख डाली। कहानी में उन्होंन थोड़ा-सा परिवर्तन से ही होते हैं, स्त्री की स्वीकृति तो सदैव मौन
और परिवर्धन भी किया है, पर उनकी कहानी का होती है और उसके प्रस्ताव भी प्राय: संकेत के वही अंश असुन्दर हो गया है। 'उलझन' में जो बात रूप में होते हैं। यहीं से प्रेमचन्द जी ने साट कई पृष्ठों में कही गई है उसका उन्होंने एक पैराग्राफ़ में परिवर्तन किया है और यहीं से कहानी बिगड़नी या एक लाइन में उल्लेख कर दिया है। ऐसा न करते शुरू हुई है। तो बड़ी कहानी को इतना छोटा रूप कैसे देते ? एक अब जरा विचार कीजिए। जैसे 'उलझन' का उदाहरण लीजिए.---"शीला ने भ्रमर को अपनी भ्रमर शीला के लिए व्याकुल है, वैसे ही इस कहानी कोमल बाहुओं के सहारे...धीरे धीरे ले जाकर पेड़ के का कावस जी शीरी के लिए व्याकुल है । वह महीनों पास बैठाया ।” (उलझन पृ. ११०)
से अवसर की ताक में है। अपनी कटु-भाषिणी स्त्री __ "शीरी ने उनका हाथ पकड़ कर एक बेंच पर को मायके भेज आया है । उसको तलाक़ देने और बिठा दिया ।" (प्रेमचन्द जी की कहानी हंस पृष्ठ ३६) नया घर बसाने की बात सोच चुका है। ऐसे
इस प्रकार के पचीसों उदाहरण दिये जा अवसर पर शीरी का उससे प्रस्ताव करना कि सकते हैं।
'अभी इसी दम तुम्हारे साथ चलूंगी' उसके लिए ___'उलझन' के पात्र एक दूसरे के घर पर या दिल्ली खुशी का सबसे बड़ा दिन है। पर वह कायर हो के रोशनआरा-बारा में मिलते हैं। प्रेमचन्द जी के जाता है । इधर कायरता जोर पकड़ती है, उधर शीरीं ये पात्र भी एक-दूसरे के घर पर या बम्बई के एक का पति आ जाता है। कावस जी कहते हैं--"उसे .. पब्लिक पार्क में मिलते हैं। ऊपर की दोनों घटनायें मना लीजिए।" पर वह उपेक्षा करके चला जाता है। एक बाग़ की ही हैं और दोनों में अपने पतियों से तब वहाँ कावस जी की स्त्री मायके से आ धमकती
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
है और वह कटु-भाषिणी स्त्री परमसुशीला और के एक नाटक--'दि डेविल्स डिसाइपिल' का हिन्दी शिक्षिता महिला के रूप में कावस जी को उपदेश अनुवाद-मात्र है। 'घणा के प्रचारक प्रेमचन्द' शीर्षक देती है-घर चलो और शीरों को समझा दो। लेख में मैं 'शा' के इस नाटक का संक्षिप्त परिचय “ऐयाश मर्द की स्त्री अगर ऐयाश न हो तो यह दे चुका हूँ। यह हो सकता है कि प्रेमचन्द जी ने शा उसकी कायरता है, लतखोरपन है।"
का वह नाटक न पढ़ा हो, पर मेरा लेख तो उन्होंने प्रेमचन्द जी की कहानी यहाँ क्लाइमेक्स पर पहुँच- पढ़ा ही होगा, क्योंकि उन्होंने उसका उत्तर देने का कर फिर थोड़ा नीचे उतर जाती है और समाप्त हो प्रयत्न किया था। इस नवीन लेखक के इन नये जाती है। महीनों की व्याकुलता के बाद कावस जी नाटकों की समालोचना करते समय प्रेमचन्द जी ने का कायर हो जाना, शापुर जी का घटनास्थल पर इस बात का जिक्र क्यों नहीं किया ? क्या वे चाहते हैं आकर उपेक्षा प्रदर्शित करना, कटुभाषिणी गुलशन कि नवयुवक भी उन्हीं की भाँति 'कहीं की ईंट कहीं का परम सुशीला नारी के रूप में प्रकट होना और का रोड़ा लेकर भानमती का कुनबा जोड़ें' या वे इस ऐसा पतन-पूर्ण उपदेश देना, यह सब कितना अस्वा- प्रकार की चोरी को चोरी ही नहीं मानते। या इसका भाविक और भद्दा है, उस कहानी में यदि प्रेमचन्द कारण यह है कि जो दोष स्वयं अपने में मौजूद है जी का कुछ है तो यही अस्वाभाविकता और भद्दा- उसे दूसरों में देखें तो किस मुँह से उसका उल्लेख पन । कहानी में यह बात उन्हें इसलिए जोड़नी पड़ी करें । कुछ भी हो, अब समय आ गया है जब हम कि भेद न खुले। पर खेद है कि इतने पर भी वे सत्य का स्वागत करें और इस प्रकार के प्रयत्नों को चोरी को छिपाने में सफल नहीं हुए।
चाहे वे किसी भी परिस्थिति में क्यों न किये गये हों, गुलशन के बाग़ में पहुँचने की घटनाभी 'उलझन' कदापि प्रोत्साहन न मिलने दें। की एक घटना के ही आधार पर है। 'उलझन' में शीला प्रेमचन्द जी से मेरा कोई व्यक्तिगत द्वेप नहीं है। एक उपन्यास पढ़ती है और उससे प्रभावित होकर मैं उनका उतना ही आदर करता हूँ जितना कि कोई घर से निकल पड़ती है। (उलझन पृष्ठ ९१) और भी कर सकता है। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि प्रेमचन्द जी की कहानी में गुलशन एक सपना हिन्दी में कथा-साहित्य की वृद्धि में उनका बहुत बड़ा देखती है और उससे प्रभावित होकर निकल पड़ती हाथ रहा है और है। पर यह सब होते हुए भी मैं है। (हंस पृष्ठ ३८) 'उलझन' में और भी बहुत-सी उनके दोषों की ओर से आँख नहीं फेर सकता । अब बातें और घटनायें हैं जो इस कहानी में नहीं आई, कहानी और उपन्यास का वह स्वरूप नहीं रहा जो पर मुख्य मुख्य बातें प्रायः सभी आ गई हैं। और उस समय था जब प्रेमचन्द जी ने लिखना प्रेमचन्द जी ने जो अपनी तरफ से जोड़ा है वह शुरू किया था । आधुनिक कहानियों की सफलता अस्वाभाविक, असुन्दर और व्यर्थ है जैसा कि मैं इस बात में है कि वे मनुष्यों को उठाने में, उन्हें एकऊपर साबित कर चुका है।
दूसरे के निकट लाने में, सब प्रकार के मनुष्यों के ___ कदाचित् प्रेमचन्द जी यह समझते हों कि किसी हृदयों में मानव मात्र के प्रति प्रेम, दया, सहानुभूति की भी रचना को पढ़ जाने के बाद उसे अपने शब्दों और क्षमा का भाव उदय करने में सहायक हों। वे में लिख डालना चोरी नहीं है। 'हंस' के उसी अङ्क मनुष्यों के दिल में इस बात को जमा दें कि मार डालने ' में उन्होंने श्री भुवनेश्वरप्रसाद की नये ढङ्ग के से माफ कर देना ज्यादा अच्छा है। प्राण-हरण
नाटक लिखने के लिए खूब प्रशंसा की है। यद्यपि करने से प्राण बचाना अधिक सुन्दर है। मुझे यह . इन नये ढङ्ग के नाटकों में एक 'शैतान' बरनार्ड शा देखकर दुःख हुआ कि प्रेमचन्द जी ने अपनी इस
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
चिन्ता-मना
[चित्रकार-श्रीयुत वाणीकान्त दास
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रेमचन्द जी की रचना-चातुरी का एक नमूना
संख्या २]
कहानी में भी जिसे उन्होंने मेरे उपन्यास के आधार पर लिखा है, बदला लेने का भाव भरा हुआ है। उन्होंने यह साबित किया है कि जहाँ धन है वहाँ ऐयाशी का बाज़ार अवश्य गरम होगा । 'ऐयाश की स्त्री गर ऐयाश न हो तो यह उसकी कायरता है, लतखोरपन है । ' खेद है कि गांधी और टैगोर के युग में रहते हुए भी प्रेमचन्द जी घृणा का यह बीज बोते चले जा रहे हैं । चरित्र का निर्माण धन या निर्धनता पर नहीं, व्यक्तिगत इच्छा और प्रयत्न पर निर्भर है । प्रेमचन्द जी यह छोटी-सी बात क्यों नहीं समझने
( १ ) किसलिए काँपता रहता;
पीपल - पत्र
लेखक, श्रीयुत धनराजपुरी
वह बिना वायु के प्रतिपल । है कौन वेदना उसको,
जिससे पड़ती न ज़रा कल ? ( २ )
क्या अत्याचार जगत कालख, काँप काँप उठता है ? अपनी रक्षा में प्रस्तुत -
वह भी हिलता डुलता है ! ( ३ ) था प्रकृति - गर्भ से निकला,
वह अमित वेदना सहकर । क्या याद उसी की करके-
कँपता है पल पल थर थर ? (8)
या जगत-पिता का निशि-दिन(स्वर वीणा तुल्य मिलाकर !) वह गुण-गौरव गाता है
अपना सिर हिला हिलाकर ?
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
और साहित्य-रचना में वे उस लेखक के प्रति कृतज्ञता का भाव क्यों नहीं प्रकट करते जिसकी रचनाओं के आधार पर रचना करके वे यश और धन का अर्जन करते हैं ? क्या मैं आशा करूँ कि मेरे इस निवेदन पर वे क्रोध नहीं, तिरस्कार नहीं, घृणा नहीं, बल्कि प्रेम और उदारता के साथ विचार करेंगे। इस समय मैंने इतना ही लिखना उचित समझा है, पर यदि आवश्यकता पड़ी तो अपने तर्कों को लम्बे उद्धरण देकर अधिक विस्तार के साथ भी उपस्थित करूँगा ।
( ५ ) क्यों बार बार आ जाकर - भी जगत मोह में फँसता ? क्या देख नाट्य यह प्रतिपल
वह मचल मचल है हँसता ? ( ६ ) निज रूप भूल, जग झुक क्योंकर रहा पाप का अर्जन ! क्या इसी लिए करता हैकर- इङ्गित से वह वर्जन ?
(७)
आधार सूक्ष्मतम पा करं
१७७
क्या सँभल नहीं पाता है, जो इधर-उधर पल पल में
वह हिल-डुल-सा जाता है । (=) मुसा ही जग-जीवन है
पल पल हिल उठनेवाला ! क्या यही बताता है वहमत बेसुध हो मतवाला ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामायक साहित्य
:
.
.
..
I
--
नागरी-लिपि में सुधार
(३) स्वरों के लिए वर्तमान इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ के
रूप को छोड़कर सबके सब स्वर 'अ' की बाराखड़ी व नागरी-लिपि में सुधार की (ककहरा) के रूप में लिखे और छापे जायँ । इस 'अ' की PAR T चर्चा इधर कई वर्षों से हो बारा खड़ी में बम्बई-टाइप का 'अ' काम में लाया जाय ।
रहा है। ग्वालियर, दिल्ली इस प्रकार स्वीकृत वर्णमाला का स्वरूप निम्नलिखिता
और इन्दौर में पिछले तीन नुसार होगा
वर्षों से सम्मेलन के जो अ, आ, श्रि, श्री, ग्रु, अ, ऋ, ग्रे, औ, श्रो, औ, ग्रं, अः ISARGIKOPAT अधिवेशन हुए हैं उनमें भी (४) दक्षिण की लिपियों के स्वरों में ह्रस्व 'ए' और
यह प्रश्न उठा है। इन्दौर ह्रस्व 'श्रो' के रूप पाते हैं, उनके लिए मात्रा (5) इस में तो इसके लिए बाकायदा एक समिति ही स्थापित हो प्रकार लगायी जाय । गई है, जिसके संयोजक श्री काका कालेलकर जी है। (५) युक्ताक्षरों में भी सब व्यंजन और स्वर उच्चारण गत २५-२६ जून को इस समिति की पहली बैठक के क्रम से लिखे जायँ, रेफ भी उच्चारण के क्रम से दो वर्धा में हुई जिसमें निम्नलिखित प्रस्ताव स्वीकृत हुए। अक्षरों के बीच में आ जाय । लेकिन ॐ श्री और ज्ञ ये
(१) यह समिति निर्णय करती है कि देवनागरी-लिपि अक्षर अाज जिस रूप में लिखे जाते हैं, वे ही रूप कायम के अक्षरों पर शिरोरेखा आवश्यक नहीं है। इसलिए लिखने रक्खे जायँ। अर्थात् इनमें कोई परिवर्तन न किया जाय । में शिरोरेखा वैकल्पिक हो और छापने में प्रेसवाले उसे (६) पूर्ण अनुस्वार के स्थान पर '' लगाया जाय हटाने की कोशिश करें।
और चन्द्रविन्दु की जगह केवल '' लगाई जाय । उक्त किन्तु शिरोरेखा हटाते हुए भी छपाई में उसका अंश अनुस्वार के लिए वैज्ञानिक रूप से स्वर-हीन ङ् ञ् , ण, अक्षरों के सेरिफ के सूक्ष्म रूप में रह जाय तो वह परिचित न्,म् भी लिखे जा सकते हैं।
आँखों को अच्छा जान पड़ेगा। इसलिए समिति ने निर्णय (७) अक्षर के नीचे बाई ओर यदि अनुकूल स्थान किया है कि (शिरोरेखा-विहीन) लिपि के भिन्न भिन्न डिज़ा- पर बिन्दी लगाई जाय तो उसका अभिप्राय यह होगा कि इन (नमूने के चित्र) विशेषज्ञों से मँगवाये जायँ । उनमें उस अक्षर की ध्वनि उसकी मूलध्वनि से भिन्न है। उस से किसी एक रूप को समिति पसन्द करेगी।
ध्वनि का निर्णय प्रचलन के अनुसार होगा, जैसे(२) बाराखड़ी में स्वरों की सब मात्राये अक्षरों के क, ख, ग़, च, छ, ज, झ, ड, ढ, फ़, ब, इत्यादि । आगे रखी जायँ, सिर पर या पाई के नीचे नहीं । हस्व (८) विराम-चिह्न आज तक सब भाषाओं में जैसे 'F' के सम्बन्ध में यह निर्णय हुया कि उच्चारण के क्रम प्रचलित हैं, वैसे ही कायम रक्खे जायँ । केवल पूर्ण विराम से वह भी आगे ही लिखी जाय, किंतु उसके स्वरूप को का चिह्न पाई ।' रहे। निश्चित करने के लिए विशेषज्ञों से सूचनायें मंगवाई (6) अंकों के स्वरूप इस प्रकार होंगेजायँ । तब तक वर्तमान पद्धति से-हस्व ''ि भले ही १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६, °, लिखी जाय।
(१०, वर्तमान ख अक्षर बिलकुल अनुकूल नहीं है,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
सामयिक साहित्य
इसलिए वह छोड़ दिया जाय । उससे तो गुजराती ख
विदेशों में भारतीय छात्र अच्छा है, अतएव 'ख' के नये स्वरूप के लिए विशेषज्ञों . इस समय इंग्लैंड में १३२५ भारतीय विद्यार्थी से सूचनायें मँगवाई जायँ ।
विभिन्न विषयों की शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इनके . (११) अ, झ, ण की जगह बम्बई टाइपवाले अ, झ, सम्बन्ध में लन्दन के हाई कमिश्नर ने हाल में एक ण स्वीकार किये जायँ और ल, श की जगह हिन्दी के ल, रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिससे इनकी स्थिति का पता श रक्खे जायँ । 'क्ष' का 'क्ष' यह रूप स्वीकार किया जाय, चलता है। इसी रिपोर्ट के आधार पर बनारस के किन्तु बीजगणित आदि वैज्ञानिक कामों के लिए 'क्ष' 'हिन्दी-केशरी' ने एक अग्रलेख लिखा है, जिसका लिखा जाय 'क्ष' नहीं।
कुछ अंश इस प्रकार है(१२) दीर्घ 'ऋ' और 'लु' ये वर्ण प्रांतीय भाषाओं इस रिपोर्ट से मालूम होता है कि ब्रिटेन के विश्वमें नहीं आते, अतएव पढ़ाने में ये छोड़ दिये जायें। विद्यालयों और कालेजों में १३२५ छात्र नियमित रूप से
(१३) वर्तमान स्थिति में देवनागरी वर्णमाला का नाना प्रकार की विद्या पढ़ रहे हैं। इनमें से प्रायः ४०० स्वरूप प्रेसवालों के लिए निश्चित कर देने की आवश्यकता छात्र चिकित्सा-विद्या, २६० इंजीनियरिंग और टेकनालोजी, जान पड़ती है। अर्थात् घ और ध, भ और म, थ, य ३०० पार्ट-विभाग, १२० अर्थशास्त्र और बाकी विज्ञान तथा र, श, ङ, झ, द, ह, ट, ठ, ड, ढ, क, फ श्रादि की शिक्षा पा रहे हैं । इस रिपोर्ट से यह भी मालूम हुआ अक्षरों के मान्य स्वरूपों की प्रेसवालों को आवश्यकता है। है कि प्रायः ७० भारतीय छात्रायें भी इंग्लैंड के विश्वइसलिए नागरी वर्णमाला के नीचे लिखे स्वरूप की हम विद्यालयों में शिक्षा पा चुकी हैं। यह संख्या अधिक नहीं सिफ़ारिश करते हैं।
ना में भी बहुत कम है, तो भी अ, आ, श्रि, श्रो, श्रु, , ऋ, श्रे, , ओ, औ, योरप की ऊँची शिक्षाओं में भारतीय महिलाओं का प्रवेश अऽ, आऽ, अं, अः, क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, कोई तुच्छ बात नहीं है। ञ, ट, ठ, ड, ढ, ए, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, इंग्लैंड की डिगरियों का भारतवर्ष में विशेष आग्रह है, य, र, ल, व, श, ष, स, ह, ळ, क्ष, श, ॐ, श्री। क्योंकि सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं में इंग्लैंड की
(१४) संयुक्ताक्षर बनाने में जिन अक्षरों में पाई है, पढ़ी हुई विद्या का बड़ा आदर होता है। आर्थिक लाभ उनकी पाई हटा दी जाय । और बिना पाईवाले अक्षरों के के साथ ही सम्मान-प्राप्ति के लोभ के कारण योरप में श्रागे ' ' ऐसा संयोजक चिह्न लगाने से वे अक्षर हलन्त भारतीय विद्यार्थियों की संख्या बढ़ रही है । भारतीय विश्वसमझे जायँ । शब्द के अन्त में या स्वतन्त्र रूप से जब विद्यालयों की शिक्षा संसार के किसी भी देश के विश्वविद्याकिसी व्यञ्जन को हलन्त बनाना हो तब वह पुरानी पद्धति लयों की शिक्षा से किसी भी अंश में हीन नहीं है, लेकिन के अनुसार ही हलन्त चिह्न-द्वारा बनाया जाय । जैसे-- भारत की शिक्षा विशेष रूप से साहित्यिक है । साहित्य को विराट, अर्थात् आदि।
छोड़कर अन्यान्य कई उपयोगी विषयों में ऊँची शिक्षा पाने (१५) लिपि-समिति में सदस्यों की संख्या बढ़ाने की के लिए अभी विदेशों में जाना ज़रूरी है । यही कारण सत्ता समिति के अध्यक्ष को दी जाती है।
है जैसा कि डाक्टर टामस कोयली की रिपोर्ट से मालूम हो : (१६) काका कालेलकर से निवेदन किया जाता है रहा है कि इंग्लैंड के १३२५ भारतीय छात्रों में से ३०० कि महात्मा गाँधी जी की सूचना के अनुसार वे निरक्षर को छोड़कर बाकी सभी मेडिकल, इंजीनियरिंग, कामर्स, लोगों के लिए नागरी-लिपि को वैज्ञानिक रूप से अत्यन्त सायन्स या उस सम्बन्ध में गवेषणा-वृत्ति की उपयोगी सुलभ बनाकर उसका प्रयोग करके देखें और तब उसे शिक्षा में लगे हुए हैं । केवल भारत नहीं, पूर्वीय भूखण्ड समिति के सम्मुख विचारार्थ उपस्थित करें।
के चीन, जापान, पर्शिया, अफ़ग़ानिस्तान आदि स्वतन्त्र
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८०
सरस्वती
[भाग ३६
देशों के बहुसंख्यक छात्र प्रतिवर्ष योरप और अमेरिका के पहली यह कि योरप के अन्यान्य स्थानों की तुलना में विश्वविद्यालयों में भर्ती होते हैं । विदेशों में शिक्षा पाकर . किसी किसी विषय की इंग्लेंड की शिक्षा अधिक खर्चीली छात्रों की बहुदर्शिता बढ़ जाती है । डाक्टर कोयली ने है। अतः खर्च का भार उठाने में अभिभावकों को कठिअपनी रिपोर्ट में भारतीय छात्रों की बड़ी प्रशंसा करते हुए नाइयाँ झेलनी पड़ती हैं । डाक्टर कोयली ने बहुसंख्यक कहा है--"संसार का कोई भी देश उनके लिए गर्वित हो छात्रों की आर्थिक दुरवस्था का उल्लेख किया है और सकता है।" इससे प्रमाणित होता है कि "ज्ञान विज्ञान उनके अभिभावकों को सावधान कर दिया है । दूसरी बात के सभी विभागों में और सभी अर्थकारी और वृत्तिमूलक यह है कि राजनैतिक कारणों से भारतीय छात्रों के साथ विद्याओं की प्रतियोगिता में भारतीय छात्र पश्चिमीय इंग्लैंड में समानता का बर्ताव नहीं होता। अन्य देशों के छात्रों से टक्कर ले सकते हैं ।" भारतीय छात्रों के सम्बन्ध में विश्वविद्यालयों और व्यावसायिक शिक्षा-संस्थाओं में ये प्रशंसा के वाक्य अवश्य ही उत्साहवर्द्धक हैं। भारतीय छात्र सहज में ही प्रवेश पा जाते हैं। योरप के
कुछ वर्ष पहले धनिकों के लड़के शौक से विदेशों अन्यान्य देशों में भी भारतीय छात्रों का अधिक संख्या की शिक्षा की ओर झुकते थे । लेकिन इस प्रकार की मनो- में जाना इन दोनों कारणों से उचित है । वृत्ति अब हट गई है । अब अधिकांश छात्र किसी खास उद्देश्य के साथ विदेश जाते हैं । परन्तु भारत की आर्थिक खाद बनाने का एक नया तरीका दुरवस्था के कारण इन विशेष शिक्षित छात्रों की अवस्था __हमारे शहरों का बहुत-सा कूड़ा प्रतिवर्ष बेकार भी स्वदेश में सन्तोषजनक नहीं होती। बेकारी की भीषण जाता है। यदि हमारे देश के म्युनिसिपल बोर्ड इस चोट उन पर भी पड़ती है । इसके सिवा उनकी शिक्षा की ओर ध्यान दें तो इस कूड़े का अच्छा उपयोग हो प्रतिष्ठा भी पहले की भाँति नहीं रह गई है। लेकिन इसके सकता है और उसकी अच्छी खाद बनाई जा सकती लिए योरपीय शिक्षा पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता। है। अन्य देशों में ऐसा होता भी है। 'कलकत्ता क्योंकि बेकारी की समस्या के लिए यहाँ की राष्ट्रीय और इंडस्टियल' गजट लिखता है-- सामाजिक व्यवस्था ही उत्तरदायी है । भारत में यदि ऊँची अन्य देशों की तुलना में भारतवर्ष की खेती बहुत शिक्षा का आदर घट गया है तो यह भारतीय राष्ट्रनायकों पिछड़ी हुई है और इसका एक प्रधान कारण है इस देश के लिए लज्जा की बात है। मनुष्य की जीविका के लिए में अच्छी और उपयोगी खाद का अभाव । वैज्ञानिकों का जैसे शिल्प और वाणिज्य का विस्तार ज़रूरी है, उसी प्रकार कहना है कि रासायनिक और खनिज पदार्थों की अपेक्षा उस शिल्प-वाणिज्य को भली भाँति चलाने के लिए कूड़े और मैले से कहीं अच्छी खाद बन सकती है। परन्तु शिक्षित व्यक्तियों की ज़रूरत है। पर आर्थिक कमज़ोरी के हमारे देश में ये चीजें नष्ट कर दी जाती हैं, उनका उचित कारण भारतीय युवकों की देशी-विदेशी दोनों डिगरियाँ उपयोग नहीं किया जाता। भारस्वरूप मालूम हो रही हैं । डाक्टर कोयलो ने बहु- अच्छी खेती के लिए खाद की आवश्यकता होती है । संख्यक भारतीय छात्रों को विदेशों में देखकर बेकारी की आजकल हमारे देश भारत में खेतों में टीक से खाद नहीं समस्या के नाम पर परोक्ष रूप से कटाक्ष किया है और डाली जाती, इसलिए यहाँ की खेती की पैदावार अन्य अभिभावकों के हज़ारों रुपये खर्च हो जाने पर कुछ दुख उन्नत देशों के मुताबिले बहुत कम है। ग्रेटब्रिटेन में प्रतिप्रकट किया है। पर डाक्टर कोयली का यह भाव समर्थन एकड़ जमीन में लगभग २५ मन और भारत में लगभग करने योग्य नहीं है।
७ मन गेहूँ उत्पन्न होता है। मिस्र में एक एकड़ ज़मीन परन्तु इंग्लैंड में शिक्षा के लिए जानेवाले भारतीय में लगभग १२ मन चावल पैदा होता है, पर भारत में छात्रों को दो बातों पर ध्यान देकर सावधान रहना चाहिए। इसका आधा भी नहीं होता।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
सामयिक साहित्य
१८१
बंगलोर के डाक्टर फ़ाउलर नामक एक प्रसिद्ध कृषि- पैलिटी खरीदारों की माँग को ठीक से पूरा नहीं कर पाती। विशेषज्ञ ने एक तरीका निकाला है जिसके द्वारा मैले से पता चला है कि इस खाद से प्रतिएकड़ ५० टन तक एक प्रकार की गन्धरहित और बहत ही उत्तम खाद तैयार (१ टन लगभग २७॥ मन) ईख होती है। जबकि साधारणहोती है। यदि उनके तरीके का प्रचार हो गया तो मैले तया एक एकड़ में २५ टन से अधिक नहीं पैदा होती । इस से अच्छी खाद तैयार की जाया करेगी। इसके अतिरिक्त खाद से तरकारियाँ भी बहुत अधिक तादाद में उत्पन्न स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी लाभ होगा, क्योंकि मैले की होती हैं। वैज्ञानिक विश्लेषण करके देखा गया है कि गन्दगी से लोग बच जायेंगे।
डाक्टर फ़ाउलर के तरीके से बनाई गई खाद में इतना बहुत प्राचीन काल से मैला एक बहुत अच्छी खाद रासायनिक परिवर्तन हो जाता है कि उसमें मैले का अंश माना जाता रहा है। जापान और चीन में तो इसका बिलकुल शेष नहीं रहता और मैले में रोगों के जो कीटाणु खाद के तौर पर बहुत अधिक उपयोग होता है। किसान पाये जाते हैं, वे भी नष्ट हो जाते हैं। लोग पैखानों से मैले को इकट्ठा करके खेतों में डालते हैं। म्युनिसिपैलिटियों को प्रतिवर्ष मैले की सफ़ाई में बहुत पर यह तरीका स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और घृणित बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है। यदि वे इस मैले से है। शंघाई की म्युनिसिपैलटी से एक ठेकेदार ने खाद के खाद बनवायें तो सफ़ाई का खर्च भी कम हो जाय और लिए मैला इकट्ठा करने का ठेका लिया है। वह म्युनि- खाद बेंचकर वे काफ़ी धन प्रतिवर्ष प्राप्त कर सकें। इसके सिपैलटी को इसके लिए ६ लाख रुपये साल में देता है। अतिरिक्त मैले को बाहर फेंकने से जो बीमारियाँ फैलती भारत में मैला एक घृणित चीज़ समझा जाता है, और हैं वे भी न फैलें । इस तरीके को काम में लाने के लिए इसलिए खाद के तौर पर इसका प्रयोग नहीं होता। यदि बड़ी बड़ी मशीनें खरीदने अथवा बड़ी पूँजी लगाने की चीन और जापान की स्थिति के अनुसार हिसाब लगाया ज़रूरत नहीं है। इसका प्रबन्ध बहुत कम खर्च पर और जाय तो पता चलेगा कि भारतवर्ष में प्रत्येक वर्ष सात आसानी से हो सकता है। आशा है, म्युनिसिपल बोर्ड अरब रुपये की खाद मैले के रूप में नष्ट हो जाती है। इस ओर ध्यान देकर राष्ट्र का उपकार करेंगे।
मैले से खाद बनाने का डाक्टर फाउलर का तरीका इस प्रकार है--मैले और शहर की अन्य गन्दी चीज़ों को
निराधार विधवा एक विशेष अनुपात में मिलाकर सर्द स्थान पर रख देते महात्मा गान्धी 'हरिजनसेवक' में लिखते हैं- . हैं। कुछ समय के बाद इसको बड़ी तेज़ आग में एक सजन ने जिनके कई स्वजन क्वेटा के भूकम्प उबालते हैं। आठ हफ्ते बाद यह मिश्रण बिलकुल में मर गये हैं, एक १७ वर्ष की युवती की दशा का वर्णन गन्ध-रहित बन जाता है और इसकी शक्ल फारम की करते हुए एक बड़ा हृदयविदारक पत्र लिखा है। वह साधारण खाद की भाँति हो जाती है। यह खाद ईख, युवती अपना पति, दो महीने का एक बच्चा, ससुर और केला, नारियल और तरकारियों की फ़सल के लिए बहुत देवर, यानी ससुराल के सभी स्वजनों को क्वेटा के भूकम्प ही मुफ़ीद होती है । डाक्टर फ़ाउलर के तरीके का प्रयोग में गँवा बैठी है। पत्र-लेखक सजन कहते हैं कि यह त्रावनकोर-रियासत की कीलन म्युनिसिपैलिटी ने किया है लड़की किसी तरह बच गई, और जो कपड़े उस वक्त और वह सही पाया गया है।
उसके तन पर थे वही
है। यह बहन __ मैसूर-म्युनिसिपैलिटी शहर के कूड़े-कचरे से प्रतिवर्ष उनके चाचा की लड़की है। उस भाई की समझ में यह तीन हज़ार टन खाद तैयार करती है। यह खाद इतनी नहीं आता कि किस तरह उस लड़की को आश्वासन दिया उत्तम होती है कि किसान लोग इसे बड़ी जल्दी खरीद लेते जाय, और उसका क्या किया जाय । पत्र समाप्त करते हुए हैं । इस खाद की खपत इतनी होने लगी है कि म्युनिसि- वे सजन लिखते हैं
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२
सरस्वती
[भाग ३६
"मैंने उसे उसकी मा के पास लाहौर में रख दिया वह वही द्वितीय राजकुमार है जिसकी मृत्यु १९०७ में है। लड़की तथा दूसरे रिश्तेदारों के सामने मैंने धीरे से हुई बताई जाती है। अभी इस मुक़द्दमे का फैसला यह चर्चा छेड़ी कि यह कैसा होगा अगर इसका पुनर्विवाह नहीं हुआ, पर 'अर्जुन' में एक लेख छपा है जिससे कर दिया जाय । तब कुछ लोगों ने तो मेरी बात को सहा- इसका वर्तमान स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। यहाँ हम नुभूति के साथ सुना और कुछ ने नाराजी प्रकट की। उसे उद्धृत करते हैं-- मुझे विश्वास है कि जो दशा मेरी इस भतीजी की हुई है, कभी-कभी हमें उपन्यासों के 'रोमान्स' के दर्शन वैसी ही दशा वहाँ अनेक लड़कियों की हुई होगी। क्या वास्तविक जीवन में भी मिल जाया करते हैं। भोवालआप इन अभागिनी विधवात्रों के लिए प्रोत्साहन के एक- संन्यासी-केस इसी प्रकार की एक घटना है। १६३३ के दो शब्द लिखेंगे ?"
नवम्बर से ढाका के सब-जज के इजलास में एक बहुत ही ____ मैं नहीं जानता कि जिन चीज़ों के अन्दर हमारे वहम सनसनीखेज मुक़द्दमा चल रहा है, जिसमें वादी (मुद्दई) सदियों से जड़ जमा चुके हैं उन पर मेरी क़लम या की ओर से एक हज़ार से अधिक व्यक्ति गवाही दे चुके हैं श्रावाज़ का क्या असर पड़ सकता है। मैंने यह बीसों और प्रतिवादी (मुद्दालेह) के गवाहियों की संख्या भी बार कहा है कि प्रत्येक विधुर को पुनर्विवाह करने का सम्भवतः कम-से-कम इतनी ही और शायद अधिक पहुँच जितना अधिकार है, उतना ही अधिकार प्रत्येक विधवा को जायगी। इस सनसनी-पूर्ण मुकद्दमे का वादी सिख-धर्माभी है। हिन्दू-धर्म में स्वेच्छा से पाला हुआ वैधव्य-व्रत न्तर्गत उदासी-मत का माननेवाला एक संन्यासी है, जो जहाँ अमूल्य आभूषण-रूप है; वहाँ बल-पूर्वक पाला गया अपने को ढाका-ज़िले की एक बड़ी रियासत भोवाल के वैधव्यव्रत अभिशाप रूप है । और मुझे तो यह महसूस हो राजा का द्वितीय राजकुमार बतलाता है। उसका दावा है रहा है कि अनेक तरुण विधवायें यदि वे शारीरिक अंकुश कि अदालत उसे भोवाल-राज्य का स्वामी घोषित कर दे। के भय से नहीं किन्तु हिन्दू-समाज के लोकापवाद के भय प्रतिवादी भोवाल-रियासत का प्रबन्ध करनेवाला कोर्ट से मुक्त हों तो बिना किसी संकोच के वे अपना पुनर्विवाह अाफ़ वार्ड स और द्वितीय कुमार की रानी विभावती देवी कर डालें । इसलिए क्वेटा की इस दुखिया बहन की जैसी हैं, जिनका कहना है कि भोवाल के द्वितीय कुमार की मृत्यु स्थिति में जो अभागिनी तरुण विधवायें हों उन्हें पुनर्विवाह सन् १९०७ में ही हो चुकी थी और वादी द्वितीय कुमार करने के लिए हर तरह से समझाना चाहिए, और उन्हें नहीं, बल्कि पञ्जाब का रहनेवाला एक जाट है, जो षड्यन्त्र ऐसा अभयदान दे देना चाहिए कि अगर वे फिर से विवाह करके भोवाल-रियासत पर कब्ज़ा करना चाहता है । करना चाहती हों तो समाज में उनकी ज़रा भी निन्दा नहीं संन्यासी का कहना है कि मैं भोवाल-रियासत के राजा ' होगी। इतना ही नहीं, बल्कि उनके लिए योग्य वर खोज राजेन्द्रनारायण राय का दूसरा पुत्र हूँ। हम लोग तीन • देने का भी पूरा प्रयत्न होना चाहिए । यह काम किसी भाई थे । मेरी पत्नी रानी विभावती खराब चरित्र की स्त्री
संस्था के किये नहीं हो सकता। यह तो खुद उन सुधा- है। वह राजपरिवार के डाक्टर से अनुचित प्रेम करती रकों को करना चाहिए जिनके कुटुम्ब या सम्बन्धियों में थी। रानी विभावती, उसके प्रेमी डाक्टर और रानी के स्त्रियाँ विधवा हो गई हों।
भाई ने मेरी हत्या करने के लिए षडयन्त्र किया। १९०७
में मैं बीमार रहा करता था। स्थान-परिवर्तन के बहाने वे भोवाल-संन्यासी-केस
लोग मुझे दार्जिलिंग ले गये। वहाँ डाक्टर ने मुझे, नवम्बर सन् १९३३ से ढाका के सब-जज के संखिया खिला दी, जिसके कारण मैं मृतप्राय हो गया। इजलास में एक सनसनीखेज मुक़दमा चल रहा अन्तिम संस्कार करने के लिए जिस समय मेरा शरीर है। एक संन्यासी का दावा है कि भोवाल-राज्य का श्मशान ले जाया गया, उस समय वहाँ भीषण तूफ़ान श्रा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
सामयिक साहित्य
१८३
गया और मूसलाधार वर्षा होने लगी। इसके कारणं जो अँगरेज़ सिविलियन विलायत से इस मुकदमे में गवाही लोग मेरे शरीर के साथ थे, उन्होंने भागकर एक छायादार देने आये थे । स्थान में शरण ली । उस समय श्मशान के निकट अदालत को जिन विषयों पर अपना निर्णय देना है उदासी साधुत्रों का एक दल ठहरा हुआ था। साधुओं ने उनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं'हरिबोल' की आवाज़ केवल एक ही बार सुनी। इस (१) संन्यासी का कहना है कि उसका शरीर रात को कारण उन्हें सन्देह हुआ और वे उस स्थान पर गये, जहाँ श्मशानघाट ले जाया गया और तूफ़ान आ जाने के पर मेरा शरीर एक स्खटिया में बँधा हुया लाश की भाँति कारण जलाया नहीं जा सका। रानी विभावती की ओर । रक्खा हुआ था। वर्षा का पानी शरीर पर लगातार पड़ने से कहा गया है कि मेरे पति की लाश सवेरे श्मशान ले के कारण मेरे अन्दर चेतना का संचार हो रहा था । साधुनों जाई गई थी और वहाँ जला डाली गई थी। को खटिया के ऊपर हल चल नज़र आई। उन्होंने रस्सियों (२) वादी की ओर से यह सिद्ध किया जा रहा है कि को खोलकर मुझे बाहर निकाला । इसके बाद उन्होंने भोवाल के द्वितीय राजकुमार को संखिया का विष दिया मेरी चिकित्सा की । मैं साधुओं के इस दल के साथ १६ गया था। प्रतिवादी का कहना है कि कुमार संखिया से वर्ष तक बङ्गाल से काश्मीर तक घूमता रहा । संखिया के नहीं, बल्कि हैज़े से मरे थे। विष के कारण मेरा मस्तिष्क खराब हो गया था और मुझे (३) प्रतिवादियों (रानी विभावती और कोर्ट श्राफ़ अपने पूर्व इतिहास और घर-द्वार का स्मरण न था। सन् वाड्स का कहना है कि वादी (संन्यासी) की आँखें भूरी १९२३ में साधुनों की चिकित्सा के फलस्वरूप मेरी मानसिक और छोटी, चेहरा गोल, शरीर का रंग गेहुँा तथा नाक अवस्था ठीक हो गई और मैं याद करके अपने घर भोवाल चपटी और छोटी है, जब कि द्वितीय कुमार की आँखें पहुँचा । पहुँचते ही मुझे मेरी वृद्धा दादी रानी सत्यभामा नीली, चेहरा लम्बा, अँगरेज़ों का-सा रंग तथा नाक देवी, बहनों और भानजों ने पहचान लिया। भोवाल- लम्बी और पतली थी। संन्यासी अँगरेज़ी नहीं जानता, रियासत के ६६ प्रतिशत निवासियों ने भी मुझे पहचान जब कि द्वितीय कुमार अँगरेज़ी-भाषा में पटु थे। जिस, लिया है। रानी विभावती यह स्वीकार नहीं करती कि मैं ही समय संन्यासी ने आकर अपने आपको द्वितीय कुमार उसका पति और भोवाल का द्वितीय कुमार हैं, क्योंकि घोषित किया था, उस समय वह बँगला में नहीं, बल्कि वह व्यभिचारिणी है और उसी ने मेरी हत्या के लिए हिन्दी में बातें करता था। संन्यासी ने कुमार के पूर्व-इतिषडयन्त्र किया था । कोर्ट अाफ़ वार्डस के प्रबन्धक भी यह हास के बारे में यह बतलाया है कि वे भारतीय वेष-भूषा नहीं चाहते कि भोवाल ऐसी बड़ी रियासत उनके कब्जे में रहते थे और भारतीय ढङ्ग से भोजन करते थे, जब से निकल जाय। इसलिए वे भी मेरा विरोध कर रहे हैं कि द्वितीय कुमार ज़्यादातर अँगरेज़ी पोशाक पहना करते .
और कह रहे हैं कि मैं भोवाल का द्वितीय कुमार नहीं, थे और अँगरेज़ी खाना भी खाते थे। बल्कि एक जाली व्यक्ति हूँ। अब अदालत मुझे भोवाल रानी विभावती ने अपने बयान में कहा है कि वादी का द्वितीय कुमार घोषित कर दे और मुझे मेरी रियासत (संन्यासी) हर्गिज़ मेरा पति नहीं है । यह कोई जाली दिलवाई जाय ।
व्यक्ति है। मेरे पति की मृत्यु १६०७ में ही दार्जिलिंग में ___ इस सनसनीखेज़ मुकद्दमे में विभिन्न प्रकार और श्रेणी हो चुकी है। मेरी सास तथा ननदों ने दुश्मनी के कारण के सैकड़ों व्यक्तियों की गवाहियाँ हुई हैं । हस्ताक्षर, फोटो, किसी जाली व्यक्ति को मेरे खिलाफ़ खड़ा कर दिया है। चिकित्सा, शरीर-विज्ञान आदि विषयों के बड़े बड़े विशे- उपर्युक्त मुकद्दमे में उदासी साधु की भी गवाही हुई षज्ञों ने इंग्लैंड से ढाका अाकर अपने बयान संन्यासी के है, जिसने कहा है कि उदासियों के जिस दल ने १९०७ पक्ष अथवा विपक्ष में दिये हैं। अनेक पेन्शनयाफ्ता में श्मशान घाट में ढाका के द्वितीय कुमार का उद्धार
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४
सरस्वती
जीवित अवस्था में बँधी हुई चारपाई से किया था, उसमें मैं भी था । एक व्यक्ति ने अपने बयान में कहा है कि मैं द्वितीय कुमार के शरीर के साथ श्मशान तक गया था, वहाँ पर तूफ़ान श्रा जाने के कारण हम लोग कुछ समय के लिए छाया में चले गये थे । तूफ़ान बन्द होजाने के बाद जब हम लोग श्मशान में लौट कर गये, वहाँ लाश नहीं मिली। इस पर खाली चारपाई को जलाकर हम लोग वापस लौट आये।
बादी की ओर से सैकड़ों गवाहों ने यह बयान दिया है कि १६०७ में पहले दार्जिलिंग में भोवाल के द्वितीय कुमार के मरने की ख़बर मिली। कुछ दिन बाद यह खबर सुनाई पड़ी कि कुमार की लाश तूफ़ान या जाने के कारण फूँकी नहीं जा सकी। इसके बाद यह अफ़वाह रही कि कुमार जीवित हैं और उदासी संन्यासियों के साथ इधर उधर विचरण कर रहे हैं ।
सड़कों की सफाई
ग्वालियर का 'जयाजी प्रताप' अपने एक सम्पाकीय नोट में लिखता है-
हाल में कराची के कारपोरेशन ( म्युनिसिपैलिटी) ने कुछ ऐसे क़ानून बनाये हैं, जिनके अमल में श्राने पर न सिर्फ़ वहाँ के बाज़ारों और सड़कों का शोरगुल ही बन्द हो जायगा, बल्कि सफ़ाई की हालत भी बहुत कुछ सुधर जायगी । हिन्दुस्तान के शहरों में इतना शोरगुल तो नहीं होता जितना किसी ज़माने में लन्दन के बाज़ारों में हुआ करता था, फिर भी लोगों को आराम पहुँचाने के लिए यहाँ जो शोर होता है उसे कम करने और सफ़ाई की हालत ठीक करने की बहुत ज़रूरत है । म्युनिसिपैलिटियों को अक्सर यह शिकायत रहती है कि लोग सफ़ाई के महत्त्व को नहीं समझते और ग्राम सड़कों पर भी हर तरह की गन्दगी फैलाते हुए पाये जाते हैं। ऐसा प्रायः सभी शहरों में पाया जाता है। इसके अलावा भिखमँगों की वजह से भी अक्सर सड़क पर चलनेवालों को परेशानी रहती है। कोई उनके पीछे पीछे मीलों तक माँगते चलते हैं, कोई सड़क के किनारे बैठकर अपने बदन के घाव या
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
कटे हुए हाथ-पाँव दिखाकर पैसा माँगने के इरादे से उनमें हमदर्दी पैदा करते हैं और कोई पहले से ही आशीर्वाद देकर अपना मतलब बनाना चाहते हैं ।
इन्हीं सब फ़तों से नागरिकों को बचाने के लिए कराची- कारपोरेशन ने क़दम बढ़ाया है । वहाँ एक तरफ़ सड़कों पर सीटी बजाने, ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने, गाली बकने, आवाज़ लगाकर चीज़ बेचने वग़ैरह की मनाई की ही गई है, दूसरी तरफ़ सड़क पर गन्दगी फैलाने की भी रोक की गई है। इसके अलावा यह भी क़ानून बना है कि कोई आदमी सड़क के किनारे बैठ कर अपने ज़ख्म या कटे हुए हाथ-पैर लोगों को दिखाकर भीख न माँगेगा। कोढ़ वग़ैरह छूत के मरीज़ों को शहर से बाहर रख देने का भी निश्चय हुआ है । कहने की ज़रूरत नहीं कि इन बातों के अमल में आने से शहरवालों को बहुत आराम पहुँचेगा ।
विविध प्रकार के प्राकृतिक उपद्रव 'आज' अपने सम्पादकीय नोट में लिखता है - चीन में कोई बात छोटी नहीं होती, सब बड़ी होती हैं। है भी वह बड़ा । दुनिया में सिर्फ़ चीन ही एक ऐसा देश है जिसके अधिवासियों की संख्या हम भारतवासियों से भी अधिक है, अतः यदि दैवी प्रकोप से चीनी भाई हमसे अधिक संख्या में मरें तो कोई आश्चर्य नहीं । खबर है कि पीली नदी की बाढ़ से १ लाख के ऊपर आदमी मरे हैं और दस लाख से ऊपर विपद्ग्रस्त हुए हैं । हम चीन के साथ हार्दिक समवेदना प्रकट करते हैं । अधिक संख्या में मरने और विपद्ग्रस्त होने का दुःख हम जानते हैं, श्रतएव चीन के दुःख से विशेषतया दुःखित हैं । विपदात्रों की तालिका हमारे घर में भी बढ़ती ही जाती है । क्वेटा का भूकम्प और उसके बाद की व्यवस्था के सम्बन्ध में कुछ न कहना ही अच्छा है । सीमाप्रांत के जिले जलमय हो गये हैं। आग भी लगी है । उनके सम्बन्ध में कुछ कहना और करना 'जायज़' है या नहीं, इसका ठीक पता हमें नहीं है । भूकम्प उधर अब भी श्रा रहे हैं। इधर हमारी ओर पानी का काल-सा हो रहा है । बीमारियाँ तो तरह तरह की यहाँ रहने को ही आई हैं।
।
www.umaragyanbhandar.com
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
समार कागति
इटली की महत्त्वाकांक्षा
होगी। और यही समझ कर लोग यह अन्दाज़ करते हैं ल ज ला रप की समस्या एक बार फिर कि इस मामले में ब्रिटेन का हस्तक्षेप करना असम्भव न
टेढी हो गई है। इटली के होगा। परन्तु ब्रिटेन के नये वैदेशिक मंत्री सर सैमुअलसर्वेसर्वा मुसोलिनी को ग्रेट- होर ने इधर यह कहा है कि ब्रिटेन इस मामले में अपनी ब्रिटेन का प्रस्ताव स्वीकार ग्रोर से कोई कार्रवाई नहीं करेगा। इसमें सन्देह नहीं
नहीं है और वे अबीसीनिया कि अबीसीनिया इस झगड़े को पंचायत से तय करने का ISKास पर चढ़ दौड़ना चाहते हैं। तैयार है। परन्तु इटली अकड़ता ही जाता है। उसके
ग्रेटब्रिटेन के राष्ट्रसंघ-मंत्री पास प्रबल सेना है और वह अाधुनिक शस्त्रास्त्रों से भी मिस्टर इडेन ने मुसोलिनी से भेंट की थी और उनसे प्रस्ताव भले प्रकार सजित है। इसके सिवा वह अपना साम्राज्य किया था कि वे अबीसीनिया से इटली को उक्त विवाद- बढ़ाना चाहता है, और उसके लिए अबीसीनिया का राज्य ग्रस्त भूभाग दिला देंगे और उसे अपने अधिकृत भूभाग सबसे अधिक सुभीत का है। फिर उसके साथ का का एक अंश देकर संतुष्ट कर लेंगे। अबीसी निया को एक झगड़ा भी काफ़ी तूल पकड़ गया है । तब इटली उसे बन्दरगाह की ज़रूरत है ही, अतएव इस प्रलोभन से वह सस्ता कैसे छोड़ सकता है ? राष्ट्र संघ की अगली बैठक उक्त भूभाग इटली को खशी खशी दे देगा। परन्तु मुसा- के बाद इन दोनों राज्यों के बीच युद्ध छिड़ जाने की पूरी लिनी को ब्रिटेन के वैदेशिक विभाग के महत्त्वपूर्ण अधि- सम्भावना है। यह स्पष्ट है कि अबीसीनिया इटली का कारी का यह प्रस्ताव नहीं पसन्द हया। वे तो अबीसी- सामना नहीं कर सकेगा, परन्तु वहाँवाले बिना युद्ध किये निया को अपने अधीन करने का निश्चय-सा किये हुए बैठे हार मान लन का तयार नहा है। चाह जा हा, इस हैं। इसी से उनके प्रतिनिधियों ने पिछले कमीशन का भी समस्या ने यह बात एक बार फिर प्रकट कर दी है कि कार्य नहीं होने दिया। ऐसी दशा में यह स्पष्ट ही है कि राष्ट्र-संघ एक दिखाऊ चीज़ भर है, जिस मतलब के ऊँट किस करवट बैठेगा। क्योंकि इस मसले में जो ग्रेट- लिए उसकी स्थापना हुई थी उसे उसने एक बार भी पूरा ब्रिटेन अभी तक विशेष दिलचस्पी ले रहा था उसने नहीं किया है। भी कह दिया है कि वह इटली के मार्ग में किसी तरह की बाधा नहीं डालेगा। अतएव इटली के अबीसीनिया पर
परादि
अभ्युदय आक्रमण करने के मार्ग से सारी बाधायें दूर हो गई हैं वर्सेलीज़ के सन्धि-पत्र को जर्मनी ने फाड़ कर फेंक और वह स्वेच्छानुसार कार्य करने को स्वतन्त्र है । मुसोलिनी दिया है और एक स्वाधीन राष्ट्र की भाँति वह अपने राष्ट्र के भाषणों से प्रतीत होता है कि वह अवीसीनिया को उसी की रक्षा और उसके अभ्युदय की स्वेच्छानुसार व्यवस्था प्रकार अपने अधिकार में कर लेना चाहता है, जैसे भी कर रहा है। उसकी इस कार्रवाई का प्रभाव दूसरे जापान ने मंचूरिया को कर लिया है। और इसमें सन्देह पराजित राष्ट्रों पर भी पड़ा है और वे भी अब अपनी गर्दन नहीं है कि ऐसा होने में ब्रिटेन की विशेष रूप से हित-हानि सीधी करते हुए दिखाई देते हैं। ग्रास्ट्रिया और हंगरी
१८५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६
सरस्वती
ने भी अपनी अपनी सेनाओं के बढ़ाने की माँग की है। यही नहीं, हाल में तो ग्रास्ट्रिया ने यह व्यवस्था भी कर दी है कि उसके राजघराने के लोग जो अभी तक देश-निकाले का दण्ड भोग रहे हैं, आस्ट्रिया में लौट श्रावें और अपनी खानगी सम्पत्ति का उपभोग करें । ताज्जुब नहीं कि कुछ दिनों के बाद हैप्सवर्ग घराने के वर्तमान उत्तराधिकारी राजकुमार प्रोटो आस्ट्रिया के सिंहासन पर भी बिठा दिये जायें। जर्मनी ने भी कैसर के जर्मनी वापस आ जाने की सारी बाधायें हटा दी हैं और
श्चर्य नहीं, भूतपूर्व सम्राट् विलियम अपनी सुविधा के अनुसार फिर जर्मनी में श्रा जायें। इन परिवर्तनों से लाभ उठाने में तुर्की के कमालपाशा कैसे उदासीन रह सकते हैं ? उन्होंने भी दरे दानियाल के ग्रास-पास के चलों में पहले की ही भाँति फिर किलेबन्दी करने की माँग पेश की है । इस तरह महायुद्ध के ये पराजित राष्ट्र अपनी स्वतन्त्रता पूर्ण रूप से व्यक्त कर रहे हैं और वे सन्धिपत्रों की खुल्लम-खुल्ला उपेक्षा करते जा रहे हैं । सारांश यह कि योरप के बड़े बड़े राष्ट्रों में एकमत नहीं रहा और जो सन्धि-पत्र उन्हें एक सूत में बाँधे हुए था उसे जर्मनी ने नष्ट कर डाला है और वे अब भविष्य की चिन्ता से अपने अलग अलग दल संगठित करने में लगे हुए हैं । योरप की यह अवस्था त्रासजनक है और इससे यह भी प्रकट होता है कि उसका भविष्य जोखिम से शून्य नहीं है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
और मंचूरिया जैसे बड़े बड़े देश हो गये हैं । जापान की आबादी में अत्यधिक वृद्धि होने से उसको भारत जैसे बड़े देश की ज़रूरत है । उसके सौभाग्य से उसके पड़ोस में चीन का बड़ा देश मौजूद ही है, जो गत २० वर्ष से वहाँ के स्वार्थी रईसों तथा शक्तिशाली व्यक्तियों के परस्पर के युद्धों का अखाड़ा बना हुआ है। चीन को अपनी संरक्षा में ले आने के लिए इससे अधिक उपयुक्त समय उसे कदाचित् ही कभी प्राप्त हो सके । यह बात जापान से छिपी नहीं है और वह अपने उद्देश की सिद्धि में लगा हुआ है । अभी हाल में उसने मंचूरिया के दक्षिण के उत्तरी चीन के विशाल प्रदेश को चीनी सेनाओं से खाली करवा लिया है और वह वहाँ के शासन प्रबन्ध पर कड़ी नज़र रखता है। ऐसा जान पड़ता है, चीन के उत्तरी प्रान्तों में जापान ने अपना पूरा प्रभाव स्थापित कर लिया है। रूस, ब्रिटेन तथा अमरीका के संयुक्त राज्य को जापान की इस प्रभुतावृद्धि से हानि होने की संभावना है । परन्तु इनमें से रूस अधिक चिन्तित है । उसे डर है कि कहीं जापान बढ़कर सैबेरिया के पूर्व की ओर खाली पड़े हुए बहुत बड़े विशाल भूखण्ड पर अधिकार न कर ले । निस्सन्देह अपने राज्य की रक्षा के लिए उसने अपनी शक्ति भर पूरी व्यवस्था कर ली है, तो भी वह शंकित रहता है । ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अपने अधिक निकट के झमेलों में फँसे हुए हैं। उन्हें चीन की ओर ध्यान देने की फ़ुर्सत ही नहीं है। चीन के मसले को लेकर इन दो महाशक्तियों में से कोई एक या दोनों मिलकर कम-सेकम अभी कुछ समय तक जापान से युद्ध करने को नहीं तैयार हैं। रहा रूस सो उसने अपनी मंचूरियावाली रेलवे जापान के हाथ बेचकर अपने इसी मनोभाव को व्यक्त किया है कि वह भी जापान से भिड़ना नहीं चाहता। ऐसी दशा में जापान चीन में स्वेच्छानुसार अपनी सत्ता कायम कर सकता है और वह तदनुसार कर भी रहा है और यदि दैवदुर्विपाक से वैसी कोई विघ्न-बाधा न उपस्थित हुई तो कुछ ही वर्षों में जापान एशिया के उस भाग का शासक नहीं, तो कम से कम नियन्ता तो ज़रूर ही हो जायगा ।
आपान का प्राबल्य
इधर एशिया में जापान की प्रभुता बढ़ती जा रही है । स्याम, अफ़ग़ानिस्तान और ईरान यदि देशों की सरकारें अब जापानी विशेषज्ञों को अपने अपने यहाँ बुला कर उनका उपयोग करने लगी हैं। अभी तक यह गौरव केवल यrरपीयों को ही प्राप्त होता था। यही नहीं, जापान का व्यापार भी प्रायः सभी एशियाई तथा योरपीय देशों में जमता जा रहा है । इसके साथ ही वह बड़ी सावधानी के साथ अपने साम्राज्य का विस्तार भी करता जा रहा । सन् १८६५ में उसके पास केवल उसके द्वीप । परन्तु अब इस समय उसके क़ब्ज़े में कोरिया
भर
www.umaragyanbhandar.com
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २
]
संसार की गति
मुसलमानी राज्यों की प्रबलता
मुसलमानी राज्यों में तुर्की की तरह ईरान, अफ़ग़ा निस्तान और इब्न साऊद का अरब भी उन्नति के मार्ग पर तर है । इन सभी देशों को एक बड़े ज़माने के बाद शान्ति और व्यवस्था नसीब हुई है । फलतः ये दिनप्रति-दिन उन्नति करते जा रहे हैं। पाश्चात्य देशों के अनुकरण पर इन सभी देशों में शासन प्रणाली व्यवस्थित की गई है और देश को धनधान्य से पूर्ण करने के लिए खेतीबारी और उद्योग-धन्धों को ही प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है, किन्तु जनता के सामाजिक जीवन में स्वयं सरकार की ओर से ही परिवर्तन पर परिवर्तन किये जा रहे हैं । जो पुरानी बातें राष्ट्र की उन्नति के मार्ग में बाधक प्रमाति होती हैं उनका स्वयं वहाँ की सरकारें ही निषेध कर रही हैं । इस सम्बन्ध में तुर्की का आदर्श ईरान ने भी ग्रहण किया है । कहने का मतलब यह कि एशिया का यह भाग पहले की अपेक्षा अधिक प्रगतिशील हो गया है ।
परन्तु इन मुसलमानी प्रगतिशील राज्यों में भी अधिक महत्त्व पकड़ गया है अरबों का राष्ट्रीयतावाद । किसी समय अरबों का साम्राज्य बहुत विस्तृत था और प्रारम्भ के खलीफा के ज़माने में संसार में अरबों का प्रभाव सबसे अधिक बढ़ गया था । मुख्य अरब की भौगोलिकसीमाओं के बाहर पेलेस्टाइन, ईराक, सीरिया, मिस्र, यूनिस, अल्जीरिया और मरक्को में आज भी अरबी सभ्यता का व्यापक रूप से अस्तित्व बना हुआ है । और वर्तमान राष्ट्रीयतावादी अरब राजनीतिज्ञों ने यह अपना ध्येय
लिया है कि अरबों के ये देश और मुख्य अरब एक बार फिर एकता के सूत्र में बँधकर अपने ऐतिहासिक गौरव को प्राप्त करे । निस्सन्देह यह वर्तमान राजनीति का एक विकट प्रश्न है और धीरे धीरे यह भयावह रूप धारण करता जाता है। क्योंकि अब लोग अपने उद्देश की सिद्धि के लिए व्यवस्थापूर्वक अपना संगठन कर रहे हैं। समाचारपत्रों एवं आधुनिक योरपीय साहित्य को उन्होंने अपनाकर अपने रबी-साहित्य को पीछे नहीं रह जाने दिया है । यही कारण है कि उनके दिसम्बर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
१८७
१६३१ के पैक्ट तथा जेरूसलेम की उनकी महासभा का सारे अरबी भाषी देशों में स्वागत ही नहीं हुआ है, किन्तु इस सभा की शाखा सभायें भी संसार के सभी मुसलमानी देशों में क़ायम हो गई हैं । अरबी भाषी देशों में तो वर्षों से व्यवस्थापूर्वक ये सभायें अपना कार्य कर रही हैं । मिस्र, सीरिया, पेलेस्टाइन और अल्जीरिया में जो राष्ट्रीयता का उग्र प्रदर्शन होता रहता है वह सब अपना कुछ विशेष अर्थ रखता है । और जिन ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस और इटली के अधिकार में ये अरबी देश हैं वे इसी कारण अरबों के राष्ट्रीयतावाद को सन्देह की दृष्टि से देखते हैं ।
बात यह है कि ये अरब लोग पहले की तरह अपने क़बीलों के युद्धों में नहीं लिप्त हैं। उसके स्थान में वे संसार के वर्तमान स्वाधीनता के विचारों से प्रभावित होकर उन्हें आत्मसात करते जा रहे हैं। जिन तुर्कों ने आकर उन्हें उनके ऐतिहासिक गौरव से वञ्चित किया था उनको धराशायी करने में अरबों ने कुछ सोच-समझकर के ही योगदान दिया था । यह उसी प्रयत्न का परिणाम है कि आज नेज्द के सुल्तान मुख्य अरब के अधिकांश के स्वाधीन शासक हो गये हैं एवं ईराक और यमन तथा ट्रांस जारडोनिया भी एक प्रकार से स्वाधीन राज्यों के रूप में परिणत हो गये हैं । और यदि राष्ट्रसंघ की मैंडेटेरी - पद्धति के क़ानून का पालन किया गया तो एक दिन पेलेस्टाइन और सीरिया भी स्वाधीन राज्य हो जायँगे । रहे उत्तरी अफ्रीका के मुसलमानी देश सो इनमें तो मुसलमान नेता अपने कार्य में बराबर लगे ही हुए हैं। मिस्र को उन्होंने एक प्रकार से स्वाधीन बना ही लिया है। ट्रिपोली, ट्यूनिस और अल्जीरिया तथा मरक्को भी सावधान नहीं हैं और यद्यपि इन देशों के स्वामी फ्रांस, स्पेन, इटली आदि अपना कब्ज़ा उन पर से राज़ी राज़ी नहीं उठावेंगे, तो भी यह स्पष्ट है कि वे अरबी संस्कृति को किसी तरह दबा नहीं पावेंगे । इससे यह भले प्रकार प्रकट हो जाता है कि अरबाज शब्द के सच्चे अर्थ में सचमुच अरब बन रहे हैं और यह जहाँ उनके लिए प्रोत्साह जनक है, वहाँ योरप की महाशक्तियों के लिए विशेष चिन्ता का कारण भी है ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादक
यनाट
भारत की राजनीति
अपने अपने दल का संगठन कर रहे हैं। ऐसी दशा में ये शासन-विधान के कानन को यह प्रश्न उठना स्वभाविक ही है कि आखिर राष्ट्रीय महा I पार्लियामेंट की दोनों सभात्रों सभा का आगे क्या प्रोग्राम होगा। al ने पास कर दिया है। अब यह तो प्रत्यक्ष ही है कि राष्ट्रीय महासभा नये शासन.
उस पर सम्राट के हस्ताक्षर विधान के अगले चुनाव में अपनी पूरी शक्ति के साथ होना भर बाकी है। कहने लड़ेगी और यह भी जानी हुई बात है कि उसकी कदाचित का मतलब यह है कि अगले एक-दो प्रान्तों को छोड़ कर सभी जगह जीत भी होगी।
वर्ष से भारत का शासन- परन्तु इस जीत से यदि देश का लाभ न हुअा, अर्थात् अपनी प्रबन्ध नये शासन-विधान के अनुसार होने लगेगा। ऐसी अडंगे की नीति के कारण राष्ट्रीय महासभावालों ने सरदशा में राष्ट्रीय महासभा का क्या कर्तव्य होगा, इस पर कारी पदों का नहीं ग्रहण किया तो अवस्था विषम हो देश के सजग नेता अभी से विचार करने लगे हैं । राष्ट्रीय जायगी । इसी से कुछ लोग कह रहे हैं कि राष्ट्रीय महासभा महासभा की कार्य-समिति की जो बैठक वर्धा में होने जा अन्य प्रगतिशील दलों को भी अपने साथ लेकर चुनाव रही है उसमें इस विषय पर भी विचार होगा।
में लड़े और तब देखे कि वह अपने बहुमत से देश के इतना तो स्पष्ट ही है कि नये शासन-विधान में शासन प्रबन्ध में कोई महत्त्व का परिवर्तन करा सकती है पहले की अपेक्षा कहीं अधिक लोगों को वोट देने का या नहीं । केवल अपने बल के भरोसे दूसरे राष्ट्रीय विचारअधिकार होगा। इसके सिवा प्रान्तीय शासन पूर्ण रूप वाले दलों की उपेक्षा करने की उसकी नीति कारगर नहीं से भारतीय मंत्रियों के हाथ में श्रा जायगा । इस प्रकार साबित हुई है । अतएव यह आवश्यक हो गया है कि शासन-प्रणाली में महत्त्व का परिवर्तन होगा, जिसका वह अन्य प्रगतिशील दलों का सहयोग प्राप्त करने का उपयोग यदि पिछली बार की भाँति राष्ट्रीय महासभा के अवश्य प्रयत्न करे। ऐसा करके वह अपने बल की ही नेता इस बार भी नहीं करेंगे तो इस बार भी देश का वृद्धि करेगी। अाखिर नया शासन विधान देश में जारी ही शासन-प्रबन्ध उन्हीं के जैसे लोगों के हाथ में चला होगा और मुसलमान एवं रईस तथा महाजन उससे सहजायगा जिनकी नीति का कटु अनुभव उन्हें पिछले योग करेंगे ही, और राष्ट्रीय महासभावाले भी चुनाव लड़ेंगे आन्दोलन में भले प्रकार हो चुका है।
ही । तब यदि वह यह कार्य अन्य राजनैतिक दलों से सह. राष्ट्रीय विचार के लोगों की अनुपस्थिति में सन् योग करके करें तो इससे उनकी प्रतिपत्ति और अधिक बढ़ १६१८ के शासन-सुधारों से जिन व्यक्तियों ने जायगी और तब सम्प्रदायवादी एवं सत्ताधारी लोग भी सहयोग किया था उनमें से कई-एक व्यक्तियों ने अपनी अल्प संख्या के कारण राष्ट्र का किसी तरह का काफ़ी प्रतिपत्ति अपने अपने क्षेत्रों में कायम कर ली अहित न कर सकेंगे । परन्तु यह सब तभी सम्भव हो है और वे अगला चुनाव लड़ने के लिए अभी से सकेगा जब राष्ट्रीय महासभा के कार्यकर्ता अधिक विस्तृत तैयार होने लगे हैं । इस सिलसिले में मुसलमान सरकार दृष्टिकोण से इस विकट प्रश्न पर धीरता के साथ विचार की दी हुई सुविधाओं से पूर्ण लाभ उठाने की तैयारी कर करेंगे, साथ ही भले प्रकार निश्चय कर चुनाव में भी पूर्ण रहे हैं। उनके सिवा बड़े बड़े रईस तथा महाजन भी सहयोग के साथ भाग लेंगे।
१८९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
सम्पादकीय नोट
१८९
प्रसन्नता की बात है कि राष्ट्रीय महासभा का ध्यान इस सम्बन्ध में वहाँ के अधिकारियों ने दृढ़ता से स्थिति को इस अोर है। यही नहीं, वह इस प्रश्न को भी हल कर काबू में रक्खा, अपनी न्यायनिष्ठा का परिचय दिया, लेना चाहती है कि कौंसिलों में जाकर उसके दल के नेता अपनी सजगता से वहाँ कोई वैसी दुर्घटना घटित न होने मंत्रियों के पद ग्रहण करें या न करें । आशा है कि दी जिसकी आशंका थी। इस सब के लिए वे लोग राष्ट्रीय महासभा के कार्यकर्ता इन सभी विषयों के सम्बन्ध निस्सन्देह प्रशंसा के पात्र हैं। में महासभा की स्थिति को स्पष्ट करने की ओर ध्यान देंगे। इसमें सन्देह नहीं है कि यदि इस मसले को मुसलतभी कार्य के मार्ग का निर्देश हो सकेगा और लोग पहले मान नेता धैर्य और संयम के साथ सुलझाने का प्रयत्न की भाँति देश-सेवा के कार्य में लग सकेंगे।
करते तो सिक्ख-नेता इतने नासमझ नहीं थे कि वे मुसल
मान-नेताओं के मस्जिद न गिराने के आग्रह की उपेक्षा शहीदगंज की मस्जिद
का मामला लाहार के शहीदगंज नाम के मुहल्ले में सिक्खों के गुरुद्वारे के भीतर एक पुरानी मस्जिद है। यह मस्जिद एक ज़माने से सिक्खों के अधिकार में है। इसके लिए मुसलमानों से उनका मुकदमा भी हो चुका है, जिसमें सिक्खों की जीत हुई है। इसी जुलाई के प्रारम्भ में सिक्खां ने इस पुरानी मस्जिद को गिरा देना चाहा। इसकी खबर पाकर लाकार के मुसलमान उत्तेजित हो उठे और उन्होंने उस मस्जिद के गिराने के कार्य में बाधा डालने के लिए भयकारक प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। पलतः सरकारी अधिकारियों का कानून और व्यवस्था की रक्षा के [ऊपर शहीदगंज की मस्जिद थी जिसे सिक्खों ने ढहा दिया है । नीचे चिराग़ शाह की लिए हस्तक्षेप करना पड़ा। मस्जिद है जिसे पंजाब सरकार ने मुसलमानों को उसके एवज में देने का निश्चय किया है।
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
ही करते । परन्तु जब मुसलमानों की भीड़ों ने बलपूर्वक है। परन्तु यदि यही बात वे किसी पुस्तक का या किसी सिक्खों को उस अप्रिय कार्य से विरत करना चाहा तब लेखक का नाम लेकर कहते तो उन्हें लेने के देने पड़ सिक्ख भी उत्तेजित हो उठे और उन्होंने अपने नेताओं जाते । बच्चों की किताबों में क्या, यहाँ तो प्रौढ़ों तक की की अवज्ञा करके मस्जिद को गिरा दिया। वह मस्जिद किताबों में इतिहास-सम्बन्धी भूलें थोड़ी नहीं, अधिक गत १७० वर्षों से सिक्खों के अधिकार में है और उपासनागृह से अधिक संख्या में पाई जाती हैं । के रूप में उसका कभी उपयोग नहीं हुअा। मुसलमानी समय उदाहरण के लिए ऐसी प्रसिद्ध पुस्तकों तक का में उसमें अदालत होती थी और कतिपय सिक्खों को वहाँ नामोल्लेख किया जा सकता है जो वर्षों से स्कूलों में ही नहीं, से कठोर से कठोर दण्ड दिये गये हैं। अतएव वह कालेजों और यनिवर्सिटियों तक में पाठ्य-पुस्तकों के रूप सिक्खों की दृष्टि में भी और न सही तो एक ऐतिहासिक में पढ़ाई जाती हैं और उनकी इतिहास-सम्बन्धी एक-दो मस्जिद तो अवश्य ही थी । दुःख की बात है कि मुसल- नहीं पचीसों भूलों की ओर कोई ध्यान तक नहीं देता। मानों की उग्रता के कारण सिक्खों ने उसे अन्त में गिरा जिन लोगों ने साहस करके उनकी भूलों का निर्देश किया देना उचित समझा।
है उनके सत्परामर्श की ओर अाज तक किसी ने ध्यान ___ मस्जिद के गिराये जाने पर मुसलमानों ने और भी . नहीं दिया और उनके संस्करण के संस्करण निकलते जा रहे उग्ररूप धारण किया और कई दिनों तक लाहौर उनके हैं। कदाचित् उनके विद्वान् रचयिता भूल-स्वीकार कर लेने कारण भयावह स्थिति को प्राप्त रहा। अन्त में जब कति- में अपनी हेठी समझते हों। इससे इतना तो साफ़ पय नेताओं ने उनके आन्दोलन की निन्दा की तब वे ही है कि हिन्दीवाले या तो इतिहास जानते ही नहीं और शान्त हुए और अब वहाँ पूर्ण शान्ति विराजमान है। यदि जानते हैं तो वे उसके विचार-क्रम को हृदयङ्गम
लाहौर की इस घटना ने वहाँ के मुसलमानों और करने से मुकर जाते हैं। चाहे जो हो, यह सचमुच सिक्खों को एक दूसरे को एक-दूसरे से जुदा कर दिया आवश्यक है कि ऐसी एक भी पुस्तक पाठ्य पुस्तकों में नहीं है और उनमें पहले जैसा सम्बन्ध फिर स्थापित होने में ली जानी चाहिए जिसमें इतिहास-विरुद्ध बातें लिखी हों। अब कुछ समय लगेगा । क्या ही अच्छा होता कि इन दोनों जातियों के नेता अब भी चेत जायँ और जो हो
ग्रामसुधार का आयोजन गया सा हो गया, ऐसा समझकर अापसी मेल-जोल बढ़ाने भारत ग्रामीणों का देश है। यहाँ की जनसंख्या के लिए यत्नवान हों । इस अवसर पर सिक्खों ने शान्ति ग्रामों में ही निवास करती है और यहाँ का प्रधान पेशा के साथ इस भयंकर परिस्थिति का सामना किया है, खेती है। केवल १० फ़ी सदी लोग उद्योग-धन्धों या इसके लिए वे कम प्रशंसा के पात्र नहीं हैं । आशा है, ज्यों नौकरी-चाकरी के द्वारा अपना निर्वाह करते हैं। परन्तु ८० ज्यों समय बीतता जायगा, इन दोनों जातियों के बीच फ्री सदी जनता को खेती-बारी पर ही गुज़र करनी पड़ती है। की कटुता अपने आप शान्त हो जायगी। वास्तव नई सभ्यता के प्रचार के पहले भारतीय ग्रामीणों की में यही आवश्यक भी है।
दशा बहुत कुछ सन्तोषजनक थी । उनके समाज का संगठन
ही ऐसा था कि साधारण समय में उन्हें किसी भी तरह की हिन्दी में इतिहास-ज्ञान की उपेक्षा कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता था। उनकी सारी हिन्दी के एक विद्वान् लेखक ने अभी हाल में हिन्दी- आवश्यकतायें उनके गाँवों में ही पूरी हो जाती थीं। वालों का ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट किया है कि कम- परन्तु महायुद्ध ने घोर संकट उपस्थित कर दिया । से कम स्कूली किताबों में ऐसी बातें न लिखी जाया करें उसके फल-स्वरूप संसार के बड़े बड़े सम्पन्न देशों की जो इतिहास की दृष्टि से अशुद्ध हों। बात बहुत समुचित आर्थिक दशा डाँवाडोल हो गई। तब बेचारा भारत
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या २]
सम्पादकीय नोट
१९१
उसकी चपेट में आने से कैसे बच सकता था ? भारत की केवल सरकारी उद्योग तथा सहयोग विभाग के अधिकारी आय का मुख्य द्वार अाज भी खेती-बारी है, और अन्न तथा सरकारी टेक्सटाइल इंस्टिट्यूट के प्रिंसपल की आदि के बाज़ार की मंदी ने भारतीय किसानों को कहीं का अांशिक सत्ता उस समिति पर रहेगी। समिति की पूँजी न रक्खा। वे अपनी खेती की उपज को बेच कर अाज न ५ लाख रक्खी गई है । १५ रुपये फी हिस्से के हिसाब से भूमि-कर दे पाते हैं, न वह उनके निर्वाह के लिए ही पर्याप्त १० हजार हिस्सों-द्वारा यह समिति अपना कार्य चलाने के होता है।
लिए धन एकत्र करेगी। जो पूँजी सरकार प्रदान करेगी ऐसे ही दयनीय दशा को प्राप्त भारतीय किसानों की वह बुनाई का धन्धा बढ़ाने के लिए सहायता के रूप में ओर लोक-नेताओं का तथा भारत सरकार का भी ध्यान लगाई जायगी। इस समिति की उपसमितियाँ प्रत्येक जिले गया है। इसी से पिछले दिनों ग्राम-सुधार की काफ़ी में खोली जायँगी। इस समिति के अधिकारी बुनकरों को चर्चा रही है। परन्तु अभी तक किसी तरह की कोई योजना कों और रुई की ही व्यवस्था नहीं करेंगे, किन्तु उन्हें जनता के सामने नहीं आई है । हाँ, मदरास तथा संयुक्त- बुनने और रँगने की शिक्षा भी देंगे तथा उनके तैयार प्रान्त की सरकारों ने अपनी अपनी स्कीमें कुछ कुछ प्रकट किये हुए माल की बिक्री का भी प्रबन्ध करेंगे। इस प्रकार की हैं।
अर्थ-संकट से पीड़ित किसानों के लिए बुनाई के धन्धे की मदरास की प्रान्तीय सरकार को भारत-सरकार से जो यह व्यवस्था की गई है उससे वहाँ के किसानों का ग्राम-सुधार के लिए जो धन दिया गया है उसका १४.३७ लाख रुपया उसने सिंचाई की व्यापक व्यवस्था करने संयुक्त प्रान्त की सरकार भी ग्राम-सुधार के लिए एक के काम में खर्च करने का निश्चय किया है। उसका प्रान्त-व्यापी प्रोग्राम तैयार कर रही है। वह भी सिंचाई अनुमान है कि सिंचाई की व्यवस्था कर देने से उपज की सुविधा कर देने के लिए सारे प्रान्त में 'ट्यूब-वेल' बढ़ेगी और बेकारी भी घटेगी। कदाचित् इस व्यवस्था में बनवाने का तथा देहातों में बिजली चलाने की व्यवस्था लाभ देखकर उसने अगले वर्ष १४८८ लाख रुपया का आयोजन करना चाहती है। इस सिलसिले में ठोस
और उसके बाद १६.७५ लाख रुपया लगाने का विचार कार्य करने के लिए इन प्रान्तों के शिक्षा मंत्री ने जो नई किया है। इस प्रकार तीन वर्षों के भीतर ५० लाख स्कीम तैयार की है उस पर अभी विचार हो रहा है। परन्तु रुपया सिंचाई की प्रान्तव्यापी व्यवस्था करने में लगाने का उसकी जो रूप-रेखा सामने आई है उससे जान पड़ता है विचार किया गया है। इस रक़म में ६ लाख रुपये की कि मदरास की तरह यहाँ भी ग्राम-सुधार के सम्बन्ध में जो कमी आती है उसकी पूर्ति के लिए प्रतिवर्ष २ लाख बहुत कुछ ठोस ही कार्य होगा। रुपये की प्रान्तीय गाय से अलग व्यवस्था की गई है। इसमें सन्देह नहीं है कि ग्राम-सुधार के लिए सरकार इस प्रबन्ध से मदरास की सरकार अपने प्रान्त के कृषकों जो कुछ भी कार्य करेगी उस सबसे ग्रामीणों की बिगड़ी हुई को सिंचाई के उपयुक्त साधन प्रस्तुत कर देना चाहती है, दशा का बहुत कुछ सुधार होगा। परन्तु उनकी वर्तमान जिससे कृषि की एक भारी असुविधा दूर हो जाय । अवस्था में तब तक वाञ्छनीय परिवर्तन न हो सकेगा जब ___ इसके सिवा मदरास-सरकार ने कपड़े की बुनाई का तक उन्हें यह विश्वास नहीं हो जाता कि उनकी जोत की काम भी सर्वसाधारण के लिए खोलने का प्रबन्ध किया भूमि उनकी अपनी है और वह उनकी बपौती है। है। इस वर्ष वह इस काम में ५६,५०० रुपया व्यय करने का निश्चय कर चुकी है। इसके लिए उसने 'प्रान्तीय बुनकर-
एक लेखक का कटु अनुभव सहयोग-समिति' की स्थापना मदरास शहर में की है। काशी जी से 'सनातनधर्म' नाम का एक साप्ताहिकइसका प्रबन्ध गैर सरकारी आदमियों के द्वारा होगा। पत्र प्रकाशित होता है। यह महामना पंडित मदनमोहन
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९२
सरस्वती
[भाग ३६
+
+
+
+
मालवीय जी के संरक्षण तथा संचालन में निकलता है। हैं हालां कि उन्हें कर्ता का चिह्न तक नहीं मालूम है । यह अखिल भारतीय सनातनधर्मसभा का साप्ताहिक मुख- इसके बाद 'पटना' के किसी पत्र में आप प्रफ रीडर पत्र भी है। इसमें सनातन-धर्म-सम्बन्धी प्रति सप्ताह धुरन्धर हुए। बाद को उसके सहकारी सम्पादक हो गये। दो वर्ष विद्वानों के लिखे हुए गुरु-गम्भीर अच्छे अच्छे लेख छपते तक यहाँ रह कर अापने यह 'देखा' कि हिन्दी-पत्रों के
ई के अंक में 'हिन्दी संसार में क्या सम्पादक 'सम्पादकीय' नहीं लिखते हैं, साथ ही पुस्तकदेखा' शीर्षक एक लेख छपा है। इसे डाक्टर बनारसी- प्रकाशकों का भी इसी समय कटु अनुभव हुअा। अब प्रसाद भोजपुरी 'रचनानिधि' ने लिखा है। यह लेख आपको साहित्य-सेवा से घृणा हो गई और आप राजनैतिक सनातनधर्म के किस सम्प्रदाय के किस सिद्धान्त के प्रति- क्षेत्र में काम करने लगे। पादन के लिए लिखा गया है, यह हम नहीं जान सके। तदनन्तर श्राप तीन पत्रिकायों के सम्पादकीय विभागों यह सब बात जानी भी नहीं जा सकती, क्योंकि सनातन- में काम करने के लिए बुलाये गये। एक में इसलिए नहीं धर्म के सम्प्रदाय-भेदों की गिनती ही नहीं है। फिर वह गये कि वहाँ ठीक समय पर वेतन नहीं मिलता था, दूसरी सब जानने की ज़रूरत भी नहीं है । और जो जानने की में इसलिए नहीं गये कि जिनके भरोसे पर जाते थे वे स्वयं ज़रूरत है वह हम यहाँ बताये देते हैं । भोजपुरी जी ने भाग खड़े हुए; तीसरे में जाकर लौट आये, क्योंकि श्राप अपने 'देखा' का समाहार लेख के अन्त में इस तरह किया बलि का बकरा नहीं बनना च
चाहते थे। उसी काल में है। अापने लिखा है-"तेरह वर्ष की साहित्य-सेवा के अापने एक साप्ताहिक को दो लेख भेजे थे जिनका उन्हें बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि हिन्दी-संसार में अधि. पुरस्कार नहीं दिया गया। कांश में अनर्थ, धींगाधींगी और अन्धाधुन्ध ही भरा पड़ा बस इतने अनुभव के बल पर होमियोपेथी के ये है।" रचनानिधि जी ने यह कितना भयानक अारोप डाक्टर साहब यहाँ तक लिखना उचित समझते हैं कि किया है ! यही नहीं, उन्होंने यह भी लिखा है - "जितने “ज़िम्मेदार सम्पादक तथा लेखक पक्षपात के दलदल में हिन्दी पत्रों में लेखकों के नाम छपते हैं उनके ज़्यादातर बेतरह फंसे रहते हैं। उनकी आँखों से न्याय दूर चला 'हाथी के दाँत' ही रहते हैं । हिन्दी की एक लाइन लिखने गया है। और यह सब हिन्दी के सम्पादकों एवं प्रकाशकों नहीं पाती, पर सम्पादक बन बैठते हैं । मुझे (१) ऐसे की भर्त्सना स्वयं मालवीय जी महाराज के 'धर्मपत्र' में कितने सम्पादकों तथा लेखकों से भेंट हुई जो अपना नाम छपी है, अतएव हिन्दी के सम्पादकों, लेखकों और प्रकाभी शुद्ध नहीं लिख सकते ।" और भी “मुझे ऐसे ऐसे शकों का यह कर्तव्य है कि वे भोजपुरी जी के इस लेख सम्पादक मिले जो केवल अपने ही जान पहचानी (?) के को ध्यानपूर्वक पढ़ें और यदि उनके आरोप उन्हें स्वीकार लेख छापने में समर्थ हो सके और उन्हें ही पुरस्कार भी हों तो उनसे तोबा करें और अगर स्वीकार न हों तो उनका दिलाया। और यह सब अपने गत १३ वर्ष के अनुभव विरोध करें। हम अपनी तरफ़ से केवल यही कहेंगे कि के आधार पर लिखा है।"
उक्त लेख के लेखक डाक्टर साहब तथा सनातनधर्म के ___और अापका यह अनुभव कितना गहरा है, सो भी सम्पादक महोदय दोनों ही व्यक्ति हिन्दी और उसके , सुन लीजिए --
लेखकों तथा सम्पादकों का बहुत अल्प ज्ञान रखते हैं शुरू शुरू में आप ने दैनिक 'विश्वमित्र' में लेख और यह बात उनके नामों तथा उक्त लेख से ही स्पष्ट हो लिखे, उस समय आपको मालूम हुआ कि कितने ही लेखक जाती है, अतएव यह निन्दात्मक लेख उपेक्षा के ही 'रुपये की घुड़दौड़' करके लेखक और ग्रन्थकर्ता बन गये योग्य है।
Printed and published by K. Mittra, at The Indian Press, Ltd., Allahabad,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, मन्दिर के द्वार पर
AAAAAAAAAAAAAAA
06
B.K. Das.
www.umaragyanbhandar.com चित्रकार-श्रीयुत वाणीकान्त दा
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
साय र बात
साचित्र मासिक पत्रिका
सम्पादक देवीदत्त शुक्ल श्रीनाथसिंह
सितम्बर १९३५ }
भाग ३६, खंड,२ संख्या ३, पूर्ण संख्या ४२९
{ भाद्रपद १९६२
श्रद्धा-गीत
लेखक, श्रीयुत जयशंकर प्रसाद' तुमुल कोलाहल कलह में
जहाँ मरु-ज्वाला धधकती मैं हृदय की बात रे मन !
चातकी कन को तरसती उन्हीं जीवन-घाटियों की
मैं सरस बरसात रे मन ! विकल होकर नित्य चंचल
पवन की प्राचीर में रुक खोजती जब नींद के पल
जला जीवन जी रहा मुक चेतना थक-सी रही, तब
इस झुलसते विश्व दिन की मैं मलय की वात रे मन !
- मैं कुसुम ऋतु रात रे मन ! चिर विषाद विलीन मन की चिर निराशा नीरधर से इस व्यथा के तिमिर वन की प्रतिच्छायित अश्रुसर में मैं उषा-सी ज्योति-रेखा मधुप मुखर मरन्द मुकुलित
कुसुम विकसित प्रात रे मन ! मैं सजल जलजात रे मन !
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
विजय के
पथ पर
लेखक, श्रीयुत ऋद्धिकरण लखोटिया
अब भारतीय खिलाड़ी भी संसार के विभिन्न भागों में विविध खेलों में विजय प्राप्त करके भारत का मस्तक ऊँचा कर रहे हैं। भारत की हाकी टीम दो बार विश्वविजयी हो चुकी है। क्रिकेट, फुटबाल, टेनिस, पोलो आदि खेलों में भी भारत आश्चर्य-जनक उन्नति कर रहा है। लेखक महोदय ने इस लेख में भारतीय युवकों की इस प्रवृत्ति का बड़े सुन्दर ढङ्ग से परिचय दिया है।
नारी भारतीय टीम की शानदार अोलिम्पिक गेम्स में सम्मिलित होनेवाले पाश्चात्य राष्ट्रों
विजय की खबरों से बहुत को यह पता न था कि सभ्यता की दौड़ में पिछड़ा हुत्रा दिलचस्पी रही है। वास्तव में भारत अपने प्रथम प्रयास में ही ऐसा अद्भुत कौशल यह विलक्षण सफलता है कि दिखाने की क्षमता रखता होगा। प्रोलिम्पिक गेम्स का पाँच महीने के- प्रवास में इतिहास बहुत प्राचीन है। ढाई हज़ार वर्ष पूर्व ग्रीक लोगों भारतीय टीम ने संसार की सर्वो- ने अपने देश के शक्तिशाली युवकों की शक्ति-परीक्षा के
त्तम टीमों का मुक़ाबिला किया निमित्त इनका प्रारम्भ किया था। ईसा के ७६६ वर्ष पहले और एक बार भी पराजित नहीं हुई।
प्रथम बार श्रोलिम्पिक गेम्स शुरू हुए थे और तब से हर एक __-बम्बई के गवर्नर चौथे वर्ष ये गेम्स वहाँ होते रहे हैं। विश्वविजयी भारतीय हाकी-टीम लास एंजिल्स के इस भारतीय टीम ने लास एंजिल्स के उक्त खेलों में अोलिम्पिक गेम्स में दूसरी बार संसार-विजयी होने की पदवी जापान को ११ गोल से हरा कर फ़ाइनल में अमेरिका को प्राप्त कर बंबई आ रही है । बंबई इन विजयी वीरों के स्वागत २४ गोल से हराया। इसके बाद भारतीय टीम ने योरप में मस्त है। १६२८ में जब भारत की हाकी-टीम ने सुदूर के प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थानों का भ्रमण किया और वहाँ कितने अम्सटर्डम में हालेंड को फाइनल में ३ गोल से हरा कर ही मैच खेले । प्रथम श्रेणी की ३६ टीमों से उसके मैच संसार-विजयी का पद प्राप्त किया था उस समय तक हुए और इनमें भारतीय टीम ने कुल ३३४ गोल किये
१९४
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
अाल इंडिया क्रिकेट-टीम १६३२-(१) लेफ्टिनेंट जे० नवले (ग्वालियर)। (२) जे. नौमल (कराची)। (३) एस. आर. गोदम (बम्बई)। (४) एन० डी० मार्शल (बम्बई)। (५) कैप्टन सी. के. नायडू (इन्दौर)। (६) पी.ई. पेलिया (मैसूर), (७) सैयद नाज़िर अली (पटियाला) | (G) लायलसिंह (मलाया)। (6) महम्मद मिसार (लाहौर)। (१०) के. एस. चनश्यामसिंह (गजपूतामा)। (११) लेपिटमेंट सैयद वजीरअली (भूपाल) (१२) अमरसिंह (काठियावाड़)। (१३) एस० एच० एम० कोलह (बम्बई)। (१४) गुलाम महम्मद (कराची)। (१५) कैप्टन जोगेन्द्रसिंह (पटियाला)।
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९६
सरस्वती
[भाग ३६
[श्री सी० एल० मेहता] और ३३ गोल खाये । वह कहीं नहीं हारी और न कोई मैच ही अधूरा जाने दिया। कैसा गज़ब का रेकार्ड रहा !
[श्री ध्यानचन्द] संसार के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी ध्यानचन्द ने इस दौरे में अकेले का है वही स्थान हाकी में भारत का है। दो बार भारतीय ही ११२ गोल किये और उसके भाई रूपसिंह ने ७६ गोल टीम ने अपना जौहर दिखाकर संसार के खिलाड़ियों किये । ध्यानचन्द और रूपसिंह की जोड़ी इस खेल में पर अपने कौशल की छाप लगा दी है। अगले साल १६३६ अद्वितीय है। अपने इस चमत्कारपूर्ण खेल के कारण ही में बर्लिन में होनेवाले उक्त खेलों में उसे अपनी शान आज विदेश में वे शाहज़ादों का-सा सम्मान पा रहे हैं। रखनी है। भारत के खिलाड़ी युवक हैं। उनमें विजय का अभी हाल में भारत से एक टीम न्यूज़ीलैंड और आस्ट्रेलिया उत्साह और अपने कौशल में विश्वास है। आशा है, में खेलने गई है और वह वहाँ कैसा अद्भुत कौशल भारतीय टीम तीसरी बार भी संसार-विजयी होने का गौरव दिखा रही है, यह बात खेलों से दिलचस्पी रखनेवाले प्राप्त करेगी। समाचार-पत्र के पाठकों से छिपी नहीं है। अभी तक तीन ओलिम्पिक गेम्स में होनेवाले और और खेलों में भारत टेस्ट मैच खेले गये हैं, और इन तीनों में भारतीय टीम की की प्रतिभा अभी उतनी नहीं चमकी है । सर्वप्रथम १६२४ जीत हुई है। अब तक भारतीय टीम ने ३३५ गोल किये हैं, में पेरिस के अोलिम्पिक खेलों में यहाँ से कुछ भारतीय जिनमें ध्यानचन्द ने ११६ और रूपसिंह ने १०६ किये हैं। खिलाड़ी भेजे गये थे, पर वहाँ के खेलों के स्टैन्डर्ड से _हाकी में भारत की टीम अपना सानी नहीं रखती। भारतीय खिलाड़ियों का स्टैन्डर्ड बहुत नीचा रहा। इस क्रिकेट में संसार में जो स्थान प्रास्ट्रेलिया और इंग्लैंड कारण असफलता ही रही । फिर १९३२ में लास एंजिल्स
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
विजय के पथ पर
१९७
[टोकियो के 8 वें सुदूर प्राच्य के अोलिम्पिक के
उद्घाटनोत्सव में भारतीय खिलाड़ी]
[श्री नायडू
में भाग लेने को भेजे गये थे। पर वहाँ भी स्थिति निराशामें भारत के चार युवक श्री मेहरचन्द (पञ्जाब), एम० पूर्ण ही रही । जापान ने, जो कुछ वर्षों पहले खेलों में भारत सट्टन (बंगाल), आर० वरनीयक्स (बंगाल) तथा एन० जैसा ही पिछड़ा हुआ था, सिर्फ चार वर्षों के परिश्रम में सी० मल्लिक (बंगाल) गये थे । भारतीय प्रोलिम्पिक कमेटी आशातीत उन्नति कर ली है। पिछले अोलिम्पियड में तैरने ने यहाँ की कसौटी में इन्हीं चार को चुना । फिर भी ये में तो उसका स्थान प्रथम रहा ! यह है अध्यवसाय और खेलों
सके। एम० सदन तो एक बार १०० के प्रति प्रेम का परिणाम! हमारे यहाँ के कालेजों में पढने| गज़ की दौड़ की, दूसरी हीट (heat) में चतुर्थ हुए। वाले अधिकांश युवक ताज़ा से ताज़ा फैशन के लिए | मल्लिक भी ४०० गज़ तैरने की दौड़ में चतुर्थ हुए। घंटों पेरिस के फ़ैशन-सम्बन्धी पत्रों के लिए हैरान रहेंगे, | जो कुछ भी सफलता या असफलता मिली, यही थी। बार पर खेलों में कुछ भी समय बिताना समय की बरबादी बार की इस असफलता का कारण भी है। वह यह है समझेंगे। ऐसी स्थिति में और क्या हो सकता है ? अवश्य कि यहाँ के युवकों में खेलों के प्रति रुचि ही कम है। कुछ समय से खेलों के प्रति जनता की रुचि गई है। वे अपनी किताबी दुनिया में ही रहना अधिक पसन्द स्कूलों एवं कालेजों में भी व्यायाम-शिक्षा का प्रचार किया करते हैं। और जिनके रुचि होती है उन्हें उत्साह और गया है । स्थान स्थान पर व्यायामशालायें भी खुल रही हैं । उचित शिक्षण नहीं मिलता। १६३० में यहाँ से कुछ मदरास का फ़िज़िकल ट्रेनिङ्ग कालेज और अमरावती की युवक जापान की राजधानी टोकियो के सुदूर प्राच्य के खेलों 'हनुमान-व्यायामशाला' प्रख्यात ही हैं। मदरास के प्रोफ़े
Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९८
सरस्वती
[भाग ३६
[१६३२ के लार्डस के टेस्ट मैच में भारतीय खिलाड़ी]
सर के० बी० अय्यर प्रसिद्ध व्यायाम-शिक्षक हैं। अाशा है, इस प्रचार का अच्छा ही फल होगा। अगले साल बर्लिन के अोलिम्पियड में भारतीय युवक अपने कौशल का विशेषता के साथ परिचय दे सकेंगे।
अधिक देर तक तैरते रहने की कला में भारत को अभिमान है कि श्री प्रफुल्लकुमार घोष संसार में सबसे बाज़ी मार ले गये हैं। वे ७६ घंटे तक लगातार पानी में तैरते हुए रह सके हैं। उनकी तैरने की क्षमता असाधारण है। थोड़े ही दिनों में वे इंग्लिश चैनल का पार करने के विचार से इंग्लैंड जायँगे । वे अपने इस प्रयत्न में भी सफल हों, यही | हमारी कामना है।
कुश्ती में तो भारत सबमें अग्रणी है ही। विश्वविजयी पहलवान गामा ने कुछ वर्षों पहले पटियाला में संसारप्रसिद्ध पोलैण्ड के पहलवान ज़िबिस्को को केवल ३० सेकेंड में ही पछाड़ दिया था। ज़िबिस्को सात हज़ार मील चलकर कुश्ती के लिए भारत अाया था। गामा की शक्ति दुर्दमनीय है। आज भी वही संसार-विजयी है। उसका भाई इमामबख्श भी विख्यात मल्ल
[विम्ब्ले
डन के मैच में श्री मदनमोहन खेल रहे हैं]
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
विजय के पथ पर
१९९
है। दोनों पटियाला-नरेश । के यहाँ रहते हैं। पटियाला के महाराज को खेलों से शौक है। भारत के अन्य नरेश यदि उनका अनुकरण करें तो उनकी सहायता से बहुतकुछ हो सकता है। हिन्दुस्तान में प्रतिभा भी है, क्षमता भी है, पर उत्साह और संगठन की कमी है। जापान जैसा एक छोटा-सा राष्ट्र उत्साह और संगठन के बल पर आशातीत उन्नति कर सकता है तब भारतीय युवक क्यों नहीं कर सकते ? उपयुक्त संगठन का सबसे ताजा उदाहरण हमारी भारतीय हाकी-टीम है। आल इंडिया हाकी फेडरेशन की देख-रेख में हाकी का अच्छा संगठन हो गया है। संगठन और उत्साह का ही यह परिणाम हुअा है कि अाज भारतीय हाकी-टीम संसार में सर्वश्रेष्ठ हो
-
सर्वभारतीय प्रोलिम्पिक हाकी टीम
क्रिकेट–१६३२ में इंग्लैंड की विख्यात 'क्रिकेट ग्राउंड लाडू' की रंगभूमि में भारतीय क्रिकेट-टीम का प्रथम टेस्ट मैच इंग्लेंड के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों के साथ हुअा था। इस प्रकार का यह टेस्ट मैच इंग्लैंड के उस विख्यात 'ग्राउंड में प्रथम बार ही हुआ था। इस कारण
१६३२ के लार्डस के टेस्ट मैच के समय सम्राट को भारतीय टीम का
परिचय दिया जा रहा है।]
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
सरस्वती
[भाग ३६
[कुमार दिलीपसिंह
[पाटौदी के नवाब इफ़्तिखार अली] उस मैच की वहाँ काफ़ी धूमधाम हुई थी। खेलों के जमा दिये। क्रिकेट के अन्यतम जजों के शब्दों में लाडू शौकीन ब्रिटन लाखों की संख्या में उमड़ आये थे। के उस विस्तृत ग्राउंड में जारडिन 'जिब्राल्टर की चट्टान' पाश्चात्य देश खेलों को अपने राष्ट्रीय जीवन में कितना की तरह अचल-अटल खड़ा था। सचमुच जारडिन एक महत्त्व देते हैं, यह बात हम भारतीयों को शायद कम विजयी जनरल की तरह था। भारतीय खिलाड़ियों के मालूम है। इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया की क्रिकेट-टीमें संसार कौशल ने इस क्रिकेट के खिलाड़ी के सम्मुख सिर झुका | में अपना सानी नहीं रखती हैं। क्रिकेट तो इंग्लेंड का दिया। स्वयं सम्राट शाही परिवार के साथ इस मैच में राष्ट्रीय खेल है । इसकी विजय वहाँ किसी संग्राम की विजय उपस्थित थे। उन्होंने भारतीय टीम को बधाई दी, पर | से कम महत्त्व नहीं रखती है।
विजय की बधाई उनके नसीब में न थी। भारत की यह भारत के युवक खिलाड़ियों का कौशल देखने के पराजय तो थी, पर यह पराजय ठीक अठारह महीने बाद | लिए लाखों आँखें व्यग्र थीं। उनकी आँखों में व्यग्रता जारडिन के नायकत्व में एम० सी० सी० के भारत-भ्रमण की खुमारी तो थी ही, साथ ही इंग्लैंड की निश्चित में भारतीय टीम की बनारस में होनेवाली प्रथम विजय | विजय की विश्वास-ज्योति भी झलक पड़ती थी । इंग्लैंड की सूचना-मात्र थी। एम० सी० सी० ने १६३३ में इंग्लैंड की टीम क्रिकेट में अनेक बार दूसरे राष्ट्रों से लोहा ले चुकी के विख्यात खिलाड़ियों के साथ भारत का दौरा किया | थी, पर भारतीय खिलाड़ियों का यह पहला ही मौका था। था। यहाँ पर भी वे तीन टेस्ट मैच बम्बई, कलकत्ता एवं | मैच प्रारम्भ हुअा। भारतीय खिलाड़ियों ने खेल के मैदान मदरास में खेले थे। बम्बई की पराजय में अमरनाथ के | में उतरते ही इंग्लैंड के तीन अन्यतम खिलाड़ियों को ११८ रन, कलकत्ते के ड्रान मैच में दिलावर हुसेन की जिन पर इंग्लेंड विजय का गर्व कर सकता था, १६ रन अपूर्व बैटिंग और मदरास की हार में अमरसिंह की बोलिंग में आउट कर दिया। इस प्रकार के खेल की अाशा भारतीय क्रिकेट के उज्ज्वल भविष्य की अाशा-किरणें थीं। किसी को नहीं थी। इंग्लैंड का कैप्टेन हैरान था। बड़ी भारतीय क्रिकेट-टीम इंग्लैंड की टीम के समान विख्यात विषम स्थिति आ पड़ी थी। पर भारत के भाग्य में विजय नहीं है, पर खेल में बराबरी का दावा करने योग्य अवश्य | न थी। जारडिन ने इंग्लैंड के उखड़े हुए पाँव फिर से हो गई है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
विजय के पथ पर
[श्री पी० के० घोष] . क्रिकेट के श्रेष्ठ खिलाड़ी इंग्लैंड की टीम में हैं। पर
[पटियाला के महाराज भारतवर्ष ने भी क्रिकेट के अपने ५० वर्ष के जीवन में संसार के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में चार खिलाड़ी उत्पन्न तीसरे हैं पाटौदी के नवाब साहब । आप भी इंग्लैंड किये हैं। जामनगर के स्वर्गीय महाराज रणजीतसिंह को की टेस्ट टीम में खेले हैं । १६३२-३३ में आस्ट्रेलिया के कौन नहीं जानता ? आप क्रिकेट में 'रन जी' के नाम से साथ टेस्ट मैच में १०२ रन किये थे । १६३१ में आक्सविख्यात थे और अपने समय के 'क्रिकेट-किंग' थे। आप फ़ोर्ड टीम की बैटिंग में आप सर्वप्रथम आये। आपके रनों प्रथम भारतीय थे जो इंग्लैंड की तरफ़ से १८६५ में का औसत ६३ प्रति इनिंग्स से भी अधिक था। मैनचेस्टर के टेस्ट मैच में खेले थे। उस मैच की पहली चौथे हैं भारतीय टीम के कैप्टेन मेजर सी० के० इनिंग्स में ६२ रन किये और दूसरी में १५४ । उसी साल नायडू । श्राप दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में गिने जाते
आपने 'ससेक्स' के लिए २,७८० रन एक सीज़न में किये। हैं। आपने लार्डस में अपने पहले खेल में ही. एम० सी० इस प्रकार आप डाक्टर डब्लू० जी० ग्रेस के १८७१ के सी० के विरुद्ध ११८ रन किये और अाउट नहीं हुए। रेकार्ड से भी आगे बढ़ गये । महाराज रणजीतसिंह का आप एक अच्छे 'बौलर' भी हैं। लीस्टरशायर के मैच खेलने का ढंग निराला था।
में आपने २१ रनों में ही ५ खिलाड़ियों को आउट कर दूसरे खिलाड़ी हैं महाराज रणजीतसिंह के भतीजे प्रिंस दिया। फ़ील्डिंग में भी आपका स्थान बहुत ऊँचा है । दिलीपसिंह । ये भी इंग्लैंड की टीम में कई बार खेल चुके जब एम० सी० सी० भारत में खेलने आई थी तब आपने हैं। १६३० में आस्ट्रेलिया के साथ टेस्ट मैच में १७३ रन ही सबसे पहले ११५ रन किये थे ! पहली इनिंग्स में किये थे। लार्डस के क्रिकेट ग्राउंड में बौलिंग में मुहम्मद निसार तथा अमरसिंह संसार के इन टेस्ट मैचों में इंग्लैंड के किसी भी खिलाड़ी ने इतने सर्वश्रेष्ठ बौलरों में गिने जाते हैं। अमरसिंह को तो इंग्लैंडरन अब तक नहीं किये थे। यह भी एक नया रेकार्ड था। वालों ने बौलिंग सिखाने के लिए अपने यहाँ बुलाया भी
फा,२
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
। सरस्वती
[भाग ३६
है। लार्ड्स के टेस्ट मैच की दूसरी इनिंग्स में इनकी बौलिंग देखकर एक विख्यात वृद्ध अँगरेज़ खिलाड़ी ने कहा-- “विगत महायुद्ध के बाद इससे अच्छी बौलिंग इंग्लैंड की भूमि में कभी नहीं देखी
[लास एंजिल्स में भारतीय हाकी-टीम के खिलाड़ी]
भारतीय क्रिकेट का भविष्य उज्ज्वल है। पटियाला के महाराज की अध्यक्षता में यहाँ भी क्रिकेट क्लब अाफ़ इंडिया' नाम की एक संस्था की स्थापना हुई है । अाशा है, निकट भविष्य में इसकी भारतीय टीम भी वही प्रसिद्धि प्राप्त कर लेगी जो इंग्लैंड
और आस्ट्रेलिया की टीमों को प्राप्त है। भारत की क्रिकेटटीम के विषय में हम अपनी अोर से कुछ न कहकर इंग्लैंड के कैप्टेन डी० आर० जारडीन का ही कथन यहाँ उद्धृत करते हैं। उन्होंने उसके सम्बन्ध में कहा है
"मुझे बड़ी खुशी है कि भारतीय टीम का सर्वोत्तम खेल टेस्ट मैच में ही हुआ। यह शुभ भविष्य का एक सुन्दर अाभास है। भारतीय खिलाड़ियों ने अपने को क्रिकेट में कीर्ति एवं गौरव से विभूषित करने का यथेष्ट सफल प्रयत्न किया है और वे क्रिकेट के संघर्ष में बड़ी शान के साथ
[श्री मरवीन सूटन, लास एंजिल्स में]
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
विजय के पथ पर
निकले। वे अपने पीछे श्रादर्श मित्र एवं वीर प्रतिद्वंद्वियों के सुखी परिवार की मधुर स्मृतियाँ छोड़ गये हैं।"
ये हैं एक विजयी प्रतिद्वंद्वी के उद्गार! वास्तव में प्रतिद्वंद्वी की प्रशंसा ही खिलाड़ियों के लिए सबसे बड़ा सम्मान है।
टेनिस-टेनिस में भी भारत को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई है । संसार-प्रसिद्ध टेनिस टूर्नामेंट 'डेविस कप'
आल इंडिया हाकी-टीम के विदेश-यात्रा से लौटने पर बम्बई के में भारत के कितने ही युवक
मेयर-द्वारा स्वागत खेल चुके हैं। इसमें प्रायः सभी उन्नतिशील पाश्चात्य राष्ट्र भाग लेते हैं। परन्तु दूसरे में भी उत्साहहीन नहीं होते। भारत के भूतपूर्व चैम्पियन देशों का टेनिस स्टैन्डर्ड यहाँ से काफ़ी उन्नत रहने के डी० एन० कपूर की भी प्रणाली करीब करीब ऐसी ही है। कारण यहाँ के खिलाड़ियों को वहाँ सफलता नहीं मिल आप कई बार सर्वभारतीय चैम्पियन हो चुके हैं। श्राप रही है । अाज से ११ वर्ष पहले हिन्दुस्तान के श्री महम्मद इटली के चैम्पियन जी० डी० स्टेफ़ानी के साथ जब खे ते सलीम ने, जो अपने समय के संसार के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी थे तब अपने चमत्कार का पूरा परिचय दिया था। समझे जाते थे, विश्वविख्यात खिलाड़ी लोरेंज्यू को हराया था। 'डेविस कप' में फ्रांस प्रथम विजयी हुअा था। इसी साल से भारत का नाम हुा । मुहम्मद सलीम योरप के कितने ही बड़े बड़े टूर्नामेंटों में खेल चुके हैं। उनकी खेलने की शैली बहुत सुन्दर है। वे बड़ी दृढ़ता से खेलते हैं। कितने ही खिलाड़ी जब किसी बड़े टूर्नामेन्ट 1 में खेलते हैं तब बहुत शीघ्र घबरा | जाते हैं और इस कारण बहुत बार । सुन्दर खेलकर भी हार जाते हैं। पर सलीम की दृढ़ता ऐसे समय [इंडियन डेविस कप टीम -बाई ओर से श्री मदनमोहन, श्री हीरालाल अद्भुत है । वे बुरी से बुरी स्थिति सोनी, कर्नल बी० श्रो० रो० (टीम से अलग), श्री चरनजीव
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar Umana Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४
सरस्वती
[भाग ३६
अच्छे अच्छे खिलाड़ियों से बाजी मारी है। मदनमोहन भी कई बार खेले हैं । १६३० में आप किसी समय के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी जे० क्राफ़ोर्ड के साथ खेले थे। श्राप हारे तो सही, पर एक बार काफ़ोर्ड को भी हराया। जापान के श्रेष्ठ खिलाड़ी भार० मीकी भी ईस्टबोर्न चैम्पियनशिप में आप से फ़ाइनल में हार चुके हैं। १६२६ में फ्रांस की टीम भारत में खेलने आई थी। उसमें संसार के प्रसिद्ध खिलाड़ी हेनरी कोचेट भी थे। तब आप उसमें खेले थे और आपकी तभी से ख्याति हुई। उसी टीम के
[इमामबख्श] सोहनलाल भी गज़ब के खिलाड़ी हैं। गत वर्ष फ्रांस के विश्वविख्यात प्रोफेशनल खिलाड़ी रैमीलियन के साथ इनका मैच हुआ था। यह मैच भी दर्शकों को बहुत दिनों तक याद रहेगा। सोहनलाल सर्वभारतीय चैम्पियन भी हो चुके हैं। भारत की तरफ से 'डे विस-कप' में खेलनेवालों में मुहम्मद सलीम, मदनमोहन, डाक्टर फ़ीजी, कृष्णप्रसाद, जगमोहन, सोनी, चरनजीव अधिक विख्यात हैं । डाक्टर फ़ीजी तो लगातार २५ वर्ष तक विम्ब्लेडन के विख्यात टूर्नामेंट में खेल चुके हैं और
[विश्वविजयी गामा
www.umaragyanbhandar.com
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
सख्या ३]
विजय के पथ पर
२०५
एक खिलाड़ी लैंड्री को आपने लाहौर में हराया था। इस खेल की चर्चा बहुत दिनों तक समाचार-पत्रों में रही थी, क्योंकि लेडी ने पराजय के रोष में बहत-सी अनर्गल बातें कह डाली थीं। मदनमोहन योरप के कितने ही बड़े बड़े टूर्नामेंट जीत चुके हैं। यहाँ भारत के उदीयमान खिलाड़ियों में सोहनलाल, कृष्णस्वामी, मेहताबन्धु, सोनी, भंडारी, रणवीरसिंह, कच्छ के महाराजकुमार, बाबू रघुवरदयाल, रचप्पा, बालगोपाल इत्यादि अधिक प्रसिद्ध हैं। यथोचित शिक्षा मिलने से ये सभी बहुत अच्छे खिलाड़ी हो सकते हैं और यहाँ के टेनिस स्टैंडर्ड को उन्नत कर सकते हैं। प्रसन्नता की बात है कि यहाँ की लान टेनिस असोसिएशन योरप से किसी विख्यात खिलाड़ी को बुला कर शिक्षा का प्रबन्ध कर रही है। इस ओर कलकत्ते के 'साउथ क्लब' ने बहुत काम किया है। इसी क्लब के प्रयत्न
[श्री रन जी] से हर साल एक विदेशी टीम भारतवर्ष अाती है । अब तक फ्रांस, इंग्लेंड, जापान, इटली, युगोस्लेविया तथा प्रास्ट्रेलिया से टीमें आ चुकी हैं। इस बार दिसम्बर में जर्मनी की टीम ग्रानेवाली है । अन्य देशों के खिलाड़ियों की इस प्रकार की टीमों को अपने यहाँ बुलाने से बहुत लाभ होता है । उनके साथ खेलने से ही अपने खेल की क्षमता एवं त्रुटियाँ मालूम पड़ती हैं। स्त्रियों ने भी टेनिस में अच्छी उन्नति की है। मिस सैंडीसन और मिस लीला रो उनमें अधिक प्रख्यात हैं। दोनों ही विदेशों में खेलकर अच्छा नाम कमा चुकी हैं।
पोलो-पोलो में भी भारत अग्रणी है। पोलो शाही खेल है और इसमें लाखों का खर्च होने के कारण इसे राजे-महाराजे ही खेलते हैं । १६११ में इंग्लैंड के विख्यात रनेलीघ ग्राउंड में भारतीय टीम ने कारोनेशन कप जीता
[प्रोफ़ेसर के० वी० ऐयर]
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
[जयपुर-पोलो-टीम] (आई० पी० ए० चैम्पियनशिप कप के विजेता)
चैम्पियनशिप जीती है। जयपुर- टीम अमेरिका न जा सकी । अमेरिका की टीम भी संसार की सर्वश्रेष्ठ टीमों में है। उस टीम के एक खिलाड़ी विस्टन ग्येस्ट गत वर्ष भारत में जयपुर की टीम में खेले थे । उन्होंने कहा था"मेरी राय में जयपुर की टीम इस समय संसार की सर्वश्रेष्ठ टीम है ।" इस टीम के खिलाड़ियों में जयपुर-महाराज तथा रावराजा हनूतसिंह बहुत अच्छा खेलते हैं । हनूत सिंह जी तो अपने ढंग के दुनिया में एक ही खिलाड़ी हैं। भोपाल के नवाब साहब
सरस्वती
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
था । उसी समय से पोलो में भारत का नाम हुआ है 1 बीकानेर, जोधपुर, जयपुर, कश्मीर और भोपाल की पोलोटीमें श्राज विश्वविख्यात हो रही हैं। आज से वर्षों पहले जोधपुर और बीकानेर की टीमों ने योरप की बड़ी बड़ी टीमों को हराया था। जोधपुर और बीकानेर के नरेश पोलो के श्रेष्ठ खिलाड़ी हैं। अभी हाल में जयपुर की टीम योरप गई थी । वहाँ वह बड़े बड़े टूर्नामेंटों में खेली । हारी कहीं भी नहीं । उसने इंग्लैंड का रेनेलीघ हरलिंघटन टूर्नामेंट जीता। यहाँ भारत में भी कई बार इंडियन
[ खड़े हुए - आर० सेन गुप्त, एन० भट्टाचार्य, एच० मुकर्जी, एम० मुकर्जी, एस० चटर्जी, ए० सुकुल ।]
बैठे हुए - जे०
० राय, एस० सरकार, ए० घोष, बी० भादुरी (कैप्टन)
www.umaragyanbhandar.com.
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या।३
विजय के पथ पर
२०७
दुनिया के चार सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में गिने जाते हैं। कितनी ही बार श्रेष्ठ खेल कर भी वे हार जाते हैं। अभी हाल में आपको ६ गोल का हैन्डिकेप मिला है। बंगाल में फुटबाल की टीमें बहुत हैं। सूखे ग्राउंड में | फुटबाल- फुटबाल का खेल भी हिन्दुस्तान में बहुत वे हिन्दुस्तान की अच्छी अच्छी फ़ौजी टीमों से लोहा ले लोकप्रिय है और वह भी खासकर बंगाल में । कलकत्ते में सकती हैं।
आई० एम० ए० शील्ड का सबसे बड़ा फुटबाल टूर्नामेंट मोहनबगान की वर्तमान टीम भी बहुत विख्यात है। होता है। उन दिनों एक एक खेल में लाखों श्रादमियों भारत के अन्य स्थानों में होनेवाले बड़े बड़े टूर्नामेंटों में की भीड़ हो जाती है। इस टूर्नामेंट में बाहर से हिन्दुस्तान वह खेली है और यहाँ की सर्वोत्तम टीमों पर विजय प्राप्त की प्रायः उत्तम से उत्तम फ़ौजी टीमें आकर भाग लेती की है। १६२५ में वह शिमला के डूरंड-कप में सेमीहैं। यह टूर्नामेंट सन् १८६३ में प्रारम्भ हुआ था। इसके ४३ वर्ष के जीवन में सिर्फ एक बार सन् १६११ में एक भारतीय टीम को विजय मिली। वह है भारतविख्यात मोहनबगान' । मोहनबगान के बाद अब तक और किसी भी अन्य भारतीय टीम को यह गौरव नहीं मिला। १६११ में जब मोहनबगान ने यह ट्रमिंट जीता था तब फ़ाइनल में उस साल की सर्वश्रेष्ठ फ़ौजी टीम ईस्ट यास थी। उसके गोलकीपर का खेल और
[मोहम्मडन स्पोर्टिंग-क्लब, कलकत्ता] मोहनबगान के प्रख्यात भादुरी खड़े हुए रहमान, सत्तार, मासूम, हबीब, अमीर, ज़ाफ़र, सबो, मोहुद्दीन । बन्धुत्रों का अद्भुत बाल-संचालन बैठे हुए-शेख इब्राहीम, सयद, एम० के० अनवर, रशीद, रहमत । स्मरण-योग्य है। ऐसे खिलाड़ी ज़मीन पर–जुमाखाँ, एम० आई० शिराज़ी, अब्बास । अब तक बंगाल में नहीं हुए। इसके बाद भी मोहनबगान को यह टूर्नामेंट जीतने के फाइनल में खेली थी। यह पहला ही अवसर था कि एक | अन्य अवसर मिले, परन्तु कुछ तो भाग्यदोष से और भारतीय टीम फ़ौजी टीमों से भिड़कर इतनी दूर तक कुछ खेल के बुरे निरीक्षण से विजय नसीब नहीं हुई। पहुँची। इस खेल में बेलजियम के स्वर्गीय सम्राट अलबर्ट, | भारतीय टीमों के लिए जो सबसे बड़ी बाधा उपस्थित भारत के वाइसराय, पंजाब के गवर्नर और स्वर्गीय पंडित | होती है वह यह है कि यह टूर्नामेंट बरसात के बुरे दिनों मोतीलाल जी एवं अन्य विख्यात राष्ट्रीय नेता भी उपमें होता है। भारतीय खिलाड़ी नंगे पाँव खेलते हैं। इस स्थित थे। सम्राट अलबर्ट ने स्वयं मोहनबगान को बधाई | कारण उनमें सूखे ग्राउंड की स्पीड नहीं रहती। उनके दी और उसके खेल की बड़ी प्रशंसा की । मोहनबगान में | पाँव बूटधारी प्रतिद्वन्द्वियों के साथ नहीं टिकते और खेलनेवालों में श्री जी० पाल जो गोस्टोपाल के नाम से |
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८
___ सरस्वती
[भाग ३६
फुटबाल के क्षेत्र में विख्यात हैं, २५ वर्ष तक फुटबाल अगले साल आस्ट्रेलियावालों ने इसे बुलाया है। यहाँ की में खेल चुके हैं। इनके जैसे खिलाड़ी शताब्दियों में ही फुटबाल एसोसिएशन ने यहाँ की टीम को ओलिम्पिक हुआ करते हैं । फ़ौजी टीमों में तो इनके नाम का बड़ा गेम्स में भी भेजने का विचार किया है। ग्राशा है कि भय है। खेल में इनसे गेंद निकाल लेना बहुत ही कठिन भारतीय फुटबाल-टीम हाकी टीम की तरह ही किसी दिन बात समझी जाती है। फुटबाल के समालोचकों ने तो भारत का गौरव बढ़ावेगी। इन्हें 'चीन की दीवार' की उपाधि दे रक्खी है।
दूसरे खेल-अन्य खेलों में भारत का स्थान नगण्यदूसरी भारतीय टीम जिसने भारतीय फुटबाल में सा है। बिलियर्ड में अभी हाल में ही बंगाल के प्रत्यूषनया रेकार्ड किया है वह है मोहम्मडन स्पोर्टिङ्ग। इसने देव जो सर्वभारतीय शैम्पियन हैं, इंग्लेंड गये हैं । शतरंज कलकत्ते की फुटबाल लीग को २ वर्ष तक लगातार जीता में किसी समय सुलतानखाँ संसार में सर्वश्रेष्ठ थे। गोल्फ है। यह सौभाग्य अभी तक अन्य किसी भी टीम को नहीं में भारतीयों में मल्लिकबन्धु प्रसिद्ध ही हैं । प्राप्त हुआ है। इस टीम में हिन्दुस्तान के चुने हुए भारतीय युवकों ने संसार के सभ्य राष्ट्रों की प्रतियोखिलाड़ी हैं। ये खेलते तो इतना कलापूर्ण नहीं, परन्तु गिता में खेलों की दौड़ में कैसी सफलता अब तक प्राप्त बड़ी हिम्मत और बड़े जोश से अपने प्रतिद्वन्द्वी पर अपने की है, यही हमने इस लेख में संक्षेप में वर्णन किया है । खेल का असर डाल देते हैं।
___ भारत की युवकशक्ति के विकास के मार्ग में बहुत-सी हिन्दुस्तान के बाहर जाकर भी यहाँ की टीमों ने अड़चनें हैं। भारतीय युवकों में प्रतिभा, क्षमता और 'अच्छा नाम कमाया है। सर्वप्रथम १९२४ में बंगाल से उत्साह की कमी नहीं है, परन्तु उन्हें संगठित करके उनकी कुछ खिलाड़ी सिंगापुर, पेनांग, जावा, सुमात्रा आदि शक्ति को विकसित करने का यथेष्ट प्रयत्न नहीं होता । स्थानों को गये थे । बाद में १६३३ में एक टीम सीलोन स्पोर्ट्स के क्षेत्र में यदि हम पाश्चात्य राष्ट्रों से बराबरी का भेजी गई थी। वहाँ उसे बहुत सफलता मिली। पिछले दावा करना चाहते हैं तो हमको उनसे बहुत कुछ सीखना साल दक्षिण अफ्रीका के निमंत्रण पर एक टीम वहाँ भी होगा । हमें भी अपने राष्ट्रीय जीवन में स्पोर्ट अर्थात् खेलों गई । वहाँ कितने ही मैच उसने वहाँ के अन्यान्य प्रांतों को वही महत्त्व देना होगा जो विदेशों में है । हमें खेलों की टीमों के साथ खेले । तीन टेस्ट मैच भी हुए थे, पर के प्रति रुचि रखनी होगी, सक्रिय भाग लेना होगा और कहीं भी हार नहीं खाई। अफ्रीकावालों ने भारतीय टीम हर प्रकार से उन्हें लोकप्रिय बनाना होगा । हमें समके खेल की बड़ी प्रशंसा की और वहाँ के कार्पोरेशनों ने झना चाहिए कि युवकशक्ति के विकास में ही राष्ट्र का इसका सम्मान किया। इसकी यह सफलता देखकर ही उत्थान है।
गीत
लेखक, श्रीयुत रामविलास शर्मा मधुकर, छोड़ अब मधुपान ।
मूंदती आतुर किरण-दल गमन-वेला जान । ढल गये सुख-स्वप्न के पल, अस्त रे दिनमान । हेर, कौन विनाश-माया तिर रही जल पर मलिन-घन
खोल प्राची-द्वार, छायाअरुणिमा, हत-छवि कमल-वन;
स्तब्ध करती विश्व को; अवरुद्ध खग-कुल-गान ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैथिल कवि श्री मँगनीराम मा
लेखक, श्रीयुत शुकदेव ठाकुर, बी० ए० (ऑनर्स)
ठाकुर महोदय ने इस लेख-द्वारा हिन्दी के प्राचीन कवि-समुदाय में एक नये श्रेष्ठ कवि की ही वृद्धि नहीं की, किन्तु यह भी प्रकट किया है कि १८ वीं सदी के अन्त में मिथिला में व्रजभाषा का यहाँ तक प्रचार था कि वहाँ के कवि अपनी हिन्दी-कविता के कारण नैपाल के राजदरबार में श्राश्रय और सम्मान प्राप्त करते थे। आशा है, लेखक महोदय मँगनीराम जी की प्राप्त कविताओं को प्रकाशित कर हिन्दी के इस श्रेष्ठ अज्ञात
कवि का हिन्दीवालों को पूर्ण परिचय देंगे।
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः। मंत्री ने समस्यायें रक्खी थीं—'है' और 'दामिनी'। नास्ति येषां यशःकाये जरामरणजं भयम् ॥ साहित्याचार्य पंडित सुरेन्द्र झा 'सुमन' तथा पंडित
शुकदेव शर्मा 'कर्मकांडी' के संवेदनशील पदों के कावान दिनों वीरप्रसविनी महा
गान से समिति-भवन गूंज चुका था। अंत में Chaya राष्ट्रभूमि के गिरि-कानन| प्रांत महाकवि भूषण के
चम्पारण्यनिवासी काव्यतीर्थ पंडित दिगंबर झा जि | शंखनाद से प्रतिध्वनित हो
साहित्यालंकार स्वरचित पद्यों का पाठ समाप्त कर PSII उठे थे, जब देव. घनानंद अपने पितामह स्वर्गीय श्री भुवन झा-द्वारा रचित सास और पद्माकर के रमणीय
कतिपय पद्य सुनाने लगे। उन पद्यों में भी उपर्युक्त रसवैभव से भारत की समस्याओं की पूर्ति हुई थी। सामा
समस्याओं की पूर्ति हुई थी। समिति की बैठक समाप्त राजसभायें परिमावित हो रही थीं, जब वीरकेशरी होने पर सभी सदस्य अपने कर्मों में दत्तचित हुए, गुरुगोविंदसिंह जी अपनी प्रोजस्विनी वाणी से पर 'भुवन'-रचित कवितायें मुझे अच्छी लगीं और शक्ति की आराधना एवं पंचनद की सोई हुई आत्मा उन्ह
उन्होंने मेरे हृदय पर बड़ा प्रभाव भी डाला। वे को चैतन्यपूर्ण कर रहे थे, उस समय मिथिला के
___ कवितायें ये थींएकान्त उत्तरीय अंचल में एक मार्मिक मधु-संगीत सुनाई पड़ा था। इस कोमल स्वर-लहरी ने न केवल
पुरुप अनूप एक सुरती न कहि जात, पुण्य-सलिला वागमती के रम्य तटों को ही झंकृत
अष्टचन्द्र विन्दुभाल मूरती विशाल है। किया था, किन्तु उत्तराखंड की स्वतंत्र जातियों पर स्वर्ग वो पताल मर्त्यलोक हू की गति नाहिं, भी अपनी मोहनी डाली थी। यह सुंदर स्वर-झंकार
चान न सूरज न पवन शूरपाल है। 'वागमती-तट के गायक' श्री मॅगनीराम झा का था।
बिनु मूल सहस्रकमलदल ताहि पर,
निरखत योगीजन दीन के दयाल है। सन् १९३२ ईसवी का माघ मास था। मनियारी
___यम दिकपाल है न भैरव कपालधर, (मुजफ्फरपुर) के सभी साहित्यानुरागी सजन अपनी
काल है न, मृत्यु है न, रुद्र चन्द्रभाल है। साहित्य-परिषद् 'पद्म-समिति' की एक साधारण बैठक कर रहे थे। अपने माननीय विद्वान् मित्रों के साथ बैठा मैं भी काव्य-रस का आनन्द ले रहा था। लोटती पर्यक पै ऐंडि ऐंडि चारों ओर, समस्यापूर्तियों का पाठ हो रहा था। समिति के सुन्दरी सलोनी गात मानो शक्र-भामिनी ।
२०९ फा.३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१०
सरस्वती
[भाग ३६
विरह के नगारे उर अंतर धुधकारे भये, में पदुमकेर ग्राम में हुआ था। पदुमकेर (पद्मकेलि) ताते मतवारे अँधियारी पेखि यामिनी। चम्पारन-जिला में मोतीहारी से २० मील पूरब एवं
. मिथिला के पुण्यतीर्थ सीतामढ़ी से १४ मील पश्चिम झिल्ली झनकारे पिक-दादुर धुनि डारे 'भुवन',
प्रियतम विदेश कैसे धीर धरै कामिनी। है। सन् १७२३-२४ ई० में वंग-विजयी तुग़लकशाह मारि डारै मदन मरोरि डारै दादुर, से पराजित होकर तिहुत-नरेश हरिसिंहदेव
दबोरि डारै बादल दबाय डारै दामिनी॥ अपने दो कनिष्ठ भ्राताओं मोतीसिंहदेव एवं इन पंक्तियों में मुझे प्रतिभा की झलक मालूम पद्मसिंहदेव के साथ अपनी राजधानी पट्टनपुरी पड़ी और मैं इन पर चिंतन करता रहा। एक दिन को छोड़कर नैपाल-विपिन की ओर भाग गये वार्तालाप के सिलसिले में मित्र दिगंबर जी से ज्ञात थे। हरिसिंहदेव ने नैपाल-विजय कर तराई में हुआ कि भुवन झा से कहीं अधिक श्रेष्ठ कवि उनके स्थित भटगाँव में अपनी राजधानी बसाई, जहाँ पितामह श्री मँगनीराम झा थे, जिनकी कवितायें उनके वंशज १७६९ ई० तक राज्य करते रहे। उनके
और गीत अभी तक चम्पारन, मुजफ्फरपुर की दोनों कनिष्ठ भ्राताओं ने अपने अपने नाम पर ग्रामीण स्त्रियाँ श्रद्धा और प्रेम के साथ गाती हैं। क्रमशः मोतीहारी और पद्मकेलि नाम के ग्राम बसाये। मुझ इतिहास के अकिंचन विद्यार्थी के लिए यह पद्मसिंहदेव का प्राचीन वासस्थान अब भी एक पते की बात थी। एक सप्ताह के भीतर ही मँगन उन्नत टीले के रूप में वर्तमान है। पदुमकेर के के सारे सरस कविता-कुसुमों को संकलित कर उनको स्वर्ण-समय का वह करुण स्मारक 'डीह' अपने जीवन-घटनाओं के सूत्र में उन्हें गूंथने का सम्पूर्ण सुस्वादु चावलों की उत्पत्ति के लिए प्रसिद्ध है। कार्यक्रम प्रस्तुत कर डाला। इस महान कार्य के संपा- कहते हैं, ब्राह्मण-मण्डली के साथ राजा ने वहाँ यज्ञ दन में मुझे मित्र दिगंबर जी से जो हार्दिक साहाय्य किया था। उसके प्रभाव से वहाँ की भूमि सिद्ध हो
और सहयोग प्राप्त हुआ उसके लिए मैं उनका कृतज्ञ गई है। अब भी उस स्थान में उत्पन्न अन्न-द्रव्यों में हूँ। आज उसी प्रयास का फल यहाँ 'सरस्वती' के हविष्य की सुगंध पाई जाती है। निकट ही पाठकों के मनोविनोद के लिए उपस्थित किया 'जरदाहा' नाम का एक प्राचीन सरोवर है, जो लगजाता है।
भग ४ मील तक फैला हुआ है। यह विशाल सरोवर विद्यापति के आश्रयदाता शिवसिंह के समय
का कहा जाता है। इसमें कमल बहुत उत्पन्न श्री मँगनीराम झा का जन्म सन् १६८७ ई० होते हैं।
(क) 'नाचे मोर कारे, पवन हहकारे'—दूसरा पाठ । (ख) पदुमकेर में मुझे ज्ञात हुआ कि मँगनीराम मा
ने १०८ वर्ष तक जीकर संवत् १८५२ में शरीर त्याग किया। श्रीयुत भुटू मिश्र, पंजीकार, कोठा टोल, दरभंगा की पोथियों से भी उपर्युक्त तिथि का समर्थन होता है। कवि का जन्म-पत्र अब अप्राप्य है।
(ग) वाणाब्धिबाहुशशिसम्मितशाकवर्षे,
पौषस्य शुक्लदशमी क्षिति सूनुवारे । त्यक्त्वा स्वपट्टनपुरी हरिसिंहदेवो, दुर्दैवदर्शितपथे गिरिमाविवेश । --देखिए History of Tirhut, pp. 59-69, footnote; Brigg's Ferista Vol. I, pp. 406-7.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
मैथिल कवि श्री मॅगनीराम झा
२११
मँगनीराम एक कुलीन विद्यानुरागी मैथिल- एक दिन की बात है, इनके कुटुम्बी कृषिकर्म में ब्राह्मण-वंश के रत्न थे। इन ब्राह्मणों का पूर्व का संलग्न थे और स्वयं ये अपने ज्वार के खेतों की वास-स्थान रामभद्रपुर था। मँगनीराम के प्रपिता- रखवाली कर रहे थे। कहते हैं, मध्याह्न-काल में मह हरपति झा भी कवि थे, पर उनकी रचनायें अचानक एक तेज़ आँधी आई और तत्क्षण ही अप्राप्य हैं। इनके ज्येष्ठ पुत्र स्पर्शमणि झा प्रकांड कवि को सरस्वती का दर्शन और उनसे वर प्राप्त वैयाकरण थे तथा पौत्र भुवन झा भी सुकवि थे। हुआ। उस ग्राम के निवासी उस स्थान का निर्देश मॅगनीराम का बाल्यकाल अपनी ऐतिहासिक जन्म- आज भी करते हैं। उस स्थान पर एक पीपल का भूमि के प्राकृतिक सौन्दर्यपूर्ण वातावरण तथा पेड़ है। कहते हैं कि यह पेड़ उनके समय का है। वागमती के तीरस्थ बालुकाकीर्ण अरण्य प्रांतों में वह स्थान 'विरती टोले' के नाम से प्रसिद्ध है और व्यतीत हुआ था। मैंगनीराम की कवित्व-शक्ति पदुमकेर ग्राम से पश्चिम कुछ ही दूर है। कहते हैं किसी अंश में वंश-परंपरागत थी, पर उदार- कि सरस्वती की आज्ञा के अनुसार मँगनीराम प्रकृति के मधुर अंकस्पर्श ने उसका विशेष पोषण मनुष्यों से बातचीत करना बंद कर एकान्तवास किया। ये साक्षर मात्र थे। १८ वीं शताब्दी के उस करने लगे। यह देखकर उनके पिता को संदेह हुआ पतनोन्मुख मिथिला में भी यत्किचित् शिक्षा उपलभ्य कि किसी ने जादू तो नहीं कर दिया है। वे थी, उसे भी ये अभाग्यवश न प्राप्त कर सके थे। उद्विग्न हो उठे । शीघ्र ही मॅगनीराम चिकित्सा कल्पना-जगत ही इनकी पाठशाला थी और जीवन के लिए अपने ननिहाल वसतपुर भेजे गये, जो की अनुभूतियाँ ही इनके गुरु । ऐसा ज्ञात होता है कि बैरगनियाँ से प्रायः ४ मील उत्तर नैपाल-राज्य की ये छुटपन से ही कवितादेवी के एक अल्हड़, पर सीमा के भीतर है। कहते हैं, इस रहस्यपूर्ण घटना दृढ़ उपासक थे और इनके स्वभाव में सरसता के पश्चात् मँगनीराम की कवित्वशक्ति पूर्ण रूप
और विनोदप्रियता कूट कूट कर भरी थी। तत्का- से परिस्फुटित हो गई और ये उत्कृष्ट कविताओं की लीन प्रथानुसार बाल्यावस्था में ही मुजफ्फरपुर के रचना करने लगे। समीप पकड़ी ग्राम के 'ज्ञानी ध्यानी पाँजिवाले' एक कवि के जीवन की दूसरी विचित्र घटना उनके उच्च कुल की मैथिल-कन्या से इनका पाणिग्रहण ननिहाल-निवास-काल की है। उनके मामा नैपालहुआ। इन्होंने विवाह-काल में ही अपनी 'विधिकरी' राज्य के एक ज़मींदार अर्थात् कर उगाहनेवाले से यों मीठी चुटकी ली
हाकिम थे । एक दिन प्रातःकाल अपने मामा का लोटा 'वर बाभन कन्या धनुकाइन
लेकर ये नित्यकर्मों से निवृत्त होने चले। शौच आदि पकड़ी गामक विधिकरी डाइन ।' से निवृत्त होकर ये वागमती के किनारे बैठे लोटा माँज इस पर विधिकरी रूठ गई तब झट पद-परि- रहे थे। अकस्मात् लोटा नदी में गिर कर बह गया। वर्तन कर उसे यों सुना दिया
उसे पाने के लिए मँगनीराम नदी की प्रशंसा में 'वर बाभन कन्या सोतिआइन कविता-रचना करने लगे, पर दोपहर हो गया और
पकड़ी गाम क विधिकरी गाइन ।' उन्हें लोटा न मिला। तब तक उनके मामा को इस बात इससे विधिकरी प्रसन्न हुई।
की खबर होगई। अपने मित्रों तथा समीप की मँगनीराम के जीवन-वृत्तान्त में अनेक अलौ- नेपाल-राज्य की कचहरी कडिरवाना के उच्च किक बातों का सम्मिश्रण पाया जाता है। एक ऐसी अधिकारियों के साथ वे वहाँ गये। लोटा न आश्चर्यजनक घटना इनके १८ वें वर्ष में घटी थी। मिलने पर कोपाकुल होकर कवि ने नदी की निन्दा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
सरस्वती
[ भाग ३६
में कुकाव्य-रचना प्रारम्भ ही की थी कि लोटा लहरों
(२) पर नाचता हुआ किनारे आ लगा। सभी दर्शक कञ्चन के गजराज बनाय, कवि की इस अलौकिक शक्ति को देखकर आश्चर्य- जड़ाय जमाहिर लाल लसानी। चकित रह गये।
पावन पुच्छक शुण्डन में मणि, ___ यदि इस घटना की अलौकिकता का अंश पृथक मस्तक दन्त कहाँ लो बखानी। कर दें तो पात्र का जलनिमग्न होकर उसका फिर मिल इक पर्व महोदय लागि गयो, जाना एक साधारण घटना ही प्रतीत होती है। पर तहँ दान कियो नृप की महरानी । इस साधारण घटना ने मँगनीराम को प्रकाश में लाने गंग तरंग में स्वस्ति दई कर, में बड़ी सहायता की। कडिरवाना के अधिकारियों ने । हाथी बुड़ी है हथेली के पानी ॥ शीघ्र ही नैपाल-सम्राट् का ध्यान इस होनहार नवयुवक मॅगन की सूझ और प्रत्युत्पन्नमति पर सभी कवि की देवोपम शक्ति एवं विलक्षण प्रतिभा की सुधीजन मुग्ध हो गये और वाहवाही से वह उत्तुंग
ओर आकृष्ट किया। उन दिनों नैपाल के राजसिं- राजभवन प्रतिध्वनित हो उठा। इसके कुछ समय हासन पर सम्राट् रणबहादुरसिंह जी आसीन थे, बाद उनका नैपाल-दरबार में सिक्का जम गया जो सहृदयता एवं उदारता के साथ साहित्य, और वे स्वयं सम्राट् और सम्राज्ञी के स्नेहभाजन संगीत आदि ललित कलाओं की परख और उनका बन गये। नैपाल-दरबार में उन्होंने कितने दिनों तक संरक्षण करते थे। उनकी महारानी भी कवियों और निवास किया, इसका पता नहीं लगता, पर इतना कलाविदों का उचित सम्मान करती थीं। शीघ्र ही स्पष्ट है कि अपनी युवावस्था के कतिपय उत्तम वर्ष नैपाल-नरेश ने मँगनीराम के मामा के नाम आज्ञा- उन्होंने नैपाल-नरेश के आश्रय में ही व्यतीत किये पत्र भेजा। तदनुसार मॅगनीराम नैपाल-राजसभा में थे। इस प्रकार नैपाल में सम्मानित होकर वे जब उपस्थित किये गये। सम्राट ने एक समस्या दी। सभी स्वदेश को लौटने लगे तब महाराणा ने उन्हें प्रचुर उपस्थित कवियों की रचनाओं में मँगनीराम की द्रव्य, एक हाथी और 'गड़रिया' तथा 'डुमरिया' समस्यापूर्ति उत्कृष्ट हुई और प्रसन्न होकर सम्राट ने नामक दो ग्राम स्थायी रूप से देकर बिदा समस्त राजकवियों में उनको सर्वोच्च स्थान देकर किया। इन ग्रामों की सनद भी उन्हें दे दी गई। उनकी मेधाशक्ति तथा पांडित्य की प्रशंसा की। उक्त विद्वत्प्रेमी सम्राट् उनके व्यक्तित्व के प्रबल प्रशंसमस्या थी—'कर हाथी बुड़ी है हथेली के पानी'। सक हो चुके थे। उन्हें शीघ्र ही अपने दरबार में इसकी जो पूर्तियाँ मँगनीराम ने की वे ये हैं- देखने की तथा उनका काव्यरसामृत पान करने
की अभिलाषा से सम्राट ने उनसे अनुरोध कियाभाग्य भगीरथ की पुड़िया महँ,
"जब आप पुनः नैपाल आवेंगे तब और भी ज़मीशम्भु दियो मन्दाकिनी आनी। दारी देकर सनद में लाल मोहर कर दूंगा।" परन्तु विष्णु कियो छल देखन को तहँ,
मालूम पड़ता है कि अनेक सांसारिक झंझटों से तथा छूटि पड़ी गिरि खोह समानी ॥ विशेषतः अपनी सुतवत्सला वयोवृद्धा जननी की वासव सै अहिरावत लै युग
मनाही के कारण मँगनीराम दूसरी बार नैपाल-यात्रा दन्त धसाय सुमेरहु तानी।
न कर सके। कुछ समय के बाद नैपाल-नरेश का बहरे जल धार पहाड़न ते कर,
बुलावा भी आया, पर उपर्युक्त कारण से वे नहीं हाथी बुड़ी है हथेली के पानी ॥ जा सके। वस्तुतः उन्हें अब सांसारिक वैभव-सुख
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
मैथिल कवि श्री मॅगनीराम झा
२१३
से तृप्ति और विरक्ति-सी हो गई थी और अपने .. सुरमा क रथ चढ़ि तोंहीं बैसलि ग्राम में ही निवास करते हुए वे तापस-जीवन
दुर्गा नाम धराव । व्यतीत करते थे। इसी समय कवि के वार्द्धक्य- पण्डित के तो पोथी जाँचह, काल में दरभंगा के महाराज ने उनकी ख्याति सुन
सरस्वति नाम सुनाव ॥ हे मा०॥ कर उन्हें अपनी राजधानी में निमंत्रित किया।
गाइनि मुख में गान भै पैसलि, स्वाभिमानी कवि ने उत्तर में लिखा-'मॅगन के
सुस्वर गीत सुहाव । द्वार पर मैंगन कहिं अघात है ?' निमंत्रण अस्वीकार
'मैंगनीराम' चरण पर लोटथि कर दिया। सन् १७९५ ई० में १०८ वर्ष की अवस्था
भक्ति मुक्तिवर पाव ॥ हे मा०॥ में उन्होंने अपना शरीर-त्याग किया। ____ मॅगनीराम के जीवन-वृत्तान्तों से यह संभव इसके अतिरिक्त तिर्हत प्रांत में भ्रमण और खोज प्रतीत होता है कि नैपाल-राज्य के पुस्तकालय में करने के उपरान्त मुझे मॅगनीराम की लगभग २९ उनकी रचनायें अथवा स्वयं कवि के हस्तलेख सुर- कवितायें प्राप्त हुई हैं। इनमें 'श्रीकृष्ण जन्म सोहर,' क्षित हों। महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ झा 'श्री गंगास्तव' और 'द्रौपदीपुकार' शीर्षक तीन की अनुमति के अनुसार मैंने हिज़ हाइनेस नैपाल- कवितायें बड़ी हैं। ये वर्णनात्मक हैं। शेष सभी महाराज के प्राइवेट सेक्रेटरी महोदय को मॅगन कवि विविध विषयों पर सुन्दर कवित्त एवं गीत हैं और के सम्बन्ध में कई पत्र लिखे, पर वहाँ से अब तक एक . सभी कवित्त्वपूर्ण हैं। का भी उत्तर नहीं मिल सका। अतएव मैंने नैपाल जाकर मँगन के जीवन और काव्यों के सम्बन्ध में
श्रीयुत वृन्दावनदास जी बी० ए०, एल-एल० बी० खोज करने का निश्चय किया है। इधर पता लगा है कि मधुवन-दरबार में मैंगन-रचित लगभग ३०
ने 'हिंदी की उत्पत्ति और उसका विकास' शीर्षक कवित्त सुरक्षित हैं और कवि के ननिहाल वसतपुर अपने विद्वत्तापूर्ण निबंध में ठीक ही लिखा है-- (नेपाल राज्यांतर्गत) में उनका 'उषाहरण' नामक
'औरंगजेब के राज्य से मुग़ल-शासन का अंत खंडकाव्य अब भी प्राप्त हो सकता है। श्री भोल समझा जाता है। मुग़ल-शासन के अंत के साथ
साथ हिंदी की उन्नति में भी बाधा पड़ गई। इसी झा-द्वारा संग्रहीत 'मिथिला-गीत-संग्रह' के तृतीय कारण अठारहवीं शताब्दी के अंतिम काल में हिंदी भाग में भी मॅगनीराम-चित एक दर्गा-स्तति मिली के साहित्याकाश में किसी महत्त्वपूर्णे नक्षत्र का है, जो यों है
उदय नहीं हुआ।" मुझे निश्चय है कि कविवर श्री तोही घरनी तोंही करनी,तोंहीं जगत क मात। हे मा०। मंगनीराम झा के जीवनचरित और रचनाओं पर दश मास माता उदर में राखल
पूर्ण प्रकाश पड़ने पर हिंदी के इतिहास के इस दश मास दूध पियाव ।
रिक्तस्थान की बहुत कुछ पूर्ति हो सकेगी। मँगन की निरंकार निरंजनि लक्ष्मीस्वरि
प्राप्त कविताओं का रसास्वादन दूसरी बार कराऊँगा। भवघरनि तो कहाव ।। हे मा० ।।
(घ) देखिए- 'श्री रमेश्वर प्रेस' से प्रकाशित 'मिथि
लागीत-संग्रह', भाग ३, पृ० १.
(ङ) देखिए-'माधुरी' मार्गशीर्ष, ३०६ तुलसी
संवत् [१६८६ वि०] पृ० ५८६-५६२.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४
सरस्वती
.[भाग ३६
कवि के भावमय शब्दों में भारती की वंदना करके 'मॅगनी कवि' कहै सरसुती सों सिनेह नाहि इस लेख को समाप्त करता हूँ
(तो) धूआँ की धरोहर श्रृंगार सब छार है। कोटि कोटि सम्पति ओ लाखन सिपाह खड़े ___झूमत गजराज द्वार हलका हजारों हैं।
(च) श्री मँगनीराम झा की कविताओं को संकलित कर कोठरी भरी है हेम हीरा ओ जवाहरात
मैं उन्हें शीघ्र ही पुस्तकाकार प्रकाशित कराना चाहता _ अंग अंग गूंथी मणि मोतिन की हार हैं।
हूँ। इनकी जन्मतिथि, जीवन-वृत्तांत तथा रचनाओं महल में भीतर चटकीली चन्द्रमुखी नारि
के विषय में जिन विद्वानों को विशेष बातें ज्ञात हों वे
कृपया निम्नांकित पते से लिखें-C/ The Prin___बाहरे हजार भूप करत गोहार हैं ।
cipal, Patna Training College, P.O. Binkipore. पत्र-व्यवहार इत्यादि का सम्पूर्ण व्यय मैं दूंगा और पुस्तक में कृतज्ञतापूर्वक उनका ऋण स्वीकार करूँगा।
-लेखक।
. उच्छ्वास
लेखक, श्रीयुत कुँवर सोमेश्वरसिंह, बी० ए० कहते हैं जो कहने दो,
मेरे नैराश्य-अनल की, हँसते हैं जो हँसने दो।
आँचों से जग घबराता। मेरे आकुल जीवन को,
बस एक मात्र मुझको ही, अपनी लय में बहने दो।
इस ज्वाला में जलने दो॥ है जान नहीं सकता जग,
सुख की निद्रा सोता जग, पहचान नहीं सकता जग।
जाने क्या मेरा सपना । मेरे प्राणों को अपनी,
मेरे इन उन्मादों को, पीड़ा ही में घुलने दो॥
मुझमें विलीन रहने दो॥ है मोल कौन कर सकता,
सब भाँति हमारे जो हैं, मेरे मृदु अश्रुकणों का ?
जानते मुझे जो रग रग। अनमोल मोतियों को इन,
वे भी अजान बन जाते, बस नयनों से झरने दो।
एकान्त मुझे रहने दो॥ आँधी जो छिपी हुई है,
यह कसक नहीं मिट सकती, मेरे मृदु उच्छवासों में।
यह हृदय नहीं फिर सकता। उसको जग समझ न सकता,
पागल मुझको कहते जो, इनको अदृश्य उड़ने दो॥
निर्विघ्न उन्हें कहने दो॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मावलीप्रसाद जी हिन्दी के सुलेखकों में हैं। सरस्वती में पहले आप बहुत लिखते थे । प्रसन्नता की बात है कि आपने लिखना फिर शुरू कर दिया है । गोस्वामी तुलसीदास ने अपने मानस में कतिपय दुर्लभ पदार्थों का प्रसंगवश स्थान स्थान पर उल्लेख किया है। वही सब इस लेख में श्रीवास्तव जी ने एक क्रम से -
संकलित किया है।
पदाथ
लेखक, श्रीयुत मावलीपसाद श्रीवास्तव
E
सार में ऐसी कोई वस्तु नहीं गया है ? कारण उसी चौपाई के आगे मिलता है। जो दुर्लभ हो। पुरुषार्थी के “साधन धाम मोक्ष कर द्वारा”—यह शरीर सभी लिए सभी पदार्थ सुलभ हैं साधनाओं का मार्ग और मुक्ति का द्वार है; इसी अथवा हो सकते हैं। इसी कारण यह सुर-दुर्लभ है। इसके ज़रिये चारों पदार्थ
लिए कहा गया है कि 'सकल अर्थ, धर्म, काम और मेक्षि-का साधन हो सकता है । ISRAE L पदारथ हैं जग माँही । कर्म- दुर्लभ नर-शरीर पाकर जिसने कुछ भी पुरुषार्थ न किया,
N हीन नर पावत नाहीं।' जिसने लोक-परलोक का, किसी एक का भी साधन न सत्कर्म-रहित और पुरुषार्थ-हीन जीवों को बहुत-से पदार्थ किया, वह अभागी शोचनीय है। मनुष्य-शरीर बहुत कभी नहीं मिल सकते । परन्तु कुछ अधिक मूल्यवान् दुर्लभ है, इसलिए इसका कुछ-न-कुछ सदुपयोग करना पदार्थ भी हैं जो सचमुच दुर्लभ ऐसे हैं जो सत्कर्मशील ही चाहिए ।
और पुरुषार्थ-पूर्ण व्यक्तियों को भी शीघ्र नहीं मिल (२) अमृत का नाम सुना जाता है, विष प्रत्यक्ष सकते । मिलें कैसे ? हर एक जंगल में चंदन नहीं होता, देखने को मिलता है। सुधा दुर्लभ है, विष सर्वत्र प्रत्येक हाथी में गजमुक्ता नहीं पाया जाता, प्रत्येक सुलभ है। हंस जल्दी नहीं मिलता। कौए, उल्लू और पत्थर में माणिक्य नहीं रहता और हर गली-कूचे में बगुले सभी जगह बहुतायत से पाये जाते हैं । सजन पुरुष नहीं मिल सकते । दुर्लभ और मूल्यवान् सुनिय सुधा देखिय गरल, सब करतूति कराल । पदार्थ कहीं-कहीं, कभी-कभी, किसी-किसी अधिकारी जहँ तहँ काक, उलूक, बक, मानस सकृत मराल ॥ अथवा सत्पात्र व्यक्ति को ही मिल सकते हैं । इस लेख सुधा और राजहंस की तरह सच्चे संत और यथार्थ में तुलसीकृत रामायण के अाधार पर थोड़े में यह सजन भी संसार में बहुत कम मिलते हैं। मनुष्यबतलाने का प्रयत्न किया जायगा कि ये अत्यन्त दुर्लभ समाज में वेषधारी बगुलों, स्वाँग बनानेवाले बहुरूपियों पदार्थ कौन-कौन हैं।
और धर्त कौवों की कमी नहीं। जहाँ हूँढो. ये काफ़ी (१) सबसे पहले तो यह मनुष्य-शरीर ही बहुत दुर्लभ तादाद में मिलेंगे। इसी लिए सजन के सत्संग का मिलना है। यह चाहे मिट्टी का कच्चा घड़ा हो क्षणभंगुर हो, विषय- बहुत दुर्लभ बतलाया गया है । "सत्संगति दुर्लभ संसारा । वासनाओं और रोग-शोक का घर हो, जो कुछ भी हो, निमिष दंड भरि एको बारा ॥ (उत्तरकाण्ड)” एक परन्तु है बहुत दुर्लभ । “बड़े भाग्य मानुष तन पावा। ही बार, एक घड़ी या एक पल भर के लिए भी सुर दुर्लभ सद्ग्रंथन्ह गावा। (उत्तरकाण्ड)" ऐसा क्यों सजनों की संगति मिलना दुर्लभ है। यदि घंटे दो घंटे कहा गया है ? यह क्षणभंगुर शरीर सुरदुर्लभ क्यों बतलाया के लिए भी सत्समागम हो जाय तो फिर क्या कहना
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१६
सरस्वतो
[भाग ३६
है ! ध्रुव से पहले-पहल नारद जी से पाँच मिनट की ही (४) बूढ़े माता-पिता और बड़े-बूढ़ों का आदर करना तो मुलाकात हुई थी। “धन्य घड़ी सोइ जब सत्संगा।" तथा उनके विचारों और इच्छाओं के अनुकूल चलना पारस-पत्थर का ज़रा-सा स्पर्श होते ही लोहा सोना बन तो आज-कल के युग में बहुत ही कठिन होता जा रहा जाता है।
है । ब्याह हो गया और थोड़ी-सी जीविका का प्रबन्ध मज्जन फल देखिय तत्काला।
हो गया कि बड़े-बूढ़े बेकाम और माता-पिता भार-रूप काक होहिं पिक बकहु मराला ॥
मालूम होने लगते हैं। वृद्ध माता-पिता का शारीरिक शठ सुधरहिं सतसंगति पाई ।
पोषण तो लोकलज्जा के कारण कर भी दिया जाता पारस परसि कुधातु सुहाई॥
है, परन्तु उन्हें मानसिक संतोष पहुँचाना तो आज-कल सत्संगति क्या क्या नहीं करती ! राजर्षि भर्तृहरि एक बला मानी जाती है ! हिन्दू-कुटुम्ब-प्रणाली का कहते हैं कि वह सब कुछ कर सकती है; बुद्धि की जड़ता प्राचीन आदर्श बहुत उच्च था-माता-पिता की गिनती को हरती, वाणी में सत्य को खींचती, मान को बढ़ाती, देवताओं में की जाती थी । किसी-किसी घर में यह आदर्श पाप को दूर करती, चित्त को प्रसन्न रखती और दिशाओं अब भी दिखलाई पड़ता है। अस्तु, रामचन्द्र जी ने उस में कीर्ति को फैलाती है। जिस संगति से ये परिणाम नहीं हो प्राचीन श्रादर्श का उपदेश कई प्रसंगों पर किया है । सकते उसे सत्संग कैसे कहें ? जिससे ये परिणाम हो सकते अपने आचरण से भी उन्होंने अादर्श पितृ-मातृ-भक्ति हैं वह मूल्यवान सत्संग सचमुच दुर्लभ है। ऐसे दिखलाई है। राज-तिलक के दिन सहसा वनवास की राजहंस-रूपी विवेकी और सुधा के समान प्राणदायक आवश्यकता देखकर वे तिल भर भी दुखी न हुए और सज्जन बहुतायत से कहाँ मिल सकते हैं ?
कैकेयी से प्रसन्नतापूर्वक कहने लगे-- (३) प्रायः देखा जाता है कि हम कहते कुछ और
सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी । हैं और करते कुछ और हैं । हाथी के दाँत दो प्रकार के
जो पितु मातु वचन अनुरागी । होते हैं---खाने के और दिखाने के और । दूसरे की विपत्ति
तनय मातु पितु तोषनिहारा । के समय स्वयं धीरज रखने का उपदेश देना अलग दुर्लभ जननि सकल संसारा । बात है और अपनी विपत्ति के समय स्वयं धीरज रखना
(अयोध्याकाण्ड) अलग बात है। जैसा कहना वैसा करना सबसे ___ अर्थात् वही पुत्र बड़ा भाग्यवान् है जो अपने माता-पिता नहीं होता। यदि ऐसा हो जाता तो संसार स्वर्ग बन के वचनों का प्रेमी अथवा अाज्ञाकारी हो; माता-पिता को जाता। हम जिन बुरी बातों (चोरी, जुत्रा, मद्य-पान, संतोष देनेवाला पुत्र सारे संसार भर में दुर्लभ है। अत्याचार) के लिए दूसरों को मना करते हैं, उन्हीं का जो अपने माता-पिता और पूज्यजनों की सेवा को श्राचरण स्वयं करते हैं। इसी लिए दूसरों पर हमारे उप- परम धर्म माने, उनकी आज्ञा का पालन करने में अपना देशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। "पर-उपदेश-कुशल सौभाग्य और पूरी भलाई समझे और उनका रुख देखकर बहुतेरे । जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥ (लंकाकाण्ड)" चले, वह सुपुत्र बड़े भाग्यवाले को मिलता है। अपने वचनों और उपदेशों के अनुसार स्वयं अाचरण
"धन्य जनम जगतीतल तासू । करनेवाले आदमी संसार में बहुत कम हैं—जो है वे पितहिं प्रमोद चरित सुनि जासू ॥" धन्य हैं । जिसमें मन, वाणी और कर्म की एकता पाई जिसके चरित्रों को देख-सुनकर पिता को आनन्द हो वह जाती हो उसे आप दुर्लभ पुरुष ही समझिए-वह पुत्र धन्य है । ऐसा पुत्र निस्सन्देह दुर्लभ है। चाहे बूढ़ा हो या दरिद्र, अपढ़ हो या रोगी–वह कोई (५) संसार चापलूसी की मीठी बातें पसन्द करता महापुरुष अथवा श्रेष्ठ जीव है।
है। ठकुरसुहाती कहते जाइए, दुनिया चाव से सुनेगी।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
दुर्लभ पदार्थ
२१७
अपना उल्लू सीधा करना हो तो खुशामद की बातें करते साहित्य को देखकर उसके गुण न बतलावे, द्वेष, उदाजाइए- दिन को रात कहते जाइए। दुनिया में न तो सीनता या अभिमान से चुप्पी साध ले, तो लेखक या कवि चिकनी-चुपड़ी बातें करनेवालों की कमी है, न चिकनी- का हृदय फटने लगेगा। जो मर्मज्ञ समय पर किसी रचना चुपड़ी सुननेवालों की । “प्रिय वाणी जे सुनहिं जे कहहीं। के गुण प्रकट करता है और आनन्द प्रदर्शित करता है ऐसे नर निकाय जग अहहीं ।। (लंकाकांड,” परन्तु संसार वह सचमुच दुर्लभ है। में ऐसे कितने श्रादमी हैं जो दूसरों को सच्चा लाभ पहुँ- (७) प्राण के रहते तक अपने प्राण और सिद्धान्तों चाने के इरादे से कुछ खरी और कड़ी बातें निर्भयतापूर्वक का निर्वाह प्रत्येक परिस्थिति में करनेवाले वीर संसार में कम कहने का साहस रखते हैं ? बहुत थोड़े। और ऐसे कितने
मिलते हैं। लड़ाई में शत्रु को कभी पीठ दिखाकर न विचारशील आदमी हैं जो ऐसी हितदायक परन्तु कठोर भागनेवाले और पराई स्त्री की ओर जन्म भर कभी कुदृष्टि बातों को शान्तिपूर्वक सुनना चाहते हैं ? बहुत थोड़े।
न करनेवाले वीर सचमुच दुर्लभ है । गिरिजापूजन के लिए रामायण की राय है कि ऐसी खरी खरी कहनेवाले भी आई हुई सीता को देखकर राम ने लक्ष्मण से ऐसा ही दुर्लभ हैं और शान्तिपूर्वक सुनने वाले भी । “वचन परम कहा था- "जिनके लहहिं न रिपु रण पीठी । नहिं लावहिं हित सुनत कठोरे। सुनहिं कहहिं ते नर जग थोरे। पर तिय* मन दीठी ॥ मंगन लहहिं न जिनके नाहीं । (लङ्काकाण्ड)"
ते नर वर थोरे जग माहीं ॥ (बालकाण्ड," और जो (६) अपने हाथों की बनाई हुई कोई भी चीज़ बहुत भिखारियों को कभी भी विमुख नहीं फेरते ऐसे उत्तम पुरुष अच्छी मालूम होती है । यह स्वाभाविक अवस्था है । श्राप भी संसार में बहुत थोड़े हैं। शत्र को कभी भी पीठ न एक ज़रा-सी टोपी, रूमाल, बेंच, किसी किताब की जिल्द न दिखाना, व्यभिचार से-मानसिक व्यभिचार से भीया और कुछ बनाकर देखिए । वह बहुत सुन्दर मालूम आजीवन बचे रहना और भिक्षकों को कभी भी "नाही" होगी । अपनी रचना में आपको प्रायः दोष दिखलाई नहीं कहना साधारण बातें नहीं हैं-इन बातों का निर्वाह ही न पडेगा। जो हाल शिल्पियों, चित्रकारों और कला- करनेवाले पुरुष दुर्लभ ही हैं। विदों का है, वही हाल साहित्य-शिल्पियों, शब्द-चित्रकारों (८) तपस्या ही वह उपाय अथवा साधन है जिसके
और काव्य-कलाधरों का है। अपनी बनाई हुई तुकबन्दी द्वारा बड़े-बड़े आश्चर्यजनक काम किये जा सकते हैं । अच्छी हो या खराब, अच्छी ही मालूम होगी- रसिकता तो विलास-प्रेमी प्राणी कभी तपस्या कर ही नहीं सकता। इसी में है कि दूसरों की अच्छी रचना हमें स्वभावतः तपस्या अंत में परम सुखदायक परिणाम तो उत्पन्न करती अच्छी मालूम हो । परन्तु दूसरों की रचनाओं को देख- है, परन्तु श्रारम्भ में वह बड़ी कष्टदायक मालूम होती है। सुनकर खुश होनेवाले सहृदय सज्जन दुर्लभ होते हैं । इसी इससे शरीर का तो पोषण नहीं होता-श्रात्मा का होता लिए गुसाई जी कहते हैं-"निज कवित्त केहि लाग न है। तपस्वी का शरीर प्रायः क्षीण परन्तु तेजवान होता है। नीका । सरस होय अथवा अति फीका ।। जे पर भणित तप के बल पर ब्रह्मा विश्व की रचना करते, विष्णु सृष्टि सुनत हरषाहीं । ते वर पुरुष बहुत जग नाहीं।" की रक्षा करते और शिव संसार का नाश करते हैं । कठिन
जो लोग किसी नव-रचित ग्रन्थ या कविता की कद्र तपस्या के द्वारा ही पार्वती ने असम्भव काम कर दिखाया नहीं जानते वे यदि कुछ समझे बिना यों ही उसकी प्रशंसा करने लगें तो उसके लेखक या कवि को अानन्द तो न * सुग्रीव राम से कहने लगेहोगा-उलटे उसका हृदय फटने लगेगा -"असमझ नारि नयन शर जाहि न लागा । घोर क्रोध तम निशि जो जागा।। वार सराहिबो" की तरह "समझ वार को मौन" भी कष्ट- लोभ पाश जेहि गर न बँधाया। सेो नर तुम समान खुराया । दायक है। यदि कोई जानकार या मर्मज्ञ किसी अच्छे
(किष्किन्धा-काण्ड) फा.४
ता
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
सरस्वती
था -- शंकर के समान दुराराध्य पति प्राप्त कर लिया था । सारा संसार तपस्या के सहारे टिका हुआ है । भारतीय स्वतन्त्रता के आन्दोलन में आज उसी दल का प्रभाव है जिसने कुछ तप किया है । अत्यन्त दुर्लभ पदार्थ, अमरकीर्ति बड़े-बड़े पद सत्र तपस्या के बल पर ही मिल सकते और मिलते हैं । इसी लिए कहा गया कि " जनि आश्चर्य करहु मन माँही । सुत तप ते दुर्लभ कछु नाहीं ॥ (बालकांड)” अतएव अविचलित तपस्वी का जीवन बहुत दुर्लभ जीवन है ।
(६) मनुष्य जीवन में ऐसे प्रसंग बार बार नहीं आते जब प्रत्येक परिस्थिति में हमारा हित ही हित हो - जीत में भी जीत हो और हार में भी जीत हो, लाभ में भी लाभ हो और हानि में भी लाभ हो। दोनों हाथों में लड्डू रहना बड़े भाग्य का चिह्न है, परन्तु ऐसा बहुत कम प्रसंगों में संभव होता है । भरत-वन-गमन के समय गुह निषाद को ऐसा ही सौभाग्यपूर्ण अवसर मिला था इसलिए उसने
कहा था
समर मरण पुनि सुरसरि तीरा। रामकाज क्षणभंगु शरीरा ॥ भरत भाइ नृप मैं जन नीचू । बड़े भाग्य अस पाइय मीचू ॥
युद्ध में शत्रु से लड़ते-लड़ते वीरगति प्राप्त करना बड़ा दुर्लभ है - इससे स्वर्ग मिलता है (गीता - दूसरा अध्याय ३७ वाँ श्लोक) गंगा जी के किनारे पर मरनेवालों की इस लोक में बड़ी सराहना की जाती है; फिर खटिया में न सड़कर किसी रामकाज ( पुण्य - कार्य अथवा परोपकार) के लिए इस नाशवान् शरीर का काई बलिदान कर देना चाहे तो फिर क्या पूछना है ! ऐसी दुर्लभ मृत्यु संसार में बड़े भाग्य से मिलती है - ऐसा स्वर्णसंयोग दुर्लभ है । इसी लिए निषादराज ने कहा था-- “ दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरे ।" 'पार गये तो पार है, अटक गये तो पार' ।
-
(१०) पुत्र, धन, स्त्री, सुन्दर घर और परिवार बड़े मूल्यवान् पदार्थ हैं । इनमें बड़ा आकर्षण है इनके पाश सारा संसार बँधा है । परन्तु इनके एक बार नष्ट होने पर प्रयत्न से फिर मिलने की संभावना रहती है । ये बार बार होते और मिटते रहते हैं । सगा भाई एक बार नष्ट हुआ तो फिर नहीं मिल सकता । सगे भाई का बार बार
1
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
मिल सकना दुर्लभ है । लक्ष्मण मूर्छा के समय विलाप करते हुए राम जी ने यही श्राशय प्रकट किया था - " सुत वित नारि भवन परिवारा । होहिं जाहिं जग बारहिं बारा ॥ अस विचारि जिय जागहु ताता । मिलै न जगत सहोदर भ्राता ।। (लंकाकांड)” सगे भाई दो प्रकार के होते हैं - एक तो एक ही माँ-बाप के और दूसरे पैसे के । 'दादा भले न भैया । सबसे भला रुपैया ।' पैसे के भाई संसार में हमेशा और सभी जगह मिल सकते हैं । रामचन्द्र जी का तात्पर्य यह है कि प्रेमपूर्ण और विश्वसनीय सहोदर भाई का मिलना दुर्लभ है।
(११) संसार में बहुत-सी चीजें दुर्लभ हैं । भक्तशिरोमणि तुलसीदास जी ने इस विषय पर बड़ा अमूल्य विवेचन किया है।
उत्तर - काण्ड में पार्वती ने महादेव से अपनी जो शंका की थी उससे मालूम होता है कि संसार में किस-किस प्रकार के जीव कितने दुर्लभ हैं। पार्वती कहती हैं
नर सहस्र मँह सुनहु पुरारी । कोउ इक होइ धर्मव्रतधारी ॥ हज़ार मनुष्यों में धर्मव्रतधारी कोई एकाध विरला आदमी होता है और
धर्मशील कोटिक महँ कोई । विषय विमुख विरागरत होई ॥
विलास से दूर रहकर सीधा-सादा जीवन व्यतीत करनेवाला और विराग प्रेमी व्यक्ति तो करोड़ धर्मशील आदमियों में कोई विरला होता है, अर्थात् ऐसा आदमी अरबों में एक-आध निकलता है। 'सौ में सती और लाखों में यती' की कहावत प्रसिद्ध ही है औरकाटि विरक्त मध्य श्रुति कहई । सम्यक ज्ञान सकृत कोउ लहई ||
-
* मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥ ( गीता - अध्याय ७ श्लोक ३ )
और कहहिं संत मुनि वेद पुराना । नहिं कछु दुर्लभ ज्ञान समाना ।
(उत्तरकाण्ड)
www.umaragyanbhandar.com
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
दुर्लभ पदार्थ
२१९
वेद का कथन है कि करोड़ों विरक्तों में से यथार्थ होता है कि अटल वीरता दुर्लभ है, किसी वचन का ज्ञान प्राप्त करनेवाला कोई विरला एक होता है। और- आशय है कि श्रेष्ठ मृत्यु का स्वर्ण संयोग दुर्लभ है, किसी ज्ञानवंत काटिक मँह कोऊ । जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ॥ से मालूम होता है कि तपस्विता-पूर्ण जीवन दुर्लभ है और
करोड़ों ज्ञानियों में जीवनमुक्त तो काई विरला ही किसी विवेचन से पता चलता है कि धर्मशीलता, विषयहोता है । और --
विमुखता, निर्मल ज्ञान, जीवनमुक्ति, ब्रह्मलीनता, और तिन सहस्र महँ सब सुख खानी । दुर्लभ ब्रह्मलीन विज्ञानी॥ भक्ति दुर्लभ और मूल्यवान् हैं । परन्तु जब यह मनुष्य
हज़ारों जीवनमुक्तों में सम्पूर्ण आनन्द से परिपूर्ण शरीर ही न रहे तब सत्संग कैसे मिले, जब शरीर न हो तब विज्ञानी और परमात्मा में लीन रहनेवाला पुरुष तो और अच्छा आचरण किसके द्वारा किया जाय, जब शरीर ही भी अधिक दुर्लभ है -ऐसा आदमी संसार में बड़ी कठि. न रहे तब सद्गुणी पुत्र कैसे मिले, शरीर के अभाव में नाई और महान् सौभाग्य से ही मिल सकता है। धर्मशीलता, तपस्या, विरक्ति, ज्ञान और भक्ति के लिए ___तात्पर्य यह है कि अरबों-खरबों आदमियों के इस साधन किसे बनाया जाय ? इसलिए उत्तरकाण्ड के अन्त संसार में धर्म-व्रती बहुत थोड़े हैं, धर्म-व्रतियों में भी विरक्त में जो कहा गया है कि मनुष्य-शरीर-रूपी दुर्लभ पदार्थ की
और विषय-प्रेम-त्यागी सभी नहीं होते-कोई कोई ही होते भावना सभी करते हैं, वह हमारी तुच्छ बुद्धि के अनुसार हैं, विरक्तों में भी सब यथार्थ ज्ञानी नहीं होते और ज्ञानियों निरन्तर ध्यान में रखने योग्य है। कागभुशुंडि जी गरुड़ में भी ब्रह्मलीन प्राणी तो बड़े दुर्लभ हैं । “धर्मशील विरक्त से कहते हैं - अरु ज्ञानी । जीवनमुक्त ब्रह्म पर प्राणी।" और ईश्वरानु- नर तनु सम नहिं कवनेउ देही। जीव चराचर याचत जेही। रागी होना तो इन सबमें भी अत्यन्त दुर्लभ है- “सब नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी । ज्ञान विराग भक्ति सुख देनी। ते सो दुर्लभ सुरराया। रामभक्ति रत गत मद माया ।" यह अमूल्य शरीर स्वर्ग और अपवर्ग की सीढ़ी हैमोह, ममता, वासना आदि का त्याग कर निष्काम भक्ति इसके द्वारा परम सुखदायक ज्ञान, विराग और भक्ति का करनेवाले तो महान् दुर्लभ हैं। देखा आपने, गुसाई साधन इच्छानुसार किया जा सकता है। परन्तु कैसा शरीर जी ने वेदों का सहारा पकड़कर और गहरी छानबीनकर दुर्लभ है ? क्या जड़ शरीर ? क्या नरक दिलानेवाला किस क्रम से पहले दूध, दूध से दही और छाँछ, छाँछ से शरीर मूल्यवान् है ? क्या इसी की इतनी प्रशंसा की जा मक्खन और मक्खन से घी निकाला है । तात्पर्य यह है कि रही है ? नहीं, दुर्लभ है पुरुषार्थी शरीर, जिसकी आत्मा धर्मशीलता दुर्लभ है, उससे अधिक दुर्लभ है विरक्ति, जाग्रत और चैतन्य हो, जो अपने भीतरी शत्रुओं से विरक्ति और विषय-विमुखता से भी अधिक दुर्लभ है सम्यक् आजीवन युद्ध करता रहे और जो मूर्ख की तरह काँच का ज्ञान, ज्ञान से भी अधिक दुर्लभ अवस्था है जीवनमुक्ति सौदा न कर मणि का सौदा करे। श्रीमान् शङ्कराचार्य तथा जीवन-मुक्ति से भी अधिक दुर्लभ है ब्रह्मलीनता जी कहते हैं- "मनुष्य-जन्म, मोक्ष की इच्छा और
और ब्रह्मलीनता से भी अधिक दुर्लभ है ईश्वरभक्ति । महापुरुषों का सत्संग, ये तीनों दुर्लभ हैं-ये तभी ___ गुसाई जी की रामायण के जो अमूल्य वचन यहाँ मिलते हैं जब ईश्वर की कृपा हो ।" जब मनुष्यदिये गये हैं उनसे क्या सिद्ध होता है ? किसी वचन से शरीर ही न हो तब मुमुक्षु कौन बने और सजनों का सिद्ध होता है कि मनुष्य-शरीर दुर्लभ है, किसी से मालूम सत्संग कौन करे ? मूल कारण तो यह शरीर ही है। इसी होता है कि सत्संग अत्यंत दुर्लभ है, किसी चौपाई से पता लिए यह अत्यन्त दुर्लभ बतलाया गया है । परन्तु हम चलता है कि मनसा-वाचा-कर्मणा आचरण की एकता दुर्लभ है, किसी से मालूम होता है कि खरी और कल्याण- * दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम् । कारी बातें कहने-सुननेवाले दुर्लभ हैं, किसी से मालूम मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुषसंश्रयः ।।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०
इसका कैसा उपयोग करते हैं ? इसका कैसा उपयोग होना चाहिए ? हमारी प्रकृति, प्रवृत्ति, परिस्थिति और शक्ति के अनुसार इसका क्या उपयोग किया जा सकता है ? क्या प्रत्येक विचारवान् पाठक को इन प्रश्नों पर तुरन्त विचार नहीं करना चाहिए ?
(१२) हम लेख के प्रारम्भ में कह आये हैं कि "सकल पदारथ हैं जगमाहीं । कर्महीन नर पावत नाहीं ॥" उसी सिलसिले में वह भी कहा गया है कि कुछ स्थायी और मूल्यवान पदार्थ ऐसे भी हैं जो सचमुच दुर्लभ हैं जो सत्कर्मशील और पुरुषार्थी व्यक्तियों को भी शीघ्र नहीं मिल सकते । तत्र ऐसा भाग्यवान् श्रादमी कौन है जो इन तथा ऐसी सब दुर्लभ चीज़ों को प्राप्त करना चाहे तो
सरस्वती
वासन्ती मधु कानन से मलयानिल बहता आता; मुझ भाग्यवान पर निशि - दिन
स्वर्गीय सुधा बरसाता । मुझ देवलोकनायक की मुसकान भरी उडुगरण में; मेरी सुकीर्ति छाई है सुरतरु के भव्य सुमन में ।
रत्नों की भेंट चढ़ाता चरणों पर बढ़ रत्नाकर; मेरा शृंगार सजाता राकापति भेज अयुत कर ।
मौलिक
लेखक, श्रीयुत कपिलदेव नारायण सिंह 'सुहृद'
कोकिल की मधु काकिल से
पाता मैं गायन का स्वर; नित कुसुम - कुलों से मिलती मुसकान मुझे नव सुन्दर
।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
अवश्य प्राप्त कर ले ? इस प्रश्न का उत्तर गुसाई जी ही देते हैं – “परहित बस जिनके मन माहीं । तिनकीँ जग दुर्लभ कछु नाहीं || इस लेख में जितने दुर्लभ पदार्थ बतलाये गये हैं और जो नहीं बतलाये गये हैं वे भी परोपकारी और पुरुषार्थी प्राणी को (यदि वह प्राप्त करना चाहे तो ) अवश्य मिल सकते हैं। परहित के सिक्कों से नक़ली नहीं, असली सिक्कों से आप संसार में किसी भी अत्यन्त दुर्लभ पदार्थ को ज़रूर खरीद सकते हैं ।
[ भाग ३६
विचार करने की बात है कि महात्मा तुलसीदास जी जिन पदार्थों का दुर्लभ बतलाया है वे यथार्थ में दुर्लभ हैं या नहीं |
कंचन-पट के घूँघट में हँस संध्या मुझे बुलाती; बालार्क तिलक देने को
ती ऊषा मदमाती ।
कुत्सित जग की धारा में कविता की नाव बहाते; - लहरों पर मैं बहता हूँ स्वर्गिक संगीत सुनाते । मैं तिलक प्राच्यन्नभ का हूँ मैं उषा- देश की छवि हूँ;
मैं प्रकृति-परी का पागल
सुकुमार सलोना कवि हूँ ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोकिल !
हिन्दी कविता के वर्तमान स्वरूप का श्रेय अधिकतर श्रीयुत सुमित्रानन्दन पन्त को है । उन्होंने एक नई दिशा की ओर कदम बढ़ाया है जो पहले से भी अधिक क्रान्तिकारी और सुन्दर है । आशा है इस रूप में पन्त जी का और अधिक स्वागत होगा ।
( १ ) गा, कोकिल ! बरसा पावक करण! नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन, ध्वंस-भ्रंश जग के जड़-बन्धन; पावक-पग धर आये नूतन, हो पल्लवित नवल मानवपन !
( ३ ) गा, कोकिल, गा, कर मत चिन्तन ! नवल रुधिर से भर पल्लव-तन, नवल स्नेह-सौरभ से यौवनः कर मञ्जरित नव्य जग-जीवन, गूंज उठें, पी-पी नव मधु, जन !
( ४ ) गा, कोकिल, नव गान कर सृजन ! रच मानव के हित नूतन मन, वाणी, वेश, भाव नव- शोभन; स्नेह, सुहृदता हों मानस-धन, सीखें जन नव जीवन-यापन !
लखक
श्रीयुत सुमित्रानन्दन पन्त
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
२२१
( २ )
गा, कोकिल, भर स्वर में कम्पन ! भरें जाति-कुल-वर्ण-पर्ण घन, अन्धनीड़-से रूढ़ि -रीति छनः व्यक्ति राष्ट्र-गत राग-द्वेष, रण झरें, मरें विस्मृति में तत्क्षण !
गा, कोकिल, सन्देश सनातन ! मानव दिव्य स्फुलिङ्ग चिरन्तन, वह न देह का नश्वर रज-करण; देश-काल हैं उसे न बन्धन, मानव का परिचय मामवपन ! गा, कोकिल, मुकुलित हों दिशि-क्षण !
www.umaragyanbhandar.com
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
इटली और
अबीसीनिया
इटली सभ्य है क्योंकि वह श्रासमान पर से बम बरसा सकता है । अबीसीनिया असभ्य है क्योंकि अभी वह सिर्फ़ बरछा और तलवार से लड़ सकता है । इटली के पास सब प्रकार के साधन हैं । अबीसीनिया के पास केवल साहस । परीक्षा का अवसर आने पर दोनों कहाँ तक जा सकते हैं यही बात श्रीयुत नगेन्द्रनाथ गुप्त ने इस लेख में बड़े सुन्दर ढङ्ग से बताई है।
लेखक, श्रीयुत नगेन्द्रनाथ गुप्त
१४-१८ के विश्व-व्यापी मार्ग में बाधा भी उपस्थित करने न जायँगी। अभी महायुद्ध को हुए अभी १८ तक तो लीग में यह साहस नहीं आया कि वह इटली
वर्ष भी नहीं हुए कि संसार को युद्ध की तय्यारी करने से रुकने के लिए कहे। १६
की शान्ति को भङ्ग करने सच पूछिए तो इटली को अबीसीनिया से कोई
के लिए एक दूसरा युद्ध आ वास्तविक शिकायत नहीं है। उसका हाल कहानी के न पहुँचना चाहता है। कुछ उस भेड़िए का-सा है जो कोई न कोई अपराध लगा
1 महीने पूर्व जर्मनी के साथ कर भेड़ के बच्चे को खाना चाहता था। वह एक नया युद्ध अनिवार्य प्रतीत हो रहा था और 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' की कहावत को चरितार्थ युद्ध के बादल उमड़ रहे थे। इंग्लेंड, फ्रांस और करना चाहता है। सिगनार मुसोलिनी रोम के इटली जर्मनी को भला-बुरा कह रहे थे। पर यह प्राचीन गौरव का स्वप्न देख रहे हैं और सीज़रों की प्रसन्नता की बात है कि हर हिटलर की बुद्धिमानी महत्त्वाकांक्षा को प्राप्त करना चाहते हैं। इस उद्देश
और दृढ़ता और ब्रिटेन की सद्भावना के कारण यह की पूर्ति के लिए एक साम्राज्य का होना आवश्यक अवसर टल गया। परन्तु अब जान पड़ता है, इटली है। योरप के प्रायः सभी देशों का दूसरे महाद्वीपों में अबीसीनिया के विरुद्ध विना युद्ध की घोषणा किये कुछ न कुछ भू-भाग है। केवल इटली ही एक ऐसा न रहेगा और इसी भय से युद्ध की खुल्लम-खुल्ला देश है जिसके अधिकार में योरप के बाहर बहुत तैयारियाँ भी हो रही हैं। 'लीग अाफ़ नेशन्स' की कम प्रदेश हैं। विदेश में उसका अधिकार अफ्रीका स्थापना स्पष्टतया इस उद्देश से हुई थी कि संसार के पूर्वी किनारे पर सिर्फ इरीट्रिया और इटालियन से युद्ध का अन्त हो जाय और जो बात युद्ध-द्वारा सोमालीलैंड में है। ये मरुप्रदेश हैं और इटली को तय करने की है वह पंचायत-द्वारा तय की जाय। इनसे कुछ अर्थ-लाभ नहीं होता। बहुत समय से इटली लीग के खास सदस्यों में से एक है। अबीसी- उसकी निगाह अबीसीनिया के 'हिंटरलैंड' पर थी निया भी लीग का सदस्य है, तो भी इटली उस पर और अब वह अपने स्वप्न को चरितार्थ करने पर
आक्रमण करने का दुराग्रह कर रहा है। लीग की उद्यत है। कौंसिल इस प्रयत्न में है कि यह वैर-भाव स्थायी रूप इटली और प्राचीन रोम का इतिहास सबको न धारण करे और इसी उद्देश से उसकी कई बैठकें विदित है । परन्तु अबीसीनिया का ज्ञान संसार को भी हो चुकी हैं। ब्रिटेन विशेष रूप से अपनी शक्ति उतना नहीं है। यह युथोपिया का अन्तिम साम्राज्य, भर यह प्रयत्न कर रहा है कि युद्ध न हो। परन्तु यदि और शेबा की रानी का राज्य है। शेबा का जिक्र इटली अबीसीनिया पर बिना आक्रमण किये न बाइबिल में दो बार आया है। कहा गया है कि रानी मानेगा तो योरप की कोई शक्ति या शक्तियाँ उसके ने जब सुलेमान की प्रसिद्धि सुनी तब वह उससे
२२२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
इटली और अबीसीनिया
२२३
[अबीसीनिया के सम्राट हेल सिलासी]
[अबीसीनिया की सम्राज्ञी] जेरुसलम में भेंट करने को आई। वह बहुत बड़े लाव- योग्य व्यक्ति है । वह काला नेपोलियन के नाम से । लश्कर के साथ आई थी और अपने साथ ऊँटों पर प्रसिद्ध है। मसाले, सोना-चाँदी और जवाहरात लाद कर लाई ब्रिटेन की सद्भावना से इटली का १८८२ ईसवी थी। यह सब उसने इसराइल के महान और बुद्धि- में अफ्रीका-महाद्वीप में प्रवेश हुआ। असाब की मान् राजा को उपहार-स्वरूप भेंट किया। यह खाड़ी में लाल सागर के किनारे पर उसे कुछ प्रदेश किंवदन्ती है कि दोनों में प्रेम हो गया था । एक मिला। इस सिलसिले में उसे दक्षिण की ओर यारपीय अन्वेषक का यह दावा है कि उसने उन बाबुलमंदब तक और बढ़ने की इजाजत मिली। गुफाओं का पता लगा लिया है जिनमें शेबा को वह १८८५ में उसने मसोवा पर अधिकार किया। दो वर्ष अपार धन मिला था। अबीसीनिया का वर्तमान बाद उसने हिंद-महासागर के तटवर्ती एक पट्टी पर सम्राट् हेल सिलासी जो सर्व-साधारण में रास अपना आधिपत्य स्थापित किया और उसका नाम तफारी के नाम से प्रसिद्ध है, अपने को रानी इटालियन सोमालीलैंड रक्खा । पर ये सब बड़े शेबा का वंशज बताता है। वह अत्यन्त सुन्दर उजाड़ देश हैं, इसलिए गत चालीस वर्षों से इटली युवा पुरुष है। क़द में वह छोटा है, परन्तु उसका अबीसीनिया पर दाँत गड़ाये बैठा है। कहा जाता है व्यक्तित्व मर्यादापूर्ण है और वह सादी पर आकर्षक कि अबीसीनिया में खनिज पदार्थो का बाहुल्य है पोशाक धारण करता है। वह सुशिक्षित है, धारा- और अन्य उपजों की भी कमी नहीं है। परन्तु इस प्रवाह अँगरेज़ी बोलता है और योरप की अन्य बात को कोई निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता, क्योंकि भाषायें भी जानता है । वह कठिन परिश्रम करता है, युथोपिया में कभी किसी योरपीय को किसी प्रकार सबसे मिलता-जुलता है और अत्यन्त बुद्धिमान तथा की रियायत नहीं मिली। १८८९ ईसवी में इटली
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४
सरस्वती
[भाग ३६
नहीं है जितना कि अफ़ग़ानिस्तान । १८८५ ईसवी में ब्रिटेन रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करनेवाला था, क्योंकि रूसी सेना ने पंजदेह में अफ़ग़ान सैनिकों पर गोली दागी थी और पार्लियामेंट ने इसके पक्ष में ही अपना मत दिया था। परन्तु अबीसीनिया की सहायता को योरप की कोई शक्ति नहीं दौड़ेगी। उसके पास एक लाख लड़ाकू पुरुष हैं। ये उन रिफों से बहुत अधिक वीर समझे जाते हैं जिन्होंने पश्चिमी अफ्रीका में फ्रांसीसियों को बहुत तंग किया था। अडोवा में बम बरसानेवाले हवाई जहाज़ न थे, दूर तक मार करनेवाली तोपें भी न थीं और यद्यपि इटलीवालों के पास राइफ़लें और बन्दूकें थीं, तथापि उन्हें अबीसीनियनों ने दबा लिया था। इटली में युद्ध की जो पुकार मची हुई है वह इसलिए नहीं कि वह शारीरिक शक्ति में अबीसीनिया से बढ़कर है, बल्कि इसलिए कि उसके पास युद्ध के अस्त्र-शस्त्र अच्छे हैं। यदि आदमी आदमी की लड़ाई हो तो इटली अबीसीनिया के मुक़ाबिले में नहीं ठहर सकता। योरप के राष्ट्र उन शत्रुओं पर आसमान से बम बरसाने में भी वीरता समझते हैं जिनके पास ये
साधन नहीं हैं। अबीसीनिया के सम्राट ने बेलजियम [मुसोलिनी]
से सैनिक शिक्षक बुलाये हैं। उनके पास कुछ टैंक और अबीसीनिया के तत्कालीन सम्राट मेनलिक में और तोपं है, परन्तु राइफ़लें काफ़ी नहीं हैं और गोलाएक सन्धि हुई। इटली ने अबीसीनिया में अपनी एक बारूद भी कम ही है। अब बाहर से अस्त्र-शस्त्र आने सेना घुमाकर उसके ऊपर अपना संरक्षण स्थापित का प्रत्येक मार्ग भी बन्द हो गया है। रास तफारी ने करके इस सन्धि का उत्सव मनाया। अडोवा में अपने निश्चय की घोषणा की है कि वह सफ़ेद घोडे अबीसीनिया की जङ्गली जातियों ने करीब करीब पर सवार होकर अपनी सेना का संचालन स्वयं इटालियन सेना का सफाया ही कर दिया था। यहाँ करेगा और आगे आगे रहेगा जैसा कि प्राचीन काल । तक कि इटली की उस पराजय की कथा कहनेवाले में होता था। इसमें संदेह है कि यह ढङ्ग कहाँ तक भी बहत कम बचे। इटली को उस हार की अब भी उचित होगा, क्योंकि यदि वह युद्ध-भूमि में मारा गया याद बनी है और इसी लिए आज इटली में 'अडोवा तो अबीसीनिया का मुचा उखड़ जायगा। का बदला लो' की पुकार मची है। सम्राट् रास अबीसीनिया पर्वतीय प्रदेश है। उसकी राजधानी तफ़ारी को बहुत पहले से अपने देश के पड़ोस में आदिसअबाबा ८००० फुट की उँचाई पर है। उसका योरपीय उपनिवेश स्थापित होने का भय था। जलवायु शीतल और नम है। अधिकांश महत्त्वपूर्ण अबीसीनिया 'बफर स्टेट' है, परन्तु इतना महत्त्वपूर्ण राज्यों के प्रतिनिधि वहाँ हैं। अमरीका ने अपने
S. E. Benit Mussolini
www.umaragyanbhandar.com
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
इटली और अबीसीनिया
२२५
राजदूत को वहाँ से हटाने से इनकार कर दिया है मुश्किल है। खैर, इटली को अपनी उत्तम युद्ध
और यदि इटली के हवाई जहाज़ उस पर बम सामग्री का भरोसा है और उसका यह भरोसा गिरावेंगे तो इसकी ज़िम्मेदारी उसी पर होगी। सकारण है। परन्तु राजधानी चार घंटे में खाली की जा अबीसीनिया में मैन्चेस्टर का बहुत बड़ा व्यापार सकती है, क्योंकि घर सब मिट्टी के बने हैं और होता है और यही हाल जापान का भी है। जापान छतें लोहे की हैं। आस-पास गुफाओं का बाहुल्य है, की उत्तेजना और इंग्लैंड की शान्ति स्थापन की जिनमें प्राण-रक्षा की यथेष्ट सुविधा है । इस तरह चेष्टा का यही रहस्य है। युद्ध के समय में सब प्रकार इटली को हवाई लड़ाई से बहुत लाभ न होगा। के व्यापार बन्द हो जायेंगे, इससे इंग्लेंड और भूमि पर भी उसे दूर से मार करनेवाली तोपों और जापान की हानि होगी। यदि इटली वास्तव में युद्ध राइफलों पर अवलम्बित होना पड़ेगा। करीब की की घोषणा करता है तो इतिहास में अत्याचार का मार में भयंकर अबीसीनियों से उसको पार पाना यह अत्यन्त भयानक उदाहरण होगा।
अभिलाषा
लेखक, श्रीयुत रुस्तम सैटिन मानव-हिय की दुर्बलता,
सुख घड़ियों की अभिलाषा, यह अस्फुट-सी अभिलाषा ।
है अपूर्णता जीवन की। इससे ही विकसित होती,
यह अस्फुट मानव-भाषा, वह मृगतृष्णा-सी आशा ॥
है दुर्बलता इस मन की। यह अभाव के पलनों की,
अभिलाषा चिन्ता अभिनव, पोषित अभिलाषा मेरी।
ये ही बस जग में होता। जग के इस स्वार्थ-सदन में,
जब बीहड़ कौतुक वन में, अब सुनती आशा लोरी॥
यह लोभी मानव खोता ॥ अभिलाषा, आशा, उलझन,
अभिलाषा तिमिर उदधि में, जीवन को उलझा देते।
माया की नैया लेकर। इस निर्बल-से मानस को,
आलोक-नगर जाऊँगा, पथ-विचलित-सा कर देते ॥
जुगनू की आभा लेकर ।।
AL
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
निशा-प्रेमी जीव-जन्तु
लेखक, श्रीयुत वनमालीप्रसाद शुक्ल
ल
ल ना गवान भास्कर अस्ताचल के सहित दसों दिशाओं को सुरभित करने लगीं। व उत्तुङ्ग शिखर पर आरूढ़ हो उनकी अमृतमयी सौरभ की धारा में असंख्य कीटन कर अपनी रक्तिमामय पतङ्ग प्रवाहित होकर अलौकिक आनन्द का उपभोग
आलोक की अपूर्व छटा करने लगे जैसा कि दिवाचर कीट-पतङ्गों को नहीं
। जैसा कि अपने आविर्भाव नसीब होता। रजनी ने अपने साम्राज्य की कोटि लास के समय पूर्व में प्रदर्शित कोटि प्रजा की ओर वात्सल्य-पूर्ण दृष्टि से देखते हुए
कर चुके थे, अपने प्रिय प्रकृति से कहा-मा, कवियों का कथन है कि रजनी के दिवाचर प्राणियों को दिखाकर मुग्ध कर रहे थे कि राजत्वकाल में संसार में सन्नाटा छाया रहता है और सहसा उन पर रजनी का आक्रमण हुआ। वे काँप इने-गिने पशु-पक्षी तथा फूलों के सिवा उसे कोई नहीं उठे । उनके पैर उखड़ गये और पर्वत के उत्तुङ्ग शृङ्ग चाहता, कितना भ्रमात्मक है । यदि वैज्ञानिकों की से लुढ़ककर महोदधि में जा डूबे । उनका पराभव तरह आँख खोलकर देखने की उनमें क्षमता होती देखकर दिवाचर प्राणियों के छक्के छूट गये । सेना- तो वे निस्सन्देह देख सकते कि दिवाचर की अपेक्षा नायक का निधन हो जाने से जो दशा सैनिकों की मेरी प्रजा का समूह कितना विशाल, भयङ्कर, होती है वही उनकी भी हुई। वे जीवन-संग्राम के साहसी और शक्ति-सम्पन्न है। इसे सुनकर प्रकृति क्षेत्र से कोहराम मचाते हुए भाग निकले और अपने मुसकुराई और बोली-सभी समयों में देवताओं से अपने घरों में जा छिपे । इस पराजय से उनकी बड़ी निशिचर संख्या में अधिक, डील-डौल में विशाल क्षति हुई। बेचारों की उद्योग-शक्ति खो गई, साहम और पराक्रम में प्रबल रहे हैं। अतः दिवाचरों से लुट गया, आँखों की ज्योति मन्द पड़ गई, सर्वाङ्ग में निशिचरों में विशेषता का होना स्वाभाविक है। श्रान्त आ विराजा। सब ओर उन्हें भय ही भय ऐसा क्यों होता है, इसका रहस्य मेरे अतिरिक्त और दिखने लगा। यदि इस कुअवसर पर निद्रादेवी का कोई नहीं जानता। मनुष्य केवल इतना ही समझ सहारा न होता तो भय और श्रान्ति से त्राण पाना सकता है कि प्रकृति शान्तिप्रिय नहीं है। वह संसार उन्हें कठिन हो जाता।
भर को एक साथ निद्रा में तल्लीन नहीं होने देती। इस दिग्विजय से रजनी का प्रभुत्व और वैभव- रजनी, उसका इतना समझना भी कुछ कम नहीं है । जनित अहंमन्यता की गम्भीर छाया गोलार्द्ध भर में वास्तव में बहुत-से छोटे-बड़े जीव-जन्तु, कीड़ेव्याप्त हो गई। दिवाकर के उत्ताप-पूर्ण शासन से मकोड़े और फूल रात्रि के समय ही जीवन-संग्राम में त्रसित रजनीचरों को इस परिवर्तन से बड़ा सन्तोष प्रविष्ट होते हैं। स्थलचारी जानवरों में हाथी सबसे हुआ। इतना ही नहीं, जब उन्होंने मयङ्कमुकुट और बड़ा होता है। वह स्वतन्त्र अवस्था में रात्रि के नक्षत्रहार से विभूषित रजनी महारानी को प्रत्यक्ष समय ही जीवनोद्योग में लगता है। हाँ, बदली के देखा तब हर्ष की अधिकता से गद्गद होकर स्वागत- कारण जब कभी दिन में अँधेरा हो जाता है तब वह गान गाया। कुमुदिनी तथा उसकी सहेलियाँ आनन्द दिन में भी भोजन की तलाश में निकल पड़ता है। से फूल उठीं। रजनी-गन्धा अपनी सहचरियों के परन्तु यह निश्चित बात है कि सभी ऋतुओं में वह
२२६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या
३]
निशा-प्रेमी जीव-जन्तु
२२७
KOMAL
PAGउस्
धूप से बचता और सूर्यास्त के अनन्तर ही अपने
स्स्स्स्स्स्सस्स्सपरजा कार्य-क्षेत्र में आता है। वहाँ वह सूर्यास्त से लेकर अर्धरात्रि तक उदर-भरण के कार्य में व्यस्त रहता है। रजनी के राजत्व काल में संसार में और फिर वहीं घंटे दो घंटे विश्राम करके अंधकार के सन्नाटा छाया रहता है और इने-गिने अंत होने के पूर्व अपने निवासालय में दाखिल हो पशु-पक्षियों के सिवा उसे कोई नहीं जाता है। भरतखण्ड, लंका, अफ्रीका आदि स्थानों चाहता, यह कथन कितना भ्रमात्मक में जहाँ हाथी पाये जाते हैं, हाथी के सम्बन्ध में यही है यही लेखक महोदय ने इस लेख में बात देखने में आती है। इस धूर्त प्राणी को यह बात सिद्ध किया है और दिखाया है कि इस ज्ञात है कि जिनकी उपजाई हुई स्वादिष्ठ फसलों से संसार में निशा के प्रेमियों की भी संख्या वह अपना जीवन-निर्वाह करता है उनसे रात्रि में
कम नहीं है। सामना करने की उसे आवश्यकता नहीं पड़ती।।
रजनीचरों की नामावली में डील और शक्ति के विचार से हाथी के बाद बनैले भैंसे का नाम आता हुआ वनदेवी को भोजन के लिए आदेश देता है है। हाथी के समान वह भी रात्रि के समय उदर- तब हिरण, बारहसिंघा, जेबरा आदि अनेक प्रकार भरण के उद्योग में तल्लीन होता है। पर एक शिकारी के शाकभोजी प्राणियों को आँधी की गति में टापों महाशय का कथन है कि व्याघ्र के भय से उसके की ताल से उसके गर्जन का जवाब देते हुए भागते स्वभाव में परिवर्तन आरम्भ हो गया है और वह देखकर दर्शक आश्चर्य में लीन हो जाता है। अब अधिकतर दिन में ही काम करता नजर आता है। आश्चर्य उसे इस बात का होता है कि दिवाचर उनके कथन में कहाँ तक सत्यता है, यह प्राणिशास्त्री प्राणियों की सभी खूबियों से मुक्त होते हुए भी वे ही बता सकेंगे; परन्तु इतनी बात अवश्य है कि अपने जीवन को वृथा सङ्कट में डालने के लिए पशुओं के स्वभाव-परिवर्तन की बात आसानी से रजनीचर क्यों बन गये हैं ? यदि उन पशुओं में समझाई और मानी नहीं जा सकती। जंगली बोलने की शक्ति होती तो दर्शक का समाधान करने पशुओं में हाथी और भैंसे ही बाघ के दाँत खट्टे के लिए वे इतना ज़रूर कहते कि रजनी से उन्हें करने का हौसला रखते हैं। अतः उसके भय से वे अनुराग है और रात्रि के क्षणिक सङ्कट से त्राण अपना स्वभाव बदल देंगे, यह असम्भव प्रतीत पाने के लिए उनके पाँव काफी मज़बूत हैं। अतः होता है।
. दिनेश के तापदायक छत्र के नीचे जाकर तथा पशु-जाति के राजा सिंह और व्याघ्र तथा उनके दिवाचरों का सहज में शिकार बनकर वे अपने को ) दूर के सम्बन्धी चीता, तेंदुआ, लकड़बग्घा आदि भी अधिक खतरे में क्यों डालने लगे।
पूरे निशाचर हैं। इनमें से सिंह अर्धरात्रि के समय ब्याघ्र, चीता, और तेंदुआ दिन डूबने पर बाहर शिकार की टोह में निकलता है और महाप्रसाद के निकलते हैं। व्याघ्र तो पुलिस के सिपाही के समान लोभ-वश मार्ग-प्रदर्शन का कार्य करनेवाले सियार रात भर गश्त लगाया करता है। इसी से वह अपने तथा लकड़बग्घा का अनुगामी होकर तृणभक्षी इलाके की सम्पूर्ण परिस्थिति से परिचित रहता है पशुओं से सकुल किसी जलाशय या सरोवर के और भूख लगने पर आसानी से भोजन प्राप्त कर तट पर जा पहुँचता है। उस समय जब वह मेघ- सकता है। रात में दूर दूर तक की यात्रा करना, तुल्य गम्भीर गर्जन से वन-प्रान्त को कम्पित करता चौड़ी से चौड़ी नदी को तैर करके पार करना और
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८
सरस्वती
[भाग ३६
बड़ी सतर्कता एवं चातुरी से सुरक्षित स्थानों से निकलती है कि मार्गभूला हुआ पथिक उसे झोपड़ी शिकार उठा ले जाना उसके बायें हाथ का खेल है। के रन्ध्रों से निकलनेवाली रोशनी समझ कर कभी चीता चौर-कर्म में व्याघ्र से भी अधिक निपुण होता कभी आपत्ति में फंस जाता है। भेड़िये में असाहै। वह रात्रि में भूमि और वृक्ष दोनों पर समान धारण धूर्तता होती है, जो रजनी के अँधेरे राज्य में गति से भ्रमण करता है। वनमानुष तथा अन्य ही चल सकती है। रात के समय वह तेज़ से तेज़ वृक्षचर जीव-जन्तु उससे सदा सशङ्कित रहते हैं। भागनेवाले जीवधारी को भी इस सिफ़त से पकड़ उनकी गोद से सोते हुए बच्चों को वह इस खूबी से लेता है कि बेचारा जानवर अपनी चौकड़ी भूल छुड़ा ले जाता है कि किसी को खबर तक नहीं जाता है। ऐसे जानवर का पीछा वह बड़ी होशिलगती। इसी से वनमानुप रात भर वृक्ष के नीचे यारी से करता है और उसे थकाकर खदेड़ते हुए बैठकर वृक्ष-शिखर पर सोनेवाले अपने बच्चों की उस ओर ले जाता है जहाँ उसकी पत्नी पति को चौकसी करता है।
सहायता देने के निमित्त पहले से सजग बैठी रहती हमारे गृह-साम्राज्य की प्रजाओं में भी अधि- है। यदि शिकार में तेजी बाक़ी रही और वह मादा कांश निशाचर हैं। यद्यपि वे हजारों वर्ष से हमारे भेड़िये को झटका देकर भाग निकला तो मादा साथ रह रहे हैं, तो भी रात्रि में शिकार करने की उसका पीछा करती है और उसे घुमा-फिरा कर वहाँ उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति परिवर्तित नहीं हुई है। ले जाती है जहाँ उसका पति घात लगाये बैठा बड़ी-छोटी हर किस्म की बिल्लियाँ रात में ही शिकार रहता है। करती हैं। संसार भर के कुत्ते चाहे वे जङ्गली हों चमगादड़ जैसा अद्भुत स्तनपायी प्राणी है, वैसा या पालतू , दिन की अपेक्षा रात्रि में ही सजग और ही अनुपम निशाचर भी है। शाकभोजी और प्रफुल्ल रहते हैं। हर आकार-प्रकार के चूहे चिराग़ मांसभक्षी दोनों तरह के चमगादड़ घने से घने तम गुल होने के बाद ही मनुष्य की पगड़ी ग़ायब करने एवं मन्द प्रकाश में बड़ी तेजी से भ्रमण करते हैं। में तल्लीन होते हैं । झिङ्गरों का आमोद-प्रमोद और ऐसा कभी नहीं होता कि अन्धकार की घनता तथा झिल्लियों की झनकार अँधेरे में ही देखने-सुनने को कुहरा से वे उलूक के समान उल्लू बन जायें । वे मिलती है । साँप-बिच्छू तथा ऐसे ही अन्य विपैले बहुधा सूरज डूबने के समय निकलते हैं और रात जीवधारी रात के समय में ही प्रसन्नतापूर्वक विचरते भर कीडों-मकोड़ों का नाश करके मनुष्य-जाति का हैं। कहाँ तक कहें, हमारे घर-आँगन, बाग़-बगीचे, उपकार और उसके बाग़-बगीचे के फलों का भक्षण तालाब-पोखर, खेत-खलिहान आदि स्थानों में करके उसका अपकार करने में लगे रहते हैं। शाक असंख्य कीड़े-मकोड़े रात के समय बिलों से निकल और मांसभक्षी चमगादड़ के अतिरिक्त रुधिर पान कर घूमते-फिरते हैं, जिनमें से कितनों के अस्तित्व करनेवाला एक प्रकार का चमगादड़ और भी होता का पता प्राणिशास्त्रियों को भी नहीं है।
है। वह तिमिराच्छादित निस्तब्ध रात्रि में मनुष्य के बन्दर दिवाचर प्राणियों के वर्ग में आता है, पर शयनागार में चुपचाप प्रवेश करता है और सोनेउसका सौतेला भाई लंगूर निशाचर होता है और वाले व्यक्ति के ऊपर पंखों की तीव्र गति के कारण मनुष्य के सो जाने के बाद उसकी फसल पर धावा स्थिर रह कर इस युक्ति से उसका रक्त चूस लेता है बोलता है। यही हाल शूकर और भालू का है । भेड़िया कि उसे पता ही नहीं लगता। अँधेरे में उसका ठीक
आधी रात के समय उदर-भरण की चिन्ता में विच- ठीक देख सकना, पंखों के सहारे बड़ी देर तक वायु रता है । अँधेरे में उसकी आँखों से ऐसी दीप्ति में स्थिर रहना, शरीर के भेदने योग्य कोमल अङ्ग
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
की जाँच करना, मृदुता से शरीर को काट कर रक्त चूसना आदि बातों पर विचार करने से कहना पड़ता है कि प्राणि- संसार में वह अद्वितीय है और प्रकृति ने इस मायावी निशाचर को गढ़ने में कमाल किया है।
निशा - प्रेमी जीव-जन्तु
1
साही सूर्यास्त होने पर अपने धंधे में लगती है । उसी समय खरगोश और गिलहरी जंगली मार्गों में पूरी चंचलता से कूदते - फाँदते दृष्टिगोचर होते हैं । उनके जागने के बाद लोमड़ी, विज्जू और ऊदबिलाव अँगड़ाई लेते हुए अपनी अपनी माँद से बाहर निक ते हैं और दिन भर के व्रत का पारण करते हैं मेंढक तो दिन के प्रकाश में दलदल में उछलते-कूदते नज़र आते हैं, पर उनके बड़े भाई भेक या दादुर को रात से अनुराग है । नाना रंग, वर्ण और आकार - प्रकार के पतिंगे भी हजारों की संख्या में रात्रि के समय ही रजनी के पुष्पों के सौरभपूर्ण रसधार का पान करने के हेतु अपने गुप्त स्थानों से जो प्राणिशास्त्रियों को भी अज्ञात हैं, निकलते हैं। घोंघे भी रात्रि के समय अपने विशाल भवन को गतिमान करते हैं। इसी समय कोटि कोटि छोटे-बड़े कीड़े भी पौधों के पुष्प-पत्र पर अधिकार जमाते हैं सूर्योदय होते तक उनका रंग-रूप विकृत करके अन्तर्धान हो जाते हैं । सूर्यास्त के बाद ही जुगुनू
गाने दे, स्मृति को गाने दे । विगत निशा के सुख- स्वप्नों को फिर से जग जाने दे ।
गाने दे, स्मृति को गाने दे ॥ यदि तम का आमन्त्रण पाकर, पुलकित हो सखि, सौख्य-सुधाकर
-
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
अपना जलता हुआ लम्प लेकर अपने प्रियतम की ढूँढ़ने तथा उदर भरण करने के लिए घर छोड़ बाहर निकलती है। सच तो यह है कि कीट - संसार का आधे से अधिक कार्य रात्रि में ही सम्पादित हो जाता है ।
T
गीत
लेखक, श्रीयुत बालकृष्ण राव
सर रोनाल्ड रास ने मलेरिया ज्वर का कारण जानने के लिए कई जाति के मच्छड़ों की परीक्षा की, परन्तु दिन के समय दिखनेवाले मच्छड़ों में उस रोग के सम्बन्ध का कोई लक्षण लक्षित नहीं हुआ । अन्त में उन्हें मच्छड़ की एक जाति जिसका पहले उन्हें पता नहीं था, रात्रि के समय दिखाई दी । जब उन्होंने उसकी परीक्षा की तब ज्ञात हुआ कि उसके कारण ही मनुष्य मलेरिया वर से पीड़ित होता है । एक शताब्दी में जितने मनुष्य युद्ध में समाप्त होते हैं, लगभग उतने ही मलेरिया के कारण एक वर्ष में मरते हैं । अतः यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि मनुष्यों में मलेरिया का बीज बोने वाला मच्छड़ जो संक्रामक रोग फैलानेवाली निशाचरी सेना का एक दल है, युद्ध से भी भयंकर होता है ।
२२९
निस्सन्देह रजनीचरों का समाज अनन्त है और उसको पूर्णतः जान सकना मनुष्य की शक्ति के बाहर की बात है ।
off
मिलने जाता है, जाने दे ।
गाने दे, स्मृति को गाने दे || कविको कविता के कानन में, छवि को अपने मृदु श्रानन में, सजनि, शान्ति पाने दे ।
गाने दे, स्मृति को गाने दे ||
www.umaragyanbhandar.com
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाल्ज़वर्दी और
सामाजिक
क्रांति
प्रोफ़ेसर इन्द्रनाथ मदन, एम० ए०
[ श्रीगाल्ज़वर्दी ]
वे
नये विचारों के प्रवर्तक थे और
जान गाल्ज़वर्दी को स्वर्गगत हुए अभी बहुत समय नहीं हुया । साहित्य में संसार के दलित प्राणियों के साथ उनकी बड़ी सहानुभूति थी । वे अमीर ग़रीब के लिए एक ही क़ानून चाहते थे, किसी प्रकार का भेदभाव नहीं । अपने नाटकों और उपन्यासों के रूप में वे अपना यह अमर संदेश छोड़ गये हैं । इस लेख में विद्वान् लेखक ने इस महान् साहित्यकार का बड़े सुन्दर ढङ्ग से परिचय दिया है।
कोमल हृदय जवी ने अपनी जिस भेज पर अपने संसार प्रसिद्ध नाटक लिखे हैं, उस पर एक सिद्धान्तवाक्य लगा रहता था ।
उसका अर्थ यह है- "मुझे इस जीवन-मार्ग से एक ही वार गुज़रना है; यदि किसी की भलाई कर सकता हूँ या किसी के प्रति दया का भाव दिखा सकता हूँ, तो अभी कर लूँ, कल पर कभी न छोड़ें, क्योंकि मुझे इस मार्ग से फिर नहीं गुज़रना है ।" ये पंक्तियाँ उनके जीवन का आदर्श बतलाती हैं ।
गा
उन्होंने मोटर को रोक दिया, उनका मुँह पीला पड़ गया। वे धीरे से बोले -"कोई मोटर के नीचे आ गया है।" उन्हें भय हुआ कि कोई जीव कुचल गया है। शीघ्र ही नीचे उतर पड़े, देखा, जान बच गई है । तब मन शांत हुआ और वे चल पड़े। यह छोटी-सी घटना उनके जीवन और उनकी रचनाओं पर काफी प्रकाश डालती है । मनुष्य का जीवन उनको सबसे अधिक प्यारा था । उसको कुचलने की जो भी कोशिश करता है, चाहे वह समाज हो, चाहे धर्म हो, उसके विरुद्ध वे अपनी कलम उठाते थे । यही कारण है कि उनके सव उपन्यास, नाटक और निबन्ध समाज की कुरीतियों का ही दर्शन कराते हैं। उन्होंने एक सम्पन्न घर में जन्म लिया था, परन्तु वे दीन और दुखियों की आहों को खूब पहचानते थे । इन सबके लिए उन्होंने समाज को ही अपराधी ठहराया है ।
उनका समस्त जीवन सचमुच इसी आदर्श के अनुसार व्यतीत हुआ है। एक बार वे मोटर में बैठ कर सैर के लिए जा रहे थे । एकाएक
२३०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
जिस मेज़ पर उक्त आदर्श वाक्य लगा रहता था उसी के सामने बैठ कर उनकी पत्नी बड़े चाव से लोगों को चिट्ठियों का उत्तर दिया करती थी और अपने पति के हस्तलिखित ग्रन्थों को टाइप करने के बाद छपने के लिए प्रेस को भेजा करती थी । स्वयं गाल्ज़वर्दी को इन कष्टों का कभी सामना नहीं करना पड़ा । वे उन विरल लेखकों में से थे जिनको ऐसी स्त्री मिली थी, जो अपने पति के सुख-दुःख की साथिन थी । अपनी पत्नी के कारण भी उनकी साहित्य की ओर रुचि बढ़ी थी । यदि वह उनको प्रोत्साहन न देती और उनके काम में उनकी सहायता न करती तो संभव है कि वे एक साहित्यकार न होकर कोई बड़े वकील होते और शायद पार्लियामेंट के मन्त्रि मण्डल के सभासद् के पद तक पहुँच जाते ।
गाजवर्दी और सामाजिक क्रांति
काम करने का ढंग
उनका काम करने का ढंग बड़ा निराला था । जब कभी विशेष घटना को देखते या ऐसे व्यक्ति से मिलते जो व्यंग्य से भरपूर होता तब उसको कहानी के रूप में वे तुरन्त लिख डालते । छोटी छोटी बातों को वे इस तरह ग्रहण करते कि वे उनके दिल में धँस जातीं और वहाँ से नया रूप लेकर निकलतीं । उनकी कल्पना एक पुरुष या एक घटना तक ही परिमित नहीं रहती थी, किन्तु वह बड़ा विस्तृत रूप धारण करती थी। वे अपनी कहानियों, नाटकों या उपन्यासों का ढाँचा पहले से नहीं तैयार करते थे । जब भावों का समुद्र उमड़ आता, उमंगें भरने लगतीं, तब वे लिखना आरम्भ कर देते । और तब उनकी कलम नहीं रुकती थी। रात को जाग कर, सैर करते समय, यहाँ तक कि बाल बनवाते समय भी अपनी विचारधारा में वे डूबते रहते। एक और बात बड़ी विचित्र है कि वे लिखने का काम प्रायः सुबह के समय ही करते थे । उनका यह विचार था कि कल्पना-शक्ति उस सुहावने समय में बड़ी गरम हो उठती है । चाय पीने के बाद वे अपना लिखा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
२३१
दुहराया करते थे । भोजन के बाद उन्होंने कभी काम नहीं किया ।
गाजवर्दी ने लंदन में एक वकील के यहाँ १८६७ में जन्म लिया था । उस समय उनका देश साँप की तरह पुरानी केंचुल उतारकर नया रूप धारण कर रहा था । विज्ञान की उन्नति ने धर्म के सिद्धान्तों पर पानी फेरना आरम्भ कर दिया था । समाज में नये भावों की नींव पड़ने लगी थी । उस भावुक क्रांति के युग में शा और गाल्जवर्दी ने साहित्य के क्षेत्र में आकर एक नये संसार का निर्माण किया । अपने पिता की तरह वकालत की डिगरी उन्होंने हासिल तो की, पर उस काम को रूक्षता के कारण छोड़ दिया । उनमें साहित्य के लिए एक अपूर्व तड़फ पैदा हुई । वे कहानियाँ लिखने लगे, यहाँ तक कि उनका ताँता बाँध दिया । उनकी इन प्रारम्भिक रचनाओं में सौन्दर्य और कला का निदर्शन तो हुआ ही है, साथ ही समाज की खोखली संस्थाओं का भी खासा भंडाफोड़ हुआ है।
सागा
कुछ कहानियाँ लिख चुकने के बाद उनको लिखने का काफी अभ्यास हो गया । और उन्होंने एक उपन्यास लिखना आरम्भ किया। कौन जानता था कि यही रचना विस्तृत होकर 'सागा' का रूप धारण कर लेगी और उनको नोबेल पुरस्कार का अधिकारी बना देगी। स्वयं उनको भी इसका ज्ञान नहीं था कि उनके उपन्यास का नायक 'सोम' हैमलेट की तरह संसार में एक अमर चरित्र बन
जायगा ।
नाटककार
कई समालोचकों का विचार है कि गाल्जवर्दी के उपन्यासों और नाटकों में बड़ा मेल है। उन्होंने कहानियों से अपने साहित्य-जीवन को आरम्भ किया, बीच में नाटक लिखे और अन्त में नावेलों को अपनाया । इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके नावेलों में अनेक नाटकीय घटनायें हैं । उनकी
www.umaragyanbhandar.com
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२
सरस्वती
[ भाग ३६
कला तो सदा नाटकीय ही रही है। उन्होंने बीस दोनों दल इसके लिए दोषी नहीं ठहराये जा सकते । से अधिक नाटक लिखे हैं, परन्तु यहाँ केवल उनके जीवन का कुछ ढंग ही निराला है। बुद्धि से परे है। तीन नाटकों के आधार पर ही उनकी नाटक-कला संसार में क्यों इतना नाश हो रहा है, इसका उत्तर का परिचय दिया जायगा।।
नाटककार के लिए रहस्यमय है। असल में मनुष्य चांदी को डिबिया
का दिल ही तंग है; दूसरे पक्ष के विचारों और भावों सबसे पहले उन्होंने 'चाँदी की डिबिया' नाम का के समझने से वह इनकार करता है। लेखक दोनों नाटक लिखा । इस नाटक में जैक और जोन दोनों दलों से सहानुभूति प्रकट करता है, उनका खण्डन पात्र चोरी के अपराध में एक ही शाम को पकड़े नहीं करता। “जाते हैं। जैक एक महिला की थैली को चुराता है
न्याय और जोन चाँदी की डिबिया । बहुत-सी बातों तीसरा नाटक 'न्याय' है। इसमें फाल्डर क्लर्क में दोनों का अपराध बराबर है। परन्तु दोनों में का काम करता है। वह कमजोर स्वभाव का एक भारी अन्तर है। जैक अमीर घराने का लड़का आदमी है। मुँह पीला है, हृदय उदार है। एक है। उसका बाप पार्लियामेंट का सभासद् है। उधर महिला को पीड़ित देखकर उसे दया आ जाती है। जोन एक दीन निर्धन तीन पुत्रों के बाप का पुत्र ममता में आकर उसका पति बनकर भागने की है। अभियोग चलाया जाता है। जैक बरी हो जाता ठान लेता है। नौ पौंड के एक चेक को नब्बे पौंड का है। जोन एक मास के लिए कैद किया जाता है। बनाकर बैंक से धन ले लेता है। साथ ही पैसा कमानाटककार ने उसके द्वारा एक गम्भीर सामाजिक कर फिर लौटा देने का निश्चय करता है। वह धोखे समस्या का नग्न-चित्र सामने रक्खा है। वह यह में आ जाता है और पकड़ा जाता है। न्यायालय में कि अमीर के लिए एक न्याय है तो ग़रीब के लिए उस पर अभियोग चलता है। वकील उसको मुक्त दूसरा है।
कराने की कोशिश करता है। कहता है कि यह मन का हडताल
रोगी है, अपराधी नहीं है। जज उसको अपराधी उनका दूसरा नाटक 'हड़ताल' है। इसमें कार- ठहराकर जेल में लूंस देता है। कैद से मुक्त होकर खाने के स्वामी और मजदूरों के संग्राम का चित्र है। जब वह बाहर आता है तव जीवन कठोर पाता है। मजदूर हड़ताल कर देते हैं। दोनों दलों के प्रति- कमजोर दिल के लिए यह जीवन का संग्राम निधियों में समझौता कराने के लिए उनकी सभा कठिन है। न्याय से फिर एक बार टक्कर होती होती है। समझौता नहीं होता है । मजदूर भूखों है। उससे बचने के लिए आत्म-घात कर लेता है। मरते हैं, और स्वामियों का भारी नुकसान होता है। इस आत्म-घात के लिए कौन दोपी है, फाल्डर दोनों दलों के लीडर अपना सम्मान कायम या समाज ? लेखक की दृष्टि में समाज बड़ा कठोर रखने के लिए डटे हुए हैं। स्त्रियों और बच्चों के कष्टों और निर्दय है। यह एक मशीन है जिसमें कई की कोई सीमा नहीं रहती। अन्त में दोनों दलों के निर्दोष पुरुष पिस जाते हैं। मनुष्य का इस पर कोई लीडर निकाल दिये जाते हैं और वही शर्ते मानी अधिकार नहीं। इसका सुधार होना असम्भव-सा है। जाती हैं जो हड़ताल के आरम्भ में पेश की गई थीं।
निराशावाद यही तो रोने और हँसने की बात है। इस संग्राम में तब क्या गाल्जवर्दी निराशावादी है। यदि जीवन किसी को लाभ नहीं हुआ, परन्तु हानि की कोई का यही सार है तो उनके निराशावादी होने में क्या सीमा नहीं रही, यहाँ तक कि कई भूख से मर गये। दोष है ? सर्व-शक्तिमान विधाता के सामने निर्बल
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्विट्ज़लैंड का एक ग्लेशियर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
LAN
MODEL LLACE HOUSE
MODEL VELACE HOUSE
FOR TWO JOINT FAMLES
सरकारी उडवर्किंग (बढ़ईगीरी) इन्स्टीट्यूट, बरेली, के विद्यार्थियों द्वारा बनाया गया एक देहाती घर का
नमूना । संयुक्त प्रान्त के गवर्नर महोदय ने बरेली जाने पर इसका भी निरीक्षण किया था।
जापानी राजदूत हिज़ एक्सेलेंसी मिस्टर एच० मत्सुशिमा जो भारत-भ्रमण करने आये हैं ।
यह फोटो बम्बई में लिया गया है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
गत पहली अगस्त को बम्बई में तिलक-जयन्ती मनाई गई । उस दिन वहाँ बनी उनकी मूर्ति को फूलमालायें
पहनाई गई और लोकमान्य के महत्त्वपूर्ण जीवन के सम्बन्ध में व्याख्यान हुए।
BVX 112
नवानगर के जाम साहब फ़ोर्ड का मोटर का कारखाना देखकर लौट रहे हैं । इसमें आपने
कच्चे माल से लेकर मोटर की आखिरी तैयारो तक देखी ।
Shree Sudharmaswami-Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
नैनी के कृषि-विद्यालय में वायसराय महोदय । आप एक नये प्रकार के पशु-खाद्य का निर्माण देख रहे हैं । डा० हिंगिम बाटम उनके बाई ओर खड़े उसकी प्रक्रिया समझा रहे हैं
विख्यात भारतीय नर्तकी श्रीमती मीरावती देवी जो अपनी कला दिखाने विलायत गई
हैं । ये मेनका की बहन हैं ।
विश्व-विख्यात मोटर-निर्माता श्रीयुत हेनरी फोर्ड, जिन्होंने हाल में अपनी ७२ वों वर्षगाँठ मनाई।
मिसेज़ कृष्णदेव तिवारी, एम० ए० । अमरीका के रेड-इंडियनों का एक परिवार जो विश्वयात्रा के लिए निकला है। आप उच्च शिक्षा प्राप्त करनेवाली प्रथम Sh हाल में ये भारत भी आये थे। फिलहाल इन्होंने अपनी जातीय पोशाक छोड़ दी है। सर्यपारीण ब्राह्मण महिला हैं ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
गाल्जवर्दी और सामाजिक क्रांति
२३३
पुरुष की क्या मजाल है ? यह तो उसके सामने की ताक़तों के सामने ठहर सके। इसलिए जहाँ खिलौना है, जिस तरह चाहे कठपुतली की तरह नचा शेक्सपियर के पात्र प्रशंसा और दया के अधिकारी सकता है । यह मनुष्य की भूल है, यदि वह समाज हैं, वहाँ गाल्जवर्दी के पात्र केवल अनुकम्पा के को अपने हृदय के मुताबिक ढालने का यत्न करे। अधिकारी हैं। उनकी अवस्था को देखकर रोना जो करता है वही कुचला जाता है। हैमलेट ने ऐसा आता है और कठोर समाज को धिक्कारने के लिए चाहा था; नैपोलियन की कहानी सबको विदित ही जोश आता है। ऐसे पात्रों का निर्माण करके है। यही तो उस अपरम्पार की लीला है। यह नाटककार ने समाज में परिवर्तन लाने का यत्न किस तरह हो सकता है कि एक व्यक्ति सारे समाज किया है। यही गाल्जवर्दी की कला की सफलता है।
पावस लेखक, श्रीयुत नर्मदाप्रसाद खरे [१]
[४] रिमझिम-रिमझिम-सी बूदें,
वन-उपवन पनप गये सब, जग के आँगन में आई।
कितने नव अंकुर आये ! अपने लघु उज्ज्वल तन में,
वे पीले-पीले पल्लव, कितनी सुन्दरता लाई !
फिर से हरियाली लाये । [२] मेघों ने गरज-गरजकर,
अब अपना घूघट खोले, मादक संगीत सुनाया।
कलिकायें झाँक रही हैं ! इस हरी-भरी सन्ध्या ने,
वसुधा पर मन्द हँसी से, हमको उन्मत्त बनाया ।।
सुन्दरता आँक रही है। [३] सूखी सरिताओं ने फिर,
वन में मयूर अब नाचें, सुन्दर नव जीवन पाया।
हँस-हँस आनन्द मनायें। लघु लहर-लहर पर देखो,
उनकी छबि देख रही हैं, सौन्दर्य नाचने आया।
नभ से घनघोर घटायें।
. [६]
प्रतिपल हम नाचे-खेलें, जग-जीवन मधुर बनावें। अपने छोटे-से घर में, सुख का संसार बसावें ॥
फा.६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
न बजे मोटर-नौका से हम
जहाज़ पर चले आये । पाँच V बजे उसने समुद्र की अोर मुँह
फेरा । शाङ्घाई का अक्षांश
यद्यपि ३०° के आस-पास NANGI है , तो भी इस मई के महीने
में इतनी सर्दी देखकर आश्चर्य हो रहा है। कल से ही कमरे गर्म रखनेवाले यन्त्र चालू कर दिये गये हैं। बेतार से पता लगा कि जापान में कई जगह बर्फ पड़ी है।
आज (२ मई) समुद्र कुछ अधिक चंचल है । हमारा ६,५०० टन का 'अन्योमारु' भी काफ़ी हिल रहा है, जिससे कितने ही आरोही पीड़ित हैं। प्रशान्त महासागर अपने नाम से बिलकुल उलटा है। इतने भूकम्प और ज्वालामुखी दूसरी जगह कहाँ हैं ? २१ अप्रेल को फ़ारमूसा में भयङ्कर भूकम्प अाया, जिससे तीन हज़ार से ऊपर श्रादमी मरे हैं। श्राज-कल की असाधारण सर्दी से लोग अाशङ्कित हैं । और तो कुछ होनेवाला नहीं है !
मोजी (४-५-३५) ___जहाज से दो पारसी दम्पति शाङ्घाई में उतर गये थे, इसलिए अब हम अाठ भारतीय सेकंड क्लास के यात्री थे, जिनमें पाँच मदरासी भाइयों से हाङ्काङ और शाङ्घाई की सैर में अधिक घनिष्ठता हो गई थी। अभी तोकियो पहुँचने से पूर्व कोबे, क्योतो, नारा
और अोसाका श्रादि को देखना था । साथ में रहने से मोटर के खर्च में भी कमी हो जाती है और साथियों की टिप्पणियों से भी लाभ होता है, इसलिए दो मई को हमने १ पौंड (१६.६८ येन) देकर अपना टिकट योकोहामा का । करवा लिया। आज भी समुद्र अधिक चंचल रहा । ३ मई । के बारह बजे हमें जापान का तट वैसा ही मालूम पड़ा, जैसे पोर्त सईद से जाकर इटली का तट दिखाई पड़ता है। भूमि पहाड़ी, किन्तु सर्वत्र वृक्ष और हरियाली है । पास के समुद्र में मछुत्रों की बहुत-सी नावें और अग्निबोट चल रहे। थे। पूछने पर मालूम हुअा, दाहने का तट क्यूशू (जापान के चार प्रधान टापुत्रों में एक) का है, और बायें का किसी
छोटे द्वीप का। इसी वक्त लाल काग़ज़ पर छपा हुआ २३४
जापाम का बालसैनिक–मिषुधाशी
लेखक, श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन
प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु श्री राहुल सांकृत्यायन जापान पहुँच गये । इस लेख में आपने अपने जापान पहुँचने तथा वहाँ के जगद्विख्यात वेप्पू के तप्त कुण्डों का विस्तृत वर्णन किया है। जापान के सम्बन्ध में आपके और भी कई महत्त्वपूर्ण लेख हम क्रमशः प्रकाशित करेंगे।
hree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara Surat
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या
३]
जापान में
२३५
IRRHETHERPRER
will
[जापानी बौद्ध भिक्षु]
[दो जापानी कुमारियाँ-किमोनो और चाप्पल में]
अँगरेज़ी में एक नोटिस बाँटा गया। उसमें लिखा था, था, जो बतला रहा था कि जापान कहाँ तक उद्योग-प्रधान मोजी और शिमोनोसकी के तट-भाग किले बन्द हैं, इसलिए हो चुका है। सर्दी थी, किन्तु हम दृश्य देखने के लिए डेक यहाँ फ़ोटो लेने की सख्त मनाही है । हाङ्-काङ् में भी पर डटे हुए थे। मुझे तो दूर से वह स्वप्न की दुनिया या ऐसा ही है, किन्तु मुसाफ़िरों को सजग करने के लिए वहाँ गंधर्वनगर मालूम हो रहा था । पाँच बजे हमें मोजी काई नोटिस नहीं बाँटा गया, सिर्फ जेटी के एक कोने में (क्यूश) और शिमोनोसाकी (होन्शू) आमने-सामने, किन्तु कुछ लिखकर रख दिया गया है।
हमसे आगे दिखलाई पड़ रहे थे। शिमिनेोसाकी की ओर ५ बजे जापान की और अधिक भूमि दिखलाई पड़ने कितनी ही तेल की टंकियाँ भी थीं। इसी समय जहाज़ लगी। दाहने-बायें दोनों तरफ़ हरे-भरे पार्वत्य देश हैं। खड़ा हो गया। दाहनी ओर क्यूशू-द्वीप और बाई ओर जापान का सबसे विदेश से आनेवाले सभी यात्रियों की जब पहले डाक्टरी बड़ा द्वीप होन्शू है। घर दियासलाई के घरौंदे से और हो जाती है तब वे जापान की भूमि पर पैर रखने पाते प्रायः एकतले दिखाई पड़ रहे थे। इन छोटी दीखती हैं । इसी लिए जहाज़ खड़ा हुआ था । सामने से सफ़ेद बस्तियों में भी जगह जगह चिमनियों से धुआँ निकल रहा मोटर-नौका डाक्टर को लिये आ रही थी। हम लोग
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३६
सरस्वतो
[भाग ३६
[ऊपर (१) बेप्पू चीनो इजिगोकू का वाष्पपूर्ण तप्तकुण्ड (२) एक शिन्तो मन्दिर का द्वार नीचे (१) किमोनो और खड़ाऊँ (२) पुराने और नये फ़ैशन ]
धूम्रपानशाला में जमा हो गये। कुछ देर बाद डाक्टर भी लगा रहे थे। एक दोमहला स्टीमर तो कश्मीर के हौसअाया । दरवाज़े में घुसते ही टोपी उतारकर उसने हाथ में बोट की तरह पूरा मकान-सा मालूम होता था। वह भी ले ली, और ऊपरी धड़ को झुकाकर जाँघ के साथ प्रायः शिमोनासाकी से मोजी की ओर जा रहा था । पता लगा, समकोण बनाते हुए उसने प्रणाम किया। हम लोगों की आर-पार के दोनों नगरों के यात्रियों को ले जाने और ले अोर से भी सिर झुकाकर उसका उत्तर दिया गया । कुर्सी पाने के लिए थोड़ी थोड़ी देर में यहाँ जहाज़ खुला करते पर बैठकर उसने एक बार हमारे चेहरों की ओर देखा, हैं। मोजी की आबादी एक लाख से ऊपर है, और यहाँ
और "हाँ" कह कर टोपी उठा फिर उसी तरह अभिवादन बहुत-से कारखाने हैं। कर चला गया। जहाज़ फिर लंगर उठा प्राधा या पौन जहाज़ के खड़े हो जाने पर पासपोर्ट देखनेवाले घंटा चला और हम मोजी के सामने आ पहुँचे । किनारे पर अफ़सरों की नौकायें आई। पहले ही दोहरा फ़ार्म हमसे पानी बहुत गहरा नहीं है, इसलिए हमारे 'अन्योमारु' की करवा लिया गया था, जिसमें वल्दियत, सकूनत, जातीभाँति कितने और महा समुद्रगामी जहाज़ बीच में ही लंगर यता, पासपोर्ट नंबर के साथ जापान-यात्रा का प्रयोजन डाले खड़े थे । देखा कि एक एक स्टीमर रेलगाड़ी के माल लिखवा लिया गया था। मोजी में देखा जानेवाला फ़ार्म के ढोनेवाले डिब्बे लादे शिमोनोसाकी से मोजी की ओर ले सामने रखकर हर एक आदमी से कुछ पूछा जाता था। जा रहा है। अनेक मोटर-नौकायें तथा स्टीमर भी दौड़ पासपोर्ट का चित्र और नंबर मिलाया जाता था। फिर यात्रा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
जापान में
२३७
[(१) बेप्पू शिन बोजु जिगोकू का तप्तकुण्ड (२) खौलते जल के बुलबुले (३) कामेकावादोमों
को बौद्ध प्रतिमा और निवास-गृह (४) बेप्पू उमी जिगोकू तप्तकुण्ड पर छात्रायें।]
के बारे में विशेष तौर से पूछा जाता था। किसी किसी के फर्स्ट क्लास के दो गुजराती सज्जन मिस्टर शा और मिस्टर साथ तो छोटी-सी जिरह हो जाती थी। हमारी बारी भी हज़रत साथी हो गये । साढ़े आठ बजे रात को हम एक
आई । बौद्ध भिक्षु और अध्ययन-प्रयोजन पर तो विशेष नहीं अत्यन्त छोटी-सी काठ की मोटर-नौका पर तट की ओर पूछा, हाँ, व्यवसाय (पेशा) के खाने में बौद्ध भिक्षु के साथ चले । आदमी बहुत थे। आस-पास से गुज़रते अग्निबोटों के लेखक भी लिखा था । इस सम्बन्ध में पूछा-"किस विषय हिलोरे से तो मालूम होता था, नौका उलट ही जायगी। पर पुस्तकें लिखी हैं ?” उत्तर दिया-"अधिकतर बौद्धधर्म एक बार तो बाई ओर से धड़धड़ाता हुआ एक स्टीमर पर तथा कुछ यात्रा आदि पर भी" | फिर पूछा- सामने आ भी गया, और दोनों के टकराने में सिर्फ "कितनी उत्तर दिया-"प्रायः बीस १० पूछा-"तब तो दो हाथ का फ़र्क रह गया था। हमारा नाविक दाँत जापान पर भी कोई पुस्तक ज़रूर लिखेंगे ?” उत्तर दिया- निकालने लगा, किन्तु अब उसकी आवश्यकता क्या ? "हाँ, हो सकता है। इस प्रकार इस पूछा-पेखी से छुट्टी बच गये, नहीं तो कितने न तैरनेवाले तो वहीं "राम राम मिली । तब तक साथी लोगों ने यह सलाह कर ली थी कि सत्य" हो जाते।
आज ही रात को मोजी जाकर वहाँ से १०० मील पर जेटी पर पहुँचे । कस्टम के लोगों ने हमारे हैंडबेगों स्थित बेप्पू के तप्तकुण्डों में स्नान करने चला जाय। को देखा, और सिगरेट के बारे में विशेष तौर से पूछा । सेकंड क्लास के गुप्ता महाशय तथा डाक्टर सिद्दप्पा तो सिगरेट अब सभ्य दुनिया की रोज़मर्रा की आवश्यक कोई बहाना बनाकर रह गये, किन्तु उनकी जगह पर चीज़ हो गई है, और जापान में यह व्यवसाय सरकार के
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३८
सरस्वती
हाथ में है, इसलिए सरकार नहीं चाहती कि उस व्यवसाय से विदेशी फ़ायदा उठावें ।
प्पू के कु हमारी जमात में श्राठ भारतीयों के अतिरिक्त एक जापानी श्री मियोची भी । मियोची अमरीका से अध्ययन समाप्त कर स्वदेश लौट रहे थे । वे अँगरेज़ी अच्छी जानते थे, इसलिए ऐसे एक आदमी की हमें श्रावश्यकता भी थी। पता लगाने पर ज्ञात हुआ, बेप्पू की ट्रेन रात में नौ बजकर पचपन मिनट पर छूटती है । हम लोग सेकंड क्लास के मुसाफिरखाने में गये। सेकंड और फ़र्स्ट क्लास का एक मुसाफ़िरखाना है, और थर्ड का दूसरा । थर्ड में भी बहुत-सी कुर्सियाँ थीं। प्लेटफ़ार्म के टिकट और मिठाइयों के बेचने की मशीनें थीं, और साथ ही ट्रेन छूटने आदि की सूचना देने के लिए शब्द प्रसारक यंत्र लगा था। फ़र्स्ट में भी वही बात थी. हाँ, इसमें कुर्सियों पर की गद्दे - गद्दियाँ अधिक मुलायम थीं । यहाँ ज़नाना - मर्दाना अलग मुसाफिरखाना नहीं है । एक ही कुर्सी पर स्त्रीपुरुष दोनों बैठते हैं । मुसाफ़िर आते-जाते रहते थे, तो भी वहाँ ६०-७० के क़रीब तक एक बार में देखे गये । पुरुष अधिकतर हैट, कोट, पतलून में थे, किन्तु स्त्रियाँ बहुधा अपनी जातीय पोशाक किमोनो पहने हुई थीं । किमोनो विशेषकर स्त्रियों का किमोनो बहुत ही सुंदर पोशाक है । उसका कलापूर्ण कमरबंद तो हद से अधिक सुंदर है । किमोनो ऍड़ी तक लम्बा ढोली बाहों का चोग़ास होता है । इसका कमरबंद ७-८ अंगुल चौड़ा होता है, और पीठ पर अधिक सुंदर बनाने के लिए एक चौड़ी कपड़े की परत देकर उसे चौड़ा कर देते हैं । अधिकांश स्त्रियाँ रबर के चप्पल पहने थीं, और कुछ के पैरों में पूर्वी युक्तप्रान्त में बरसात के दिनों में इस्तेमाल किये जानेवाले बद्धीदार खड़ाऊँ थे । जापानी स्त्रियों की बालों की सजावट में अब बहुत अन्तर या गया है, तो बारह वर्ष की कम उम्र वाली लड़कियों को छोड़कर किसी के बाल कटे नहीं हैं। अगल-बगल, आगे-पीछे तथा चाँद पर बालों को फैलाते हुए जूड़ा बनाने का रवाज अब बहुत ही कम हो गया है । उसकी जगह आगे छोटी-सी
दस
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
तिछ माँग बनाकर पीछे काँटों से जूड़ा बाँधा जाता है। इसमें शक नहीं कि यह केश सज्जा पहले की अपेक्षा अधिक सुंदर मालूम होती है। सेकंड और फ़र्स्ट क्लास के यात्री अपना अपना बाक्स स्वयं हाथ से लटकाये श्रा रहे थे । पता लगा, जापानी लोग बाबूगिरी पसन्द नहीं करते ।
बैठे बैठे देख रहे थे, हमारा पीला कपड़ा लोगों की दृष्टि को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। लेकिन उसका उपाय क्या था ? हमने अगल-बगल की छोटी छोटी दूकानें देखीं। चीज़ों को सजाकर खूब सफ़ाई के साथ रखने में तो जापान ने कमाल का ही काम किया है। एक फल और मिठाई की दूकान में देखा, नारंगी, बिस्कुट तथा पचासों तरह की मिठाइयाँ और फल थे, और सभी पतले मामी काग़ज़ के थैलों के भीतर थे ।
जेटी पर हमें एक पेसेंजर गाइडर (बाई बाँह पर यही लिखा था ) मिल गया । उससे टिकट आदि लेने में बड़ी सहायता मिली । माजी से वेप्पू सौ मील है, उसके लिए सेकंड क्लास का टिकट ३८६ येन है, और तीसरे दरजे का १८० येन । जाते वक्त सेकंड क्लास से चलने की सलाह हुई। ट्रेन में पहुँचे । जापान की रेलवे लाइनें ई० आई० चार० से कम और बी० एन० डब्लू० आर० से अधिक चौड़ी हैं। फ़र्स्ट, सेकंड, थर्ड तीन दर्जे हैं । थर्ड से दूना सेकंड का किराया है। उसके ड्योढ़े से कुछ अधिक फ़र्स्ट का । थर्ड और सेकंड में कोई अधिक फ़र्क नहीं है । थर्ड में सिर्फ़ नीचे ही गद्दा रहता है, पीठ के पीछे नहीं । सेकंड में दोनों जगह । और थर्ड से सेकंड में पैर फैलाने की अधिक जगह रहती है। डिब्बे में बीच से रास्ता सारी ट्रेन में चला जाता है । इसी रास्ते के दोनों ओर दो आदमियों के बैठने लायक़ बैठकें हैं । योरप की ट्रेनों का ढंग इससे अच्छा है । वहाँ बराम्दा बग़ल में होता है, जिससे बेंचों पर चार आदमियों के बैठने की जगह रहती है, और पैर फैला कर सोने लायक़ जगह निकल आती है । हम लोगों को डेढ़ बजे रात तक चलना था । सोना मुश्किल था । यदि किसी ने सोने की कोशिश की तो गर्दन में दर्द लेकर उसे उठना पड़ा ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
जापान में
२३९
रास्ते में कई जगह ट्रेन खड़ी होती गई। हमें दूसरे प्याले रक्खे गये। काफ़ी अर्ध दंडवत् (जापानी नौकरादिन इसी रास्ते दिन में ही लौटना था, इसलिए मार्ग के नियों का प्रणाम करीब करीब अर्ध दंडवत् होता है। दृश्य को देखने की कोई चिन्ता न थी। स्टेशनों के नाम-- अक्सर वह बैठकर ज़मीन पर दोनों हाथों और सिर चीनी, काना और रोमन तीनों अक्षरों में लिखे थे। को रख कर किया जाता है) के साथ प्यालों में चाय काना अक्षर उच्चारण के अनुसार हैं, चीनी की भाँति या डाली जाती थी। एक तश्तरी में चीनी की कुछ रंगहमारे हिन्दी के अङ्कों की तरह अर्थद्योतक नहीं। रोमन बिरंगी मिठाई भी रखी गई। हमारे साथी चा-नो-यू को अक्षरों से स्टेशन का नाम हमें आसानी से मालूम हो बीमारी का काढ़ा समझते थे । उनमें मेयोची. महाशय के जाता था।
अतिरिक्त हमीं ऐसे थे जो प्रसन्नता से तथा एक-दो प्रशंसा ____टीक समय पर गाड़ी बेप्पू पहुँची। हम लोगों ने के शब्दों के साथ जापानी चाय पीते थे। वह हल्का-सा मोजी से ही एक योकन को टेलीफ़ोन करवा दिया था। चाय का पानी उबाला पानी था, उसमें न दूध, न चीनी योकन जापानी ढंग के होटल को कहते हैं, जो जापान और न नमक ही था। हमारे मनसाराम में सभी जगह बहुतायत से मिलते हैं। योरपीय ढंग के बाग़ी बनना चाहते थे, किन्तु हम तो उनके लड़कपन को होटल सिर्फ बड़े बड़े शहरों में ही मिलते हैं, और उनका अच्छी तरह से जानते हैं। दो-चार मीठे शब्द "ठहरो खर्च भी काफ़ी अधिक पड़ता है। तिब्बत में कन्सू के और प्रतीक्षा करो" कह देने पर मान जाते हैं। और पीछे चीनी होटलों के बारे में सुना था, कैसे पथिक के गाँव में जब उन चीज़ों का हफ़्तों का अभ्यास हो जाता है तब अपने पहुँचते ही होटलवाले काग़ज़ की लालटेन ले पहुँच जाते ही अच्छी लगने लगती हैं। इधर हम लोगों के पलकों हैं। यहाँ भी स्टेशन के बाहर कितने ही योकनवाले पर नींद सौ सौ मन का बोझ लाद रही थी, उधर होटलकाग़ज़ की लालटेन लिये खड़े थे। हम लोगों को देखते वाले के साथ मिस्टर मेयोनी की फल के प्रोग्राम-सम्बन्धी ही हमारा होटलवाला पास आ गया। दो टैक्सियाँ बात ही खत्म न होती थी। अन्त में निर्णय हुआ, कल किराये पर की गई, और हम कुछ मिनट के रास्ते पर नाश्ता कर सात बजे दो टैक्सियों में हम लोग बेप्पूअवस्थित अपने योकन में पहुँच गये। बेप्पू के हमारे योकन तप्तकण्ड जायँगे और स्नान करके वहाँ से लौटकर १ का नाम मिकसाया था। सीढ़ी पर ही पतले तल्ले के चमड़े बज कर ५५ मिनटवाली गाड़ी पकड़ेंगे। योकन के के स्लीपर थे। हमने अपना बूट जूता खोला, और स्लीपर किराये के बारे में पूछने पर मालूम हुआ, खाने-रहने पहन कर ऊपर के तल्ले पर गये। एक अपेक्षाकृत बड़े के लिए एक आदमी का ५ येन (१ येन - साढ़े बारह कमरे के सामने स्लीपर खोल दिया और हम लोग आना) अर्थात् तीन रुपया साढ़े बारह आना । हमने भीतर दाखिल हुए। कमरा बहुत स्वच्छ था। उसमें समझ लिया, हम अमेरिकन यात्री समझे जा रहे हैं, किन्तु पतले तिनकों की बुनी सीतलपाटियाँ बिछी हुई थीं। एक रात तो रहना था। अलग अलग कमरा लेने पर बीच में एक फुट ऊँची, दो फुट चौड़ी तथा चार फुट किराया और बढ़ जाता, इसलिए तीन तीन आदमियों के लम्बा लकड़ी का स्वच्छ चाकी रक्खी थी। वहीं बग़ल में लिए हमने तीन कमरे लिये। हमें नीचे बिछाने के चीनी मिट्टी की एक बड़ी अँगीठी में लकड़ी के कोयले की लिए दो रुईदार गहे. ऊपर अोढने के लिए दो कईभरे श्राग जल रही थी। मिकासाया की नौकर युवतियों ने लिहाफ़, और सिर के नीचे रखने के लिए एक धान अाकर खूब झुककर प्रणाम करके बैठने के लिए छोटी की भूसा भरी एक छोटा तकिया मिला। ढाई बजे के छोटी गद्दियाँ दीं। हम लोग बैठ गये। ज़रा ही देर में करीब हम सोने पाये। चा-नो-यू (चाय का गर्म पानी) आ गया । काठ की सवेरे नींद सात बजे खुली। नौकरानियों ने फिर छोटी छोटी तश्तरियों में खिलौने जैसे छोटे छोटे अर्ध दण्डवत् अदा की, और वे हमारा गद्दा-तकिया
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४०
सरस्वती
[भाग ३६
समेट कर ले गई। यह अर्ध दण्डवत् बहुत बुरी मालूम मछली, एक प्रकार का मांस, सोया का सिरका, कुछ हो रही थी। यदि दोनों ओर से यही प्रणाम करने का चटनी और फल अच्छी तरह खाये। ढङ्ग समझा जाता तो वह दसरी बात थी. किन्तु यहाँ तो आठ बजे हम लोग तैयार हो गये। दस दस येन उसके पीछे दास और स्वामी का भाव छिपा हुआ है। पर एक बजे तक (पाँच घण्टे) के लिए दो टैक्सियाँ की जापान ने जैसे और बहुत-सी हानिकारक बातें छोड़ दी हैं, गई । हूड उठा दिये गये। अपने राम ने ड्राइवर की वैसे ही चाहता तो इसे भी छोड़ देता, किन्तु शायद इन दाहनी बग़ल अगली सीट दखल में की। हमारी दोनों मिथ्या विश्वासों से उसके ऊँची श्रेणी के लोग कुछ टैक्सियों में ड्राइवर का पहिया अगली सीट की बाई ओर फायदा समझते हैं, इसलिए उन्होंने इसे नहीं हटाया। था, जैसा कि फ्रांस और जर्मनी आदि में होता है। पाखाना हिन्दुस्तानी ढङ्ग का ही खुड्डीवाला था । हाँ, लेकिन यहाँ वहाँ की भाँति बाये चलो की जगह दायें पेशाबखाने में योरपीय ढङ्ग इस्तेमाल किया गया था। चलो का नियम नहीं है । बेप्पू बस्ती बहुत भारी नहीं है मुँह धोने के लिए नल का और चीनी का अचल पात्र बस्ती के आखिर के अगल-बग़ल खेतों, बागों, और घर था। मकान सारा लकड़ी के ढाँचे का था, जिसमें बाहरी के हातों में जहाँ-तहाँ गर्म पानी के सोते निकल रहे थे दीवारों को छोड़ कर बाकी सभी दीवारें लकड़ी के फ्रेम पर कहीं कहीं तो सिर्फ भाफ ही निकल रही थी। बेप्पू में ट्राम काग़ज़ चिपका कर बनाई गई थीं। ये फ्रेम बहुत हलके भी है। कुछ दूर तक ट्राम का रास्ता रहा, फिर हम समुद्र तथा बग़ल में खिसकाऊ थे । जापान में बिजली गाँवों तक को दायें रखते चले। फिर समुद्र छोड़कर एक जगह में पहुंच गई है, इसलिए उसका इन्तज़ाम सभी जगह रेलवे लाइन पारकर हम बाई ओर पहाड़ की ओर है । कमरे में सफ़ाई चरम सीमा को पहुँची हुई थी, किन्तु चले । प्रायः ५-६ मील चलने पर पहली जगह कामेकावा सिर्फ दो तसवीरों को छोड़ कर और कोई सजावट न थी। दोनों आई। कुछ गुफ़ायें भी थीं, बाहर कुछ स्त्रियाँ वस्तुतः यह सूफ़ियाना सजावट ही गज़ब ढा रही थी। तसवीरें रक्खे बेच रही थीं। दस सेन् (पाँच पैसा.)
मारा नहा लेने का समय था। किन्तु हमारे महसूल देकर हम गुफा के भीतर घुसे । गुफायें खोद गुजराती साथी ने गुसलखाने की जो हालत बयान की कर बनाई गई हैं, किन्तु उनके भीतर तरह तरह के रंग उससे हमें अपना इरादा छोड़ देना पड़ा। वे कह रहे थे, की गंधक तथा दूसरे पत्थरों की बनावट है। पथदर्शिका हर स्त्री-पुरुष दोनों नंगे एक ही कोठरी में नहा रहे हैं । सात एक चीज़ पर लेक्चर देती जाती थी, और श्री मेयोची हमें बजे फिर हमारी मंडली उसी कमरे में चौकी के किनारे बैठ उसे दो शब्दों में बतलाते जाते थे। कहीं सफ़ेद गंधक गई । मेयोची और हमारे लिए जापानी भोजन था, औरों थी, यह हिम-स्वर्ग है। कहीं पीली—यह कांचन-स्वर्ग है । के लिए पावरोटी, दूध, सलाद तथा फल । हमने जहाज़ इत्यादि । बीच बीच में भगवान् बुद्ध, अवलोकितेश्वरी, से ही जापानी ढंग के भोजन को अपनाना शुरू कर बोधिसत्त्व । अवलोकितेश्वर ने चीन में अपने पुरुष रूप दिया था। यद्यपि जहाज़ का सारा भोजन योरपीय ढंग को छोड़ दिया है, अब वे करुणामय न रह कर करुणाका होता है, तो भी नाश्ते में एक परकार जापानी मयी देवी हो गये हैं, तथा और कितने ही देवता । भोजन का भी होता है । तिब्बत में दो लकड़ियों से भोजन लौटकर हमने कुछ तसवीरें खरीदी, फिर आगे बढ़े। करना सीखने में हम फ़ेल हो गये थे, किन्तु अब की चाहे हमारे रास्ते में सैकड़ों स्कूली लड़कों और लड़कियों की जैसे हो सीखना था। इतने दिनों में अब हमें कुछ पार्टी पीठ पर झोलों में सामान लादे जा रही थी। श्रा भी गया है। भोजन में मसाले-मिर्च का अभाव, जापानी लोग प्राकृतिक दृश्यों के देखने के बड़े प्रेमी होते
और सभी चीजें चीनी-सी पड़ी मालूम होती हैं। खैर, हैं। जापान में एक हज़ार ततकुंड देश के भिन्न भिन्न भागों निकासाया में भात, दो तरह की तरकारी, तीन तरह की में फैले हुए हैं। हर साल दो करोड़ आदमी इन चश्मों
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
जापान में
२४१
को देखने और नहाने आते हैं । बेप्पू के चश्मे सबसे था, जिसमें दो मिनट में अंडा उबल जाता था। इस अधिक प्रसिद्ध हैं।
स्थान का नाम शिन है। ___ हम पहाड़ पर चढ़ रहे थे। हमारे श्रास-पास कितने अन्त में हम हचीमन् कुंड पर पहुंचे। यहीं हमारे ही गाँव थे। कृषकों के घरों में से कुछ खपडैल से छाये साथियों को स्नान करना था। हमने तो नग्न-स्नान हुए थे, और कुछ तिनके से। भीतर देखने की बड़ी देखकर अभी सब्र करना ही पसन्द किया। एक योकन इच्छा थी, किन्तु आज उसका मौका न मिला । हाँ, के तीसरे तले पर हमें जगह मिली । वहाँ से नीचे बेप्पू तक हम देख रहे थे कि यहाँ के किसान भी काम पर कोट- की भूमि ढालू चली गई थी। जगह जगह देवदार तथा पतलून के साथ ही जाते हैं । लम्बा किमोनो दर असल दूसरे वृक्षों की शोभा निराली थी। बीच बीच में किसानों है भी नहीं काम करने के वक्त की पोशाक । भारत में भी के खेत और मकान तथा कस्बे दिखाई पड़ रहे थे । खाना काम करते वक्त यदि कुर्ता जाँघिया रक्खा जाय, तो खाना था। ५० सेन् (छः आने) में ऐसा और इतना कितना अच्छा हो । दूसरा चश्मा चिनोइके है। यहाँ खाना भारत में भी नहीं मिल सकता, और ऊपर से परिएक गहरा कुंड है, जिसका रंग लाल रोरी या चारिकाओं की दण्डवत् मुफ़्त में। सिंदूर जैसा है। यहाँ के चश्मों के बारे में लोगों का
कोबे ५-५-३५ विश्वास है कि वे कितने ही प्रकार के रोगों को दूर नहाने के बाद 'इन्स्टिट्य ट अाफ़ बलनेत्रो थेराप्यूकरते हैं।
टिक्स' देखना निश्चित हुआ। बहुत दूर न था । बेप्पू-तप्तफिर कुछ दूर ऊपर चलने पर कन्नावा मिला । बीसों कुण्डों से प्रायः डेढ़ मील उत्तर-पश्चिम साढ़े चौबीस एकड़ जगह रंगबिरंगी कीचड़ खौल रही थी। कहीं हलवा-सा भूमि में यह चिकित्सा-संस्था स्थापित है। प्रबन्ध इसका पक रहा था, कहीं हथेली भर के बिलकुल अर्ध गोल क्यूश का सरकारी विश्वविद्यालय करता है, और स्थापना बुलबुले थोड़ी थोड़ी दूर पर निकल रहे थे, कहीं कितने सरकार की सहायता से हुई है। संस्था का मुख्य उद्देश फुट नीचे से भाफ निकल रही थी। पथदर्शिका ने सब बेप्पू के तप्तकुण्डों का चिकित्सा के लिए वैज्ञानिक ढङ्ग से जगहें बतलाई। इन सभी स्थानों में दस से पंद्रह सेन् इस्तेमाल करना है। संस्था की भूमि के भीतर दो गर्म तक हर यात्री को देना पड़ता है, किन्तु जगहों को खूब पानी के सेते भी हैं । एक में कार्बोनिक एसिड की प्रधास्वच्छ और सजा देखकर पैसे के सदुपयोग से चित्त प्रसन्न नता है और दूसरे में गन्धक की। दोनों का तापमान हो जाता है । भारत में भी सीता-कुंड, राजगिर, सोरना ६० डिग्री सेंटीग्रेड के बराबर है । संस्था में ७० रोगियों जैसे कितने ही गर्मकुंड हैं, किन्तु वे कहाँ इतने आकर्षक के रहने की जगह है। मासिक शुल्क के अनुसार वे बनाये गये हैं ? यहाँ हर एक कुंड या कुंड-समुदाय पहली, दूसरी, तीसरी- इन तीन श्रेणियों में रक्खे जाते हैं। के आस-पास सुंदर बगीचा लगा हुआ है । सस्ते जल- पहले दर्जे में मकान और खाने का खर्च १३४ रुपया पान का प्रबन्ध है, फ़ोटो और पुस्तकों की दूकाने हैं, प्रतिमास पड़ता है, तीसरे दर्जे में ५२ रुपये के करीब ।
और ऊपर से पथदर्शिकानों का हर एक कुंड की कितने ही डाक्टर तथा रोगी-परिचारिकायें यहाँ शुश्रूषा के गहराई, उसके तापमान, उसके इतिहास पर लेक्चर होता लिए बराबर तैयार रहती हैं । बहुत से स्नानागार या स्नानहै। नहाने के लिए सुन्दर जगहें हैं, ठहरने के लिए स्थान बने हुए हैं, जिनमें इन तप्त-स्रोतों से ओषधि-स्नान, नज़दीक में भी योकन हैं।
कार्बोनिक एसिड-स्नान, विद्युत्-जलस्नान, वायु-बुद्बुद और ऊपर चढ़ने पर हमारा मोटर हरियाली से लदे स्नान आदि कितने ही प्रकार के स्नान कराये जाते हैं। एक पहाड़ की जड़ में जा पहुँचा । सारा दृश्य जादू का-सा चिकित्सागृह नये नये यन्त्रों से सुसज्जित हैं। द्वार पर हम था । पहाड़ की जड़ में एकदम हरे पानी का एक कुंड लोगों को जूता खुलवाकर स्लीपर दिया गया, फिर एक
फा. ७
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२
सरस्वती
[भाग ३६
डाक्टर ने हमें कितने ही कमरों को दिखाया। देखने की आये। सारी यात्रा में आदमी पीछे २० येन् या प्रायः बहुत-सी चीजें थीं, किन्तु हमें रेलगाड़ी भी पकड़नी थी, १६) रुपये खर्च हुए। इसलिए जल्दी बिदा होकर स्टेशन की ओर भागे। स्टेशन ६ बजे शाम को अन्योमार चल पड़ा। चार बजे पर पहुँचने पर दस मिनट गाड़ी के पाने में बाकी थे। के करीब जहाज़ कोबे बंदरगाह के बाहर खड़ा हो गया । ___तीसरे दर्जे की गाड़ी में सवार हो हम मोजी की ओर यह बंदरगाह बहुत बड़ा है । लहरों के आघात से चले । अब की रास्ते का या जापान देश का ग्राम्य दृश्य उसे बचाने के लिए यहाँ पत्थर की दीवारें बनाई गई हैं। देखने का मौका मिला । जगह जगह गाँव-कस्बे हैं । गाँवों बड़े से बड़ा जहाज़ भी तट तक पहुँच सकता है। हम लोगों तक में बिजली का प्रबन्ध है, जिसके सहारे लोग मोजा का जहाज़ तूशान के डेक पर जाकर लगा । कुछ भारतीयों बुनने की मशीनें तथा दूसरे छोटे छोटे यंत्रों को लेकर को यहीं उतर जाना था, इसलिए कोबे के कुछ भारतीय चीजें बनाते हैं।
उन्हें लेने आये थे । वहीं श्री कोतक और श्री आनन्दमोहन. ___इन चीज़ों के बेचने का सुन्दर प्रबन्ध सरकार की ओर सहाय से भेंट हुई। आनन्दमोहन जी भागलपुर (बिहार) से है । कस्बों में जगह जगह फ़ेक्टरियाँ हैं । जंगल यहाँ के रहनेवाले हैं । असहयोग में मेडिकल कालेज की पढ़ाई नेपाल की तरह बेदर्दी से काटे नहीं गये हैं । जगह जगह उन्होंने छोड़ दी थी । गया-कांग्रेस (१९२२ ई.) के बाद वे बाँस, देवदार तथा दूसरे वृक्षों के वन हैं। बाँस के कई जापान चले आये। तब से जापान में ही हैं। भारतीय जगह बगीचे भी लगे हुए हैं। बाँस से जापान में कुर्सी, राष्ट्रीय महासभा की जापानी शाखा के वे सभापति भी हैं, मेज़, टोकरी आदि सैकड़ों तरह की चीजें बनती हैं, और अपना बहुत-सा समय राष्ट्रीय कामों में ही देते हैं । इसलिए इसकी अोर खास ध्यान रखा जाता है। यदि पासपोर्ट का झगड़ा समाप्त कर लेने पर हमें अानन्दजापान की तरह भारत में भी बिजली का प्रचार हो और मोहन जी एक बौद्ध मंदिर में ले गये। जूता उतार छोटी छोटी मशीनों द्वारा लोग चीजें तैयार करें तो कर मंदिर में गये । जापान में मंदिर में घुसने से पूर्व वहाँ भी ऐसे ही कामयाबी हो सकती है।
जूते का उतार देना ज़रूरी है। खूब स्वच्छ विशाल ___ जापान का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भुत है और हाल में पद्मासनासीन सुन्दर बुद्ध-मूर्ति है। फर्श पर गर्मी का एक तरह से यहाँ नाम नहीं है। इसलिए साफ़-सुथरी मुलायम चटाइयाँ बिछी हुई हैं । भगवान्
आदमी काम करने में खूब मुस्तैद रहते हैं । जापान बुद्ध के प्रति अपनी भक्ति प्रकट कर चुकने पर हम जलवायु में भूतल का स्वर्ग है। समय समय पर आनेवाले एक कमरे में ले जाये गये। वहाँ एक एक प्याला भयङ्कर भूकम्पों की इसके विरुद्ध कही जा सकती है, जापानी ढंग की चाय दी गई। सामने की दीवार पर नागरी किन्तु उसने तो जापानी लोगों को मृत्युंजय बना दिया अक्षरों में 'अमितायुस' लिखा टँगा देखकर पूछा। मालूम है। हँसते हँसते इन लोगों को मृत्यु का आलिंगन करते हुआ कि ब्रह्मदेश के भिक्षु श्री उत्तम यहाँ रह चुके हैं । वह देख बाहर के लोग आश्चर्य करते हैं।
उन्हीं के हाथ का लिखा है। वहाँ से कोतक महाशय के ___हम ५ बजे के करीब मौजी पहुंचे। जेटी पर थोड़ी यहाँ गये । हमारा जहाज़ कोबे में चार दिन ठहरनेवाला देर में मोटर-नौका मिली, और हम फिर जहाज़ पर चले था, इसलिए नारा, होरियोजी, क्यूतो आदि स्थानों के
देख श्राने का प्रोग्राम बना और ग्यारह बजे रात को हम * बाँस के करील की तरकारी बहुत स्वादिष्ट समझी फिर अपने जहाज़ पर लौट आये। जाती है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतवर्ष की वर्तमान राजनैतिक परिस्थिति
सिंहावलोकन
लेखक, श्रीयुत कृष्णमोहन, एम० ए०
धर कुछ दिनों से देश का राजनैतिक वातावरण इतना शीघ्र शीघ्र बदल रहा है कि कोई यह नहीं कह सकता कि अगले साल हवा का क्या रुख होगा । बम्बई - कांग्रेस में यह प्रस्ताव पास हुआ था कि वर्तमान शासन-प्रणाली का विरोध अन्दर और बाहर दोनों तरफ़ से किया जाय और इसी लिए बड़े बड़े वादे करके कांग्रेसवाले लेजिस्लेटिव असेम्बली में गये भी । इसमें सन्देह नहीं कि इस बार की असेम्बली में सरकार को कई बार हार खानी पड़ी, मगर देश के शासन में उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। सरकार अपनी दृढ़ नीति पर बराबर डटी रही । यह नहीं कहा जा सकता कि असेम्बली में सरकार की हार कांग्रेस-दल की वजह से हुई थी। सच बात तो यह थी कि सारी शक्ति श्री जिन्ना और उनके दल के हाथ में रही । जिधर वे मुड़ जाते, उसी को विजय मिलती थी। इसका पता साम्प्रदायिक निर्णय-सम्बन्धी प्रस्ताव के वाद-विवाद से अच्छी तरह लग जाता है । जबलपुर में कांग्रेस कार्य समिति के सामने जब कांग्रेस पार्लियामेंटरी बोर्ड के कार्यों का प्रशंसात्मक ब्योरा उस दिन पेश किया गया तब समिति ने उसकी कोई प्रशंसा नहीं की । इससे यह बात साबित होती है कि पार्लियामेंटरी बोर्ड के कार्यों को अन्य लोग ही नहीं, बल्कि कांग्रेस की कार्य समिति भी कोई विशेष महत्त्व नहीं देती है । यह तो रही कांग्रेस की बात ।
X
X
X
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
उधर सरकार नये शासन-विधान को पार्लियामेंट से पास करवा कर उसे क़ानून का रूप देने में जी-जान से लगी थी । भारतवर्ष में जगह जगह हर तरह से, जहाँ तक संभव था, नये विधान का विरोध ही किया गया; मगर सरकार अपनी ही धुन में मस्त रही । ब्रिटिश मंत्रिमंडल में भारी परिवर्तन हुआ और सर सैमुएल होर की जगह मार्किस ग्राफ़ ज़ेटलैंड भारत मंत्री नियुक्त किये गये ।
नये भारत - मंत्री भारत में बंगाल के गवर्नर रह चुके हैं और उन्होंने हिन्दू - कला और इतिहास का अच्छा अध्ययन भी किया है । इसके अलावा वे शुरू में साम्प्रदायिक निर्णय के विरुद्ध भी रहे हैं । इसी से कुछ हिन्दुत्रों को श्राशा हुई कि नये भारत - मंत्री हिन्दू-हितों पर उस तरह कुठाराघात न करेंगे जिस तरह सर सैमुएल होर ने किया है । इसी बीच में 'इंडिया बिल' की ३०४ वीं धारा में कुछ सुधार किया गया । हिन्दू नेता समझने लगे कि अब क्याबाजी मार ली ! साम्प्रदायिक निर्णय जैसे विषधर साँप का दाँत तोड़ दिया गया। यही नहीं, इस सिलसिले में उनके बधाई के तार तक दौड़ने लगे । यह हाल देखकर मुसलमानों के कान खड़े हो गये । उन्होंने भी समझा कि सारा खेल मिट्टी में मिल गया और इतने दिनों की मेहनत व्यर्थ गई । वे उक्त धारा के परिवर्तन का विरोध करने लगे । भारत की इस साम्प्रदायिक चहल-पहल ने लार्ड ज़ेटलैंड को कुछ न करने दिया और उन्हें अपने एक वक्तव्य में यह स्पष्टरूप से घोषित करना पड़ा कि साम्प्रदायिक निर्णय में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया गया है और बिना पार्लियामेंट की आज्ञा के उसमें कोई रद्दोबदल आगे भी नहीं होगा। यह हुई नये भारत - मंत्री की २४३
www.umaragyanbhandar.com
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
सरस्वती
[ भाग ३६
सबसे पहली कार्रवाई । इसका अर्थ यह है कि सरकार माँगों को स्वीकार करने के लिए उस पर दबाव डालना सम्प्रदायवाद के विष को तभी विनष्ट करेगी जब यहाँवाले चाहिए। इसके लिए असेम्बली और कौंसिलों में केवल उसके विनाश के लिए स्वतः अग्रसर होंगे, अन्यथा वह विरोध ही करने के लिए नहीं जाना चाहिए, बल्कि जहाँ उसे फलने-फूलने देगी। वास्तव में उक्त धारा के अनुसार सम्भव हो, मिनिस्टरी के पद भी ग्रहण करने चाहिए । देश के अन्दर साम्प्रदायिक समझौता कभी नहीं हो सकेगा इससे अपनी शक्ति संगठित रहेगी और सरकार की कड़ी और उसके अभाव में यहाँ कभी सच्ची राष्ट्रीयता भी न आलोचना भी की जा सकेगी । इनके सिवा वे लोग भी पनप सकेगी। यही नहीं, धीरे धीरे साम्प्रदायिकता का विष अपनी घात में हैं जो अब तक कौंसिलों और असेम्बली में व्यवसायियों और मज़दूरों में भी फैलने लग जायगा। मज़े उड़ाते रहे हैं और जो यह नहीं चाहते कि ऐसे लोग अभी तक यह उनमें उतना नहीं फैला है, मगर जब यह कौंसिलों और असेम्बली में जायँ जो राष्ट्रीय मांगों के लिए यहाँ जड़ पकड़ लेगा तब उनमें भी वह फैल जायगा । सरकार से लड़ते हैं। ऐसी हालत में कांग्रेस की क्या नीति कुछ स्वार्थियों के हथकंडों के कारण देश को इस विभी- होगी इस पर सभी की निगाह गड़ी हुई है। षिका का अनुभव करना पड़ रहा है।
इस समय कांग्रेस में तीन मख्य दल हैं। पहला दल जिस इंडिया-बिल का भारत ने दृढता से विरोध किया, साम्यवादियों का है। इनमें अधिकांश शुरू से ही इसके विरोधी अन्त में २ अगस्त को सम्राट ने उस पर अपनी थे कि कांग्रेसवाले असेम्बली में जायँ। इन लोगों को पूँजीपतियों स्वीकृति दे दी और संशोधित 'इंडिया-बिल' अब कानून बन और मजदूरों की लड़ाई की ही फ़िक रहती है, इसी लिए गया है। अब देश का शासन इसी के अनुसार होगा। पद ग्रहण करना या कौंसिलों में जाने श्रादि जैसी बातों के इसमें संदेह नहीं कि भारत-मंत्री के हाथों से कुछ विभागों ये लोग खिलाफ़ हैं । इस दल का पहले तो काफी प्रभाव का प्रबन्ध लेकर भारतवासियों के हाथों में दे दिया गया था, मगर जब से इसने कांग्रेस की नीति का खुल कर है, मगर इसके साथ साथ गवर्नरों और गवर्नर-जनरल का विरोध करना शुरू किया है तब से यह करीब करीब इतने विशेषाधिकार दे दिये गये हैं कि उनके कारण प्रजा कांग्रेस से अलग हो गया है और इसकी बातों का को जो अधिकार भी दिये गये हैं वे सब बेकार-सा हो गये कांग्रेस की नीति पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। दूसरा हैं। विशेषाधिकार-द्वारा जब वे चाहेंगे और जहाँ भी वे दल उन कांग्रेसवादियों का है जो सरकार से मिल कर चाहेंगे, मनमाना काम कर सकेंगे। नये शासन-विधान से किसी तरह का समझौता करने को तैयार नहीं है । इस सिवा इसके कि बैठे-बैठाये ग़रीब भारतवासियों पर कई दल की भी शक्ति बम्बई-कांग्रेस में क्षीण थी, इसी करोड़ रुपये साल अधिक व्यय का भार लद गया, राष्ट्रीयता लिए इसके विरोध करते हुए भी कौंसिल-प्रवेश का की दृष्टि से कोई विशेष लाभ होता नहीं दिखाई देता। प्रस्ताव पास हो गया। मगर उस समय जो लोग कौंसिल
परन्तु इस समय प्रश्न यह है कि किया क्या जाय। प्रवेश के पक्ष में थे उन्होंने यह साफ़ शब्दों में प्रकट कर ऐसा तो है नहीं कि यदि राष्ट्रीयता-वादी भारतीय नये विधान दिया था कि उनकी नीति भी असेम्बली में वही होगी जो को ठुकरा देंगे तो सरकार का काम ही न चलेगा। उसे देशबन्धु चितरंजन दास और त्यागमूर्ति पंडित मोतीलाल तो विधान को चालू करने के लिए पिछली बार की तरह नेहरू की स्थापित की हुई स्वराज्य-पार्टी की थी यानी वे इस बार भी काफी लोग मिल जायँगे । ऐसी परिस्थिति में कौंसिल-प्रवेश तो अवश्य करेंगे, मगर वह होगी सरकार देश का क्या कर्तव्य है ? लिबरल और नेशनलिस्ट लोगों के शासन का विरोध करने के लिए और वे कोई पद का कहना है कि अगले चुनाव में बहुसंख्या में कौंसिलों में इत्यादि न ग्रहण करेंगे । किन्तु उस नीति से सरकार पर पहुँचकर उन पर अपना कब्ज़ा कर लेना चाहिए और सिवा दो चार हार खाने के और कोई प्रभाव नहीं पड़ा। फिर सरकार के कामों में अड़चन डालकर भारत की यह देखकर नये पार्लियामेंटरी बोर्ड के सदस्यों ने यह
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
सिंहावलोकन
२४५
उचित समझा कि अगले शासन-विधान में कांग्रेसवालों अन्तर नहीं है । ऐसी हालत में अच्छा तो यही था कि को पद भी अवश्य ग्रहण करना चाहिए। इससे देश का आपस का भेद-भाव भूलकर देश-हित के लिए सब अधिक लाभ होगा और कांग्रेस-दल भी संगठित रहेगा, दल एक साथ मिलकर कौंसिलों में जाते। परन्तु स्वार्थी जिससे सरकार की नीति पर भी असर पड़ेगा। इनका लोग अभी से अपनी अपनी फ़िक्र में हैं । वे चाहते यह कहना है कि पद-ग्रहण करके सरकार के विधान का हैं कि कांग्रेसवाले काई पद न ग्रहण करें, तभी उनका विरोध किया जाय, जिससे शासन में गड़बड़ हो और काम बनेगा। फिर जब कौंसिलों में जाना है, चाहे वह सरकार को हार मानकर भारत की राष्ट्रीय मांगों को नये विधान को तोड़ने के लिए ही क्यों न हो, पूरी स्वीकार करना पड़े। सबसे पहले इस बात की घोषणा शक्ति का उपयोग करना चाहिए । यदि कांग्रेसवाले श्री सत्यमूर्ति ने की कि अगले शासन-विधान में कांग्रेस- लिबरलों तथा अन्य राष्ट्रीय विचारवालों से समझौता दलवाले बहुसंख्या में पहुँच कर सरकारी पदों पर कब्ज़ा करके अगले चुनाव को लड़ेंगे तो निस्सन्देह वे लोग कामकरेंगे। शुरू में कांग्रेस-दल के पदाधिकारियों ने न इस याब होंगे और सहज में ही डाक्टर बात का प्रतिवाद ही किया और न खुलकर स्वीकार ही सभी अच्छी जगहें उन लोगों के कब्जे में अा जायँगी, किया। मगर बात छिपी कब तक रह सकती थी। धीरे धीरे यह जिससे प्रतिक्रियावादियों को अपने हथकंडे साफ़ करने को स्पष्ट हो गया कि पार्लियामेंटरी बोर्डवाले पद ग्रहण करने मौका न मिलेगा। परन्तु यदि कांग्रेस ने अपनी ज़िद के की सोच रहे हैं। बस फिर क्या था ! कांग्रेसवाले फिर दो कारण अन्य राष्ट्रीय दलों से समझौता न किया तो अगले दलों में विभाजित हो गये। यही मसला वर्धा की कार्य- चुनाव में वर्तमान असेम्बली जैसी स्थिति का होना अससमिति की बैठक में पेश हुआ था। परन्तु कार्य-समिति म्भव न होगा और उन्हें किसी अल्पसंख्यक दल के को दोनों दलों को साथ रखना था इसी लिए उसने इस इशारों पर ही नाचना पड़ेगा। सवाल को थोड़े दिनों के लिए टाल दिया है । मगर कांग्रेसवालों का कौंसिलों में जाना और फिर कोई पद इतना गहन विषय कब तक टल सकता है ? कांग्रेस को न ग्रहण करना, 'गुड़ खाना और गुलगुलों से परहेज़' एक दिन तो अपनी नीति स्पष्ट करनी ही पड़ेगी । इसमें वाली कहावत के अनुसार ही होगा। नये शासन-विधान सन्देह नहीं कि डाक्टर अन्सारी, डाक्टर विधानचन्द्र राय, की अायोजना सन् १६१६ वाले कानून को दृष्टि-कोण में श्री आसफ़अली और चौधरी खलीकुज़्मा ने अभी हाल रखते हुए की गई है। यदि इसमें मंत्रिमंडल से बाहर रह में ही अपना एक वक्तव्य प्रकाशित किया था, जिसमें कर विरोध किया गया तो फ़िज़ल ही आपस में लड़कर उन्होंने कहा था कि कांग्रेसवालों को सभी सरकारी पदों अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया जायगा, साथ ही सरकार पर क़ब्ज़ा करना चाहिए । परन्तु यह तो तभी हो सकेगा का भी कुछ बने या बिगड़ेगा नहीं। जब कांग्रेसवाले भावी शासन-विधान में पद ग्रहण करने अभी हाल में युक्त-प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी ने म्युनिकी नीति स्वीकार करेंगे।
सिपल्टी और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चुनाव के लिए अपना इस सम्बन्ध में एक बात और है। जिस नीति को श्री एक कार्य-क्रम प्रकाशित किया है। उक्त कार्यक्रम का भूलाभाई देसाई, श्री सत्यमूर्ति, डाक्टर अन्सारी, डाक्टर एक दसवाँ हिस्सा भी सफल नहीं हो सकता यदि कांग्रेसविधानचन्द्र राय तथा अन्य उनके साथी स्वीकार करने के वाले अगले चुनाव में अधिक संख्या में पहुँचकर कौंसिलों लिए कांग्रेस को राय दे रहे हैं वही नीति इस समय लिबरलों पर अपना कब्ज़ा नहीं करते और अपने जैसे विचारवालों तथा अन्य कई राष्ट्रीय विचारवाले दलों की भी है, जो का मंत्रिमंडल नहीं बनाते । ऐसी स्थिति में तो यदि कांग्रेस के सत्याग्रह-आन्दोलन के पक्ष में नहीं थे। उस कांग्रेसवाले कौंसिलों में जाते हैं तो उन्हें चाहिए कि वे दृष्टिकोण से कांग्रेसवालों और उन लोगों में कोई विशेष अभी से अपना संगठन करें, साथ ही ऐसे लोगों को भी
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६
सरस्वती
अपने साथ ले लें जो कांग्रेस में न होते हुए भी उसके पार्लियामेंटरी बोर्ड की नीति से सहमत हैं । सन् १९०७ में सूरत- कांग्रेस के बाद गरम दलवाले अलग कर दिये गये थे और सन् १९१७ तक कांग्रेस आज-कल के लिबरलों के हाथ में रही थी । सन् १९१६ की लखनऊ - कांग्रेस में गरम दलवाले फिर शामिल हुए और सन् १६१६ तक नरम दलवाले कांग्रेस से बाहर हो गये। तब से अब तक कांग्रेस गरम दलवालों के हाथ में रही। मगर बम्बई - कांग्रेस के बाद से कांग्रेस पार्लियामेंटरी बोर्ड का ज़ोर अधिक हो गया है । इस नई पार्टी और पुराने नरम दलवालों में कोई विशेष अन्तर नहीं है । ऐसी परिस्थिति में लिबरलों का इस नई पार्टी के साथ मिलकर एक मुख्य उद्देश के लिए कार्य करना असंगत भी नहीं प्रतीत होता ।
इन सब बातों को दृष्टि में रखते हुए यह कहना पड़ता है कि देश की राजनैतिक परिस्थिति दिन दिन इतनी तीव्र गति से बदल रही है कि जब नया शासन विधान कार्य में परिणत किया जायगा उस वक्त क्या होगा, अभी से कुछ कहना कठिन है । फिर भी इस समय भिन्न भिन्न दलों के लोग अपने विचारों में तल्लीन होते हुए भी अन्य दलों के कार्यों को बड़ी सतर्कतापूर्वक देख रहे हैं । सच-मुच किसका साथ देना चाहिए, इस निर्णय पर पहुँचने के पूर्व बड़ी सावधानी की आवश्यकता है ।
X
X
X
देश राज्यों की प्रजा का प्रश्न भी ज़ोर पकड़ रहा है । बहुत-सी देशी रियासतों की प्रजा वहाँ के शासन से सुखी और संतुष्ट नहीं है । प्रजातंत्र और जनसत्ता की बहती हुई लहर में वहाँ की प्रजा में भी ग्राशा का संचार होना स्वाभाविक ही है । इसी लिए देशी राज्यों की प्रजा अक्सर कांग्रेस कमेटी से देशी राज्यों की प्रजाओं के प्रति उसकी क्या नीति है, इसका स्पष्टीकरण करने को कहती रहती है । पहले भी एक बार श्रीमती एनी बेसेंट ने देशी राज्यों का स्वराज्य कहा था । महात्मा गांधी ने भी देशी नरेशों और उनकी प्रजात्रों को रामराज्य का स्मरण दिलाया था । मगर श्रीमती बेसेंट का वह स्वराज्य या महात्मा गान्धी का कहा हुआ रामराज्य
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
किसी भी भारतीय राजनीतिज्ञ का श्राज स्वीकार न होगा । अभी हाल में ही श्री भूलाभाई देसाई ने मैसूरराज्य में एक भाषण किया था, जिसमें उन्होंने देशी राज्यों की खूब प्रशंसा की और वहाँ की प्रजा को आदेश दिया कि नरेश सर्वेसर्वा हैं, राजा का वाक्य ही न्याय है, वही सब शक्ति का केन्द्र है । इसी लिए क़ानून की सूक्ष्म दृष्टि से राजा, न कि उसकी प्रजा, फ़ेडरेशन में राज्य का प्रतिनिधि बनकर जा सकता है। श्री देसाई के विचार में सारी राजशक्ति राजा के हाथों में ही रहनी चाहिए । यदि वह उसमें से कुछ हिस्सा अपनी प्रजा के सिपुर्द कर देता : है तो अपनी ही रियासत में दूसरी शक्ति खड़ी करता है । और तत्र प्रजा को दो अधिकारियों की श्राज्ञा माननी पड़ेगी। उनकी राय में कांग्रेस को रियासती मामलों में पड़ने का अधिकार ही नहीं है, इसी लिए देशी रियासतों की प्रजा को आपने आदेश दिया कि अपने राजाओं के प्रति राजभक्ति का ही भाव रक्खें। श्री देसाई ने यह भी कहा कि उनके विचार से जैसे प्रजातन्त्र के माने स्वाधीनता नहीं है, उसी प्रकार राजतन्त्र में स्वाधीनता असंभव नहीं है ।
श्री भूलाभाई देसाई श्राज-कल कांग्रेस के एक प्रमुख व्यक्ति हैं और जब तक उनके इस मैसूर में दिये हुए भाषण का कोई प्रतिवाद नहीं होता, क्या यह समझना अनुचित होगा कि यही नीति कांग्रेस की भी देशी रियासतों की प्रजा के प्रति है । श्री देसाई के भाषण का काफ़ी विरोध हुआ है । किन्तु वर्धा में कार्य समिति की जो बैठक अभी हाल में हुई थी उसमें इस विषय पर काफ़ी बहस हुई, मगर आखिर में निश्चय यह हुआ कि श्री भूलाभाई ने उक्त भाषण अपनी निजी हैसियत से दिया था और कांग्रेस की नीति से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । इस सम्बन्ध में कांग्रेस की वही नीति है जो कलकत्ताकांग्रेस में घोषित हुई थी और पिछले अप्रैल में जो जबलपुर की बैठक में दुहराई जा चुकी है ।
X
X
X
देश की राजनैतिक स्थिति पर विचार करते हुए आतंकवाद की ओर भी एक दृष्टि डालना श्रावश्यक है ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३)
सिंहावलोकन
२४७
आतंकवाद का बङ्गाल प्रान्त केन्द्र होगया है। बङ्गाल- असली रूप तो गाँवों में ही दिखाई देता है। ग़रीबी के सरकार ने भी उसे बढ़ने से रोकने में अपनी पूरी शक्ति कारण वहाँ की हालत दिन पर दिन सोचनीय होती जा लगा दी है। फलस्वरूप खुले आम आतंकवाद का ज़ोर रही है। यही सोच कर महात्मा गान्धी ने ग्राम्य-सेवाअवश्य कम हो गया। मगर जैसा कि ढाका में अपने संघ की स्थापना करने की घोषणा की। महात्मा गान्धी भाषण में सर जान एन्डरसन ने कहा है कि भर्ती छिपे लिपे के इस निश्चय से चारों ओर तरह तरह के भाव प्रकट अभी जारी है। आतंकवाद का मुख्य कारण है बंगाल में होने लगे और धारणा हुई कि शीघ्र ही देहातियों को शिक्षित समाज की बेकारी। जब तक सरकार उस महात्मा जी अपने हाथ में कर लेंगे। उधर सरकार मी बढ़ती हुई बीमारी को रोकने का कोई प्रबन्ध नहीं करती चुप न थी। तुरन्त ही यह सरकारी घोषणा की गई कि और केवल दमन के ही सहारे उसे दबाना चाहती है, खेती और गाँवों की भलाई के लिए सरकार आगे से वह सफलीभूत पूरी तौर से नहीं हो सकती। सरकार को विशेष ध्यान देगी। इसके लिए बजट में एक करोड़ चाहिए कि वह जनता पर विश्वास करे। सर जान रुपये की स्वीकृति भी असेम्बली-द्वारा करा दी गई। सरएन्डरसन ने नरम नीति की घोषणा की है और उसी के कार के इस निश्चय से कुछ लोगों को सन्देह हुआ कि अनुसार पहले से कुछ ज़्यादा नज़रबन्द कैदी छोड़े भी जा यह युक्ति केवल महात्मा गान्धी के चलाये जानेवाले रहे हैं। असोशियेटेड प्रेस की एक सूचना-द्वारा ज्ञात ग्राम-सेवा-संघ को दबाने के लिए की गई है। कहनेहोता है कि हाल में ही बंगाल-सरकार ने करीब ८०० वाले चाहे जो कहें, यह तो मानना ही पड़ेगा कि इस नजरबन्द कैदियों को गाँवों में रहने को भेज दिया है. समय सरकार का एक करोड रुपया गाँवों की भलाई के करीब १७५ को घर पर रहने के लिए, २५० को कुछ शर्त लिए खर्च करना अपनी विशेषता रखता है । ग्रामीणों की लगा कर और १०० व्यक्तियों को बिना किसी शर्त के छोड़ भलाई के लिए इस तरह का देशव्यापी आयोजन आज दिया है। श्री शरच्चन्द्र बोस भी बिना किसी शर्त के रिहा तक यहाँ नहीं किया गया और यदि यह प्रयत्न सफल भी कर दिये गये हैं। मगर इतने थोड़े-से लोगों को छोड़ने से नहीं होगा, तो भी इससे ग्रामीणों का उस दशा में भी काम न चलेगा। उदार नीति का अर्थ तो यह है कि कुछ न कुछ उपकार अवश्य हो जायगा। यह सच जितनी शीघ्रता से हो सके नज़रबन्द कैदी मुक्त कर दिये है, इतनी छोटी रकम से विशेष सुफल नहीं प्रकट होगा। जायँ और जैसा कि पहले कहा जा चुका है, बंगाल-सरकार परन्तु यह अभी प्रारम्भ है । अतएव अभी इस सम्बन्ध में बंगाल की सबसे कठिन समस्या मध्यम श्रेणी के शिक्षित कुछ नहीं कहा जा सकता । गाँवों की सबसे विकट समस्या युवक-समाज की बेकारी दूर करने की चेष्टा करे। है वहाँ की ग़रीबी। अतएव सरकार का यह कर्त्तव्य
होना चाहिए कि वह वहाँ की बढ़ती हुई ग़रीबी ___ महात्मा गान्धी असहयोग-अान्दोलन को बन्द करके का जितनी जल्दी हो सके, दूर करने का अव्यर्थ अपना ध्यान गाँवों की ओर ले गये हैं। भारत का प्रयत्न करे।
x
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
बिदा
श्रीयुत नरेन्द्र, बी० ए० आओ रानी, बिदा माँग लूँ ,
लाज नहीं अब प्रेम बनो तुम, चूम तरुण कलियों से लोचन ।
भक्ति बनूँ कर लूँ पद-पूजन । आओ सजनि, इन्हें समझा हूँ,
उर की प्रतिमा का अर्चन कर, व्यर्थ न खोयें नेह-नीर-कन।
सफल करूँ सब जन्म-मरण-श्रम। प्रिय असह्य होंगे वे आँसू , पूर्ण प्रेम की थाली में भर देखो छोड़ न देना धीरज । अक्षत पद-रज, रोली जावक बिदा-समय है क्षण भर को भी, नक्षत्रों से आज सजा दो,
म्लान न हों नयनों के नीरज । अस्त सूर्य-सा आनत मस्तक । प्राण, मिलन दिन के शुभ-अवसर
आओ करुणाकर पद-रज दो के हित आँसू रखना सञ्चित ।
जीवन कर दो शिवमय सुन्दर, उस दृग के मुसकान-अथ के,
सुर-सरिता-सम शोभित होगा हर्ष–इन्द्रधनु से हों शोभित ।
पद-रज का अभिषेक शीश पर। दिन गिनते दिन बीत जायँगे, पतिव्रता या प्रेम-व्रता के, प्रिय, गृह में रह या प्रवास में। चरणों की अनमोल धूलि से हलकी होगी व्यथा-विरह की, निकले थे ये रवि शशि तारक,
प्रीति प्यास विश्वास आस में। चिरप्रकाश जो पथिक विश्व के। दूर रहूँ या पास, तुम्हारे,
तुम आराधन, तुम आलिङ्गन, श्रीचरणों का दास रहूँगा
तुम ही सतत साधना, रानी ! नित अमूर्त को मूर्त बनाने
वेद तुम्हारी वाणी होगी, का दुर्लभ अभ्यास करूँगा।
सुन मन होगा ज्ञानी, ध्यानी। तम के अगम मर्म लिखते जो, सरले ! अपनी गरिमा महिमा, रजनी के बालक नभ-तारक सोचो, स्वयं भला क्या जानो ? स्वप्न-घनों की सघन छाँह में, मेरे मन-मन्दिर के दीपक,
मुझे दिखायेंगे तुम तक पथ । निज प्रकाश तुम क्या पहचानो? प्रेम-योग-बल से चित्रित कर,
स्नेह-सुरभियुत तुम पद्माकर, मैं, प्रफुल्ल पद्मों से लोचन
मैं मधु-अभिलाषी कवि-मधुकर, श्याम-पुतलियों की सुख-निशि में
चरणाम्बुज छू, चलूँ बिदा दो, ले विश्राम हरूँगा भव-श्रम ।
मैं समीर-सम सौरभ भर भर । अभिलाषा आह्वान करेगी सुमुखि, बिदा दोआज विश्व में, स्वप्न-यान में तुम उतरोगी प्रेम-नाम की सुरभि बसेगी। सोने के घन से ऊषा-सी
आज पास तक, कल प्रवास तक, श्रा, नयनों में वास करोगी। प्रेम-डोर कुछ और बढ़ेगी।
.
२४८
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
[प्रतिमास प्राप्त होनेवाली नई पुस्तकों की सूची । परिचय यथासमय प्रकाशित होगा।]
१–श्यामसतसई (कविता)- लेखक, श्रीतुलसी- प्रकाशक, श्री रामानन्द-ग्रन्थमाला-कार्यालय, अयोध्या राम शर्मा 'दिनेश', प्रकाशक, श्री गंगाराम अग्रवाल, यू० पी० है और मूल्य |-) है। कालबादेवी रोड, सूरजमल की चाली, बम्बई, हैं। १२-१३-त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्यायन
२-भारतीय सहकारिता-आन्दोलन-लेखक, श्री लिखित, साहित्य-सेवक-संघ, छपरा, से शंकरसहाय सकसेना, एम० ए०, प्रकाशक, एस० एस०
प्रकाशित २ पुस्तके सकसेना, बरेली कालेज, बरेली, हैं और मूल्य २) है। ___ (१) मेरी यूरोप-यात्रा-मूल्य १॥-) है ।
३-सम्प्रदाय-प्रदीप-अनुवादक और प्रकाशक, __(२) लंका-मूल्य 112) है। प्रो० कण्ठमणि शास्त्री, विशारद, संचालक, विद्या-विभाग, १४-आयुर्वेदाङ्क:-प्रकाशकः, महामहोपाध्याय पं० कांकरोली और मूल्य २) है।।
श्रीगिरिधरशर्मा चतुर्वेदः राजकीयसंस्कृतविद्यालयाध्यक्षः ४-सम्प्रदाय-प्रदीप (गुर्जर-भाषानुवाद)-अनु- जयपुरम् । वादक, श्रीभट्ट जटाशंकर शास्त्री, प्रकाशक, विद्या-विभाग, कांकरोली हैं।
१-२-पण्डित जवाहरलाल चतुर्वेदी की ५-हिन्दीमुहावराकोष–सम्पादक, श्री एम० वि०
दो पुस्तकेंजम्बुनाथन, एम० ए०, बी० एस-सी०, प्रकाशक, एम० वि० १) भक्त और भगवान-यह पुस्तक अपने ढंग शेषाद्रि एन्ड कम्पनी, बलेपेट, बेंगलोर सिटी हैं और की एक ही है। इसमें भगवान् के भक्तों की मनोहर मूल्य सजिल्द पुस्तक का १||) है ।
सूक्तियाँ हैं । इसकी पृष्ठ-संख्या ३०६ है। छपाई-सफाई ६-प्रलाप- रचयित्री, श्रीमती सुशीलादेवी सामन्त, ___ भी सुन्दर है । प्रारम्भ से अन्त तक कवियों के अनोखे प्रकाशक, श्री देवेन्द्रनाथ सामन्त, एम० ए०, एल-एल० उद्गारों का आनन्द मिलता है। पुस्तक अध्यायों में बी०, एम० एस-सी०, चाईबासा हैं ।
विभक्त नहीं है । शायद भक्ति के अनन्त प्रवाह का रोकना ७-६-श्री महेशचन्द्रप्रसाद एम० ए०, पटना, उचित नहीं समझा गया। की तीन पुस्तकें
सूर, तुलसी, रहीम, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारा(१) हिन्दूसभ्यता- मूल्य १) है; (२) जातक- यण मिश्र, रत्नाकर, जौक आदि की रसवती कवितायें बड़े माला अथवा ज्ञानगंगा-मूल्य ॥) है; (३) प्रबोध- रोचक ढंग से इसमें संग्रह की गई हैं। सभी उद्धृत चन्द्रोदय-नाटक-मूल्य ॥) है।
सूक्तियों के आगे और पीछे ऐसी टिप्पणियाँ जमाई गई १०-प्रेम की देवी-लेखक, श्रीगणेशप्रसाद हैं जो व्यंग्य और हास्य के साथ एक मीठी चुटकी लेती श्रीवास्तव, प्रकाशक, श्री चिरंजीलाल तुलसाना, ३ दहीहट्टा हैं। एक उदाहरण लीजिए-“दुख हरौ द्वारिकानाथ स्ट्रीट, कलकत्ता हैं और मूल्य ।।) है।
सरन मैं तेरी"- यह एक बहुत प्रसिद्ध लावनी है। इसमें ११-श्रीरामानन्द-नाटक-लेखक, श्री वैष्णव, द्रौपदी के चीरहरण की हृदयद्रावक कथा है। इसको
२४९
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
सरस्वती
[भाग ३६
चतुर्वेदी जी ने प्रसंगवश उद्धृत किया है। उसी सम्बन्ध चिह्नों की अनावश्यक भरमार हो गई है। इसमें सन्देह में आप लिखते हैं
नहीं, पुस्तक रोचक और उपयोगी भी है । पता-हिन्दी__ "क्यों नाथ ! द्रौपदी के झपटते हुए 'सुपट' में साहित्य-कुटीर, बनारस है । मूल्य १॥) है। प्रस्फुटित होते हुए प्रचुर परिश्रम पड़ा होगा ! इस तंग (२) आँख और कविगण-इस पुस्तक में आँख दायरे में दुरते हुए-छिपते हुए, अोह छलिया ! निहायत ही पर अनेक कवियों की कवितायें संकलित की गई हैं। कष्ट हुआ होगा! और ज़रूर हुअा होगा ! पर पीत ४२२ पृष्ठों में चतुर्वेदी जी ने जो नेत्र-विषयक मनोरंजक पटधारी लला! आपके इस अपरिमित परिश्रम की पोल सामग्री प्रस्तुत की है उसे देखकर उनके परिश्रम की 'मोहन कवि' ने बड़ी सुन्दरता से खोली है। अस्तु प्रशंसा करनी ही पड़ती है । उक्त पुस्तक में सबसे पहली सुनिए, और बतलाइए कि
कविता 'पालम' कवि की है। १६५ पृष्ठों तक चतुर्वेदी "कबै आपु गये हे बिसाहन बजार बीचि,
जी ने उद्धृत कविताओं को अपनी मसालेदार टिप्पणियों ___कबै बोलि जुलहा बुनाये दर-पट सौं । से गुंफित किया है। शेषांश में केवल संकलन है । नंद जू की काँमरी न काहू वसुदेव जी की, ____ पुस्तक की भूमिका में पंडित शिवरत्न शुक्ल ने
___ तीन हाथ पटुका लपेटें रहे कट सौं॥ तत्सम्बन्धी विषय की अच्छी विवेचना की है। पुस्तक के 'मोहन' भनत यामैं रावरी बड़ाई कहा
अन्त में २० पृष्ठों में शब्दार्थ भी दिये गये हैं। इससे राखि लीन्हीं आन-बान ऐसे नटखट सौं। पुस्तक की उपयोगिता और बढ़ गई है। गोपिन के लीन्हें तब चोरि चोरि चीर अब, ___ निस्सन्देह नेत्र शरीर के अत्यन्त आवश्यक अंग हैं ।
जोरि-जोरि दैन लागे द्रौपदी के पट सौं। उनसे हृदय के गूढ़तम भावों का पता लगता है। किसी "हाँ-हाँ बतलाइए साहब ! खरीदने के लिए बाज़ार कब ने ठीक कहा हैतशरीफ़ ले गये थे ! अथवा किस जुलाहे से ऐसे सुन्दर तन की नारी कर गहे, मन की नारी बैन । समीचीन कपड़े बुनवाये ! क्योंकि श्रीमान् तो सिर्फ तीन जो कदापि बोलै नहीं, तुरत परखिए नैन । हाथ की लँगोटी लगाये और काला कम्बल सो भी न जाने अस्तु ! आँखों की सुन्दरता, सरसता, कठोरता, वीरता, "नन्दबाबा" का था या वसुदेव जी ने ही बाज़ार से सहनशीलता तथा और भी मानसिक और शारीरिक लेकर भेज दिया था। अोढ़े डोलते थे, था क्या पास! विचारदृष्टि से जितनी नेत्र-सम्बन्धी बातें हो सकती हैं उन अस्तु, भगवन् ! इन गुनन-गरूली गोप बालाओं के गुण सबका वर्णन प्रायः इस पुस्तक में था गया है। अाशा गाइए, जिनकी बदौलत शान रह गई । इनके चुराये चीर है, काव्यानुरागी और रसिक सुधीजन इसे पसन्द करेंगे।
आज काम आ गये, और इस तरह नटखटपने से आन- इस पुस्तक में चतुर्वेदी जी की एक दूसरी प्रकाशित बान बनी रह गई।"
होनेवाली पुस्तक का विज्ञापन भी छपा है। आँख के सम्पूर्ण पुस्तक में यही क्रम है। चतुर्वेदी जी ने विषय की इतिश्री करके चतुर्वेदी जी अब जिस दूसरे निर्भयतापूर्वक उर्दू और फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग अंग-वर्णन के सम्बन्ध में अपनी काव्य-रसिकता का किया है। आप व्रजभाषा की प्राचीन शैली के पोषक परिचय देना चाहते हैं, वह कहाँ तक उचित होगा, यह
और समर्थक हैं । श्राप कहते हैं "हम रत्नाकरी अाधुनिक मतभेद की बात है। जिस पुस्तक से सर्वसाधारण जनता स्टाइल के कायल नहीं हैं, उसके नवीन रूप के मायल में स्वास्थ्यवर्धक प्रसन्नता तथा अच्छे अच्छे भावों का नहीं; अपितु उसी प्राचीनता के पुजारी हैं, उसी स्वरूप के प्रचार हो और साथ ही साथ हिन्दी में अनुराग उत्पन्न हो अभिलाषी हैं, नूतनता के नहीं।"
उसका ज़रूर प्रचार होना चाहिए। आँख का विषय पुस्तक में कहीं कहीं प्रश्नसूचक तथा आश्चर्य-सूचक उनकी विज्ञप्त पुस्तक के विषय से सर्वथा भिन्न है। आँखों
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
नई पुस्तकें
२५१
में सभी भाव आ जाते हैं । किन्तु देखें चतुर्वेदी जी उस की छपाई-सफ़ाई सुन्दर है और गल्पों का संग्रह देखते विषय को किस ढंग से आधुनिक जनता के सामने हुए मूल्य भी उचित ही है । उपस्थित करते हैं । इस पुस्तक का मूल्य ३) है, और
कृष्णमोहन एम० ए०, बी० ए० (आनर्स) पता-साहित्य-सेवक-सदन, काशी।
४-अज्ञात-वास (खण्ड काव्य)-लेखक, श्रीयुत . -यज्ञदत्त शुक्ल, बी० ए० रामसहाय शर्मा 'मराल', पृष्ठ-संख्या १४३, मूल्य ) है । ३-उन्माद-लेखिका, श्रीमती कमलादेवी चौधरी, पता-श्रीमराल-सरस्वती-सदन, नियाज़नगर, पो. मिरहची प्रकाशक, श्री बनारसीदास चतुर्वेदी, १२०।२, अपर (एटा)। सरकूलर रोड, कलकत्ता हैं । पृष्ठ-संख्या २०० और मूल्य यह खण्ड काव्य बोल-चाल की भाषा में लिखा गया
है। इसमें पाण्डवों के 'अज्ञात-वास' के समय की कथा - इस पुस्तक में श्रीमती कमलादेवी चौधरी की लिखी सरस तथा ललित शैली में वर्णित है। कीचक-वध, हुई कहानियों का संग्रह है। श्रीमती जी ने, हाल में ही कर्णार्जन-संग्राम तथा अभिमन्यु-विवाह के वर्णन कहानी लिखना शुरू किया है । उनकी कहानियों में भाव विशेषरूप से सुन्दर हुए हैं। कथा का निर्वाह कवि ने का एक प्रमुख स्थान है, उसमें अनुभूति की झलक बड़ी कुशलता से किया है। श्रीयुत 'मराल' जी की यह होती है। जिस किसी भी पात्र को देवी जी ने लिया है प्रथम कृति है, तो भी कवि को अपने प्रयास में उसी के चरित्र का चित्रण बहुत ही सुन्दरता के साथ अच्छी सफलता मिली है। इस 'कृति' को देखकर हमें किया गया है। इसमें शक नहीं कि श्रीमती कमला जी ने विश्वास होता है कि मराल जी अपनी काव्य-साधना-द्वारा जिन पात्रों का निर्माण किया है, वैसे पात्रों का निर्माण मातृभाषा के भाण्डार की श्रीवृद्धि करेंगे। आशा है, कहानी-लेखक पुरुष ज़रा कठिनता से कर पावेंगे। काव्य-रसिक कवि की इस कृति का समुचित आदर करेंगे। कहानियों के उच्च कोटि के होने के साथ ही साथ यह नहीं ५–साहित्यिक लेख-लेखक, श्रीयुत रामप्रसाद कहा जा सकता कि उनमें भूल ही नहीं है। कहीं कहीं पाण्डेय, एम० ए०, हैं, प्रकाशक, श्रीरामनारायणलाल उनमें उलझन-सी आ जाती है जिससे पाठक अक्सर बुकसेलर, इलाहाबाद हैं। पृष्ठ-संख्या २०८ और मूल्य १) है। परेशान हो उठता है। कहीं कहीं लेखिका की कल्पना हिन्दी में निबन्ध-ग्रन्थों का अभाव है। प्रस्तुत पुस्तक असंगत हो जाती है, जिससे यह धारणा हो उठती है कि में श्रीयुत पाण्डेय जी ने अपने उन निबन्धों तथा लेखों नायक अपने सीमित क्षेत्र को पार कर ऐसी जगह में का संग्रह किया है जो पिछले दस वर्षों में सरस्वती, सुधा, विचरण करने लगा है जिसका न कोई सिर है, न पैर। माधुरी आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं । निबन्ध मैं बनारसीदास जी से सहमत हूँ जैसा कि उन्होंने अपने साहित्यिक तथा दार्शनिक विषयों पर लिखे गये हैं। कुछ 'निवेदन' में कहा है, कि 'उन्माद' उस हिन्दुस्तानी रेल निबन्धों में लेखक ने तुलसी, भिखारीदास, मीरा, आदि की तरह है, जिसमें सभी डिब्बे हैं, इसलिए सभी प्रकार की कृतियों की मार्मिक विवेचन की है। निबन्धों की के पाठक अपनी अपनी बौद्धिक हैसियत के अनुसार उसका भाषा प्रौढ़ और विषयों का विवेचन उच्च कोटि का है।। अानन्द उठा सकते हैं । मगर इसमें केवल अन्तर यह है ६-चारुचरितावली-लेखक, श्रीयुत कृष्णदेव कि हिन्दुस्तानी रेल में अधिकांश तीसरे दर्जे के डिब्बे उपाध्याय, प्रकाशक, पं० शालिग्राम शर्मा, व्यवस्थापक होते हैं, पर 'उन्माद' में इन्टरमीडियट और सेकेन्ड क्लास हरिहर-मण्डल, कालभैरव, काशी हैं। पृष्ठ-संख्या-१७५ के डिब्बों की प्रधानता है।
और मूल्य ॥) है। श्रीमती कमला देवी जी की गल्पों में भावों की प्रधानता यह पुस्तक महापुरुषों के जीवन-चरितों का बालकोपहै , उनकी कहानियाँ दुःखान्त होते हुए भी सरस हैं । पुस्तक योगी संकलन है। इन जीवनचरितों में लेखक ने धर्म
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[ भाग ३६
प्रवर्तक, कवि, आदर्श पुरुष, वीर, तथा देशभक्त महा- वान् सौम्यकाशीश की स्तुति के साथ ही साथ अद्वैत तत्त्व पुरुषों का वर्णन किया है। एक एक शीर्षक के नीचे का सुन्दर सामंजस्य किया है। स्वामी जी की संस्कृत पाँच पाँच प्राचीन तथा अर्वाचीन महापुरुषों के चरित प्राञ्जल तथा शैली सरल है । पुस्तक में नाना छन्दों के सरल तथा सुबोध भाषा में लिखे गये हैं। लेखक की समावेश के कारण पुस्तक पढ़ने में जी नहीं ऊबता। वर्णन-शैली रोचक और मनोहर है। विद्यार्थियों के लिए अष्टादश स्तवक तो शिवस्वरूप का ही वर्णन करता है उपयोगी है । महापुरुषों की जीवन-कथाओं से वे बहुत और वह भी दुर्गा सप्तशती की शैली पर । अनुष्टुप् श्लोकों कुछ उपयोगी बातें और शिक्षायें इस पुस्तक से सीख के अन्तिम चरण “नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमो सकेंगे। पुस्तक में चित्रों का यदि समावेश होता तो और नमः" इन शब्दों में लिखे गये हैं । श्लोकों पर वैद्यराज जी भी अच्छा होता।
ने हिन्दी में सरला टीका लिखी है तथा श्लोकों का गम्भीर ७–वेदान्तभानु-लेखक, संत अमीचन्द्र शर्मा हैं, अर्थ प्रकट करने में सहायक उपनिषद्-वाक्यों का चयन पृष्ठ-संख्या १२२ और मूल्य ॥ है। पता-कल्याण करके इस ग्रन्थ को सर्वसाधारण के लिए उपयोगी बना पुस्तकालय, तिलक गली, ग्वालमंडी, लाहौर।
दिया है । हिन्दी-टीका की भाषा यद्यपि सर्वथा शुद्ध नहीं लेखक ने इस पुस्तक में वेदान्तग्रन्थों में वर्णित है, तथापि श्लोकों के भाव समझने में कठिनाई नहीं (१) नित्यानित्यवस्तुविवेक, (२) इहामुत्रफलभोग विराग, होती। शिवभक्तों तथा उपनिषद्-रहस्य के जिज्ञासुत्रों को (३) शमदमादि सम्पत्ति. (४) तथा मुमुक्षत्व नामक इससे लाभ उठाना चाहिए। साधन चतुष्टय की विशद व्याख्या है। योग-सम्बन्धी ९-लेखक (मासिक पत्र)-इसके सम्पादक संत-वाणियों तथा विषयोपयुक्त कथाओं के द्वारा लेखक ने श्रीभारती एम० ए० और श्री प्रेमनारायण अग्रवाल, अपने विषय को सीधी-सादी भाषा द्वारा हृदयंगम कराने बी० ए० हैं। यह प्रयाग के लेखक-संघ का मुख पत्र का प्रयत्न किया है । इस दृष्टि से पुस्तक वेदान्त के साधन है। अभी लगभग ३ माह से निकलने लगा है। इसमें चतुष्टय के जिज्ञासुत्रों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। भाषा हिन्दी के लेखकों के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण ज्ञातव्य यद्यपि सर्वथा शुद्ध नहीं है और लेखक के स्वरचित विषयों का संकलन रहता है। नये लेखकों की कठिनाइयों पद्यों में छन्दोभंग-दोष स्थान स्थान पर हैं, तो भी प्रति- के दूर करने के उपयुक्त उपाय भी बताये जाते हैं। इस पाद्य विषय के समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। पत्र से नये और पुराने लेखकों दोनों का बड़ा उपकार द्वितीय संस्करण में इन त्रुटियों का सुधार वाञ्छनीय है। हो सकता है। इसके सहारे वे हिन्दी लिखने का काफ़ी
८-श्री सौम्यकाशीशस्तोत्रम्-रचयिता पूज्यपाद साफ़-सुथरा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इसके सभी अंक श्री तपोयन स्वामी, सरला नामक भाषा टीकाकार श्रीयुत उपयोगी लेखों से युक्त निकले हैं । इस तृतीय अंक में वल्लभराम शर्मा वैद्यराज, पृष्ठ-संख्या ३७५ और मूल्य १) श्री नलिनी मोहन सान्याल, एम० ए० का समालोचनाहै। पता-वैद्यराज वल्लभराम शर्मा, अंजार (कच्छ) है। तत्त्व पर महत्त्वपूर्ण लेख निकला है । यह पत्र हिन्दी में
इस पुस्तक में उत्तर काशीस्थ भगवान् सौम्य काशीश अपने ढंग का एक अनोखा पत्र है। इसकी एक प्रति महादेव की स्तुति संस्कृत में नाना छन्दों में की गई है। का मूल्य ।-) और वार्षिक मूल्य ३) है, किन्तु सदस्यों को महात्मा तपोवन स्वामी जी ने इस रचना में ईश, केन, २) में ही साल भर दिया जायगा। कठ आदि सोलह उपनिषदों के भावों के आधार पर भग
-कैलाशचन्द्र शास्त्री, एम० ए०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाग्रत महिलायें
कुमारी सावित्री वंशीधर, एम० ए०, का स्वर्गवास
लेखक, श्रीयुत मङ्गलप्रसाद विश्वकर्मा
त्यन्त दुख के साथ लिखना पड़ता है कि इसी अगस्त महीने के आरम्भ में कुमारी सावित्रीदेवी का परलोकवास हो गया। यदि मेरा अनुमान सत्य है तो यह कहना अनुचित न होगा कि हमारे अखिल भारतवर्षीय मन्वाचारी विश्वकर्मासमाज में कुमारी सावित्री ही उन महिला-रत्नों में सर्वप्रथम थीं जिन्होंने एम० ए० तक सफलतापूर्वक उच्च शिक्षा पाई है। वे लगभग डेढ़ वर्ष से बीमार थीं, गत मई मास में उन्होंने अर्थशास्त्र लेकर एम० ए० में उत्तीर्ण होने का समाचार सुना था । पर जब वे अपने जीवन का अन्य कोई सर्वोच्च लक्ष्य निर्दिष्ट करना चाहती थीं तब दैव ने उनकी ऐहिक लीला ही समाप्त कर दी ।
उनकी प्रतिभा आश्चर्यजनक एवं अनुपम थी । उन्होंने जितनी भी परीक्षायें दीं - सभी में सर्वप्रथम उत्तीर्ण होती रहीं। इसके बदले में उन्हें कई स्वर्णपदक तथा रजत पदक भेंट में मिले थे, जो आज उनके दुखी परिवार के लिए उनकी शतशत स्मृतियों को जाग्रत कर, असीम वेदना को हरा-भरा बनाये रखने के लिए बच रहे हैं। बड़े दुःख की बात तो यह है कि कुमारी सावित्री इस समय पचीस वर्ष के लगभग थीं और अभी कुमारी ही थीं। उनके
अ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[" स्व० कुमारी सावित्री वंशीधर एम० ए० ]
वयोवृद्ध पिता ने अश्रुक्ति नयनों से तथा वेदना- कण्टकित हृदय से कहा कि मैं सावित्री के दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने के लिए योग्य वर की तलाश में था, २५३
www.umaragyanbhandar.com
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५४
सरस्वती
[भाग ३६
पर विधि ने कहा रहने दो, रहने दो, मैं ही इस महिलाओं के शरीर पर साड़ी की मनोहर छटा बात का प्रबन्ध किये देता हूँ और विधि ने अपना देखकर लंदन की कुछ फेशनेबल अँगरेज़ लेडियाँ भी प्रबन्ध कर दिया !
साड़ी को अपनाने के लिए उतावली हो रही हैं। __कुमारी सावित्री के पिता राय साहब वंशीधर यहाँ तक कि कुछ सम्मानित अँगरेज़ महिलाओं ने उच्च कुलोत्पन्न तथा सम्पन्न हैं। कुमारी सावित्री के उसका उपयोग भी आरम्भ कर दिया है। योरप में एक भाई श्रीयुत परमानन्द जी, आई० सी० एस०, साड़ी के भविष्य पर एक लेख श्रीमती चौधरानी जी दूसरे श्रीयुत कामताप्रसाद जी टगरैया, आई० एफ़. ने 'संडे क्रानिकल' में लिखा है जिसका सारांश यहाँ एस० हैं। उनकी एक छोटी बहन और हैं, जो बनारस- हम 'भारत' से उद्धृत करते हैंयूनिवर्सिटी में एफ़. ए. की शिक्षा पा रही हैं। योरप में कुछ भारतीय महिलायें जाकर जब उनकी भावज श्रीयुत परमानन्द जी आई० सी० योरपीय वस्त्र पहनती हैं तब योरपवाले उनका एस. की पत्नी एक प्रतिष्ठित एवं विदुषी महिला हैं। ये मजाक करते हैं। बात यह है कि योरपीय वस्त्र बी० ए०, बी-लिट०, पी० एच० डी० (ऑक्सफोर्ड) हिन्दुस्तानी शरीर पर अच्छे नहीं लगते और तथा बार एट० लॉ हैं। कुमारी सावित्री के निधन इसी तरह भारतीय साड़ी भी योरपीय महिसे इस शिक्षित तथा सम्पन्न परिवार की, एवं इस लाओं के शरीर पर नहीं फबती। इसका कारण बहुत पिछड़े हुए समाज की जो क्षति हुई है यह है कि भारतीय स्त्रियों के अंगों की गठन उनकी वह अनिर्वचनीय है। ईश्वर दिवङ्गत आत्मा को योरपीयन बहनों से भिन्न है। उनके शरीर का भेद स्वर्ग में शान्ति तथा दुखी परिवार को यह दुख केवल क्षीणांग अथवा स्थूलांग रहने तक ही परिमित सहन करने का सामर्थ्य दे।
नहीं है, किन्तु दोनों महाद्वीपों की महिलाओं के ___मदरास की स्त्रियों में हिन्दी
शरीर के आकार में भी बहुत-कुछ भेद होता है। मदरास की स्त्रियों में भी हिन्दी का प्रचार बढ़ता
यह भेद दर्शक स्पष्ट देख सकते हैं, क्योंकि इप्तका जा रहा है। आगे के चित्र में बाई ओर कुमारी एक
कारण दोनों की संस्कृति, रहन-सहन और जल-वायु
__ में निहित रहता है। पद्मिनी बी० ए० हैं, जिन्होंने पहले-पहल मदरास
भारतीय महिलाओं और योरपीय स्त्रियों की विश्वविद्यालय से हिन्दी लेकर बी० ए० की डिग्रो पाई है। दाहनी ओर कुमारी ए० सावित्री हैं, जिन्होंने
प्रकृति में कुछ मौलिक भेद होते हैं। भारतीय नारी
जिस प्रकार के वातावरण में रक्खी जाती है उसमें हिन्दी लेकर मदरास-विश्वविद्यालय की इंटरमीडिएट
उसके जीवन का उद्देश पति के द्वारा प्रेम पाने की परीक्षा पास की है।
अधिकारिणी बनना ही होता है और पति ही उसके __ ये दोनों केरल-हिन्दी-महाविद्यालय के प्रधान
जीवन का स्वामी भी होता है। चाहे यह बात कुछ अध्यापक श्री ए. चंद्रहासन, बी० ए० की बहनें हैं
नवशिक्षित महिलात्रों को भले ही बुरी लगे, पर और गत मार्च १९३५ में एरसाकुलम के महाराजा
सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। भारतीय कालेज से उत्तीर्ण हुई हैं।
महिलाओं की लहराती चाल, पैरों की मन्थर गति, पश्चिम में साड़ी की लोकप्रियता
गर्दन का शील से भरा सहज झुकाव और बाँहों का योरप के बड़े-बड़े शहरों और विशेषकर लंदन संचालन साड़ी के साथ मिलकर ऐसा समाँ बाँध में साड़ी की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। देता है कि पश्चिम की स्त्रियाँ प्रयत्न करने पर भी लंदन की दावतों और रेसों इत्यादि में भारतीय वैसा नहीं कर सकेंगी।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
जाग्रत महिलायें
२५५
· · इसके सिवा रंग की बात भी कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं। गौर वर्ण, भूरी आँखें और सुनहरे बालवाली नोर्डिक जाति (उत्तरी योरप के लोग नोडिक जाति के हैं) की स्त्रियों के बदन पर हलके रंग के वस्त्र ही खिलते हैं। इसके विपरीत भारतीय स्त्रियों के गहरे रंग के मुख पर रंगीन हलके और लटकते हुए वस्त्र शोभा देते हैं।
जिन योरपीय स्त्रियों को मैंने साड़ी पहने देखा है उन्हें इस तरह देखकर पहले तो मैं बिल
कुल ही अचकचा गई। अपनी [ कुमारी पद्मिनी और कुमारी सावित्री ]
तेज़ चाल-ढाल और अधिक योरप में 'पति' शब्द का महत्त्व बहुत दिनों से मर्दानगी के साथ साड़ी पहने वे ऐसी दिखलाई देती घट गया है, जिसका मतलब दूसरे शब्दों में संरक्षक हैं मानो कोई स्वाँग बना कर आई हों। और स्वामी भी होता है। योरप में आज-कल स्त्री- मैं योरपीय पोशाक की बहुत अधिक प्रशंसक | पुरुषों में भीषण प्रतियोगिता छाई हुई है। इसका हूँ। योरपीय महिलाओं की खेलने की पोशाक, उनके | एक कारण तो यह है कि गत महायुद्ध के अवसर सायंकाल के सुन्दर वस्त्र, सोने के गाउन इत्यादि पर नवयुवकों की संख्या घटने और दूसरे पैदा होने- उनके शरीर पर खूब खिलते हैं। उनमें पश्चिमी वाली पीढ़ी में लड़कियों की अधिकता होने की वजह स्त्रियों की स्वच्छन्द प्रकृति का प्रदर्शन करने का मौका से योरप में स्त्रियों की संख्या पुरुषों की अपेक्षा भी उन्हें खूब मिलता है। बात यह है कि जीवन के अधिक हो गई है। इसका परिणाम यह हो प्रत्येक विभाग में पुरुषों के कंधे से कंधा लगाकर रहा है कि स्त्रियों-अविवाहित लड़कियों को काम करने के लिए जो वस्त्र वे पहनती हैं उनके पुरुषों से प्रतियोगिता करने के लिए अपने स्त्रीत्व लिए काफी उपयुक्त हैं। इसलिए मेरा ख़याल है कि को ताक में रख देना पड़ता है। यह स्वाभाविक योरपीय महिलायें भारतीय साड़ी को स्थायी रूप ही है कि इसका प्रभाव स्त्रियों की पोशाक पर से कभी न अपना सकेंगी। हाँ, कभी कभी शौकिया भी पड़े।
पहन लेना दूसरी बात है।
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
पग-ध्वनि
लेखक, श्रीयुत बच्चन
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! नंदन-वन में उगनेवाली, मेंहदी जिन तलवों की लाली, बनकर भू पर आई आली!
मैं उन तलवों से चिर-परिचित, मैं उन तलवों का चिर-ज्ञानी ।
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! ऊषा ले अपनी अरुणाई, ले कर-किरणों की चतुराई, जिनमें जावक रचने आई,
मैं उन चरणों का चिर-प्रेमी, मैं उन चरणों का चिर-ध्यानी।
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! उन मृदु चरणों का चुंबन कर, ऊसर भी हो उठता उर्वर, तृण-कलि-कुसुमों से जाता भर,
मरुथल मधुवन बन लहराते, पाषाण पिघल होते पानी !
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! उन चरणों की मंजुल उँगली, पर नख-नक्षत्रों की अवली, जीवन के पथ की ज्योति भली,
जिसका अवलंबन कर जग ने, सुख-सुखमा की नगरी जानी !!
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी! उन पद-पद्मों के प्रभ रजकण, का अंजित कर मंत्रित अंजन,
खुलते कवि के चिर-अंध नयन,
तम से आकर उर से मिलती, स्वप्नों की दुनिया की रानी !
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! उन सुंदर चरणों का अर्चन, करते आँसू से सिंधु नयन, पग-रेखा में उच्छवास पवन,
देखा करता अंकित अपनी, सौभाग्य सुरेखा कल्याणी !
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! उन चल चरणों की कल छम-छम, से ही था निकला नाद प्रथम, गति से मादक तालों का क्रम
संगीति जिसे सारे जग ने, अपने सुख की भाषा मानी।
- वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! हो शांत जगत के कोलाहल ! रुक जा रे जीवन की हलचल ! मैं दूर पड़ा सुन लूँ दो पल,
संदेश नया जो लाई है यह, चाल किसी की मस्तानी।
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! किसके तमपूर्ण प्रहर भागे ? किसके चिर-सोये दिन जागे ? सुख-स्वर्ग हुआ किसके आगे ?
होगी किसके कंपित कर से,
इन शुभ चरणों की अगवानी? २५६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
Gal
"वह पगध्वनि मेरी पहचानी"
[चित्रकार श्रीयुत पी० मुकर्जी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
.. संख्या ३]
पग-ध्वनि
२५७
.
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! बढ़ता जाता घुघरू का रव ! क्या यह भी हो सकता संभव ? यह जीवन का अनुभव अभिनव !
पदचाप शीघ्र, पग-राग तीव्र, स्वागत को उठ रे कवि मानी !
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! ध्वनि पास चली मेरे श्राती! सब अंग शिथिल पुलकित छाती ! लो गिरती पलकें मदमाती !
पग को परिरंभण करने की, पर इन भुज-पाशों ने ठानी।
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! रव गूंजा भू पर, अंबर में, सर में सरिता में, सागर में, प्रत्येक श्वास में, प्रति स्वर में;
किस किस का आश्रय ले फैलेमेरे हाथों की हैरानी।
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी! ये ढूँढ़ रहे ध्वनि का उद्गम, मंजीर मुखरयुत पद निर्मम, है ठौर सभी जिनकी ध्वनि सम,
इनको पाने का यत्न वृथा, श्रम करना केवल नादानी।
यह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! ये कर नभ-जल-थल में भटके, आकर मेरे उर पर अटके, जो पग-द्वय थे अंदर घट के,
थे ढूँढ़ रहे उनको बाहर, ये युग कर मेरे अज्ञानी ।
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! उर के ही मधुर अभाव चरण बन करते स्मृति-पट पर नर्तन, मुखरित होता रहता बन-बन,
मैं ही इन चरणों में नूपुर, नूपुर-ध्वनि मेरी ही वाणी !
इटली और अबीसीनिया (रिव्यू श्राफ रिव्यूज़ से)
MO
MumO
htam
GURU
D ILK Dimany
Imanen DAD DuuuuN
CHUNJ
Umins
Dmmm Drma Dhun
Dural
huuN
Unau Umun D
mA
Dhum
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानव-शरीर के
लेखक-डाक्टर
THE SWITCHBOARD OF SPEECH
इस यन्त्र में सुनने देखने बोलने आदि के समय दिमाग की स्थिति दिखाई जाती है। नीचे का मर-कंकाल जीवित को भांति हाथ पैर डुलाता है।
जनसाधारण की विविध विषयों के ज्ञान को
वृद्धि के लिए पाश्चात्य देशों में तरह तरह के साधन प्रस्तुत किये गये हैं। सिनेमा, रेडियो, फोटोग्राफी, संगीत, संग्रहालय, प्रदशिनी, पुस्तकालय आदि ऐसे ही साधन हैं
और उनसे उन देशों के सार्वजनिक जीवन का कायापलट हो गया है। जिसने कायदे से कभी किसी स्कूल में शिक्षा नहीं पाई है उसे भी यह अवसर है कि वह उन सब बातों को जाने और समझे जिन पर उसकी और उसके राष्ट्रों की उन्नति अवलम्बित है।
बहुत-से विषयों के अध्ययन की तो इतनी सुन्दर व्यवस्था की गई है कि राह चलता
रक्त का दौरा
मनुष्य का शरीर टुकड़े टुकड़े करके दिखाया गया है। टुकड़ों को जोड़ने से पूरा शरीर बन जाता है।
BODY BOOK CROSS SECTION
२५८
www.umaragyanbhandar.com
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
अद्भुद कार्य
गाडगील एम० डी०
शरीर के विभिन्न अङ्गों का अध्ययन
हाल आफ मैम का एक दृश्य । बीच के चित्र में प्रत्येक अङ्ग आर-पार दिखाई पड़ता है।
बगल में चार प्रकार के जोड़ हैं।
शरीर के खड़े टुकड़े ऊपर जुड़े हुए। बगल में अलग अलग । ये टुकड़े ऐसे रंगे हुए हैं मानो जीवित शरीर के टुकड़े हों।
फेफड़ा कैसे कार्य करता है, यह इस यन्त्र में दिखाया गया है।
२५९
Shree Sudharmaswami Svanbhandar-Umara Surat
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[ भाग ३६
आदमी भी कुछ ही घंटों में उन सब बातों को समझ एकत्र किये गये हैं जो देखने से जान पड़ते हैं कि सकता है जिन्हें विद्वानों ने कई पीढ़ियों के अनुभव अभी अभी जीवित मनुष्यों के शरीर से अलग किये
और प्रयोग से जाना है। सर्वसाधारण के लिए ज्ञान गये हैं। उनमें गति और जीवन का वैसा ही परिका मार्ग इतना सुलभ हो गया है कि वहाँ अब शिक्षित चय मिलता है जैसा कि जीवित मनुष्य के शरीर में
और मूर्ख का भेद ही नहीं रहा । सभी मनुष्यों को प्रत्येक मिल सकता है। कोई अजनबी इस विशाल भवन विषय का कुछ न कुछ ज्ञान रहता ही है। और में पहुँचे और नर-कंकालों के भिन्न भिन्न अवयवों विद्यार्थी तथा विशेषज्ञ तो अपने जीवन का यह उद्देश को हिलते-डुलते और उन्हें अपना कार्य करते ही समझते हैं कि जो कुछ नवीन ज्ञान वे प्राप्त करें देखे तो उसे वह भूतों का डेरा ही समझेगा उसे जनसाधारण में वितरित कर दें।
और आश्चर्य करेगा। पर अमरीका में यह . यहाँ हम संक्षेप में अमरीका के एक ऐसे ही आश्चर्य नहीं, एक दैनिक घटना है और सार्वप्रयत्न का वर्णन करेंगे। मनुष्य के लिए सबसे प्रिय जनिक शिक्षा के एक आवश्यक अङ्ग के रूप में उस वस्तु उसका शरीर है। शरीर की शक्ति और संस्था का स्वागत हो रहा है। प्रतिदिन सैकड़ों स्त्रीस्वास्थ्य पर ही उसके सारे कार्य और आनन्द पुरुष उसे देखने जाते हैं और वर्षों की पढ़ाई घंटों में अवलम्बित हैं। इसलिए पाश्चात्य देशों में उस ज्ञान समाप्त करके नवीन ज्ञान से ओतप्रोत होकर बाहर की प्राप्ति के लिए विशेष प्रयत्न और अन्वेषण हुआ निकलते हैं। है जिस पर शरीर का स्वास्थ्य और दीर्घ-जीवन यह संस्था अमरीका के बझालो म्यूजियम अवलम्बित है।
आफ़ साइन्स, न्यूयार्क, के अन्तर्गत है और अपने स्वास्थ्य-विज्ञान-विशारदों का कहना है कि ढङ्ग की संसार में पहली है। यहाँ जाने पर प्रकाश किसी मनुष्य या मनुष्यों के किसी समूह की स्वास्थ्य- और बिजली की सहायता से आप उस यंत्र को देख रक्षा के लिए यही काफी नहीं है कि उनके पहुँच में और समझ सकेंगे जो इस संसार में मनुष्य के नाम कोई न कोई डाक्टर अवश्य हो जो उन्हें हर वक्त से विख्यात है। दवा पिलाता रहे । किसी राष्ट्र के स्वास्थ्य की वास्तव अच्छा थोड़ी देर के लिए अपनी कल्पना के में तभी रक्षा हो सकती है जब उसका प्रत्येक व्यक्ति सहारे इस म्यूजियम के अन्दर आइए, एक बटन स्वास्थ्य-रक्षा के नियमों से परिचित हो और उनका दाबिए ! यह लीजिए बटन दाबते ही एक इंजन जीवन में उपयोग भी करता हो। पाश्चात्य देशों के धकधकाने लगा। यह क्या ? एक खोपड़ी हिलने स्कूलों में इस विषय की शिक्षा अनिवार्य कर दी लगी, कलाई की हड्डी अपने जोड़ पर घूम गई । गई है।
एक उँगली जिसमें हड्डी ही शेष है, मुड़ती है और अभी तक विद्यार्थियों को चित्रों और मूर्तियों के कुछ इशारा करती है। एक नर-कङ्काल आपको द्वारा शरीर-रचना और उसकी कार्य-प्रणाली सम- अपने पास बुला रहा है और कह रहा है-आइए ! झाई जाती थी। इस सम्बन्ध में अमरीका ने अब मेरी परीक्षा कीजिए। एक कदम और आगे बढ़ाया है। बझालो (न्यूयार्क) एक दूसरा बटन दाबिए। दूसरी ओर खड़े में हाल में ही 'हाल आफ मैन' नाम का एक संग्रहालय एक दूसरे मानव-शरीर में एक छोटी-सी दीप-शिखा स्थापित हुआ है । 'हाल आफ मैन' नाम कदाचित जल उठी। यह दीपक बाई ओर उस यंत्र में जल इसलिए रक्खा गया है कि एक विशाल भवन में उठा है जिसे हृदय कहते हैं । अरे ! वह दीप-शिखा मनुष्य के शरीर के सब अवयव अलग अलग चलने लगी। हृदय के बाई ओर से चल कर तमाम
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
मानव शरीर के अद्भुत कार्य
२६१
काश
शरीर में घूम कर वह हृदय में फिर आ गई और हथौड़े की चोट पड़ती है। अब दर्शक को दिखाई उसके दाहने हिस्से में समा गई। इधर आप यह पड़ेगा कि बिजली का एक धक्का किस प्रकार एक विचित्र प्र देख रहे हैं. उधर ठीक उसी समय स्नाय के द्वारा ऊपर दिमाग की ओर और वहाँ से
आपके हृदय में उसी स्थान से रक्त की एक बूंद दूसरी स्नायु से रीढ़ की हड्डी में होता हुआ किस निकल कर उसी प्रकार आपके शरीर की परिक्रमा प्रकार पैर की मांस-पेशी में आता है और बैठा हुआ करके फिर हृदय में उसी प्रकार आकर समा गई। लोहे का आदमी किस प्रकार पैर झटकता है जैसे इस कार्य में कुल २२ सेकंड लगे। शरीर में रक्त कि वास्तविक आदमी घुटने के नीचे चोट लगने से का दौरा कैसे, किस गति से, कितने समय में होता झटकता। यहाँ प्रकाश और गति के सहारे हमें पेशियों है, यह बात इस क्रिया के द्वारा आपने बात की बात के सिकुड़ने और फैलने का रहस्य मालूम होता है। में देख ली।
हमारा सिर हड्डी का बना है और एक हड्डी ही ___अब और अन्दर आइए । हाल के एक कोने में के द्वारा शरीर से जुड़ा है। तब भी हम उसे चाहे एक काले गोल चबूतरे पर एक पूर्ण नर-कंकाल खड़ा । जिधर घुमा सकते हैं। यह कैसे ? एक शीशे की है। उसमें हड्डी के अतिरिक्त मांस-पेशियाँ, नसे, आलमारी में इस प्रश्न का उत्तर आपको बन्द स्नायु, दिमाग़ सभी कुछ है। पर ये सब वस्तुएँ मिलेगा । मानव सिर का तारों का एक ढाँचा तारों
आर-पार दिखती हैं, मानो काँच की बनी हों। के ही एक कंकाल पर रक्खा है। बटनों को दबाइए। एक बटन दाबिए । एक प्रकाश हुआ और दिमाग यह सिर उसी प्रकार घूमेगा और इशारे करेगा, जैसे रोशन हो उठा, हृदय में चमक आ गई, फेफड़े वास्तविक मनुष्य का सिर घूमता और इशारे दिखाई पड़ने लगे। मानव शरीर का प्रत्येक महत्त्व- करता है। पूर्ण अङ्ग आपके सामने है और वह रक्त-मांस से इस हाल आफ मैन' में सबसे अद्भुत प्रदर्शन युक्त कंकाल आपको अपना सम्पूर्ण रहस्य बताने का वह ढाँचा है जो शरीर की रक्त-सञ्चालन की को तैयार है। उसकी वाणी मूक है, पर उसे जो कुछ क्रिया को स्पष्ट करने के लिए तैयार किया गया है। कहना है वह आपको काले चबूतरे पर स्वर्णाक्षरों इस ढाँचे में काँच का वैसा ही हृदय बनाया गया में लिखा मिलेगा। दिमाग से शरीर के प्रत्येक अङ्ग है जैसा कि जीवित मनुष्य का हृदय होता है। वैसे में जिस क्रम से दिमाग़ की आज्ञायें पहुँचती हैं, ही वह खुलता और बन्द होता है। इस हृदय से उसी क्रम से इस पुतले में चिराग़ जलते जायेंगे और समस्त शरीर में नलियों का एक जाल फैलाया गया जो बात आपने कभी न देखी होगी वह आपके है, ठीक उसी क्रम से जैसे कि वह जीवित शरीर में सामने आती जायगी।
फैफैला रहता है। हृदय में एक प्रकार का द्रव्य भर यदि आप यह जानना चाहें कि शब्दों को हम दिया जाता है जिसे आप रक्त कह सकते हैं। इसमें कैसे सुनते और समझते हैं तो ३ नम्बर की धुंडी बाहर से पम्प लगाया गया है। इस पम्प के चलाने जरा घुमा दीजिए। एक नन्हा प्रकाश कान में उत्पन्न से हृदय से वह द्रव्य निकलकर सब नलियों में होकर दिमाग के उस भाग में जाता है जो सुनने के घूमता हुआ फिर हृदय में आ जाता है। लिए बना है। वहाँ से वह दिमाग़ के आवाज़वाले यदि आप सिर से लेकर कमर तक की शरीर घर में और अन्त में समझवाले घर में जाता है। की बोटियाँ देखना चाहते हैं तो 'बाडी बुक्स'
एक दूसरा मशीन का आदमी देखिए । इस वक्त (शरीर-पुस्तके) देखिए। ये दो दो इञ्च मोटी लकड़ी वह बैठा हुआ है। उसके घुटने के नीचे एक छोटे पर उसी तरह रंगी हुई बनी हैं जिस तरह वास्तविक
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
मनुष्य के शरीर की बोटियाँ हो सकती हैं। ये हैं वह रेडियोग्राफ कहलाता है और वह भी बोटियाँ क्रम से रक्खी हैं। इन्हें आप अलग करके इस हाल में आपको देखने को मिलेगा। इस भी देख सकते हैं। सबको मिला दें तो पूरा शरीर रेडियोग्राफ के द्वारा मनुष्य के शरीर का जो फोटो बन जायगा।
लिया जाता है उससे साफ़ साफ़ मालूम हो जाता . मनुष्य मनुष्य में भेद क्यों है ? बटन दाबने से है कि शरीर के भीतर कहाँ गोली लगी है, फोड़ा है यहाँ प्रकाश शरीर के अन्दर की उन गिलटियों और या हड्डी टूटी है। रहस्यमय रसायनों को दिखाएगा जो हमारे शारी- सम्पूर्ण जीवन एक नन्हें जीवाणु से बना है, जो रिक भाग्यों का निर्माण करते हैं और उन्हें मजबूती क्षण क्षण पर द्विगुणित होता रहता है। ये जीवाणु से पकड़े रहते हैं।
मनुष्य के शरीर में तीन परतों में बसे हुए हैं। एक .. हम बोलते कैसे हैं ? यह जानना हो तो एक माडल में ये जीवाणु और इनकी उपजातियाँ भी
और बटन दाबिए। एक निर्जीव मूर्ति के होंठ, दिखाई गई हैं और यह भी बताया गया है कि जिह्वा, जबड़ा सब सजीव हो उठेंगे और आपको किस प्रकार के जीवाणुओं से मनुष्य-शरीर का बताएँगे की किस प्रकार कंठ में आवाज़ की सृष्टि कौन-सा अङ्ग बना है। होती है।
___इस प्रकार अमरीका में यह अद्भुत म्यूजियम . इसी प्रकार इस 'हाल आफ मैन' में शरीर- वहाँ के निवासियों को शरीर-रचना की शिक्षा दे शास्त्र-सम्बन्धी सम्पूर्ण ज्ञान संचित किया गया है। रहा है। हमारे देश में ऐसे म्यूजियम कब स्थापित यह न समझिए कि ये माडल और मूर्तियाँ कल्पना के होंगे, यह अभी कौन कहे। अभी तो यहाँ शिक्षासहारे बनी हैं। एक्स रे, रेडियम, और फोटोग्राफी- सम्बन्धी एक भी संग्रहालय ऐसा नहीं है जो जनतीनों की सहायता से जीवित मनुष्यों के शरीर के साधारण में किसी खास विषय के ज्ञान की कुछ
आर-पार का फोटो लेकर ये सब निर्मित हुई भी वृद्धि करता। हैं। जिस यंत्र से इस प्रकार के फोटो लिये जाते
('पापुलर सायंस' से)
विभ्रम
किस चिर अतीत का मधुर गान-आया बनकर सुस्मृति वसन्त, किसकी करुणा का नव विहाग-भर गया व्यथा का स्वर अनन्त ।। किस हृदय क्षितिज से गल गल कर अनगिन हिमकण पल पल भरते, किस नेत्र कंज के विमल कोष को रजत ओस से हैं भरते ।।
किसके वियोग की मूक हूक भ्रमरावलि-सी आ मँडराती, जो हृदय सुमन का मधु पराग नयनों के द्वार लुटा जाती। पुलकित 'रसाल पल्लवित प्रेम आशाओं से मृदु खेल खेल,
कल्पना-कुसुम का कर विकास, भर जावे जग का सुख सकेल । दारुण वियोग की विषम पीर-मलयज समीर-सी झूम झूम, पंकिल निर्भर-सी आँखों को मुग्धा-सी जाती चूम चूम ।। क्या है यह ? स्वप्निल मधुप्रभात अथवा भूली-सी विषम-पूर्ति, विच्छेद भरी श्यामा निशि में जो आती है बन मिलन-मूर्ति ।।
लेखिका श्रीमती रामकुमारी
चौहान
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
Hal
Palla
Heal
BHARPAN
-re
...
श्रीयुत उपेन्द्रनाथ,
। हरिकुमार मेरे मित्रों लान में से थे। उनकी गणना
पञ्जाब के प्रसिद्ध दंदानसाज़ों में होती थी। दाँतों के उपचार में जो निपुणता
उन्हें प्राप्त थी वह उनके
- किसी समकालीन को न होगी। वे बी० एस-सी० की परीक्षा पास करने के बाद कलकत्ते चले गये थे और जब वहाँ से दंदानसाज़ी की शिक्षा प्राप्त करके लौटे तब एक कामिल डेंटल सर्जन थे । लाहौर में निस्बत-रोड पर उनकी सर्जरी थी। पञ्जाब के दूरस्थ प्रदेशों से रोगी वहाँ आते और स्वस्थ होकर चले जाते। कलकत्ता और कराची के और भी कई डिग्रीहोल्डर लाहौर में थे, किन्तु उनकी वही गति थी जो सूर्य के सामने दीपक की होती है । एक की ख्याति समस्त प्रान्त में फैली हुई थी, दूसरे को उनके बाज़ारों तक में भी मुश्किल से काई जानता था। मैं उन डाक्टरों की बात नहीं करता जो उनसे पहले प्रसिद्ध थे। मैं तो उनके सम्बन्ध में लिखता हूँ जिन्होंने उनके साथ काम प्रारम्भ किया था और उन डाक्टरों में हरिकुमार चाँद बनकर ऐसे चमक उठे थे कि दूसरों की युति मन्द पड़ गई । __ कलकत्ता से आने के बाद अल्प काल में ही यह सब कुछ हो गया। उनके साथी मुँह देखते रह गये । वे एक एक दाँत के दस दस रुपये ले लेते तो भी लोगों का ताँता बँधा रहता, और वहाँ एक एक रुपया पर भी कोई न फटकता था, बैठे सारा दिन मक्खियाँ मारा करते । सत्य बात तो यह थी कि डाक्टर हरिकुमार का चातुर्य हाथों की अपेक्षा उनकी ज़बान में अधिक था। यदि किसी का काम बिगड़ जाता, तो ऐसी बातों से उसका मन पूरा कर देते कि उपेक्षा करने के बदले उनकी सहृदयता की दाद देता हुअा वापस जाता। एक बार जो उनसे काम बनवाता, उनका जीवित विज्ञापन बन जाता, उनकी प्रशंसा करता न थकता ।
प्राणनाथ डाक्टर साहब के सहकारी का नाम था। स्वामी और सेवक का नाता होने पर भी दोनों में प्रगाढ़ प्रेम था। दोनों बचपन में साथ साथ खेले थे, स्कूल और कालेज में साथ साथ पढ़े थे। दोनों इकट्टा खाना खाते,
एक मनोरञ्जक
कहानी
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
सरस्वती
इकट्ठा सिनेमा देखने जाते और इकट्ठा काम करते । हरिकुमार अपने आपको मालिक न समझते थे और न प्राणनाथ अपने को नौकर । दोनों एकता के तार में बँधे हुए थे। हरिकुमार धनी-मानी मा-बाप के लड़के थे, कालेज से निकलते ही कलकत्ता चले गये । प्राणनाथ के माता-पिता निर्धन थे, इसलिए वे लाहौर के ही एक दंदानसाज़ से शिक्षा प्राप्त करने लगे। डाक्टर हरिकुमार जब कलकत्ते से वापस आये तब उन्हें प्राणनाथ की कुशलता पर ग्राश्चर्य हुआ। उन्होंने जो वस्तु धन से प्राप्त की थी, प्राणनाथ को वही ग़रीबी ने प्रदान कर दी थी । उसने मुख्य मुख्य अँगरेज़ी और अमेरिकन डाक्टरों की पुस्तकों का अध्ययन किया था, उनके एक एक शब्द को बार बार पढ़ा था और कंठस्थ कर लिया था । प्राणनाथ को ऐसे ऐसे देशी और विदेशी नुस्खे भी याद थे जो हरिकुमार के देवताओं को भी न ज्ञात होंगे। डाक्टर साहब ने इस बात के जान लिया था और उन्होंने प्राणनाथ को अपने यहाँ उपयुक्त वेतन पर सहकारी के रूप में रख लिया । उसे और क्या चाहिए था ?
डाक्टर हरिकुमार की ख्याति का एक रहस्य यह भी था ।
( २ )
सर्दी के दिन थे, सुबह का समय था, किन्तु डाक्टर हरिकुमार एक कमीज़ ही पहने कमरे में घूम रहे थे । उनके चेहरे से परेशानी टपक रही थी । उन्होंने उस लम्बे कमरे का अन्तिम चक्कर लगाया और सर्जरी में दाखिल हो गये। दो घंटों से वे एक पीड़िता की दाढ़ की किरचें निकालने का प्रयास कर रहे थे, पर उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो रही थी । किरचें निकालना मुश्किल था, यह बात न थी । उन्होंने प्रायः इनसे भी सूक्ष्म किरचें पलक झपकते निकाल दी थीं, परन्तु रोगिणी इंजक्शन कराने से घबराती थी, पिचकारी और सुई की सूरत देखते ही उसे बेहोशी-सी आने लग जाती । जड़ें खोखली थीं और दाढ़ जीर्ण-शीर्ण । जहाँ डाक्टर उसे जम्बूर से पकड़ते, वहीं टूट जाती । अब यह हालत हो गई थी कि औज़ार लगते ही वह तड़फ़ उठती थी । हाथ लगाना तक कठिन
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग
हो गया था । जो साधारण इंजक्शन तक नहीं करने देती वह मैंडीकुलर कब करने देगी और बिना उसके किरचें निकल न सकती थीं। यही कारण था कि डाक्टर साहब घबरा कर बाहर निकल गये थे। रोगिणी सम्पन्न और समृद्ध घराने से सम्बन्धित थी । डाक्टर साहब इनकार भी न कर सकते थे। सुबह से बिना नहाये धोये उसकी दाढ़ निकालने में लगे थे । उन्हें खून पसीना करके कमाई हुई अपनी ख्याति पर पानी फिरता हुआ दिखाई दिया । चिन्ता और परेशानी के कारण इस शीत में भी उनके माथे पर पसीना आ गया |
सर्जरी में पुनः दाखिल होने पर डाक्टर साहब अपनी कुर्सी के समीप कुछ क्षण के लिए मूक, निस्तब्ध खड़े रहे । सामने 'नाइट्रस आक्साइड गैस' का प्रेटस पड़ा था । किन्तु हरिकुमार उसको गैस से बेहोश करने का साहस न कर सकते थे । वह अत्यन्त दुबली-पतली और कमज़ोर दिलवाली स्त्री थी । आशंका थी कि गैस से कहीं उसका दम ही न निकल जाय। उन्होंने एक बेर कराहती हुई रोगिणी के चेहरे को देखा और प्रेटस पर हाथ रक्खे कुर्सी के गिर्द घूमे । ख्याति को बनाये रखने के लिए वे खतरा मोल लेने को तैयार थे ।
" कदाचित् यह गैस को सहन न कर सके ।" रोगिणी के पति लाला जुगलकिशोर ने कहा ।
डाक्टर साहब का हाथ प्रेटस से फिसल गया और हताश - से खड़े रह गये ।
वे
" मेरा खयाल है, मैं इन्हें अस्पताल ले जाकर साहब को दिखलाऊँ ।"
"नहीं आप इन्हें ज़रा आराम करने दें । मेरा सिस्टेंट प्रयोगशाला में है। उसके आने पर मैं एक खास प्रिपेरेशन तैयार करके किरचें निकाल दूँगा । घबराइए नहीं ।" यह कहकर डाक्टर सर्जरी से बाहर निकल - आये और अपने प्राइवेट कमरे में जाकर कौच पर धँस कर बैठ गये ।
यदि लाला जुगलकिशोर चेहरे की श्राकृति से हृदय की अवस्था समझने का तनिक भी ज्ञान रखते होते तो उन्हें ज्ञात हो गया होता कि डाक्टर हरिकुमार सर्वथा
www.umaragyanbhandar.com
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
ऐरोमा
२६५
असत्य कह रहे हैं। न डाक्टर साहब इस तरह किरचें "बस, बस, खूब अवसर मिला ।' प्राणनाथ ने निकाल सकते थे और न उनके पास कोई और प्रिपेरेशन बात काटते हुए कहा-"आज़माइश हो जायगी।" हर्ष ही था। वे केवल कुछ समय चाहते थे, जिसमें वे और उल्लास से उसका चेहरा दुगुना हो गया। इनको खुश असलूबी से जवाब देने का बहाना ढूँढ़ डाक्टर साहब की समझ में कुछ न अाया। वे बुत सकें। इस प्रकार वे इन्हें नहीं जाने देना चाहते थे। बने उसकी ओर निर्निमेष ताकते रहे।
प्राणनाथ डाक्टर साहब के सम्मुख खड़ा हो गया । ___ डाक्टर साहब कोच पर बैठे हुए, सोच रहे थे, उसके चेहरे से गम्भीरता टपकने लगी। उसने जेब से पर कुछ सोच न पाते थे। आज उन्हें कुछ कहने के एक शीशी निकाली, जिसमें लाल रंग की कोई गाढ़ी चीज़ लिए शब्द तक न सूझ रहे थे। उनका अनुभव, उनकी थी। उसने कहाबुद्धि, सब हवा हो गये थे। रोगिणी इंजक्शन कराने को "इसमें वह दवा है डाक्टर साहब- वह औषध है राज़ी न
द न दे सकते थे और वैसे जिसकी आवश्यकता अाज सब संसार को है. जिससे किरचों का निकालना सर्वथा असम्भव-सा था। किंकर्तव्य- दंदानसाज़ी के क्षेत्र में हलचल मच जायगी, जिसकी विमूढ़-से वे चुप बैठे थे। दीवार पर टँगी हुई घड़ी ने एक बूंद रोगी के लिए जादू का असर रखती है। दस बजाये । पन्द्रह मिनट उन्हें इसी असमंजस में बीत इसके होते गैस या इंजक्शन की कोई आवश्यकता न गये। उन्होंने दीर्घ निःश्वास छोड़ा और उठ खड़े हुए। होगी। एक बूंद दाँत के ऊपर मांस पर लगा दीजिए, उन्होंने सोचा, मौके पर जो सूझ पड़ेगा, कह देंगे और कुछ ही क्षणों में मसूड़े स्वयं दाँत छोड़ देंगे।" कर ही क्या सकते हैं ? उस समय उनके हृदय में एक डाक्टर साहब हँस दिये। रोब से बोले-यह हँसी प्रबल आकांक्षा उठी। वह यह कि कोई ऐसी दवा होती का समय नहीं है कि तुम मजमा लगानेवालों की भाँति जिससे दाँत कष्ट के बिना स्वयं ही निकल जाते। भाषण दो।
“डाक्टर जी! डाक्टर जी!" प्राणनाथ ने प्रसन्नता प्राणनाथ मुस्कराया, फिर गम्भीर होकर बोलासे विह्वल होकर डाक्टर हरिकुमार के कंधों को थपथपाते हँसी कौन करता है ? मेरा आज वर्षों का परिश्रम ठिकाने हुए कहा।
लगा है। आज वह दवा तैयार हो गई है जिसका __ डाक्टर हरिकुमार ने चिन्ता के कारण झुका हुअा अाविष्कार करने के लिए न दिन को चैन और रातों की अपना सिर ऊपर उठाया। उनकी व्यथित आँखें उसकी नींद तक हराम हो गई थी। मुसकराती हुई आँखों से मिलीं । प्राणनाथ के हाथ ढीले डाक्टर हरिकुमार चुपचाप प्राणनाथ के मुँह की ओर पड़ गये । दूसरे क्षण कोच पर बैठकर वह अपने डाक्टर के देखते रहे। वे रोगिणी का दुख और अपनी परेशानी चिन्तित मुख का निरीक्षण करने लगा । अन्दर से रोगिणी सब भूल गये ! के कराहने की आवाज़ आई।
प्राणनाथ ने शीशी की ओर देखते हुए कहीऐसे अवसर पर डाक्टर साहब सदैव प्राणनाथ से "और मज़े की बात यह है कि जिस दाँत पर दवाई परामर्श किया करते थे । वे बोले-अजीब विषम लगाई जायगी वही गिरेगा, दूसरे को तनिक भी हानि न समस्या उपस्थित है प्राणनाथ । अन्दर सर्जरी में लाला पहुँचेगी।" जुगलकिशोर की पत्नी बैठी है। उसकी दाई दाढ़ जीर्ण- डाक्टर साहब को अपने सहकारी की बातों पर शीर्ण होकर टूट गई है । वह इंजक्शन करने नहीं देती विश्वास न हुआ। उसके चेहरे की मुद्रा गम्भीर थी. पर और दुर्बलता के कारण मैं गैस देने का साहस नहीं कर डाक्टर साहब को विश्वास न होता था कि जिस दवा सकता। बड़ी उलझन में.........
को सहस्रों चेष्टाओं पर भी योरप के मस्तिष्क न तैयार फा. १०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६
सरस्वती
[भाग ३६
कर सके उसे लाहौर के एक कोने में बैठा हुआ उनका नींव रक्खी गई। दवा का नाम 'ऐरोमा' रक्खा गया । सहकारी तैयार कर लेगा। प्राणनाथ ने उनकी इस उधेड़- कुछ ही महीनों के विज्ञापनों से विदेश तक से आर्डर बुन की ओर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया। वह उनका हाथ आने लगे। रसायन-क्षेत्र में शोर मच गया। लोग थामे उन्हें सर्जरी में ले गया ।
दो रुपये की एक शीशी मँगाते और अपने तो अपने, प्राणनाथ ने रुई के टुकड़े को शीशी में भिगोते पड़ोसियों तक के दाँत निकाल देते । दवा की ईजाद किसने हुए कहा- "हाथ कंगन को आरसी क्या ?" डाक्टर की है, इस बात का ठीक ठीक पता किसी को न था, हरिकुमार चुप खड़े देखते रहे। उसने उस दाढ़ के ऊपर भाँति भाँति के अनुमान भिड़ाये जाते थे। कोई मसूड़े पर दवा लगाई और रोगिणी को तश्तरी पर मुँह डाक्टर हरिकुमार को उसका आविष्कारक बताता तो झुकाने के लिए कहा। कुछ क्षणों के बाद दाँत के बदबू- कोई कहता उन्होंने जर्मनी से केमिस्ट रासायनिक) दार टुकड़े स्वयं थूक के साथ तश्तरी में गिर पड़े और बुलवाया है। किन्तु प्राणनाथ का कोई नाम तक न रोगिणी का कष्ट दूर हो गया। हरिकुमार प्राणनाथ के लेता । चाँदी का रुपया ताँबे के सम्मिश्रण से झंकृत होता मुख की ओर टकटकी बाँधे देखते रहे । उन्हें ऐसा है, किन्तु नाम रुपया का ही होता है, ताँबे को कोई नहीं प्रतीत हुआ, जैसे वे काम करते करते ऊँघ गये हों और पूछता। स्वप्न में कोई जादूगर उन्हें आश्चर्यजनक खेल दिखा डाक्टर हरिकुमार इन किंवदंतियों को सुनते और रहा हो । भ्रम दूर करने के निमित्त उन्होंने आँखों को चाहते कैसा अच्छा होता यदि मैं इस दवा का आविष्कारक भी मला, खिड़की से बाहर को देखा, पर सब कुछ होता। एक बड़ा भारी कारखाना खोलता। सारे संसार सत्य था। सामने कुर्सी पर लाला जुगलकिशोर की पत्नी में मेरी ख्याति की बिजली कौंद जाती। लोग प्रलयबैठी थी, उसके मुँह पर शांति की झलक थी। बाहर लाला पर्यन्त मेरे नाम को स्मरण रखते। उनका चित्त प्रतिदिन साहब का मोटर खड़ा था और शोफ़र मज़े से सिगरेट पी व्याकुलता के अथाह सागर में उतरता जाता । मन रहा था।
की नाव आशंका के भँवर में डगमगाया करती। उन्हें उनके असिस्टेंट ने वह काम कर दिखाया था जो खटका लगा रहता, कहीं अाज प्राणनाथ मुझसे सम्बन्धयोरप के बड़े बड़े रासायनिक भी न कर सके थे। विच्छेद न कर ले, कहीं अाज जुदा न हो जाय । सोचते--
यदि प्राणनाथ मुझसे जुदा हो गया तो कहीं का न ___ कुछ ही काल में 'ऐरोमा' की ख्याति सारे भारत रहूँगा। सारी ख्याति मिट्टी में मिल जायगी। भविष्य में फैल गई। सब पत्रों में उसके विज्ञापन निकलने लगे। का सुन्दर और सुनहरा दुर्ग एक क्षण में ढह जायगा और सम्पादकों ने उस पर अपनी सम्मतियाँ दी, उसकी प्रशंसा प्राणनाथ ! वह ऐश करेगा। सिद्धि और विलास उसके के पुल बाँध दिये। डाक्टर हरिकुमार को बैठे-बिठाये पाँव चूमेंगे । संसार उसकी प्रशंसा करेगा। पत्र उसके एक निधि मिल गई। प्राणनाथ सारा दिन प्रयोगशाला फ़ोटो प्रकाशित करेंगे। रुपया मैंने लगाया। प्रयोग में बन्द रहता, दवा तैयार करता । सन्ध्या को वह शीशियों करने के लिए. प्रयोगशाला मैने दी। अब वह मुझे में बन्द कर दी जाती और दूसरे दिन बाहर भेज दी अलग कर देगा । दूध की मक्खी की भाँति निकाल जाती। धन पानी की नाई बरसने लगा।
फेंकेगा। प्राणनाथ रुपया नहीं लगा सकता था । उसने डाक्टर साहब को इस अल्पकाल में ही कई सहस्र डाक्टर साहब से दवा और विज्ञापनों पर धन व्यय करने रुपया मिल चुका था, पर उनका सन्देह किसी प्रकार के लिए कहा और उसे तैयार करने का बोझ अपने कंधों दूर न होता था। पहले दिन उन्होंने किवाड़ के छेद पर लिया। 'सम्मार्ट एंड का' के नाम से एक कम्पनी की से प्राणनाथ को नोट-बुक से कुछ देखकर दवा तैयार
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
ऐरोमा
२६७
करते देखा था, परन्तु बाद को वह नोट-बुक उन्हें कभी उनके स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ गया था। उन्हें अपने दिखाई न दी। प्राणनाथ को दवा का नुस्खा कंठस्थ शरीर का, अपने स्वास्थ्य का कोई ध्यान न रहा था । था, नोट -बुक की उसे आवश्यकता ही न थी, फिर भी ज्यों ज्यों बार्डर अधिक संख्या में आने लगे, उनकी डाक्टर हरिकुमार को ज्ञात था कि नोट-बुक उसकी व्याकुलता में वृद्धि होती गई। वे अपने शरीर की अन्दर की जेब में रहती है। प्रयोगशाला में उसके अोर से बेपरवा हो गये थे। पहले वे प्रातः उठकर कपड़े और होते और बाहर और, किन्तु वह उन्हें हजामत बनाते, ब्रश करते, नहाते, समय होता तो सैर बदलते समय सावधानी से नोट-बुक भी निकाल लेता। करने को भी जाते। पर अब 'सवेरे' जब बिस्तर से डाक्टर साहब उस सुअवसर की ताक में थे कि वह उठते तब 'घड़ी की सुई सवा नव पर थी' का-सा हाल नोट -बुक भूल जाय, पर आज तक वह अवसर न होता। कई कई दिन तक बाल न बनवाये जाते। कपड़े आया था।
मैले हैं, पर बदलने की इच्छा नहीं होती। निजी काम भी प्रकट रूप से वे उससे हँस हँस कर बातें करते । प्रायः चौपट हुअा जा रहा था, पर उनको उसकी सुध श्राधे भाग की जगह उसे कुछ अधिक ही देते। हर तक न थी। यह सब कुछ था, परन्तु प्राणनाथ के साथ उत्सव पर उसके घर कुछ न कुछ भेज देते । उसके उनके व्यवहार में कोई अन्तर न आया था । उससे वे माता-पिता को अपने यहाँ आमन्त्रित करते, किन्तु अन्दर सदैव मुसकराते हुए मिलते । उसकी सेवा-शुश्रूषा में कोई से जलते रहते । उनका हृदय सदैव ईर्ष्या और स्वार्थ की कमी न होने पाती। कसाई जानवर को पाल रहा था, अग्नि में भुना करता।
__ पर साथ ही छुरा भी तेज़ किये जा रहा था। प्राणनाथ की भोली-भाली सरल सूरत उन्हें ज़हर संध्या का समय था। हरिकुमार ड्राइङ्ग रूम में बैठे प्रतीत होती । प्रतिक्षण उससे दवा का रहस्य पूछने में दवा-फ़रोशों के सूचीपत्र देख रहे थे। सहसा उनकी लगे रहते । कहते, यार तुमने कमाल कर दिया। आखिर आँखों में एक चमक पैदा हुई । उन्होंने सूचीपत्र को साथ तुम्हें इसका खयाल कैसे पैदा हुआ ? वही किताबें हमने लिया और मोटर में सवार होकर माल-रोड की ओर चले पढ़ी हैं, वही तुमने। हमें तो कहीं कुछ सुझाई नहीं गये । 'ऐमनीशिया!' 'ऐमनीशिया !' उन्होंने दो बार इस दिया। प्राणनाथ चुप रहता या मुसकरा देता । अपनी दवा का नाम दोहराया । इसकी एक बूंद का प्रशंसा को सुनकर चुप रहना उसने भले प्रकार सीख बीसवाँ हिस्सा उनकी मनोकामना को पूरा कर सकता लिया था और सत्य तो यह है कि इसी में उसकी भलाई था। दवा की शीशी कोट की भीतरी जेब में दबाये हुए थी। वह उन पुरुषों में से न था जो प्रशंसा के दो शब्दों डाक्टर साहब अपनी कोठी में दाखिल हुए, उस सेनासे फूलकर कुप्या हो जाते हैं और फिर खुशामदी जो चाहे, नायक की भाँति जिसे दुश्मन को परास्त करने का कोई कह देते हैं । डाक्टर हरिकुमार ने इस शस्त्र को निष्फल सुगम साधन हाथ आ गया हो। जाते देखकर दूसरे हथियार से काम लेने की ठानी। प्राणनाथ प्रयोगशाला में अपने काम पर आ गया उन्होंने प्राणनाथ को मदिरा-पान की लत डालने का था और ड्रेसिंगरूम में कपड़े बदल रहा था । हरिकुमार प्रयास किया, किन्तु इस प्रयत्न में भी वे निष्फल रहे। ने सर्जरी से एक सुई ली, और कमरे में पड़े हुए दवा के प्राणनाथ शराब तो क्या सिगरेट तक के समीप न गया, बंडलों पर से गुज़रते हुए शीघ्रता से ड्रेसिंगरूम में आये।
और डाक्टर हरिकुमार सब अस्त्र : ला चुकने पर थक प्राणनाथ चीज़ों को कोट की एक जेब से दूसरे की जेब में जानेवाले योद्धा की भाँति हार कर बैठ गये।
रख रहा था। उसकी पीठ डाक्टर साहब की ओर थी । __ पर वे निश्चिन्त हो गये हों, यह बात न थी । उनके दिन उसे एक साधारण-सी चुभन जान पड़ी और उसके साथ और रातें इसी समस्या का हल सोचने में व्यतीत होतीं। की चीजें गिरकर बिखर गई । डाक्टर हरिकुमार ने
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८
सरस्वती
[भाग ३६
जल्दी से नोट-बुक को उठाकर उसके पृष्ठों को पलटा, रात को डाक्टर हरिकुमार सो न सके । बीसियों सुखविविध प्रकार के नुस्खे लिखे हुए थे। एक पृष्ठ पर उन्हें स्वप्न देखते रहे। उन्होंने काँटे को परे हटा कर मार्ग लिखा हश्रा नजर आया-ऐरोमा। उन्होंने झट वह या-'ऐरोमा । उन्होंने झट वह साफ़ करने का इरादा कर लिया था। अब उनका नाम
माफ करने का पृष्ठ फाड़कर नोट-बुक को फिर वहीं फेंक दिया । सब कुछ 'ऐरोमा' के आविष्कारक की हैसियत से प्रसिद्ध होगा। पलक झपकते हो गया।
उनकी ख्याति का पक्षी पर लगा कर संसार के चारों प्राणनाथ ने गर्दन को सहलाते हुए कहा-“डाक्टर कोनों में उड़ेगा। पहले वे डाक्टर थे-केवल डाक्टर, साहब, प्रतीत होता है, मेरी गर्दन पर किसी ने डङ्क मार अब वे ऐरोमा के आविष्कारक होंगे, जिसने दुनिया में दिया और कुछ क्षण के लिए मेरा सिर घूम गया और मेरी तहलका मचा दिया है। अब वे प्राणनाथ को उपेक्षाआँखें बन्द-सी हो गई।
भरी दृष्टि से देखते । आत्मा पर स्वार्थ का पर्दा पड़ गया "काम बहुत करते हो । सिर तो चकरायेगा ही।" था। चिनगारी को राख ने छिपा लिया था। "लेकिन डंक !"
"मच्छड़ होगा, चलो बाहर चलें। आज सिनेमा दिन गुज़रते गये। चलोगे क्या ? मिस भंडारी भी आ रही हैं ।"
डाक्टर साहब प्राणनाथ को रोज़ खाने में 'टारकल' प्राणनाथ ने फिर गर्दन को सहलाते हुए कहा- विष की एक खूराक देते रहे। उन्होंने उसे स्थायी तौर पर "देखिए तो डाक्टर साहब. क्या चीज चभ गई है, अपने यहाँ खाना खाने के लिए बाध्य कर दिया था।
डाक्टर हरिकुमार ने धड़कते हुए दिल के साथ झुक 'टारकल' ही एक ऐसा विष था जिससे वे प्राणनाथ को कर देखा, एक हलका-सा लाल रङ्ग का निशान पड़ा हुआ बे-खटके अपने मार्ग से परे हटा सकते थे। इस विष की था। उन्होंने सुई को 'ऐमनीशिया' में भिगो कर चुभो एक एक खूराक शरीर के अन्दर इकट्ठी होती रहती है दिया था। उनका रंग फक हो गया, परन्तु सँभल कर और खानेवाले को प्रतीत भी नहीं होता, किन्तु जिस बोले-"राम जाने क्या चुभ गया है ? यहाँ निशान- दिवस उसकी दो खूराकें दी जायँ उस दिन सब विष विशान तो कोई नहीं है । शीघ्र कपड़े बदल लो। पात्रो, अपनी सम्मिलित शक्ति से अपने शिकार पर आक्रमण तनिक बाज़ार घूम श्रावें। उठात्रो सब चीजें, देखो ज़मीन करता है और उसकी जान लिये बिना नहीं छोड़ता। पर बिखर गई हैं।"
शनि का दिन था । लाहौर में प्रेम या कर्तव्य' नामक प्राणनाथ को जैसे किसी ने नींद से जगा दिया हो। चित्रपट ने सनसनी पैदा कर दी थी। लाहौर में पहली बार उसने जल्दी से नोट-बुक को उठाया और पतलून की ही यह फ़िल्म 'केपिटल' में लगी थी। प्राणनाथ ने भी जेब में ठूस लिया। फिर कोट पहन कर बाहर निकल यह खेल देखने का इरादा प्रकट किया । डाक्टर साहब अाया। किसी पक्षी को मारने का इरादा करो। वह झट ने इस अवसर को उपयुक्त जाना । खाने के साथ विष उड़ जायगा । फिर प्राणनाथ तो मनुष्य ही था । वह कैसे की दो खूराकें दे दी। प्राणनाथ खेल देखने चला गया, डाक्टर हरिकुमार के कुत्सित इरादों को न भाँप पाता ? उसे डाक्टर साहब ने सिर-दर्द का बहाना करके साथ जाने से कुछ कुछ आशंका अवश्य हो गई थी। प्रयोगशाला के इनकार कर दिया। बाहर एक अँगीठी जल रही थी। उसने नोट-बुक को उसमें आज न जाने कितनों को सिनेमाहाल से निराश फेंक दिया। अब जब उसे सब नुस्खे कंठस्थ हो गये थे लौटना पड़ा था। देखनेवाले बुत बने देख रहे थे। तब उसे उठाये फिरने की क्या ज़रूरत थी ? परन्तु उसे प्राणनाथ की निगाहें चित्रपट पर जमी हुई थीं। प्रेमिका क्या मालूम था कि चौकीदार रखने से पहले ही चोर की मुहब्बत और देश के प्रति कर्तव्य दोनों में जङ्ग छिड़ी अपना काम कर गया है ?
हुई थी। ईमान और शैतान की लड़ाई थी। प्राणनाथ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
ऐरोमा
२६९
का दिल धड़क रहा था । विष शनैः शनैः अपना असर जब हर तरफ़ सुकून हो गया, तब उन्हें ऐरोमा कर रहा था। आखिर प्रेमिका देश-प्रेम को त्याग को तैयार करने की चिन्ता हुई। उन्होंने प्राणनाथ कर प्रेमिका के आँचल की शरण ली। ईमान पराजित को विष देना तब प्रारम्भ किया था जब उन्हें ऐरोमा में हो गया, शैतान की जय हुई । प्राणनाथ ने एक पड़नेवाली सब वस्तुएँ मिल गई थीं। एक बूटी की दीर्घ निःश्वास छोड़ा और इसके साथ ही उसका सिर कमी थी सो वह भी उन्होंने एक हकीम से पूछ कर मँगा ली कुर्सी पर लुढ़क गया। हाल में रोशनी हो गई । 'इंटरवेल' थी। प्राणनाथ ने ऐरोमा को तैयार करने में देशी और में लोग उठकर बाहर जाने लगे। प्राणनाथ निश्चेष्ट, अँगरेज़ी दवाओं से काम लिया था। निस्पन्द, निष्प्राण पड़ा रहा। इसके समीप बैठनेवालों ने दोपहर का समय था। खिड़की से आनेवाली इसे देखा। समझे, सो रहा है, किन्तु जब उनके वापस धूप की किरणें कम होते होते बिलकुल मिट चुकी थीं।
आने पर भी उसने कोई हरकत न की तब उन्हें खटका टेबुल पर रक्खी हुई घड़ी की सुइयाँ बारह बजा रही थीं हुआ। इसके बाद एकाएक हाल में शोर मच गया। नौकर तीन बेर खाना खाने के लिए बुलाने आ चुका प्राणनाथ मर चुका था। उसका शव बाहर लाया गया। था, किन्तु डाक्टर साहब प्रयोगशाला में ऐरोमा तैयार दो-तीन डाक्टर भी वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने फ़तवा करने में लीन थे। उनके कपड़े पसीने में भीग चुके थे। दे दिया, युवक की मौत दुर्बलता के कारण दिल की नोट-बुक का पृष्ठ उनके हाथ में था और वे उसी के अनुहरकत बन्द हो जाने से हुई है। उसकी जेब से 'सम्मार्ट सार काम कर रहे थे। उन्होंने सब बूटियों को मिलाया ऐंड को' के काग़ज़ निकले। वह वहाँ पहुँचा दिया गया। था। दवाइयों को नुस्खे के अनुसार मिलाकर उन्हें ___डाक्टर हरिकुमार ने जब प्राणनाथ के शव को देखा आग पर चढ़ा दिया था। केवल एक दवा रह गई तब ढाढ़ें मार कर रोने लगे। इन मगरमच्छ के अाँसुओं थी और उसे उबलते समय मिलाना था । पन्द्रह मिनट को देखकर दूसरे भी रो पड़े। उसके शव का आलिंगन व्यतीत हो गये, दवा उबलने लगी। उन्होंने मुँह बर्तन करते हुए उन्होंने कहा- "हाय! मेरी दाई भुजा टूट गई।" के पास ले जाकर उबलती हुई दवा को देखा और दूसरी
शीशी उसमें उड़ेल दी। उस समय ज़ोर का धड़ाका 'सम्मार्ट ऐंड को' की ओर से ऐरोमा का विज्ञापन हुअा। दवा उबल कर उनके मुँह पर आ पड़ी। डाक्टर बदस्तूर जारी था, परन्तु बनी हुई दवा की मात्रा एक ही साहब का मुँह झुलस गया, आँखें जल गई, गर्दन और दिन के आर्डरों की भेंट हो चुकी थी। डाक्टर साहब हाथों पर छाले पड़ गये, उनके दाँत झड़ गये और दवा बाद की अाई हुई माँगों को पूरा न कर सके थे। प्राण- के गले में उतर जाने के कारण वे धरती पर गिर कर नाथ की मृत्यु पर वे कई दिनों तक उसके घर पर रहे तड़फने लगे और इससे पहले कि कोई उनकी सहायता थे। उसके माता-पिता को सान्त्वना देते थे। कहते को प्राता, उनके प्राण-पखेरू उड़ गये । उन्हें यह थे, आपका बच्चा नहीं मरा, मेरा भाई मर गया है, ज्ञात न था कि 'फार्नहीट' के कितने दर्जे तक दवा को गर्म मेरा बच्चा मर गया है। अपने पाप पर पर्दा डालने करना है, और अधिक खौलने के कारण यह घटना घट के लिए उन्होंने प्राणनाथ के मा-बाप को अपने यहाँ गई। बुलवा लिया था और उन्हें वहाँ ही रहने को बाध्य किया। ऐरोमा का नुस्खा उनके हाथ से गिरकर कब को लोग यह देखकर कहते कि डाक्टर हरिकुमार देवता हैं। आग की भेंट हो चुका था।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
तनदा
अबीसीनिया
VITAEMIIAANI
टान
दिनकोवा
लेखक,
सो नि
खोटश सोमाली
मबाबा)
१
M
या
श्रीयुत दीनदयालु शास्त्री
इत्यालियन
ब्रिटिश ईस्टी अफ्रीका ।
पाठक अबीसीनिया के बारे में बहुत कुछ जानना चाहेंगे। अफ्रीका में कालों का यही देश है जो हजारों वर्षों से स्वाधीन चला आ रहा है। इस लेख में विद्वान् लेखक ने
अबीसीनिया के पूर्व इतिहास और उसकी वर्तमान राजनैतिक स्थिति का सुन्दर परिचय दिया है । लाज ध सभ्य अफ्रीका के पूर्व में आबोहवा बहुत अच्छी है। राजधानी अदिसअबाबा
अदन की खाड़ी के उस छोटा-सा शहर है और एक पहाड़ी मैदान में
पार अबीसीनिया नाम का बसा है । - एक पहाड़ी तथा हरा-भरा १९ वीं सदी में योरप के कई दुर्धर्ष राष्ट्रों की
देश है। इसका प्राचीन नजर अफ्रीका पर पड़ी। धोरे धीरे ब्रिटेन, फ्रांस, A नाम स्थोपिया है। पिछले जर्मनी, पुर्तगाल, बेल्जियम व इटली ने इस महाद्वीप को
' हजारों वर्ष से यह देश हड़प लिया। अबीसीनिया के पड़ोस के सोमालीलेंड स्वतंत्र चला आ रहा है। यहाँ के निवासी वीर, को फ्रांस, ब्रिटेन व इटली ने परस्पर बाँट लिया। उत्तर लड़ाके तथा मेहनती हैं। अपनी आजादी का उन्हें के एरिट्रिया प्रदेश को भी इटली ने अपने दखल में बड़ा नाज़ है। ज्यादा लोग ईसाई-मत को मानते हैं कर लिया। अबीसीनिया के समुद्र-द्वार मसोवा पर
और धार्मिक विचारों में कट्टर हैं। देश का क्षेत्रफल इटली का झंडा फहराने लगा। एरिट्रिया व सोमालीसाढ़े तीन लाख वर्गमील है और जन-संख्या सवा लेंड दोनों ही सूखे, रेतीले तथा ऊजड़ प्रान्त हैं। इनको करोड़ से अधिक । देश के मध्य में ऊँचे ऊँचे पहाड़ों पाकर इटली के प्रधान मन्त्री क्रिस्पी की गृध्रदृष्टि की श्रेणी है। इन पहाड़ों के चारों ओर शुष्क मैदान अबीसीनिया पर पड़ी। क्रिस्पी ने अबीसीनिया को हैं। अतबारा, नील (ब्ल्यूनाइल), जूबा तथा शेबाली लिखा कि वह विदेश-सम्बन्धी बातों में इटली की .नाम की नदियाँ इन पहाड़े से निकल कर देश को सलाह से काम किया करे । अबीसीनिया के मनस्वी हरा-भरा रखती हैं। नील नदी का निकास ताना नगूसानगास्त सम्राट को यह स्वीकार न हुआ। सन् (Tsana) नाम की झील से है, जो देश के पश्चिम में १८९६ में इटली की प्रचण्ड सुसज्जित सेना एरिट्रिया पहाड़ों में अवस्थित है। नील नदी का प्रवाह से अबीसीनिया की ओर बढ़ी। सम्राट् मेनेलक ने उत्तर में सूडान और मिस्र को जरखेज़ बनाता है। अशिक्षित लेकिन बहादुर फौज लेकर अडोवा के दुर्गम पहाड़ी मुल्क होने के कारण देश के मध्य-भाग की निकट इटली की सेना से लोहा लिया। पहाड़ी
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
सख्या ३]
अबीसीनिया
२७१
[राजमहल के सामने अबीसीनिया के सैनिकों का जमाव] मुल्क होने के कारण सम्राट् की सेना नफे में रही। धीरे धीरे ज़माने ने पलटा खाया। योरप का अडोवा के निकट की पहाड़ी खाई में तीस हज़ार महायुद्ध आँधी की तरह आया और अपने साथ बड़े इटालियन खेत रहे। शेष को अंग-भंग करके अबी- बड़े सम्राटों, राष्ट्रों तथा प्रदेशों को समेटता हुआ सीनिया की सेना ने देश से बाहर भगा दिया। चला गया । इटली भी इस आँधी से न बच सका। अडोवा की हार से इटली में दुःख, भय व निराशा वहाँ भी अनेक उपद्रवों, हड़तालों तथा आन्दोलनों के के बादल छा गये। इटली की साम्राज्यलिप्सा कुछ बाद शासन-सूत्र मुसोलिनी के हाथ में आ गया। बरसों के लिए ठंडी पड़ गई। इसके बाद सन् १९०६ मुसोलिनी को सर्वप्रथम अपने देश की बेकारी का में इटली, फ्रांस व ब्रिटेन ने आपस में एक समझौता सामना करना पड़ा। बात यह है कि इटली छोटा-सा किया। इसके अनुसार तीनों ने अबीसीनिया की , देश है। उसका एक लाख दस हजार वर्ग मील रकबा स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने का वचन दिया। है, जिसका बहुत-सा हिस्सा पहाड़ तथा दलदल है।
तब फ्रांस को ज़ीबूती बन्दरगाह से राजधानी अदिस- जीविका के साधन कम हैं, फिर भी आबादी बढ़ रही - अबाबा तक रेल-लाइन बनाने की इजाजत मिली। है । सन् १८७१ में देश की आबादी ढाई करोड़ के
ताना झील से निकली हुई नील नदी का प्रवाह लगभग थी। सन् १९११ में वह बढ़ कर साढ़े तीन मिस्र के लिए आवश्यक समझा गया और उस पर करोड हो गई और अब सन १९३० में तो वह सवा प्रतिबन्ध न लगाने का अबीसीनिया ने वचन चार करोड़ से भी अधिक जा पहुंची है। इस दिया। वैसे सब बातों में अबीसीनिया की स्वतंत्रता आबादी की जीविका का अपने देश में यथैष्ट प्रबन्ध कायम रही।
न होने से योरपीय महायुद्ध से पहले प्रतिवर्ष
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७
सरस्वती
[भाग ३६
की सुविधायें प्राप्त कर ली। पूर्व में इटली ने एरिट्रिया से सोमालीलेंड को रेल ले जाने के अधिकार प्राप्त कर लिये। यह रेलवे बोसीनिया के मध्य में से निकलती थी। इस समझौते में फ्रांस शरीक न था। इस रेल के बन जाने से फ्रांस की रेल-लाइन को जो जिबूती बन्दरगाह से राजधानी अदिसअबाबा को जाती है, हानि होने की संभावना थी। इसलिए फ्रांस ने अबीसीनिया की पीठ ठोंकी। अबीसीनिया ने ब्रिटिश-इटालियन समझौते के खिलाफ राष्ट्र संघ में अपील कर दी । जेनेवा में उपस्थित सब राष्ट्रों ने अबीसीनिया का साथ दिया ।
और इटली की अबीसीनिया को हड़पने की बात [एक गिर्जाघर के सामने पादरियों का नृत्य रह गई। लाखों बटालियन विदेशों को चले जाते थे। ये लोग सन् १९२५ के बाद सन् १९२८ में इटली व परदेश में जाकर उसी देश के निवासी हो जाते थे अबीसीनिया में पारस्परिक समझौता हो गया, लेकिन और अपनी राष्ट्रीयता तथा भाषा को खो बैठते थे। मुसालिनी की महत्त्वाकांक्षा का अन्त न हो पाया। सन् १९२५ में ऐसे प्रवासी इटालियनों की संख्या एक उसके नेतृत्व में इटली के युवक एक बृहत् साम्राज्य की करोड थी। साइनर मुसोलिनी ने सर्वप्रथम इटा- कल्पना कर रहे थे । इटली की बढ़ती हुई आबादी को लियनों का विदेश जाना बन्द कर दिया। इनको स्थान देने का भी सवाल था। उसकी नज़र रह रह बसाने के लिए इटली के दलदल साफ किये गये और कर अबीसीनिया के हरे-भरे ऊँचे पठार पर जाती थी। टिपोली, एरिटिया तथा सोमालीलेंड के उपनिवेशों उसने इसे ही हथियाने का फैसला किया। इसका में ज़मीनें मुफ्त दी गई। अकेले इटली में ६० लाख एकड़ नई जमीन खेती के लिए तैयार की गई। इटली के तीनों उपनिवेशों में भी जैतून, गन्ना तथा कपास की खेती को बड़े पैमाने में करने का प्रयत्न किया गया। किन्तु इसमें सफलता नहीं मिली, क्योंकि ये तीनों ऊसर हैं और इनकी आबोहवा गरम है। इटालियन किसान एरिट्रिया व ट्रिपोली में बसने के लिए भेजे जाते थे, लेकिन वे बीमार होकर घरों को लौट आते थे। मुसोलिनी को अपने प्रयत्न में असफलता पसन्द न थी। अन्ततो गत्वा मुसोलिनी की नज़र अबीसीनिया पर पड़ी। सन् १९२५ में ब्रिटेन व इटली ने एक पारस्परिक समझौते-द्वारा अबीसीनिया को बाँट लिया । पश्चिम में ताना झील के आस-पास ब्रिटेन ने मोटर की सड़क बनाने [अबीसीनिया के वीर योद्धा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
अबीसीनिया
२७३
उपक्रम सन् १९३१ में ही हो गया। अबीसीनिया के सीमावर्ती इटालियन उपनिवेशों में रेल बिछाने तथा मोटर की सड़क बनाने का प्रबन्ध किया गया। एरिट्रिया में ये सड़कें मसावा बन्दरगाह से अबीसीनिया की सीमा तक तैयार की गई। सोमालीलेंड भारतीय महासागर के किनारे पर पाँच सौ मील से अधिक लम्बा चला गया है। उसके मोगाडिशु बन्दरगाह से एक रेल-लाइन अबीसीनिया की सीमा तक बनाई गई। इसके समानान्तर पर थोड़ी थोड़ी दूर पर पक्की सड़कों का आयोजन किया गया। सीमा के निकट किलेबन्दी का भी प्रबन्ध किया गया। इन सड़कों के निर्माण से दो लाभ हुए। बेकार इटा
[राजमहल का बरामदा, अदिसलबाबा] लियनों को काम मिला, साथ ही अपने उपनिवेशों में छोटे राष्ट्रों को ही सुविधायें दीं। वे जानते को बसाने के लिए प्रोत्साहन मिला और परोक्ष में थे कि उनको योरप के बड़े राष्ट्र विशेषतः फ्रांस, अबीसीनिया से होनेवाली मुठभेड़ का क्षेत्र भी ब्रिटेन व इटली अबीसीनिया को स्वतंत्र न रहने तैयार हो गया।
देंगे। योरप के बाहर के देशों में जापान और अमे____ इटली की इस महत्त्वाकांक्षा से अबीसीनिया के रिका ही प्रमुख हैं। इनमें से जापान को आर्थिक वर्तमान सम्राट् हेल सिलासी भी गाफिल न थे। सुविधायें अधिक मिलीं। उन्होंने भी स्वस तथा स्वीडिश इञ्जीनियरों-द्वारा सन् १९३१ से सन् १९३४ तक इटली व अबी
देश में सड़कों का बनवाना प्रारंभ किया। फौज सीनिया युद्ध-सामग्री जुटाने में लगे रहे। बाहर के | के शिक्षण के लिए बेलजियम से अफ़सर बुलाये राष्ट्र निश्चिन्त थे। उन्हें इसका खयाल भी न था कि गये । बारूद तथा हथियारों के लिए कल-कारखानों अफ्रीका के पूर्व में कोई ज्वालामुखी फटनेवाला है। का निर्माण हुआ। पश्चिम की ताना झील के सन् १९३४ में इटली के राजा विक्टर इमैनुअल निकट के भाग को सींचने के लिए एक बाँध एरिट्रिया व सोमालीलेंड गये। वहाँ जाकर उन्होंने बाँधने का फैसला हुआ। सन् १९०६ में इसी झील फौजी निरीक्षण किया। इटली के राजा की इस से मिस्र को निर्बाध जल आने की स्वीकृति अबी- यात्रा ने सभ्य संसार को चौंका दिया। उन्हीं दिनों सीनिया ने ब्रिटेन को दी थी। अब सन् १९३२ सोमालीलेंड के इटली के गवर्नर-जनरल कैप्टन में अबीसीनिया ने अपने देश के हित के लिए रोबर्टो किम्मारुश ने भी सीमाप्रान्त का दौरा किया इस बाँध की आयोजना की। इस बाँध के और देशी फौज की परेट देखकर कहा-सोमाली पास पन्द्रह लाख एकड़ भूमि एक जापानी कम्पनी भाइयो ! इटली के हवाई जहाज़ आ रहे हैं। हमारी को कपास बोने के लिए दी गई। इसके बदले में क़िलेबन्दी पूरी हो रही है। थोड़े ही दिनों में हम जापान ने अबीसीनिया को हथियार देने का वादा बिना किसी मुठभेड़ के असभ्य अबीसीनिया पर किया। जापान को अन्य भी कई व्यापारिक अधिकार कर लेंगे। सुविधायें दी गई। इन सब योजनाओं में सम्राट् यह घटना गत वर्ष के नवम्बर महीने की है। सिलासी ने योरप की मुख्य महाशक्तियों के स्थान अबीसीनिया और ब्रिटिश व इटालियन सोमालीलेंड
फा. ११
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७४
सरस्वती
[भाग ३६
की मध्यवर्ती सीमा निश्चित नहीं है। इसका निश्चय उलवल की घटना को हुए आज आठ मास करने के लिए अँगरेजों और अबीसीनियावालों का हो गये हैं। इस अवधि में स्थिति अधिक पेचीदा एक कमीशन उलवल में बैठा हुआ था। उलवल हो गई है। सन १९२५ में इटली की अबीसीनिया सोमालीलेंड की पश्चिमी सीमा से पचास मील को हड़पने की इच्छा में फ्रांस बाधक था। आज इधर छोटा-सा शाद्वल (ओसिस) है। एक दिन कुछ सन् १९३५ में वह उसका समर्थक है। योरप में इटालियन उलवल में पहुंचे। उन्होंने अबीसीनिया जर्मनी के मुकाबले में फ्रांस इटली की मदद चाहता के तम्बुओं पर फायर किया। इससे १०७ अबीसी- है। अफ्रीका में उसने इटली को सुविधायें देकर नियनों की जानें गई और पचास से अधिक जख्मी योरप में अपना पक्ष प्रबल कर लिया है। इस साल हुए। इस फायर के समय स्वयं कैप्टन किम्मारुटा के शुरू में हुए फ्रांस-इटली के समझौते का मुख्य वारडेर में थे। यह स्थान भी अबीसीनिया में है। आधार यही है। इस समझौते के अनुसार फ्रांस ने फायर के बाद ही उलवल पर इटली के दो हवाई इटली को अवीसीनिया में मनमानी करने की - जहाज मँडराते दिखाई दिये। अँगरेज़ और अबी- स्वीकृति दे दी है। साथ ही अपने सोमालीलेंड का सीनियावाले दोनों इस घटना से विचलित हुए। उत्तरार्द्ध भी उसने इटली को सौंप दिया है। जिबूती दोनों ने किम्मारुटा को पत्र लिखा । कैप्टन किम्मा- से अदिसअबाबावाली रेल-लाइन में भी फ्रांस ने मटा ने उत्तर दिया कि उलवल और वारडेर दोनों इटली को साझीदार बना लिया है। इस प्रकार स्थान इटली के हैं। यहाँ बैठकर ब्रिटिशों तथा मुसोलिनी ने अपने मार्ग को निष्कण्टक कर अबीसीनियनों का मंत्रणा करना उचित नहीं है। लिया है। इधर तो उसने यह पत्र लिख दिया, उधर मुसोलिनी इटली फ्रांस की मूक सहमति पाकर अबीको किम्मारुटा ने खबर दी कि अबीसीनिया की सीनिया से लोहा लेने के लिए तैयार हो गया है, फौज ने इटली के कुछ गाँवों पर हमला किया है, लेकिन ब्रिटेन, जापान व अमेरिका इस विषय में इससे दोनों ओर के आदमी आहत हुए हैं। उसके साथी नहीं हैं। यह वह खूब जानता है। ____उलवल की इस घटना से सारे इटली में उत्ते- अबीसीनिया के दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर में जना फैल गई। मुसोलिनी कई वर्ष से ऐसे मौके की ब्रिटेन का साम्राज्य फैला हुआ है। इटली के प्रबल प्रतीक्षा में ही थे। उन्होंने अबीसीनिया के सम्राट हो जाने से ब्रिटेन के स्वार्थों को भारी धक्का लगेगा। को कड़ा पत्र लिखा। इस पत्र में तीन शर्ते थीं- दूसरी ओर ताना झील के निकट के अमेरिकन । १-उलवल की घटना के लिए खेद प्रकाशित किया बाँध के कारण वह अबीसीनिया से भी खुश नहीं जाय । उस प्रान्त की अबीसीनियन सेना इटालियन है। कारण यह है कि इस बाँध के बन जाने से . झण्डे को सलाम करे। २-अबीसीनिया दो लाख ब्ल्यूनाइल का पानी सूडान व मिस्र में न जा सकेगा। डालर हरजाने के दे। ३–हमला करनेवाले अबी- नील नदी के जल पर ही मिस्र की कपास की फसल सीनियन फ़ौज से निकाल दिये जायँ । इस पत्र के निर्भर है। पिछले मार्च में ब्रिटेन अपना जेला । अनुसार अबीसीनिया के सम्राट्ने इटालियन झण्डे की बन्दरगाह देकर अबीसीनिया को प्रसन्न करना सलामी तो क़बूल कर ली, लेकिन बाक़ी शर्तो को मानने चाहता था। उसका ख़याल था कि अबीसीनिया से इनकार कर दिया। इससे नाराज होकर मुसोलिनी इसके बदले में इटली को तथा उसे आर्थिक सुविधायें ने खुले आम युद्ध की धमकी दे दी और निर्बल अबी- दे देगा जिससे यह झगड़ा खतम हो जायगा, लेकिन सीनिया ने इस मामले की अपील राष्ट्र-संघ को कर दी। इस शर्त को इटली ने ही नहीं माना। इटली को
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
अबीसीनिया
२७५
भय था कि जेला बन्दरगाह से अबीसीनिया को बनाने में लगे थे, उस समय जापान और अबीयुद्धोपयोगी सामान मँगाने में सुविधा रहेगी। इटली सीनिया ही ऐसे दो काले देश थे जिन्होंने इस के इस इनकार के बाद से ब्रिटेन ढीला पड़ गया साम्राज्यवाद की बाढ़ को रोकने का काम किया है । यद्यपि अब भी वह अबीसीनिया में इटली के था। जापान ने रूस को हराया था और अबीअधिकार या संरक्षण को स्वीकार नहीं करता, सीनिया ने इटली को। इसके बाद जापान तो उन्नत फिर भी वह इस मामले में इटली से रार मोल लेना हो कर संसार के अग्रणी राष्ट्रों में आ गया, लेकिन नहीं चाहता। अमेरिका इस मामले में तटस्थ है। वह रूस से उसका विरोध आज भी बना है। अबीन तो इटली का साथी है और न अबीसीनिया का सीनिया यद्यपि जापान की भाँति उन्नति तो नहीं विरोधी। हाँ! अस्त्र-शस्त्र भेजने में वह आज भी कर सका, परन्तु स्वतंत्र बना रहा। आज मुसोलिनी अबीसीनिया की मदद कर रहा है। जापान स्पष्टतः के नेतृत्व में इटली अबीसीनिया की स्वतंत्रता को अबीसीनिया का मददगार है। युद्ध होने की हालत फिर नष्ट करना चाहता है। योरप के गोरे राष्ट्र में जापान से अबीसीनिया को बहुत आशायें हैं। उसके साथ नहीं हैं, यह ठीक है, लेकिन खुले शब्दों इन्हीं के आधार पर पिछले कुछ वर्षों से जापान ने में इटली का विरोध भी नहीं करते। राष्ट्रसंघ में ६ अबीसीनिया में पर्याप्त आर्थिक सुविधायें प्राप्त महीने से अबीसीनिया की अपील की सुनाई नहीं की हैं। ताना झील के निकट १५ लाख वर्ग मील होती। उसका भी यही कारण है। जापान न तो भूमि में जापान कपास पैदा कर रहा है। देश के गोरा है और न राष्ट्रसंघ का सदस्य है, अतः वह खनिजों को खोदने का ठेका भी उसे मिला है और भावी-युद्ध में अबीसीनिया का साथ दे दे तो इसमें सबसे बढ़ कर देश के कल-कारखानों की उन्नति कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। के लिए जापानी पूँजी मुक्तहस्त से लगाई जा रही इटली और अबीसीनिया में कब जंग छिड़ेगा, है। यही कारण है कि आज इटली में जापान का यह कौन कह सकता है ? तैयारियाँ दोनों ओर से विरोध किया जाता है। अबीसीनिया के साथ हो रही हैं। वर्षा के बाद अबीसीनिया की सीमा जापान की सहानुभूति में एक और भाव भी काम पर इटालियन फ़ौज मँडराती दिखलाई देंगी, यह तो कर रहा है। इटली का दावा है कि वह असभ्य भासता ही है। यदि यह युद्ध छिड़ा तो यह केवल तथा काले अबीसीनिया का सुधार चाहता है। इन दो देशों तक ही सीमित न रहेगा। संसार के • दुर्भाग्य से जापान की भी गणना काले देशों में की बड़े बड़े राष्ट्र इसमें दनदनाते नज़र आवेंगे। इन्हीं जाती है । काले और गोरे का सवाल पैदा होने की कारणों से आज संसार की आँखें अफ्रीका के अर्धहालत में जापान का कालों से सहानुभूति दिखलाना सभ्य किन्तु एकमात्र स्वतंत्र राष्ट्र अबीसीनिया की स्वाभाविक ही है। १९ वीं सदी के अन्त में जब ओर लगी हुई हैं। योरपीय राष्ट्र अफ्रीका व एशिया में अपना साम्राज्य
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामयिक साहित्य
आप अपने लिए पाप अथवा अनुचित समझते हैं वह दूसरों के लिए अपाप और उचित कैसे हो गया । पर उस समय आपने मेरी रुग्णावस्था के कारण इस सम्बन्ध में कुछ न लिखना ही उचित समझा। अब सामयिक परिस्थिति और कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक के कारण यह प्रश्न श्रावश्यक और प्रयोजनीय हो गया है । इसलिए यह पत्र मैं फिर आपकी सेवा में भेज रहा हूँ और इसकी प्रतिलिपि साथ ही अखबारों में छपने के लिए भी भेज रहा हूँ । आशा है, आप मेरी इस धृष्टता को क्षमा करेंगे ।
महात्मा गांधी और श्री शिवप्रसाद गुप्त का
पत्र-व्यवहार
ग्रेस की वर्तमान नीति के
14 सम्बन्ध में हाल में ही बाबू शिवप्रसाद गुप्त
महात्मा गांधी में एक महत्त्वपूर्ण पत्रव्यवहार हुआ है । वे पत्र 'आज' में प्रकाशित हो चुके हैं।
उनमें से आरम्भ के दो पत्र हम यहाँ उद्धृत करते हैं । गुप्त जी का पत्र -
कां
पूज्य बापू जी -- चरणों में सादर प्रणाम ।
मैं अपनी रुग्णावस्था के कारण बाहर-भीतर आनेजाने में समर्थ अवश्य ही हूँ, पर जिस तरह की धाँधली आजकल कांग्रेस में हो रही है वह भी देखी और सही नहीं जाती । मेरी समझ में तो यही नहीं आ रहा है कि इस समय जो नीति कांग्रेस में बरती जा रही है वह आपकी है अथवा नहीं, या यों समझिए कि आप उससे सहमत हैं या नहीं, क्योंकि यदि आप कांग्रेस के मामले में इस समय तटस्थ हैं तो घड़ी घड़ी कार्यकारिणी यानी वर्किंग कमेटी जहाँ कहीं आप रहते हैं वहीं क्यों बुलाई जाती है । यदि समिति के सदस्यों को बाहर रहकर परामर्श देने में और उनके निर्णयों में सहायक होने में कोई हानि नहीं समझते तो उसके बाहर रहने की क्या आवश्यकता है और उसमें श्राप शामिल ही क्यों नहीं हो जाते ?
आपका कदाचित् स्मरण होगा कि कुछ दिन हुए मैंने आपकी सेवा में कौंसिल प्रवेश के सम्बन्ध में एक पत्र द्वारा यह पूछने का साहस किया था कि जिस चीज़ को
२७६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
सेवा - उपवन, काशी
१४ श्रावण १६६२
महात्मा जी का उत्तर
विनीत
शिवप्रसाद
भाई शिवप्रसाद,
तुम्हारा खत मिला है । रुग्णावस्था में भी तुमने कब मुझको भूला है ? कांग्रेस में से मेरे निकलने के बाद कार्यवाहक समिति इसी बखत पहली आई; लेकिन यहाँ आवे या न आवे इससे क्या ? तुम्हारा प्रश्न तो यह है। कि कांग्रेस में से निकल जाने के बाद उसमें मैं क्यों रस लेता हूँ, क्यों किसी को कुछ सलाह देता हूँ ? तुमको मालूम नहीं होगा कि निकलते समय मैंने कह दिया था कि यदि किसी बारे में मेरा अभिप्राय पूछा जायगा तो मैं अवश्य दूँगा । कांग्रेस में अधिकार रखना और मौका आने से किसी कांग्रेसवालों को सलाह देना इन दो वस्तु में मैं तो बड़ा भेद पाता हूँ । यहाँ समिति रही, मैंने कभी उसमें हिस्सा नहीं लिया। अभी भी उसकी सब कार्रवाई का मुझे पता नहीं है। लेकिन जब किसी सदस्य की इच्छा होती थी तब मुझे वे पूछ जाते थे । इसमें मैं कुछ भी अयोग्यता नहीं पाता । कांग्रेस के हित के कारण मैं बाहर
www.umaragyanbhandar.com
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामयिक साहित्य
संख्या ३]
निकला हूँ । कांग्रेस का सबक थोड़ा ही मिटा दूँ । यदि मैं योग्यता होते हुए भी किसी की अभिप्राय देने का इनकार करूँ तो मैं धर्मच्युत हूँगा ।
रही बात कौंसिल प्रवेश की। मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस समय यह प्रवेश सामान्यतया धर्म है । मेरे लिये नहीं है, क्योंकि मेरा मन दूसरी ओर है । मेरी साधना हिंसक कानून भंग की है। इस वस्तु के संशोधन में मेरे लिये कौंसिल प्रवेश अयोग्य है । तुम कहाँ नहीं जानते हो कि एक ही वस्तु एक के लिए जहर होती है दूसरे के लिए अमृत, एक ही व्यक्ति के लिये एक समय वही वस्तु जहर रहती है दूसरे समय अमृत ।
मेरी आशा है कि अब तुम्हारे सब प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा और समाधान भी हुआ होगा । मेरी बात मानो तो कौंसिल प्रवेश की बात मेरे पर छोड़ दो और ग्राम प्रवेश का और हिंदी - प्रचार का काम पेट भर के करो । इसमें कहाँ कम सेवा है ? यदि इन कामों में तन्मय होगे तो दूसरी-तीसरी बातों का ख्याल तक करने का तुमको समय नहीं रहेगा ।
ईश्वर तुमको पूर्ण आरोग्य प्रदान करे ।
वर्धा
५-८-३५
बापू के आशीर्वाद
भारत के पत्र और पत्रकार
अखिल भारतीय पत्रकार सम्मेलन का गत १७ अगस्त को कलकत्ते में जो तीसरा अधिवेशन हुआ था, 'लीडर' के सम्पादक श्रीयुत सी० वाई : चिन्ता मरिण ने उसके सभापति के आसन से एक अत्यन्त सारगर्भित और सामयिक भाषण दिया है । अपने भाषण में आपने भारत के पत्रों और पत्रकारों की स्थिति के सम्बन्ध में बहुत-सी ज्ञातव्य बातें कहीं हैं । यहाँ हम आपके भाषण का उक्त अंश 'भारत' से उद्धृत करते हैं—
पत्रकार का पेशा एक पवित्र कार्य है। समाचार-पत्रों का जन्म जनता की शिक्षा के उद्देश से हुआ था । उनके व्यापारिक पहलू का तो हाल में ही विकास हुआ है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
२७७
लोगों की यह भावना थी कि बालकों और नवयुवकों को तो विद्यालयों में शिक्षा मिल जाती है, परन्तु बड़े लोगों को भी जीवन भर शिक्षा की आवश्यकता रहती है और इस काम में समाचारों तथा विचारों को प्रकाशित करनेवाले पत्रों तथा पत्रिकाओं से बड़ी सहायता मिल सकती है। इसी भावना के कारण पत्र पत्रिकाओं का जन्म हुआ । हमारे देश की सौ वर्ष पहले की तथा आज की अवस्था की तुलना करने पर यह कहने का कौन साहस कर सकता है कि हमारे पूर्वजों का यह विचार ग़लत था ? मेरे कथन का अभिप्राय यह नहीं है कि पिछले सौ वर्षों में जनता की मनोवृत्ति में जो आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ है उसका श्रेय एकमात्र पत्र-पत्रिकाओं को ही है । निःसन्देह इसका श्रेय सबसे अधिक तो विद्यालयों को है, परन्तु उनके बाद दूसरा नम्बर पत्र-पत्रिकाओं का ही है । अगर आज देश में इतनी जाग्रति हो गई है तो हमारी राजनैतिक तथा अन्य संस्थाओं को भी इसका श्रेय अवश्य मिलना चाहिए । परन्तु क्या उन्हें पत्र-पत्रिकाओं से बड़ी भारी सहायता नहीं मिली है ? केवल राजनैतिक आन्दोलन में ही नहीं, बरन समाज-सुधार तथा औद्योगिक उन्नति के यत्नों में भी पत्रपत्रिकाओं से बड़ी सहायता मिली है। जिस समय हमारे अधिकांश देशवासी पत्र-पत्रिकाओं के महत्त्व को समझ भी नहीं सकते थे, उस समय हमारे जिन पूर्वजों ने उन्हें जन्म दिया वे हम सबकी कृतज्ञता के अधिकारी हैं । उनमें राजा राममोहन राय तथा ऋषिकल्प दादा भाई नौरोजी के नाम मुख्य हैं । तब से अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने विभिन्न प्रान्तों में सम्पादक के आसन को सुशोभित किया है । जिस पेशे में हरिश्चन्द्र मुकर्जी और कृष्णदास पाल, शम्भूचन्द्र मुकर्जी और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, शिशिर - कुमार घोष और मोतीलाल घोष, विश्वनाथ नारायण माण्डलिक और नारायण गणेश चन्द्रावरकर, बालगंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले, सुब्रह्मण्य अय्यर, करुणाकर मेनम और कस्तूरीरंग अय्यंगर, पंडित मदनमोहन मालवीय और पंडित विशननारायण दर, बाबू गंगाप्रसाद वर्मा और लाला लाजपत राय जैसे व्यक्ति कार्य कर चुके हैं, उसे लज्जित होने का कोई कारण नहीं हो सकता ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७८
सरस्वती
इन महान् व्यक्तियों के पथ पर चलनेवाले हम छोटे लोग भी अगर इस बात का गर्व करें कि हमारा कार्य बड़ा पवित्र है और हमारे पूर्वज बड़े महान् थे तो हमारा यह गर्व अक्षम्य नहीं समझा जायगा । हम उनके चरण-चिह्नों पर चलते हैं, उनके आदर्शों का सम्मान करते हैं और उतनी योग्यता न होते हुए भी उन्हीं की भाँति उसी भाव से अपनी और उनकी मातृभूमि की सेवा करना चाहते हैं ।
यहाँ मुझे यह न भूल जाना चाहिए कि भारत काम करनेवाले कई अँगरेज़ पत्रकार भी ऐसे हुए हैं जिनका उनके समकालीन भारतवासी बड़ा सम्मान करते थे और आज भी हम उनको बड़े सम्मान के साथ स्मरण करते हैं। राबर्ट नाइट, मार्टिन वुड, विलियम डिग्बी, एस० के० रैटक्लिफ़ और ग्लीन बारलो ऐसे ही व्यक्ति थे; और श्री बी० जी० हारनीमैन भी ऐसे ही व्यक्ति हैं । स्वर्गीय श्रीमती ऐनीबीसेंट का स्थान तो इन सबसे भी ऊँचा है । यह हमारे लिए खेद की बात है कि आज भारत में जो अँगरेज़ पत्रकार कार्य कर रहे हैं वे ब्रिटेन के अस्थायी हितों का ही ध्यान रखते हैं और जिसमें वे रह रहे हैं तथा जिस देश की जनता की सहायता के आधार पर ही उनके पत्र चल रहे हैं उसकी सेवा करना वे अपना कर्तव्य नहीं समझते ।
अन्तर्जातीय विवाह-बिल
सुप्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान बाबू भगवानदास असेम्बली के आगामी अधिवेशन में एक अन्तर्जातीय विवाह-बिल उपस्थित करने जा रहे हैं। इस पर सहयोगी 'नवयुग' ने एक अग्र लेख लिख कर यह सिद्ध किया है कि देश की वर्तमान बदली हुई परिस्थिति में ऐसे क़ानून की आवश्यकता है और प्राचीन काल में ऐसे विवाह होते भी थे। लेख का एक अंश इस प्रकार है
शास्त्रकारों ने अनुलोम और प्रतिलोम दोनों प्रकार के विवाहों की इजाज़त दी है। इतना ही नहीं, शास्त्रकार गान्धर्व, राक्षस विवाह को भी विवाहों में गिनते आये हैं। प्राचीन काल में अन्तर्जातीय विवाह प्रचलित थे ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
भीम का हिडिम्बा से विवाह होना और माता कुन्ती और युधिष्ठिर का उसको शास्त्रानुमोदित बताना और भीम को इस कार्य पर उनका आशीर्वाद देना यही सूचित करता है कि अन्तर्जातीय विवाह प्राचीन काल में प्रचलित थे और समाज में वे चादर से देखे जाते थे ।
ग्राज से बीस साल पहले अन्तर्जातीय विवाह का विरोध जिस प्रकार किया जाता था श्राज वह भाव नहीं रहा है | आज साधारण समाज ऐसे विवाहों का यदि दर की दृष्टि से नहीं देखता तो कम कम उसका विरोध नहीं करता । श्रौंध के पन्त प्रतिनिधि सदृश कट्टर सनातनधर्मी नरेश का अन्तर्जातीय विवाह का पक्षपाती होना इस बात का सूचक है कि समाज के विचारक और प्रगतिशील व्यक्ति इसकी आवश्यकता का अनुभव करते हैं ।
इस समय परिस्थिति और अवस्था भी बदल गई है। बहुत-से लोग नौकरी व्यवसाय व्यापार के कारण अपने जन्म-स्थानों को छोड़कर दूसरे प्रान्तों में जाकर स्थायी रूप से बस गये हैं। उनके लिए वहाँ अपनी ही जाति, उपजाति में अपनी संतान की शादी करना सम्भव नहीं रहा है । केवल विवाह के लिए वे अपने जन्म-स्थान को जा नहीं सकते। क्योंकि बहुत से लोगों का अपना पुराना जन्म-स्थान छोड़े हुए दो दो तीन तीन पुश्तें हो गई हैं। इस बदली परिस्थिति के कारण यह आवश्यक हो गया है। कि जाति को तोड़कर किये गये विवाह क़ानूनी माने जायँ ।
इस बिल की आवश्यकता एक कारण से और भी है । देश में राष्ट्रीयता की स्थापना उस समय तक सम्भव नहीं है जब तक कि मौजूदा असंख्य जाति-भेद और उपभेद विद्यमान रहेंगे । इनका अन्त अन्तर्जातीय विवाह के द्वारा ही हो सकता है । इसलिए राष्ट्र का बल बढ़ाने, युवकयुवतियों को अपना जीवन-संगी चुनने के लिए विस्तृत क्षेत्र देने और नई पीढ़ी को बलवान बनाने के वास्ते भी यह आवश्यक है कि अन्तर्जातीय विवाह क़ानून संमत माने जायँ ।
इस क्षेत्र में गौड़ एक्ट और ब्रह्मसमाज एक्ट पहले
www.umaragyanbhandar.com
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
सामयिक साहित्य
२७९
से मौजूद हैं; मगर सर गौड़ के सिविल मैरिज एक्ट धर्म के अनुसार अत्याज्य वा अविच्छेद्य है और मुसलसे बहुत कम लोगों ने लाभ उठाया है। उधर डाक्टर मान इसलिए तलवार रक्खें कि सिख कृपाण रखते हैं तो इन भगवानदास के बिल के पास होने के साथ ही उससे पहले कृपाणों और तलवारों के बीच में अन्य सम्प्रदायों की क्या
और बाद में हिन्दूरीति से किये गये सब अन्तर्जातीय गति होगी ? क्या वे बेमौत मारे जाने को राजी हो जायँ ? विवाह कानूनी करार दिये जायेंगे । डाक्टर गौड़ के सिविल यदि सिखों को अपने गुरुद्वारों की और मुसलमानों को मैरिज एक्ट से शादी कराने के लिए विवाह की रजिस्ट्री मसजिदों की रक्षा करनी है तो हिन्दुओं को मन्दिरों कराना आवश्यक है। इससे बचने के खयाल से बहुत-से की और ईसाइयों को गिर्जाघरों की रक्षा करनी ही होगी । लोग अन्तर्जातीय विवाह नहीं कराते । डाक्टर भगवान- इससे मालूम होगा कि यह प्रश्न जिस तरह केवल दास का बिल उनकी यह बाधा दूर कर देगा।
सिखों और मुसलमानों का नहीं है उसी तरह केवल गुरु
द्वारों और मसजिदों का भी नहीं है। मन्दिरों को भी तलवार रखने का दावा
दावा करने का अधिकार है। पर भिन्न भिन्न धर्मों के लाहौर के मुसलमानों ने माँग पेश की है कि अनुयायी हमें क्षमा करें, हम तो मन्दिरों और मसजिदों सिक्खों कृपाण रखते हैं इसलिए उन्हें तलवार रखने से मनुष्यकृत सब उपासना स्थान से उस मंदिर को की इजाजत दी जाय। पर भारत में सिख और अधिक पवित्र और रक्षणीय समझते हैं जो स्वयम् परमुसलमान ही नहीं बसते । हिन्दू, ईसाई आदि और मात्मा ने बनाया है और जो परमात्मा के अस्तित्व का लोग भी बसते हैं। वे क्या करें ? इन सब बातों उज्ज्वल प्रमाण है। हमारा मतलब मनुष्य-शरीर से है। पर विचार करते हुए सहयोगी 'आज' ने एक मह- हम यह बात क्षण भर के लिए भी मानने को तैयार नहीं त्त्वपूर्ण अग्र लेख प्रकाशित किया है। उसका कुछ हैं कि ईट-पत्थरों से मनुष्य-द्वारा बनाये गये मन्दिरों और अंश हम नीचे उद्धृत करते हैं
मसजिदों की रक्षा के लिए तो कृपाणे और तलवारों की लाहौर में मुसलमानों की सार्वजनिक सभा ने यह आवश्यकता है और ईश्वर के बनाये सजीव मन्दिर दावा पेश किया है कि जिस तरह सिखों को कृपाण रखने जिसमें वह स्वयम् वास करता है, अरक्षित छोड़ दिये की स्वतन्त्रता दी गई है, उसी तरह मुसलमानों को भी जायँ । ईट-पत्थरों के मानवकृत उपासना-स्थानों की अपनी मसजिदों की रक्षा के लिए तलवार रखने की स्वत- रक्षा के लिए भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के उपान्त्रता मिलनी चाहिए। प्रश्न हँसकर उड़ा देने योग्य नहीं सकों को यदि शस्त्र दिये जायँगे तो ईश्वर के बनाये है। सिखों का धर्म है कृपाण रखना, अतएव कृपाण उन मन्दिरों की अवस्था और भी विपज्जनक हो जायगी। से छीना नहीं जा सकता। तलवार के सम्बन्ध में इस्लाम यह बात प्रत्येक समझदार को माननी ही पड़ेगी। अतकी ऐसी काई आज्ञा नहीं है सही, पर मुसलमान कह एव हम इस बात पर जोर देंगे कि प्रत्येक नागरिक को सकते हैं कि धर्म के ही कारण से क्यों न हो, पर जब एक अपने बाल-बच्चों की और अपनी तथा अपने रहने के सम्प्रदाय को शस्त्र रखने से रोकना न सम्भव है न मन्दिर की रक्षा करने के लिए शस्त्र रखने की स्वतन्त्रता उचित, तो मुसलमानों को भी शस्त्र रखने की स्वतन्त्रता पहले मिलनी चाहिए, बाद को मसजिद और मन्दिर की मिल जाय । हम इस दावे का औचित्य स्वीकार करते हैं, रक्षा करने के लिए तलवार रखने की इजाज़त दी जानी पर मुसलमानों को जो यह दावा कर रहे हैं, मानना चाहिए। पड़ेगा कि प्रश्न यहीं समाप्त नहीं हो जाता। जो हक मुसलमानों को है वही हिन्दू, ईसाई आदि अन्य सम्प्रदायों बर्नाड शा के स्वाधीनता-सम्बन्धी विचार को भी है। सिख कृपाण इसलिए रक्खें कि वह उनके जार्ज बर्नार्ड शा का कहना है कि संसार में
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८०
सरस्वती
वास्तविक शान्ति और स्वाधीनता की स्थापना तब हो सकती है जब समाज के धन का बँटवारा समानता के आधार पर हो। इस बात को लेकर वे वर्षों
आन्दोलन करते चले आ रहे हैं। हाल में ही अमरीका के 'नेशन' नामक समाचार-पत्र में उनका एक ऐसा ही लेख प्रकाशित हुआ है जिसका सारांश 'प्रताप' में प्रकाशित हुआ है। उसका कुछ अंश यहाँ हम उद्धृत करते हैं
मनुष्य मनुष्य की गुलामी करे, यह क्या है ? यह शरीर और श्रात्मा का तिरस्कार है । कवियों ने गुलामी की जी भर निन्दा की है। उन्होंने एक स्वर से यह घोषणा की है कि एक मनुष्य वह चाहे जितना अच्छा क्यों न हो, दूसरे मनुष्य का स्वामी बनने के योग्य नहीं । मार्क्स ने अपने समस्त जीवन को इस बात को सिद्ध करने में बिता दिया था कि जब तक गुलामी की प्रथा कानून के द्वारा नहीं हटा दी जाती तब तक उसका विनाश नहीं हो सकता; क्योंकि मनुष्य के स्वार्थ और निर्दयता का कभी नहीं होता । मनुष्य के स्वार्थ और निर्द यता के कारण समाज में गृह-युद्ध चला करता है, वह मालिकों और गुलामों की श्रेणियों में विभाजित है । एक और मज़दूर सभायें हैं और दूसरी ओर पूँजीपतियों के संघ हैं ।
पूँजीपति लोग पार्लियामेंटों, स्कूलों, समाचारपत्रों दि के द्वारा इस बात का प्रयत्न करते हैं कि जन-साधारण अपनी गुलामी का अनुभव न कर सके। हमें शुरू से ही यह सबक सिखाया जाता है कि हमारा देश स्वाधीन है । जब हम वोट देने लायक हो जाते हैं तब हमसे कहा जाता है कि तुम्हारे लिए वेतन संघ की स्थापना हुई है, निःशुल्क शिक्षा का प्रबन्ध किया गया है, राष्ट्रीय प्रौद्योगिक निर्माण योजना कार्यरूप में परिणत की जा रही है, बेकारों का सरकारी सहायता दी जाती है यदि आदि । पर वास्तव में देखा जाय तो इतने पर भी जनसाधारण भूखा और नंगा रहता है ।
स्कूलों और विश्वविद्यालयों से निकले हुए रईसों के लड़के समझते हैं कि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था सबसे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
अच्छी है । इसका कारण यह है कि इस व्यवस्था में उनके साथ पक्षपात किया जाता है। इसी लिए वे इसकी रक्षा के लिए जी तोड़कर कोशिश करते हैं । भ्रमपूर्ण ऐतिहासिक पुस्तकों, बेईमानी से भरे हुए अर्थशास्त्र आदि का सीख कर रईस का लड़का अपने केा जनसाधारण की श्रेणी से बड़ा और अधिक सुसंस्कृत समझता है । शासकगण और पूँजीपति यह जरूरी समझते हैं कि उन्हें सुन्दर और अच्छे कपड़े पहनना चाहिए, खास ढङ्ग से उच्चारण करना चाहिए, पहले दर्जे में सफ़र करना चाहिए, केवल घण्टी बजा देने से यदि कोई साधारण आदमी जूते साफ़ कर सकता है तो उन्हें स्वयं नहीं साफ़ करना चाहिए यदि आदि । इसके अतिरिक्त वे जनसाधारण को मूर्ख और अन्धविश्वासी बनाये रखना चाहते हैं, जिससे वह पूँजीपतियों के हुक्म को बिना आनाकानी के बजाया करे ।
जनसाधारण को कानून द्वारा यह करने और वह न करने के लिए बाध्य किया जाता है। यदि वे कानूनों को न मानें तो अदालतें उन्हें सजा दे देंगी। मिल मालिक मज़दूरों का शोषण करने के लिए स्वतंत्र हैं । मज़दूरों के पास एक ही चारा रह जाता है। वह है हड़ताल । पर पुलिस उन्हें हड़ताल भी नहीं करने देती । इन सब बातों को देखते हुए यह ज़रूरी मालूम पड़ता है कि हमें वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था में परिवर्तन करना होगा ।
पर केवल राजनैतिक व्यवस्था में परिवर्तन करने से काम न चलेगा । सामाजिक और आर्थिक प्रणाली में भी उलट-फेर करना होगा। इंग्लैंड का जनसाधारण जिसे आज़ादी समझता है वह दर असल आज़ादी नहीं । सच्ची आज़ादी तो तभी कायम होगी जब समाज के धन का बँटवारा समानता के आधार पर हुआ करेगा ।
जन-संख्या का प्रश्न
श्रीयुत ज्योति: प्रसाद 'निर्मल' द्वारा सम्पादित 'हिन्दुस्तान' में हिन्दुस्तान की गिरती हालत शीर्षक एक महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुआ है। उस लेख के
www.umaragyanbhandar.com
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
सामयिक साहित्य
२८१
लेखक हैं श्रीयुत विनायक गणेश वझे बी ए० । लेख -हमारे विवाह का वयमान भी बढ़ाने की आवश्यकता है । का एक अंश इस प्रकार हैं -
अभी हाल में श्रीनिवास शास्त्री ने अन्नामलाय-विश्वयद्यपि हमारी जनन संख्या का परिमाण बहुत ज्यादा विद्यालय में इस प्रश्न पर दृष्टिक्षेप करते हुए बड़ी चुस्त है, तथापि उसकी जन-संख्या घट ही रही है। १८७५ से टीका की थी। हमारी वर्तमान सामाजिक परिस्थिति के १६७० तक भारत में ११ करोड़ से ऊपर लोग मर गये। सुधार का कोई न कोई उपाय अवश्य ढूँढ़ निकालना इससे स्पष्ट है कि हिन्दुस्तान कितना भूखा-कंगाल हो चाहिए । श्रीनिवास शास्त्री ने शारदा-ऐक्ट का जिक्र रहा है । अनावृष्टि इत्यादि आपत्तियों को दूर करने के करते हुए कहा था कि उसकी जो अवहेलना सरकार और लिए हमारी सरकार ने कोई प्रयत्न नहीं किया है। महा- जनता, दोनों द्वारा की जा रही है वह किसी भी सम्मान्य मारी ने भी हमारे ऊपर कम गज़ब नहीं ढाया है। देश के लिए लजाजनक है । शारदा-ऐक्ट केवल नाम ही १६०० से लेकर १६२० तक ११ करोड़ से भी ऊपर के लिए है, क्योंकि धड़ाधड़ उसकी अवहेलना हो रही है । लोग इसके शिकार बन चुके हैं। १६१६ में सिर्फ इसके लिए संतति-नियमन को भी व्यवहार में लाने की ६ महीनों में ८४ लाख मनुष्य मृत्यु-मुख में चले गये। ज़रूरत है, क्योंकि वर्तमान परिस्थिति में दो-तीन से हिन्दुस्तान में ४३.६ प्रति हज़ार पैदा होते हैं और ३८५ ज़्यादा बच्चे पैदा होना माँ बाप, दोनों, के लिए हानिकारक प्रति हज़ार मरते हैं । अमेरिका में ३५.१ प्रति हज़ार है। इस वक्त दरिद्रता भी इतना भयानक रूप धारण पैदा होते हैं और १७°४ प्रति हज़ार मरते हैं। इंग्लैंड किये हुए है कि उसके निवारणार्थ उपाय निकालना नितांत में २२ प्रति हज़ार पैदा होते हैं और १२ प्रतिशत आवश्यक है । हिन्दुस्तान में प्रत्येक मनुष्य जो कृषि करता मरते हैं । इस प्रकार इन देशों की तुलना में हिन्दुस्तान है, वर्ष में सिर्फ ४८) पैदा करता है, जहाँ जापान का में अकाल-मृत्यु और बाल-मृत्यु की संख्या बहुत बढ़ी- ८५), ग्रेटब्रिटेन का ६२), कनाडा का ३४४), और चढ़ी है।
अमेरिका का १७५) पैदा करता है। उद्योग-धन्धों अतएव इस प्रश्न की ओर लोगों को शीघ्र ही ध्यान की स्थिति तो एकदम निराशाजनक है। उसमें देना चाहिए । लोगों के स्वास्थ्य पर और उनकी आर्थिक हिन्दुस्तान का एक मनुष्य वर्ष भर में सिर्फ १२) परिस्थिति पर विशेष ध्यान देने और उसके सुधारने की कमाता है। जहाँ जापान का मनुष्य १८५), ग्रेटब्रिटेन श्रावश्यकता है। इसके लिए जनता में जागृति होनी का ४६५), और कनाडा का ५४५), अमेरिका का ६६३) चाहिए । हमारा अज्ञान और हमारी ग़रीबी ही हमारे दारि- कमाता है। ऐसी परिस्थिति में अगर शीघ्र ही कोई द्रय के मूल कारण हैं । हमारे आहार-विहार भी आरोग्य- उपाय न किया गया तो हमारे देश की क्या दशा होगी, प्रद रीति से होने चाहिए । हम को जन-संख्या की बाढ़ भी कहा नहीं जा सकता । यहाँ के व्यवसाय और उद्योग-धंधों रोकनी चाहिए । १९२१ से १६३१ तक उसमें १०.५ प्रति के बढ़ाने की बड़ी ज़रूरत है। यहाँ ६६.४ प्रतिशत शत की बाढ़ हुई है। अभी कुछ दिन हुए श्री हुसेन इमाम लोग कृषि में हैं और सिर्फ १० प्रतिशत लोग उद्योग-धंधों ने इस श्राशय का बिल कौंसिल अाफ़ स्टेट में पेश किया में लगे हैं । इन बातों को ध्यान में रखते हुए चारों ओर से था कि इस जन-संख्या को घटाने की कोशिश की जाय। भारत की प्रगृति का होना अत्यन्त आवश्यक है। भलाई परन्तु लोगों के औदासीन्य से वह पास नहीं हो सका। इसी में है कि हम समय पर चेते।
फा. १२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
a
संसार की गति
-
-
-
योरप का संकट
बल पर राष्ट्र-संघ कोई वैसा जोखिम क्यों मोल लेने लगा। जा छले महायुद्ध के बाद से योरप इटली को यह सब मालूम है। इसी से वह जापान का
5 की राजनीति के मुख्य सूत्र- एक दूसरा उदाहरण सभ्यता के प्रचार के नाम पर
VENI धार ग्रेटब्रिटेन और फ्रांस यही संसार के सामने उपस्थित करना चाहता है । उसको इस पि | दो राष्ट्र रहे हैं और इन्होंने इरादे से विरत करने का ग्रेट-ब्रिटेन ने अपने भरसक
| बराबर यही प्रयत्न किया है बहुत प्रयत्न किया, यहाँ तक कि अबीसीनिया की सरकार
कि योरप में तथा उसके की सहमति के बिना ही उसने अबीसीनिया का सारा
- बाहर भी कहीं कोई युद्ध न पुलिस-प्रबन्ध तथा आवागमन के साधनों के नियन्त्रण का छिड़ने पावे। यह काम वे अब तक राष्ट्र-संघ की आड़ अधिकार जैसी महत्त्व की बातें तक इटली को सौंप देने का लेकर सफलतापूर्वक करते आये हैं । कम-से-कम योरप में प्रस्ताव किया था। परन्तु मुसोलिनी सारा अबीसोनिया अवसर पा जाने पर भी युद्ध नहीं छिड़ने पाया । परन्तु चाहते हैं। उनको एक ऐसे देश की बड़ी ज़रूरत है राजनीति की गति बड़ी चञ्चल होती है, अतएव वह जहाँ इटली की दिन-प्रति-दिन बढ़ती हुई आबादी खप अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकी। राष्ट्रों में एक दूसरे सके तथा आर्थिक लाभ उठाने के साधन भी सुलभ तथा के प्रति जैसा चाहिए वैसा विश्वास नहीं स्थापित हो अधिक हो । संसार में इसके लिए यदि कोई भाग उन्हें सका । फल यह हुआ कि जर्मनी के भय के कारण अथवा मिल सकता है तो वह अबीसीनिया ही है, अतएव मुसोलिनी अपनी प्रतिपत्ति बढ़ाने के लिए फ्रांस ने धीरे धीरे अपना अब उसे अपने अधीन करने को तुल गये हैं। एक गुट अलग बना लिया। यही नहीं, उसने रूस महायुद्ध में इटली ने अपने मित्रों का साथ छोड़कर
और इटली से भी समझौता कर लिया। इस समय उसके फ्रांस और ब्रिटेन का साथ विशेष प्रलोभन पाकर ही दिया पक्ष में योरप के रूस, इटली, रूमानिया, जुगोस्लाविया, था। परन्तु इटली से उन्हें उतनी सहायता नहीं मिली, जेचोस्लोवेकिया, बेल्जियम और इटली के कारण आस्ट्रिया अतएव उसकी महत्त्वाकांक्षा की भी पूर्ति उसी परिमाण में तथा हंगेरी भी समवेत हैं । योरप में इस समय ऐसी ही की गई । और इटली को इस व्यवहार से सन्तोष नहीं दलबन्दी है, और इस दशा में इटली अबीसीनिया के हुआ। वह कर भी कुछ नहीं सकता था। परन्तु जर्मनी हड़प बैठने का उपक्रम कर रहा है। ऐसी दशा में तथा आस्ट्रिया के सैनिक बल के विनष्ट हो जाने से ब्रिटेन राष्ट्र-संघ अकेले ब्रिटेन की दृढ़ता से परिस्थिति को क्योंकर और फ्रांस के बाद इटली तीसरे नम्बर पर पहुँच गया । सँभाल सकता है, यह एक प्रकट बात है। फिर राष्ट्र- यह उसके लिए गर्व की बात हुई, जिससे उसकी महत्त्वासंघ ने जापान और चीन के मामले में ज़बानी जमाखर्च कांक्षा बढ़ गई और अब वह प्राचीन रोमन साम्राज्य का करने के सिवा कुछ नहीं किया था। तब इस अवसर पर जब स्वप्न देखने लगा है। अबीसीनिया पर अकारण ही उसका एक मुख्य पोषक फ्रांस अपनी हाल की एक सन्धि अधिकार कर लेना उसी स्वप्न की पूर्ति का श्रीगणेश है। के कारण इटली से दबा हुआ है तब अकेले ब्रिटेन के वह आज युद्ध के सभी आधुनिक उपकरणों से पर्याप्त
२८२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
संसार की गति
२८३
रूप से सज्जित है, साथ ही उसको इस काम से जो दो दोनों देशों के भूखण्ड अवस्थित हैं। इनमें प्राचीन राष्ट्र रोक सकते हैं उनमें एक उसके साथ है और दूसरा बैबिलनवालों का तो नाम ही नाम भर रह गया भी अकेले पड़ जाने के कारण कानूनी वाद-विवाद के है, पर असीरियावालों के वंशधर अभी तक अपने सिवा और कोई कार्रवाई करने को न तो तैयार है, न मूलस्थान में बस रहे हैं। परन्तु उनके दुर्भाग्य से अब उसके लिए तैयार हो सकेगा। यह सब सोच-समझ कर उन्हें अपने ही 'असीरिया' में रहने का स्थान नहीं ही मुसोलिनी अाज अबीसीनिया को पददलित करने को मिल रहा है। पिछले महायुद्ध में इन लोगों ने अँगरेज़ों उद्यत हुए हैं।
की ओर से अपने स्वामियों के विरुद्ध इस अाशा से अस्त्र परन्तु यह प्रश्न यहीं समाप्त नहीं हो जाता । अबी- ग्रहण किया था कि उनके पक्ष की जीत होने पर सीनिया में ब्रिटेन और जापान के अपने अपने स्वार्थ हैं। उनकी पराधीनता की बेड़ियाँ कट जायँगी और उनको उस पर इटली का अधिकार हो जाने पर क्या उनके हितों स्वाधीनता प्राप्त होगी। परन्तु अरबों की महत्त्वाकांक्षा के की रक्षा हो सकेगी ? इसके सिवा इटली की भूमध्यसागर कारण उनका यह सुख-स्वप्न चरितार्थ नहीं होने पाया में गति-विधि अधिक दिखाई पड़ने लगेगी। और उस और उन्हें तुर्को ने, साथ ही अरबों ने भी बेतरह दशा में अँगरेज़ों के जलमार्ग के एक महत्त्वपूर्ण अंश सताया । तुर्कों ने तो उन्हें अपने देश से ही निकाल दिया। पर इटली का दबदबा दिन दिन बढ़ता जायगा। यह बात इधर जो ईराक की सीमा के भीतर बसते थे उन पर भी
कहाँ तक रुचिकर होगी, यह भी एक जटिल बड़ा अत्याचार हा। अन्त में अगरेज़-सरकार ने यह प्रश्न है । परन्तु इन प्रश्नों की मीमांसा की ओर इटली निश्चय किया कि वे लोग अपने मूल-स्थान से ले का ध्यान नहीं है । उसे इस बात का ही ध्यान है जाकर अँगरेजी गायना में बसा दिये जायें। उनमें से कि उसके इस अन्यायपूर्ण कार्य का पास के अरब तथा ३,५०० लोग अभी तक मोसल में डेरे लगाये पड़े थे। तुर्की एवं ईरान की सरकारों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। इन्हें फ्रेंच-सरकार ने सीरिया में बसने को जगह दे दी मुसोलिनी को तो इस समय एक यही धुन है कि अबीसी- है। इनको वहाँ बसने में मदद देने के लिए इराक की निया पर अधिकार कर इटली का साम्राज्य निर्मित किया अरब-सरकार ने भी सवा लाख पौंड खर्च किये हैं। परन्तु जाय । इसके लिए विश्वव्यापी युद्ध ही क्यों न ठन जाय। अभी तो निकाले जाने को वहाँ २५ हज़ार और बैठे हैं । परन्तु जान पड़ता है कि उनका मनोरथ सिद्ध नहीं और इनको ईराक से हटाने का खर्च ८ लाख पौंड कूता हो सकेगा। इस समय जेनेवा में राष्ट्र-संघ की जो बैठक गया है। अतएव राष्ट्र-संघ की कमिटी ने चन्दा की अपील हो रही है उसमें ब्रिटेन के परराष्ट्र-सचिव सर सेमुअल होर की है। स्थान ठीक हो जाने और रुपया मिल जाने पर ये ने इस मामले के सम्बन्ध में जो शानदार भाषण किया है लोग भी अपनी मातृभूमि से निकाल बाहर किये जायेंगे। उससे तो यही प्रकट होता है कि ब्रिटेन इटली का अबी- इस प्रकार संसार की एक प्राचीन जाति के ये वंशधर सीनिया यों ही नहीं लेने देगा । देखना है कि योरप के अब अपनी उस भूमि से निकाल बाहर किये जायँगे जो राजनीतिज्ञ इस संकट से कैसे बच निकलते हैं। पूर्व-ऐतिहासिक काल से अब तक उनकी लीला-भूमि रही
है। इस प्राचीन अल्पसंख्यक जाति के साथ जो यह असीरिया के मूल-निवासियों का दुर्भाग्य व्यवहार किया गया है उससे यह भी प्रकट होता है कि
असीरिया और बैबिलन संसार के प्राचीनतम सभ्य वर्तमान काल की सभ्यता कितनी ऊँची स्थिति प्राप्त कर देशों में हैं। वर्तमान ईराक-राज्य के ही अन्तर्गत इन गई है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादकीय नोट
भारत के भावी वायसराय सुधार अपने वास्तविक रूप में कार्य का रूप ग्रहण करेगा। विचारत के वायसराय लार्ड विलिं- इसमें सन्देह नहीं कि आप प्रतिभाशाली तथा कार्यकुशल
सबा गडन का कार्य-काल अगले राज-कर्मचारी प्रमाणित हुए हैं। अाशा है, भारत अापके
वर्ष अप्रैल में समाप्त होगा, कार्यकाल में शान्ति और व्यवस्था का उपभोग करेगा। परन्तु उनके उत्तराधिकारी यह सच है कि श्रापको सुधारों के देशव्यापी विरोध के के नाम की घोषणा इस बार बीच में रहकर कार्य करना पड़ेगा, परन्तु यह तो सर्वविदित अाठ महीना पहले से ही कर बात है और यह सब जानबूझ कर ही आपको यह गौरव
दी गई है। यह पूर्ण रूप से पूर्ण पद प्रदान किया गया है। तय हो गया है कि भारत के भावी वायसराय लार्ड लिनलिथगो होंगे। ग्राप ब्रिटेन के राजनैतिक क्षेत्र के प्रमुख व्यक्ति हैं । आपके घराने का साम्राज्य की सरकार से
निर्वाचन-विधान पुराना सम्बन्ध रहा है। आप ज्वाइंट पार्लियामेंटरी कमिटी नये शासन-विधान को अगले साल से कार्य में परिके प्रेसीडेंट रहे हैं। इस कारण भारत के शासन-सम्बन्धी रात करने के विचार से भारत सरकार ने भिन्न भिन्न प्रान्तो सुधारों की एक एक बात से परिचित हैं। १९२६ में श्राप के निर्वाचन क्षेत्रों के निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया
है। वोटरों की संख्या नये सवारी के अनसार पहले की भारत की कृषि की दशा की जाँच करने पाये थे और भारत
अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ जाने के कारण नये निर्वाचन क्षेत्रों का निर्माण करना आवश्यक हो गया । फलतः भिन्न भिन्न प्रान्तों की सरकारों ने अपने अपने यहाँ विशेषज्ञों की ऐसी कमिटियाँ बना दी हैं जो निर्वाचन-क्षेत्रों के पुनर्निर्माण में मुस्तैदी के साथ दत्तचित्त हैं । सरकार ने उनसे सहयोग करने के लिए कुछ गैर सरकारी व्यक्तियों का भी ग्रामन्त्रित किया है, साथ ही उस सम्बन्ध में अपने निश्चय भी जनता के जानने के लिए पत्रों में छपवा दिये हैं। परन्तु राजनैतिक संस्थाये तथा लोकनेता सरकार की यह सारी कार्यवाही उदासीनभाव से देग्य रहे हैं,
यद्याप उन निर्वाचन क्षेत्रों से अगले चुनाव में खड़े [भारत के भावी वायसराय
होने से उनके उम्मेदवार विमुख नहीं होंगे। इस
सिलसिले में मुसलमान लोग अधिक सतर्क दिखाई दे रहे में भी दो वर्ष तक उस सम्बन्ध में रह चुके हैं। कहने का हैं। कौंसिलों का चुनाव लड़ने के लिए वे अपना प्रान्तीय मतलब यह है कि आपको भारत की माली हालत का काफ़ी संगठन करने में लग भी गये हैं। परन्तु अन्य लोग अभी ज्ञान है और आप नये शासन-सुधारों से भी पूर्ण रूप से चुप हैं। कांग्रेस तो एक-दम चुप है। हाँ, नरमदल परिचित हैं । आपके निरीक्षण और तत्त्वावधान में शासन- कुछ कुनमुनाया है और उसके नेता कहने लगे हैं कि वे
FILAJaani
SATRAMAN
२८४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या
३]
सम्पादकीय नोट
२८५
भी देशभक्त हैं और स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने में किसी करते हैं और अपनी अधिक संख्या के कारण उनका वहाँ से पीछे नहीं हैं। इन दो दलों के सिवा तीन दल और पूरा दबदबा भी है । इस योजना की उपयुक्तता के सम्बन्ध हैं। और ये पाँचों दल एक प्रकार से हिन्दुओं के ही दल में तरह तरह के प्रमाण दिये जा रहे हैं और यह भी कहा हैं और इन पाँचों में पाँच के स्थान में दस मत हैं। ऐसी जाता है कि इसके अनुसार पाकस्तान का निर्माण हो दशा में अगले चुनाव में हिन्दू-सदस्य कई दलों में विभक्त जाने पर शेष भारत के साम्प्रदायिक दंगों में भी बहुत होकर कौंसिलों में जायँगे, पर मुसलमानों का अपना एक कुछ कमी आ जायगी। परन्तु इस सम्बन्ध में सबसे मज़े ठोस ही दल रहेगा । अपनी बहुसंख्या के कारण यद्यपि हिन्दू की बात तो यह कही जाती है कि उन प्रान्तों के मुसलमान कई प्रान्तों की कौंसिलों में बहुसंख्या में रहेंगे, तथापि भारत के शेष भाग के निवासियों से अपने को भिन्न जाति आपसी फूट के कारण वे अपनी बहुसंख्या के कारण कहीं का समझते हैं। इसके सिवा एक यह भी कि बंगाल के भी उपयुक्त लाभ नहीं उठा सकेंगे। हाँ, मुसलमान अपने मुसलमानों की इस योजना में उपेक्षा की गई है, यद्यपि दृढ़ संगठन के कारण कौंसिलों से पूरा पूरा लाभ उठा पाकस्तान के मुसलमानों से वहाँ के मुसलमान कम संख्या लेने में समर्थ होंगे। और मज़ा यह है कि यह सारी में नहीं हैं । अवस्था सबको विदित है। परन्तु यहाँ के राष्ट्रीयतावादियों हिन्दू बेचारे साम्प्रदायिक बँटवारे से ही पीड़ित थे, अब को राजनीतिज्ञता का रोग हो गया है, अतएव वे यह यह दूसरी बला उनके सिर पाना चाहती है और उनके नहीं सुनना चाहते कि उनके किसी काम से उनका काई देश का एक श्रेष्ठतम अंश जान ' कुछ दिनों में अराष्ट्रीयतावादी बतावे । ऐसी दशा में आनेवाले नये उनके देश से निकल जायगा । शासन-विधान से देश को क्या लाभ होगा, यह तो नहीं कहा जा सकता, पर इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि
पत्रकार-सम्मेलन उसके फल-स्वरूप इस ग़रीब देश का शासन-व्यय कई अखिल भारतीय पत्रकार सम्मेलन का तीसरा एक करोड़ रुपया बढ़ अवश्य जायगा ।
बड़ा अधिवेशन पिछले दिनों कलकत्ते में धूमधाम से
हो गया। अब इस संस्था का स्थायी रूप से संघटन हो । पाकस्तान की योजना
गया है और जान पड़ता है, इसके प्रति-वर्ष वार्षिक । मुसलमानों की पाकस्तान की योजना अब अखबारों अधिवेशन हुश्रा करेंगे। कलकत्ते के अधिवेशन के. की टीका-टिप्पणी की ही बात नहीं रह गई। वह धीरे धीरे सभापति 'लीडर' के प्रख्यात सम्पादक श्री सी० वाई. वास्तविकता का रूप भी धारण करने लगी है । इस योजना चिन्तामणि बनाये गये थे। इस सभा का आयोजन का मतलब यह है कि कश्मीर, पञ्जाब, पश्चिमोत्तर-सीमा- अमृतबाज़ार-पत्रिका के प्रसिद्ध सम्पादक श्री तुषारप्रान्त, सिन्ध और बलूचिस्तान को मिलाकर मुसलमानों कान्ति घोष ने किया था और वही उसके स्वागताध्यक्ष का पाकस्तान नाम का एक अलग प्रान्त बना दिया जाय। हए थे। भारतीय पत्रों को कानूनी अडंगों के कारण दूसरे शब्दों में इसका मतलब यह है कि भारत के रकबे कैसी असुविधायें झेलनी पड़ती हैं तथा प्रेस-कानून की का छठा भाग, उसकी आबादी का दसवाँ भाग, और दो कठोरता के कारण भारत के पत्रों की उन्नति के मार्ग में तिहाई उसका सैन्य-बल मुसलमानों के लिए पाकस्तान के कितनी बाधायें आड़े आ गई हैं, इन सब बातों की ओर नाम से अलग कर दिया जाय ।
उक्त सभा ने अपने महत्त्वपूर्ण प्रस्तावों के द्वारा सरकार इसमें सन्देह नहीं कि भारत में जितने मुसलमान का ध्यान आकृष्ट किया है। सभा के इस अधिवेशन में बसते हैं उनका एक तिहाई हिस्सा उपर्युक्त प्रान्तों में प्रायः सभी अँगरेज़ी पत्रों के सम्पादक या उनके प्रतिनिधि बसता है। उन प्रान्तों में ७० फ़ी सदी मुसलमान निवास उपस्थित हुए थे तथा उसकी कार्यवाही में समुचित भाग
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८६
सरस्वती
[भाग ३६
लिया था। प्रान्तिक भाषाओं के पत्रों के सम्पादकों को नौकरियाँ देने की भी व्यवस्था कर रही है। सरकारी भी इस सभा से सहयोग कर अपने अभावों तथा अभि- दफ्तरों के चपरासियों आदि में उनके लिए १० फ़ी सदी योगों की चर्चा इस सभा के द्वारा करनी चाहिए । इस जगहें सुरक्षित कर दी गई हैं। अब रहे क्लार्क, सेा इनमें बार के अधिवेशन में जिन सम्पादकों या पत्रों के प्रति- उन्हें कितनी फी सदी जगहें दी जायँ, इस पर अभी विचार निधियों के नाम छापे गये हैं, बाहरवालों में प्रान्तीय भाषात्रों हो रहा है। सरकारी अछूतोद्धार-विभाग रिपोर्ट के साल के पत्रों में केवल उर्दू के एक पत्र-सम्पादक का नाम लिया ६३ अछूत उम्मेदवारों को सरकारी नौकरियाँ दिलवाने गया है। इससे जान पड़ता है कि देशी भाषाओं के पत्र में समर्थ हुअा है। इनमें २५ मेट्रिक दर्जा पास थे, २७ सम्पादकों ने इस सभा से जैसा चाहिए, वैसा सहयोग नहीं वर्नाक्यूलर स्कूल फ़ाइनल पास थे, शेष ४१ ऐसा कोई दर्जा किया। ऐसा नहीं होना चाहिए था। अाशा है, भविष्य नहीं पास थे। अछूत उम्मेदवारों को दफ़्तर के कामों में देशी भाषाओं के सम्पादक भी इस संस्था में अधिक का ज्ञान न होने के कारण विशेष कठिनाई होती है । इसके संख्या में शामिल होकर इससे लाभ उठाने का यत्न लिए प्रतिवर्ष ६ उम्मेदवारों को ग्राफ़िस का काम-काज करेंगे।
सिखलाने का निश्चय किया गया है। ऐसे प्रत्येक उम्मेद
वार को १२) मासिक वेतन देने की भी व्यवस्था की बम्बई में अछूतोद्धार
गई है। अछूतोद्धार के काम में बम्बई की सरकार बड़ी सरगर्मी बम्बई-सरकार की यह सारी व्यवस्था अन्य प्रान्तों की दिखा रही है। उसने यह आदेश किया था कि स्कूलों में सरकारों के लिए अनुकरणीय है । सभी जातियों के लड़के एक साथ बैठकर शिक्षा ग्रहण करें, अर्थात् अछूतों को अलग बैठाकर शिक्षा देने का गुप्त जी के दो पुत्रों का स्वर्गवास क्रम उठा दिया जाय । परन्तु सरकार के इस हुक्म का हिन्दी के प्रसिद्ध कवि बाबू मैथिलीशरण गुप्त पर जैसा चाहिए, पालन नहीं किया गया। तथापि अधिकारी उनकी ढलती उम्र में बड़ी भारी विपत्ति पड़ गई है। लोग इससे उदासीन नहीं हैं, और वे बराबर इस बात का उनके सुमन्त तथा सुदर्शन नाम के जो दो पुत्र थे उन प्रयत्न कर रहे हैं कि सरकार के आदेश का पूर्ण रूप से दोनों की पिछले दिनों कुछ ही दिनों के अन्तर में मृत्यु पालन हो।
हो गई। पुत्रशोक कितना भारी होता है, यह एक बम्बई-सरकार की अछूतोद्धार-विभाग की जो रिपोर्ट अकथ्य बात है। श्रीमान् गुप्त जी के इस घोर दुःख के हाल में (१६३३-३४) प्रकाशित हुई है उससे प्रकट होता समय हमारी सहानुभूति है। ईश्वर करे, गुप्त जी का यह है कि प्रायमरी स्कूलों में अछूत बालकों को मासिक वृत्तियों दारुण दुःख सहन करने को समुचित बल प्राप्त हो । में ३२८) दिये गये। इसी प्रकार माध्यमिक स्कूलों में पढ़नेवाले अछूत बालकों को वृत्ति के रूप में १०६३) देशी चिकित्सा-प्रणाली की अवैज्ञानिकता खर्च किये गये। और टेक्निकल शिक्षा पानेवाले उस दिन काशी के एक अस्पताल की निरीक्षक-पुस्तक अछूत बालकों को ८५३) वृत्ति में दिये गये। इस प्रकार में इन प्रान्तों के सिविल अस्पतालों के इन्स्पेक्टर जनरल प्रान्तीय शिक्षा-विभाग अछूतों को सार्वजनिक स्कूलों में कर्नल एच० सी० बकले ने लिख दिया है कि आयुर्वेदिक समानता का दर्जा देने में ही यत्नवान् नहीं है, किन्तु उनमें चिकित्सा-प्रणाली अवैज्ञानिक है । उनके ऐसा लिखने का से असमर्थ योग्य बालकों को छात्रवृत्तियाँ दे देकर उन्हें पत्रों में खासा विरोध किया गया है । इस विरोध का एक 'शिक्षा प्राप्त करने के लिए उपयुक्त प्रोत्साहन भी दे रहा है। कारण यह भी बताया गया है कि बकले साहब उसी . इसी प्रकार वहाँ की सरकार अछूतों को सरकारी प्रान्तीय सरकार के एक उच्चाधिकारी हैं जो आयुर्वेदिक
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ३]
सम्पादकीय नोट
२८७
तथा यूनानी चिकित्सा प्रणाली को सरकारी तौर से स्वीकार कर चुकी है, अतएव उन्हें इस प्रकार किसी देशी चिकित्सा प्रणाली की निन्दा नहीं करना चाहिए । परन्तु भारतीय संस्कृति की या किसी और अयोरपीय संस्कृति की बातों के बारे में जब उनके अन्य सजातीय ऐसी ही सम्मति देते रहते हैं और हम लोगों के कानों में जूं तक नहीं रेंगती तब उक्त साहब बहादुर की इस उक्ति को भी हमें सुनी-अनसुनी कर देना चाहिए। अब रही बात देशी चिकित्सा की अवैज्ञानिकता की, सेा उन भारतीयों को इस बात की ज़रा भी परवा नहीं है जिनको पाश्चात्यों की वैज्ञानिक चिकित्सा-प्रणाली गूलर के फूल के समान है तथा जो पीढ़ियों से अपनी देशी चिकित्सा से बराबर लाभ ही लाभ उठाते चले आ रहे हैं। हमें इन जैसे महानुभावों की ऐसी उक्तियों की ओर उतना ध्यान नहीं देना चाहिए, जितना इस बात की ओर कि हमारी देशी चिकित्सा-प्रणाली की शिक्षा की ऐसी व्यवस्था हो कि हमारे प्रत्येक गाँव के लिए कम से कम दो दो वैद्य तो ज़रूर तैयार हो जायँ । और तब उक्त डाक्टर साहब की तरह के लोगों को अपने आप ही ज्ञात हो जायगा कि भारत की देशी चिकित्सा-प्रणालियाँ कहाँ तक वैज्ञानिक
[श्रीमती कमला नेहरू] तथा लोक-प्रिय हैं।
रवाना हो गये। श्रीमती कमला नेहरू शीघ्र आरोग्य लाभ
करें, और यह आदर्श दम्पति सकुशल भारत लौटें, यही श्रीमती कमला नेहरू
हमारी कामना है। श्रीमती कमला नेहरू इधर महीनों से बीमार रहीं और जब यहाँ उनकी अवस्था में कोई सुधार होता न स्वामी दयानन्द महाराज का स्वर्गवास दिखाई दिया तब चिकित्सार्थ योरप भेजी गई। परन्तु _भारतधर्म-महामण्डल के मंत्री तथा उसके प्रमुख वहाँ भी उनका स्वास्थ्य नहीं ही सुधरा । हाल में जर्मनी से कार्यकर्ता स्वामी दयानन्द जी महाराज की गत ३० जुलाई उनकी चिन्ताजनक स्थिति केतार आये।
को काशी में मृत्यु हो गई । आप इधर बहुत दिनों से हृद्रोग यह प्रसन्नता की बात है कि सरकार ने पंडित जवाहर- से पीड़ित थे। आपकी इस असामयिक मृत्यु से भारतधर्मलाल नेहरू को बिना किसी शर्त के जेल से छोड़ दिया महामण्डल का भविष्य तो अन्धकार-पूर्ण हो ही गया है, है ताकि वे अपनी पत्नी श्रीमती कमला नेहरू से जर्मनी सनातनधर्म की भी अपार क्षति हुई है। स्वामी जी सनाजाकर मिल सकें। नेहरू जी जिस दिन छूट कर प्रयाग तनधर्म के एक अप्रतिम वक्ता तथा व्याख्याता ही नहीं पहुँचे उसी दिन शाम को हवाई जहाज़ से जर्मनी के लिए थे, किन्तु नैष्ठिक बाल-ब्रह्मचारी, तपस्वी तथा विद्वान् भी
Shree Sudharmaswami Gyanbhanclar-maral Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वतो:
[ भाग ३६
थे। वास्तव में आपके न रह जाने से हिन्दू-जाति का एक १६२४ में उसके उठा देने की घोषणा की थी और यह बड़ा भारी नेता उठ गया है ।
नियम बना दिया था कि नैपाल से गुलामी की प्रथा अमुक - स्वामी दयानन्द का जन्म वंग-देश में एक कुलीन समय के भीतर एकदम उठ जाय । यही नहीं, उन्होंने बंगाती ब्राह्मण-कुल में हुआ था। आपने कलकत्ता- इसके लिए पाँच लाख पौंड अलग कर दिये थे कि जो यूनिवर्सिटी से बी० ए० की डिगरी भी प्राप्त की थी। लोग अपने गुलामों को गुलामी से मुक्त करना चाहें छात्रावस्था से ही आपमें विराग का भाव जाग्रत हुअा उनको इस धन से मुत्राविज़ा दिया जाय । उनकी था। समय आने पर आप सनातनधर्म की सेवा करने के घोषणा का यह फल निकला कि ४,६५१ ग़लाम तुरन्त विचार से महामण्डल के सर्वप्रधान स्वामी ज्ञानानन्द के मुक्त कर दिये गये और उनके लिए महाराज को मुआविज़ा शिष्य हो गये। उनके तत्त्वावधान में रहकर आपने हिन्दू- भी नहीं देना पड़ा। उस समय सारे देश में ६० हज़ार शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन किया और शीघ्र ही अपनी गुलाम और १५ हज़ार गुलाम रखनेवाले थे। उपर्युक्त प्रतिभा के बल से सनातनधर्म के वक्ताओं तथा नेताओं राजाज्ञा का लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़ा, जिससे गुलामों की अग्र पंक्ति में पहुँच गये। आप गत ३०-३२ वर्ष से को स्वाधीन नागरिक बनाने में सरकार को उस रकम में अपने भाषणों के द्वारा समग्र उत्तरी भारत में भ्रमण अब तक कुल २,७५,२५० पौंड ही खर्च करने पड़े हैं। कर धर्म का प्रचार करते और यहाँ के सामाजिक तथा अनेक लोगों ने गुलामों को बिना मुनाविज़ा लिये ही धार्मिक आन्दोलनों में सदा प्रमुख भाग लेते रहे हैं। गुलामी से मुक्त कर दिया है । फलतः अाज नेपाल-राज्य कानपुर में सनातनधर्म-कालेज की स्थापना आपके ही में एक भी गुलाम नहीं है। यह बात वहाँ की गुलामप्रयत्नों से हुई थी। श्राप हिन्दी के भी बड़े प्रेमी थे। विरोधी सभा के वार्षिक जलसे में स्पष्ट रूप से कही गई है।
आपने अपने प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हिन्दी में ही लिखे हैं, जिनसे हिन्दी के धार्मिक साहित्य के एक बड़े
सोने की निकासी अभाव की सुन्दर ढंग से पूर्ति हुई है। ऐसे तपस्वी हिन्दी- इंग्लेंड से 'गोल्ड स्टैंडर्ड जब से उठ गया है तब प्रेमी विद्वान् साधु के निधन से देश की वास्तव में बहुत से २,३७,२६,६३,१२२) का सोना भारत से बाहर बड़ी हानि हुई है।
जा चुका है। इतने मूल्य का सोना निकल जाने का
यह अर्थ हुअा कि भारतवर्ष इतने धन से खाली हो नेपाल में गलार्मा का अन्त
गया। सोने की इस बढ़ती हुई निकासी को रोकने के संसार में हिन्दों का एक-मात्र स्वाधीन राज्य नेपाल लिए असेम्बली के कांग्रेस-सदस्य श्री ए. ऐयंगर ने एक है। यहाँ का शासन अाज भी वहाँ के स्वाधीन हिन्दू- प्रस्ताव पेश किया था। मगर लार्ड विलिंगडन ने उक्त शासक के ही हाथों में है, और वहाँ अाज भी हिन्दू. प्रस्ताव को असेम्बली में पेश होने के लिए अपनी शास्त्रों के अनुसार ही शासन आदि का सारा कार्य होता स्वीकृति नहीं दी। अतएव भारत से सेना के बाहर है। यह प्रसन्नता की बात है कि वहाँ के शासक बीसवीं जाने पर रोक न लग सकी। वास्तव में इस आर्थिक सदी के महत्त्व को जानते हैं और आधुनिक युग का संकट के समय में देश से सोने को बाहर जाने देना देश उन्नतिशील बातों को धीरे धीरे ग्रहण करते जा रहे हैं। में गरीबी बलाना है। उदाहरण के लिए नैपाल की गुलामी-प्रथा को लीजिए।
कृष्णमोहन स्वर्गीय तीन सरकार महाराज चन्द्र शम्शेरजंग ने सन्
Printed and published by K. Mittra, at The Indian Press, Ltd., Allahabad. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat शिव-शृङ्गार
[चित्रकारumश्रीयुक्त शम्भुनाथ मिश्र
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
आक्टोबर १९३५ आश्विन १६६२
भाग ३६, खंड २ संख्या ४, पूर्ण संख्या ४३०
सम्पादक
देवीदत्त शुक्ल, श्रीनाथसिंह
SUNDRANIMUIDINill
with
भाई परमानंद ग्रार स्वराज्य नेहरू जी का हिन्दी में यह पहला लेख है। इसे उन्होंने अनमोड़ा जेल में लिखा था और विनायत जाते वक्त सरस्वती के लिए प्रानन्द भवन में ओड गये पो
पटित
जवाहरलाल
नेहरूजी बमरौली में
मह वपाल । - सेब है कि पह गलत है। -कि जिस 'F' में रिन्यू- महातमा के खास्त दिलचस्पी है बसपी - मारी की बाकी और कोपिला वोर की मेम्बर ले पा रखता है -
जवाहर लाल नेहरू Tई परमानन्दजी का एक लेख-"स्वराज्य और उतने अधिकार से यह न बतला सके । कांग्रेस
क्या है ?”—मैंने अभी पढ़ा (सरस्वती का इस समय क्या राजनैतिक ध्येय है वह छिपी
अगस्त, १९६५) । बहुत आशा से पढ़ा बात नहीं है लेकिन जो भाई जी उसको समझे हैं था कि इस कठिन सवाल के हल करने में या समझने वह अजीब बात है। अगर भाई जी की तरह और में कुछ सहायता मिलेगी। लेकिन पढ़कर आश्चर्य लोग भी कुछ ऐसा ही समझे हैं तो तअज्जुब क्या हुआ। भाई जी हिन्दू-महासभा के एक बड़े नेता हैं कि इतनी ग़लतफहमी है ?
और उस सभा का ध्येय क्या है या दृष्टिकोण क्या है भाई जी ने 'स्वराज्य' के दो अर्थ लगाये हैं। यह बताने का उनको पूरा हक़ है और कदाचित् कोई मुख्तसर एक तो यह है कि अपने 'स्व' पर कायम रहें
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९२
सरस्वती
धर्म और संस्कृति छोड़ने का ? यह 'स्व' क्या है और भाई जी की राय में हिन्दूत्व क्या है, यह ठीक ठीक मालूम हो तो उन पर विचार किया जा सकता है । हिन्दुओं में जाति-भेद बहुत जड़ पकड़े हुए है । इसको भाई जी हिन्दूत्व में रखेंगे ? जहाँ तक मैं जानता हूँ वे इसके विरुद्ध हैं और जात-पाँत-तोड़कमंडल के सदस्य हैं । और हमारे बहुत रवाज हैंविधवाओं के संबंधी, विरासत के बारे में, विवाह के, मरने के, पूजा इत्यादि के, खाने के, छूत छात के, कपड़े। के, इनमें से क्या क्या बातें हिन्दूत्व में रखनी चाहिए ? यह कहा जा सकता है कि ज्यादातर ये बातें ऊपरी हैं और मूल बातें पकड़ने के लिए हमें वेदों को लेना चाहिए या हमारे दर्शन - शास्त्र को । बहुत हिन्दू यह नहीं मानेंगे कि हम इन 'ऊपरी' बातों को अहमियत न दें। वे उनको वेदों से अधिक आवश्यक समझते हैं । और अगर हिन्दुओं के आगे बढ़िए और बौद्ध, सिक्ख, जैनों को लीजिए (जिनको मुझे खुशी है कि हिन्दू महासभा ने अपनाने का यत्न किया है) तब और भी पेचीदगियाँ बढ़ती हैं । बौद्ध दर्शन शास्त्रों में और हिन्दू-दर्शन शास्त्रों में बहुत फर्क है । वे वेदों को नहीं मानते । वे तो ईश्वर तक को नहीं मानते। ऐसी हालत में अगर मेरे ऐसे कम जाननेवाले लोग गड़बड़ा जावें तो क्या आश्चर्य है ? इसलिए यह आवश्यक है कि भाई परमानन्द जी और हिन्दू महासभा इस बात को बिलकुल साफ़ कर दे कि किस 'स्व' के लिए वे कोशिश करते हैं, किस हिन्दूत्व को वे इस हमारे देश में क़ायम रक्खा चाहते हैं । और यह भी साफ बताया जावे कि उनकी राय में कांग्रेस कहाँ कहाँ 'स्व' को छोड़ रही है। विचार करनेवाले लोग गोल शब्दों की उलझन से निकल कर हर बात को साफ कहने और लिखने की कोशिश करते हैं । तब ही उस पर विचार हो सकता है, नहीं तो केवल जोश बढ़ाने के शब्द वे हो जाते हैं।
मेरा खयाल था—संभव है कि यह ग़लत हो
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
कि जिस 'स्व' में हिन्दू महासभा को खास दिलचस्पी है वह सरकारी नौकरी चाकरी और कौंसिलों वग़ैरह की मेम्बरी से संबंध रखता है – कितने तहसीलदार, डिप्टी कलक्टर और पुलिस के अफसर हिन्दू हों । यह भी मैंने देखा कि हिन्दू महासभा को राजाओं, तल्लुकदारों और बड़े जमींदारों और साहूकारों से बहुत मोहब्बत है और उसे उनके हक़क्क़ की रक्षा की फिक्र रहती है । क़र्ज़ -संबंधी क़ानूनों का उन्होंने विरोध किया इस बुनियाद पर कि वे साहूकार को हानि पहुँचाते हैं चाहे वे किसान और छोटे जमींदारों को फायदा क्यों न करें। क्या ये सब बातें हिन्दूत्व में मिली हुई हैं और साहूकार का जबर्दस्त सूद लेना भी हमारे उस 'स्व' का एक हिस्सा है जिसकी हमें रक्षा करनी है ?
एक और विचारणीय बात है । इतिहास-लेखकों का यह खयाल है कि भारत में मुस्लिम राज्य स्थापित होने पर हिन्दू सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र दक्षिणभारत की तरफ चला गया। वहाँ मुसलमानों की पहुँच कम थी । आज कल भी दक्षिण में पुराना हिन्दू-वर्णाश्रम धर्म उत्तर-भारत से अधिक है और भारत भर में यह हिन्दूत्व कदाचित् पंजाब में सबसे कम हो। इसकी वजह साफ़ है । पंजाब और सिन्ध का इस्लामी राजाओं और हुकूमत से हमारे देश में सबसे अधिक संबंध रहा। विचारणीय बात तो यह है कि इस समय इसी पंजाब में हिन्दू महासभा की शक्ति ज्यादा है और दक्षिण में तो उसकी पहुँच बहुत कम है ।
मुझे सभ्यता और संस्कृति के इतिहास में बहुत दिलचस्पी रही है और असल में तो वही इतिहास हैं, बाक़ी राजाओं का आना और जाना और लड़ना है । जब कभी सभ्यता या संस्कृति का प्रश्न उठता है तब मैं उधर खिंचता हूँ और कुछ सीखने और समझने की कोशिश करता हूँ । सर मोहम्मद इक़बाल अक्सर इस्लामी संस्कृति का जिक्र करते हैं। मुझे यह बात गोल मालूम हुई, इसलिए मैंने उनसे इसको
www.umaragyanbhandar.com
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
भाई परमानन्द और स्वराज्य
२९३
साफ़ करने को कहा और कई सवाल पूछे। वे आसानी से जीत हुई । इस समय मिस्र में अधिकतर खामोश रहे और कोई जवाब नहीं दिया। मुसलमान हैं और कुछ पुराने, इस्लाम के पहले के, ___भाई जी का यह कहना कि अगर हम सब ईसाई हैं जो कोप्ट्स कहलाते हैं। इस्लाम भी वहाँ ईसाई हो जावें तब हमारा 'स्व' इंग्लेंड का 'सेल्फ' १३८० वर्ष से है। जब भाई जी कहते हैं कि मिस्र ने हो जावेगा, वह हमें अपना लेगी और हम उसके अपनी जातीयता को मिटा दिया तब उनका ढंग के स्वतंत्र हो जावेंगे, एक ऐसी अजीब बात है। क्या मतलब है ? पिछले ७००० वर्ष के इतिहास में कि पढ़कर आश्चर्य होता है कि कोई भी ऐसा किस ज़माने को वे मिस्र की असली जातीयता का खयाल रक्खे । इसके माने यह है कि भाई जी समझते ज़माना गिनते हैं ? हैं कि योरप का आधुनिक साम्राज्यवाद ईसाई-धर्म ईरान में इस्लाम की जीत मिस्र की तरह जल्दी कहलाने का है ! इस ग़लती में तो शायद कोई स्कूल हुई। लेकिन जाननेवालों की राय यह है कि उससे का बच्चा भी न पड़े । साम्राज्यवाद से और धर्म ईरानी सभ्यता और संस्कृति दबी नहीं, बल्कि अरबी से क्या संबंध ? अबीसीनिया तो ईसाई-देश है मुसलमानों तक पर हावी आगई और अरबी
और सबमें पुराना ईसाई-देश है जब कि योरपवाले खलीफ़ा पुराने ईरानी बादशाहों की और बहुतेरे तक ईसाई नहीं हुए थे। उस पर इटली का क्यों रवाजों की नल करने लगे। यह ईरानी संस्कृति हमला ? योरप के ईसाई-देशों में आपस में पिछली इतनी जोरदार थी कि उसका असर पश्चिमी एशिया बड़ी लड़ाई क्यों हुई ? आयलेंड भी ईसाई-देश से लेकर चीन तक लगातार कायम रहा। इस समय एक हजार वर्ष से ऊपर से है। उस पर अंगरेज़ी ईरान में इस्लाम के पहले की यह पुरानी संस्कृति साम्राज्यवाद क्यों सात सौ बरस से चढ़ाई करता लोगों को जोरों से आकर्षित कर रही है। आता है।
हमारे देश के पुराने इतिहास की तरफ़ एक झलक देशों की जातीयता और सभ्यता को लीजिए। देखिए । आर्यों के आने के पूर्व कई सहस्र वर्ष तक भाई जी मिस्र और ईरान की मिसाल देते हैं कि यहाँ एक ऊँचे दर्जे की सभ्यता थी, जिसका छोटाउन्होंने अपनी जातीयता को मिटा दिया और अपने सा नमूना हमको मोहेनजोदारो में मिलता है। शायद को एक विदेशी जाति के अन्दर जज्ब करवा दिया। उसका संबंध द्राविड़-सभ्यता से हो जो स्वयं आर्यों मिस्र का हजारों वर्ष का पुराना इतिहास चला के पहले की थी। फिर आर्य आये और द्राविड़ आता था और उसमें बहुत ऊँच-नीच और तबादले लोगों को हराया और उन पर हुकूमत की। कुछ और हमले और फतेह हुए थे-फिर क़रीब २०० रवाज और धर्म के मामले में उनसे समझौता किया, वष हुए सिकंदर ने मिस्र फतेह किया और उसकी कुछ अपने देवता उनके सामने रक्खे । इन समझौतों मृत्यु के बाद उसका एक जेनेरल टोलोमी वहाँ का से एक मिली हुई संस्कृति पैदा हुई जिसमें आर्यों बादशाह हुआ। उसने मिस्र के देवता और आचार का अधिक हिस्सा था। फिर और बहत जातियाँ स्वीकार किये, केवल उनमें कुछ अपने ग्रीस के भी इस देश में हमला करके आई, जिनमें खास तौर से मिला दिये । मिस्र एक बड़ा केन्द्र ग्रीक-सभ्यता और कई तुर्की जातियाँ थीं, और यहाँ बस गई। राजसंस्कृति का हो गया । फिर बहुत दिन बाद वह रोमन- पूताने और काठियावाड़ के हमारे बहुतेरे राजपूत साम्राज्य के अधीन हो गया। ईसाई मजहब वहाँ खानदान तुर्की खून रखते हैं। उस ज़माने में दूसरे शुरू ही में योरप के पहले फैला और कई सौ वर्ष धर्म का सवाल नहीं था, क्योंकि मध्य-एशिया के ये तक रहा। बाद में इस्लाम वहाँ आया और उसकी तुर्की लोग सब बौद्ध थे। फिर भी वे अपने बहुतेरे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९४
सरस्वती
[ भाग ३६
रवाज और आचार यहाँ ले आये । इसी तरह से में रेल, मोटर, हवाई जहाज़ ने सरहदें करीब करीब भारत में (और हर देश ही में) बहुत चश्मे और दरिया मिटा दी और दुनिया की एकता बढ़ा दी। किताबें, मुख्तलिफ़ देशों से बहकर आये और हमारी संस्कृति समाचार-पत्र, तार, रेडियो, सिनेमा इत्यादि हर वक्त पर असर डालते गये। फिर इस्लाम फतेह की सूरत हम पर असर डालते हैं और हमारे विचारों को हलके में आया और हम अपने को उससे बचाने के लिए . हलके बदलते हैं। इनको हम पसंद करें या नापसंद करें, सिकुड़ गये और अपनी संस्कृति की खिड़कियाँ जो हम इनसे बच नहीं सकते। इसलिए इनको समझना खुली रहती थीं, उनको बंद कर लिया।
चाहिए और इनको अपने काबू में लाना चाहिए। ___ भाई जी की राय में हमारी हिन्दू जातीयता इन सब बातों के लिए हमारा पुराना हिन्दूत्व कब शुरू होती है ? आर्यों के आने पर ? यह क्या सलाह देता है, मैं भाई जी से पूछना चाहता हूँ ! क्यों ? हम उनके पहले मोहेनजोदारो के ज़माने को वे धार्मिक सभ्यताओं और जातीयता की चर्चा क्यों छोड़ दें, और फिर द्राविड़-ज़माने को ? क्या करते हैं। लेकिन आधुनिक संसार की सभ्यता तो द्राविड़ लोगों को कहने का अधिकार नहीं है कि लोहे की मशीन को और ज़बर्दस्त कारखानों की आर्य लोग बाहरी हैं जो आके यहाँ बलपूर्वक जम है। उसको धर्म से क्या मतलब ? और बगैर पूछे या गये हैं ? ऐसे बहुत सवाल उठ सकते हैं, क्योंकि वहस किये वह पुरानी मूर्तियों को गिराती हुई आगे इतिहास में सभ्यता, संस्कृति, विचारधारा-ये सब बढ़ती जाती है। हिन्दुओं के जाति-भेद के मिटाने बहती हुई एक देश से दूसरे देश में जाती रहती हैं को बड़े आन्दोलन हुए, लेकिन सबसे बड़ी क्रान्ति
और एक दूसरे पर असर डालती हैं। उनके बीच में पैदा करनेवाली तो रेल है और ट्राम और लारी। अलग करने को क़तार खींच देनी कठिन है। किसी उनमें कौन अपने पड़ोसी की जात देखता है ? भी जीवित चीज़ की यह निशानी है कि वह बढ़ती पुराने इतिहास और आधुनिक संसार की है और बदलती है । जहाँ उसका बढ़ना रोका वहाँ राजनीति पर विचार करते हुए दिमाग़ में ख़यालात उसकी जान निकल गई । सभ्यता और संस्कृति भी का एक हुजूम पैदा हो जाता है । कलम उनका साथ इसी तरह उसी समय तक जिन्दा रहती हैं जब तक नहीं दे सकता। वह वेचारा तो धीरे धीरे काराज उनमें मादा है बदलती हुई दुनिया के साथ खुद पर काली लकीरें खींचता है, विचारों की दौड़ में भी कुछ बदलने का । सबसे बड़ा सबक़ जो इतिहास बिलकुल पिछड़ जाता है। उसकी धीमी रफ्तार से हमको सिखाता है वह यह है कि कोई चीज़ एक-सी उलझन पैदा होने लगती है । खैर यह मजमून बहुत नहीं रहती। हर समय बढ़ना या घटना, क्रान्ति या लम्बा हुआ और, हालांकि नाकाफी है और नामुकम्मल इन्कलाब । जिस जाति ने इससे बचने की कोशिश है, अब इसका खत्म करना ही मुनासिब है। संभव की और अपने को जकड़ लिया वह अपने ही बनाये है कि फिर काग़ज़-कलम और स्याही का सहारा हुए पिंजरे में कैदी बनकर सूखने लगी।
लेऊँ और इन मज़मूनों पर अपने फिरते हुए विचारों पहले ज़माने में जब दूर का सफ़र करना कठिन को शक्ल और सूरत दूं। एक प्रार्थना फिर से दोहराता था, देशों का एक दूसरे से संबंध कम था और इससे हूँ कि भाई परमानन्द अपने मानों पर ज्यादा उनमें फर्क थे। जितना अधिक आना-जाना हुआ रोशनी डालें और जिन बातों की तरफ़ मैंने इस लेख उतना ही असर एक दूसरे पर पड़ा। आधुनिक दुनिया में इशारा किया है उनको साफ करें।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
BUIRI
FRUMVUT
ब्रसेल्स से हार्विन
लेखका
इस लेख के लेखक श्री भगवानदीन दुवे पल को जी. वाई. नाइट लि. नायक फर्म के मालिक हैं और सूती तथा रेशमी कपड़े का व्यापार करते हैं। इसके पहले वे आधे दर्जन से अधिक बार दुनिया की सैर कर चुके हैं, लेकिन ट्रांस सैबेरियन रेलवे से यह इनका पहला सफर है। यह लेख
हमें वर्तमान के संयुक्त सम्पादक श्रीयुत विष्णुदत्त मिश्र तरङ्गी से मिला है। -- क ही समुद्री तार ने मेरा तक का फ़र्स्ट क्लास का टिकट ७५०) में ले लिया । भोजन
विश्राम भंग कर दिया । इस इत्यादि के १५०) अलग रहे, क्योंकि रेल पर भोजन का बार जब मैं जापान से लौटा मूल्य अपने पास से देना पड़ता है। कंपनीवालों ने मुके था तब मैंने सोचा था कि सलाह दी कि रूस में रेल के भोजन का एक टिकट अग्रिम पाँच-छः महीने घर रुकने ले लो, नहीं तो रेल में भोजन खरीदना बहुत ही महँगा का मौका मिलेगा। लेकिन पड़ेगा। यह सलाह ठीक निकली, क्योंकि बाद में मैंने
व्यापार में विश्राम कहाँ ? प्रत्यक्ष अनुभव किया कि एक सप्ताह के भोजन के टिकट के मुझे जल्दी से जल्दी इंग्लेंड जाने की तैयारी करनी पड़ी। मूल्य ७०) में एक दिन भी मुश्किल से संतुष्ट हो सकता। पन्द्रह दिन की यात्रा के बाद मैं योरप पहुँच गया।
सुदूर पूर्व की ओर—योरप से सुदूर पूर्व के लिए हिन्दुस्तान से निकलने के पहले इस बार मैने निश्चय हफ्ते में दो बार मंगल और बृहस्पतिवार को गाड़ियाँ किया था कि रूस और सैबेरिया होते हुए जापान जाऊँगा। छूटती हैं। मंगलवार को जानेवाली गाड़ी डेलक्स ट्रेन लेकिन अपने जिन जिन अँगरेज़ मित्रों से मैंने अपनी कहलाती है, क्योंकि इसमें पहले दर्जे के ही मुसाफ़िर लिये प्रस्तावित यात्रा का जिक्र किया उन सबने इस यात्रा जाते हैं। बृहस्पतिवार की गाड़ी में पहले, दूसरे और को कष्टप्रद बताकर अमरीका होते हुए जापान जाने की तीसरे दर्जे के मुसाफ़िर लिये जाते हैं। सलाह दी। मेरे पास समय होता तो मैं ऐसा ही करता, ब्रुसेल्स से बर्लिन- इंग्लैंड में अपना काम समाप्त लेकिन १६ दिन के समय की बचत भी तो कोई चीज़ है। करके मैं बेल्जियम की राजधानी ब्रुसेल्स ा गया। अमरीका के रास्ते से जापान पहुँचने में ३० दिन लगते ब्रुसेल्स में इस समय बड़ी चहल-पहल थी। एक बड़ी और मास्को होकर जाने में १४ दिन । हकीकत में इस प्रदर्शिनी हो रही थी। ११ जून को मैं हवाई जहाज़ से यात्रा के कष्टप्रद अनुभवों को स्वेच्छा से स्वीकार करने- ब्रुसेल्स से बर्लिन के लिए रवाना हुअा और तीन घण्टे वाले वे ही विरले होते हैं जिन्हें एडवेंचर (साहसपूर्ण के बाद ही सात बजे शाम को बर्लिन पहुँच गया । ट्रेन कार्यों) से प्रेम है अथवा जो समय की बचत के सामने ११॥ बजे रात को छूटनेवाली थी, इसलिए बर्लिन किसी भी कष्ट को अधिक नहीं समझते।
में घूमने का मौका मिल गया। हिटलर के राज्य की जो मैं अपने निश्चय पर अटल रहा। बर्लिन से जापान चर्चायें मैंने पढ़ी थीं उनसे मैं सोचता था कि ऐश
२९५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९६
सरस्वती
[भाग ३६
आराम के लिहाज़ से पेरिस का मुक़बिला करनेवाला लेकर जर्मनी आये हैं, उतना या उससे कम ले जा सकते जर्मनी अब कुछ सुधरा मिलेगा, उसका नैतिक धरातल हैं, ज्यादा नहीं। पहले से कहीं अधिक ऊँचा होगा। लेकिन मुझे अपने योरप की रेलगाड़ियाँ-वैसे तो योरप की रेलपुराने अनुभवों को बदलने का कोई मौका नहीं मिला। गाड़ियों का इन्तिज़ाम भारत से कई गुना अच्छा रहता है, हर गली और कुँचे में यौवन और सौंदर्य अपने सौगुने लेकिन मेवा में उनकी सानी मिलना मुश्किल है । जर्मन
आकर्षण के साथ खेल रहे थे। वह एक मस्ती का अफसरों से छुटकारा पाकर मैंने पासपोर्ट कंडक्टर को दे आराम.था, जिसमें भौतिक के अंचल के अंतिम छोर तक दिया। इसी कंडक्टर ने पोलेंड की सीमा पर पासको छने की अभिलाषायें छलक रही थीं। होटल और पोर्ट बतला दिया और सामान भी कस्टमवालों से पास केफ़ भरे हुए थे। सजीली सुकुमारियों की मुस्कराहट, करा दिया। नयन-कटाक्ष तथा शोखी हर जगह कदम कदम पर बिखरे ग़रीब पोलेंड - फ्रांस, बेल्जियम और जर्मनी की थे। मुझे तो संदेह हो चला कि हिटलर जर्मन जाति तुलना में पोलेंड बहुत ग़रीब देश मालूम पड़ा। कृषकों के जीवन के इस पहलू को बदलने में किस तरह सफल के झोपड़े नज़र आये और बहुत-से नंगे पाँव फिरते देखे। होगा ! ११॥ बजे गाड़ी जानेवाली थी, इसलिए मुझे लौट महायुद्ध के बाद पोलेंड के स्वतंत्र राष्ट्र की उत्पत्ति हुई
आना पड़ा। इस बार बर्लिन के द्वार तक ही गया, अतः थी, लेकिन तब से उसने बहुत थोड़ी ही उन्नति कर पाई प्रवेश की लालसा रह ही गई।
है। ६ बजे सुबह गाड़ी पोलंड की राजधानी वारसा ___ गाड़ी आ लगी-ठीक ११॥ बजे गाड़ी स्टेशन पर पहुँची। वारसा शहर विश्चुला नदी के बायें किनारे पर है। श्रा लगी। मेरा स्लीपिंगकार का टिकट था, इसलिए गाड़ी दस लाख की आबादी का यह शहर ही पोलैंड के थोड़े में बिस्तर लगा हुआ था। सामान मेरे पास सिर्फ एक से चुने हुए स्थानों में से है, जहाँ पेरिस और बर्लिन की सटकेस और अटेची केस था। मुझे ज्यादा सामान की कुछ छाया प्राप्त होती है। पोलैंड में इस समय एक ज़रूरत ही नहीं थी, क्योंकि दस वर्षों तक विदेश की प्रकार से फ़ौजी शासन है। योरपीय राजनीति के इस घने मुसाफ़िरी करते करते मैं इतना सिद्धहस्त-सा हो गया हूँ वातावरण में और क्या उम्मीद की जा सकती है । कि अपटुडेट बने रहने पर भी हवाई जहाज़ के १६ सेर नुकीले तारों की सरहद-५॥ बजे सुबह गाड़ी तक वज़न ही ले जाने के नियम का पालन कर दो-तीन स्टलपसी पहुँची। पोलेंड की सरहद पर बसा हुआ यह महीने मजे से गुज़ारा कर सकता हूँ। ट्रेन में आकर छोटा-सा गाँव बड़ा ही रमणीक दिखाई दिया । यहाँ सिपाकपड़े बदले और सो रहा । करीब तीन बजे दरवाज़े पर खट- हियों का काफ़ी जमघट था। रूसी अफ़सर यहाँ गाड़ी में खटाहट सुनकर चौंक पड़ा। दरवाजा खोला तब जर्मन आये और पासपोर्ट ले लिया। गाड़ी चली और कुछ अफ़सर नज़र आये। उन्होंने मनी-सार्टिफ़िकेट माँगा और मिनटों में ही नीगोरलोज़ आ गया। यह गाँव रूस की रुपयों की तलाशी ली। सब मामला ठीक था और उनसे सीमा के अन्तर्गत है। रूस और पोलेंड की सीमा के बीच फसत पाई। जर्मनी के नियम के अनुसार हर शख्स का नुकीले तार गड़े पाये। रूस की सरहद पर लकड़ी जर्मनी की सरहद में घुसने के पहले अपने पास के रुपयों का एक बड़ा ऊँचा मचान बना हुआ है, जिस पर रूसी
और उधार की चिट्ठी कस्टम अफ़सर को बतानी पड़ती सिपाहियों का बड़ा कड़ा पहरा लगा रहता है । यहीं गाड़ी है। उसे जाँचकर वह एक दूसरा सार्टिफ़िकेट देता है, खत्म हो जाती है और यात्रियों को रूसी गाड़ी पर चढ़ना जिसे मनी-सार्टिफिकेट कहते हैं । जर्मनी के बाहर जाने होता है। करीब २।। घण्टे का अवकाश रहता है, जिसमें पर सरहद पर यह सार्टिफिकेट दिखलाना पड़ता है और सामान की अच्छी तरह तलाशी ली जाती है। किताबें रुपयों की तलाशी ली जाती है, जिससे आप जितना रुपया तक पढ़ कर जाँची जाती हैं। कस्टमहाऊस के पास ही
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
बड़े बड़े अक्षरों में लिखा है - संसार के श्रमजीवियो एकता से रहो ।
मेरे पास तो दो-चार जासूसी उपन्यासों और दैनिक जीवन के मुसाफ़िरी
सामान के सिवा कुछ था ही नहीं । मज़े में छुटकारा
मिल गया । कुली सामान उठाकर दूसरी गाड़ी में ले जाते हैं, लेकिन हर
दद के २० कोयक या आठ आने दफ़्तर में दाखिल करने पड़ते हैं ।
रूस में रेल यात्रा -
रूसी गाड़ी ठीक योरपीय ढंग के स्लीपिङ्गकार की
ब्रूसेल्स से हार्बिन
तरह थी । हर कंपार्टमेंट में दो बिस्तरे रहते हैं, जो दिन में उलट कर बैठने की जगह में परिणत कर दिये जाते हैं । मैं अपने डिब्बे में अकेला ही था। बृहस्पतिवार को गाड़ी ११ बजे मास्को पहुँच गई । ३॥ घण्टे की फुर्सत थी । इनटरिस्ट के श्रादमी ने पूछा कि क्या मैं मास्को की सैर करूँगा । मैंने हाँ कहा। एक अमेरिकन महिला भी साथ थीं । हम दोनों के लिए मोटर का इन्तिज़ाम कर दिया गया ।
रूस की एक झलक मोटर के आते ही एक नौजवान दुभाषिया रूसी लड़की आगे या बैठी । एक एक करके हमने स्थान देखना शुरू किये, लेकिन क्रेमलिन ही पसंद आया । यह स्थान सोवियट सरकार का केन्द्र है । भीतर जाने की अनुमति नहीं है । लेनिन का मक़बरा भी बहुत ही शानदार बना हुआ है । इस तरह हम तीन घंटे में इनटरिस्ट के होटल पहुँचे, जहाँ हमें २॥ डालर सैर के खर्च का देना पड़ा ।
सैर के बाद मैंने दुभाषिया लड़की का इनाम देना चाहा, लेकिन उसने धन्यवाद-पूर्वक उसे अस्वीकार करते हुए
फा. २
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
३९७
[ बैकाल झील ]
।
कहा कि रूस में इनाम लेने की आज्ञा नहीं है जो कुछ सरकार से मिलता है उसमें ही उसे
सोवियट की मुद्रा प्रणाली - व्यापारी होने के कारण स्वभावतः सोवियट के सिक्के की प्रणाली की तरफ़ दिलचस्पी हुई । सावियट के सिक्के सिर्फ़ रूसी प्रजातन्त्र में ही चल सकते हैं। बाहर ले जाने या ले आने का हुक्म नहीं है । परदेश के सिक्के परदेशी इस्तेमाल करते हैं, जिसका निर्ख सोवियट सरकार मुक़र्रर किया करती है । आजकल एक डालर एक सोने के रुबल के बराबर होता है। अँगरेज़ी पौंड में पाँच रुबल और ६० कोयक मिलते हैं। भोजनालय इत्यादि में परदेशी सिक्का देना पड़ता है और जो कुछ बचता भी है वह परदेशी सिक्कों में ही वापस किया जाता है । मैंने कुछ चित्र, पोस्टकार्ड और स्टांप वगैरह खरीदे थे । उनकी क़ीमत के लिए मैंने एक पौंड दिया, जिसके बदले में मुझे १ || मार्क दस फेंक और कुछ पोलिश सिक्के मिले ।
सर्वत्र निराशा का वातावरण- सोवियट रूस के सम्बन्ध में प्रवासियों द्वारा भिन्न भिन्न प्रकार की बातें
प्रजा को संतोष है ।
www.umaragyanbhandar.com.
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
।२९८
सरस्वती
[भाग ३६
निजी मोटर या मोटर साइकिलों का अत्यन्त अभाव । साइकिल शायद दस हज़ार में एक के पास हो। साधारण भोजनालय गंदे तथा गंदे आदमियों से भरे । जहाँ-तहाँ डबल रोटी हाथ में लिये तथा उसे खाते जाते भिखारियों की तरह जन-समूह देखकर तबीयत भिन्ना उठी। मुझे दुनिया भर के प्रायः सभी शहरों को देखने का मौका प्राप्त हुआ है। लेकिन शंघाई के बाद यह दूसरा मौका था, जब तबीयत इस तरह से खिन्न हो गई।
स्टेट का क़ब्ज़ा-सारी सम्पदा और मकान आदि स्टेट के हैं। स्त्री-पुरुष सभी को काम करना पड़ता है। काम की हैसियत से तनख्वाह मिलती है। कम तनख्वाहवाले को रहने के स्थान का कम किराया और उसी स्थान का ज़्यादा तनख्वाह देनेवाले को अधिक किराया देना पड़ता है। रूस में मैंने सम्पत्ति के विश्लेषण को और अधिक अच्छे रूप में देखने की आशा की थी, लेकिन मुझे निराश होना पड़ा। मेरे साथ एक अमेरिकन सैलानी थे, जो सिर्फ रूस का सम्पत्ति का विभाजन देखने के लिए
आये थे। प्रारम्भिक दृश्यों ने ही उन्हें विचलित कर दिया। उन्होंने कहा कि जिस देश में प्रतिस्पर्धा के लिए कोई स्थान नहीं है, वहाँ शान्ति कैसे हो
सकती है। [अंगरा की एक सहायक नदी]
व्यक्तिगत उन्नति-रूस में व्यक्तिगत उन्नति आदमी
पढ़कर ही कर सकता है और थोड़ी-सी आर्थिक दशा सुधार प्रकाशित हुआ करती हैं। किसी में वह स्वर्ग चित्रित किया सकता है। सोवियट के कायदे लोगों को घोल घोलकर जाता है और किसी में नरक । मुझे वहाँ तक ही दिलचस्पी पिलाये जाते हैं। लेकिन व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अभाव है, जहाँ तक कि उसकी आर्थिक दशा के प्रभाव की बात के कारण आदमी निश्चेष्ट-सा हो जाता है। एक वाक्य है । अतएव मैंने अपने अनुभवों को इसी धरातल से लिखा में रूस के लोगों को काम से प्रेम नहीं, तनख्वाह से है। भारत में बम्बई, कलकत्ता और कानपुर इत्यादि मतलब। रूस को स्वर्ग की उपमा तक देने के हाल औद्योगिक शहरों में जिस तरह का वातावरण मिलता है, हम पढ़ा करते हैं, लेकिन ये सब अतिशयोक्तियाँ हैं। वह यहाँ मौजूद था। सारा शहर श्रमजीवियों से भरा बोलशेविज़्म के सिद्धान्तों का यह सबसे बड़ा व्यावहारिक था। यह कोई बुराई की बात नहीं थी। लेकिन कपड़े- प्रयोग है। इस कारण उस पर कोई रायज़नी फ़िलहाल तो लत्ते भद्दे, हँसी मज़ाक का अभाव और चेहरे पर विकट की ही नहीं जा सकती। जो मैंने कुछ प्रत्यक्ष देखा वही संघर्ष की छाप । विशाल अमेरिकन स्टाइल के भवन, मैंने लिखा है । लेकिन इतना अवश्य है कि व्यक्तिगत लेकिन निर्जीव । दूकानों पर सजावट का अभाव । ट्राम व प्रतिस्पर्धा के अभाव में लोगों की तबीयते मुर्भाई नज़र गाड़ियाँ भेड़ों और बकरियों की तरह खचाखच भरी। आई। दुनिया जिस तरह के वातावरण में चल रही
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
ब्रूसेल्स से हार्बिन
संख्या ४ ]
है उसके अनुसार सोवियट में योग्यता की कोई तुला धन या सम्पत्ति के रूप में न होने से खटकती है।
1
मारको से रवाना - ट्रान्स सैबेरियन स्पेशल ढाई बजे खुलने को थी, लेकिन खुली ३ बजे । श्रीगणेश ही बुरा हुआ, क्योंकि ज्यों ज्यों गाड़ी आगे बढ़ती गई, त्यों त्यां लेट होती गई और सीमा के अन्तिम स्टेशन मंचूलीस्टेशन पहुँचने तक वह पूरे दस घंटे लेट हो गई ।
सारी ट्रेन में अधिकांश लोग रूसी थे । भारतीय मैं ही अकेला था। तीन जर्मन और कुछ जापानी थे। इतने बड़े लम्बे सफ़र में लोगों को सोने की खूब सूझती थी । मेरे पड़ोस के डिब्बे में दो जापानी थे, जो दो बजे सिर्फ़ भोजन के लिए जागते थे और फिर सो जाते थे । सवेरे दस बजे उठना तो ट्रेन में मामूली बात थी ।
1
सुबह से
११॥
मास्को
गाड़ी पर तीन बार भोजन मिलता था। ११ बजे तक लंच, दो से पाँच तक डिनर और ७ बजे रात तक सपर। यह लिखित टाईम था । से जब मैं ट्रेन में बैठा था तब चार बजे भोजन पाने की 'उम्मीद में भोजनालय पहुँचा था । भूख भी बड़ी कड़ाके की लगी थी, लेकिन पाँच बजे तक किसी ने कुछ पूछा ही नहीं । यही हाल हर वक्त रहा। लिखित समय से एक घंटा बाद ही भोजन नसीब होता था ।
तीन-चार घंटे के बाद गाड़ी खड़ी होती थी और तब पैर पसारने को ज़रा-सा अवकाश मिलता था और ज़मीन पर टहल लेने का मौक़ा मिलता था। स्टेशन अधिक भव्य तो नहीं, लेकिन अच्छे ही थे । जुलाई के महीने में सैबेरिया में वसन्त-काल होता है । जहाँ तक हमारी आँखें पहुँचती थीं, वहाँ तक हरे-भरे दृश्य नज़र आ रहे थे । इस प्रान्त में भेड़ों गायों के चराने का अधिक व्यवसाय है । इस प्रदेश में अब सोवियट की कृपा से लोग स्थिर होकर रहने लगे हैं, अन्यथा पहले भेड़े और घोड़े चराकर लोग घुमक्कड़ी वृत्ति के ही सहारे रहा करते थे । लेकिन अब यह प्रदेश 'धूम के साथ आबाद हो रहा है। रेलवे का जाल बिछा दिया गया है और जगह जगह फ़ैक्टरियाँ और कल-कारखाने जारी किये जा रहे हैं, जिनमें नाना प्रकार के व्यवसाय चलाये जा रहे हैं। जब से पूर्व में
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
२९९
[ शिल्का नदी ]
जापान ने मंचूरिया को हड़प लिया है तब से इस प्रदेश की और सोवियट सरकार का ध्यान अधिक गया है और यहाँ फ़ौजी सिपाहियों का भी अड्डा बनाया जा रहा है । रेलवे की डबल लाइनों का भी इन्तिज़ाम होने की खबर है । सोवियट सरकार की स्कीम के अनुसार रेलवे लाइन के दोनों ओर लोग बसाये जा रहे हैं और उन्हें सम्पन्न बनाने की कोशिशें जारी हैं। फिर भी ५० लाख वर्गमील के प्रदेश को एकदम आबाद कर देना कोई हँसी-खेल की बात तो नहीं है ।
जंगलों के बीच - ट्रेन चीड़, देवदार आदि के मनोरम जंगलों में से गुज़री। रंग-बिरंगे फूलों का ऐसा सुन्दर दृश्य मैंने कहीं नहीं देखा था । अभी तक दुनिया को यही पता
www.umaragyanbhandar.com.
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
३००
सरस्वती
[सड़क के किनारे किनारे बर्फ़ का दृश्य ] है कि सैबेरिया उजाड़ और जंगली प्रदेश है, लेकिन यह खयाल भ्रम ही साबित हुआ । मेरे साथी एक जर्मन ने बताया कि पाँच वर्ष पहले का सैबेरिया सचमुच में श्रद्ध निर्जन था, लेकिन उसमें तो अब नई जान आ गई है। जगह जगह लकड़ी चीरने की मिलें मिलीं और मालगाड़ियों की ग्रामदरफ़्त ने यह साफ़ जाहिर कर दिया कि अगर यही प्रगति रही तो यह प्रदेश रूस का क्रीड़ास्थल बन जायगा । रूस के पंचवर्षीय प्रोग्राम की अभूतपूर्व सफलता के दर्शन यहीं हुए। मुझे तो यह दृश्य ठीक उत्तरी ब्रह्मदेश में सैर करने जैसा मालूम हुआ ।
ये सब दृश्य तो थे, लेकिन अकेले को इससे क्या राहत ? सौभाग्य से ट्रेन के हर एक डिब्बे में रेडियो लगा हुआ था और इस कारण जब आँखें थक जातीं तब रेडियो से यात्री मनोरंजन किया करते ।
हम पूर्वी सैबेरिया के प्रदेश में से जा रहे थे । हर स्टेशन पर कृषकगण दूध की बोतलें, अंडे तथा अन्य खाद्य वस्तुएँ लिये बेचने को खड़े थे। योरपीय रूस में ऐसा नहीं है, लेकिन इस प्रदेश में कृषकों का पाँच गायें अपनी तरफ से रखकर निजी ग्रामदनी बढ़ाने का हक़ मिला हुआ है । इसके सिवा मुर्गी पालने से जो ग्रामदनी हो वह भी किसानों की हो जाती है । अपने छोटे-से बग़ीचे में फल-फूल उपजा कर भी किसान आमदनी कर सकते हैं। लेकिन सरकार की ओर से जो संयुक्त खेती होती है उसमें काम करना पड़ता है, जिसके लिए उन्हें
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara: Surat
[ भाग ३६
निश्चित वेतन मिलता है। दूसरे और तरीके से भी खेती होती है । बहुत-से किसान मिलकर इकट्ठी खेती करते हैं । जो कुछ पैदा होता है उसका ४० फ़ीसदी सरकार को दे देना पड़ता है । शेष बराबर बराबर बाँटकर ले लिया जाता है।
उन्नति के मौके-जैसे शेष रूस में उन्नति के मौके हैं, वैसे यहाँ भी हैं। हर एक स्त्री-पुरुष अपने काम के बाद अगर खास पाठशालाओं में पढ़े तो उसे पदवृद्धि मिलती है । मज़दूरों को बड़ी सुविधायें हैं अफ़सरों को नहीं । मज़दूरों को एक कार्ड मिलता है। जिसके कारण उन्हें भोजनालय, ग्रामोद-प्रमोद गृह, थियेटर और जलपानगृहों में किराये में आधा पैसा लगता है । १००० रुबल पानेवाले इंजीनियर का कोई कार्ड नहीं मिलता, लेकिन २०० रुबल पानेवाले मज़दूर को मिलता है। स्त्रियों के धन्धे — सारे रूसी प्रजातंत्र में स्त्रियों के लिए कम श्रमवाले धन्धे नहीं हैं । सबसे अधिक मज़बूत पाया। रेल रही थीं, खदानों में वे जुटी थीं। माल चढ़ा उतार वे रही थीं।
रूसी स्त्रियों का मैंने
के
सैबेरिया का बनारस-मास्को से रवाना होने के बाद सबसे पहला और मनोरञ्जक शहर नोवीसीवरस्क मिला । श्रोबी नदी के किनारे यह नगर बनारस-सा लगता है। ऊँचे ऊँचे शिखरों पर ठेठ नदी के तट पर बने हुए मकान बड़े ही सुन्दर मालूम होते हैं। हाँ, बनारस की गन्दगी इस शहर में नहीं है और न मार्क का उमड़ता हुआ समुद्र । हाँ, चर्चा के सुनहरे गुम्बद दर्शक का ध्यान सहसा आकर्षित कर लेते हैं । यह शहर सैबेरिया का प्रमुख व्यापारिक स्थान है और यहीं से अग्निबोटों के द्वारा सामान लाया और ले जाया जाता है। मध्य एशिया से व्यापार का केन्द्र यही है और रूस का पूर्वी सैबेरिया में फ़ौज का यह एक बड़ा केन्द्र है । यहीं रूसी फ़ौज का बड़ा अड्डा है, जो चीनी तुर्किस्तान, मंगोलिया आदि पर क़ाबू रखने में सहायक है। कई बड़े बड़े शस्त्रों के कारखाने इस शहर में हैं और हवाई फ़ौज का भी बड़ा केन्द्र है । जब से मध्य एशिया में जापान बढ़ा है तब से रूसी
www.umaragyanbhandar.com
किनारे वे काम कर मालगाड़ी के डिब्बों में
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
ब्रूसेल्स से हार्बिन
३०१
-
--+
+
सरकार ने इस प्रदेश को फ़ौजी पड़ाव का रूप दे रक्खा अाया करते हैं । सन् १९०४ के बाद ही बैकाल के है । यह भी सुना गया है कि यहाँ किलों की एक बड़ी किनारे रेल की पटरी डाले जाने से ट्रांस सैबेरियन रेलवे शृंखला है। मंगोलिया को हड़पने की जापानी नीति के पूर्ण हो सकी है। ७॥ बजे शाम को बैकाल झील के दाँव-पेंच से सोवियट को बड़ा खतरा है। इस कारण सेवियट किनारे से हमारी ट्रेन जा रही थी। तीन घण्टे तक बैकाल ने यहाँ ऐसा प्रबन्ध कर रक्खा है कि लड़ाई के मौके पर झील के किनारे किनारे स्वर्गीय दृश्य था । मीठी मीठी और मास्को की सहायता के बिना ही काम चल सके । लाखों भीनी भीनी सुगंध से भरी हुई खुशबूदार हवायें, झील में की तादाद में लोग यहाँ खेती करने के लिए बसाये गये हैं, हंसों की कतारें और रंगबिरंगे फूल, आस-पास लताकुञ्ज, जिससे रसद में सहायता मिल सके । सैबेरिया की लोहे और वृक्ष और बीच बीच में आ जानेवाले छोटे छोटे गाँवअन्य वस्तुओं की खदानें खोदी जा रही हैं और कोशिश एक हृदयग्राही दृश्य उपस्थित कर रहे थे। रास्ते में थोड़े इस तरह की हो रही है कि यह प्रदेश स्वावलम्बी रहे। न बहुत ४० बोगदों में से गुज़रना और इस तरह पचास इस प्रदेश का संचालन सोवियट प्रजातंत्र के हाथ में मील बोगदों के भीतर ही भीतर गुज़र गये। है, लेकिन प्रान्त की जनता का उसमें सबसे अधिक आधी रात का सूर्य-इस तरह दृश्य देखते भाग है।
देखते जब करीब ११ बजने को थे तब सूर्य धीरे धीरे __इरकटस्क-दो दिन के बाद इरक्टस्क नगर मिला। अस्त हो रहा था। और उसकी सुनहरी किरणें बैकाल यह नगर बेकाल झील से निकली हुई नदी अंगारा के झील की शोभा को दुगुना कर रही थीं। मछुओं के किनारे पर है और पूर्वी सैबेरिया की राजधानी है। शहर अँड के झुंड गीत गाते हुए लौट रहे थे । बैकाल झील में में आबादी काफ़ी अच्छी है । सोवियट सरकार के सैबेरिया सील, सालम आदि अच्छी मछलियाँ हैं और उनका में निकलनेवाले सोने को शुद्ध करने का सभी काम यहीं पकड़ने का व्यवसाय काफ़ी तरक्की पर है। किया जाता है। शहर में नवीनता और आधुनिकता का बैकाल झील को पार करते समय हम आधी रात के समावेश है और उसे योरपीय तरीके पर आबाद करने की सूर्य के प्रदेश में थे। सैबेरिया का यह मध्य-भाग भी कम सभी कोशिशें जारी हैं।
सुहावना नहीं था। रास्ते में कितनी ही ट्रेनें मिलीं, जिनमें बैकाल झील के किनारे- इसके बाद नदी के चीनी ईस्टर्न रेलवे के जापान को बेंच देने के सबब वहाँ किनारे ही किनारे लाइन है। ट्रेन में बैठे बैठे नदी की के बरखास्त कर्मचारी लौट रहे थे । इस प्रदेश में आबादी तलहटी साफ़ दिखती है। मेरे खयाल से तो दुनिया में काफ़ी अच्छी है और अधिक व्यापार नदियों के द्वारा होता है। अंगारा ही एकमात्र ऐसी नदी है जो इतने स्वच्छ जल- रूस की अन्तिम सीमा-बीस जून को हमें रूस वाली है। आस-पास लहलहाते हुए खेत और बगीचे और का अन्तिम प्रसिद्ध शहर चिता मिला । यहाँ प्रायः सभी बेफ़िक्र चरवाहों के झुण्ड किसी भी मनहूस की ज़िन्दगी रूसी यात्री उतर गये । ११ बजे हम रूसी रेलवे के अन्तिम को थोड़े समय के लिए अवश्य प्रसन्न कर देते हैं। स्टेशन मंचूली पर थे, जहाँ सभी मुसाफ़िर और रेलवे
इसके बाद ट्रेन बेकाल झील के किनारे किनारे ४० अफ़सर उतर गये। हम मंचूरिया की सीमा में आगये थे । मील तक चली। एशिया में बेकाल झील मीठे यहीं से हमारा सामान चुंगीघर ले जाया गया। रूस पानी की सबसे बड़ी झील है और दुनिया में उसका की सीमा पर एक बार सामान पहले ही देखा जा चुका नम्बर छठा है। ज़रा कल्पना कीजिए-बैकाल ३६० था। लेकिन यह दूसरी परीक्षा थी। जापानी अफ़सरों का मील लम्बी और १८ से ६० मील तक चौड़ी है और कुल दौरदौरा था। इसमें अंधे को भी मालूम हो सकता था १४ हज़ार वर्गमील के क्षेत्र में है। पानी बड़ा साफ़ कि मंचूरिया का शासक हेनरी प्यू यू है या जापान का और स्वादिष्ट । सोवियट रूस के बहुत-से सैलानी यहीं सम्राट् । सब मुसाफिरों को पासपोर्ट-अाफ़िस में जाना पड़ा,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२
सरस्वती
[भाग ३६
जहाँ इस तरह से हुलिया लिखी गई जैसे भारत में चोर- जगह नज़र आ रहे थे। टूटी हुई इमारतें और अस्तव्यस्त डकैतों की लिखी जाती है । जापानी अफ़सर बैठे बैठे नगर उसके साफ़ साफ़ चिह्न थे। इससे पता चला कि प्रश्न कर रहे थे और मंचूको के अफ़सर उनका हुक्म बजा युद्ध अधिक भयंकर हुअा होगा। समाचार-पत्रों के रहे थे। तहज़ीब का अभाव । दो डालर की भेंट और विवरणों की क्षति और इस क्षति में ज़मीन और आसमान भुगताने के बाद जान छूटी। चुंगी में सामान की भी का फर्क पाया। तलाशी देनी पड़ी।
इधर अाकर भोजन की सुविधा मिली। मास्को से यहाँ से रूसी कंडक्टर और वेटर बिदा हुए। रूस चलते समय मैंने भोजन का टिकट खरीदकर बड़ी बुद्धिमें इनाम-इकराम लेने से लोग इनकार करते हैं, मानी की थी, क्योंकि रूसी गाड़ी में तो भोजन इतना लेकिन यहाँ उन्हीं रूसी कंडक्टरों और वेटरों ने बड़ी खुशी महँगा था कि ७५) का एक रोज़ भोजन कर लेने पर भी से इनाम ले लिया और लम्बा सलाम भाडा।
तबीयत न भरती। मंचूरिया का सफ़र- मंचूरिया में और ही रंग था। हार्विन में-दूसरे रोज़ सवेरे गाड़ी हार्बिन में आ यहाँ की गाड़ियाँ निहायत आरामदेह और अमेरिकन लगी । रात बड़े आराम से कट गई। ट्रनों से टक्कर लेती थीं। पहले उत्तरी चीन का यह भाग हार्बिन शहर योरप के शहरों का शान शौकत में रूस के अधीन था, इसलिए यहाँ रूसी खूब आ डटे हैं। मुकाबिला करता है। सामान को टामस कुक कम्पनी के लेकिन अब उन्होंने मंचूको की ही राष्ट्रीयता स्वीकार कर पंडों के हवाले करके मैं और पाँच जर्मन सैर को निकल ली है, जैसे भारत में एंग्लो इंडियन । इस भाग में डाकुओं पड़े। व्यापारिक चहल-पहल थी। यहाँ एक होटल . का बड़ा ज़ोर है और इस कारण हमेशा रूसी और मंचूको में शर्बत पीने के वक्त एक भारतीय सज्जन से भेंट हो पुलिस और फ़ौज को थाना पड़ता है। कभी कभी दोनों गई। उसी तरह का आनन्द प्राप्त हुआ, जिस तरह देशों के सिपाही भी कट जाते हैं। रूस और जापान के प्यासे को रेगिस्तान में जलाशय मिल जाने से होता है । संघर्ष का प्रारम्भिक क्षेत्र यही है और दोनों अपनी अपनी साथियों से क्षमा माँगी और उनसे भेंट की । वे बड़े मिलनमोर्चेबन्दी यहाँ सीमा पर किये हुए हैं।
सार हैं। उनकी हार्बिन में रेशमी कपड़ों की दूकान है। __रूस छोड़ने के बाद पहली बार साफ़-सुथरी पोशाक मुझे नदी की सैर भी कराई। एक अपरिचित आदमी के के जीवों के दर्शन हुए । फैशन का खूब जोर देखा, स्त्रियाँ साथ इतनी मेहमानदारी भारतीय ही कर सकता है। भड़कीले कपड़ों में और अप-टु-डेट फैशन में नज़र आई। इसका मुझे गर्व हुआ।
जापान के युद्ध की छाप–यहाँ ट्रेन ठीक वक्त पर हार्बिन से मुझे फ़सान पहुंचना था। इस प्रदेश में छटी और हार्बिन तक चिलकुल ठीक समय पर पहुँचती भी डाकुओं का बड़ा ज़ोर है । अब भी रात की गाड़ी रही। जिस प्रदेश में से हम गुजर रहे थे वह हरा-भरा के पाँच मिनट पहले फौजियों से भरी गाड़ी चलती था और सर्वत्र कार्यशीलता नजर आ रही थी। जापान ने है। ट्रेन में भी फ़ौजी रहते हैं। कोरिया के हरे-भरे तीन वर्षों के भीतर इस प्रदेश की काया पलट कर दी है। मुल्क से होते हुए पहाड़ियों और नालों और झरनों सड़कें बनाई जा रही हैं, शहर आबाद किये जा रहे हैं। को पार करती हुई गाड़ी अत्यन्त रमणीक स्थान से गुज़री रेल-मार्ग निकाले जा रहे हैं। हवाई जहाजा के स्टेशन और आखिर हम अपनी यात्रा के अन्तिम छोर पर पहुँचे। तैयार किये जा रहे हैं। अभी जापानी कम संख्या में यहाँ आकर एक शांति की साँस ली। ये १३ दिन बस रहे हैं। लेकिन ट्रेनों की ट्रेने प्रवासियों से भरी हुई बड़े विकट दिन थे, लेकिन नये नये अनुभवों की तुलना आती जा रही है । चीन-जापान के युद्ध के निशान जगह में कष्ट कम ही थे।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
लेखक, कुँवर राजेन्द्रसिंह भूतपूर्व मिनिस्टर इस लेख में श्रीमान् कुँवर साहब ने 'रस' नाम की तन्मात्रा का विवेचन किया है। तन्मात्राों -सम्बन्धी आपके जो लेख 'सरस्वती' के पिछले अंकों में निकल चुके हैं, वैसा ही पाण्डित्यपूर्ण तथा हृदयग्राही
आपका यह लेख भी हुआ है ।
न अर्थो और भावों में
जारी रहता तो 'न हम में कोई ___ हम लोग 'रस'-शब्द
वहशी न डैमफूल होता', न का प्रयोग करते हैं उन
स्वतन्त्रता ही खोते। हमने भी अन्य अर्थो और भावों को प्रकट करने
देशों की तरह सब कुछ खो दिया | के लिए अंगरेजी-भाषा में कोई
है, केवल फर्क इतना है कि वे सो शब्द नहीं है । उस भाषा में केवल
करके जाग गये हैं और हमने ऐसे एक शब्द है, जिसका अर्थ द्रव है।
पैर फैलाये, जैसी एक देहाती कहायह शायद हमारी भाषा के जूस
वत है कि-'मानों घोड़ा बेच करके शब्द से बना है। उसका भी अर्थ
सो रहे हैं।' हमारे ही देश ने लोहे, द्रव है। उच्चारण में केवल थोड़ा-सा अन्तर है। संखिया और धतूरे का प्रयोग अओषधियों में करना अँगरेजी-शब्द के उच्चारण में थोड़ा मुँह बनाना पड़ता तमाम दुनिया को सिखलाया था । हम जहाँ के तहाँ है और ज़रा ज़बान उभेठनी पड़ती है, पर अपने हैं या यों कहा जाय कि जो जानते भी थे वह भी भूल
शब्द का सीधी तरह उच्चारण हो जाता है। हमारी गये और जिन्हें सिखलाया था वे कोसे हमसे आगे | भाषा में 'रस'-शब्द का सैकड़ों अर्थों और भावों हैं। एक दूसरी कहावत है, 'गुरु गुड़ रह गये और । में प्रयोग होता है। इस शब्द के योग से न मालूम चेले शकर हो गये। 'यदि' तुझमें कितना दर्द और | कितने यौगिक वाक्य बन गये हैं। रस के ही दुःख भरा हुआ है ! बार-बार यह स्मरण होता | सिद्धान्त पर हमारा समस्त वैद्यक-शास्त्र निर्भर है। आता है कि यदि हम आलसी और अकर्मण्य न | इस ओर अथक परिश्रम किया गया होगा। वही हो गये होते तो आज ये दिन कैसे देखने में आते। | नुस्खे जिन पर आक्षेप करते हुए हाली साहब ने अस्तु । लिखा है-"चले आते हैं जो कि सीना ब सीना", वैद्यक-शास्त्रानुसार छः रस हैं-मधुर, अम्ल,
आज भी वह काम करते हैं कि लोगों की बुद्धि चक्कर लवण, कटु, तिक्त और कषाय । इसी कारण रस की में आ जाती है। यदि हमारा खोज का काम बराबर संज्ञा ६ की हो गई है, और इसी से एक कहावत
३०३
www.umaragyanbhandar.com
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४
सरस्वती
[भाग ३६
हो गई है कि 'वहाँ का क्या पूछना ? षट्रस भोजन गुण की अधिकता से मधुररस, पृथ्वी और अग्नि था।' ऐसे अवसर होते हैं जब पेट भर जाता है, पर के गुण की अधिकता से अम्लरस, जल और अग्नि स्वादु को तृप्ति नहीं प्राप्त होती है, और जब स्वादु के गुण की अधिकता से कटुरस, वायु और आकाश तृप्त हो जाता है तब उपर्युक्त कहावत का प्रयोग के गुण की अधिकता से तिक्तरस, और पृथ्वी तथा होता है। देहाती अमीरी का अनुमान इन चीजों वायु की अधिकता से कषायरस उत्पन्न होता है।" से करते हैं—षट्स भोजन, सोने का थाल, सोने और देखिए, "रस जलीय गुण से उत्पन्न होता है", का गड़वा, पीने के लिए गङ्गाजल, और सोने के तभी तो आचार्यों ने जल को रस का देवता माना लिए वह बिस्तर जिस पर चुन-चुन करके कलियाँ है। फिर उनका कहना है—'जलीय गुण से उत्पन्न बिछाई गई हों। यही देहाती गीतों का विषय होता यह रस जब सभी भूतों के साथ मिलकर विदग्ध है। "पदरसों की उत्पत्ति भूमि, आकाश, वायु और होता है तब छः प्रकार में बँट जाता है। ये छः रस . अग्नि आदि के संयोग से जल में होती है ।" यही है—मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय । पञ्चमहाभूत हैं, जिनसे शरीर बना है। अब प्राचीन पार्थिव और जलीय गुण की अधिकता से मधुरभारत के विद्वानों की खोज देखिए । ज्ञानेन्द्रिय रस, पार्थिव और आग्नेय गुण की अधिकता से जिह्वा का विषय रस है। रस का देवता जल है। अम्लरस, जलीय और आग्नेय गुण की अधिकता रस वही जो द्रव है और कोई पदार्थ द्रव हो ही से लवणरस, वायव्य और आग्नेय गुण की अधिनहीं सकता है जिसमें जल नहीं है, और किसी वस्तु कता से कटुरस, वायव्य और आकाश गुण की का स्वादु मालूम ही नहीं हो सकता, जब तक अधिकता से तिक्तरस तथा पार्थिव और वायव्य जिह्वा की पूर्ण सहायता न हो। रस का विषय गुण की अधिकता से कषायरस उत्पन्न होता है।" मछली में अधिक होता है। तभी तो बेचारी वरवे में एक का यह मत है। यह इस बात का प्रमाण है कि फँसती है। हगों की दीनता प्रकट करते हुए एक बहुतों ने इस ओर खोज की है। कवि ने कहा है-'मृगराज के दावे विंधे बंसी के वैद्यक-शास्त्र के मत से इन छः रसों के मिश्रण बिचारे मले मृग मीन से है।' विषय इसी का नाम से छत्तीस प्रकार के रस उत्पन्न होते हैं। चाहे आधुहै कि सब जानते हुए भी और दुःख उठाते हुए भी निक समय के पढ़नेवाले थक जायँ, परन्तु खोज उससे आसक्तता न जाय । बलदेव जी ने कहा है- करनेवाले नहीं थके। अब इसका पता लगाया गया "जिमि नीर में मीन के प्रान बस रस छीर की कि किस रस का क्या असर किस दोष पर पड़ता चाहत सींच नहीं।” पसन्द तो नीर है, 'छोर' नहीं। है—'मधुर, अम्ल और लवणरस वात को, मधुर, एक दूसरे कवि ने और अच्छी तरह से इसी भाव तिक्त और कषायरस पित्त को तथा कटु, तिक्त और को कहा है.-'तब कहूँ प्रीति कीजै पहले से सीख कषायरस कफ का नाश करते हैं।" किसी किसी लीजै बिछुड़न मीन और मिलन पतंग की।' बिछु- के मतानुसार रस केवल दो ही प्रकार के होते हैंड़ने में तो कष्ट होता ही है, पर प्रेम के पंथ में मिलना "आग्नेय और सौम्य" । मधुर, तिक्त और कषाय भी जान देना हो जाता है। बहुत सुन्दरता से रस सौम्य रस और कटु, अम्ल और लवण आग्नेयरस और स्पर्श का विषय प्रकट किया गया है ! कहलाते हैं। मधुर, अम्ल और लवण गुरुरस तथा
अब हमारे शास्त्रकारों ने खोज करके यह कटु, तिक्त और कषाय लघुरस कहलाते हैं। निकाला कि किन पञ्चमहाभूतों से कौन रस उत्पन्न फिर इसका वर्णन है कि किस रस में क्या गुण होता है। उनके मतानुसार "पृथ्वी और जल के हैं। मधुर रस से 'रक्त, मांस, मेदा, मज्जा, अस्थि,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४
रस
३०५
ओज, शुक्र और स्तन्य की वृद्धि होती है।' 'अम्ल- कि यज्ञ के लिए कुछ मधुर द्रव्य संग्रह करना चाहिए, रस जारक और पाचक हैं।' लवणरस 'पाचक अतएव रस ही प्रधान है। रस-द्वारा ही द्रव्य की
और संशोधक है।' कटुरस 'पाचक, रोचक, गुण-संज्ञा है । कुछ आचार्य ऐसे हुए हैं जिन्होंने इन अग्नि को दीप्तिकर और संशोधक है।' तिक्तरस दोनों मतों को स्वीकार नहीं किया। उनका कहना 'रुचिकर और दीप्तिवर्द्धक है।' कषायरस 'संग्रा- है कि वीर्य प्रधान है। उनका तर्क यह है कि “वीर्य हक अर्थात् मलमूत्र और श्लेष्मा आदि को रोकता के गुण से ओषधि का काम चलता है। वीर्य अपने है।' पर इन्हीं रसों को अधिक मात्रा में सेवन करने बल और गुण से रस को अतिक्रम कर कार्य कर से वात, पित्त आदि दोषों की वृद्धि होती है। फिर सकता है।" इस विषय का विवेचन करने में वे दोषों के विदग्ध और अविदग्ध की विवेचना कर ये कहते हैं कि त्रिदोष में का कोई दोष अोषधि-द्वारा ही छत्तीस प्रकार के रस होंगे।
पूर्णतः शमन नहीं हो सकता, यदि वीर्य दोषयुक्त उक्त मत को सभी आचार्यों ने स्वीकार नहीं है। इसी कारण वीर्य को प्रधान मानते हैं। आधुकिया। कोई कोई द्रव्य, रस, गुण और वीर्य को निक सभ्यता के साथ वे बीमारियाँ भी बढ़ी जिनकी प्रधान बतलाते हैं। उनके मतानुसार द्रव्य प्रधान बदौलत इस देश के नवयुवकों का स्वास्थ्य ऐसा कारण है। उनका यह भी कहना है कि पहला चौपट हुआ कि दिन-रात मृत्यु को आमन्त्रित करने द्रव्य व्यवस्थित तथा रस आदि अव्यवस्थित में कटते हैं। वे देश की क्या सहायता कर सकेंगे? हैं, जैसे-'अपक्व फल में जिस प्रकार रस गुण पहले अपनी सहायता कर लें। केवल भू-भार बने मालूम होता है, उसी प्रकार पक्व फल में नहीं होता। हुए हैं और समाज को दूषित कर रहे हैं। सबसे दूसरा-द्रव्य नित्य और रस गुण आदि अनित्य हैं। दुःख की बात तो यह है कि न तो अपने कर्मों का उनका तर्क यह है कि "द्रव्य जातीय गुण नित्य पश्चात्ताप है और न लज्जा है, वरन अपने घृणित अवलम्बन करता है, और पञ्चेन्द्रिय-द्वारा द्रव्य ही रोगों को अपनी युवावस्था का सार्टीफिकेट कहते लिया जाता है, रसादि नहीं, क्योंकि द्रव्य आश्रय हैं। ईश्वर ही उस देश की रक्षा करे जिसके ऐसे तथा रस उसका आश्रित है।" फिर "ओषधि के नवयुवक हो । एक अँगरेजी विद्वान् ने वीर्य को गुण-वर्णन की जगह द्रव्य का ही नाम लिया सफेद खून कहा है और एक ने जीवन-रक्त कहा है। जाता है, रस का नहीं । ओषधि--योग-वर्णन की अपनी भाषा में भी वीर्य के अर्थ बल और कान्ति के जगह शास्त्र में द्रव्य को ही प्रधान बतलाया है। हैं। इसी की रक्षा करके प्रातःस्मरणीय भीष्म ने छः रसादि का गुण अवस्था सापेक्ष है, जैसे तरुण द्रव्य महीने तक शरशय्या पर विश्राम किया था। अस्तु । का तरुणरस, पक्व द्रव्य का पक्वरस" और "द्रव्य एक और भी मत है। उसके अनुयायियों का के एकांश से व्याधि की शान्ति होती है।" इन्हीं सब विचार है कि परिपाक मुख्य है, क्योंकि खाया हुआ कारणों से रस से द्रव्य को प्रधान माना है। पदार्थ जब तक नहीं पचेगा तब तक रस कैसे पैदा
जिन आचार्यों ने रस को प्रधान माना है उनका होगा। किसी किसी का यह भी कहना है कि "प्रत्येक यह मत है कि (१) प्राणियों का जो आहार है वह रस से परिपाक होता है।" इसमें भी मतभेद है। रस से परिपूर्ण है और उसी से वे जीवन-धारण करते किसी का यह कहना है कि 'मधुर, अम्ल और कटु हैं। (२) गुरूपदेश की जगह रस ही उपदेश का में ही केवल परिपाक होता है।' फिर कोई यह कहता विषय होता है । (३ अनुमान की जगह रस द्रव्य है कि 'मृदु रस बलवान् रस का अनुगामी होता है।' अनुमित होता है। (४) ऋषि-वचन में भी कहा है यदि खोज न बन्द हो गई होती तो एक मत निश्चित
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भागे ३६
-
हो जाता और आज हमारा वैद्यक-शास्त्र उच्चाति- मांस की, उसके बाद मेद की, फिर अस्थि की, उसके उच्च शिखर पर पहुँचा होता। हमारे वैद्यक ग्रन्थों में बाद मज्जा की और फिर कहीं शुक्र की। शुक्र की जो कुछ रस के विषय पर लिखा हुआ है उसका चतु- बहुमूल्यता की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। थांश भी उद्धृत करना मानो एक अच्छी खासी और इसकी अपव्ययता पर जितना दुःख प्रकट किया बड़ी पुस्तक लिखना है।
जाय वह भी थोड़ा है। रस तीन प्रकार से शरीर में भावप्रकाश में लिखा है कि पहले मधुररस, सञ्चरण करता है-शब्दसन्तानवत, अर्चिसन्तानफिर अम्ल और लवणरस और उसके बाद कटु, वन और जलसन्तानवत् ।। तिक्त और कपायरस खाने चाहिए। एक का मत सुश्रत में इसकी व्याख्या की गई है कि रस किसे है कि मधुररस खा करके भोजन समाप्त करना कहते हैं-"शीतोष्ण भेद से दो प्रकार का व चाहिए । यही प्रथा आज-कल प्रचलित है। बङ्गाल शीतोष्ण स्निग्ध आदि भेद से आठ प्रकार का में भोजनान्त संदेस और रसगुल्ले से होता है और वीर्ययुक्त, मधुर आदि छः प्रकार के रस समन्वित तथा अंगरेजी में “पुडिंग" से। खाने के पदार्थों की पेय आदि भेद से चार प्रकार का पाञ्चभौतिक सूची में मीठी वस्तु का प्रथम स्थान है। देहात में आहार-द्रव्य जब अच्छी तरह परिपाक होता है तब लोग कहते हैं-'गुड़ गोरस अरु गोहूँ जाके, नाम उससे तेजोभूत बहुत सूक्ष्म जो सार पदार्थ उत्पन्न मात्र हैं पाहुन ताके ।'
होता है उसी का नाम रस है।" __ शरीरस्थ धातुओं में रस-धातु विशेष है। उसके रस खाये हुए पदार्थ से एक ही दिन में उत्पन्न पर्यायवाची शब्द "रसिका, स्वेदमाता, वपु, स्रव" होकर ३०१५ कला (पाँच दिन से कुछ अधिक) इत्यादि इत्यादि हैं। शरीर में रस का मुख्य स्थान हृदय समय में एक एक धातु में रहता है और २५ दिन ७५ बतलाया गया है। कहते हैं कि समान वायु-द्वारा कला के बाद पुरुष के शुक्र और स्त्री के आर्तव-रूप यह पहले वहीं पहुँचता है, और वहाँ पहुँच कर में परिणत होता है। यदि यहाँ लेखनी से कुछ "वहाँ की रसवाहिनी धमनी में जाकर सभी आराम करने की सिफारिश न की जाय तो वैद्यकधातुओं को पोषण करता है। पीछे वह अपने गुण- शास्त्रानुसार ही लिखते लिखते एक पुस्तक तैयार द्वारा सारे शरीर में फैल जाता है।" "रस तीन हो जाय और किसी दृष्टि से रस के देखने का समय हजार पन्द्रह कला करके एक एक धातु में रहता न मिले। है। बीस कला का एक मुहूर्त अर्थात् दो दण्ड होता न्यायशास्त्र ने रस के केवल दो भेद किये हैंहै। इस पर भोज का मत है कि “खाया हुआ रस नित्य और अनित्य । रस-शब्द का बहुत अर्थों में पाँच रात और डेढ़ दण्ड में रस आदि मज्जा पर्यन्त प्रयोग होता है, जैसे-जल, वीर्य, गुण, राग इत्यादि धातुओं में से एक एक में परिणत होता है।" फिर इत्यादि। संस्कृत में जिह्वा को रसना कहते हैं। रस दो भागों में विभक्त होता है-स्थूल और सूक्ष्म। पृथ्वी को रसा कहते हैं। मद्य को रसित कहते हैं। सूक्ष्म भाग शरीर के स्थायी रक्त द्वारा पुन: परिपाक एक कवि ने कहा है-'तो मैं कछू रसना रसना रिसि होकर पाँच दिन, पाँच रात, डेढ़ दण्ड में रक्त धातु नाहक कै रुठये रसिकाई ।' रस के अर्थ, भाव या में परिणत होता है।
दशा के भी हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ईश्वर, जिन्होंने शुक्र को जीवन-रक्त कहा है उनके की प्रशंसा में कहा हैवचनों को हमारे वैद्यक-शास्त्र-द्वारा पुष्टता प्राप्त "महिमा निगम नेति करि कहहीं। होती है। पहले रस से रक्त की उत्पत्ति होती है, फिर जो तिहुँ काल एक रस रहहीं।"
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४ ]
कवियों ने अधरों में मधुररस और नेत्रों में लवणरस माना है । रहिमन ने कहा है---
'नैन सलोने अधर मधु, कहु रहीम घाट कौन । मीठो चहियत लोन पै अरु मीठे पर लोन ।' कविता में आठ रस माने गये हैं- शृङ्गार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स और अद्भुत । साहित्यदर्पण में शान्त को मिलाकर नव
प्रकार
रस माने गये हैं। किसी किसी का मत है कि शान्त की गणना रसों में नहीं हो सकती । शायद उनकी यह राय हो कि शान्त उस दशा का बोधक है जब हृदय का भाव शून्य हो जाता है। एक उर्दू के कवि ने कहा है
" अच्छा है वह न आये मेरे खानये दिल में | म भी निकल जायँगे वीराना समझ कर ।"
यही हाल काले रङ्ग का है, इस विषय के जाननेवालों का कहना है कि काला कोई रङ्ग नहीं है, वह केवल प्रकाश की क्षयराशि है । काले को चाहे रङ्ग कहिए, चाहे प्रकाश की क्षयराशि कहिए या प्रकाश का अभाव कहिए या और जो चाहिए सो कहिए, पर इस पर भी बड़ी बढ़िया कवितायें हुई हैं। साँवला शब्द अब कृष्णचन्द्र का बोधक हो गया है । एक सखी कहती है
“बावरी वे अँखियाँ जरि जाहिं जो साँवरो छोड़ि बिलोकहिं गोरो ।” आचार्यों ने शान्तरस की गणना चाहे रसों में की हो या न की हो, लेकिन हिन्दी के कवियों ने इस पर अच्छी कवितायें की हैं। रसखानि का कितना अच्छा छन्द है—
"मानुष हों तो वही रसखानि बसौं,
व्रज गोकुल गोप गवारन । जो पशु हों तो कहा वश मेरो,
चरौं नित नन्द की धेनु मकारन ॥ पाहन हों तो वही गिरि को,
जो कियो हरि छत्र पुरन्दर धारन ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
रस
२०७
जो खग हों तो बसेरो करौं,
वह कालिंदी कूल कदम्ब की डारन ॥ " काव्यप्रभाकर में शान्तरस का इस प्रकार वर्णन है—
" सुरस शान्त निर्वेद है, जाको थाई भाव । सतसंगति गुरु तपोवन, मृतक समान विभाव || प्रथम रोमांचादिक तहाँ, भाषत कवि अनुभाव । धृति मति हरषादिक कहे, शुभ संचारी भाव ॥ शुद्ध शुक्ल रँग देवता, नारायण हैं जान । ताको कहत उदाहरण, सुनहु सुमति है कान ॥”
जङ्गल तो शान्ति के लिए अनिवार्य है । तुलसीदास जी ने तो बहुत आवश्यकीय समझा है
"नीति कहत स सुनहु दसानन । चौथे पन जाइय नृप कानन ॥" बिना एकान्त के और जङ्गल से ज्यादा कहाँ एकान्त प्राप्त हो सकता है, शान्ति कहाँ ? वर्ड्सवर्थ अपनी कविता जङ्गलों और पहाड़ों पर लिखते थे और उनकी निर्जनप्रियता अब एक कहावत हो गई है । जो कुछ दुनिया में कर गये हैं उन सबका विद्याध्ययन निर्जन स्थानों में हुआ था, और उसी सिद्धान्त पर विश्वभारती की स्थापना श्री रवीन्द्रनाथ जी ने की है। जो देहाती स्कूल पक्की सड़क के पास हैं उनकी दशा देखकर महान् दुःख होता है । जैसे, कोई मोटर निकली तो 'क' से कबूतर रटनेवाले लड़के उचक करके स्कूल के बाहर आ गये और उनके नवयुवक मौलवी साहब या पण्डित जी की भी वही दशा हुई । यदि उस मोटर पर कोई अँगरेज़ी वस्त्रधारी बैठा हुआ हो तो लपक करके सलाम किया और लड़कों को भी सलाम करने की आज्ञा दी और यदि कोई अभागा हिन्दुस्तानी कपड़ों में हुआ तो अगर लड़कों ने दो चार ढेले फेंक दिये या गर्द उड़ा दी तब भी ठीक है । अस्तु ।
कविता के अनुसार जो आठ रस माने गये हैं उनमें आठ स्थायीभाव उपस्थित होते हैं - “रति,
www.umaragyanbhandar.com
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८
सरस्वती
[भाग ३६
उत्साह, शोक, भय, विस्मय, हास्य, जुगुप्सा और स्वादु का स्थान विषयवर्ग की सूची में होना चाहिए क्रोध" । इस पर भी विस्तार में लिखना इस लेख को या न होना चाहिए। वहाँ अभी श्री गणेशाय नमः अकारण बढ़ाना है।
ही पर बहस है। उनके मतानुसार स्वादु के विषय अब जरा अँगरेजी-साहित्य पर दृष्टिपात करना केवल चार हैं-मीठा, कड़वा, नमकीन और खट्टा । है जिसके लिए कहा जाता है कि वह हर एक दृष्टि से बस सूची समाप्त । बाक़ी को वे गन्ध, स्पर्श, शीत, परिपूर्ण है। उस भाषा में कोई शब्द है ही नहीं जो उष्णता दृष्टि और स्वादु का संमिश्रण बतलाते हैं। 'रस' के भाव को प्रकट करे। वे लोग स्वादु-शब्द यहीं पर उनकी 'रस' तन्मात्रा की व्याख्या की इति को प्रयोग करके उस कमी को पूरा करने की चेष्टा श्री होती है।* करते हैं। यदि स्वादु कामकारी इच्छायें उत्पन्न करता होता तो अँगरेजी-साहित्य में बहुत-कुछ लिखा * इस लेख के लिखने में विश्वकोष से पूर्ण सहायता होता। अभी उनके लेखकों में यही मतभेद है कि मिली है जो कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार की जाती है ।
मैं सोचा करता हूँ प्रतिपल
लेखक, श्रीयुत कुजविहारी चौबे __ मैं सोचा करता हूँ प्रतिपल ।
जब आता है सुन्दर सावन, जब आता स्वर्णिम उपाकाल,
हँस-हँस धन बरसाते जीवन, हँस-हँस सरसिज होते निहाल,
सज जाता अवनी का आँगन, कल-कूजन करते विहग-बाल, तब तड़प-तड़प कर तड़ित-दृश्यतब गिरा-गिरा कर ओस-बिन्दु
होता रहता किसलिए विकल ? मैं॥ क्यों रोता रहता तारक-दल ? मैं॥
सजता है जब दीपक ललाम, जब आता है मञ्जल दिनान्त,
द्युति छा जाती नयनाभिराम, हो जाता झंझावात शान्त,
ज्योतित हो उठते धाम-धाम, मुखरित हो उठता विपिन प्रान्त, तब दीप-शिखा पर शलभ-वृन्दतब मुरझा जाती है नलिनी
क्यों आहुत हो जाते जल-जल ? मैं॥ किस मूक व्यथा से हो विह्वल ? मैं० ।।
आया यह सुभग वसन्त-मास, सज जाता जब रजनी का तन,
फैला सर्वत्र विलास-लास, झिलमिल-झिलमिल हँसते उड़गन,
छाया जग में उल्लास-हास, हो जाते कुमुद प्रसन्न वदन,
पर भव-वैभव से उदासीनतब किसका दग्ध हृदय नभ से
क्यों हुआ आज मेरा उरतल ? मैं० ।। गिरता है भूर पर पिघल-पिघल ? मैं० ।।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
मल्लियों से सिकंदर
का
सिकन्दर और पुरु का युद्ध इतिहास में बहुत प्रसिद्ध है, परन्तु पुरु से भी अधिक पौरुष का परिचय मुल्तान के मल्लियों ने दिया था। इस लेख में 'सरस्वती' के पुराने लेखक श्रीयुत वनमालीप्रसाद शुक्ल ने उसी युद्ध का वर्णन किया है।
मुकाबिला
लेखक, श्रीयुत वनमालीप्रसाद शुक्ल लिन जान बबादशाह सिकन्दर पश्चिम- सिकन्दर घोर जलवृष्टि के कारण लगभग एक
एशिया के अनेक राज्यों महीना तक महाराज पुरु की राजधानी में रुका एवं जनपदों को तृणवत् रहा। इसके बाद छत्रपति महाराज नन्द की पददलित करता हुआ असाधारण सैनिक शक्ति और अतुल सम्पत्ति की अपनी रक्तरंजित पताका वार्ता सुनकर वह मकदूनिया की विजयवाहिनी लेकर झेलम नदी के तट सेना के सहित पूर्व की ओर अग्रसर हुआ। उसके
पर आ पहुँचा तब उसे आतंक से कायर तो भयभीत होकर शरण में आ ज्ञात हुआ कि अब तक जिन शत्रुओं को उसने गये, पर वीरों का रक्त खौल उठा और उन्होंने परास्त किया है उनमें और आर्यों में बड़ा अन्तर बढ़ते हुए शत्रु को रोकने या नीचा दिखाने के हेतु है। ये उसकी करालता एवं निष्ठुरता से भयभीत कोई बात नहीं उठा रक्खी । साँगल में ऐसे ही वीरों होकर अपनी स्वतन्त्रता, आत्माभिमान एवं गौरव से सिकन्दर की सेना को मुक़ाबिला करना पड़ा था। को युद्ध किये बिना समर्पित करनेवाले नहीं हैं। यद्यपि इस युद्ध में सिकन्दर की सेना विजयी हुई, इनकी देह में वज्र की शक्ति और आँधी-सा साहस तो भी कहना होगा कि पवित्र मातृभूमि को यवनों है। फिर भी वह अपने उद्देश से विचलित नहीं के पदाघात से बचाने के लिए साँगल के वीरों ने हुआ। और होता भी कैसे ? दिग्विजय की महत्त्वा- कुछ कम वीरता और युद्ध-कौशल नहीं प्रदर्शित कांक्षा उसे उल्लास प्रदान कर रही थी। नियति किया था और शत्रुओं को कुछ कम हानि नहीं उसका साथ दे रही थी। फल यह हुआ कि एक- पहुँचाई थी। अंत में सिकन्दर की सेना व्यास और मात्र भाग्यदेवी के प्रतिकूल होने से आर्यकुल-रवि सतलज के संगम-तट पर आकर ठहरी। महाराज पुरु युद्ध आरम्भ होते ही पराजित हो गये। यहाँ सैनिकों में काना-फूसी होने लगी। वे विजय-श्री सिकन्दर को प्राप्त हुई। इतना होने पर भी आपस में कहने लगे कि सम्राट् की बढ़ती हुई महाराज पुरु की निर्भीकता, निश्चलता एवं आर्यो- आकांक्षा को मान देकर उस अज्ञात एवं विस्तीर्ण चित आत्माभिमान में किंचित् अन्तर नहीं पड़ा। देश में जहाँ गंगा तथा ऐसे ही विस्तीर्ण अनेक नदीउनकी इस महत्ता को देखकर सिकन्दर ने न केवल नद अपने गुरु-गम्भीर गर्जन से वीरों के मन में भय उनका राज्य ही लौटा दिया, बरन जीतकर दूसरे उत्पन्न करते हुए बहते हैं, जहाँ महाराज नन्द के दो राज्य भी उन्हें दिये । इससे महाराज पुरु की अधी- लाख प्यादे, बीस हजार घुड़सवार और सैकड़ों नता में सात राष्ट्र, दो हजार नगर और सिन्ध के मदमत्त हाथी यूनानी सेना के मान-भंजनार्थ पूर्ववर्ती समस्त राजे आ गये।
उपस्थित हैं, अपना अस्तित्व मिटाने की अपेक्षा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१०
सरस्वती
स्वदेश लौट जाना श्रेयस्कर है । सम्भव है, जिस विजय- श्री को हमने अनेक कष्ट एवं असाधारण वीरता से हस्तगत किया है वह हिन्दुओं की संख्य सेना द्वारा हर ली जाय। माना कि हम वीर हैं और परिणाम की ओर ध्यान दिये बिना वीरोचित शौर्य प्रदर्शित करना हमारा परम कर्तव्य है; परन्तु साथ ही हमारे सम्मुख हमारे ध्येय या लक्ष्य का स्पष्ट एवं निश्चित होना भी परमावश्यक है। हम मातृ भूमि तथा कुटुम्ब के लोगों को सदा के लिए छोड़कर अनन्त की ओर नहीं जा सकते। सैनिकों की यह भावना- कामना सिकन्दर से छिपी नहीं रही । एक दिन उसने उनकी विचारधारा को अपने अनुकूल करने के हेतु उत्तेजना-भरे शब्दों में कहा- प्यारे सैनिको ! कठिन से कठिन मर्मभेदी दृश्य देख सकने की क्षमता रखनेवाला तुम्हारा सम्राट् आज तुम्हारे हृदय से युद्ध तृष्णा का लोप होते देखकर दुःख से कातर हो रहा है। क्या नहीं जानते कि क्षात्र धर्म के कर्म - क्षेत्र में जुट जाने के बाद सैनिक का दुर्बलता दिखाना सांघातिक होता है ? क्या नहीं जानते कि अधीर होकर आज्ञा भंग करना सैनिक के जीवन भर की साधना को निष्फल कर देता है ! वीरो ! उठो । हृदय क्षणिक दौर्बल्य को दूर करके मेघ-निर्मुक्त सूर्य की भाँति द्विगुणित तेज 'चमक उठो । मैं विश्वास दिलाता हूँ कि गंगा के पूर्वी शक्तिशाली साम्राज्य में यूनानी झंडा फहराने के अनन्तर माता के स्नेह से भी अधिक पवित्र जन्मभूमि के दर्शनार्थ निश्चय लौट चलूँगा ।
सैनिकों के मन में सिकन्दर की बात का कुछ भी असर नहीं पड़ा । वे पूर्ववत् उदासीन-भाव से चुप्पी साधे रहे। तब घुड़सवार सेना का नायक कानोस सैनिकों की ओर से उनका मन्तव्य व्यक्त करने के लिए खड़ा हुआ । उसने कहा सम्राट् ! आप जानते हैं कि दिग्विजय के निमित्त यूनान से कितने योधा निकले थे और इस समय आप देख ही रहे हैं कि उनमें से कितने साथ में हैं। युद्ध की भीषण ज्वाला ने
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
हमारे अनेक सैनिकों को भस्मीभूत कर दिया । तुधा, पिपासा और रोग की असह्य यन्त्ररणा ने कितनों को संसार से सदा के लिए उठा लिया। जो शेष रह ये हैं उनकी भी अवस्था चिन्तनीय है । निरन्तर कष्ट से सामना करने के कारण उनका शरीर जर्जर हो गया है- अब उनमें पहले जैसा न उत्साह है, न बल | अतः अब उन्हें आगे बढ़ने के लिए विवश करने की अपेक्षा स्वदेश लौटने की अनुमति देना उपयुक्त होगा । सम्राट् ! अनेक विजयों के पश्चात् स्वजनों से मिलने के लिए अवकाश लेना ही चाहिए । निरन्तर अत्यधिक साहस के कार्य में निरत रहने से मनुष्य की कौन कहे, ईश्वर तक प्रतिकूल हो जाते हैं ।
कानोस की बातें सुनकर सिकन्दर के मन में क्रोध का भाव जाग्रत हुआ । परन्तु परिस्थिति को प्रतिकूल देखकर उसने उच्च किन्तु गम्भीर स्वर में उदासीनता प्रकट करते हुए कहा - सैनिको ! जरा सोचो तो। तुम्हारे सम्राट् को अपने असीम साहस एवं उद्योग के फलस्वरूप इस बैंगनी पोशाक और ताज के सिवा और क्या प्राप्त है ? मैंने लूट में पाई हुई तुम्हारी सम्पत्ति नहीं ली है। मेरा निज का कोई खजाना नहीं है । मैं तुमसे कहीं अधिक सूखा-रूखा भोजन और कठोर परिश्रम करता हूँ । आपत्तिकाल में हिम, वात और वर्षा की तकलीफ़ों की परवा न करके बहुधा रात रात भर जागकर तुम्हारी चौकसी करता हूँ | मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि सैनिकों के लिए अपने प्राणों को सङ्कट में डाल कर जैसाभयङ्कर कार्य मैंने किया है, वैसा शायद ही किसी सैनिक ने मेरे लिए किया हो। क्या किसी यूनानी सैनिक के अङ्ग में उतने घाव हैं जितने मेरे शरीर पर अङ्कित हैं ? वीरो ! जो कुछ तुम्हारे बल पर मैंने किया है वह सब तुम्हारे लिए है तुम्हारी सन्तान के लिए है-यूनान और यूनानी राष्ट्र के उत्कर्ष, कल्याण और अक्षय कीर्ति के लिए है । उसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है । इस पर भी यदि तुम
www.umaragyanbhandar.com
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
मल्लियों से सिकंदर का मुकाबिला
३११
सबने अपने सम्राट को पराजित राष्ट्र के संरक्षण में कहना न होगा कि ये सब जलयान आर्या-द्वारा ही छोड़कर स्वदेश लौट जाने का सङ्कल्प कर लिया है निर्मित हुए थे। तो लौट जाओ। मैंने भी निश्चय कर लिया है कि पाँच दिन की यात्रा के अनन्तर सिकन्दर झेलम उपनिवेशों में बसे हुए यूनानियों की सेना संगठित और रावी के सङ्गम में पहुँचा। वहाँ दो नदियों की कर आगे बढुंगा।
सम्मिलित धारा के प्रचण्ड प्रवाह से उसके जल___ इतना कहकर सिकन्दर अपने खीमे में चला यानों की बड़ी दुर्दशा हुई। जब तक नावों की गया और यह देखने के लिए कि उसकी बातों का मरम्मत होती रही, वह शैव लोगों को परास्त करने सैनिकों पर क्या असर पड़ता है, वह तीन दिन तक में लगा रहा। वहाँ से लौटने पर उसे उसके तीनों न किसी सेनापति से मिला, न खीमे से ही बाहर सेनानायक निर्दिष्ट स्थान में ससैन्य मिले । फिर निकला। अन्त में सैनिकों को अपने विचार पर दृढ़ उसने चुने हुए वीरों की सेना लेकर मल्लियों के देखकर तथा नदी-पार करने की कठिनाइयों से राज्य पर चढ़ाई की। विवश होकर उसने सेनापतियों से स्वदेश लौटने का यद्यपि मल्लियों के नाम के स्मारकस्वरूप एकविचार प्रकट किया। इस संवाद को सुनकर सैनिकों मात्र मुलतान नगर के अतिरिक्त और कोई चिह्न ने बड़ा आनन्द मनाया । सिकन्दर की आज्ञा अब दृष्टिगोचर नहीं होता है, तो भी इतिहास से से पड़ाव के समीप बारह खम्भों का एक मन्दिर प्रकट होता है कि मल्लि लोग सभ्य, शिक्षित और वीर बनाया गया और वहीं बड़ी धूमधाम से भगवान् थे। डायडोरस और कारटियस ने लिखा है कि उन्होंने की पूजा-अर्चा की गई। फिर रावी नदी के तटस्थ यूनानियों को रोकने तथा नीचा दिखाने के लिए हिपेस्थियन के निरीक्षण में निर्मित नूतन नगर का शूद्रों की सहायता लेकर बात की बात में अस्सी हजार उद्घा रके सिकन्दर ससैन्य महाराज पुरु के प्यादे, दस हजार घडसवार और सात सौ रथ एकत्र राज्य में लौट आया।
कर लिये थे। इसमें सन्देह नहीं कि मल्लियों और यहाँ आकर सिकन्दर ने उत्तरी पंजाब के राज्यों शूद्रों की असामान्य सैनिक शक्ति के समक्ष थोड़े से की अन्तिम व्यवस्था की और पश्चिम की ओर यूनानी योधाओं का ठहर सकना कठिन था। परन्तु यात्रा के निमित्त अनेक जल-यान तैयार कराये। असमान योग्यता एवं विभिन्न जाति के इस मिश्रित यात्रा की सविधा के अर्थ उसने अपनी सेना को दल के सङ्गठन और सचारु प्रबन्ध के होने से चार टकडियों में विभक्त किया। मुख्य दल को उच्चवंशीय मल्लियों का यद्ध-कौशल और शदों का
हिपस्थियन की अध्यक्षता साहस किसी काम न आया। इसके सिवा जिस ___ में और प्यादे तथा घुड़सवारों के दल को क्रेटरस मरुस्थल को शत्रुओं के लिए दुर्गम और अपनी रक्षा
को अधीनता में झेलम के किनारे किनारे रवाना के लिए अजेय साधन समझकर उन्होंने सेना से किया और फ़िलिप्स को मण्डलेश्वरी सेना-सहित खाली रख छोड़ा था उसी से होकर सिकंदर ने राज्य । घुमाव के मार्ग से आगे बढ़ने का आदेश दिया। के बीचोबीच धावा किया और दूसरी दो ओर इतना सब करके वह आठ हजार योधाओं तथा से उसके दो सेनापतियों ने राज्य में घेरा डाला। मल्लाहों के संग जल-मार्ग से चला । एक यूनानी सिकंदर ने किस प्रकार मल्लिराज्य के एक गढ़ के इतिहास-लेखक का कथन है कि बेड़े में दो हजार बाद दूसरे गढ़ हथिया लिये तथा शत्रुपक्ष के लड़ाकू भिन्न भिन्न आकार-प्रकार की नावें और अस्सी वीरों को कैसी निष्ठुरता से मौत के घाट उतारा जंगी जहाज़ थे, जो लग्गियों से खेये जाते थे। आदि बातों के वर्णन में यूनानी इतिसाहकारों ने
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२
सरस्वती
अतिशयोक्ति से काम लिया है । अतः उनका उल्लेख न करके यहाँ हम घीर मल्लियों के मुख्य गढ़ में सिकंदर की चढ़ाई का दिग्दर्शन इतिहासकार एरियन के कथन के आधार पर कराते हैं।
मल्लियों के कई छोटे-मोटे दुर्गों को हस्तगत करने के अनन्तर यूनानियों ने उनके प्रमुख गढ़ को घेर लिया और उसमें प्रवेश करने का उद्योग आरम्भ किया। कुछ सैनिक दीवार में सुरङ्ग बनाने की चेष्टा में संलग्न हुए, कुछ फाटक तोड़ने के काम में तल्लीन हुए। कुछ कीलों और सीढ़ियों के सहारे दीवार फाँदने के लिए उचित स्थान तलाशने लगे। इन प्रयत्नों से कार्य-सिद्धि में विलम्ब होते देखकर सिकंदर अधीर हो उठा और एक सैनिक के हाथ से सीढ़ी छीनकर बड़ी फुर्ती से दीवार पर जा चढ़ा। उसके पीछे उसका ढालवाहक प्यूकेसटस ढाल लिये हुए ऊपर पहुँचा । यहाँ यह बता देना उचित होगा कि वह ढाल सिकंदर को भगवान् पालस के मन्दिर से प्राप्त हुई थी और युद्ध के अवसर पर सदा उसके सामने रहती थी ।
इधर अपने बादशाह को दीवार पर अकेला देख कर शाही सैनिक बड़ी आतुरता से ऊपर चढ़ने लगे । फल यह हुआ कि सीढ़ियाँ टूट गई । चढ़नेवालों को चोट आई और दूसरे ऊपर चढ़ने से रहे। सिकंदर ने देखा कि दीवार पर खड़े रहकर बुर्ज में स्थित तथा किले में छिपे हुए शत्रुओं का निशाना बनने की अपेक्षा किले के भीतर दाखिल हो जाना ज्यादा अच्छा होगा। इससे यदि शत्रुओं के मन में भय का सञ्चार हुआ जैसा कि होता आया है तो काम आसानी से बन जायगा । यदि ऐसा नहीं हुआ और वह शत्रुत्रों के क़ब्ज़े में चला गया तो उसके असा धारण साहस की बात इतिहास में अमर रहेगी । मन में ऐसा विचार आते ही वह क़िले में कूद गया और दीवार से टिककर शत्रुओं के आक्रमण और अपने सैनिकों की सहायता की राह देखने लगा । मल्लियों को उसके मुख की कान्ति तथा पोशाक की भव्यता से यह निर्णय करने में विलम्ब नहीं लगा कि
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
दुर्ग में प्रवेश करनेवाला व्यक्ति साधारण सैनिक हैया सम्राट् । फिर क्या था ? मल्लियों ने उसे घेर लिया और धर्मयुद्धानुसार उसे परास्त कर बन्दी बनाने के हेतु क्रमशः उससे भिड़ते गये। इस बीच में सेनाध्यक्ष वरीस और ल्योनाटस कतिपय सैनिकों के साथ दीवार फांदकर क़िले में प्रविष्ट हुए। शत्रुओं की इस वृष्टता से मल्लियों की आँखों में खून उतर आया । वे शत्रुपक्ष पर बाज की तरह टूट पड़े । युद्ध की काया पलट गई । अवरीस अपने कुछ साथियों सहित मारा गया। सिकंदर को भी एक तीर लगा जो उसके फ़ौलादी कवच को भेधकर उसकी छाती में जा घुसा । तुरन्त ही सिकंदर पछाड़ खाकर गिर पड़ा और शरीर से बहुत रक्त वह जाने के कारण उसका शरीर ठंढा पड़ने लगा । बादशाह की यह अवस्था देखकर यूनानी सैनिक बहुत चिन्तित हुए । मल्लियों के मुकाबले में ठहरना तथा अपने बादशाह की रक्षा करना उन्हें कठिन हो गया। तब उन्होंने एक मत होकर क़िले के द्वार पर क़ब्ज़ा करने और बाहर की यूनानी सेना को भीतर लाने का निश्चय किया और इसमें वे सफल भी हुए। फिर क्या था ? बाहर के सब यूनानी सैनिक क़िले में घुस आये और अपने बादशाह की शोचनीय अवस्था का समाचार सुनते ही हाहाकार करते हुए विपक्षियों पर प्रलय की भाँति टूट पड़े। वीर मल्लियों ने भी उनका वीरोचित स्वागत किया । अस्त्र-शस्त्र की भंकार, आहत वीरों की मर्मभेदी पुकार और लड़नेवालों की हुंकार से क़िले का वायुमण्डल कम्पायमान हो गया । योधागरण निर्दय और निर्मोही बनकर कटनेकाटने लगे, धरती रक्त-रञ्जित हो गई । मल्लियों का क़िला मल्लियों और यूनानियों के शव से पूरित हो गया ।
जब विपक्षी दल में कोई भी योधा शेष नहीं रहा, किले में रक्षित बूढ़े, स्त्री तथा बालक तक समराग्नि में भस्मीभूत हो गये तब यूनानियों का ध्यान अपने बादशाह की ओर आकृष्ट हुआ, जो प्येकेसटस
www.umaragyanbhandar.com
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
मल्लियों से सिकंदर का मुकाबिला
३१३
और ल्योनाटस के संरक्षण में अपनी ढाल पर पड़ा चीर-फाड़ में बादशाह के शरीर का रहा-सहा रक्त हुआ मृत्यु का मार्ग देख रहा था। उसकी यह अवस्था भी निकल गया और वह फिर बेहोश हो गया। कहना देखकर सैनिक मन-ही-मन रोने लगे। कोई चिकित्सक न होगा कि नदी के तट में स्थित यूनानी पड़ाव से साथ में न होने के कारण बादशाह की चिकित्सा राजवैद्य बुलाया गया और उसकी यूनानी हिकमत की व्यवस्था तुरन्त नहीं हो सकती थी। इसी बीच से सिकंदर चलने-फिरने लगा। में सिकंदर एक बार चैतन्य हुआ और अपने को सिकंदर की चढ़ाई ने तत्कालीन भारतीयों के यूनानी सेना से घिरा हुआ पाकर कराहते हुए क्षीण मन में जो प्रभाव उपस्थित कर दिया था, लगभग स्वर में बोला-असह्य पीड़ा है। जितनी जल्दी हो वैसा ही प्रभाव मुट्ठी भर मल्लियों ने सिकंदर के सके मेरी छाती से तीर निकाला जाय। तब पर- हृदयपटल पर अङ्कित कर दिया था। कहते हैं कि डिकास ने अपनी तलवार से घाव को चीर कर जब कभी बादशाह को उसका स्मरण हो आता था बादशाह की छाती से तीर को अलग किया। इस तब उसका दिल दहल जाता था।
भ्रमरी
लेखक, श्रीयुत दिनकर पी मेरी भ्रमरी, वसन्त में अन्तर-मधु जी भर पी ले, कुछ तो कवि की व्यथा सफल हो, जनू निरन्तर, तू जी ले । चूस चूस मकरन्द हृदय का संगिनि ! तू मधु-चक्र सजा, और किसे इतिहास कहेंगे ये लोचन गीले गीले !
अर्पण किया चरण पर तेरे माँग माँग जो कुछ लाया, फूल मिले तो हार बनाया, चोट लगी, छाले छीले । लते ! कहँ क्या सखी डालों पर क्यों कोयल बोल रही !
बतलाऊँ क्या अोस यहाँ क्यों ? क्यों मेरे पल्लव पीले ? पूछ न प्रिये, अर्थ आँसू के, जिसने 'अदन बारा' छीना, बन निशीथ का पवन सिसकता फिरता याद उसी की ले । किसे कहूँ, धर धीर सुनेगा दीवाने की कौन व्यथा ? मेरी कड़ियाँ कसी हुई, बाक़ी सबके बन्धन ढीले ।
मुझे रखा अज्ञेय अभी तक विश्व मुझे अज्ञेय रहा, सिन्धु यहाँ गम्भीर, अगम सखि ! पन्थ यहाँ ऊँचे-टीले । पी मेरी भ्रमरी, वसन्त में अन्तर-मधु जी भर पी ले, कुछ तो कवि की व्यथा सफल हो, जलूँ निरन्तर, तू जी ले ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
AAAAAAAAAAAAAAA
स्वदेशी में अड़चन
लेखक, पण्डित मोहनलाल नेहरू
पंडित मोहनलाल जी ने व्यक्तिगत अनुभव से स्वदेशी प्रचार के मार्ग में क्या क्या बाधायें हैं यह बताते हुए इस लेख में सिद्ध किया है कि इधर कांग्रेस-कमेटियों और चर्खा-संघों का कार्य करने का जो ढङ्ग रहा है वह स्वदेशी प्रचार के मार्ग में बाधा ही समझा जायगा। आपका कहना है कि यदि इसी दृष्टिकोण
से कार्य जारी रहा तो म्वदेशी का प्रचार आगे नहीं बढ़ सकेगा।
क्टूबर के आखिर में दिवाली
अर्थात ग्रामोत्थान का काम हाथ में लिया के सप्ताह में इलाहाबाद की स्वदेशी लीग का पाँचवाँ
___परन्तु कोई 'उत्थान' खाली भारी स्वदेशी मेला होगा। इस
भारी वेतन ही पानेवाले अधिकारियों की अवसर पर शायद यह अनुचित न होगा
नियुक्ति से नहीं हो सकता । जितना यदि मैं एक दफ़ा फिर स्वदेशी के रास्ते
रुपया गवर्नमेंट ग्रामसुधार के वास्ते मंजूर में आनेवाली बाधाओं का यहाँ उल्लेख करूँ । इस करेगी वह वेतनों और भत्तों में चला जायगा, असल उल्लेख के करने में सम्भव है मुझे कुछ संस्थाओं पर काम के वास्ते शायद नाममात्र को ही कुछ बचे। कटाक्ष करना पड़े, किन्तु मैं यकीन दिलाता हूँ कि वे यह उत्थान का काम खाली दिखाने का ही रह इसी नियत से किये जायेंगे कि उनके संचालक उन जायगा। सरकारी तौर पर जो भी सीखा जाता है कटातों पर ध्यान दें और यह न समझ बैठे कि वे उसमें खर्च बहुत होता है और इस तरह के सीखे किसी बुरी नीयत से किये गये हैं।
आदमी बाजार में मुक़ाबिले पर खड़े नहीं हो सकते।' दुनिया भर की गवर्नमेंटें अपने अपने देश में इस वास्ते मेरी यह राय है कि यह काम खुद स्वदेशी स्वदेशी की उन्नति करने में तत्पर हैं। इसके वास्ते वे के रास्ते में ही बाधा डालेगा। बहुतेरों को असफल बाहरी माल पर टैक्स लगाती हैं या किसी दूसरी देखकर आगे लड़कों को सीखने से उनके बड़े लोग तरह जारी रोक-थाम करती हैं। यहाँ तक कि अँगरेज़ी रोक देंगे। हाँ, अगर यही काम गांधी जी के गवर्नमेंट के उपनिवेश आपस में भी एक-दूसरे के विलेज इंडस्ट्रीज एसोसियेशन' से मिल कर सरकार माल की रोक-थाम कर सकते और करते भी हैं। करती तो शायद अधिक फायदा होता । कम खर्च बिना इस रोक-थाम के आज-कल अपने खास के साथ काम सीखने से सीखनेवालों का लाभ भी व्यवसायों का बचाना मुश्किल है या दूसरे शब्दों में होता। बिना सरकारी सहायता के स्वदेशी की उन्नति हो सरकारी सहायता न होने से गांधी जी का नहीं सकती। यह हमारी गवर्नमेंट तक जानती है एसोसियेशन भी अधिक काम नहीं कर सकता। और शायद इसी वास्ते उसने भी 'विलेज अपलिफ्ट' पहले तो शायद उसे बाधाओं से ही सामना करना
३१४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
स्वदेशी में अड़चन
३१५
पड़े-सब जगह नहीं तो कम से कम आधे जिलों फिर जैसा मैं पहले भी कह चुका हूँ, गांधी जी में। पैसे की उसे तंगी होगी, कार्यकर्ता देशभक्ति के का एसोसियेशन तो शुरू से ही 'स्वदेशी' के कार्यजोम में कुछ दिन काम अवश्य करेंगे। सैकड़ों वर्षों कर्ताओं को डरा रहा है। वह कितनी ही असली का तजरुबा है कि अधिकांश सुधारक लोगों में एक स्वदेशी वस्तुओं को विदेशी घोषित करने की धमकी अभिमान-सा आ जाता है। यह अभिमान खुद ही दे चुका है। कोई भी पूँजीपति उसके कहने के अनुकाम में बाधा डालता है। उसी तरह इसमें भी होने सार मजदूरी न दे या दुर्भाग्य से बड़ा पूँजीपति हो की सम्भावना है।
इत्यादि तो वह बिरादरी से खारिज किया जायगा देहातों में कितने ही उद्योगों और व्यवसायों की और उसकी बनाई हुई वस्तु विदेशी के तुल्य होगी। उन्नति क्यों न हो उनके माल का निकास भी तो होना एसोसियेशन के पास हर छोटे-बड़े कारखानों के चाहिए। वह रेल को छोड़ कौन कर सकता है ? जाँचने का कोई साधन नहीं है, क्योंकि इसमें खर्च मोटरलारियों पर हमारी 'हकमत' क्रद्ध है। उनके बहत है जो बनी हई वस्तु के दाम बढाता है। इस वास्ते ऊपर टैक्स पर टैक्स लादे जा रहे हैं और कोशिश उसे छोटे पूँजीपतियों के कहने पर ही एतबार करना इस बात की रहती है कि वे रेल का मुक़ाबिला न कर होगा। वे कह देंगे कि हम वही वेतन देते हैं जो सकें। जो पेट्रोल ब्रह्म देश से जाकर इंग्लैंड में || आपने मंज़र किया है और उन्हें मानना पड़ेगा। या =)का मिलता है, उन्हें शा-।। का मिलता है। क्या सभी आदमी जो उस एसोसियेशन के इकराररेल के किराये इस तरह रखे गये हैं कि 'बन्दरगाहों' नामे पर दस्तखत करेंगे, धर्म-मूर्ति होंगे ? ऐसा को छोड़ जहाँ विदेशी जहाज़ आ सकते हैं, हर जगह इक़रार किस काम का जो तुरन्त ही तोड़ दिया जाय ? मुकाबले में वे ज्यादा हैं। इसके कारण इलाहाबाद या कांग्रेस ने पारसाल इस एसोसियेशन को स्थापित किसी भी शहर का जो समुद्र के तट पर न हो, बना किया और नगरों की कांग्रेसी सभाओं को प्रदर्शनियाँ माल विदेशी माल का मुक़ाबिला नहीं कर सकता। करने की आज्ञा दी। परन्तु कब ? जब उसके नियमों वही कठिनाइयाँ देहाती माल के सामने आयेंगी और का पालन किया जाय। वे नियम क्या हैं ? सिर्फ वह मशीन-द्वारा बने माल की तरह कुछ दिन भी वे वस्तुएँ उस प्रदर्शनी में रक्खी जायेंगी जो या तो मुक़ाबिले पर न खड़ा हो सकेगा। जापानका मुक़ाबिला छोटे छोटे पूँजीपति जो उस सभा के नियमों को तो दूर रहा, महँगे मुल्कों का भी ऐसी सूरत में मान चुके हों, बनावें या देहाती लोग अपने घरों मुकाबिला नहीं हो सकता। दीवान चमनलाल और में बनावें, परन्तु कुल कच्चा माल स्वदेशी ही होगा। एक कानपुर के मुसलमान डिप्टी साहब जो अलग और भी कड़ी शर्ते हैं, जिनके यहाँ लिखने की अलग जापान घूमकर आये हैं, हमें बताते है कि ज़रूरत नहीं। जो शर्ते मैंने ऊपर लिखी हैं वे बहुत कड़ी जापान में मोटर टैक्सी का किराया छः-छः, सात- नहीं हैं, फिर भी क्या वे मानी गई ? नगर-कांग्रेससात मील का 1-1 या 2 देना होता है। वहाँ कमिटियों ने बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ इत्यादि पेट्रोल एक गैलन ।-) का मिलता है और लारियों शहरों में प्रदर्शनियाँ कीं। अपने इश्तिहारों में यह छापा पर टैक्स नाममात्र को लगता है। इसी से उनकी अवश्य कि नये क़ायदों के अनुसार यह प्रदर्शनी होगी। वस्तुएँ सस्ते में एक जगह से दूसरी जगह जा पहुँचती बनारस के एक कार्यकर्ता ने मुझसे कहा कि हम हैं। जहाज का भी किराया और मुल्कों के जहाजों इस नियम का पालन अगले साल से करेंगे, से बहत कम है। यह रेल और मोटरों की महँगाई इस साल तो पुराने ही कायदों पर चलेंगे। हमारे व्यवसायियों के रास्ते में बहुत बड़ी बाधा है। इलाहाबाद की प्रदर्शनी मैंने खुद देखी और वहाँ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१६
सरस्वती
[ भाग ३६
सैकड़ों ऐसी वस्तुएँ थीं जो कांग्रेस के उन कड़े अपने तजरुबे पर लिखा था और मैं उसे फिर से नियमों में नहीं आ सकतीं। गत वर्ष कुछ इन्तिजामी दोहराता हूँ, इस वास्ते नहीं कि कोई शिकायत है, कारणों से इलाहाबाद-स्वदेशी लीग ने मिल का परन्तु इस वास्ते कि वैसा आगे न हो। कपड़ा अपने मेले में नहीं आने दिया था। उसमें खादी के प्रचार में जो कठिनाइयाँ हैं उनका मुझे मिल के बने फीते भी नहीं आने दिये गये थे। पर भी थोड़ा अनुभव है। मैं कोई विशेष कार्यकर्ताओं कांग्रेस ने उन्हें अपनी प्रदर्शनी में रक्खा था और में नहीं हूँ, इसका मुझे दुख है, तो भी गत पाँच-छ: बेचने की आज्ञा दी थी। दूसरी दूकान पर जो वर्ष से इलाहाबाद-चरखा-प्रचारक-मंडल से मेरा शायद किसी जूटवाले ते किराये पर ली थी, मिल थोड़ा-सा सम्बन्ध रहा है और इलाहाबाद-स्वदेशी की बनी साड़ियाँ बिक रही थीं। इन बातों की ओर लीग के प्रति थोड़ा ध्यान देने से मुझे उसका संचालकों का ध्यान आकृष्ट किया गया, जिस पर भी कुछ हाल मालूम होता रहा है। कई वर्ष की बात एक सजन ने कहा कि जो होना था हो गया। है, उस मंडल ने खादी के पचासों थान और टुकड़े ऐसी ही त्रुटियाँ और प्रदर्शनियों में भी हुई। पर मैं अपनी निगरानी में इलाहाबाद के आस-पास के यहाँ उन पर कुछ न लिलूंगा। मेरी राय यह है कि गाँवों में बनवाये थे और नीयत बाज़ार में बेचने की इस तरह की भूलें असत्व बात को हानि पहुँचाती हैं, थी, किन्तु उसके पास कोई बेचने का ज़रिया न लोग खुले-खजाने कहते हैं कि यह पैसा पैदा करने था । बहुत दिनों तक लीग के सेक्रेटरी खादी-भंडार का खाली ढोंग है। फायदे के बदले वे स्वदेशी के से उन्हें बेचने को कहते रहे, पर वह राजी न हुआ। काम में बाधा डालती हैं। यह सच है कि किसी मैंने भी सिफारिश की, फिर भी उसको राजी न कर खास संस्था को उससे नुकसान नहीं पहुँचता (सिवा पाया। मैंने खुद कहा कि वे सार्टिफिकेट दे दें तो बदनामी के), परन्तु उस काम को जिसे सभी 'देशी कारबार' के द्वारा ही बिकवा दूँ, मगर वह संस्थाओं की चलाने की नीयत होती है, बड़ा धक्का कुछ संतोषजनक उत्तर न दे सका। पुरानी बात लगता है । और बदनामी भी कैसी ! कुछ कांग्रेस- है, इससे तफ़सीलवार याद नहीं रही। डेढ़ या दो कमेटी कांग्रेस के नियमों के विरुद्ध काम करे तो वह वर्ष बाद मजूमदार बाबू ने कुछ लिखा-पढ़ी करके देवताओं और महात्माओं को भले ही समझा यह इजाजत मॅगा ली कि 'भंडार' बाजारू दामों पर सके, परन्तु सर्वसाधारण अपनी कांग्रेस-भक्ति का उस माल को ले ले। तब कुछ माल खादी-भंडार ने सबूत नहीं दे सकती। वे तो कहेंगे ही कि ये लोग ले लिया और बाक़ी आहिस्ता-आहिस्ता लीग के कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं।
कामों में खर्च किया गया और अभी तक कुछ बाकी __मुझे यह मालूम है कि चरखा-संघ में बहुत-से ऐसे पड़ा है। चरखा-मंडल के पास अगर अनगिनत सजन पुरुष सम्मिलित हैं जिन्होंने अपने व्यक्तित्व रुपया होता तो कोई रोने की जगह न थी। उसे इस को उसमें मिला दिया है। इसमें शक नहीं कि उन्होंने किस्म की बाधा पड़ने से कपड़ा बनाने का काम बन्द लाखों कतैयों और बुनकरों को काम दिया और दे करना पड़ा और पचासों कातनेवाली स्त्रियों ने रहे हैं और अगर जनता की सहायता रही तो वे सूत न बिकने से चरखे उठा दिये। मेरे पास यह करोड़ों को दे सकेंगे। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता रिपोर्ट है। अगर कोई सज्जन उन बेकार चरखों को हूँ कि वे इस शुभ काम में सफल हों। मुझे यह भी देखना चाहे तो अब भी शायद चरखा-मंडल के मालूम हो गया कि उन्होंने बहुत-से भंडार खुलवा असली कार्यकर्ता दिखा सकेंगे। मैं फिर यह दोहराता दिये हैं। मगर जो कुछ मैंने पारसाल लिखा था वह हूँ कि मुझे कोई शिकायत नहीं, मगर मेरा यह
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
स्वदेशी में अड़चन
कहना कि इस किस्म की बातें स्वदेशी के काम में बाधा डालती हैं, ग़लत नहीं है ।
यह कौन नहीं जानता कि खादी महँगी है और जो लोग पैसा नहीं खर्च कर सकते या जिन्हें वह चुभती है, मिल का ही कपड़ा लेंगे। मगर मिल का कपड़ा फ़ैशन में दाखिल है, यह मानना जरा मुश्किल है । मैंने पहले भी कहा है कि सबको महात्मा नहीं बना सकते । चरखा-संघों की भी यह नीयत नहीं है, क्योंकि वे रेशम को खादी रेशम के नाम पर बेचते हैं, मगर जब उन रेशम पहननेवाले या पहनने वालियों को फैशनेबल बनना होता है तब सफेद मोटी खादी ही पहने दिखाई देती हैं। विदेशी कपड़ा सस्ता है। देशी मिलों का उनसे महँगा है। जब आप देशी और विदेशी मिलों को एक ही हालत में रक्खेंगे तब जो लोग मिल का कपड़ा लेते हैं व विदेशी क्यों न लें ? इस वक्त कम-से-कम वे शरमा शरमी में देशी मिल का तो ले लेते हैं। अगर मुझे पूरा अधिकार होता तो मैं क़ानून द्वारा मिलों को बन्द कर देता, मगर उस वक्त तक नहीं जब तक मैं विदेशी कपड़ों का आना न रोक सकता । वर्तमान हालत में देशी मिलों को बिरादरी से खारिज करना स्वदेशी के रास्ते में बहुत बड़ी बाधा है ।
लोग खादी के भक्त हैं और जिन्होंने शायद उसके पीछे अपनी हस्ती को मिटा दिया है वे खुद ही
में बाज़ वक्त उसकी बिक्री में अड़चन डाल देते हैं | वह कैसे ? कुछ दिनों से उन्होंने यह नियम निकाला है कि जिस स्वदेशी मेले में मिल का कपड़ा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
३१७
बिकेगा वहाँ खादी नहीं बेचेंगे। यह अगर पराई बदशुगूनी पर अपनी नाक कटाना नहीं तो और, क्या है ? मुझे इलाहाबाद के मेले का थोड़ा-सा अनुभव है। मैंने वहाँ पिछले चार साल से यह देखा है कि कुछ खादी के भक्त [स्त्री और पुरुष, जो बहुधा बाहर भी खादी भंडार को खादी बिकवाने में सहायता दिया करते हैं] उसकी दूकान पर घंटों खड़े रहकर हजारों का उसका सौदा करा देते हैं और ऐसे लोगों के हाथ जो यों खादी के पास भी नहीं फटकते । खादी भंडार के उस मुक़ाबिले के क्षेत्र से निकल भागने से उतनी भी खादी जो वहाँ बिक सकती है, नहीं बिकेगी और उसके जिम्मेदार वही मज्जन होंगे जिन्हें वह अपने व्यक्तित्व से भी अधिक प्यारी है। खादी न पहननेवालों को दोषी ठहराना या मिल का कपड़ा पहननेवालों को बुरा-भला या देशद्रोही तक कह देना उस आर्थिक हानि को, जो रूठकर बैठ जाने से खादी को होगी, पूरा नहीं कर सकता । जब कोई उद्योग या व्यवसाय मुक़ाबिले पर आने से इनकार करेगा तब वह उसी वक्त सफल हो सकेगा जब उसके भक्तों के पीछे वाक़त होगी। इस वक्त उनके पास इतनी सी तो ताक़त है नहीं कि वे दूसरों को अपने तरफ से इक़रारनामे करने से रोक सकें, फिर खाली रूठने से वे अपने तई और नुक्सान पहुँचायेंगे । जो बात आज चरखा-संघ कर रहा है वह ही कल विलेज इंडस्ट्रीज एसोसियेशन करेगा । मैं तो इसे स्वदेशी के प्रचार में बाधा ही समझँगा ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
न् १४५७ ई० में सरदार श्रोता दोकान् ने समुद्र के पास सुमिदा नदी के कछार में अपने लिए एक गढ़ी बनाई, जिसका नाम येदो पड़ा । १५६० ई० (अगस्त) में तोकुगावा इयेयसु का यह प्रान्त जागीर में मिला और उसने येदो में अपना केन्द्र स्थापित किया । १६०३ ई० में इयेयसु ने अपने प्रतिद्वंद्वियों को हटाकर अपने तोकुगावा - वंश के शोगुनन्न की स्थापना की; जिसके कारण येदो जापान के वास्तविक शासन का केन्द्र हो गया । १६६७ ई० में यद्यपि तोकुगावा वंश ने शोगुन का पद त्याग दिया; और सन्देह होने लगा था कि येदो फिर कहीं पुरानी झीलों और झाड़ियों के रूप में परिणत न हो जाय । किन्तु सम्राट् मेइजी (१८६८-१६१२) ने शासन की बागडोर सँभालते ही क्योंतो से राजधानी हटाकर येदो लाने की घोषणा की, और तभी येदो का नाम बदल कर तोक्यो रक्खा गया ।
स
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara: Surat
तोक्यो
[ तोक्यो - शिनोबाजू सरोवर
शोगुन की राजधानी होते समय भी तोक्यो (येदो) की जन-संख्या दस लाख थी, और मिकादो की राजधानी होने पर तो जापान के वैभव की वृद्धि के साथ साथ तोक्यो की भी श्रीवृद्धि होती गई । और आज तोक्यो की जन-संख्या ५४ लाख ३२ हजार है, अर्थात् लन्दन (८२ लाख), न्यूयार्क (६६ लाख ३० हज़ार) के बाद तीसरा नम्बर तोक्यो का ही है । १६२३ ई० के भयानक भूकम्प ने न सिर्फ़ एक लाख की प्राण- बलि ही ली, बल्कि उसके साथी आग ने भी आधे शहर को जलाकर राख कर दिया । उस वक्त सोचा जा रहा था कि तोक्यो फिर से आबाद किया जाय या शहर दूसरी जगह ले जाकर बसाया जाय । किन्तु भूकंप के दूसरे सप्ताह के बीतते बीतते (१२ सितम्बर को) सरकार ने पुनः निर्माण की घोषणा निकाल दी, पचासी करोड़ येन (उस समय प्रायः एक अरब तेरह करोड़ रुपये) लगा कर सात वर्ष में पुनर्निर्माण-कार्य का प्रोग्राम बना, और १६३० ई० में तोक्यो फिर तैयार हो गया। नया तोक्यो पहले से भी सुन्दर, स्वास्थ्यप्रद बनाया गया। भूकम्प के ध्वंस से लाभ उठाकर तंग गलियों की
३१८
www.umaragyanbhandar.com
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
PUBLISHESITA
BESH
RRERTAL BIPI
तोक्यो का नम्बर संसार में तीसरा है। इस लेख में श्री राहुल जी ने उसी की वर्तमान उन्नति का वर्णन किया है। जापान से
आप कोरिया, मंचूरिया होते हुए रूस जायगे। आगे हम क्रमश: इन देशों के सम्बन्ध में भी आपके विद्वत्ता पूर्ण लेख प्रकाशित करेंगे।
तोक्यो—एक सड़क] जगह चौड़ी सड़कें निकाली गई। जहाँ भूकंप से पूर्व शहर १६ मई को हमने ४७ रोनिन् की समाधियों को देख के क्षेत्रफल का ११६ सैकड़ा सड़कों और गलियों के लिए कर नवीन जापान के निर्माता सम्राट मेइजी की समाधि छोड़ा गया था, वहाँ अब वह २७ सैकड़ा है। शहर का देखने गये। समाधि से यह न समझिए कि यहाँ क्षेत्रफल २१३ वर्गमील है।
नगर के बीचो-बीच में राजभवन है। पहले यहाँ शोगुन के महल थे। महल के चारों ओर गहरी खाई है, जिसमें बारहों मास पानी भरा रहता है। देवदार तथा दूसरे वृक्षों तथा मखमली घास के कारण यह एक अत्यन्त रमणीक स्थान है। किसी समय सुमिदा नदी शहर की सीमा रही होगी, किन्तु अब दर्जनों पुलों से उसे पार करके शहर बहुत आगे तक बढ़ गया है । तोक्यो समुद्र-तट पर है, और यहाँ एक बन्दरगाह भी है । तो भी पानी अधिक न होने से बड़े जहाज़ यहाँ नहीं पहुँच सकते । कोई दूसरा स्थान होता तो सरकार खोदकर उसे गहरा भी बनाती. किन्तु यहाँ उस मेहनत का क्या भरोसा ? अाज करोड़ों रुपये लगाकर गहरा किया जाय, और कल भूकंप आकर एक मिनट में समुद्र की पेंदी को ऊँची कर दे। इसका ही फल है कि जहाज़ों का बन्दर होने से योकोहामा एक समृद्ध शहर बना हुआ है।
लेखक, श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन ३१९
www.umaragyanbhandar.com.
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२०
सरस्वती
[ तोक्यो - उपेने स्टेशन]
उनका शरीर रक्खा हुआ है । उनकी असली समाधि तो क्योतो के पास है । किन्तु जापानी जाति के लिए उनका सम्राट् देवता है, इसी लिए उसके प्रति श्रद्धा दिखलाने के लिए स्थान स्थान पर पूजा-स्थान या देवालय बने हुए हैं । इस स्थान को मेइजी जिनशा कहते हैं। यदि आपके पाँच साथी हों, और पाँच-छः मील शहर में चलना हो, तो जापानी टेक्सी का इस्तेमाल न करना बुद्धिमानी का काम न होगा । ५ आदमी के लिए टेक्सीवाला ५० सेन् (सवा पाँच आने) लेगा, अर्थात् आदमी पीछे सिर्फ़ ५ पैसे। भारत में एक्का भी तो इतना सस्ता न मिलेगा, और न ट्राम ही। और टेक्सी के बारे में क्या पूछना है ? बाहर से उसका सारा शरीर वार्निश से चमाचम कर रहा है। मालूम होता है, आज ही कारखाने से बाहर निकली है । और भीतर मुलायम मखमली गद्दी भी वैसी ही साफ़ और नई । हमारे यहाँ के ड्राइवर नई गाड़ी का भी एक महीने में चौपट करके रख देते हैं, क्योंकि उनका खयाल है कि गाड़ी चलाना भर उनका कर्त्तव्य है । किन्तु जापान में जहाँ ५-१० मिनट के लिए भी गाड़ी खड़ी हुई कि ड्राइवर पाँख के झाड़ू से गाड़ी के भीतरबाहर झाड़ डालता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
मेइजी-देवालय एक विशाल उद्यान के बीच में अवस्थित है। उद्यान
का क्षेत्रफल १२० एकड़ है, और सारी इमारतों
के निर्माण में ८५ लाख
येन् लगे हैं, जो सभी
प्रायः जनता ने स्वेच्छा
पूर्वक दिया है। एक
खास हद तक जाकर मोटर रुक जाते हैं।
वहाँ सामने सीधा-सादा किन्तु विशाल द्वारतोरण
|
है । रोड़े पड़े विशाल मार्ग से बाग़ के भीतर चलिए, फिर कुछ दूर बाद बाई और घूमिए । कुछ दूर पर फिर वैसा ही द्वारतोरण मिलता है । चलते वक्त यदि साथियों की भीड़ और नीचे के रास्ते को श्राप भूल जायँगे तो जान पड़ेगा, किसी बीहड़ जंगल में आगये हैं । आखिरी तोरण के भीतर जाने पर बहते पानी का हौज़ है, जिसमें लकड़ी के दोने पानी निकाल कर हाथ धोने के लिए रक्खे हुए हैं। किसी भी देवालय में प्रविष्ट होने से पूर्व हाथ-मुँह धो लेना जापानी सदाचार है। यहाँ सम्राट् मेइजी के देवालय में भी उसका पालन करना आवश्यक है। यह बात तो वहाँ हज़ारों श्रादमियों को वैसा करते देखकर आप ही स्पष्ट हो जाती है। आँगन से आगे बढ़कर एक छोटी ड्योढ़ी है, जिसके सामने धान के पुनाल की रस्सी लटक रही है । बीच के दरवाज़े की सीध में देखने से एक आँगन दिखलाई पड़ेगा, जिसके परली और एक और मकान है । उसी मकान में सम्राट् मेइजी की आत्मा का निवास है । आप देखेंगे, हर एक जापानी टोपी उतारकर बड़ी भक्ति से प्रणाम कर रहा है। यदि आपके भीतर वैसा धार्मिक भाव न हो, तो भी अपने मेहमान की सहानुभूति के लिए आपके अपनी टोपी उतार लेने में कोई उज्र नहीं होना चाहिए।
wwww.umaragyanbhandar.com
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
मेइजी
'यही देवालय है', यदि ऐसा कहा जाय तो आप
कह उठेंगे, 'मज़ाक
कर रहे हैं क्या' । यहाँ
न कोई कारुकार्य हैं,
न प्रस्तरशिल्प, न सोने
का काम है, न चाँदी
का । न संगमरमर की दीवारें हैं, न उन पर बहुमूल्य रत्नों की पच्चीकारी । छत देखने से पुत्राल की
मोटी छत-सी मालूम होती है। दीवार और
तोक्यो शहर
।
खंभों की लकड़ी पर एक बूँद भी वार्निश नहीं लगाई गई द्वार पर की दो-तीन लटकती पुत्राल की रस्सियों का शृंगार तो नहीं कह सकते । चाहे आपको विश्वास हो या न हो, यही मेइजी देवालय है। शिन्तो- देवालय का अत्यन्त सादा और झोपड़े के आकार में बनाना धार्मिक नियम समझा जाता है, इसी लिए यह सादगी दीख रही है । १६१२ ई० में सम्राट् का शरीर अन्तिम कृत्य के लिए यहीं रक्खा गया था, इसलिए यह स्थान अत्यन्त पवित्र समझा जाता है ।
वहाँ से अब हम फिर जंगल में घुसे । अब की हमें ऐसा रास्ता मिला, जो वस्तुतः ही जङ्गल का मालूम होता था। कहीं कहीं देवदार जातीय वृक्षों की सुई के आकार की पत्तियाँ पड़ी थीं, जिन पर बैठे हुए दम्पती अपने बच्चों का खेल देख रहे थे । कहीं सारा परिवार बैठा मिठाई खा रहा था। कहीं कहीं तरुण-तरुणियों की प्रणय कथा जारी थी। कहीं कुत्ता फेंके गेंदे को मुँह में दावे मालिक के पास ले जा रहा था । आखिर हम घोड़-दौड़ के मैदान के पास पहुँचे । पास में ही वेस - बाल खेलने का क्रीडा क्षेत्र है । श्राज वासेदा यूनिवर्सिटी का किसी दूसरी यूनिवर्सिटी से मैच था। मैच देखने के लिए पचास हज़ार
फा. ५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
३२१
[सुमिरा नदी का एक पुल ]
आदमियों की भीड़ जमा हुई थी। समय समय पर ताली या शब्द की आवाज़ हमें भी सुनाई दे रही थी । खैर, हमें मैच देखने की कोई इच्छा भी नहीं थी, किन्तु इच्छा होने पर वह उतना आसान न था । तोक्यो के ५४ लाख आदमियों में खेलों के शौकीन बहुत अधिक हैं । पहले तो टिकट ही कुछ घण्टे में बिक जाते हैं। यदि टिकट मिल गया तो भी आपका ३६ घण्टा पहले श्राकर क़तार में खड़ा होना होगा। यदि खुद नहीं आ सकते तो आपके एवज़ में खड़े होनेवाले भाड़े के लड़के मिल सकते हैं । यदि नागवार हो तो तिगुने-चौगुने दामों पर अपने टिकट को बेच लें ।
वहीं और एक विशाल दुमहली इमारत है, यही मेइजी चित्रशाला है । हमारे वहाँ पहुँचते-पहुँचते पाँच बजने में १० मिनट रह गये थे । दरवाज़े के बाहर की चीजें जल्दी जल्दी भीतर रक्खी जा रही थीं। हम तो हताश हो गये थे, किन्तु कहा गया- आप जा सकते हैं, और कुछ देर तक देख भी सकते हैं, निकलने का रास्ता दूसरा है । चित्रशाला की इमारत बाहर से विशाल मालूम होती है, किन्तु भीतर जाकर और विशाल मालूम होती है । दीवारें ठोस तथा संगमरमर जैसी मालूम होती । दो
www.umaragyanbhandar.com
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२२
सरस्वती
[भाग ३६
MIRE
दिन सुन्दर था और शरत् की स्वच्छ हवा थी। सम्राट कामेई को जिस समय शुभ संवाद सुनाया गया, उस समय वे मध्याह्न का भोजन कर रहे थे। . लेख में दर्ज हुअा है कि इस खुशखबरी को सुनकर आनंदमग्न होकर सम्राट ने कुछ और प्याले साके (शराब) के चढ़ाये थे।
कुछ भी हो,
शताब्दियों से शोगुन [तोक्यो-गिन्ज़ा, रात में
के बंदी मिकादो और विशाल शालों में महान् सम्राट मेइजी के जीवन-सम्बन्धी उनके अनुयायियों को उस समय स्वप्न में भी खयाल ८० मूल चित्र रक्खे हुए हैं। आप जापानी नहीं जानते न हो सकता था कि यह कनिष्ठ कुमार मिकादो के तो कोई बात नहीं। कुछ सेन् देकर नीचे से विवरण पुस्तिका सिंहासन पर (१८६८ ई०) बैठेगा और बैठने के साथ ले अाइए। पहले ही चित्र से शुरू कीजिए। इस चित्र अपने वंश के चिरवंदी-जीवन का ही अन्त नहीं करेगा, के चित्रकार हैं शुका तकाहाशी, और प्रदाता हैं माविस बल्कि कुछ ही वर्षों में अत्यन्त अल्प खून-खराबी के साथ सुकेचिका नकायामा । प्रदाता सम्राट मेइजी के मातुल- टुकड़े टुकड़े में बँटे हुए जापान को एक राष्ट्र बनायेगा। वंश के हैं, जिनके घर पर सम्राट का जन्म हुआ था। इसकी प्रेरणा और पथप्रदर्शन में शताब्दियों का पर्दानशीन यहाँ के सभी चित्र प्रायः भिन्न भिन्न चित्रकारों-द्वारा जापानी राष्ट्र संसार के मैदान में उतरेगा और अाँधी की बनाये पायेंगे, और प्रदाताओं के बारे में भी वही चाल से शताब्दियों में संचित किये गये योरपीय विज्ञान और बात है । प्रदाताओं में अधिकांश उन व्यक्तियों को पायेंगे, शिल्प का कुछ ही वर्षों में सीख लेगा। इसके सत्ताईसजिनके वंश से उक्त घटना का सम्बन्ध रहा है। कुछ चित्र अट्ठाईस वर्ष के राजशासन में (१८६४ ई०) इसके वीर क्योतो, अोसाका, योकोहामा, नागासाकी आदि शहरों, सैनिक चीन ऐसी प्रबल शक्ति को चारों खाने चित कर रेलवे, सेना, जल-सेना आदि विभागों तथा कितनी ही दुनिया को चकित कर देंगे। और ३७-३८ वें वर्ष (१६०४-५ कम्पनियों और बैंकों द्वारा भी प्रदान किये गये हैं। ई०) में तो विशालकाय रूस अपनी सारी शक्ति लगाकर
पहले चित्र में वह अस्थायी जन्मशाला दिखलाई भी नतमस्तक हो जायगा; और सारी दुनिया उसके देश को गई है जो कुमार के नाना तदायोशी नकायामा के प्रथम पंक्ति में जगह देने के लिए उत्सुक होगी। कल उसे क्योतो निवास-स्थान में खास तौर से बनाई गई थी। अपाहज और ज़नाना कह कर हँसी उड़ानेवाले आज उसके | विवरण-पत्रिका बतला रही है- सम्राट मेइजी सम्राट साथ हाथ मिलाना अपने लिए गौरव समझेंगे । पैंतालीसवें । कामेई के द्वितीय पुत्र का जन्म ३ नवम्बर १८५२ ई० को वर्ष (१९१२ ई०) में मरने के समय वह अपनी राष्ट्रीय एक बजे दोपहर के करीब..... क्योतो में हुआ था। शक्ति की धाक के साथ संसार के बाजारों में अपने देश के
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.cpreet
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
तोक्यो शहर
३२३
बने माल को पहुँचता देख लेगा। सचमुच ही यदि कोई उस समय ऐसी भविष्यवाणी करता तो हँसी का भी वह पात्र न समझा जाता।
एक एक चित्र कोदेखते चले जाइए। कला के बारे में कहना ही क्या है जब कि
TETTETTEEEEEEER
ALTSENTIALDIL
EPIVतामा
उसके बनाने के लिए
जापान के चोटी के कलाकार निमंत्रित किये गये थे।
आठवाँ चित्र [तोक्यो-एक डिपार्टमेंट स्टोर जिसमें आप अपनी आवश्यकता की सभी चीजें देखिए, यह ८ फ़रवरी
एक जगह खरीद सकते हैं १८६८ को सम्राट मेइजी के राज्यारोहण का चित्र है। सम्राट् अब भी पर्दे राज्य-शासन के आने तथा दूसरी सारी प्रगतियों के पीछे एक | के भीतर हैं।
बहुत दूरदर्शी दिमाग़ काम कर रहा था, और वह पुरुष था सोलहवें चित्र को देखिए। विरोधियों को परास्त कर तोमामी इवाकुरा । ५ जुलाई १८८३ ई० को सम्राट मेइजी | मेइजी सम्राट क्योतो से अपनी नई राजधानी तोक्यो को स्वयं इवाकुरा की बीमारी सुन कर उनके घर उन्हें देखने पालकी पर जा रहे हैं। रास्ते में किसानों को खेत काटते गये थे। १६ जुलाई को जब इवाकुरा की बीमारी की भयंदेखकर पालकी को खड़ी कर देते हैं। शताब्दियों के बाद करता की खबर मिली, उस समय जाने की विशेष तैयारी यह पहला अवसर (११ नवम्बर १८६८) था जब जापान भी न की। प्रतीक्षा किये बिना कुछ शरीर-रक्षक अफ़सरों को का सम्राट अपनी प्रजा के श्रम को इतनी समीपता से देख लिये वे इवाकुरा के घर पर गये। इवाकुरा जापानी-प्रथा के रहा था।
अनुसार धरती पर बिछे बिस्तर पर लेटे हुए थे। उनकी सत्ताईसवें चित्र में पर्दे में रहनेवाले सम्राट पुरानी स्त्री और लड़के की बहू सेवा में थीं। सम्राट के एकाएक प्रथा को तोड़-फोड़कर घोड़े पर सिपाहियाना वेश में चढ़े पहुँच जाने पर तथा रोगी के अधिक निर्बल होने से बहू सेना की परेड देख रहे हैं।
ने सिर्फ़ हकामा (लंबा-चौड़ा जापानी पायजामा) लिहाफ़ तेंतालीसवाँ चित्र बहुत ही प्रभावशाली है। इसकी पर डाल दिया और ससुर को सहारा देकर बैठा दिया । कापियाँ कभी कभी आप जापानी घरों में भी देखेंगे। सम्राट् 'नहीं नहीं कहते पहुँच गये। उस समय मरणासम्राट मेइजी प्रतिभाशाली थे, इसमें सन्देह नहीं, किन्तु वे सन्न इवाकुरा हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे थे, और सोलह ही वर्ष के थे जब पिता के मरने पर राज्य के उनके नेत्रों से कृतज्ञता-पूर्ण अश्रुओं की धारा बह उत्तराधिकारी हुए। शगुन के हाथ से सम्राट के हाथ में रही थी।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४
सरस्वती
[भाग ३६
७६वें चित्र में राजप्रासाद के सामने हज़ारों नरनारियों को घुटना टेके देख रहे हैं। १६१२ ई० की जुलाई का प्रारम्भ था। सम्राट मेइजी सख्त बीमार हो गये। प्रजा खबर पाते ही लाखों की संख्या में प्रासाद के पास पहुँचकर अपने सम्राट की रोगमुक्ति के लिए देवतात्रों से प्रार्थना कर
रही है। किन्तु सम्राट [तोक्यो-मेइजी-देवालय का भीतरी द्वारतोरण]
मेइजी अपना काम कर
चुके थे। अज्ञात और ६६ वे चित्र में १ जनवरी १६०५ ई० की घटना अकिंचन जापान को वे वैभव के शिखर पर पहुँचा चुके चित्रित है। रूस का घमासान युद्ध हो रहा है। प्रारम्भ थे। आखिर को ६१ वर्ष की अवस्था में अपने पैंतालीसवें में बहुत कम लोग विश्वास करने के लिए तैयार थे कि राज्य-वर्ष में ३० जुलाई १९१८ ई० को आधी रात के ४३ । जापान जैसा छोटा एशियाई देश रूस जैसे महाशक्ति- मिनट के बाद वे चल बसे । शाली योरपीय राष्ट्र को पराजित कर सकेगा। पोर्ट- समय काफ़ी हो चुका था, यद्यपि किसी ने जल्दी करने। आर्थर दुर्ग अजेय समझा जाता था। किन्तु जापान को नहीं कहा, तो भी हम चित्रशाला से उतरकर चित्रों के के सैनिकों के अपूर्व त्याग, अदम्य उत्साह तथा युद्ध- कुछ रंगीन कार्ड खरीद वहाँ से चल दिये। कौशल के कारण अन्त में रूसी सेनापति जेनरल स्तोसेल को १ जनवरी को विजेता जेनरल नागी को प्रात्म-समर्पण २५ मई को कुछ संग्रहालयों को देखने गये। पहले । कर देना पड़ा । जेनरल नोगी पराजित सेनापति से बड़े प्रेम राजकीय गृहसंग्रहालय में गये, जो उयेनो उद्यान में अवसे मिल रहे हैं। पास में रूसी सेनापति का प्रिय सफ़ेद स्थित है। नीचे के तीन-चार कमरों में कितनी ही पुरानी घोड़ा है, जिसे वह विजेता सेनापति को प्रदान कर मूर्तियों का संग्रह है, और ऊपर कितने ही पुराने चित्र हैं। रहा है।
संगृहीत वस्तुएँ कला की दृष्टि से अच्छी हैं, इसमें सन्देह तिहत्तरवें चित्र में रूसी युद्ध के विजय के उपलक्ष्य नहीं, तो भी संग्रह बहुत छोटा है। हो सकता है, भूकम्प । में सैनिक जहाज़ खूब सजाये गये हैं। एशिया के के कारण कितनी ही चीजें नष्ट हो गई हों, और कुछ चीजें नेलसन एडमिरल तोगा सम्राट के सामने खड़े हैं। बुढ़ापे नये बनते भवन की प्रतीक्षा में अन्यत्र रख दी गई हों। में और कितने सजनों की भाँति सम्राट मेइजी को भी किन्तु असल बात मालूम होती है, जापान की भूत की दाढ़ी रखने का शौक हो गया था, इसलिए उन्हें उसी रूप अपेक्षा वर्तमान में अधिक अनुराग। इसका प्रमाण कुछ में आप मेज़ के सामने खड़े देख रहे हैं। बग़ल में लाल गज़ों के फ़ासिले पर अवस्थित विज्ञान-संग्रहालय है। मेशीन, सूर्य का झंडा फहरा रहा है।
जंतु, पाषाण, काष्ठ, धातु आदि जिस विभाग में जाइए,
X
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
तोक्यो शहर
३२५
अगणित वस्तुएँ रक्खी हुई हैं। जहाँ पहले के संग्रहालय में हमारी जैसी एकाध दर्जन मूर्तियाँ इधर से उधर डोल रही थीं, वहाँ इस म्यूजियम में कंधे से कंधा मिल रहा था। स्कूलों के सैकड़ों छात्र घूम रहे थे, और उन्हें अध्यापक व्याख्या करके प्रत्येक चीज़ को दिखला रहे थे। जीवित जाति वर्तमान की ही पूजा किया करती है। भूतपूजा अभागे भारत के भाग्य से
[तोक्यो—एक राजप्रासाद का फाटक बँधी है। | इसी उद्यान में संगीत-विद्यालय तथा चित्र-विद्यालय जलाशयों का सौन्दर्य देखना हो तो शिनोबाज़ सर हैं। सड़क की अोर आने पर जेनरल तकानोरी साइगो या सुमिदा के तट पर चले जाइए। रात की दीपमाला अपने कुत्ते के साथ खड़े हैं। यदि तोमोमी इवाकुरा ने तथा बिजली के द्वारा रंग-बिरंगी विज्ञापनबाजी देखनी हो | जापान की कायापलट में दिमाग़ का काम दे दिया तो जेन- तो तोक्यो के बड़े बाज़ार गिंजा में चले जाइए। जापानी | रल साइगो विरोधियों को परास्त करने में बहादुर योद्धा थियेटर के लिए कबकी थियेटर में चले जाइए। इमारत थे। साइगो ने बड़े कौशल के साथ प्रारम्भिक लड़ाइयाँ को ही देखने से मालूम हो जायगा कि जापानी स्वदेशी | लड़कर सम्राट् मेहजी की शक्ति को दृढ़ किया। किन्तु पीछे कला के कितने भक्त हैं। सिनेमों का महल्ला प्रासाकुसा अपने साथियों के साथ मतभेद होने से वे (१८७७ ई०) है। यद्यपि शृंगार-रस के भी फ़िल्म होते हैं, तथापि सैनिक अपने घर चले गये और अन्त में अनुयायियों के बहुत स्प्रिट को खूब भरना सरकार की नीति है, इसलिए हर | ज़ोर देने पर उनका नेतृत्व कर उन्हें सरकारी सेना में लड़ना एक फ़िल्म में युद्ध और शस्त्र को आप ज़रूर देखेंगे। पड़ा। इस लड़ाई में जापान के राजपूत (सामुराई) अपने २१ जुलाई को सवेरे होवान् जी (तोक्यो) के विशेषाधिकार के छिन जाने से शामिल हुए थे। वे विशाल भवन में हमें एक व्याख्यान देना था, इसलिए वहाँ लड़े भी उसी शान से, और जब तक उनका एक भी गये। व्याख्यानदाता यद्यपि मेज़ के पास खड़े थे, किन्तु | नेता जीता रहा, वे पीछे नहीं हटे। साइगो ने घिर जाने सारी श्रोतामण्डली चटाई के फर्श पर बैठी थी। उसी पर और अाशा न देख कर हाराकिरी (आत्महत्या) की। दिन पानपैस्फ़िक बौद्ध-सम्मेलन की वर्षी मनाई जानेवाली अन्तिम समय में सरकार के बाग़ी हो जाने पर भी इनकी थी। निमंत्रण हमें भी मिला था, इसलिए शामिल होना पहले की सेवायें भुलाई नहीं जा सकती थीं। इसी लिए ज़रूरी था। यहीं श्री रासविहारी बोस के दर्शन हुए। यहाँ उद्यान में साइगो की पीतल की मूर्ति आप देख रहे हैं। उनकी हिन्दी को सुनकर मैं तो समझ ही नहीं सका
तोक्यो की नई इमारतों में पार्लियामेंट-भवन बहुत कि वे बंगाली हैं। आम तौर से भारतीय बुढ़ापे में भव्य है। अगली बैठक इसी में होगी।
सठिया जाते हैं, किन्तु बोस महाशय उसके अपवाद हैं ।
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२६
सरस्वती
HTT
111
[ तोक्यो — पार्लमेंट-भवन ]
उन्होंने भारतीय छात्रों के लिए तोक्यो में एशिया-लाज खाल रक्खा है, जिसमें २५ येन् (प्रायः २० रुपये) मासिक में भोजन और निवास दोनों का प्रबन्ध है।' भारतीय बौद्धों के लिए जापान में एक विहार बनवाने का वे विचार कर रहे हैं ।
सम्मेलन में चीन, मंचूरिया, स्याम, ब्रह्मदेश, अमरीका, योरप, भारत सभी देशों के आदमी शामिल हुए। बृहद् अधिवेशन तो पिछले वर्ष हुआ था, यह तो सिर्फ़ स्मारक वार्षिक भोज के तौर पर था, तो भी कितने ही बौद्ध नेताओं के समागम का यह अच्छा अवसर था ।
सभा के बाद श्री ब्योदो हमें अशोक अस्पताल दिखलाने ले गये। यह अस्पताल तोक्यो के सबसे ग़रीब मुहल्ले फुकाङावा में है । इस अस्पताल के साथ हमारे अशोक का नाम ही सम्बद्ध नहीं है, बल्कि इसकी स्थापना के पीछे एक बहुत भावपूर्ण गाथा है । निशी होङवान् जी सम्प्रदाय के गुरु स्वर्गीय कौंट श्रोतानी की सबसी छोटी बहन ताकेको कोजो एक उच्च कोटि की कवियित्री थीं। उनके पति वर्तमान सम्राट के सगे मामा थे । इस प्रकार
• Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat,
[ भाग ३६
सुख में पली होने पर भी ग़रीबों के लिए उनके दिल में बहुत दर्द था । वे समय समय पर आकर फुकाङावा के ग़रीबों की दवा-दारू तथा दूसरे तौर से सेवा किया करती थीं । १६२३ ई० के भीषण भूकम्प के समय तो कितने ही डाक्टरों और नर्सों को लेकर उन्होंने यहाँ डेरा डाल दिया था। शाही खानदान से संबद्ध इस भद्र महिला को अपने हाथ रोगी- परिचर्या करते देखकर मुहल्लेवाले नरनारी उन्हें करुणा की देवी समझ गद्गद कण्ठ से घुटने टेक अभिवादन करते थे । कवियित्री ताकेको की कवितासंग्रह का नाम मुयुङे (अशोकपुष्प) था । उन्होंने उसके लाभ को प्रदान कर यहाँ अशोक अस्पताल खोला । देवी ताकेको ४० वर्ष की अवस्था में ही नवम्बर १९३० ई० को स्वर्गवासिनी हो गई, किन्तु उनका यह अशोकअस्पताल उनके करुणा-पूर्ण हृदय का मूर्तिमान् उदाहरण है। अस्पताल के मकान पर तीन लाख येन् (उस समय एक येन १३ रुपये के बराबर था) लगे हैं । इसमें ३० डाक्टर, ३० नर्सों, ५ कम्पौंडर, ५ नौकर और सात क्लर्क काम करते हैं । ५० रोगियों के ठहरने का स्थान है,
* www.umaragyanbhandar.com
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
तोक्यो शहर
और प्रतिदिन छः-सात सौ को दवा दी जाती है । कान, नाक, दाँत, ज्वर, फोड़ा आदि सभी की चिकित्सा का सुन्दर प्रबन्ध है। | इसके पास में ही सखे बस्ती है। पिछले भूकम्प के पहले इस मुहल्ले में छोटी छोटी फूस की एक एक कोठरी में घर भर रहा करता था। वे झोपड़ियाँ भी भूकम्प में जल गई।
[तोक्यो-कबुकी-थियेटर] जब तोक्यो का नवनिर्माण होने लगा तब इधर भी सरकार का ध्यान गया। बच्चों के लिए एक अलग ही विभाग है, जिसमें कितनी सरकार ने आर्थिक सहायता दी, और निशी होङ्वान् जी ही दाइयाँ तथा खेलने आदि के सामान हैं। काम पर सम्प्रदाय ने इस काम को अपने हाथ में लिया। उन्होंने जाते वक्त बस्ती की मातायें अपने बच्चों को यहाँ दे जाती कंकरीट के चौमहले मजबूत और साफ़ मकान बनवाये, और हैं। उनकी देखभाल के लिए ट्रेनिंग पास दो नसें हैं, जो उन्हें सस्ते किराये पर लोगों को दे दिया, यही नहीं बस्ती किंडर-गार्टन तथा दूसरे खेलों से लड़कों का दिल बहके लोगों की भलाई के लिए उन्होंने और भी कई तरह के लाव करती तथा शिक्षा देती हैं। यहाँ भी प्रति दिन दो सहायता के काम हाथ में लिये। इस बस्ती में २,५०० पैसा (४ सेन्) फ़ीस ली जाती है, किन्तु वह ग़रीब
आदमी रहते हैं, जिनमें पाँच सौ लड़के हैं। शिक्षा के माता-पिता को चुपके से लौटा दी जाती है। लिए आठवीं श्रेणी तक का स्कूल है। फिर बड़े लड़के- बस्ती का आर्थिक विभाग वेकारी के समय काग़ज़ के लड़कियों के लिए काम से छुट्टी होने के बाद विशेष बक्स, अल्बम, सिलाई तथा दूसरे काम देता है। सस्ते शिक्षा का प्रबन्ध है, जिसके लिए १ येन प्रतिमास फ़ीस चावल तथा सस्ती चीज़ों की दुकानें चलाता है। काम ली जाती है । जो ग़रीब हैं उनके लड़कों को भी फ़ीस की जगहों और बेकारों को एक-दूसरे से परिचित कराने का ला कर देनी पड़ती है, किन्तु पीछे वह चुपके से उनके काम करता है। स्वास्थ्य-विभाग शारीरिक व्यायाम तथा माता-पिता को लौटा दी जाती है। कारण पूछने पर खेल का प्रबन्ध करता है। चिकित्सा विभाग साधारण बतलाया गया कि और लड़कों के सामने अात्म-सम्मान दवा-दारू करता है। विशेष बीमारी होने पर अशोककायम रखने के लिए ऐसा करना उचित समझा गया अस्पताल या दूसरे अस्पताल में भर्ती करने का प्रबन्ध है। ऐसा न करने से ग़रीब का लड़का समझ कर क्लास के करता है। सांस्कृतिक और सामाजिक मेल-जोल बढ़ाने दूसरे लड़के उसे नीची दृष्टि से देखने लगेंगे। मास में के लिए एक अलग ही विभाग है। बालक मिठाई के पैसे तीन बार शिक्षा-सम्बन्धी सिनेमा दिखाया जाता है। जब-तब बचाकर बस्ती के सेविबैंक में जमा करते जाते बाल-पुस्तकालय में तीन हज़ार से ऊपर पुस्तकें हैं। छोटे हैं, फिर साल में उन्हें पहाड़ या समुद्र-तट की सैर कराई
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
जाती है, जिसमें पाँच-छः गुना संस्था की ओर से खर्च किया जाता है। पर इसी बौद्ध-संस्था की योर से तोक्यो में तीन और बस्तियाँ बसाई गई हैं। __इस संस्था को देखकर मुझे खयाल हुआ। कि ऐसा काम तो भारतीय म्युनिस्पल्टियों की थोड़ी सहायता होने पर भारत में भी किया जा सकता है। भारतीय कारखानेवाले भी अपने कारखानों में | ऐसा कर सकते हैं। किन्तु उन्हें अपनी मौज के सामने इधर खयाल करने की फुर्सत कब मिलने लगी। और हमारे राजनीतिज्ञ तो सभी बातों को स्वराज्य हो लेने के बाद के लिए छोड़ । रखना चाहते हैं।
२३ जुलाई को इंडो-जापानी-एसोसियेशन । के श्री सकाई मिलने आये। उनका कहना था, । ४० येन (३० रुपया) मासिक से यहाँ विद्यार्थी का काम चल सकता है। कल, उद्योग-धन्धा, कृषि, रेशम | सभी की शिक्षा का श्रासानी से प्रबन्ध हो सकता | है। हाँ, यदि विद्यार्थी मेट्रिक के अतिरिक्त | अपने पाठ्य विषय का कुछ मामूली-सा ज्ञान | भारत से ही सीख कर आये तो और आसानी । होगी। वैसे इन चीज़ों की शिक्षा जिन टेक निकल कालेजों, या कृषि-कालेजों में होती है उनका कोर्स तीन वर्ष का है, किन्तु भारतीय विद्यार्थी को भाषा | सीखने के लिए भी कुछ समय लगेगा।
[वीर सेनापति साइगा
बीता वैभव
लेखक, श्रीयुत छेलविहारी दोक्षित 'कण्टक' वह नन्दन-वन कहाँ ? आज जग उन सुमनों से सूना; वह पराग-अनुराग आग अब तो हैं,...उसे न छूना। | बिखरी वह अभिलाषा, आशा देती दुख दिन दूना। ललित-लता सरिता-तट सूनी-गत-यौवना चमेली ! रस की छलकन, हिय की ललकन-झलकन-भरा नमूना; करती मस्त न अब, रस पूरी–अङ्गरी अलबेली !!
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
लेखक के "शेष स्मृतियाँ" नामक अप्रकाशित ग्रन्थ के अन्तिम लेख का प्रारम्भिक अङ्क ।
पृथ्वी पर स्वर्ग !
लेखक, महाराजकुमार रघुवीरसिंह
एम० ए०, एल-एल. बी.
र वे भी दिन थे जब पत्थरों पत्थरों ने अपने प्रेमियों को अपने गले के उन हारों तक का यौवन फूट निकला को अमरत्व प्रदान किया ! था, उनके मदमाते यौवनये पत्थर उस पार्थिव स्वर्ग के पत्थर थे, भारतकी रेखायें उभरी पड़ती सम्राट ही नहीं, किन्तु भारतीय साम्राज्य, भारतीय । थीं, उन्हें भी जब शृंगार समाज तथा कला भी जिस स्वर्ग में बेहोश विचरते की सूझी थी, जब बहुमूल्य थे ! उन पत्थरों की सजीवता पर, उनकी मस्ती पर,
रंग-बिरंगे सुन्दर रत्न भी उनके निरालेपन पर, उनकी बाँकी अदा पर, उनके उनकी बाँकी अदा पर मुग्ध होकर उन कठोर निर्जीव उभरते हुए यौवन के आकर्षण से, संसार मुग्ध था, पत्थरों से चिपटने को दौड़ पड़े, उनका चिर सहवास उनके पैरों में लोटता था, उनको जी भर देख लेने प्राप्त करने को लालायित हो रहे थे और चाँदी-सोने को पागल की नाई , आँख फाड़ फाड़ कर देखता ने भी जब उनसे लिपट कर गौरव का अनुभव किया था, उनकी मस्ती के सहस्रांश को भी पाने के लिए था। वे पत्थर अपनी उठती हुई जवानी में ही मतवाले बालक की तरह मचलता था, रोता था, बिलखता हो रहे थे, सुन्दरता छलकी पड़ती थी, कोमलता को था......परन्तु वे पत्थर, पत्थर ही तो थे, फिर उन भी उनमें अपना पूर्ण प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता था, पर यौवन का उन्माद... ..अपनी शान में ही ऐंठे और तब उन श्वेत पत्थरों में भी वासना और जाते थे, अपने मतवालेपन में ही झूमते थे, अपने आकांक्षाओं की रंग-बिरंगी भावनायें झलकती थीं। अमरत्व का अनुभव कर इतराते थे। गले से लगे उन यौवनपूर्ण, सुडौल, सुन्दर पत्थरों के वे आभूषण, हुए, अपने प्रेमी पुष्पों की ओर एक नज़र डालने को वे सुन्दर पुष्प......सच्चे सुकोमल पुष्प भी उनसे भी जो ज़रा न झुके,......संसार की, दुखपूर्ण मृत्युचिपटकर भूल गये अपना अस्तित्व, उनके प्रेम में मय संसार की भला वे क्यों परवाह करने लगे! पत्थर हो गये, उन पत्थरों में सजीवता का अनुभव पत्थर, पत्थर......अरे ! उस भौतिक स्वर्ग के कर चित्रलिखित-से रह गये ! और उन मदमाते पत्थरों तक में यौवन छलक रहा था, उन तक में
३२९
ST.
ammaswami Gyanbhandar Umara Surat
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३०
सरस्वती
[भाग ३६
इतनी मस्ती थी, तब वह स्वर्ग,......और उसके वे सर्वस्व को खोकर जीवन का आसरा हूँढ रहा था । निवासी,......उनको मस्त कर देनेवाली, उन्मत्त ......सुन्दर सुकोमल अनारकली को कुचल देने बना देनेवाली मदिरा,......आठों पहर मस्ती में वाली कठोरहृदया राज्य-श्री शाहजहाँ की सहायक झूमनेवाले स्वर्ग-निवासियों के उन स्वर्गीय शासकों हुई। शाहजहाँ की प्यासी चितवन को बुझाने के को भी मदोन्मत्त कर सकनेवाली मदिरा,......... लिए राज्य-श्री ने राज-मदिरा ढाली। दो दो प्यालों उसका खयाल मात्र ही मस्त कर देनेवाला है, तब में एकबारगी सुख-स्वप्न-लोक की इस मस्ती को उसका एक घुट, एक मदभरा प्याला, .....! पाकर शाहजहाँ बेहोश होगया। राज्य-श्री ने सम्राट __प्याला, प्याला, वह मद-भरा प्याला, उस को प्रेमलोक से भुलाकर संसार के स्वर्ग की ओर स्वर्ग में छलक रहा था, उसकी लाली में पत्थर आकृष्ट किया और मंत्रमुग्ध की तरह शाहजहाँ उस तक सिर से पाँव तक रँग रहे थे, संसार खड़ा देखता स्वग की ओर बढ़ा । वह प्रेमी अपनी प्रेमिका को था, तरसता था......; परन्तु एक दिन उस स्वग का खोकर स्वयं को खो चुका था, अब इस स्वर्ग में निर्माता तक इसी मस्ती को प्यासी दृष्टि से देखता पहुँच कर वह अपने उस प्रेम-लोक को खो बैठा। था, उसका आह्वान करने को आँखें बिछा रहा था, इस पृथ्वीलोक पर स्वर्ग, इस ज़मीन पर स्वर्गीय उन्माद को उस मदमाती मदिरा की थोड़ी- बहिश्त... उस भावी जीवन में स्वर्ग पाने की आशा सी भी उन उन्मत्तकारी बूंदों को बटोरने के लिए दो ही अनेकानेक व्यक्तियों को पागल कर देती है, तब दो प्याले सरका कर एकटक देखता था। तब...... इस जगत् में, भौतिक संसार में स्वर्ग को पाकर, उसे जहाँ का शाह मादकता की भीख माँगने निकला था। प्रत्यक्ष देखकर, उसमें विचरना...... । स्वर्ग के स्वप्न उसके प्रेम पर पत्थर पड़ चुके थे, उसका दिल मिट्टी में देखकर ही कौन भौतिक जीवन को नहीं भूला है, तब मिल चुका था, उसकी प्रियतमा का वह अस्थिपंजर भौतिक स्वर्ग का निवास, उसके वे सारे सुख, उस सुन्दर ताज पहने बीभत्स अट्टहास करता था। जीवन की वह मस्ती......सदेह उस स्वर्ग में पहुँच प्रेम-मदिरा दुलक चुकी थी और शाहजहाँ रिक्त नेत्रों कर, अपना अस्तित्व भुला देना, अपना व्यक्तित्व से संसार को देख रहा था । प्रेम-प्रतिमा भग्न हो गई खो देना कोई अनहोनी बात नहीं है। और इन सबसे थी, हृदयासन खाली पड़ा था और......पाँवों तले अधिक नवीन प्रेयसी का प्रेम, प्रौढ़त्व में पुन: भारतीय साम्राज्य फैला हुआ था, कोहनूर-जड़ित प्रेम का उद्भव, उसका प्रस्फुटन और विकास......एक ताज पैरों में पड़ा सिर पर चढ़ने की बाट देख रहा ही बात मनुष्य को उन्मत्त बना देने के लिए पर्याप्त है, था, राज्य-श्री उसके सम्मुख नृत्य कर रही थी, तब इतनों का सम्मिश्रण .....बहुत थी वह मस्ती... अपनी भावभंगी-द्वारा उसे ही नहीं, संसार को
+ x x लुभाने का प्रयत्न कर रही थी, उनके हृदयों को साम्राज्य ने प्रौढ़त्व को प्राप्त कर अंगड़ाई ली। समेटने के लिए अनन्त सौन्दर्य बिखेर रही थी। अपने रक्षक का तिरस्कार कर, जहाँ ने अपने शाह __ मदिरा ! मदिरा ! वह मस्ती ! मादकता का वह को अपनाया, उसको पूजा, उसके चरणों में प्रेमानर्तन ....... एक बार मुँह से लगी नहीं छुटती, एक ञ्जलि अर्पित की और उस शाह ने अपने जहाँ की बार स्वप्न देखने की, सुखलोक में विचरने की लत ओर दृष्टि डाली। उसके उस साम्राज्य के यौवन पड़ने पर उसके बिना जीवन नीरस हो जाता है। का उन्माद अब कुछ घटने लगा था; नूरजहाँ भारप्रेम-मदिरा को मिट्टी में मिलाकर शाहजहाँ पुनः तीय रंगमंच से बिदा ले चुकी थी। अपनी अन्तिम मस्ती लाने को लालायित हो रहा था, अपने जीवन- प्रेयसी मुमताज़ को खोकर, साम्राज्य ने उसकी
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
पृथ्वी पर स्वर्ग !
३३१
आखिरी अदा, ताज की अमर सुन्दरता में देखीः धारण किया, वैधव्य के उन फटे चिथड़ों को दर परन्तु अब भी नित नई की चाह घटी न थी। बढ़ते फेंक कर, उसने उन्मत्त कर देनेवाली लाली में स्वयं हुए साम्राज्य को प्रौढत्व में भी नवीन प्रेयसी की को रँगा और नववधू का नया बाना पहना और इच्छा हुई; आगरा की संकुचित गलियाँ साम्राज्य अपने वक्षःस्थल में अपने नये प्रेमी को स्थान देने के धधकते हुए जीवनपूर्ण हृदय को समाविष्ट करने के लिए उसने एक नवीन हृदय की रचना की। उस के लिए पर्याप्त प्रतीत न हुई। युवा साम्राज्य का महान प्रेमी के लिए, अपने नये प्रीतम के लिए, प्रेमसागर शान्त हो गया था, किन्तु अब भी अथाह दिल्ली ने इस भूलोक पर स्वर्ग अवतरित किया। प्रेमोदधि उस वक्षःस्थल में हिलोरें ले रहा था। भारत-सम्राट के लिए, दिल्लीश्वर के सुखार्थ, इस प्रशान्त महासागर में तरंगें यदा-कदा ही उठती हैं, संसार में स्वर्ग आ पहुँचा। उस वारांगना ने इस परंतु उस चाँद-से मुखड़े को देखकर वह भी खिंच भौतिक लोक में स्वर्ग का निर्माण किया, और जहाँ के जाता है, अनजाने उमड़ उठता है,......उस चाँद का शाह को उसका अधिष्ठाता बनाया । यों जगदीश्वर वह आकर्षण.........वह साधारण सागर उसके के समान ही दिल्लीश्वर ने स्वर्ग में निवास किया, प्रभाव से नहीं बच सकता, तब उस प्रेमसागर का तथा उस भौतिक पुंश्चली दिल्ली ने स्वर्गीय इन्द्राणी न खिंचना .....संसार में विरल ही उस आक- से बाजी मार ली। र्षण का सफलतापूर्वक सामना कर सके हैं।
साम्राज्य नवीन प्रेयसी के लिए लालायित हो नववव ने अपने प्रियतम का स्वागत किया। गया। सम्राट् विधुर हो गया था, साम्राज्य ने अपनी उस पार से आते हुए शाहजहाँ ने यमुना में उस प्रेयसी को अपने हृदय से निकाल बाहर किया, नये स्वर्ग का प्रतिबिम्ब देखा-वह लाल दीवार
और उन दोनों को रिझाने के लिए राज्य-श्री ने नव- और उस पर वे श्वेत महल, उस लाल लाल सेज वधू की योजना की। अनन्त यौवना ने बहुभर्तृका पर लेटी हुई वह श्वेतांगी। अपने प्रियतम को आते को चुना। इस पांचाली ने भी सम्राट् तथा साम्राज्य देख सकुचा गई। नववधू के उजले मुख पर लाली दोनों को साथ ही पति के स्वरूप में स्वीकार किया। दौड़ गई और उसने लज्जावश अपना मुख अपने परन्तु......इस पांचाली के लिए भी उसी कुरुक्षेत्र में अंचल में छिपा लिया, दोनों हाथों से उसे ढंक पुनः महाभारत हुआ, उसके पति को वनवास हुआ, लिया। देश देश घूमना पड़ा और उसके पुत्र......नहीं! और यमुना के प्रवाह में वायु के किचिन्मात्र नहीं ! यह पहले भी नहीं हुआ, आगे भी नहीं होगा, झोंके से ही उद्वेलित हो जानेवाली उस धारा पर, पांचाली के भाग्य में पुत्र-पौत्र का सुख नहीं लिखा निरन्तर उठनेवाली उन तरंगों पर शाहजहाँ ने था, नहीं लिखा है।
देखा कि वे स्वर्गीय अप्सरायें, उस दूसरे लोक की न जाने कितने साम्राज्यों की प्रेयसी उजाड़, वे सुन्दरियाँ, अपनी अद्भुत छटा को रंग-बिरंगे विधवानगरी पुनः सधवा हुई। अपनी मांग में पुनः वस्त्रों में समेटे, उन झीने वस्त्रों में से देख पड़नेसिन्दूर भरने के लिए उसने राज्यश्री से सौदा किया, वाले उन श्वेतांगों की उस अद्भत कान्ति से सुशोभित,
और अपने प्रेमी के स्थायित्व को देकर उसने अपने उजले पैरों पर महावर लगाये उसके स्वागत अनन्त यौवन प्राप्त किया और अब नई आशाओं के उपलक्ष्य में नृत्य कर रही हैं। भलोक पर अवके उस सुनहरे वातावरण में दिल्ली का चिरयौवन तरित स्वर्ग के पति के आने के समय उस दिन उस प्रस्फुटित हुआ। दिल्ली ने पुनः रंग बदला, नया चोला महानदी पर अपने सौन्दर्य, द्युति तथा अपनी कला
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
का प्रदर्शन करके, जहाँ के शाह का उस लोक में, वास करने आया था, और अपने प्यारे का स्वागत नवीन प्रेयसी के उस स्वर्गीय हृदय-मन्दिर में स्वागत करने में पांचाली का हृदय, वह स्वर्ग फूला समाता करने आई है। और महानदी का वह कृष्णवर्ण जल न था । उस स्वर्ग का अन्तंरंग,..... उसकी सुन्दरता उनकी कान्ति से प्रज्वलित होकर अपने तलुओं में का वर्णन करना असम्भव है। अनन्त यौवना की लगे महावर की लाली को प्रतिविम्बित करके हर्ष लाड़ली, सिद्धहस्त वाराङ्गना का श्रृंगार......उसमें के मारे कल्लोल कर रहा था। एकबारगी यमुना सुन्दरता थी, मादकता थी; आकर्षण था, परन्तु त्रिकाल-सम्बन्धी दृश्यों की त्रिवेणी बन गई, उत्थान उमड़ते हुए नवयौवन का उभार उसमें न था, की लाली, दिवस का उजेला तथा अवसान की निरन्तर अधिकाधिक ऊँची उठनेवाली तरङ्गों की कालिमा, तीनों का सम्मिलित प्रतिबिम्ब उस महा- तरह वह वक्षःस्थल उठा हुआ न था। सौन्दर्य तथा नदी में देख पड़ता था, परन्तु अवसान की वह मादकता का इतना गहरा रङ्ग चढ़ा था कि उसमें कालिमा, लाली और उज्ज्वल प्रकाश ने उसे छिपा कोई दूसरी विभिन्नता नहीं देख पड़ती थी। स्वर्ग में, दिया; किसी को खयाल भी न आया कि विगत और उतार चढ़ाव......जहाँ समानता हो वहीं रात्रि की क्षीण होनेवाली कालिमा, अागामी रात्रि निरन्तर सुख, चिरस्थायी आनन्द, अक्षय विलास के स्वरूप में पुन: उपस्थित होकर एकच्छत्र शासन घर कर सकते हैं। स्थिरता, समानता और प्रशान्त करतो है, और तब.........वह जीवन-प्रवाह उस गम्भीरता ही स्वर्ग की विशेषतायें होती हैं। स्वर्ग स्वर्ग से बहुत दूर जा पहुँचेगा, अपनी दूसरी ही का सुख प्रौढ़ व्यक्तियों के भावों की तरह समान, धारा में बहेगा। उस समय तो स्वर्ग के सुख को प्रशान्त महासागर के वक्षःस्थल का-सा समतल; किन्तु देखकर, उस दुखद अन्त का खयाल न आया। उसी के समान गम्भीर और अगाध होता है। यदा. अनन्त-यौवना विषकन्या भी होती है, और चाँद कदा उठनेवाली छोटी तरङ्गे ही उसके वक्षःस्थल पर का जो कलंक एक दिन उसका आभपण बना रहता यत्किचित उभार पैदा करती हैं, उन्हीं से उममें है वही कलंक बढ़ते बढ़ते पूर्णिमा के चन्द्र को अमा- सौन्दर्य आता है, और उन्हीं नन्हीं तरङ्गों पर नृत्य वस्या की कालिमा में रंग देता है; प्रेम-प्रणय की करती है वह प्रेम-सुन्दरी, यौवन मदिरा से रंगे हुए उस मस्ती के उमड़ते हुए प्रवाह में ये सब खयाल उस प्रेम-महोदधि में उठी हुई, घनीभूत भावों की लाल डूब गये । वह उल्लास का दिन था, प्रथम मिलन की लाल तरङ्गों पर ही स्थिर हैं वे श्वेतप्रसाद, स्वर्गलोक रात्रि थी, सुख छलका पड़ता था, सोन्दर्य उल्लास के सुन्दर भवन, स्वप्न-संसार की वे स्फटिक वस्तुएं के प्रवाह में धुल धुलकर अधिकाधिक निखरता भावलोक की घनीभूत भावनाओं के वे भौतिव जाता था, मदिरा-सागर में ज्वार आया था, उस स्वरूप । वासना के प्रवाह से ही उड़ती हैं वे छोर्ट दिन तो उसकी वे लाल तरंगें और उन पर चमकते छोटी आनन्दप्रदायक शुद्ध बूंदें, उस कालकूट हुए वे श्वेत फेन,.........उन्होंने सारे स्वर्ग को रंग विष में से निकलनेवाले रसामृत की वे रस-भरी दिया, और मादकता-सागर की वह तलछट, वह बूंदें, जो अपनी सुन्दरता तथा माधुर्य से उस प्रवाह कृष्णवर्ण यमुना, वह तले ही पड़ी रही .....उस की कलुषता को धो देती हैं, उसकी कालिमा को तलछट में भी लाली की झलक देख पड़ती थी, अधिकाधिक सुन्दरता प्रदान करती है, अपने माधुर्य्य आभा की युति उसमें भी विद्यमान थी।
से उस मदमाती लाल लाल मदिरा तक में मधुरता प्रथम-मिलन का उत्सव था, अनन्त यौवना की भर देती है। अवश्यम्भावी अन्त में पाई जानेवाली लाड़ली की सोहागरात थी। जहाँ का शाह हृदय में अमरत्व की भावना ही मनुष्य के जीवन को
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृथ्वी पर स्वर्ग !
संख्या ४]
सौन्दर्य तथा माधुर्य से पूर्ण बनाती है । यह भौतिक स्वर्ग या उस पार का वह बहिश्त, एक ही भावना, एक ही विचार प्रवाह, चिर सुख की इच्छा ही उनमें पाई जाती है । और सुख, सुख ... मनुष्य उसके लिए कहाँ कहाँ नहीं भटकता है, क्या क्या नहीं • खोजता है, कौन कौन-सी कठिनाइयाँ नहीं उठाता, क्या उठा नहीं रखता ? और स्वर्ग, सुख-इच्छा का भावना - पूर्ण-पुञ्ज, वह तो मनुष्य की इन कठिनाइयों को, सुख तक पहुँचने के लिए उठाये गये दुखों को देखकर हँस देता है, और मनुष्य उसी हँसी से मुग्ध होकर स्वर्ग प्राप्ति का अनुभव करता है ।
स्वर्ग का वह ईषत् हास्य, उसकी वह रहस्यमयी मुस्कान... उफ ! उसने एक स्वरूप धारण करने में, एक सुचारु दृश्य दिखाने के लिए कितनों का
लेखक, श्रीयुत उदयशंकर भट्ट
संहार किया । इस भौतिक जगत् का वह स्वर्ग 1 वहाँ जहाँ का नूर बिखरा पड़ा था, स्वर्ण-रत्नों से भूषित ताज मिट्टी में पड़ी हुई मुमताज के अस्थिपञ्जर को प्रकाश-पूर्ण बना रहा था, सहस्रों सीपियों के दिलों को चीरकर निकाले गये मोती यत्र तत्र चमक रहे थे, उस दूसरे लोक की सुन्दरियाँ इस लोक को आलोकित करने को दौड़ पड़ी थीं, हज़ारों पुष्पों का दिल निचोड़कर उसमें सुगन्धि बिखेरी गई थी, सहस्रों स्नेह-पूर्ण बत्तियाँ जत्व जलकर उस स्वर्ग को प्रज्वलित कर रही थीं; वहाँ जहाँ का शाह बेहोश मदमस्त पड़ा लोटता था, सुख-नींद साता था, स्वप्न देखते देखते अनजाने कहने लगता था - "पृथ्वी पर अगर स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है !"
जीवन में कुछ ही क्षण आये मेरे उन सपनों के, जिनमें मैं भूमा करता था हृदय लिये अपनों के । आह अश्रु बन ढली प्यार की दुनिया छोड़ निराली, होड़ लगी है आज झड़ी से अमिट घड़ी की आली ||
दिनकर दिन भर जला न कर ही पाया कुछ उजियाला, दीपक जल जल बुझे रात के मेरा तिमिर निराला । प्राण- स्पन्दन से हँसता है सागर का उच्छल जल, धूमिल आहों से इतराता नभ से उठ मेघानल || हृदय - तिमिर से काली रातें मिलने नित आती हैं, लिये मशाले नक्षत्रों की रोज़ झाँक जाती हैं । मेरा लघु संसार खो गया पत्ल के परिवर्तन में, कहीं ढूँढ़ पाऊँगा क्या मैं निज को निज जीवन में ॥
अब तो अन्तर के सरगम पर, करुणा रुदन राग गाती है । स्मृतियाँ कंकालों में लिपटी, विस्मृति में सोने जाती हैं ।। विश्व मंच के क्षणिक खेल में, मैं तब बना तमाशाई था । मैं सुख था मैं ही जग था, निज में निज की परछाई था ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
३३३
www.umaragyanbhandar.com
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
लेखक, श्रीयुत सीतलासहाय
यह
रस्वती' के पिछले अंक में हमने 'ऋणग्रस्त रियासतों के क़ानून' के बारे में भी संक्षेप में लिखा था। उस समय तक इस क़ानून के सम्बन्ध में जो कायदे गवर्नमेंट की ओर से बननेवाले थे, बन कर तैयार नहीं हुए थे। अब १० अगस्त के गज़ट में गवर्नमेंट ने उन्हें प्रकाशित कर दिया है। इन कायदों को जब तक हम संक्षेप में सरस्वती के पाठकों के सामने नहीं रखते, हमारा पिछला लेख अपूर्ण रह जाता है । लेख उसी कमी को पूरा करने के लिए है । 'ऋणग्रस्त रियासतो' के क़ानून के सिलसिले में जो कायदे निकाले गये हैं वे ७ अध्यायों में हैं और उनकी ६३ धारायें हैं। वास्तव में वे वकीलों के काम के हैं। और इसलिए बनाये गये हैं कि कलक्टरों को रियासतों की कीमत लगाने के या क़र्ज़ की अदायगी के लिए क़िस्त
३३४
ऋणग्रस्त रियासत
या जायदाद को नीलाम करने के कुछ ऐसे नियम मालूम हो जायँ जिनके आधार पर वे कार्रवाई कर सकें । साधारण जनता को केवल उनकी रूप रेखा समझ लेना काफ़ी होगा और वह उद्देश इस लेख से सिद्ध हो जाता है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
उन क़ायदों के सम्बन्ध में पहली बात जानने की यह है कि गवर्नमेंट ने हर एक जिले की हर एक तहसील के बन्दोबस्ती हलकों की ज़मीन के 'औसत विक्रयांक' निश्चित कर दिये हैं और उन्हें परिशिष्ट नं० १ में प्रकाशित कर दिया है । ये अंक बड़े महत्त्व के हैं, क्योंकि इन्हीं से रियासतों की कीमत, क़िस्त की मात्रा, रहन की क़िस्तें इत्यादि निश्चित होती हैं। लेकिन उक्त परिशिष्ट नं० १ बहुत लम्बा चौड़ा है, अतएव किसी हालत में भी उसे हम यहाँ नहीं दे सकते ।
उन क़ायदों के पहले अध्याय में यह बताया गया है कि क़र्ज़दार रईस के क़र्ज़ की मात्रा कैसे निश्चित की जाय । दूसरे अध्याय में यह बताया गया है कि कल - क्टर प्रारम्भ में जायदाद की कीमत कैसे निश्चित करें । तीसरे अध्याय में यह बताया गया है कि रईस का निजी क़र्ज़ किस ढंग से अदा किया जायगा। चौथा अध्याय सरकारी क़र्ज़ के बारे में है । पाँचवें अध्याय में क़िस्तों की वसूलयात्री के तरीके बताये गये हैं । छठे में यह है कि रहन द्वारा क़र्ज़ की अदायगी का क्या तरीक़ा होगा | सातवें अर्थात् अन्तिम अध्याय में विविध बातें हैं। उन क़ायदों के तीन परिशिष्ट भी हैं। पहले परिशिष्ट में जैसा ऊपर बताया गया है, हर एक जिले की हर एक तहसील के बन्दोबस्ती हलके के औसत विक्रयांक दिये गये हैं । दूसरे परिशिष्ट में यह दिखाया गया है कि एक रुपया अमुक वर्ष तक अदा करते रहने पर ४ 'सदी सालाना सूद के हिसाब से कितना रुपया अदा कर देता है। तीसरे परिशिष्ट में सूद दर सूद का नक़शा दिया गया है।
www.umaragyanbhandar.com
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्बन्धी कानून
जायदाद की कीमत कैसे लगाई जायगी ?
दफा ४ के अनुसार जब ज़मींदार अपने क़र्ज़ की अदायगी के लिए कलक्टर के यहाँ दरख्वास्त दे उस
पिछले दिनों इस प्रान्त की सरकार ने ऋणसमय उसे दरख्वास्त के साथ अपने उन महालों के नये
सम्बन्धी कई कानून पास किये हैं। उन पर खेवट की तसदीकी नकल भी शामिल कर देनी चाहिए
'सरस्वती' में हम एक लेख छाप चुके हैं। जिनमें उसकी जायदाद है। दरख्वास्त में यह भी ज़ाहिर
उनमें 'ऋणग्रस्त रियासतों' के बारे में भी एक कर देना चाहिए कि उन महालों में उसकी मिलकियत
कानून है । उस समय उसके नियम नहीं बने किस किस्म की है और किस हद तक है। दरख्वास्त में
थे। अब वे बन गये हैं। इस लेख में लेखक
महोदय ने उन्हीं का वर्णन किया है। यह भी जाहिर कर देना ज़रूरी है कि जमीन 'रक्षित' है या नहीं। ___ दरख्वास्त पाने पर कलक्टर हर एक तहसील के तह- रामपुर नाम का एक गाँव गाज़ीपुर जिले के सैयदसीलदार से जहाँ ज़मींदार की जायदाद है, दरयाफ़्त करेगा पुर परगने में है। इस गाँव की हमें प्राथमिक विक्रीकि वह इस बात का तफ़सीली नकशा उसके पास भेजे क़ीमत निकालनी है। गाज़ीपुर के तहसीलदार ने कलक्टर कि उक्त जायदादों का छुट के पहले क्या मुनाफ़ा था और के पास यह रिपोर्ट की कि इस गाँव का मुनाफ़ा छुट के छूट के बाद अब क्या मुनाफ़ा रह गया है।
पहले १५००) रुपया था। परिशिष्ट के देखने से मालूम - मुनाफ़ा निकालने के निमित्त तहसीलदारों के लिए होता है कि ग़ाज़ीपुर-ज़िले के सैयदपुर-परगने का औसत गवर्नमेंट की ओर से तफ़सीलवार नियम बना दिये गये विक्रयांक ३२ है । इस लिए रामपुर गाँव की प्राथमिक हैं। वकील लोग इन नियमों को देखकर अपने मवक्किलों विक्री की कीमत हई १५०० x ३२ अर्थात ४८०००। को बता सकते हैं कि तहसीलदार ने मुनाफ़ा निकालने किसी जायदाद की कीमत लगाने के सिलसिले में में ग़लती तो नहीं की है। ये नियम एक्ट दफा २ (जे) औसत 'विक्रयांक' में कलक्टर अनेक कारणों के आधार और (के) में और कायदों की दफा १७, १८, १६ और पर साधारण परिवर्तन भी कर सकते हैं। इस तौर २० में बताये गये हैं।
से जो विक्रयांक कलक्टर-द्वारा निश्चित किया जायगा जिस समय कलक्टर के पास तहसीलदारों के यहाँ से उसे हम 'अन्तिम विक्रयांक' कहेंगे । असल में जायदाद जायदाद के मुनाफ़े के नक्शे श्रा जायँगे, वह सारी जाय- की असली कीमत वही मानी जायगी जो अन्तिम विक्रदाद की 'विक्री-कीमत' निकालेगा।
यांक को छूट के पहले के मुनाफ़े से गुणा करने पर विक्री की कीमत कैसे निकाली जायगी? मालूम होगी।
अरक्षित जायदाद की विक्री की कीमत निकालने का परिशिष्ट नं. १ में जो अंक दिये गये हैं वे उन जायतरीका यह है कि औसत विक्रयांक को (जो परिशिष्ट नं० १ दादों के हैं जिन पर मालगुज़ारी देनी पड़ती है। जिन जायमें दिये हुए हैं) जायदाद के छूट के पहले के मुनाफ़े से दादों पर मालगुज़ारी नहीं देनी पड़ती, अगर वे इस्तमरारी गुणा कर दे। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि बन्दोबस्त में हैं तो उनका औसत विक्रयांक परिशिष्ट नं०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३६
सरस्वती'
१ में बताये हुए विक्रयांक से १२३ प्रतिशत अधिक होगा । और अगर अस्थायी रूप से उनका बन्दोबस्त हुआा है तो २५ प्रतिशत अधिक ।
कज़ की अदायगी कैसे होगी ?
कलक्टर स्पेशल जज के यहाँ से रईस के क़र्ज़ की मात्रा तथा उसकी मिलकियत की हद इत्यादि के सम्बन्ध में रिपोर्ट पाने के बाद क़र्ज़दार और महाजन दोनों को तलब करेगा और जायदाद के सम्बन्ध में जो प्रारम्भिक कीमत मुक़र्रर की गई है वह उन्हें बतायेगा । अगर इन लोगों को क़ीमत के बारे में कोई उज्र है तो कलक्टर उस उज्र को सुनेगा और यह देखेगा कि तहसीलदार ने जो छूट के पहले का मुनाफ़ा और छूट के बाद का मुनाफ़ा लगाया है वह कहाँ तक ठीक है। कलक्टर . यह भी निश्चित करेगा कि औसत विक्रयांक और औसत किस्त के जो अंक निर्धारित किये गये हैं उन में कोई तबदीली तो नहीं होनी चाहिए। कलक्टर के हुक्म के विरुद्ध बोर्ड आफ़ रेविन्यू में अपील हो सकेगी ।
मान लीजिए कि किसी बन्दोबस्ती हलके की जिसमें क़र्ज़दार रईस की जायदाद है, औसत विक्रयांक २५ है । इस हलके में नहर नहीं है । पानी भी अनिश्चित तरीके से बरसता है । लेकिन जिस जगह क़र्ज़दार रईस की जायदाद है, वहाँ श्रावणाशी का अच्छा इन्तिज़ाम है और ज़मीन ऊपरहार है । ऐसी हालत में कलक्टर उस जायदाद के विक्रमांक २६ या २७ कर सकता है। लेकिन उसे यह अधिकार नहीं है कि कमिश्नर की मंजूरी के बिना विक्रयांक को १६ प्रतिशत से ज्यादा बढ़ा दे। कलक्टर ar चाहिए कि वह औसत विक्रयांक को इतना न बढ़ा दे कि क़िस्त की अदायगी में क़र्ज़दार को कठिनाई पड़ने लगे । क्योंकि यह ज़ाहिर है कि औसत विक्रयांक जितना ही घटाया बढ़ाया जायगा, क़िस्त भी उसी हद तक घटबढ़ जायगी और इस क़ानून के सफलता पूर्वक अमल में
ने के लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि सालाना क़िस्त ऐसी मुक़र्रर की जाय कि क़र्ज़दार रईस उसे आसानी से दे सके। लेकिन अगर क़र्ज़दार रईस के पास जमीदारी और रियासत के अलावा आमदनी का कोई दूसरा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
(भाग
भाग ३६
मुस्तकिल ज़रिया है तो ऐसी हालत में क़िस्त बढ़ाई जा सकती है। अगर ज़मींदार के पास सीर और खुद काश्त की मात्रा बहुत अधिक है या उसके पास मुनाफ़े का कोई फारम है तो भी क़िस्त की मात्रा बढ़ाई जा सकती है । क़िस्ती क़ीमत कैसे निकाली जायगी ? औसत क़िस्ती अंक परिशिष्ट नं० १ में दिये हुए 'औसत विक्रयांक' का माना गया है । जैसे सैयदपुर-परगने का औसत विक्रयांक ३२ है । इसका औसत किस्ती २ x ६४ होगा। लेकिन इसमें दो अपवाद हैं। बहुत-से परगने ऐसे हैं जिनका 'औसत विक्रयांक' इतना ज्यादा है कि उसे पाँच से भाग देने पर ७१ से ज्यादा आता है, अर्थात् ३७५ से अधिक है । जैसे बनारस का विक्रयांक ४८ है, बस्ती में खलीलाबाद का ७० है । वहाँ अगर ऊपर के नियमानुसार औसत विक्रयांक को ५ भाग देंगे तो बनारस की जायदादों की क़िस्ती क़ीमत ६६ श्रायेगी और खलीलाबाद की १४ आयेगी । लेकिन पहला अपवाद यह है कि औसत बिक्री क़ीमत को ५ से भाग देने से चाहे कितना भी क्यों न श्राता हो, ७५ से औसत क़िस्ती क़ीमत कभी बढ़ नहीं सकती। दूसरा अपवाद इसी के मुक्काबिले का यह है कि ५ से औसत क़िस्ती कीमत कभी कम नहीं हो सकती । उदाहरण के लिए हमीरपुर और बाँदा जिले की सब तहसीलों का औसत विक्रयांक १६ निश्चित हुआ है। इसे अगर ऊपर बताये नियमानुसार ५ से भाग देते हैं तो इन ज़िलों की जायदाद का क़िस्ती अंक ३०२ आता है । लेकिन बाँदा या हमीरपुर ज़िलों की जायदादों का औसत क़िस्ती कीमत अंक ३२ नहीं होगा - ५ ही रहेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि औसत क़िस्ती अंक ७% से ज्यादा और ५ से कम कभी नहीं हो सकता ।
क़िस्ती कीमत कैसे निकाली जायगी ? प्रारम्भिक क़िस्ती कीमत निकालने का क़ायदा यह है कि छूट के बाद के मुनाफ़े का औसत किस्ती अंक से गुणा कर दे । उदाहरण के लिए उसी गाँव रामपुर की फिर ले लीजिए और यह मान लीजिए कि छूट हो जाने के कारण आज-कल रामपुर का मुनाफ़ा केवल १३००) रह
www.umaragyanbhandar.com
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
हिज़ एक्सेलेंसी सर शमशेरजंग बहादुर राना जो नैपाली राजदूत के रूप में लन्दन में रहते थे, हाल वापस आ गये । यह चित्र बम्बई में जहाज़ से उतरने के बाद लिया गया ।
निज़ाम हैदराबाद, जिनकी रजतजयन्ती इस वर्ष मनाई जायगी ।
T
कानपुर - बालिका विद्यालय की प्रिंसि- हिज़ मैजेस्टी सम्राट पंचम जार्ज के भारतीय अर्दली । ये चारों नौजवान गत तीन पल श्रीमती एस० बोस, प्रान्तीय वर्षों से हिज़ मैजेस्टी की सेवा में सम्राट के भारतीय अर्दली के रूप में विलायत शिक्षा सम्मेलन की स्वागताध्यक्षा । में रहते थे । अपना कार्य्यकाल समाप्त होने से अब भारत लौट आये हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com.
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
रा
इलाहाबाद के श्रीयुत रोबिन चटर्जी जिन्होंने देर तक तैरने में संसार का रिकार्ड तोड़ दिया । ये
घंटे १२ मिनट तक लगातार तैरते रहे । आपके पहले अमरीका का एक तैराक ८७ घंटे १० मिनट तक तैर चुका था ।
निर्णायकों की उपस्थिति में श्रीयुत रोबिन चटर्जी तालाब में कूदने जा रहे हैं।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
श्रीयुत रोबिन चटर्जी तैर रहे हैं। तालाब के चारों
र दर्शक खड़े हैं।
डाक्टर अनसारी और सरदार शार्दूलसिंह
श्री गौरीशङ्कर भट्ट हिन्दी-सुलेखनकला के प्रचारक
www.umaragyanbhandar.com
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
स्वर्गीय सेठ रामगोपाल रईस । ये बेला (इटावा) के निवासी थे । बाई ं ओर इनकी पत्नी श्रीमती यशोदा देवी हैं। इन्होंने अँगरेज़ी में वैदिक साहित्य तैयार करने के लिए आर्यसमाज को ३५००० रु० दान किया है।
5
लखनऊ विश्वविद्यालय के डाक्टर डी० एन० मजूमदार, एम० ए० ।
श्रीयुत बी० एल० वैश्य (आगरा) जो इनकम टैक्स का अँगरेज़ी तरीका सीखने विलायत गये हैं ।
Shree Sudharm
लखनऊ विश्वविद्यालय की कुमारी ई० बी० मुकुन्द शिक्षण प्रणाली का अध्ययन करने विलायत गई हैं।
翳
品
मेली नडजा सरस्को जो योरप में अपने सौंदर्य और कला की धाक जमाने के बाद भारत का भ्रमण करने आई हैं ।
andar - Umara, Surat
लाहौर हाईकोर्ट के जस्टिस लालचन्द की पुत्री जो शिक्षण सम्बन्धी योग्यता प्राप्त करने विलायत गई हैं।
दरभङ्गा के महाराजकुमार विश्वेश्वरसिंह जिन्होंने ग्र० भा० फुटबाल टूर्नामेंट चलाया है ।
स्वामी योगानन्द कई वर्ष अमरीका में रहने के बाद
भारत आ गये हैं।
www.umaragyanbhandar.com
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
हवाई द्वीप में सूर्यास्त
Shree Sudharmaswami Gya bhar seomra, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
गया है । रामपुर का औसत क़िस्ती अंक जैसे ऊपर हिसाब लगाकर निकाला गया है, ३२ अर्थात् ६४ है, इसलिए उसकी क़िस्ती क़ीमत हुई १३०० x ६४, अर्थात् ८३२०) । जायदाद चाहे रक्षित हो या अरक्षित, औसत क़िस्ती कीमत निकालने का ढंग यही है ।
निम्नलिखित अवस्था में क़िस्ती क़ीमत कलक्टर द्वारा बढ़ाई घटाई जा सकती है
क़िस्त मुकर्रर करते समय कलक्टर को इस बात का खयाल रखना चाहिए कि क़िस्त इतनी अधिक न रक्खी जाय कि ज़मींदार उसको अदा ही न कर सके । लेकिन अगर कर्ज़दार रईस के पास कृषि और ज़मींदारी के अलावा ग्रामदनी का दूसरा ज़रिया मौजूद है या बहुत ज्यादा सीर और खुद काश्त है या मुनाफ़े का कोई फ़ारम है तो क़िस्त बढ़ाई जा सकेगी । ( २८ ) कलक्टर क़िस्त की मात्रा हिसाब से आये हुए अंक से गुना से ज्यादा घटा-बढ़ा नहीं सकता ।
ऋणग्रस्त रियासत-सम्बन्धी कानून
कलक्टर एक नक़्शा तैयार करेगा, जिसमें दिखाया जायगा कि क़र्ज़दार रईस की (१) हर एक रक्षित और रक्षित जायदाद की क़िस्ती कीमत क्या है, (२) रईस की सारी रक्षित जायदाद की बिक्री की क़ीमत क्या है, (३) रईस की सारी रक्षित जायदाद की क़िस्ती क़ीमत क्या है, (४) रईस की सारी अरक्षित जायदाद की क़िस्ती कीमत क्या है । (कायदा नं ३० )
अगर रईस ने दो महीने के अन्दर सारे क़र्ज़ की रकम अदालत में जमा नहीं कर दी तो कलक्टर एक्ट की दफ़ा २४ के अनुसार रईस के पास जितनी ग़ैर काश्तकारी की जायदाद है उसे बेचने की कोशिश करेगा । लेकिन कलक्टर किसी भी हालत में रईस की और उसके
*बढ़ाने के कारण
(१) उस हलके की अन्य जायदादों की अपेक्षा लगान आसानी से और समय पर वसूल हो जाता है । (२) इन्तिज़ामी खर्च कम है ।
(३) जायदाद अपेक्षतः बढ़िया है ।
फा. ७
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
३३७
खानदान की उतनी जाती जायदाद को न बेचेगा जो उसकी राय में रईस की हैसियत कायम रखने के लिए आवश्यक है, बशर्ते कि वह जायदाद किसी क़र्ज़ की जमानत में मक़फ़ूल न हो ।
लेकिन जब तक जायदाद की श्रमदनी से किस्तें बँधकर क़र्ज़ की अदायगी सम्भव है, दफा २४ काम में नहीं लाई जायगी, अर्थात् कर्जदार रईस की चल सम्पत्ति और ग़ैर काश्तकारी जायदाद नीलाम नहीं की जायगी।
गर क़र्ज़दार रईस नक़द रुपया क़र्ज़ की अदायगी में नहीं दे सकता और दफ़ा २४ के अनुसार कर्ज़दार रईस की चल सम्पत्ति और ग़ैर काश्तकारी बेच कर भी क़र्ज़ से छुट्टी नहीं मिलती, उस हालत में अगर कोई महाजन क़र्ज़दार की काश्तकारीवाली सम्पत्ति रहन रखना चाहेगा तो कलक्टर रहन की इजाज़त दे देगा |
कर्ज की अदायगी रहन द्वारा कैसे होगी ?
अगर कोई महाजन अपने क़र्ज़ की अदायगी में किसी रईस की जायदाद रहन रखने को तैयार है तो उसे अदालत में दरख्वास्त देनी होगी। महाजन को अपनी दरख्वास्त में यह साफ़ कर देना होगा कि वह कौन कौन-सी जायदाद और कितनी मियाद के लिए रहन रखना चाहता है । अगर दरख्वास्त में महाजन ने २० वर्ष से ज्यादा मियाद चाही तो कलक्टर उस दरख्वास्त को नामंजूर कर देगा । अगर दरख्वास्त के अन्दर २० वर्ष से कम मियाद माँगी गई तो कलक्टर पहले इस बात को तय करेगा कि उक्त जायदाद से अब (छूट के बाद) कितना मुनाफ़ा होता है । अगर दरख्वास्त में बताई हुई जायदाद या मुनाफ़ा क़र्ज़दार की सारी जायदाद के मुनाफ़े के तीन-चौथाई से ज्यादा है तो कलक्टर दरख्वास्त नामंजूर कर देगा ।
घटाने के कारण
उस हलके की अन्य जायदादों की अपेक्षा लगान कठिनाई से और अनियमित रूप से वसूल होता है।
(२) इन्तिज़ामी खर्च ज्यादा पड़ता है । जायदाद अपेक्षतः घटिया है ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
इसका मतलब यह है कि कर्जदार की जायदाद ३-४
किस्तें कैसे मुकर्रर होंगी? से ज्यादा रहन नहीं हो सकती।
__परिशिष्ट २ में जिसे हम अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं, ____ अब प्रश्न यह होता है कि कितने कर्ज के लिए यह दिखाया गया है कि ४, फ्री सदी सूद के हिसाब से कितनी जायदाद रहन रखी जायगी। इसके वास्ते यह १) अमुक वर्ष में कितना अदा कर देगा। इस नशे के नियम बनाया गया है कि छूट के बाद जायदाद का जो अनुसार कलक्टर हिसाब लगाकर तथा कर्ज की मात्रा मुमाफ़ा है उसे 'औसत किस्ती अंक' से गुणा कर देंगे। और जायदाद की किस्ती कीमत को देखकर अदायगी की फिर जितने वर्ष के लिए रहन की दरख्वास्त हुई है किस्तें मुकर्रर करेंगे। मान लीजिए १०,०००) का कर्ज है उतने वर्ष के सामने परिशिष्ट नं० २ में जो अंक और जायदाद की किस्ती कीमत १,०००) है। अगर लिखा हुश्रा है उसे '१५ से गुणा करके सबको गुणा कर कर्ज की अदायगी के लिए हम एक एक हज़ार रुपये की दे । गुणा करने से जो आयेगा वह वह रकम है जितने के सालाना किस्त बाँध दें तो इस नक्शे के अनुसार १३ लिए उक्त जायदाद रहन रक्खी जा सकती है। उदाहरण वर्षों में १००० x १० ३६१ अर्थात् १० ३६१) अदा हो के लिए मान लीजिए कि लछिमनपुर गाँव को कोई महा- जाते हैं। इसलिए कलक्टर १,०००) की तेरह सालाना जन रहन रखना चाहता है। इस गाँव का छूट के बाद किस्तें मुकर्रर कर देगा। लेकिन अगर वह यह देखेगा कि का मुनाफ़ा १,०००) है और महाजन ने १० वर्ष के लिए एक हज़ार रुपये की सालाना अदायगी में ज़मींदार को रहन रखने की दरख्वास्त दी है। लछिमनपुर का औसत कठिनाई होगी तो वह १३ किस्तों के बजाय १५ किस्ते विक्रयांक ७ है । परिशिष्ट २ में १० के सामने ८०११ कर सकता है, २० किस्तें कर सकता है। ज़ाहिर है कि लिखा है। इस कायदे के अनुसार मुनाफ़े को परिशिष्ट के किस्तों की संख्या अर्थात् मियाद जितनी बढ़ेगी, किस्तों की अंक से किस्ती अंक से और '१५ से अगर गुणा करेंगे तो मात्रा उतनी ही कम होती जायगी। वह रकम मालूम हो जायगी जितने के लिए वह जायदाद यद्यपि कायदा यह है कि अधिक से अधिक मात्रा की रहन रक्खी जा सकती है, अर्थात् १००० x ८०११x किस्तें जो क़र्ज़दार की रक्षित और अरक्षित जायदाद से '१५४७ =८४११.५५) यानी ८४११.५५ के लिए वह दिलाई जा सकती हैं, दिलाई जायँ, लेकिन कलक्टर को इस जायदाद रहन रक्खी जा सकती है।
बात की हिदायत है कि वह ज़मींदार की हालत देखकर अगर केवल ५००के क़र्ज़ पर महाजन ८४११) के किस्त ऐसी मुकर्रर करे जिसकी वसूलयाबी में दिक्कत न हो। रहनी कीमत की जायदाद लेने की दरख्वास्त करेगा तो अगर कोई महाजन रईस की जायदाद रहन रखने दरख्वास्त नामंज़र हो जायगी, क्योंकि ५००) के लिए को तैयार नहीं और कर्ज़ इतना ज्यादा है कि जायदाद ८४११) की जायदाद रहन करने की कलक्टर इजाज़त की किस्ती कीमत से अदा नहीं हो सकता, अर्थात् एक्ट नहीं देगा।
की दफा २८ के अनुसार कार्रवाई ज़रूरी मालूम होती है, ___ अगर कोई महाजन ऐसा नहीं मिलता कि कर्जदार तो उस हालत में दो सूरतें पैदा हो सकती हैं --पहली यह की जायदाद रहन रक्खे तो उस हालत में कलक्टर दफ़ा कि अरक्षित जायदाद की बिक्री कीमत और रक्षित २७ के अनुसार किस्तें बाँध देगा। उसका तरीका यह है जायदाद की किस्ती कीमत जोड़ने से कर्ज अदा हो जाता कि वह सूद-सहित सम्पूर्ण कर्ज की मात्रा जोड़कर एक है। दूसरी यह है कि क़र्ज़ इतना ज्यादा है कि इनके अोर रक्खेगा और रक्षित और अरक्षित जायदाद की जोड़ने पर भी अदा नहीं होता। क़िस्ती कीमतें जोड़कर दूसरी ओर। अगर किस्ती पहली सूरत में भी तीन बातें पैदा हो सकती हैंकीमत क़र्ज़ की मात्रा से ज़्यादा है तो वह किस्तों की (क) कर्जदार रईस के पास कोई रक्षित जायदाद नहीं, मात्रा और संख्या इस ढंग से बाँध देगा
सारी जायदाद अरक्षित ही है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
ऋणग्रस्त रियासत-सम्बन्धी कानून
३३९
(ख) कर्जदार रईस के पास रक्षित और अरक्षित दोनों इस प्रकार जायदाद का ४६७५ महाजनों को दे देने जायदाद हैं।
से और १६२८) किस्त सालाना गवर्नमेंट को अदा कर (ग) कर्जदार रईस के पास केवल रक्षित जायदाद है, देने से डेढ़ लाख रुपये का कर्ज अदा हो जाता है। कोई अरक्षित जायदाद नहीं है ।
____ जब सूरत १ (ख) की है दूसरी सूरत में भी अर्थात् जब अरक्षित जायदाद की
पहले कलक्टर यह निश्चय करेगा कि कर्जदार रईस बिक्री कीमत और रक्षित जायदाद की किस्ती कीमत
की अरक्षित जायदाद का कितना हिस्सा महाजनों को दे जोड़ने पर भी कर्ज नहीं अदा होता तब यही तीन बातें
दिया जाय । उसका तरीका यह होगा --. पैदा होंगी। जब सूरत १ (क) की है
क़र्ज़ की मात्रा-अरक्षित जायदाद की क़िस्ती अर्थात् अरक्षित जायदाद की बिक्री कीमत क़र्ज़ से ज्यादा
कीमत-रक्षित जायदाद की क़िस्ती कीमत है तब ऐसी हालत में जायदाद का कुछ हिस्सा बेच दिया बिक्री कीमत सारी जायदाद-क़िस्ती कीमत रक्षित जायगा और बाकी जायदाद से किस्तें बाँध दी जायँगी। जायदाद ।
मान लीजिए कि क़र्ज़दार रईस पर १ लाख ५० पिछला ही उदारण फिर ले लीजिए। क़र्ज़ १३ हज़ार का क़र्ज़ है। उसकी जायदाद की बिक्री कीमत २ लाख रुपये है। अरक्षित जायदाद की किस्ती कीमत ५१ लाख ५० हज़ार है (उसके पास कोई रक्षित जायदाद हज़ार है, रक्षित जायदाद की किस्ती कीमत मान लीजिए नहीं) और किस्ती की पत ५१ हज़ार रुपया है। प्रश्न यह ४०,०००) है । है कि इस रईस की जायदाद का कितना हिस्सा डेढ़ लाख १,५०,०००- (५१,००० x ४०,०००)
१६ - २६६५
५६ - कर्ज़ की अदायगी में बेचा जायगा । उसका कायदा २,५०,०००---५१,००० १६४ गवर्नमेंट ने यह मुकर्रर किया है कि क़र्ज़ की मात्रा में से अर्थात् अरक्षित जायदाद का २६६५ का हिस्सा महाजनों को क़िस्ती कीमत घटा दी जाय और उसे बिक्री कीमत में से दे दिया जायगा । किन्तु इससे केवल २५०,००० x २६ क्रिस्ती कीमत घटाकर जो कुछ अावे उसी से भाग दे दे। ६५ - ७४१२५) ही अदा होता है; १५०,००० - ७४१२५ १,५०,००० - ५१००० ६६ .
= ७५८७५ देना बाकी रह जाता है । इसकी अदायगी २५०००० : ५१०००१६-जा कुछ भाग
किस्तों से होगी। किस्त २० बरस में रईस मालगुजारी फल आवेगा, जायदाद का उतना ही हिस्सा बेचा जायगा, से अदा करेगा और उसकी मात्रा पूर्ववत् ७५८७५ १३ अर्थात् '४६७५ -- करीब आधे के।।
२६४ =५७०७) होगी। यह भी सम्भव है कि क़र्ज़ की किन्तु १ लाख ५० हज़ार का कर्ज आधी जायदाद मात्रा इतनी ज़्यादा हो कि हिसाब लगाने से यह पता चले बेचने से पूरा पूरा अदा नहीं होता। २ लाख ५० हज़ार कि अरक्षित जायदाद पूरी की पूरी बेचनी होगी । जैसे मान की जायदाद का ·४६७५ बेच डालने से २,५०,००० x लीजिए कर्ज २ लाख ६० हज़ार रुपये है । उस हालत में '४६७५ = केवल १,२४,३७५ रुपया ही अदा होता है और २,६०,००० - ६१,००० - १६६- यह मालम होता है १,५०,००० - १२४३७५ = २५६२५) फिर भी देना बाकी २,५०,०००,--५१,००० १६६ रह जाता है। इसकी अदायगी कलक्टर २० किस्तों में कि पूरी पूरी अरक्षित जायदाद बेचनी होगी। कलक्टर करायेगा, जैसा ऊपर बताया गया है। २५६२५) की ऐसी हालत में सम्पूर्ण अरक्षित जायदाद बेच देगा और अदायगी २० बरस में २५६२५ १३:२६४ : १६२८) २ लाख ६० हज़ार रुपये कर्ज़ में से २ लाख ५० हज़ार प्रतिवर्ष किस्त देने से होगी। ये किस्तें गवर्नमेंट को रुपये अदा हो जायँगे । जो ४० हजार रुपया बचेगा वह रईस २० बरस में मालगुजारी के साथ अदा कर देगा। रक्षित जायदाद की किस्ती कीमत से २० बरस में अदा
अर्थात्
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४०
सरस्वती
[भाग ३६
'०००
राम को २०,०००
" २,००,०००-० मिल जायगा । श्याम को ६०,०००
२,००,००० = " " मोहन को ७०,०००
"२,००,००० = " "
लेकिन यह जरूरी नहीं कि सभी कर्जदारों को कुछ न कुछ किया जायगा। अर्थात्
मिल जाय। मान लीजिए कि रईस के ऊपर क़र्ज़ की एक सूरत और पैदा हो सकती है। मान लीजिए कि सम्पूर्ण मात्रा ३ लाख ६० हज़ार है । २० हज़ार राम के डेढ़ लाख रुपये का क़र्ज़ तीन महाजनों का है। राम का हैं, ६० हज़ार श्याम के, ७० हज़ार मोहन के, ६० हज़ार ५०,०००), श्याम का ४० हजार रुपये, और मोहन का ६० सोहन के और डेढ़ लाख लछमन के। स्पेशल जज ने यह हज़ार । स्पेशल जज ने यह निश्चय किया कि पहले फैसला किया है कि अदायगी पूर्व-कथित क्रम से की जाय । राम का कर्ज वाजिबुल अदा है फिर श्याम का और उसके मान लीजिए कि अरक्षित जायदाद की बिक्री कीमत बाद मोहन का।
केवल दो लाख है। यह मानना सख्त ग़लती होगी कि राम, श्याम और मोहन को बाँड और ज़मीन में बराबर बराबर रक़में अपने क़र्ज़ की अदायगी में मिलेंगी। अदायगी स्पेशल जज के बताये हुए कम से ही होगी । बाँड पहले राम को मिलेगा। उसका ५० हज़ार का क़र्ज़ बाँड से सबसे पहले अदा कर दिया जायगा । इसके बाद श्याम का नम्बर आयेगा । उसको ४०
सोहन के लिए केवल २ लाख की जायदाद में से अब हज़ार पाना है। ४० हज़ार की अदायगी में ७५,८७५) से। राम को देने के बाद बचा हुश्रा २५ हज़ार का बाँड ५० हज़ार बानी रहे अर्थात् १ सोहन को श्याम को मिल जायगा और १४ हज़ार १२५ उसके और मिल जायँगे। बाकी रहेंगे। इतनी कीमत की ज़मीन श्याम को कर्जदार १० हजार के कर्ज में से सोहन केवल ५० हजार रईस की जायदाद से दे दी जायगी। हमने देखा है कि वसूल कर सकेगा। ४० हजार से उसे हाथ धोना पड़ेगा। इस रईस की जायदाद का केवल २६६५ अंश मुंतकिल लछमन के डेढ लाख कर्ज की अदायगी के लिए कोई होगा । पहला हिस्सा इसमें श्याम का होगा । २३ लाख जायदाद नहीं बचती, इसलिए लछमन को कुछ न मिलेगा। की जायदाद में १४,१२५) की जायदाद श्याम को मिलेगी
जब सूरत २ (ख) की है। अर्थात् = ०५६५ के। इस तरह श्याम का
इस दशा में अरक्षित जायदाद बेच दी जायगी और
रक्षित जायदाद से २० बरस तक किस्ती कीमत रईस पूरा पूरा क़र्ज़ अदा हो जायगा। मोहन को अब उसके कर्जदार गवर्नमेंट को अदा करेगा। मान लीजिए कि ६० हजार क़र्ज़ की अदायगी में बिक सकनेवाली जाय- कर्ज पूर्ववत् ३ लाख ६० हजार रुपया है और अरक्षित दाद का बचा हुआ हिस्सा मिल जायगा। '२६६५ में से जायदाद की बिक्री कीमत २ लाख रुपया है । रक्षित .०५६५ तो श्याम ने ही ले लिया । केवल २४ बचा है। जायदाद की क़िस्ती कीमत ३० हज़ार है। राम का २० यह मोहन को मिल जायगा और इस तरह उसका क़र्ज़ हज़ार देना है, श्याम का ६० हज़ार, मोहन का ७० भी अदा हो जायगा।
हज़ार. सोहन का ६० हज़ार और लछमन का डेढ़ लाख। जब सूरत २ (क) की है।
जायदाद जैसा ऊपर बताया गया है, अरक्षित २ लाख । अर्थात् जब रक्षित जायदाद नहीं केवल अरक्षित जाय- की है और रक्षित जायदाद से ३० हजार रुपया सालाना दाद है और अरक्षित जायदाद की बिक्री की कीमत और किस्त में अदा हो सकता है। रक्षित जायदाद की किस्ती कीमत से कर्ज अदा नहीं होता, अदायगी की सूरत यह होगीउस हालत में अरक्षित जायदाद पूरी पूरी बेच दी जायगी। (अ) राम को किस्ती कीमत से २० हज़ार का बाँड सबसे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
ऋणग्रस्त रियासत-सम्बन्धी कानून
३४१
पहले मिल जायगा और उसका कर्ज अदा समझा किस्त में बचत नहीं । ८० हजार रुपये से उसे हाथ धोना जायगा।
पड़ेगा। लछमन डेढ़ लाख के क़र्ज़ में से एक पैसा भी (ब) श्याम को १० हज़ार का बाँड मिलेगा, ५० हज़ार न पायेगा। महाजन को यह अधिकार है कि अगर वह
जो उसके और बाकी रह जाते हैं वे २ लाख की बाँड से जमीन का लेना बेहतर समझता है तो बाँड के अरक्षित जायदाद से अदा किये जायँगे।
बजाय उसे जमीन दे दी जायगी। यानी २... अर्थात् जायदाद का चौथा
क़िस्तों की वसूलयाबी कैसे होगी ? हिस्सा श्याम के नाम मुन्तक्किल कर दिया जायगा । (स) मोहन को ७० हज़ार रुपया देना है। इसलिए उसे कलक्टर जिस समय क़र्ज़ की अदायगी की योजना
७०,००० २,००.०००-३ हिस्सा अरक्षित जायदाद का मिल और तजवीज निश्चित कर लेगा तब जिस जिस जिले में
कर्जदार की जायदाद है उस उस जिले के कलक्टर के जायगा। अब केवल ८० हज़ार की जायदाद बच पास सुचना भेज देगा कि उसे कर्जदार रईस की मालरही । सेाहन को १० हज़ार देना है इसलिए यह सब राजारी और अववाब के साथ क़र्ज़ के मद में और कितना ८० हज़ार की जायदाद सोहन को मिल जायगी रुपया वसूल करना है। परगना-हाकिम इस रकम की अर्थात् २ हिस्सा। १० हज़ार रुपये से सोहन को वसूलयाबी के लिए जिम्मेदार होगा। हाथ धोना पड़ेगा।
अगर कर्जदार रईस मुतवातिर दो किस्ते न अदा कर (द) लछमन डेढ़ लाख रुपये के कर्ज में एक पैसा भी सकेगा तो दूसरी किस्त के वाजिबुल अदा होने के छः महीने न पायेगा।
के अन्दर ही कलक्टर को इस बात की रिपोर्ट गवर्नमेंट
से कर देना चाहिए। गवर्नमेंट उस हालत में निम्नजब सूरत २ (ग) की है।
लिखित बातें तय कर सकती हैइस हालत में रक्षित जायदाद बेची न जायगी। २० या तो वह पूरी रकम जो वाजिबुल वादा है मालबरस तक रक्षित जायदाद से कर्जदार रईस किस्तें गवर्न- गुज़ारी की बाकी की तरह वसल कर लेगी या क़ज़ेदार
करेगा। इस हालत में भी जिस महाजन की जायदाद को कोर्ट श्राफ वार्डस में ले जायगी, या का नम्बर अव्वल होगा उसका तो सारा क़र्ज़ अदा हो बकाया की वसलयाबी के लिए कोई तीसरा ढंग निकाजायगा, लेकिन अन्तिम नम्बर के महाजन को अगर लेगी। रिपोर्ट करते समय कलक्टर कर्जदार की जायदाद कुछ न बचा तो कुछ न मिलेगा। उदाहरण के तौर पर की पूरी सूची गवर्नमेंट को भेज देगा। मान लीजिए कि क़र्ज़ ३ लाख ७० हजार रुपये का है अगर किसी फ़सल में दुष्काल के कारण फ़सल मारी और रक्षित जायदाद से केवल एक लाख ६० हज़ार जाय तो उस ज़िले का कलक्टर किस्त में कमी कर सकता रुपया सालाना किस्त से अदा हो सकता है। कर्जदारों है। अगर फ़सल का नुक्सान ६ आने से ८ आने तक की संख्या और उनका ऋण पूर्ववत् है।
है तो किस्त में ४ आने की कमी की जायगी। अगर राम का २० हज़ार रुपये का बाँड मिल जायगा। ८ आने से १० आने तक फ़सल मारी गई है तो श्याम को ६० , , " "
किस्त श्राधी कर दी जायगी। अगर १० आने से मोहन को ७० , , , ,
१२ आने तक फ़सल मारी गई है तो किस्त में १२ आने सोहन को केवल १० हजार रुपये का बाँड६० हजार की कमी आ जायगी और १२ आने से ज्यादा फसल के कर्ज की अदायगी में मिलेगा। इससे ज्यादा मारी गई है तो किस्त मुलतबी कर दी जायगी।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
- [भाग ३६
- परिशिष्ट नं०२ जिसमें "क" स्तम्भ में वर्ष की संख्या दिखाई गई है और "ख" में वह रकम है जो सामने लिखे हुए वर्ष में एक रुपया मूलधन से उसी वर्ष में ४ फ़ी सदी के हिसाब से हो जाता है।
(ख) ०६५६
१८७६ २७६२ ३६०६ ४४२१ ५.२०० ५६४७
on or in
(ख) ८.०१२
८६४३ ६२५० ६८३२ १०.३६१ १०६२६ ११४४० ११.६३३ १२४०६ १२८५६ १३२६४ १३७१२ १४.११२ १४.४६६ १४८६४ १५२१७
x tw o
w
७३५१
हे देवि!
लेखक, श्रीयुत जगन्नाथ प्रसाद, एम० ए . मैं मद का ऐसा-वैसा नहीं भिखारी,
मैं सुख-दुख दोनों ही में रो लेता हूँ, मैं नहीं पतन का हूँ सामान्य पुजारी।
अपकीर्ति-कीर्ति दोनों ही धो देता हूँ। अपने हाथों निज सर्वनाश करता हूँ,
निर्धनता मेरा धन दुर्बलता बल है, मैं जी जी करके भी फिर फिर मरता हूँ।
असफलता ही मेरा साफल्य अटल है। मुझमें हे देवि आत्म-सम्मान नहीं है,
जिस जगह डाल देते चञ्चल पग डेरा, मैं नामी हूँ, यह भी अरमान नहीं है।
बस वहीं उसी क्षण बन जाता घर मेरा॥ अब तिरस्कार की कुछ परवाह नहीं है, उनको देना क्या जिनसे काम निकलता,
मिटनेवाली यह मेरी चाह नहीं है ।। यह जीवन क्या जिसका उद्देश्य सफलता। मैं नहीं जानता लिखने-पढ़नेवाली,
मैं निरुद्देश्य दानी बनना सिखलाता, कोई प्रसिद्ध शैली या कला निराली।
जब आता हूँ तो पीकर के ही जाता ।। कृत्रिम जग को दिखलाता भग्न हृदय हैं,
हो धर्म-शास्त्र में मेरा काम निरर्थक, जो जी में आता कह देता निर्भय हूँ।
हो अर्थ-शास्त्र में यह निषिद्ध अपकर्षक । जो मिल जाता उसका ही कर गह लेता, मुझको पागल कहती दुनिया कहने दे, अनजानों से भी सब रहस्य कह देता।
मैं जैसा हूँ बस वैसा ही रहने दे॥ सपने मेरा करते हैं पालन-पोषण,
यह मरना क्या जिसके पीछे फिर जीवन, जो जी में आता कर देता हूँ तत्क्षण । यह स्वार्थ-त्याग क्या जो उन्नति का साधन । दुख पड़ा अगर, तो अश्रु उसे हर लेते, मैं पतन-हेतु ही जीता हूँ मरता हूँ, सुख मिला अगर, तो उसे विमल कर देते । पतितों की मर्यादा पालन करता हूँ ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
रिचर्ड गारनेट की अँगरेज़ी कहानी का अनुवाद
अमृत
P
अनुवादक, श्रीयुत माईदयाल जैन, बी० ए० (आनर्स), बी. टी. (१)
विचित्र बात मालूम हो गई। मैं नहीं कहता कि चार्य चन्द्रभट्ट कौशाम्बी मुझे सोना बनाना आगया है या जादू की अँगूठी नगर के एक ऊँचे बुर्ज में मिल गई है। नहीं ऐसी कोई बात नहीं हुई है। मैं रहते थे और रसायन- यह भी दावा नहीं करता कि मैं मुर्दो को जिन्दा विज्ञान के प्रयोगों में अपना कर सकता हूँ। परन्तु हाँ, मैं जीवन को अमर बना
समय गुजारते थे। उनकी सकता हूँ, मुझे अमृत मिल गया है।" लाHिS प्रयोगशाला में कभी कोई यह कहकर आचार्य ने अपने शिष्यों को गौर
आदमी दाखिल होने न से देखा ताकि अपने शब्दों का प्रभाव उन पर पाया था। परन्तु आचार्य को मनुष्यों की संगति से मालूम करें। उन्होंने देखा कि सबके मुखों पर घणा न थी। उनके सात शिष्य थे। वे सातों नव- आश्चर्य के भाव झलक रहे हैं । उनके हृदय आचार्य युवक थे और कौशाम्बी के उच्चतर घरानों के प्रकाश- की बात पर विश्वास कर चुके हैं, और उस विचित्र मान सितारे थे। ये आचार्य से भिन्न भिन्न विद्याओं रहस्य को जानने के लिए वे बेचैन हैं। आचार्य ने तथा विज्ञानों की शिक्षा पाते थे। केवल रसायन उनसे कहा-“यदि तुम चाहो तो मैं खुशी से तुम्हें और जादू-दो ऐसे विषय थे जो आचार्य ने उन्हें वह रहस्य बता सकता हूँ।" अभी तक नहीं सिखाये थे।
___ यह सुनकर सब शिष्यों के मुँह से एकदम एक दिन आचार्य ने अपने स्वभाव के बिलकुल खशी की आवाज आने लगी। विरुद्ध अपने खास कमरे में अपने सातों शिष्यों को प्राचार्य ने कहा-"किन्तु ध्यान से सुनो। इस बुलवाया। वे बड़े आश्चर्य और भय से कमरे में रहस्य को मालूम करने का मूल्य तुम्हें देना पड़ेगा। दाखिल हुए। क्या देखते हैं कि उनके आगे सात इसका मूल्य बहुत अधिक है। विश्वास करो कि मैं सुन्दर बिल्लौरी गिलास किसी रस से भरे रक्खे हैं स्वयं अपना जीवन एक पल भी बढ़ाना नहीं चाहता। और स्वयं आचार्य चुपचाप हैं।
मैंने इतने कष्ट झेले हैं और इतनी ठोकरें खाई हैं __आचार्य ने शिष्यों को सम्बोधन करके कहा- कि जल्द से जल्द मौत का स्वागत करना चाहता "प्यारे बेटो ! लोगों का खयाल है कि मैंने वे हूँ। अच्छा हो कि मेरे जीवन का अनुभव भी सब रहस्य मालूम कर लिये हैं जो प्राचीन काल के तुम्हारे जीवनों के अनुभवों के समान हो और मेरी तत्त्ववेत्ताओं और रासायनिकों को मालूम न थे। तरह तुम भी अमर जीवन की इच्छा न करो।" उनका यह खयाल ठीक है। वास्तव में मैंने ऐसे भेद अब तक शिष्य भी यही कहा करते थे कि मालूम कर लिये हैं, परन्तु ये भेद कुछ अधिक जीवन झूठा है और उससे शीघ्र से शीघ्र छुटकारा कीमती नहीं हैं। मुझे भय था कि कहीं मैं भी दुनिया पालेना ही अच्छा है। परन्तु यह सब ज़बानी जमाखर्च से असफल न चला जाऊँ । परन्तु कल मुझे एक था। उस वक्त उनमें एक भी ऐसा न था जो उस
३४३
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
महान रहस्य से लाभ उठाने के लिए बड़े से बड़ा तीसरे ने कहा---"मेरा एक अत्याचार-पीड़ित . कष्ट उठाने के लिए तैयार न हो।
मित्र है। मेरे सिवा उसका कोई नहीं। मैं मर कर . ___ यह देखकर आचार्य ने कहा-"अच्छा ! वही उससे विश्वासघात नहीं कर सकता।" सही जो तुम सब चाहते हो। अब ध्यान से मेरी बात चौथे ने कहा-"मेरा एक जानी दुश्मन है। सुनो। मेरे सामने ये सात गिलास रक्खे हैं। इनमें उससे बदला लिये बिना मैं मरना नहीं चाहता।" से एक में अमृत है । बाक़ी छ: में तेज़ से तेज विष पाँचवें ने कहा-"मैं अपना जीवन विद्या-प्राप्ति भरा है। अब यदि तुम उस रहस्य को मालूम करना के लिए अर्पित कर चुका हूँ। अभी मैंने कुछ भी चाहते हो तो आगे बढ़ा। एक एक गिलास उठा लो विद्या प्राप्त नहीं की है। इतना जल्दी मेरा मर जाना
और गट गट पी जाओ। तुम में से छः फौरन मर ठीक नहीं है।" जायेंगे और सातवाँ जिन्दा रहेगा। मौत कभी उस छठे ने कहा-"जब तक चाँद के निवासियों से पर विजय न पा सकेगी, क्योंकि अमृत उसके शरीर बातें न कर लूँगा, मुझे मरना स्वीकार नहीं है।" में पहुँच जायगा।
__ सातवें ने कहा-“गुरुवर ! न मेरी माँ हैं, न
बहन, न मित्र, न शत्रु, विद्या से भी मुझे अधिक शिष्यों ने चकित होकर एक दूसरे के मुंह की ओर प्रेम नहीं है । परन्तु मुझे अपनी जान बड़ी प्यारी देखना प्रारम्भ कर दिया। फिर अपने गुरु के मुँह है। मैं सुन्दर हूँ और मैं इस भरी जवानी में मरना को गौर से देखा कि कहीं हँसी तो नहीं कर रहे हैं। नहीं चाहता।" फिर सातो गिलासों पर निगाहें जमा दी, जिससे आचार्य ने कहा-"तब तुममें एक भी ऐसा नहीं अमृतवाले गिलास को पहचान सकें। परन्तु न गुरु जो अमर जीवन के लिए अपने नाशवान जीवन के चेहरे पर हंसी थी और न गिलासों में ही किसी को ख़तरे में डाल सके।" प्रकार का फर्क था।
शिष्यों की गर्दनें शरम से झुक गई और वे आचार्य की आवाज़ फिर बुलन्द हुई; उन्होंने आचार्य को कोई उत्तर न दे सके। कहा-"तम चकित और किंकर्तव्यविमूढ क्यों हो ? मुझे विश्वास था कि इस समय मैं तुममें से छः की लाशें यहाँ पड़ी तड़फ़ती देलूंगा।"
कुछ देर के बाद शिष्यों ने सोच कर कहा-"गुरुपरन्तु आचार्य की इस बात का भी कुछ असर देव, हम आपस में परचा क्यों न डाल लें। जिसका न हुआ। केवल दो शिष्यों ने तो आगे को हाथ नाम पहले निकले वही पहला गिलास पी ले।" बढ़ाये, परन्त बाकियों ने साथ नहीं दिया, इसलिए आचार्य ने उत्तर दिया-"अच्छा, यही करो।" वे भी हिम्मत न कर सके।
परचा डाला गया और पहिला नाम उस नवयुवक ___बड़ी देर तक खामोशी छाई रही। अन्त में एक का निकला जिसने अपनी माँ के होने का बहाना शिष्य ने कहा-"पूज्यवर गुरुदेव ! आप विश्वास किया था। परन्तु अब वह मजबूर था। दृढ़ पैरों से करें कि मेरी नज़र में जीवन का कुछ भी मूल्य नहीं वह आगे बढ़ा और आधी दूर तक हाथ भी बढ़ाया, है। किन्त मेरी एक बूढी माँ है । मैं ही उसका सहारा फिर एकदम उस साथी की तरफ मुड़ा जिसने हूँ। मैं डरता हूँ कि मेरे पीछे वह ठोकरें खायगी।" बहन के होने का बहाना किया था। उसने कहा- दूसरे शिष्य ने कहा-"मेरी कुँवारी बहन मौजूद "तुम जानते हो कि माँ का नाता बहन के नाते है। मैं मर जाऊँगा तो उसका क्या होगा?" से कहीं अधिक दृढ़ होता है। क्या यह अच्छा
hcomic
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
अमृत
नहीं कि तुम इस खतरे को मुझसे पहले स्वीकार दी कि आचार्य पकड़ लिये जायें और उनके अमृत कर लो?"
पर कब्जा कर लिया जाय । साथी ने उत्तर दिया--"बेटे और माँ का नाता जब महाराज के आदमी आचार्य के कमरे में दृढ़ होते हुए भी शीघ्र टूट जाता है, क्योंकि माँ बूढ़ी दाखिल हुए तब देखते क्या हैं कि आचार्य अपनी होती है और मर जाती है। इसके विपरीत बहन- बैठने की जगह पर मरे पड़े हैं। एक गिलास खाली भाई का नाता अधिक स्थायी होता है।"
है और छः वैसे ही भरे रक्खे हैं। आचार्य के हाथ में ___ पहले शिष्य ने यह सुना तब क्रोध से चिल्ला काग़ज़ का एक टुकड़ा था, जिस पर लिखा थाउठा-"परमात्मा की कसम, मुझे कभी यह आशा “ज्ञान और सत्य की तलाश में सत्तर वर्ष व्यतीत न थी कि इस प्रकार की मूों वाली बातें मैं आचार्य करने के बाद अब मैं अपने अन्वेषण को संसार के के किसी शिष्य की ज़बान से सुनूँगा।"
लिए छोड़े जाता हूँ। ये घातक विष के छः गिलास ___ इस पर बाक़ी चिल्लाये-"बकवाद क्यों करते हैं। इनमें एक से एक बढ़कर सख्त ज़हर है। मेरे हो ? परचा तुम्हारे नाम का निकला है। यह गिलास बस में था कि इन सबसे अधिक भयंकर सातवाँ पीओ, अन्यथा यहाँ से निकल जाओ।" विष भी छोड़ जाता, जिसका नाम 'अमृत' है और
__ अब वह नवयुवक मजबूर हो गया। बढ़कर जिसके द्वारा मनुष्य सदा के लिए मृत्यु से बच उसने एक गिलास उठा लिया। परन्तु शीघ्र ही सकता है। परन्तु मुझे आदमी पर तरस आया। मेरे उसे अनुभव हुआ कि गिलास में कोई बहुत ही हृदय ने किसी तरह यह न माना कि आदमी को तेज़ रस है। जल्दी से उस गिलास को रख दिया दुःख तथा शोक झेलने के लिए सदा जीवित रहने का
और दूसरा गिलास उठा लिया। ठीक इसी समय रास्ता दिखाऊँ। आदमी अपने वर्तमान छोटे जीवन बिजली-सी चमकी और सातों शिष्य बेहोश होकर में जो कष्ट झेलता है वही क्या कम हैं कि अनन्त गिर पड़े।
जीवन का कष्ट और मोल ले । यही सोचकर मैंने बहुत देर के बाद जब उन्हें होश आया तब यह सातवाँ विष-अमृत-एक ऐसे जीव के पेट में अपने आपको प्राचार्य के घर के बाहर पड़ा देखा। पहुँचा दिया है जिसे वह हानि नहीं पहुँचायेगा। वे बहुत डरे हुए थे। ऐसा मालूम होता था कि नशे महाराज से मेरी प्रार्थना है कि मेरी याद में श्मशानमें हैं, परन्तु वास्तव में वे नशे में न थे। जब उनके भूमि में यह स्मारक लगा दिया जायहोश बिलकुल ठीक हो गये तब उन्होंने आपस में 'यहाँ वह आदमी सो रहा है जिसने मनुष्य फैसला किया कि इस घटना का किसी से ज़िक्र न को सदा के कष्ट से बचा लिया।' करेंगे।
___महाराज के सिपाही इस दृश्य से अत्यन्त हैरान
थे कि इतने में बहुत शोर हुआ। वे क्या देखते परन्तु सात आदमियों में किसी बात का छिपा हैं कि कमरे में एक बहुत बड़ा बन्दर घुस आया है रहना कठिन है। शीघ्र ही तमाम नगर में इस विचित्र और बड़ी फुर्ती और चुस्ती से नाच और उछल घटना की चर्चा फैल गई। उड़ते उड़ते महाराज रहा है। यह देखकर लोगों ने खयाल किया कि तक भी खबर पहुँच गई। उसी समय राजा की सेना आचार्य ने अपना अमृत इसी बन्दर को पिला ने आचार्य के घर को घेर लिया। महाराज ने आज्ञा दिया है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहम्मद इकबाल और उनकी शायरी
प्रोफ़ेसर इन्द्रनाथ मदन, एम० ए०
सर इकबाल ने उर्दू शायरी का मस्तक ऊँचा किया है, भारत को राष्ट्रीयता का संदेश देने का श्रेय उन्हें प्राप्त है । परन्तु अब तो वे काव्य-जगत् में उस विशाल वृक्ष की भाँति ढहे पड़े हैं जिसे साम्प्रदायिकता की आँधी ने जड़ से उखाड़ दिया है। उनके परिवर्तित विचारों के कारण उनकी शायरी में भी वह ज़ोर नहीं रहा, तथापि उनकी पिछली सेवायें उन्हें अमर बनाये रहेंगी। इस लेख में विद्वान् लेखक ने उनका
थोड़े में पर सुन्दर परिचय दिया है।
कवि का परिचय
और संसार उसको अटल और अमर जान पड़ता जी कबाल के नाम से कौन है। युवक यह अनुभव करता है कि उसका जीवन VIC E S परिचित नहीं। यह सम्भव सदा के लिए है। उसके माता-पिता और बन्धुजन
है, आम लोग इक़बाल की अनन्त के लिए जीवित रहेंगे। मौत का इस युवक शायरी से शायद इतना को तनिक भी ज्ञान नहीं होता। अगर सुन्दर वस्तुओं
परिचित न हों. जितना को देखता है तो यह समझता है कि ये अजर और S T D उनकी लीडरी से। कुछ अमर हैं । अगर किसी से स्नेह करता है तो इस
समय से उनकी काव्य में विचार से कि प्रेम सदा क़ायम रहेगा। इतनी रुचि नहीं रही, जितनी इस्लाम के सुधार में!
यौवन के बाद अब तो उन्होंने अपना जीवन मुसलमानों की बेह- इसके बाद वह यौवन से निकल कर धीरे धीरे तरी में लगा दिया है। वह भी समय था जब वे पुरुष की आय को पहुँचता है। वह यौवन का सुन्दर कौमी गीत लिख लिखकर लोगों को देश-प्रेम के और स्नेहमय संसार हलके हलके उसकी आँखों से लिए उभारते थे। अब तो उसकी मीठी याद ही ओझल हो जाता है। पता चलता है कि यह जीवन बाक़ी है। उनके काव्य के सब रसिक यह अनुभव अमर नहीं, इसका किसी दिन अन्त है । संसार के करते हैं कि वे एक महाकवि के आदर्श को पहुँचकर बनने से पहले प्रलय भी विद्यमान था। इन सुन्दर नीचे उतर आये हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं वस्तुओं का किसी दिन नाश होना है। आज सवेरे कि इकबाल संसार के महाकवियों से कई स्थानों पर जो कली खिनी है, शाम को मुरझा जायगी। सौन्दर्य टक्कर खाते हैं। लेकिन किसी कवि के तङ्ग-दिल हो वही है जिसका नाश हो। जीवन दुःख-सागर है। जाने पर उसका मान घट जाता है। असल में कवि इस जीवन-वीणा के सब तार धीरे धीरे शिथिल का जीवन ही मत है, जीवन ही धर्म है। उसे इसी होकर टूट जाते हैं । इस मानसिक हालत में साधाजीवन की पहेली को हल करना और उसको मधुर रण आदमी की अक्ल चकरा जाती है। कवि का तो गीतों में गाकर लोगों के व्यथित दिलों को शान्त कहना ही क्या ! उसका दिल तो और भी नरम करना है।
होता है । वह इस कठोर जीवन की चोटें नहीं सह जीवन के तीन भाग
सकता । वह क्या करता है ? इस निर्दय संसार से हमारा जीवन तीन भागों में बँट सकता है। नाता तोड़कर अपने मन की एक दुनिया बनाता है। पहले आदमी जवान होता है । इस समय यह जीवन वह दुनिया उसकी उमङ्गों के अनुकूल होती है।
३४६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४ ]
मुहम्मद इक़बाल और उनकी शायरी
बुढ़ापा
जीवन की तीसरी पीढ़ी बुढ़ापे की है जब मनुष्य मौत के अधिक समीप होता है और उसका शरीर जर्जर हो जाता है । अगर वह इस हालत से पहले इस जीवन की पहेली को हल कर ले तो उसको मौत का भय नहीं रहता । वह एक मुनि की तरह हँसखेलकर इस संसार में अपना सफर तय करके आराम के लिए सो जाता है। लेकिन अगर वह इस दुनिया की तकलीफों से विकल हो जाय और मौत की हक़ीक़त को न जान पाये तो बुढ़ापे में बेचैनी के दिन काटता है।
शायरी के तीन भाग
यही हाल इकबाल के जीवन और शायरी का है । जवान होकर कवि को भोले बचपन के मधुर दिन याद आते हैं । इसी बचपन की याद को शायर ने 'एक परिन्दे की फ़रयाद' नामक कविता में बन्द कर दिया है। सुरीली तान में कवि कहता है
जादियाँ कहाँ वह अब अपने घोंसले की, अपनी खुशी से आना अपनी खुशी से जाना । आगे चल कर पिछले समय की याद और भी तीखी हो जाती है और इक़बाल लिखते हैं-लगती है चोट दिल पर आता है याद जिस दम, शबनम के आँसु पर कलियों का मुसकराना ।
पिछले समय की याद किसको नहीं रुलाती ? इस याद से सबको एक मीठा सा सुख मिलता है, दिल भर आता है और आदमी अपने दुःखों को भूल जाता है । कवि कहता है-
गाना इसे समझ कर खुश हों न सुननेवाले, दुःखे हुए दिलों की फरयाद यह सदा है । मगर यह शायर का रोना दुःखी दिलों को चैन देता है । यह तो इक़बाल के बचपन की याद है, जो काव्य के रसिक को रुला देती है । यह अरमानों की दुनिया सबको मोह लेती है ।
यौवन के बाद
इक़बाल के जीवन में जवानी के दिन जल्दी बीत
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
३४७
गये । वे शीघ्र इस निष्ठुर समाज और दुनिया से तङ्ग कर इनसे भागने लगे । जैसे कि पहले वर्णन किया गया है कि यह इन्सान के जीवन का दूसरा भाग है । इस समय आदमी जीवन की ठोकरों से घबराकर कहीं ऐसे स्थान पर जाना चाहता है, जहाँ इन बातों का नाम तक न हो। इस समय हमारे कवि क्या चाहते हैं
दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब, क्या लुफ़्त अंजमन का जब दिल ही बुझ गया हो ।
अब इक़बाल शोरिशों से भागते हैं और किसी एकान्त स्थान की तलाश में हैं और वह रमणीय स्थान पहाड़ के दामन में एक छोटी-सी कुटीर हो । वहाँ संसार के झंझटों से अलग होकर कवि आनन्द के दिन बिताये, उसे चिड़ियों के चहचहों से सुख मिले। चश्मे की शोरिशों में एक नाद बज रहा हो। इस तरह कवि एक के बाद एक प्रकृति का ऐसा सुन्दर चित्र खींचता है कि मोहित ही होते बनता है। एक स्थान पर इक़बाल कहते हैं
रातों के चलनेवाले रह जायें थक के जिस दम, उम्मीद उनकी मेरी टूटा हुआ दिया हो । बिजली चमक के उनको कुटिया मेरी दिखावे, जब आसमाँ पै हरसू बादल घिरा हुआ हो । अब तो समाज से इतने निराश हो जाते हैं कि आखिर यह भी कह देते हैं
तू मेरे क़ाबिल नहीं मैं तेरे क़ाबिल नहीं । यही नहीं कवि अपने जीवन से भी निराश हैं, क्योंकि
ज़िन्दगी इनसाँ की इक दम के सिवा कुछ भी नहीं, दम हवा की मौज है रम के सिवा कुछ भी नहीं ।
तो आदमी इस जहान में आता ही क्यों है ? इसका यहाँ पैदा होने का मतलब ही क्या है ? यह पहेली तो हर एक के दिल को विकल कर देती है । अगर सुबह भी सफ़र है, शाम को भी सफ़र है, और जिन्दगी का नाम ही सफ़र है तो यहाँ आने का मतलब ही क्या ? क्या विधि ने बिना सोच
www.umaragyanbhandar.com
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४८
सरस्वती
[भाग ३६
विचार के इस कायनात को बनाया है। कवि की है। ऐसा मालूम होता है कि शायर ने जीवन के बुद्धि भी भँवर में पड़ जाती है। केवल इतना ही आदर्श को पा लिया है। अब वह नये सिरे से एक कहकर बस कर देते हैं
___नया शिवालय बनाने की धुन में है। एक कविता में आती है सब वाँ से पलट जाने की खातिर, स्नेह से सनी हुई मधुर तान में वह गाता हैबेचारी कली खिलती है मुरझाने की खातिर। सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बसती,
यह इन्सान का जीवन तो एक सपने के समान आ इक नया शिवालय इस देश में बनावें। है। यह केवल रामकहानी ही ठहरी। क्या इसमें पहले कवि को स्नेह नाशमान दीख पड़ता था, कोई ऐसी बात है जो सदा के लिए हो ? क्या इस मगर जबमायाजाल के अंधकार में कोई ज्योति है जो हम हर सुबह उठके गायें मन्त्र वह मीठे मीठे, थके-माँदे मंझधार में फंसे हुए इन्सानों को किनारा सारे पुजारियों को मय पीत की पिलावें । दिखा सके। इन भावों को कवि अपनी सुरीली तान कवि जिस संसार से भागता था अब वह उसी में कहता है
में बस कर बन्दों से प्यार करेगा। चश्मे हैराँ ढूँढ़ती अब और नज्जारे को है। खुदा के आशिक तो हैं हजारों, आरजू साहिल की मुझ तूफ़ों के मारे को है।
बनों में फिरते हैं मारे मारे। बुढ़ापे में
मैं उसका बन्दा बनूँगा जिसको, कवि जब हक़ीक़त की तलाश में अनन्त मार्ग पर
खुदा के बन्दों से प्यार होगा। चल चल कर चूर हो जाता है तब उसका दिल टूट शायर ने इस जीवन के मक़सद को पा लिया है। जाता है। वह स्वाभाविक तौर पर सोचता है क्या वह अपना अनुभव कहता है कि मनुष्य बिना प्रयोवह इसलिए पैदा हुआ था कि हमेशा सफर ही करता जन के पैदा नहीं हुआ, क्योंकि इन्सान हर वस्तु की रहे ? इस दुनिया की तो हर वस्तु नाश होनेवाली हक़ीक़त है, अगरहै। अब करे तो क्या करे ? किसके पीछे भागे, न सुहबा हूँ न साक़ी हूँ न मस्ती हूँ न पैमाना, किसकी तलाश करे ? वीणा के थके हुए तारों में बजने मगरकी ताक़त नहीं ? अगर उत्साह करके यह बाज़ी जीत मैं मयखाना-ए-हस्ती में हर शय की हक़ीक़त हूँ। ले और फिर से तारों को बना ले तो उसकी जीवन
अन्तिम दिन . वीणा से वह मधुर लय निकलती है जो हर दुःखी लेकिन इकबाल के दिल को अब तक चैन नहीं दिल को मोह लेती है और उसके दुःखों को भुला मिला । उथल-पुथल जारी है। जिस तरह जर्मनी देती है। महाकवि ठाकुर की तो यहो मीठी मीठी के महाकवि गेटे ने जीवन के आदर्श को पा लिया
और हलकी हलकी तान है, जिसने पश्चिम के व्यथित था, जिस तरह शेक्सपियर ने अपने अन्तिम नाटक दिलों को शान्ति दी, और उन लोगों ने मोहित होकर में जीवन के सार को समझ लिया था, और जैसे कवीन्द्र को नोबेल पुरस्कार दिया ।
रवीन्द्र ने अपनी शैली से जीवन के तत्त्व को पा कवि हारा नहीं
लिया है, इकबाल अभी उसकी तलाश में हैं। जीवन के इस घोर संग्राम में इकबाल की काव्य- शायद उन्होंने हारकर अब इस तलाश को त्याग वीणा बजते बजते थक तो गई है, लेकिन टूटी नहीं। दिया है। कदाचित् यह बाजी आदमी जीत ही अब भी कभी कभी उससे मधुर झंकार निकल पड़ती नहीं सकता।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतीय ज्वायंट स्टाक बैंक
लेखक, श्रीयुत प्रेमनारायण माथुर, बी० काम० हमारे देश में बैंकों की बहुत कम उन्नति हुई है। देहातों में बहुत-से लोगों ने तो बैंक का नाम तक न सुना होगा। इससे हमारे व्यापार की उन्नति भी रुकी हुई है। इस लेख में लेखक ने संक्षेप में भारतीय बैंक का इतिहास दिया है, उसके मार्ग की कठिनाइयाँ बताई हैं और उसकी उन्नति
कैसे हो सकती है इस पर भी प्रकाश डाला है।
मजाक्षिप्त इतिहास-हमारे देश असफल हो गये। महायुद्ध के कारण देश के व्यापार
के अाधुनिक बैंकिंग संगठन की जो उन्नति हुई उसके फल-स्वरूप इस दिशा में भी का एक मुख्य अंग भारतीय उन्नति के कुछ लक्षण दिखाई पड़ने लगे । पर लड़ाई के ज्वायन्ट स्टाक बैंक हैं । देश पश्चात् की व्यापारिक मंदी के कारण बैंकों की स्थिति भी
के अन्दरूनी व्यापार की वृद्धि गड़बड़ाने लगी और कई बैंक असफल हो गये । सन् न के साथ साथ व्यापारियों को १६१३ से १६२४ तक कुल मिलाकर १६१ बैंकों को
- उचित आर्थिक सहायता अपना कारबार बन्द कर देना पड़ा। इसका हमारे पहुँचाने के वास्ते यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि इस प्रकार बैंकिंग संगठन तथा व्यापारिक और प्रौद्योगिक उन्नति पर के बैंकों की स्थापना की जाय । प्रान्तीय बैंक सरकार-द्वारा बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। उपस्थित की गई अनेक बाधाओं के कारण इस कार्य का बैंकों के कार्य-भारतीय स्वायंट स्टॉक बैंकों की संचालन नहीं कर सकते थे और न विदेशी व्यापार की आर्थिक स्थापना का मुख्य उद्देश देश के बढ़ते हुए भीतरी माँग को पूरा करनेवाले विदेशी विनिमय बैंक कर सकते थे। व्यापार को यथेष्ट आर्थिक सुविधा देना था। श्राज भी इस प्रकार का सबसे पहला बैंक-बैंक अाफ़ अपर इण्डिया इनका मुख्य कार्यक्षेत्र यही है। ये बैंक देश के विदेशी था। इसके पश्चात् अन्य कई बैंकों की स्थापना की गई। व्यापार का धन-सम्बन्धी सहायता देने में बहुत कम उनमें से कुछ बैंकों के नाम ये है-इलाहाबाद बैंक भाग लेते हैं। इसका कारण विदेशी विनिमय बैंकों की (१८६६), अलाइन्स बैंक अाफ़ शिमला (१८७४), अवध कार्य-प्रवीणता तथा उनकी अनुचित प्रतिद्वन्द्विता है। कमर्शियल बैंक (१८८१), और पञ्जाब नेशनल बैंक विदेशी बैंकों का उन भारतीय व्यापारियों तथा संस्थात्रों (१८६४)। किन्तु १६ वीं शताब्दी के अन्त तक हमारे के प्रति जो देश के अायात-निर्यात-सम्बन्धी व्यापार में देश में ज्वायंट स्टाक बैंकिंग की जो उन्नति हुई वह भाग लेती हैं, सदा असंतोषजनक और कटु व्यवहार रहा किसी प्रकार संतोषजनक नहीं कही जा सकती। सन् है। विनिमय-बैंक उनको वे अार्थिक सुविधायें नहीं १६०५ के स्वदेशी आन्दोलन के फलस्वरूप देश में कई देते हैं जो अन्य विदेशी व्यापारियों तथा संस्थाओं को दी नये बैंकों की स्थापना हुई । इनमें से विशेषरूप से उल्लेख- जाती हैं। इसका परिणाम यह है कि देश के विदेशी नीय बैंक ये थे -बैंक अाफ़ इण्डिया, बैंक अाफ़ बरमा, व्यापार का केवल १५ प्रतिशत भाग हमारे हाथ में है
और इण्डियन स्पेशी बैंक । किन्तु इनमें से अधिकांश और इस प्रकार कमीशन, ब्रोकरेज, और इन्श्योरेन्स प्रीमिबैंकों की कार्य-प्रणाली ठीक रास्ते पर न थी, इनके पास यम के रूप में देश का बहुत-सा रुपया हर साल देश के नकद रुपया का कोश कम था तथा इनमें से कुछ बैंक बाहर चला जा रहा है। किन्तु यदि हमको अपने विदेशी सट्टेबाज़ी में भाग लेते थे। इनका परिणाम यह हुआ कि व्यापार पर यथेष्ट अधिकार प्राप्त करना है तो यह नितान्त सन् १९१३-१४ में एक ही वर्ष के अन्दर कुल ५५ बैंक आवश्यक है कि हमारे ज्वायंट स्टॉक बैंक इस दिशा में
३४९
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५०
सरस्वती
[ भाग ३६
श्रावश्यक आर्थिक सहायता देने को तैयार हों। जिन मात्रा में मिलने से वे ऐसी ज़मानत पर रुपया क़र्ज़ देते हैं बैंकों की आर्थिक स्थिति हर प्रकार से संतोषप्रद है तथा जो बाज़ार में आसानी से बिक सके, जैसे कम्पनी के जिनके पास आवश्यक अनुभवी कर्मचारी हैं, इस काम में हिस्से, डिबेंचर, गवर्नमेंट पेपर इत्यादि । हमारे यहाँ बैंक से हाथ बँटा सकते हैं । पर इन बैंकों के लिए आवश्यक क्षेत्र कर्ज लेने की सबसे अधिक प्रचलित विधि नकद साख तैयार करने के लिए यह ज़रूरी है कि विदेशी बैंकों की है। व्यापारी अपने ही हस्ताक्षर के प्रामिसरी नोट के अनुचित वृद्धि रोकी जाय तथा उन पर समुचित नियन्त्रण साथ साथ माल भी बैंक के पास जमा कर देता है, रक्खा जाय । इस सम्बन्ध में केंद्रीय बैंकिंग कमिटी ने और बैंक को सूद उसी रकम पर देता है जो वास्तव यह सिफ़ारिश की है कि भविष्य में कोई विदेशी बैंक में वह बैंक से ले चुका है। इसके प्रचार से देश बिना रिज़र्व बैंक की अनुमति के न खुलने पावे और जो में साख के पत्रों के प्रचार में बड़ी रुकावट होती है । इस विदेशी बैंक इस समय हैं उनको शुरू में एक निश्चित विषय में केंद्रीय बैंकिंग कमिटी की सिफ़ारिश है कि समय के लिए कार्य करने की अनुमति इस शर्त पर दे दी भारतवर्ष में बैंकों को ऋण देने में अधिक उदार होना जाय कि यदि निश्चित समय के उपरान्त जाँच करने से चाहिए और व्यक्तिगत विश्वास पर ही क़र्ज़ देने की नीति यह साबित हो जायगा कि उन्होंने भारतीय बैंकिंग कानून का अधिक प्रचार करना चाहिए। पर यह तभी सम्भव तथा अन्य उन शतों का जो अनुमति देते समय की गई हो सकता है जब बैंकों को व्यापारी की ठीक ठीक आर्थिक थों, उल्लंघन किया है तो उनको अपना कार्य स्थगित कर दशा का ज्ञान होने की पूर्ण सुविधा हो। इसके लिए देना पड़ेगा।
पश्चिमी देशों के ढङ्ग पर हमारे यहाँ भी सीडस और यह तो हुई ज्वायंट स्टॉक बैंकों की विदेशी व्यापार- डन्स जैसी संस्थायें स्थापित की जायँ जिनका कार्य बैंक सम्बन्धी बात । अब हमको यह जान लेना आवश्यक है को इस प्रकार की सूचना देना ही है। व्यापारियों के कि ये बैंक हमारे अन्दरूनी व्यापार को किस प्रकार धन- लेन-देन के लेखे की जाँच करने से भी बैंक को उनकी सम्बन्धी सहायता देते हैं । प्रायः व्यापारिक बैंक व्यापारियों आर्थिक स्थिति का ज्ञान हो सकता है। इसके लिए को तीन प्रकार से क़र्ज़ देते हैं-(१) पहली विधि के अनु- बैंकवालों का कहना है कि भारतीय व्यापारी इस प्रकार की सार रुपया किसी ऐसी ज़मानत के आधार पर दिया जाता है सूचना देने में बहुत ही आनाकानी करते हैं। जो आवश्यकता पड़ने पर बिना किसी कठिनाई के बाज़ार यदि बैंकों के कर्मचारी इस बात का प्रयत्न करें तो यह में बेची जा सके। (२) दूसरी विधि के अनुसार कर्ज़ ऐसे असम्भव है कि वे अपने कार्य में असफल होंगे । 'एक प्रामिसरी नोट के अाधार पर दिया जाता है जिस पर दो मनुष्य एक बैंक' की रीति का अधिक प्रचार करने से भी स्वतंत्र व्यापारियों के हस्ताक्षर हों~-एक तो स्वयं उधार ग्राहकों की आर्थिक दशा का ज्ञान आसानी से हो सकेगा। लेनेवाला और एक दूसरा मनुष्य । इस प्रकार के इसके अतिरिक्त बैंकों के कर्मचारी एक दूसरे को उन प्रामिसरी नोट को 'दो नामों का काग़ज़' कहते हैं । (३) लोगों के विषय में जो उनके ग्राहक हैं, आवश्यक सूचना तीसरी विधि के अनुसार रुपया केवल उधार लेनेवाले के दे सकते हैं। व्यक्तिगत विश्वास पर ही दिया जाता है । पाश्चात्य देशों हमारे ज्वायंट स्टॉक बैंक अन्य देशों के व्यापारिक में तीसरी विधि का ही अधिकतर पालन किया जाता है। बैंकों की तरह केवल हमारे विदेशी व्यापार को ही आर्थिक किन्तु हमारे देश में अभी तक इसका यथेष्ट प्रचार नहीं सहायता नहीं देते, परन्तु हमारी औद्योगिक पूँजी की कमी हुआ है। यहाँ बैंकवाले दूसरी विधि के अनुसार अर्थात् को पूरा करने में भी काई भाग नहीं लेते । व्यापारिक 'दो नामों का काग़ज़' पर ही कर्ज देना अधिक पसंद बैंकिङ्ग के उस प्राचीन अनुदार सिद्धान्त को कि 'व्यापारिक करते हैं। परन्तु इस प्रकार की साख का पत्र आवश्यक बैंक का कार्य केवल अल्पकालिक ऋण की माँग को
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
भारतीय ज्वायंट स्टाक बैंक
पूरा करना है', हमारे ज्वायंट स्टॉक बैंक आज भी उस को लें तो ४,५०० मनुष्यों के पीछे १ बैंक बैठता है और दृढ़ता से पकड़े हुए हैं जो अन्य किसी देश में देखने को यदि यूनाइटेड किंगडम को लें तो ३,५०० मनुष्यों के नहीं मिलती। इस दिशा में भी हमारे बैंकों को अधिक पीछे १ बैंक पाकर पड़ता है। कुछ अन्य देशों-सम्बन्धी उदार नीति का अनुसरण करना उचित है । जर्मन बैंक आँकड़े भी देखिएजिस प्रकार अपने देश की प्रौद्योगिक उन्नति में सहायक नाम देश
बैंक के दफ़्तरों की संख्या हो रहे हैं वह हमारे ज्वायंट स्टॉक बैंकों के लिए एक संयुक्त राज्य
२५,००० उदाहरण है और केंद्रीय बैंकिंग कमिटी ने भी इसी उदा. ब्रिटिश द्वीप
१३,१०० हरण का अनुकरण करने की सिफारिश की है । जर्मन फ्रांस
४,४०० बैंकों की तरह हमारे बैंकों को भी अपना एक प्रतिनिधि जर्मनी
३,१०० उस औद्योगिक कम्पनी के बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर्स पर नियुक्त बेल्जियम कर देना चाहिए जिसे वे आर्थिक सहायता देते हों। इसके यदि १६२८ में हमारे यहाँ के ५ सबसे बड़े बैंकों की सिवा हर एक बैंक में एक एडविज़री कौंसिल (परामर्श देने- जमा की तुलना इंग्लेंड के ५ सबसे बड़े बैंकों की जमा से वाली सभा) स्थापित करने की भी बैंकिंग कमिटी ने सिफ़ारिश की जाय तो जहाँ इंग्लैंड में जमा की संख्या १,६६, की है। इस कौंसिल का कार्य केवल सलाह देना होगा। ६०,००,००० पौंड है, हमारे यहाँ हम्पीरियल बैंक को छोड़ इस प्रकार बैंक और औद्योगिक संस्था में घनिष्ठ सम्बन्ध कर अन्य ५ सबसे बड़े बैंकों की जमा केवल ४६ करोड स्थापित हो सकता है, जो इस प्रकार के कार्य के लिए रुपया ही होती है। ऊपर के आँकड़ों से यह स्पष्ट हो अत्यन्त आवश्यक है। इम्पीरियल बैंक को इस कार्य में जाता है कि हमारे देश में बैंकिंग की उन्नति बहुत कम हुई अग्रगामी होना चाहिए। वह उन अनेक बाधाओं से है। अब उन कारणों का भी विचार कर लेना आवश्यक मुक्त भी हो गया है जो अभी तक उस पर सरकार की है जो इस स्थिति के लिए जिम्मेवार हैं। ओर से लागू थीं।
बैंकिंग की उन्नति में अनेक बाधायें-(१) कुछ बैंकिंग की उन्नति-सम्बन्धी आँकड़े—अभी तक लोगों का विश्वास है कि भारतवासियों की रुपया जोड़कर हमारे यहाँ बैंकिंग का कितना प्रचार हो चुका है, इसका रखने की प्रचलित कुप्रथा का बैंकिंग की उन्नति पर अनुमान नीचे दिये हुए अंकों से लगाया जा सकता है- काफ़ी प्रभाव पड़ा है। इस कुप्रथा की उपस्थिति को ___ सदर दफ्तर
शाखायें स्वीकार करते हुए यह अवश्य कहना पड़ेगा कि इसको इम्पीरियल बैंक ३
आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया गया है। वास्तव में विदेशी विनिमय बैंक ...
८८ यह हमारे देश में बैंकिंग की यथेष्ट सुविधा न होने का ज्वायंट स्टॉक बैंक १७१
इतना महत्त्वपूर्ण कारण नहीं कहा जा सकता है जितना कुल १७४
७६४ कि उसका परिणाम । (१६३० के बैंक-सम्बन्धी आँकड़े)
(२) बैंकों की असफलता—जिस देश में बैंकिंग का इसका मतलब यह है कि हमारे यहाँ ४,४०,००० श्री गणेश ही हो, और जहाँ की जनता में आधुनिक मनुष्यों के पीछे एक बैंक है। साथ ही साथ इस बात का बैंकिंग के संगठन में पूरा पूरा विश्वास न हो। भी ध्यान रखना उचित है कि बैंकों का बँटवारा बहुत ही यदि थोड़े से समय में एक साथ कई बैंक असफल हो जायँ अनुचित है। हज़ारों और लाखों की संख्या में ऐसे छोटे तो उसका परिणाम बैंकिंग की उन्नति के रोकने के अतिछोटे गाँव और कस्बे मिलेंगे जहाँ के लोगों ने बैंक का रिक्त और क्या हो सकता है ? हमारे देश में सन् १९२१नाम तक न सुना होगा। इसके विपरीत इंग्लैंड और वेल्स ३० तक कुल १४३ बैंकों का असफल हो जाना कोई
५१२
हो, वहाँ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५३
सरस्वती
[भाग ३६
साधारण बात नहीं है। बैंकों के असफल हो जाने के की उन्नति के लिए आवश्यक है कि देश का व्यापार मी क्या कारण थे, इसकी विवेचना करने की यहाँ पूर्णतया हमारे अधिकार में आ जाय । कोई अावश्यकता नहीं, किन्तु यह बता देना ज़रूरी है (६) चेक तथा अन्य साख के पत्रों की कमीकि लोगों का मिश्रित पूँजीवाली संस्थानों से पूरा परिचित आज भी हमारे महाजन और साहूकार जो देश के अन्दन होना ही बैंकों के असफल होने का एक मुख्य रूनी व्यापार को काफी मात्रा में आर्थिक सहायता पहुँकारण था।
चाते हैं, नकद रुपया बरतना ही अधिक पसंद करते हैं। (३) सरकार की उदासीनता-भारत की सरकार देश में सुसंगठित 'बिल मारकेट' का होना बैंकिंग की तथा सरकारी कर्मचारियों की नीति हमारे बैंकिंग की उन्नति के लिए परम आवश्यक है। और इसका अभाव उन्नति की सदा विरोधिनी रही है। वह हमेशा ऐसी संस्थानों बैंकिंग के प्रचार में एक बड़ी भारी बाधा है। तथा उनके संचालकों के प्रति शंका की दृष्टि से ही देखती (७) देश की निर्धनता-कुछ लोगों का कहना रही है। नवीन रिज़र्व बैंक इस कटु नीति का एक जीता- है कि भारतवर्ष की निर्धनता ही बैंकिंग की अधोगति का जागता प्रमाणं है।
एक कारण है। परन्तु श्री मनु सूबेदार का कहना है कि (४) विदेशी बैंकों की प्रतिद्वन्द्विता तथा विरोध- अभी देश में इतना रुपया अवश्य है कि यदि अन्य हमारे बैंकिंग संगठन में इनका बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। सुविधायें प्राप्त हों तो कम से कम एक दर्जन बैंक तो इनका हित ज्वायंट स्टॉक बैंकों की उन्नति को हर प्रकार स्थापित किये जा सकते हैं। इस वास्ते निकट भविष्य में से रोकने में ही रहा है। इस वास्ते जब तक इनका कार्य- देश की निर्धनता का बैंकिंग के प्रचार में बाधक होने का क्षेत्र किसी प्रकार से सीमित नहीं किया जायगा, ये ज्वायंट कोई भय नहीं। स्टॉक बैंकों का सदा विरोध करते रहेंगे और अपनी उचित कुछ आवश्यक बातें-हमारे देश में ज्वायंट स्टॉक तथा अनुचित प्रतिद्वन्द्विता से उनके मार्ग में एक बड़ा बैंकिंग की उन्नति के लिए किन किन बातों की आवश्यभारी रोड़ा अटकाते रहेंगे।
कता है, इसका विचार करने के पहले कुछ ऐसे प्रश्नों (५) हमारे व्यापार में विदेशियों का हाथ-किसी पर प्रकाश डालना उचित होगा जिनका बैंकिंग की देश के बैंकिंग की उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि वहाँ उन्नति से यथेष्ट सम्बन्ध है। का व्यापार देशवासियों के हाथ में हो। किन्तु भारतवर्ष में (१) पूँजी-कुछ लोगों का विश्वास है कि ज्वायंट जहाँ व्यापारिक क्षेत्र में विदेशियों का ही बोलबाला है, स्टॉक बैंकों की उन्नति के लिए यह निश्चय कर लेना यह केवल स्वाभाविक है कि विदेशी बैंकों की ही देश आवश्यक है कि कोई बैंक कम से कम एक निश्चित पूँजी के बैंकों की अपेक्षा अधिक उन्नति हो। ज्यों ज्यों विदेशी के बिना स्थापित न किया जायगा। क्योंकि अक्सर देखने कम्पनियों के प्रतिनिधि धीरे धीरे गाँव में फैलते जा रहे हैं में आया है, जैसा कि ट्रावनकोर तथा बङ्गाल में, बहुत और हमारे किसानों से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करते से बैंक बहुत ही थोड़ी पूँजी से काम शुरू करते हैं जा रहे हैं, त्यों त्यों हमारे देशी बैंकरों के हाथ से अन्दरूनी और यह बैंकिंग के संगठन के लिए हानिकारक है। इस व्यापार को आर्थिक सहायता पहुँचाने का कार्य भी निक- विषय में किसी परिणाम पर पहुँचने के पहले स्वतन्त्रतालता जा रहा है। इसके विपरीत जिन भारतीयों के हाथ पूर्वक विचार हो जाना आवश्यक है । इस प्रश्न की जाँच में देश का थोड़ा-बहुत व्यापार है, विदेशी इन्श्योरेन्स के लिए दो-तीन योग्य सदस्यों की कमिटी यदि नियुक्त तथा शिपिंग कम्पनियों के दबाव से जिनसे सम्बन्ध रखना कर दी जाय तो बहुत उचित होगा। श्रावश्यक है वे अपनी आर्थिक माँग को पूरा करने के (२) साइज़-दूसरा प्रश्न जिस पर निष्पक्ष रूप से वास्ते विदेशी बैंकों के पास ही जाते हैं । इस वास्ते बैंकिंग विचार होना आवश्यक है, बैंकों की साइज़ का है। क्या
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
भारतीय ज्वायंट स्टाक बैंक
हमारे यहाँ थोड़े से अधिक पूँजीवाले बड़े बड़े बैंक स्थापित किये जायँ और देश में बैंकिंग के प्रचार के लिए उनकी ही शाखायें जगह जगह स्थापित की जायँ या हर एक स्थान में छोटे छोटे स्वतन्त्र बैंक खोले जायँ ? दोनों में से कौन-सी प्रणाली बैंकिंग की उन्नति के लिए अधिक लाभदायक होगी, इस विषय में भी अभी मतभेद है । जो लोग पहली विधि के पक्ष में हैं उनका कहना है कि जनता में ाधुनिक बैंकिंग की व्यवस्था के प्रति विश्वास पैदा करने के लिए आवश्यक है कि कुछ बैंक बड़े पैमाने पर खोले जायँ जिससे किसी को उनके असफल होने का संदेह तक न रहे | परन्तु इसके खिलाफ़ लोगों का यह कहना है कि जैसा प्रायः देखने में गाया है, बड़े बड़े बैंक अपनी शाखाओं द्वारा गाँवों में से रुपया एकत्र करके शहरों में मँगा लेते हैं और वहाँ की जनता की माँग को उन रुपयों से पूरी करते हैं। जिनका रुपया है वे लोग किसी प्रकार का लाभ नहीं उठा सकते । छोटे छोटे स्वतंत्र बैंकों के विषय में उनका कहना है कि ये बैंक गाँवों के धनिक महाजन तथा अन्य धन-सम्पन्न लोगों की सहानुभूति पा सकेंगे, क्योंकि इनके कार्य संचालन में उन लोगों को भाग दिया जा सकता है और इस कारण बड़े बैंकों की शाखाओं की तरह जिनमें उनका किसी प्रकार का अधिकार नहीं हो सकता, वे इनका विरोध नहीं करेंगे, बरन अपने अनुभव से उनको हर प्रकार की सहायता देंगे। श्री मनु सूबेदार का कहना है कि संसार के अन्य देशों में भी शुरू शुरू में बैंकिंग का प्रचार छोटे छोटे स्वतन्त्र बैंकों की स्थापना करने से ही हुआ है, जो बाद में प्रतिद्वन्द्विता अधिक बढ़ जाने से आपस में मिलकर बड़े बड़े बैंकों के रूप में स्थापित हो गये । भारतीय बैंकिंग के लिए भी इसी मार्ग का अनुसरण करना उचित होगा । वर्तमान बड़े बड़े बैंकों को इस कार्य में यथेष्ट सहायता देनी चाहिए जो छोटे छोटे बैंकों से सम्बन्ध स्थापित करके अपने कार्यक्षेत्र की भी वृद्धि कर सकते हैं । इस प्रश्न पर भी जाँच करने के वास्ते यदि कुछ विशेषज्ञों की एक कमिटी नियुक्त कर दी जाय तो बहुत अच्छा हो । यह कार्य रिज़र्व बैंक का है।
फा. ६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
इई
(३) खर्च - हमारे यहाँ के कुछ बैंकों का खर्च विदेशी बैंकों के मुक़ाबिले का है । इम्पीरियल बैंक ने इस दिशा में जो परिमाण स्थापित किया है वह हमारे देश के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता । इस वास्ते ज्वायंट स्टॉक बैंकों को चाहिए कि वे अपना कार्य भविष्य में अधिक कम खर्च में चलावें और एक ऐसे वास्तविक भारतीय परिमाण की स्थापना करें जो हमारी परिस्थिति के सर्वथा अनुकूल हो ।
(४) नकद रुपये की मात्रा - हमारे ज्वायंट स्टॉक बैंकों को नक़द रक्षित कोष का महत्त्व भले प्रकार समझ लेना चाहिए। पिछले वर्षों में कई बैंकों की सफलता का एक कारण उनके पास काफ़ी मात्रा में नकद रक्षित कोष का प्रभाव ही था । इस विषय में ऐसी कोई सीमा निश्चित नहीं की जा सकती जो हर एक बैंक के लिए हर परिस्थिति में संतोषजनक सिद्ध हो। इसके लिए तो बैंकों को अपने कर्मचारियों की व्यापारिक सूझ पर ही निर्भर रहना होगा ।
ज्वायंट स्टॉक बैंकिंग और उन्नति के उपाय — ब हमको यह देखना है कि ज्वायंट स्टॉक बैंकिंग की उन्नति के लिए किन किन बातों की आवश्यकता है ।
(१) ज्वायंट स्टॉक बैंक और सरकार की नीतिआज हमारे देश की बैंकिंग व्यवस्था में जो वातावरण उपस्थित है वह ज्वायंट स्टॉक बैंकिंग की उन्नति के लिए सर्वथा प्रतिकूल है । इस प्रतिकूल वातावरण का पहला कारण जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, हमारी सरकार की सहानुभूति का पूर्ण अभाव है । इस वास्ते बैंकिंग के प्रचार के लिए सबसे आवश्यक बात है सरकार का इस नीति को तिलांजलि देकर ऐसी नीति का अनुसरण करना जिससे बैंकिंग की उन्नति में हर प्रकार से सहायता मिले । हमारे सहकारिता आन्दोलन के प्रति जैसा सरकार का व्यवहार रहा है, ठीक वही व्यवहार ज्वायंट स्टॉक बैंकों के प्रति होना अत्यन्त आवश्यक है। सरकार सहकारिताआन्दोलन को सफल बनाने के वास्ते उसे जिस प्रकार अनेक सुविधायें देना आवश्यक समझती है, ठीक उसी प्रकार बैंकिंग की उन्नति के लिए भी सरकार को उचित है कि
www.umaragyanbhandar.com
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
. ३५४
सरस्वती
उन्हीं सिद्धान्तों पर ज्वायंट स्टॉक बैंकों को भी वही तथा अन्य सुविधायें प्रदान करे। श्री मनु सूबेदार ने अपने अल्पमत की रिपोर्ट में इन श्रावश्यक सुविधाओं का इस प्रकार वर्णन किया है
(अ) उन स्थानों में जहाँ रिज़र्व बैंक की शाखायें हों, मुफ़्त एक स्थान से दूसरे स्थान को रुपया भेजे जाने की सुविधा ।
(A) एक स्थान से दूसरे स्थान को रुपया भेजने में जो रियायत सहकारी बैंकों के साथ की जाती है, वही रियायत ज्वायंट स्टॉक बैंकों के साथ हो ।
(इ) टिकट कर से जितनी सहकारी बैंकों को स्वतन्त्रता है, वही ज्यायंट स्टॉक बैंकों को हो ।
(ई) नई शाखायें खोलने में जो सुविधायें इम्पीरियल बैंक को मिली थीं वही या दूसरी जो रिज़र्व बैंक उचित समझे ।
( उ ) बैंक रेट से कम रेट पर रिज़र्व बैंक से बिल भुनाने तथा प्रामिसरी नोट और अन्य आवश्यक सहायक ज़मानत के आधार पर क़र्ज़ मिल जाने की सुविधा ।
(ऊ) विदेशी बैंकों को देश के अन्दर शाखायें खोलने की मनाही |
(ए) भारतवासियों तथा भारतीय मिश्रित पूँजीवाली कम्पनियों को विदेशी बैंकों में रुपया जमा करने की मनाही ।
(२) चेक तथा बिल का अधिक प्रचार - जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, साख-पत्रों के यथेष्ट प्रचार का न होना देश की बैंकिंग की उन्नति के लिए एक भारी रुकावट है । इस वास्ते बैंकों तथा सरकार का कर्तव्य है कि इस प्रकार के साख-पत्रों का प्रचार करने का पूरा पूरा प्रयत्न करें। देश की अनेक भाषाओं जैसे हिन्दी, मराठी, उर्दू बंगाली इत्यादि का चेक के लिखने में यदि उप'योग किया जाय तो चेक के प्रचार में वृद्धि हो सकती है ।
(३) सहकारी केंद्रीय बैंक और बैंकिंग को उन्नति - यदि किसी प्रकार सहकारी केंद्रीय बैंकों से साधारण बैंकिंग का कार्य लेने का प्रबन्ध किया जा सके तो देश में बैंकिंग का
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
काफ़ी प्रचार हो सकता है । इसके पहले कि हर एक केंद्रीय बैंक को साधारण बैंकिंग का कार्य करने की आज्ञा दे दी जाय, हर एक प्रान्त में कुछ केंद्रीय बैंकों को जिनके पास योग्य कर्मचारी हैं, कुछ श्रावश्यक नियमों के अनुसार बैंकिंग का कार्य करने के लिए कहा जाय, और फिर जैसे जैसे उनके कार्य से अनुभव होता जाय, उसी प्रकार दूसरे बैंकों को भी कार्य करने की अनुमति दे दी जाय । इस प्रकार बैंकिंग के प्रचार में काफ़ी सहायता मिल सकती है ।
(४) कुछ क़ानूनी सुविधायें - संयुक्त परिवारसम्बन्धी तथा गिरवी सम्बन्धी कुछ ऐसी क़ानूनी कठिनाइयाँ हैं जिनके कारण बैंकिंग की उन्नति में काफ़ी बाधा उपस्थित होती है । यदि वे क़ानूनी कठिनाइयाँ किसी प्रकार हटा दी जायँ तो हमारे देश की बैंकिंग की उन्नति में काफ़ी सहायता मिल सकती है ।
(५) देशी बैंकर तथा अन्य संस्थायें - हमारे देश में इस समय देशी बैंकर, मदरास के नीढ़ीज़ तथा बंगाल के लोन ग्राफ़िसेज़ इत्यादि कुछ ऐसी संस्थायें हैं जो श्राज भी प्राचीन ढंग पर बैंकिंग का कार्य कर रही हैं। यदि किसी प्रकार इनको यह विश्वास दिला दिया जाय कि ये अपने आपको ज्वायंट स्टॉक बैंक में परिणत करने से अधिक फ़ायदा उठा सकेंगी तो देश में ज्वायंट स्टॉक बैंकिंग की बहुत कुछ उन्नति हो सकती है और यदि ऊपर बताई सुविधायें सरकार ज्वायंट स्टॉक बैंक को देने के लिए तैयार हो जाय इसमें कोई संदेह नहीं कि इन संस्थाओं को ज्वायंट स्टॉक बैंकों में परिणत होने के लिए उत्साहित करना कोई कठिन कार्य न होगा |
ज्वायंट स्टॉक बैंक तथा उनका भविष्य — ज्वायंट स्टॉक बैंकिंग की उन्नति में जो कठिनाइयाँ आज उपस्थित है यदि उनको हल करने का हमारी सरकार, बैंकर और जनता ऊपर बताई हुई अनेक विधियों के अनुसार वास्तव में प्रयत्न करें तो इसमें कोई संदेह नहीं कि देश की भावी बैंकिंग व्यवस्था में हमारे ज्वायंट स्टॉक बैंकों का स्थान बहुत उज्ज्वल और ऊँचा हो सकता है ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक डाकू के दुःसाहसपूर्ण असफल षड्यंत्र की कहानी
व्यर्थ प्रयास
लेखक, श्रीयुत नगेन्द्रनाथ गुप्त (१)
परन्तु यदि इनको चोरी ही करना था तो मुझे जगाने नारी निद्रा भंग हो गई। उठ- की क्या आवश्यकता थी ? मेरे सोते समय इन लोगों ISI कर बैठने का प्रयत्न किया, ने प्रवेश किया था, निद्रा भंग होने से पहले ही सारा म किन्तु बैठ न सका, मेरा सामान लेकर चले जा सकते थे। मेरी जेब में एक घड़ी
शरीर किसी वस्तु के बोझ से थी और एक छोटे से पर्स में थोड़े से रुपये और रेल का SU दबा हुआ-सा था। टिकट था । मेरे पास अधिक रुपये-पैसे या कोई मूल्यवान्
रेलगाड़ी वेग से चली वस्तु नहीं थी।
जा रही थी। उसकी गति मैंने कहा- मेरे पास जो कुछ है उसे तुम लोग ले जा का मैं अनुभव कर रहा था। प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठा सकते हो । मैं किसी प्रकार की आपत्ति नहीं करूँगा। था । जिस समय मुझे नींद आई थी, उस समय उस डिब्बे मैं साहसी हूँ। शरीर में बल भी है, किन्तु तीन तीन में और कोई नहीं था । जाड़े के दिन थे, इसलिए शरीर आदमियों का मुकाबिला अकेले कैसे कर सकता था ? को एक कम्बल से ढंक लिया था।
उन तीनों के ही हाथ में पिस्तौलें थीं। गाड़ी रोकने की , अाँख खोल कर देखा तब एक आदमी मेरी छाती जंजीर के पास एक खड़ा था। को दबाये हुए था और दो श्रादमी उसके पास ही खड़े नाटे आदमी ने कहा-हमें जो कुछ करना है उसके थे । इन तीनों ही आदमियों का मुँह ढंका हुआ था। लिए तुम्हारी अनुमति की आवश्यकता न पड़ेगी। तुम
जो दो आदमी खड़े थे उनमें से एक ने मेरे कान के चुपचाप बैठे रहो, इसी में तुम्हारी भलाई है। पास मुँह ले जाकर ज़ोर से कहा-तीन-पाँच मत करना। गाड़ी का वेग कम होने लगा। एक आदमी ने मुझे जरा भी किसी तरह का झंझट किया नहीं कि मार कर पकड़ लिया और मेरे कोट की आस्तीन सिकोड़ कर मेरा डिब्बे के बाहर फेंक दिया। शान्त रहने पर तम्हें किसी हाथ ऊपर उठाया। दसरे प्राद दमी ने अपनी पिस्तौल मेरे प्रकार के भी अनिष्ट की आशङ्का नहीं है।
माथे के पास लगा दी। नाटे आदमी ने मेरे हाथ में __ मैंने कहा-अच्छी छी बात है. मैं बिलकल चप एक छोटी-सी पिचकारी लगा कर न जाने कौन-सी दवा
बात है, मैं बिलकुल चुप एक छाट रहूँगा।
मेरे शरीर में प्रविष्ट कर दी। इसके बाद उन लोगों ने मुझे ___ जो आदमी मुझे दबाये हुए था, उसने छोड़ दिया। छोड़ दिया। मेरा बिस्तर बाँधकर वे सब मेरा सारा सामान मैं उठ कर बैठ गया। उन तीन आदमियों में से दो एकत्र करने लगे। लम्बे थे, और एक नाटा था। इसी ने मुझसे बातचीत . कुछ ही क्षणों के बाद मैं वाक्-शक्ति से रहित हो की थी। इससे अनुमान किया कि यही सरदार है। यह गया। एकदम ज्ञान-शून्य तो हुअा नहीं, किन्तु एक प्रकार भी निश्चय कर लिया कि मेरे पास जो कुछ है वह सब की मानसिक जड़ता ने मुझे अाच्छन्न कर लिया, मस्तिष्क छीन लेने के लिए ही ये लोग मेरे डिब्बे में चढ़े हैं। की धारणा-शक्ति प्रायः लुप्त हो गई । मेरी दृष्टि-शक्ति लुप्त
३५५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५६
सरस्वती
- [भाग ३६
तो नहीं हुई थी, किन्तु क्या देखता हूँ, यह भली भाँति दरवाजे के सामने खड़ी है। लोग मुझे एक बहुत बड़े नहीं समझ सकता था । कान से सुन पाता था, किन्तु कमरे में ले गये। वहाँ एक पलँग बिछा था । नाटे जो कुछ सुनता था उसका अर्थ हृदयङ्गम करने की शक्ति श्रादमी ने मेरे हाथ में फिर एक पिचकारी लगाई, मैं ज़रा मुझमें नहीं रह गई थी।
हीरे
.
ही देर में निद्रित हो गया । गाड़ी स्टेशन के समीप आ गई। तीनों ने अपने
(२) अपने मुँह का आवरण हटा दिया । क्या मैंने इन सबको निद्रा भंग होने पर देखा तब दिन अधिक चढ़ आया कभी कहीं देखा था ! चित्त में स्थिरता न होने के था। मैं कहाँ हूँ, यह जानने के लिए उठकर मैंने कमरे कारण यह बात मेरी समझ में न पा सकी। नाटे आदमी की खिड़की खोली। सामने एक छोटा बगीचा-सा था, ने मेरे पर्स से रेलवे का टिकट निकाल लिया। स्टेशन पर उसके बाद बहुत ऊँची चहारदीवारी थी। गाड़ी खड़ी होते ही दोनों लम्बे आदमियों ने मेरे दोनों सारी बातें मुझे स्मरण हो श्राई । देखा, मेरा सारा हाथ पकड़कर मुझे गाड़ी से उतारा। तीसरे आदमी ने सामान कमरे में ही रक्खा है । घड़ी और पर्स पाकेट में कुली बुलाकर मेरा सामान आदि उतरवाया। मुझे देख रक्खी । सूटकेस और बक्स खोल कर देखा । सभी चीजें कर गार्ड ने पूछा-इन्हें क्या हुआ है ?
ज्यों की त्यों रक्खी थीं। नाटे आदमी ने उत्तर दिया-इन्हें कभी कभी दौरा- मैं बक्स बन्द कर रहा था, इतने में पीछे से विद्रूपासा आ जाया करता है। थोड़ी देर तक के लिए इनकी त्मक स्वर में सुना-सामान तो सब ठीक है न ? बातचीत करने की शक्ति नष्ट हो जाती है। परन्तु हम चौंक कर देखा, वही नाटा आदमी खड़ा है। उसके लोग साथ में हैं, चिन्ता की कोई बात नहीं है। अधर के कोने में श्लेषपूर्ण मुस्कुराहट थी।
स्टेशन के बाहर एक बड़ा-सा कार खड़ा था। मुझे मैं उठकर खड़ा हो गया और बोला- यदि मेरी उसी पर बिठाकर उन लोगों ने मेरा सामान पीछे कैरि- चीज़ लेने की इच्छा नहीं थी तो फिर मुझे इस तरह यर में बँधवा दिया। नाटा आदमी अपने एक साथी को यहाँ ले आने में क्या लाभ है ? मुझे कहाँ ले आये हो ? लेकर मेरे पास बैठा, और तीसरे आदमी ने ड्राइवर के मैं मुक्त हूँ या बन्दी हूँ ? पास बैठकर उससे गाड़ी चलाने को कहा। गाड़ी के सभी "इतने प्रश्न एक साथ ही करोगे ? इसके लिए तो दरवाजे बन्द कर दिये गये। शीशों के पास पर्दे पड़े थे, तुम स्वतन्त्र ही हो, चाहे जितने भी प्रश्न कर सकते हो। वे सब खींचकर बंद कर दिये गये। गाड़ी के भीतर का किन्तु उत्तर पाओगे या नहीं, यह दूसरी बात है । तुम अन्धकार दूर करने के लिए बत्ती जला दी गई । बाहर यहाँ किसलिए लाये गये हो, यह तुम्हें मालूम ही हो की कोई वस्तु दिखाई नहीं पड़ रही थी। मोटर बहुत जायगा। तुम हाथ-पैर बाँध कर बन्दी नहीं किये गये हो, बढ़िया था। वह तेज़ी के साथ चला जा रहा था, उसमें किन्तु बाहर कहीं नहीं जा सकते । इस समय हाथ-मुँह किसी प्रकार की घड़घड़ाहट नहीं होती थी। सभी लोग धोकर भोजन आदि कर सकते हो। तुम्हें निराहार निस्तब्ध थे। किसी ने कोई बात नहीं की।
रखने की हमारी इच्छा नहीं है ।" । ___ मैं कोई भी बात ठीक ठीक समझ नहीं पाता था। मुझे नहाने का कमरा आदि दिखा दिया गया। एक भाव मन में आता और फिर वह तत्काल ही तिरो- मुँह धोकर मैंने चाय पी। दो-एक नौकर भी दिखाई हित हो जाता । गाड़ी बहुत देर तक चलती रही। कितनी पड़े, किन्तु रातवाले दोनों अादमी मुझे वहाँ नहीं दिखाई देर तक चलती रही, यह मैं नहीं बतला सकता । अन्त में दिये। एक स्थान पर गाड़ी खड़ी हुई। लोगों ने उस पर से आहार आदि करके मैंने घर के भीतर घूमकर देखा । जब मुझे उतारा तब मैंने देखा कि गाड़ी एक मकान के दो-तीन कमरे खुले थे। शायद वे मेरे उपयोग के ही लिए
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
व्यर्थ प्रयास
खुले थे। दूसरे कमरे भीतर से बन्द थे, और वे शायद सवेरे और साँझ को ज़रा देर तक बगीचे में टहल • दूसरी ओर से खुलते थे । जरा देर तक विश्राम करने के आया करता। इसके लिए कभी कोई किसी प्रकार
बाद चार-पाँच बजे साँझ को कुछ खाकर मैं बाहर की आपत्ति नहीं करता था। सूर्य का उदय और निकला । मुझे यह जानने की इच्छा थी कि मैं कैसा अस्त देख कर दिशा का निर्णय किया । श्राकाश पर बन्दी हूँ।
चीले चारों ओर उड़ा करती थीं। उन्हें इस प्रकार स्वच्छन्द बाहर बगीचा था, किन्तु वह बेमरम्मत पड़ा था, रूप से विचरण करते देखकर मन में बहुत ही विषाद जगह जगह पर जङ्गल-सा हो गया था। बाहर का फाटक उत्पन्न होता था। उस समय मैं यह अनुभव करता कि बन्द था । वहाँ एक एक पहरेदार बैठा था, जिसके हाथ मुझ और बन्दी में क्या अन्तर है। मध्याह्न की निस्तमें भरी बन्द थी। बन्दक देखने पर मेरी समझ में पा गया ब्धता में कबूतर गुटर गॅ'गुटर गू किया करते, कठफोड़ा कि मैं सचमुच बंदी हूँ। यदि भागने का प्रयत्न करूँगा भी लगातार ठक ठक करता रहता। बगीचे में नेवला, तो मुझे यह गोली मार देगा। चारों ओर घूमकर देखा। जंगली खरगोश आदि दिखाई पड़ते। एक दिन टहलते कहीं दीवार फांदकर निकलने योग्य नहीं थी। या तो सीढी टहलते मुझे साही के कई काँटे पड़े हए मिले। सेाचा कि से उस पर चढ़ा जा सकता था या किसी रस्सी आदि रात को साही भी यहाँ पाया करती है । चहारदीवारी में का सहारा मिलने पर उस पर से होकर निकला जा उसने कहीं बिल खोद रक्खा होगा । खोज कर देखा, सकता था । आसानी से निकल भागना सम्भव नहीं था। दीवार में एक स्थान पर बहुत सङ्कीर्ण मुँह का एक बिल
यह स्थान कहाँ था, किस स्टेशन पर मैं गाड़ी से दिखाई पड़ा । चौड़ा करने पर उसके द्वारा सम्भवतः मनुष्य उतारा गया था, यह तो मैं नहीं अनुमान कर सका, पर भी बाहर निकल सकता था, परन्तु उसके लिए परिश्रम मुझे जहाँ उतरना था वहाँ मैं नहीं उतारा गया, यह और समय की आवश्यकता थी। मेरे पास खोदने के लिए मैं अनायास ही समझ गया था। क्योंकि यदि मैं अपने कोई औज़ार नहीं था और यदि होता भी तो मुझे कोई स्टेशन पर उतारा गया होता तो वहाँ मेरे आदमी होते, खोदने ही क्यों देता ? रात को मेरे कमरे में बाहर से
और जो लोग मुझे इस रूप में ले आये हैं वे सब पकड़ ताला लगा रहता था। लिये जाते।
छुटकारे का काई भी उपाय मैं नहीं सोच पाया । ___मैंने हिसाब लगाने का प्रयत्न किया। गाड़ी से उतारे जाने के बाद स्टेशन पर मैंने घड़ी देखी थी। इससे कुछ
(३) कुछ स्मरण था कि उस समय रात को तीन बजे थे। दो दिन तक मुझसे किसी ने कुछ नहीं कहा । केवल रेलवे का टाइम-टेबिल निकालकर देखा। ठीक उसी नाटे आदमी से एक-अाध बार मुलाक़ात भर हो जाती समय रामपुर नामक एक छोटे से स्टेशन पर गाड़ी रुका थी। पर उन दो आदमियों को नहीं देख पाया था। करती थी । यदि वह वही स्टेशन था तो वहाँ से यह घर वे लोग इस मकान में हैं या नहीं, यह भी मुझे मालूम कितनी दूर है, यहाँ मैं इस तरह क्यों पकड़ कर लाया गया नहीं था। हूँ, ऐसा करने का इन लोगों का क्या उद्देश है, ये सब तीसरे दिन वह नाटा आदमी भोजन आदि के बाद बातें किसी तरह भी मैं न समझ सका। किसी किसी देश मेरे कमरे में आया। वह मेरे पास न बैठ कर ज़रा कुछ में इस तरह पकड़कर लोग पकड़े हुए श्रादमी से रुपये दूर बैठा । उसका हाथ जेब में था। मैं यह जानता था वसूल करते हैं, बाद का उसे छोड़ देते हैं। तो क्या इन कि उसकी जेब में पिस्तौल है। लोगों का भी यही उद्देश है ? नाटे श्रादमी ने दो दिनों उसने व्यङ्गय के स्वर से कहा - यहाँ तुम निमन्त्रण तक मुझसे कोई भी बात नहीं कही।
में नहीं लाये गये हो । समझे ?
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५८
सरस्वती
- [भाग ३६
मैंने भी अवज्ञा के साथ साथ उत्तर दिया-इतना मैंने संक्षेप में उत्तर दिया-जानता हूँ। तो मैं भी समझ पाता हूँ। परन्तु जानते हो, मैं कौन हूँ? वंशी ने कर्कश स्वर से कहा-बिना जाने-समझे मैं ___ “परिचय मिले बिना कैसे जान पाऊँगा । परन्तु यह तुम्हें यहाँ नहीं पकड़ ले आया हूँ। इस समय सम्पत्ति बात तो तुम्हारे चेहरे से ही मालूम होती है कि तुम काई की अधिकारिणी एक अविवाहित कन्या है। उसका नाम बड़े आदमी हो।"
वनलता है। वह सुन्दर है, पन्द्रह-सोलह वर्ष की अवस्था ___मेरी बात का गम्भीर अर्थ समझ कर वह क्रुद्ध हो है, स्कूल में पढ़ती है। तुम उसके संरक्षक हो । उस कन्या उठा। जेब से पिस्तौल निकाल कर उसने मेरी ओर सीधा के लिए मैंने एक वर ठीक किया है। जाति एक है, कर लिया और कहने लगा-यदि चाहूँ तो तुम्हें इसी गोत्र भिन्न है, अवस्था भी थोड़ी है । उसके विरुद्ध कोई समय मार डालूँ या अंग-भंग कर दूं। परन्तु ऐसा ऐसी बात नहीं कही जा सकती। परन्तु वह मेरे दल का करने से मेरा कोई काम नहीं बनेगा। तुम्हें यह स्मरण आदमी है, शायद तुम लोग उसे पसन्द न कर सकोगे । रखना चाहिए कि मैं किससे बातें कर रहा हूँ। मैं हूँ वंशी परन्तु उसके साथ वनलता का विवाह करना होगा। हालदार।
उस आदमी की स्पर्धा देखकर मैं दंग रह गया। नाम सुनकर मैं काँप उठा। मन का भाव छिपाने का अपना क्रोध न संवरण कर सकने के कारण मैंने कहाप्रयत्न करने पर भी मेरा चेहरा उतर गया। वंशी हाल- इतने दिनों तक तुम अपने आपको बड़ा बहादुर दार का नाम किसने नहीं सुना। इतना उद्दण्ड, इतना थे, परन्तु इस बार तुम्हारी बहादुरी का अन्त होगा । क्या दुरात्मा, इतना अपराधी देश में और कोई था ही नहीं। तुम्हें इसका भी पता है कि मिस्टर राय के यहाँ कितने उसका नाम सुनकर सभी काँपते थे, लेकिन पुलिस को लठैत हैं ? अपना दल लेकर उनका मुकाबिला कर न लो उसके विरुद्ध अभी तक कोई पक्का प्रमाण नहीं मिल किसी दिन । सका। लोगों की धारणा थी कि देखने पर वह पूरा दैत्य- वंशी हालदार हँस पड़ा। उसकी वह हँसी निष्ठुर थी, सा जान पड़ता है। किन्तु क्या यही नाटा-सा आदमी श्लेषमय थी । हँसते हँसते उसने कहा-यदि यही करना वंशी हालदार है ? यदि उसके हाथ में पिस्तौल न होती होता तो तुम्हारी क्या आवश्यकता थी ? लाठी-डंडे की तो तो मैं उसे गला दाब कर मार डालता।
कोई बात है नहीं, यहाँ तो बात है रिश्तेदारी की। तुम ___मैंने कुछ कहा नहीं, चुप रह गया । वंशी हालदार हो उस घर के सर्वेसर्वा । तुम यदि विवाह कर दोगे तो कहने लगा-तुमसे मेरा एक काम निकल सकता है, और बोलनेवाला कौन है ? इसी लिए तुम्हें यहाँ ले आया हूँ। मैं जो कुछ पूछ उसका मैं कुछ क्षण तक उसके मुँह की ओर ताकता रहा। ठीक ठीक उत्तर देते जाओ। इसी में तुम्हारा कल्याण है, उसकी सारी चाल मेरी समझ में आगई। मैंने यह जान नहीं तो अपना कुशल मत समझना ।
लिया कि मुझे भय दिखा कर या कष्ट देकर यह राय इस बात पर भी मैं कुछ नहीं बोला, चुपचाप सुन बाबू की सारी सम्पत्ति अपने अधिकार में करने का प्रयत्न लिया।
करेगा। यह अपने दल के एक आदमी के साथ वनलता "दक्षिणपाड़ा के राय-परिवार को जानते हो ?" का विवाह करेगा। इस साहस का भी कोई ठिकाना है ?
दक्षिणपाड़ा के राय-परिवार को कौन नहीं जानता ? वनलता जब तक बालिग़ न हो जायगी तब तक उसका उनकी इतनी बड़ी सम्पत्ति है, उसका सारा भार मेरे हाथ स्वामी उसकी सम्पत्ति में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न कर में है, मैं ही सारा प्रबन्ध करता हूँ । इस बात को सभी सकेगा, यह बात मैंने छिपा ली। लोग जानते हैं। इसके अतिरिक्त छिपाने की कोई मैंने कहा-तो क्या तुम समधी बनोगे या बराती आवश्यकता भी नहीं थी।
होकर वहाँ जाओगे ?
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४ ]
" वर नहीं जायगा, कन्या ही यहाँ आवेगी । इस मकान में वर और पुरोहित उपस्थित रहेंगे। तुम कन्या को यहीं बुला लेना । विवाह में कोई विशेष समारोह न होगा, अन्यथा कोई विघ्न उपस्थित हो सकता है ।"
व्यर्थ प्रयास
"कन्या यहाँ किस तरह ग्रावेगी ?"
"यों ही मोटर पर बैठकर । तुम चिट्ठी लिखकर वनलता को यहाँ अपने पास बुलाओ। तुम्हारी चिट्ठी पाकर वह तुरन्त यहाँ चली श्रावेगी ।"
"तो क्या तुम समझते हो कि मैं चिट्ठी लिख दूँगा ?” " आसानी से लिखोगे । यदि ऐसा ही होता तो तुम्हें इस तरह रेलगाड़ी से पकड़कर क्यों ले आता ? ता, सीधे लिख दोगे या किसी दूसरे उपाय का अव लम्बन करना पड़ेगा ?"
ब
“मैं कभी नहीं लिखूँगा ।"
" इस समय चाहे यह बात कह लो; परन्तु बाद को तुम लिखोगे और खुशी से लिखोगे। तुम्हें कल तक का और समय देते हैं । कल रात को यदि तुमने चिट्ठी न लिख दी तो समझ रखना वंशी हालदार को ।"
वह उठ कर चला गया, बाहर से कमरे में ताला लगा दिया ।
मैं समझ गया कि यह मकान रामपुर स्टेशन के समीप ही | दक्षिणपाड़ा स्टेशन से यह कई कोस की दूरी पर है । वहाँ से यहाँ तक मोटर का रास्ता है 1 मैं यह भी समझ गया कि कल से मेरे ऊपर किसी न किसी प्रकार का अत्याचार प्रारम्भ होगा । उन लोगों ने समझ रक्खा है कि यन्त्रणा सहन करने में असमर्थ होकर वंशी हालदार के आज्ञानुसार मैं चिट्ठी लिख दूँगा । उनके लिए कोई भी कार्य असाध्य नहीं है ।
कमरे का द्वार भीतर से बन्द करके मैंने बाक्स से एक नोटबुक निकाली । उसी में पेंसिल भी थी। काग़ज़ फाड़ कर सारी घटना का विवरण लिखा । घर की चहारदीवारी की भी बात लिखी। यह भी लिख दिया कि यह स्थान रामपुर स्टेशन से अधिक दूरी पर नहीं है । मैंने इन सब बातों को स्पष्ट रूप से लिख दिया कि यदि मैं शीघ्र ही इन लोगों से मुक्त न कर लिया गया तो मुझे विशेष रूप से
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
३५९
यातना भोगनी पड़ेगी और लोग पशुबल की सहायता से मुसे पत्र लिखा लेंगे । इसलिए पुलिस की सहायता लेकर रात्रि के समय चुपचाप चहारदीवारी फाँदकर इस मकान को घेर लो और वंशी हालदार तथा उसके अनुयायियों को गिरफ़्तार करके मुझे मुक्त करो ।
चिट्ठी लिखकर उसे लिफ़ाफ़े में बन्द किया और ऊपर मिस्टर राय के मैनेजर का नाम तथा उनके घर का पता आदि लिख दिया । एक दूसरे काग़ज़ पर लिखा कि जो कोई यह चिट्ठी पावे वह शीघ्र ही दक्षिणपाड़ा के रायबाबू के यहाँ ले जाय, नहीं तो इस मकान में एक आदमी की हत्या हो जाने की सम्भावना है ।
एक साफ़-सुथरे रूमाल के एक किनारे पर यह काग़ज़ और पाँच रुपये बाँध दिये और दूसरे किनारे पर वह चिट्ठी । इसके बाद चिराग़ बुझाकर सो गया ।
( ४ )
मेरे दरवाजे का ताला बहुत सवेरे ही खोल दिया जाता था । मैं रोज़ सवेरे चाय पीकर जिस तरह थोड़ी देर तक टहला करता था, उसी तरह उस दिन भी टहलने लगा । जो आदमी दरवाज़े के पास बैठा रहा करता था, वह मेरी तरफ़ पीठ करके मसाला पीस रहा था । बन्दूक़ दीवार के सहारे खड़ी हुई थी ।
टहलते टहलते मैं चहारदीवारी के उस भाग के पास पहुँचा, जो मकान से सबसे अधिक दूर था और फाटक से कुछ आड़ में भी पड़ता था । चारों ओर घास आदि उगी थी। नींबू के एक पेड़ की आड़ में खड़े होकर मैंने जेब से वही रूमाल, जिसमें चिट्ठी और रुपया बँधा था, ज़ोर से चहारदीवारी के उस पार फेंक दिया ।
साँझ को वंशी हालदार मेरे कमरे में श्राया । रेलगाड़ी में उसके साथ जिन और दो आदमियों को देखा था वे लोग भी साथ थे। इनके अतिरिक्त एक नया आदमी भी था । वह खूब लम्बा और मोटा-ताज़ा था । दरवाज़े के तख्ते के समान चौड़ा उसका सीना था । वह आदमी क्या था, पूरा दैत्य था । उसे देखते ही समझ गया कि मेरे साथ सख्ती की जायगी । वंशी हालदार के हाथ में कलम-दावात,
चिट्ठी लिखने
www.umaragyanbhandar.com
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
' [भाग ३६
का काग़ज़ और लिफ़ाफ़ा था । उसने मुझसे कहा कि यदि लोग पर लिये थे, वे एक एक कुर्सी खींचकर मेरे पायतुम दुर्दशा से बचना चाहते हो तो भले आदमी की तरह मैं ताने के पास बैठ गये और उन्हीं परों से पैरों के नीचे के जो कुछ कहूँ वह लिख दो। मैंने जिस वर की तुमसे चर्चा भाग को सहलाने लगे। की थी उसे अपने साथ ले आया हूँ। देखने में सुन्दर यह क्या दण्ड था या कौतुक ? जरा-सी सुरसुराहट है, कुलीन है। और चाहिए ही क्या ?
होते ही मैंने पैर खींच लेने का प्रयत्न किया, परन्तु वह जिन दो श्रादमियों ने वंशी हालदार के साथ रेल- हिल तक न सका। क्रमशः घबराहट मालूम होने लगी. गाड़ी में प्रवेश किया था उन्हीं में से एक को उसने दिख- अन्त में वही घबराहट यन्त्रणा के रूप में परिणत हो गई, लाया । युवा पुरुष था, देखने में भी बुरा नहीं था, सुरसुराहट बराबर होती रही, उसका कोई विराम या अवलेकिन उसका चेहरा भले आदमी का-सा नहीं था। सान नहीं था। सारे शरीर में यन्त्रणा होने लगी। मैंने कहा-मैं चिट्ठी नहीं लिलूँगा।
खोपड़ी के नीचे मानो हज़ारों कीड़े काटने लगे। देखते कमरे में एक छोटा-सा टेबिल था। वंशी ने उसी ही देखते असह्य यन्त्रणा होने लगी। यहाँ तक कि मैं पर कलम, दावात, काग़ज़ आदि रख दिया और कहा -- एकाएक चिल्ला पड़ा। बाँधो इसको ।
वंशी हालदार ने कहा--अब लिखोगे ? मोटे-ताज़े आदमी ने मुझे पकड़कर चारपाई पर दाँतों से दाँत दबाकर मैं चुप रह गया। सुरसुराहट पटक दिया। मैंने शक्ति-भर हाथ-पैर चलाये, परन्तु बराबर होती रही। मेरे शरीर और मस्तिष्क के भीतर उसके सामने मैं बिलकुल बच्चा-सा था। तीनों श्राद- मानो असंख्य झींगुर बोलने लगे, सारा शरीर पसीने. मियों ने मझे चारपाई पर चित करके इस तरह बाँधा दिया पसीने हो गया। कि हिलने-डोलने के लायक न रह गया। खास कर दोनों जो लोग परों से मेरे पैरों को सहला रहे थे वे अब पैर तो ज़रा भी हिल नहीं सकते थे।
बीच बीच में बन्द भी कर देने लगे। वे हाथ में पर लिये वंशी हालदार ने पाकेट से न जाने क्या निकाला। चुपचाप बैठे रहते, किन्तु मेरी यन्त्रणा ज़रा भी न शान्त मैंने सोचा कि मुझे यन्त्रणा देने के लिए काई यन्त्र होती। जान पड़ता कि इस समय भी वही सुरसुराहट हो निकाल रहा होगा। देखा तो काग़ज़ में लपेटे हुए दो रही है । यन्त्रणा में जरा-सी कमी होते ही वे लोग फिर बड़े बड़े पर थे, और कुछ नहीं था। वे दोनों ही पर सहलाना प्रारम्भ कर देते। मुझे दिखाकर वंशी ने कहा-तुम समझते हो कि हम कैसा भयङ्कर दण्ड था, कैसी असीम यन्त्रणा थी ! लोग मार-पीटेंगे, कष्ट देंगे? इसके लिए तुम मत डरो। मैं अंट-संट बकने लगा, बाद को मुझमें चेतना न रह गई। तुम एक सज्जन पुरुष हो । तुम्हें भला हम लोग कभी कष्ट मैं मूञ्छित हो गया। दे सकते हैं ? केवल तुम्हारी ज़रा-सी चरण-सेवा भर की ज्ञान होने पर देखा तो तीनों ही आदमी खड़े थे, वंशी जायगी। राजकुमारी फूल की चोट से मूञ्छित हो जाती हालदार नृशंस के समान ज़रा ज़रा हँस रहा था। उसने थी, जानते हो ? देखना तुम कहीं परों की चोट से न कहा-कहो, क्या हाल है ? अब तो चिट्ठी लिख दोगे न ? मूच्छित हो जात्रो।
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। वंशी ने कहा-इसे ____ मैं यह कुछ समझ न सका। क्या परों में भी यन्त्रणा खोल दो। देने की कोई शक्ति होती है ? वह मोटा-ताज़ा आदमी बन्धन से मुक्त करने के बाद मोटे-ताज़े आदमी ने मेरे मेरे पास ही एक कुर्सी पर बैठा था। दूसरे दोनो श्राद- दोनों हाथों को खींचते हुए मुझे खड़ा किया। उस समय मियों को वंशी हालदार ने एक एक पर दे दिया। वह मेरे हाथ-पैर तथा शरीर के अन्यान्य समस्त अङ्ग काँपने स्वयं एक कुर्सी खींच कर मेरी बग़ल में बैठ गया। जो लगे। मैं चारपाई पर गिर पड़ा।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
व्यर्थ प्रयास
वंशी हालदार ने कहा-आज यह न लिख सकेगा, मकान के ऊपर नाचता रहा । शब्द सुनकर समझ पाया इसका हाथ ठीक नहीं है। इसको कुछ खिलाअो-पिलायो। कि ऐरोप्लेन बहुत नीचे से जा रहा है। उपवास कराने से काम न चलेगा। कल यदि इसने न मुझे ऐसा लगा कि ऐरोप्लेन से कोई आदमी ध्यानलिखा तो कोई और उपाय किया जायगा। लिखने को पूर्वक उस मकान को देख रहा है। मैं बाहर खड़ा था, तो इसका बाप लिखेगा, इसे रात को अकेले मत रक्खो। सम्भवतः मुझे भी देखा होगा।
उसने मोटे-ताज़े आदमी से कहा-तुम इसके कमरे वंशो हालदार बहुत जानकारी रखता था, परन्तु सारी में सोना।
बातें नहीं जानता था। दक्षिणपाड़ा से तीस कोस की मुझे ज़रा-सा दूध तथा कुछ और चीज़ खिलाकर दूरी पर ऐरोप्लेन रखने का एक स्थान था, जो ऐरोड्रोम सोने को कहा। पहलवान भी एक दूसरी चारपाई लाकर कहलाता था। वहाँ कई ऐरोप्लेन थे। वनलता एक मेम मेरे ही कमरे में लेट गया।
से अँगरेज़ी और एक पण्डित से संस्कृत पढ़ा करती थी। बड़ी देर तक मेरे शरीर में ज़रा-सा कम्पन का भाव अँगरेज़ी में वह बहुत अच्छी तरह बातचीत कर सकती था। उसके बाद दिमाग़ ठिकाने पर आया। मैंने समझ थी। ऐरोप्लेन में बैठने का उसे नशा था, मुझे मी वह लिया कि ये लोग अब मुझे अकेले न रहने देंगे। चिट्ठी कई बार ले गई थी। ऐरोड्रोम से मिस्टर राय के घर को यदि मैंने पहले ही न फेंक दी होती तो अब अवसर न टेलीफोन लगा था, कभी कभी टेलीफोन से बातचीत हुआ मिलता। क्या किसी ने उस चिट्ठी को उठाया होगा? करती थी। ऐरोड्रोम के सभी लोग वनलता को तथा यदि उठाया है तो रुपये लेकर चिट्ठी कहीं फेंक तो नहीं मुझे विशेष रूप से पहचानते थे। दी या वे सारी चीजें ज्यों की त्यों बँधी पड़ी है, कोई ऐरोप्लेन को देखते ही मैंने पहचान लिया। कदाउन्हें देख ही नहीं पाया ? आशा और अाशङ्का से मेरा चित् वनलता स्वयं उसमें बैठी थी। कोई भी रहा हो, इस चित्त चञ्चल हो उठा। रात्रि प्रायः समाप्त होते होते मकान को वह पहचान गया है, इसमें अब कोई सन्देह निद्रा आ गई । सो जाने पर तरह तरह के स्वप्न देखने नहीं रहा । अब मेरे छुटकारे में अधिक विलम्ब नहीं है । लगा।
दिन ढलते ढलते आकाश पर बादल घिर आये। निद्रा भंग होने पर देखा तो दिन बहुत चढ़ आया रह रहकर बिजली भी चमकने लगी । मेघों के गर्जने से सारी था। कमरे में और कोई नहीं था। मस्तक में थोड़ी दिशायें परिपूर्ण हो गई । रह रह कर वर्षा भी होने लगी। थोडी पीडा अवश्य थी. उसके अतिरिक्त शरीर में और साँझ होने के बाद वंशी हालदार अपना दल-बल किसी प्रकार का क्लेश नहीं था । प्रति दिन की तरह आज लेकर फिर आया। उसने कहा-कहो, अब क्या कहते सवेरे टहलने नहीं गया। कमरे के बाहर थोड़ी देर तक हो। इस बार चिट्ठी लिखोगे या नहीं ? खड़ा रहा, वंशी हालदार या और किसी को देख नहीं अब मैंने उत्तर दिया-अब मुझे आपत्ति नहीं है। पाया।
वनलता मेरी लड़की तो है नहीं। मुझे क्या पड़ी है कि मैं दोपहर को भोजन करके कमरे में बैठा था, इतने में उसके लिए इतनी यन्त्रणा सहन करूँ ? उसके भाग्य में ऐरोप्लेन का शब्द सुनकर बाहर निकल आया। देखा, जो है वही होगा। एक ऐरोप्लेन बहुत नीचा होकर उस मकान के ऊपर से वंशी ने हँसकर कहा-अब रास्ते पर आ गये हो । होकर चला जा रहा है । वंशी हालदार तथा और भी कई यदि आज भी न सहमत होते तो एक और तरह का मज़ा
आदमी घर से निकल पड़े। मुझे देखते ही उन लोगों ने चखने को मिलता! कहा-तुम यहाँ क्यों आये ? भीतर जात्रो।
मैंने कहा-आज रात भर और ठहर जात्रो, कल सवेरे मैं भीतर चला गया। ऐरोप्लेन दो-तीन बार उस लिख दूंगा।
फा. १०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६२
सरस्वती
[भाग ३६
"क्यों आज लिखने में क्या हुआ ?"
देखते देखते सभी कमरों और बरामदों में रोशनी हो "अभी तक मेरा हाथ ठीक नहीं हुआ, लिखते समय गई। मैं एक बड़े कमरे में ले जाया गया। मैनेजर और काँपता है। इस समय यदि मैं लिख भी दूं तो लोग इंस्पेक्टर ने मुझसे पूछा- मेरे ऊपर किसी प्रकार का सन्देह कर सकते हैं ।" यह देखो, कह कर मैंने कलम- अत्याचार किया गया है या नहीं। मैं अादि से अन्त तक दावात ले ली और काग़ज़ पर कई पंक्तियाँ लिखीं। सारी कथा कह गया। लिखावट टेढ़ी-मेढ़ी थी। जिसके साथ वनलता के विवाह वंशी हालदार तथा उसके सभी अनुचर गिरफ्तार हो की बात थी, शायद वही उन लोगों में पण्डित था । मेरा गये थे। खानातलाशी लेने पर सारी चीजें मिल गई। लिखना उठाकर उसने देखा और कहने लगा--इससे काम बहुत-से पर, शरीर को कष्ट देने के कई प्रकार के यन्त्र, न चलेगा, बल्कि झंझट हो सकता है। कल रात को चमड़े में छेद करके दवा डालने की पिचकारी आदि सभी ज़रा अधिक दबाव डाला गया था। हाथ की लिखावट चीजें निकल आई। इंस्पेक्टर ने हाथ मलते हुए कहास्वाभाविक होनी चाहिए।
हालदार महाशय, इतने दिनों के बाद श्राप मिले हैं। वंशी हालदार ने कहा-कहीं बदमाशी के मारे तो सात वर्ष के लिए तो अब बड़े घर में जा ही रहे हैं, वहाँ 'बिगाड़कर नहीं लिखा है ?
से लौटने पर भी अब आप हम लोगों से छुटकारा न पा मैंने कहा-तुम्हारे सामने ही तो लिखा है । मेरा हाथ सकेंगे। एक एक करके आपके सभी विषैले दाँत तोड़ इस समय भी काँपता है।
दिये जायँगे। ___"अच्छा, तो अभी रहने दो, कल सवेरे ठीक से लिख मैंने एक और आदमी को दिखलाकर कहा--इनको देना।"
पहचानते हैं ? ये ही वनलता के भावी पति हैं। हालआज रात को मेरे कमरे में कोई नहीं रहा। वंशी दार बाबू इस विवाह के अग्रकर्ता होंगे। हालदार को विश्वास हो गया कि यातना न सह सकने के "अच्छा !" कह कर इंस्पेक्टर ने उस युवक को बूट से कारण मैंने उसकी आज्ञा का पालन करना स्वीकार कर ऐसे ज़ोर की एक ठोकर मारी कि वह लटपटा कर गिर पड़ा। लिया है, अब किसी प्रकार की आपत्ति नं करूँगा।
उस समय मेरे हाथ में भी खुजलाहट मालूम पड़ने रात को दस बजे आकाश निर्मल हो गया। मेरे लगी। मैंने कहा-ज़रा हालदार बाबू का बन्धन खोल शरीर में उस समय भी क्लान्ति थी। मैं सो गया। दीजिए। मुझे इनसे कुछ हिसाब-किताब समझना है। ____ गम्भीर रात्रि में मेरे कमरे के दरवाज़े में बड़े ज़ोर से एक कान्स्टेबिल ने वंशी हालदार के हाथ का बन्धन धक्का लगा, कब्ज़ा टूट गया, इससे दरवाज़ा खुल गया। खोल दिया। मैंने कहा-मेरे हाथ में न तो पिचकारी है, मैं चौंक पड़ा और उतावली के साथ उठ कर चारपाई पर न दवा है, न पर है और न काई दूसरी ही चीज़ है । मैं बैठ गया। एक टार्च की रोशनी मेरे मुँह पर पड़ी। किसी तुम्हारा रक्तपात न करूंगा, नाक-दाँत भी न तोडूंगा, ने कहा-कहिए गौर बाबू, इन लोगों ने आपको अधिक किन्तु वंशीवदन, गौरमोहन का ज़रा-सा और परिचय क्लेश तो नहीं दिया।
देना आवश्यक है। ___ मेरा नाम गौरमोहन दत्त है। मैंने कहा-अभी बतलाता घुसा मारने की कला मैंने सीखी थी। दोनों हाथों हूँ। सब लोग गिरफ़्तार हो गये हैं न ? कौन कौन आये हैं ? की आस्तीने सिकोड़कर मैंने वंशी हालदार के पञ्जर में
"सभी गिरफ़्तार हो गये हैं। मैनेजर साहब आये हैं, तान कर एक चूसा मारा। वह काँखकर बैठ गया। पुलिस के इंस्पेक्टर हैं, बीस लठैत हैं और दस कान्स्टेबिल जूते से ठोकर मारकर मैंने उसे उठाया। मुँह छोड़हैं। फाटक पर जो श्रादमी बन्दूक लिये खड़ा रहा करता कर उसके शरीर के स्थान स्थान पर मैंने कई चूंसे मारे। है वह पकड़ लिया गया है।
वह पृथिवी पर गिरकर आर्तनाद करने लगा।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
व्यर्थ प्रयास
वंशी हालदार के दल के जितने भी श्रादमी थे, उन राय की अट्टालिका में गया। उस समय रात के चार सभी पर थोड़ी-बहुत मार पड़ी। बाद को वे सब बाँध लिये बजे थे। वनलता सारी रात सो नहीं सकी। मेरे आने गये। घर से थोड़ी दूर पर चार बड़ी बड़ी लारियाँ खड़ी का समाचार पाते ही वह दौड़ी आई और मेरे गले से लिपटथीं, उन्हीं पर उन सब डाकुओं को बैठाकर पुलिस उन्हें कर कहने लगी-चाचा जी, तुम्हारे ऊपर किसी प्रकार लेकर चली गई।
का अत्याचार तो नहीं किया गया ? .. मैनेजर ने मुझसे कहा-बिटिया रानी अापको देखने मैंने कहा-वह कोई ऐसी बात नहीं थी, परन्तु जराके लिए बहुत ही उत्कण्ठित हैं, उन्होंने अपनी गाड़ी सा ही और विलम्ब होने पर वे लोग तुम्हें पकड़ ले जाते, भेजी है।
और विवाह कर देते। मैंने कहा-चलिए, अब यहाँ रहने की क्या श्राव- वनलता ने उपेक्षा के साथ मस्तक हिलाकर कहाश्यकता है।
मेरा विवाह तुम करोगे । वे लोग कौन होते हैं ? मोटर के पीछे अपना सारा सामान बाँधकर मैं मिस्टर
গ্রাঙ্গুলাচ্ছি-লিজাজ
लेखिका, श्रीमती रामकुमारी चौहान अधकुचले अरमानों की है यह धूमिल-सी रेखा ॥ पली निराशा की निशीथ में इसने प्रात न देखा। उस निष्ठुर के वन-प्रहारों से निर्मित इसका आकार ।। यह इच्छाओं की अपूर्ति है यही मूर्ति करुणा साकार ।।
उषाकाल में सन्ध्यावेला पतझड़ में है यही वसंत ।। आकांक्षाओं की असफलता विषम व्यथा का छोर अनन्त ।। यह कंपित-से नील व्योम के है दृगतारों की जलधार ।। योग-वियोग आदि की जिसमें होती है प्रतिपल बौछार ॥
ऐ मेघो, तुम बहा न देना देखो मेरी एक समाधि । इसमें अभी सुला पाई हूँ जग की निर्मम व्याधि-उपाधि ॥ शशि-किरणो, तुम मधुर स्नेह ले आ जाना इस ओर समीप ।। कान्तिदान से प्रज्वल रखना मम समाधि का सुप्त-प्रदीप ।।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
भूषण का महत्त्व लेखक, श्रीयुत कमलाकर शर्मा
लान जना युत विनोदविहारी" नाम है, बल्कि इसलिए भी कि वह वीर रस का वास्त
के किसी लेखक ने जुलाई विक उदाहरण न होकर रीति-ग्रन्थकाल की अन्य
की "सरस्वती" में "भूषण श्रृंगारी कविताओं की भाँति ही कामुकता-पूर्ण या "श्री का दूषण" शीर्षक एक भी है।"
ASTI लेख लिखा है। मालूम महात्मा जी तो "शिवाबावनी" को सिर्फ दबी जाहस होता है कि आप भी ज़बान में अराष्ट्रीय ही बतलाते हैं; क्योंकि उसमें
N महात्मा गान्धी के अन्ध- मुग़ल बादशाह के लिए भली बुरी बातें हैं; और वे भक्त बनकर पाँच सवारों में अपना नाम लिखाना सब ऐतिहासिक भी नहीं हैं; परन्तु उनके ये अन्धचाहते हैं, तभी तो महात्मा गान्धी की दुहाई देकर भक्त उनसे और भी दो क़दम आगे बढ़कर शिवामहाकवि “भूषण का दूषण" दिखाने की आपने बावनी को 'साम्प्रदायिकता की आग भड़कानेवाली' हिम्मत की है।
बतला रहे हैं। इनकी राय में भूषण कवि की यह ___ महात्मा गान्धी ने देवनागरी लिपि अच्छी तरह कविता “वीर रस का वास्तविक उदाहरण" भी नहीं जाननेवाले किसी मुसलमान की शिकायत पर महा- है, और "रीति-काल की अन्य श्रृंगारी कविताओं कवि भूषण की शिवाबावनी के विषय में यह सम्मति की भाँति ही कामुकता-पूर्ण भी है।" विनोदविहारी दे डाली है कि इसमें "मुग़ल बादशाह के लिए भली जी कहते हैं कि “इन्द्र जिमि जम्भ पर बाड़व बुरी बातें हैं। वे सब ऐतिहासिक भी नहीं हैं।" सु अम्भ पर" इत्यादि रूपक बाँध कर कोई किसी के अतएव यह पुस्तक अराष्ट्रीय है; और महात्मा जी की हृदय में वीर रस का संचार नहीं कर सकता। यदि ऐसी भी राय प्रकट हुई है कि हिन्दी-साहित्य-सम्मे- भूषण औरंगजेब के अत्याचारों का वर्णन करते और लन की परीक्षा-पुस्तकों से यह पुस्तक निकाल देनी हिन्दुओं को उन अत्याचारों का मुक़ाबिला करने का चाहिए।
जोश दिलाते तब बेशक उनकी कविता वीर रस की महात्मा जी ने स्वयं अपने अन्धभक्तों को कई कही जाती।" बार फटकारा है कि तुम अपनी स्वतंत्र बुद्धि से काम परन्तु आपको यह मालूम होना चाहिए कि लो । खाली हमारी आवाज़ में आवाज न मिलाओ। भूषण कवि छत्रपति शिवाजी की राजसभा के कवि परन्तु इन परावलम्बी प्राणियों की बुद्धि अभी तक थे; और किसी लम्बे कथानक को लेकर वीर रस का ठिकाने नहीं आई ! “भूपण का दूषण" दिखलानेवाले कोई महाकाव्य लिखना उनका उद्देश नहीं था। विनोदविहारी जी अपने इस लेख में लिखते हैं- उनका सम्पूर्ण काव्य मुक्तक काव्य के ढंग का है। ___"महात्मा गान्धी ने जो प्रश्न उठाया है उस पर शिवाजी के यश, कीर्ति, प्रताप और उनके जीवन की हमें गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता वीरता-पूर्ण भिन्न भिन्न घटनाओं को लेकर ही उन्होंने है। शिवाबावनी केवल इसी लिए त्याज्य नहीं है अपने मुक्तक छन्द रचे हैं । “शिवराजभूषण," कि वह साम्प्रदायिकता की आग को भड़कानेवाली “शिवाबावनी," " छत्रसाल-दशक ” और कुछ
३६४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
भूषण का महत्त्व
३६५
फुटकर कवित्तों के अतिरिक्त "भूषणहजारा", "भषण- प्रत्यक्ष शंकर का अवतार, हिन्दु-जाति के उद्धार के उल्लास" और "दूषण-उल्लास" ये तीन ग्रन्थ उनके लिए, मान लिया था। हिन्दुओं की सम्पूर्ण शक्ति, और भी सुने जाते हैं। इन ग्रन्थों के नामों पर से बलवीर्य और पराक्रम का एकत्रीकरण एकमात्र भी यही मालूम होता है कि महाकवि भषण की शिवाजी में ही हो रहा है-ऐसी भावना उस समय प्रवृत्ति मुक्तक छन्द लिखने की ओर थी। क्रमवार प्रत्येक हिन्दू-हृदय में कम से कम महाराष्ट्र में तो युद्ध-वर्णन की ओर नहीं। सर वाल्टर स्काट की अवश्य ही छाई हुई थी। शिवाजी का राज्याभिषेक तरह इन्होंने छत्रपति शिवाजी के किसी युद्ध का पूरा ही इस मसलहत से किया गया था कि हिन्दू-जाति पूरा वर्णन तो नहीं किया; परन्तु फुटकर यद्ध-काव्य की सम्पूर्ण स्वराज्यभावना एक ही जगह आकर लिखने में महाकवि भूषण ने जितनी सफलता प्राप्त केन्द्रीभूत हो जाय। इसी लिए भूषण कवि ने भी की है, उतनी शायद ही किसी हिन्दी कवि ने प्राप्त की अपनी कविता में सम्पूर्ण हिन्दू जाति को सम्बोधित होगी। शिवाजी की कई चढ़ाइयों का बहुत ही करके उसको उभाड़ने की आवश्यकता नहीं समझी। उत्कृष्ट और उद्दण्ड वर्णन इन्होंने किया है। शत्रुओं एक शिव छत्रपति को ही उन्होंने समस्त हिन्दू-जाति पर शिवाजी का जो आतंक और प्रभाव था, उसका का प्रतिनिधि मान लिया था। कवि की यही भावना बहुत ही अओजस्वी वर्णन भूषण के कवित्तों में पाया निम्नलिखित कवित्त से भी प्रकट होती हैजाता है। रौद्र, वीर, भयानक इन तीनों रसों का राखी हिन्दवानी हिन्दवान को तिलक राख्यो, जैसा पूर्ण परिपाक इस महाकवि के काव्य में पाया
स्मृति औ पुरान राखे बेद-बिधि सुनी मैं। जाता है, वैसा अन्य कवियों की कविता में नहीं
में नही राखी रजपूती रजधानी राखी राजन की, पाया जाता।
धरा में धरम राख्यो राख्यो गुन गुनी मैं । ___ यह बात ज़रूर है कि उन्होंने सम्पूर्ण हिन्दू-जाति को सम्बोधन करके अपनी कविता नहीं रची है,
_ भूखन सुकवि जीती हद्द मरहट्टन की, और जिस काल तथा जिस परिस्थिति में भूषण कवि
देस देस कीरति बखानी तव सुनी मैं । ने अपनी रचना की है, उस समय सम्पूर्ण हिन्दू
साहि के सपूत सिवराज, समसेर तेरी, जाति को लक्ष्य करके उसको उभाड़ने की आवश्य
दिल्ली दल दाबि कै दिवाल राखी दुनी मैं ।। कता भी नहीं थी। वह छापेखाने और रेल-तार का भूषण के अनेक ऐसे कवित्त हैं कि जिनसे उनका युग नहीं था कि पूरी जाति को एकदम कोई वीर- स्वजातिप्रेम भली भाँति प्रकट होता है। राजकवि सन्देश पहुँचाया जाता। इसके सिवाय उस समय टेनिसन की भाँति उनको अपने समय का जातीय की कवि-परिपाटी भी ऐसी नहीं थी। विनोद. और प्रतिनिधि कवि कहना चाहिए। हिन्दूपन और विहारी जी को यदि थोड़ा भी ज्ञान शिवाजी के जातीय गौरव का जितना भाव इस कवि में पाया समय की ऐतिहासिक परिस्थिति का होता, तो वे जाता है, उतना अर्वाचीन काल के किसी कवि में ऐसा कदापि न लिखते। मुग़लकाल में महाराना नहीं पाया जाता। प्रताप और छत्रपति शिवाजी, ये दो विभूतियाँ ऐसी औरंगजेब के अत्याचारों का भी भूषण कवि ने हो गई हैं कि इनके व्यक्तित्व में ही हिन्दू-जाति का कई कवित्तों में बहुत ही सजीव वर्णन किया है सम्पूर्ण अस्तित्व मान लिया गया था। उस समय और शिवाजी की वीरता और शत्रुओं पर उनकी मुग़लों के अत्याचार से तमाम हिन्दू-जाति त्रस्त थी, विजय का वर्णन ऐसे ओजस्वी शब्दों में किया है और छत्रपति शिवाजी को उसी समय लोगों ने कि उसको पढ़ते समय, शायद ही ऐसा कोई कायर,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६६
सरस्वती
[भाग ३६
क्लीब, कापुरुष होगा कि जिसके हृदय पर उसका का वर्णन मिल जायगा कि जो जाति जाति में विद्वेष प्रभाव न पड़ता हो।
भड़कानेवाली होंगी-किंबहुना मज़हबी अत्याचारों _ विनोदविहारी जी शिवाबावनी को "साम्प्र- और जातीय विग्रह-वर्णन से ही संसार के सम्पूर्ण दायिकता की आग भड़कानेवाली" कहते हुए भी इतिहास भरे पड़े हैं, उनको श्राप नष्ट नहीं कर लिख रहे हैं
सकते; और न उनका प्रचार ही आप रोक सकते "हमारा खयाल है कि उनकी कविता हिन्दुओं में हैं। बुद्धिमानी तो इसी में है कि इतिहास की वात मुस्लिम-विरोधी भाव न तब पैदा कर सकी थी आप इतिहास की ही दृष्टि से देखें-भूतकाल की
और न अब कर सकती है। इसलिए जहाँ तक घटना को वर्तमान पर क्यों घटित करते हैं ? मूर्ख हिन्दुओं को भड़काने का सवाल है, यह कविता लोग भी यह जानते हैंनिर्जीव है और इससे निर्दोष है। पर मुसलमान ___बीती ताहि बिसार दे", इससे भड़क सकते हैं।"
विनोदविहारी जी कहते हैं कि भूषण कवि ने ___"विनोदविहारी” के ही समान “यथा नाम “मलेच्छबंस" शब्द लिख दिया है, तो आजकल के तथा गुण”–विनोद में ही विहार करनेवाले लेखकों मुसलमान अपने आपको मलेच्छबंस का कहलवाना को भले ही भूषण की कविता निर्जीव मालूम हो; थोड़े ही पसन्द करेंगे। परन्तु हमारा तो ऐसा खयाल है कि भूषण की यह भी एक बालकों की-सी बात है। आजकल कविता अत्यन्त सजीव और वीर रस से ओत-प्रोत के मुसलमानों को तो भूषण कवि ने म्लेच्छबंस का है; और पाठकों तथा श्रोताओं के हृदय पर पूर्ण कहा नहीं है। औरंगजेब के समय में जो मुसलमान प्रभाव डालनेवाली है। रह गई हिन्दुओं को हिन्दुओं पर अत्याचार करते थे, उन्हीं के लिए मुसलमानों के विरुद्ध भड़काने की बात, सो ऐसा भूषण की कविता में “मलेच्छबंस" शब्द आया है । कोई उद्देश्य कवि का नहीं है। मुसलमानों में भी- . आजकल के मुसलमान तो वास्तव में बहुत ही पवित्र आज लगभग तीन सौ वर्ष से भूषण कवि की हैं; और महात्मा गान्धी जी के "प्रयत्न" से हिन्दुओं कविता जनता में पढ़ी और सुनी जाती है-आज के साथ उनका सलूक भी दिन पर दिन बहुत अच्छा तक हमने कोई भी मुसलमान भड़कता हुआ नहीं होता जाता है, तब उनको मलेच्छबंस का कौन कह देखा। अब हमको मालूम हुआ है कि आज महात्मा सकता है ! विनोदविहारी महाशय लिखते हैंगान्धी के सामने एक कोई मुसलमान शिवाबावनी "औरंगजेब के समय में चाहे जो परिस्थिति पढ़कर भड़क उठा है। और महात्मा, तथा उनके रही हो, हमारे देश की वर्तमान स्थिति ऐसी नहीं है अन्धभक्त, एक ही मुसलमान के भड़कने से इतने कि हम इस प्रकार की कविताओं को प्रोत्साहन दें। भड़क उठे हैं कि भूषण कवि की कविता को ही उस समय हिन्दू-मुसलमान दोनों शासक थे। दोनों त्याज्य बतलाने लगे हैं। यह एक प्रकार की हिमाकत राजनैतिक शक्ति के लिए लड़ रहे थे। दोनों एक है। हमारी तो राय है कि यदि ऐसी छोटी छोटी दूसरे को हिन्दुस्तान से हटा देने का स्वप्न देख रहे बातों को लेकर हम मुसलमानों के भड़कने का थे। आज वह बात नहीं रही। आज दोनों पराधीन खयाल करने लगेंगे, तो हिन्दू और मुसलमानों में हैं और यह अनुभव कर रहे हैं कि मिलकर रहने में कभी ऐक्य हो ही नहीं सकेगा। किसी भी भाषा के ही कल्याण है। इस दिशा में प्रयत्न भी जारी है।" ऐतिहासिक साहित्य और काव्यों को यदि आप विनोदविहारी जी के इस कथन से महात्मा ढूँढ़ने लग जायँगे, तो आपको अनेक ऐसी घटनाओं गान्धी जी के समर्थन या वकालत का पता चाहे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
भूषण का महत्त्व
३६७
भले ही लग जाय; पर वर्तमान राजनीति और हिन्दू. गया सत्रहवीं शताब्दी के अन्य साहित्यिक प्रयत्नों मुसलिम-सम्बन्ध के विषय में तो उनका पूर्ण अज्ञान की भाँति वह भी एक प्रयत्न है।" सिद्ध हो रहा है । यदि ज़रा-सा विचारपूर्वक देखा विनोदविहारी जी, यह आपकी बड़ी भारी जाय, तो आज भी, औरंगजेब के समय की भाँति धृष्टता है कि जो आप महाकवि भूषण की कविता ही, हिन्दू-मुसलमान दोनों राजनैतिक शक्ति के लिए, को केवल “भटैती” और धन के लालच से लिखी हुई किसी न किसी रूप में, लड़ रहे हैं। अन्तर केवल कविता बतला रहे हैं। भूषण कवि किस चरित्र का इतना ही है कि उस समय स्वतन्त्र रूप से लड़ रहे थे, व्यक्ति था-जान पड़ता है, इसका आपको बिलकुल
और आज पराधीनता में लड़ रहे हैं। आप कहते परिचय नहीं है । दुःख की बात है कि हमारे प्राचीन हैं कि दोनों अपनी पराधीनता का अनुभव कर रहे कवियों के चरित्र के विषय में अभी तक पूरी पूरी. हैं; और मिलकर रहने में कल्याण मानते हैं। यह खोज नहीं हो सकी है, फिर भी भूषण कवि की. भी आपका लिखना बिलकुल ग़लत है। जिस दिन जीवन-घटनाओं के विषय में जितनी कुछ जानकारी दोनों जातियाँ पराधीनता का अनुभव करेंगी, उसी अब तक प्राप्त हो सकी है, उसी को यदि आप एक दिन दोनों स्वाधीन हो जायँगी; और आये दिन बार पढ़ जाते, तो आप इतने श्रेष्ठ महाकवि को भाट "मस्जिद के सामने बाजा" तथा अन्य ऐसे ही और धन का लालची बतलाने का दुस्साहस न खुराफात जो मुसलमानों की तरफ से उठाये जाते हैं; करते । आपको मालूम होना चाहिए किवे भी बन्द हो जायेंगे।
भूषण कवि चार भाई थे। चिन्तामणि, भूषण, आप लिखते हैं कि मेल का प्रयत्न जारी है। मतिराम और जटाशंकर उपनाम नीलकंठ। ये कान्यसो हमारे देखने में तो कोई भी प्रयत्न मेल का इस कुब्ज ब्राह्मण थे, जो प्रायः प्राचीन काल से अपनी समय दिखाई नहीं देता। सम्भव है कि भूषण कवि निःस्पृहता के लिए प्रसिद्ध हैं । बड़े भाई चिन्तामणि की कविता को हिन्दी-संसार से मिटा देने के प्रयत्न स्वयं औरंगजेब बादशाह के दरबारी कवि थे। भूषणः को ही आप हिन्दू-मुस्लिम-ऐक्य का इस समय एक- से छोटे दोनों भाई-महाकवि मतिराम और मात्र प्रयत्न समझते हों. पर वास्तव में यह श्रापका नीलकंठ ये भी राजदरबार में ही रहते थे। उनके बडा भारी भ्रम है। इससे राजनैतिक अधिकारों के घर में कोई खाने-पीने की कमी नहीं थी। जैसा प्रायः भूखे मुसलमान नेतागण प्रसन्न तो नहीं हो सकेंगे- गवाँर स्त्रियों का स्वभाव होता है, भूषण की भौजाई, हाँ, हिन्दू-जाति और हिन्दी-संसार की श्रद्धा उन चिन्तामणि की धर्मपत्नी ने एक दिन एक छोटीमहात्मा पर से उठ जायगी, जिनकी वकालत आप सी बात पर भूषण को ताना दिया, जिसको कर रहे हैं।
वे न सह सके; और तड़ाक से घर से निकल विनोदविहारी जी को इस बात का बड़ा आश्चर्य पड़े, जिससे भूषण जी का तेजस्वी स्वभाव ही है कि शिवाबावनी के समान साम्प्रदायिकता को प्रकट होता है। एक प्राचीन जीवन-चरित भड़कानेवाली, वीर रस से शून्य, अराष्ट्रीय और में लिखा हुआ है कि भूषण जी, भौजाई के कामुकता-पूर्ण कविता का मोह हम लोगों में क्यों वाक्यवाण से विद्ध होकर, पहले कुमायूँ-नरेश के है ! आपकी राय है
यहाँ पहुँचे, और "उलदत मद अनुमद ज्यों जलधि ___“शिवाबावनी में वह वीर रस नहीं है जिसका जल" इत्यादि उनका कवित्त कुमायूँ -नरेश को इतना
आस्वादन कर हम वीर बाँकुरे बनना चाहते हैं। पसन्द आया कि उन्होंने एक लाख मुद्रा भूषण को वह तो भटैती मात्र है। धन की इच्छा से लिखा समर्पित किया; और कहा-“लीजिए, ऐसा दाता
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६८
सरस्वती
[भाग ३६
तुम्हें न मिलेगा।" यह अभिमान भरी बात सुनकर असल में बादशाह का अभिप्राय यह था कि भूषण ने कहा-"ऐसे दाता तो बहुत होंगे, पर मुझ- इस बहाने अपने परोक्ष-निन्दक का पता लगा लूँगा। सा त्यागी ब्राह्मण न मिलेगा।" और यह कहकर उस समय सब कवि लोग चुप्पी साधकर रह गये। उस निःस्पृह ब्राह्मण ने उतनी बड़ी धनराशि को वहीं "दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा” कहलानेवाले उस लात से ठुकरा दिया !
मुग़ल बादशाह की धाक कुछ कम नहीं थी। फिर ऐसे निःस्पृह कवि को विनोदविहारी के समान भी यह केवल वीर कवि भूषण का ही साहस था, छोटे लेखक ही धन का लालची और भटैती कविता जो उन्होंने उस दिल्लीपति की धाक की परवा न करनेवाला कह सकते हैं ! कोई समझदार लेखक तो करते हुए कहाकह नहीं सकता।
___“जहाँपनाह, खुशामद खुदा को भी प्यारी है। फिर देखिए। भूषण कवि पन्ना के महाराज इसी से सब लोग आपके दोष छिपाकर केवल गुण वीरशिरोमणि हिन्दू-पूज्य छत्रसाल के दरबार में भी ही बखानते हैं। लेकिन जब आप सत्यवादिता की उपस्थित हुए थे। वहाँ महाराज छत्रसाल जब भूषण ही परीक्षा करना चाहते हैं, तो सुनिए-मैं हाजिर को बिदा करने लगे, तब महाराज ने स्वयं भूपण की हूँ।" ऐसा कहकर भूषण कवि ने कड़ककर अपने पालकी को कन्धा लगाया; और कहा कि हम आपके ये दो कवित्त बादशाह को सुनाये-- सेवक हैं। इस घटना से जहाँ वीरशिरोमणि छत्र- १--किबले की ठौर बाप बादसाह साहजहाँ। साल की उदारता प्रकट होती है, वहाँ यह भी सिद्ध २-हाथ तसबीह लिये प्रात उठे बन्दगी को। होता है कि महाकवि भूषण कोई मामूली धन के
इत्यादि लालची भाट कवि नहीं थे, बल्कि उनमें चरित्र का इन्हीं कवित्तों को लक्ष्य करके विनोदविहारी जी वह ऊंचा बल था कि जिसके कारण ऐसे ऐसे सूरमा, भूषण कवि को कायर बनाते हुए लिख रहे हैंउस समय के बड़े बड़े हिन्दू-सम्राट भी उनकी प्रतिष्ठा "औरंगजेब को कोसा है कि तूने बाप को कैद करते थे।
किया, भाई को मारा, तुझे नरक होगा। यह हम ऊपर कह चुके हैं कि भूषण के बड़े भाई असमर्थों और अपाहिजों की वाणी है।" चिन्तामणि औरंगजेब बादशाह के राजकवि थे; धन्य है विनोद विहारी जी, आपकी जानकारी
और इसी सिलसिले से भूषण जो औरंगजेब के दर- भूषण कवि के विषय में बहुत ही बढ़ी-चढ़ी है ! बार में भी उपस्थित हुए थे। औरंगज़ब के दरबारी आपको इतना तक नहीं मालूम है कि ये कवित्त भषण कवि बादशाह की उचित-अनुचित प्रशंसा करके ने किस मौके पर कहे हैं। औरंगजेब स्वयं कवियों को उसकी खूब खुशामद किया करते और ग्खूब धन प्रचारण कर रहा है कि तुममें से यदि किसी में कमाया करते थे। एक दिन औरंगज़ेब, जब अपने हिम्मत हो, तो हमारी निन्दा के कवित्त पढ़ो। दरबार में अपने रत्नजटित मयूर-सिंहासन पर बैठा उसकी इस प्रचारणा पर वीर कवि भूषण, भरे दरबार हुआ था, अपने दरबारी कवियों को सम्बोधन करके में, बादशाह के सामने, ये उसकी निन्दा के कवित्त बोला
पढ़ सुनाता है। इसी में उस कवि की निर्भयता, ____ "कवीश्वरो, तुम लोग मेरी तारीफ़ ही तारीफ़ निःस्पृहता और फक्कड़पन के भाव मौजूद हैं, जिसको किया करते हो ! क्या मुझमें कोई ऐब नहीं है ? आप "अपाहिज" और "असमर्थ" बतला रहे हैं ! मेरे ऐब को भी बखानो, तब मालूम हो कि तुम इन कवित्तों के अन्त में यह लाइन आती हैसत्यवादी हो।"
"भूखन भनत छरछन्द मतिमन्द महाँ सौ सौ चूहे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
100005
INYA
श्रीकृष्ण और रुक्मिणी कर्हि चित्सुखमासीनं स्वतल्पस्थं जगद्गुरुम् । पतिं पर्यचरद् भैष्मी व्यजनेन सखीजनैः ।। श्रीमद्भागवत १०-६०-१
[चित्रकार-श्रीयुत एच० बागची Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
भूषण का महत्त्व
३६९
खाय के बिलाई बैठी तप के।" यह सुनकर बाद- कैसी सिटपिटाई हुई भगती हैं कि उनको अपने शाह का चेहरा अभी तमतमा कर जलने ही वाला वस्त्राभूषणों और स्त्री-लज्जा-सुलभ अंगाच्छादन था कि दरबार के कई सत्यप्रिय कवि और राजपूत का भी भान नहीं रहता। इस वर्णन में विनोद“शाबास भूषण ! शाबास !" कहने लगे। बादशाह विहारीजी को श्रृंगार, कामुकता और नायिकाभेद की क्रोधाग्नि में मानो आहुति-सी पड़ गई। तलवार कहाँ से दिखाई पड़ गया, सो हमारी समझ में नहीं खींचकर औरंगजेब स्वय भूषण को मारने उठा; पर आया। न्यायप्रिय मुसाहिबों ने प्रतिज्ञा-भंग और अपकीर्ति इसमें सन्देह नहीं कि वह रीति-ग्रन्थों का युग का डर दिखला कर औरंगजेब को रोक लिया। था। सभी कवि अलंकार के ग्रन्थ बनाते थे; और भूषण जी तुरन्त ही दरबार से बाहर निकल आये; भूषण कवि ने भी “शिवराजभूषण" अलंकार का
और घर आकर अपनी कबूतरी उर्फ केसर नाम की ग्रन्थ बनाया है; परन्तु विनोदविहारी जी को यह घोड़ी सजाकर दक्षिण की ओर चल पड़े। मालूम होना चाहिए कि उस शृंगारिक युग में भी
विनोदविहारी जी महाकवि भूषण की रचना यही एक वीर कवि है कि जिसने उस समय की प्रखर को शृंगारिक और कामुकता-पूर्ण सिद्ध करते हुए श्रृंगारधारा में न बहकर, "मुरारेस्तृतीयः पन्थाः" के लिख रहे हैं---
न्याय से, अपना एक अलग ही मार्ग निश्चित "वह असल में रीति-ग्रन्थों का युग था। सभी किया। उसने शिवाजी और छत्रसाल के समान कवि अलंकार के ग्रन्थ बनाते थे और नायिका-भेद वीरपुंगवों को अपनी कविता का नायक बनाया; लिखते थे। युग के प्रभाव से भूषण भी नहीं बचे। और अपने अलंकारग्रन्थ में भी शृंगारिकता और उनका शिवराजभूषण अलंकार का ही ग्रन्थ है और नायिका-भेद को फटकने तक नहीं दिया-अपने सब शिवाबावनी के कवित्तों में भयत्रस्त मुग़ल-स्त्रियों का उदाहरण ऐतिहासिक और वीर रस के प्रस्तुत किये । वर्णन नायिकाभेद का ही एक स्वरूप है।"
ऐसे वीर कवि के प्रति कृतज्ञता न दिखलाकर विनोदविहारी जी! आपकी सूझ और जान- उसको शृंगारिक, कामुक, असमर्थ, अपाहिज, कारी की बलिहारी है। वैरिवधुओं का भूषण कवि इत्यादि शब्दों से लाञ्छित करना घोर कृतघ्नता है । ने जो वर्णन किया है, उसी पर से इस कवि को यह बात भारत के समान पराधीन देश में ही शृंगारिक और कामुकता-प्रिय सिद्ध करने की आपकी सम्भव है; और हिन्दी के इन गैर जिम्मेवार लेखकों युक्ति बहुत ही अनूठी है। आपको मालूम नहीं ने तो अपने प्राचीन कवियों को लाञ्छित और अपहै कि युद्ध का वर्णन करते हुए सभी बड़े कवियों ने मानित करने का मानो ठेका ही ले रक्खा है-यही वैरिवधुओं की दुर्दशा का, किसी न किसी रूप में, भूषण कवि यदि कहीं पश्चिमी देशों में होता तो वर्णन किया है । भूषण के कवित्तों को पढ़कर आपके आज उसकी जन्मभूमि टिकवांपुर में उसका सुन्दर समान शायद ही किसी लालबुझक्कड़ के हृदय में भव्य स्मारक दिखलाई देता; और उस वीर कवि श्रृंगारिक अथवा कामक-भाव पैदा हो जायँ। का गौरव करने के लिए वहाँ उसके नाम पर मेला अन्यथा साधारण तौर पर उन कवित्तों को पढ़कर लगता ! पाठक के हृदय में करुणा और उन स्त्रियों के प्रति याद रखिए, यह भूषण कवि की ही कविता की दया के भाव ही उठेंगे। हाँ, भूषण का वर्णन करने करामात है जो आज छत्रपति शिवाजी को उत्तर का ढंग चमत्कार-पूर्ण ज़रूर है; और यही उनका भारत में इतना राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त हो सका है। कवि-कौशल है। शिवाजी के आतंक से यवन-स्त्रियाँ हिन्दी-भाषी प्रान्तों के ग्राम ग्राम में शिवाजी के यश
___फा. ११
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७०
का डंका बजानेवाला भूषण कवि ही है । इस कवि ने यदि छत्रपति शिवाजी का हिन्दी - कविता में यशागान न किया होता, तो शायद शिवाजी का महत्त्व केवल महाराष्ट्र-सीमा में ही सीमित रहता । विदेशी और मुसलमान लेखक जब शिवाजी को चोर और लुटेरा बतला रहे थे, और उनको एक पहाड़ी चूहा कहकर प्रकट करते थे, तब भी भूषण कवि का ही प्रभाव था कि जिससे शिवाजी का "स्वराज्य-संस्थापक" और "हिन्दू-धर्म-रक्षक" स्वरूप अपढ़ कुपढ़ हिन्दी - जनता और हिन्दी भाषियों में जगमगा रहा था । उन विदेशी ग्रन्थकारों के भ्रमपूर्ण मतों का खंडन करने के लिए दक्षिण में न्यायमूर्ति रानडे और
कल छबि ने कवि के अधरों को पुलकित होकर चूम लिया था । तृषित सिन्धु ने सखि, सरिता का मधुर प्रेम-पीयूष पिया था ।
असीम का बन्धन
लेखक, श्रीयुत बालकृष्ण राव
प्रेरित हो अपने ही सुख की पुण्य प्रचुरता से परिमल ने कुल कुलको सुमनों की स्वीकृति का सन्देश दिया था ॥ फूट पड़ी कवि की कृतज्ञता कविता के मृदु मादक स्वर में । नाच उठीं सखि, तृप्त तरंगें, बेसुध -सी होकर, सागर में ।
सरस्वती
कलिका की सुकुमार कामना, स्पन्दित करके विपुल शान्ति को, सजन, सो गई सुख से नीरव गुञ्जन बनकर आज भ्रमर में ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
जस्टिस तैलंग के समान प्रभावशाली व्यक्तियों को अँगरेज़ी में लेखनी उठानी पड़ी; परन्तु उत्तर-भारत में भूषण कवि पहले से ही अपनी राष्ट्रीय कविता के द्वारा उन विदेशियों को राष्ट्रीय भाषा में मुँह तोड़ उत्तर दे रहा था और इस प्रकार शिवाजी के उज्ज्वल यश और प्रताप को अक्षुण सिद्ध कर रहा था ।
मैं नहीं चाहता था कि श्री विनोदविहारी के लेख का कोई उत्तर दिया जाय, पर कई मित्रों ने मुझे विवश किया। अतएव इतना लिखना पड़ा। पाठकों को सत्यासत्य का विवेक स्वयं कर लेना चाहिए ।
[ भाग ३६
झलक रही है कान्ति स्वप्न की छविमय नयनों में जागृति के । खिले हुए हैं सुमन मनोहर आशा के उपवन में स्मृति के ।
ले कवि के संचित स्वप्नों के चित्र, अदृश्य करों से अपने सजा रहा है सजनि, सदन को पुरुष पुरातन प्रिया प्रकृति के || अद्भुत भावों से प्रेरित हो आज नियति ने नियम भंगकर, छिपा दिया सुख के जलकरण में सखि, असीम करुणा का सागर ।
संनिविष्ट करके अपनी ही पुण्य परिधि में छवि अनन्त की, व्याप्त होगया निखिल विश्व में कवि की वीणा का नीरव स्वर ॥
www.umàragyanbhandar.com
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वापर
लेखक, श्रीयुत मैथिलीशरण गुप्त गुप्त जी ने 'द्वापर' नाम का एक महाकाव्य लिखना प्रारम्भ किया है। यह सुन्दर रचना उसी का एक प्रारम्भिक अंश है । श्राशा है यह काव्य भी गुप्त जी के नाम और यश के अनुरूप ही
हिन्दी की श्रीवृद्धि करनेवाला सिद्ध होगा।
श्रीकृष्णराम भजनकर पाश्चजन्य, तू , वेणु बजा लूँ आज अरे, जो सुनना चाहे सो सुन ले स्वर ये मेरे भाव-भरे, कोई हो, सब धर्म छोड़ तू आ बस, मेरा शरण धरे; डर मत, कौन पाप वह, जिससे मेरे हाथों तू न तरे ?
राधाशरण एक तेरे आई मैं धरे रहे सब धर्म हरे ! बजा तनिक तू अपनी मुरली, नाचें मेरे मर्म हरे ! नहीं चाहती मैं विनिमय में उन वचनों का वर्म हरे !
तुझको–एक तुझी को–अर्पित राधा के सब कर्म हरे ! यह वृन्दावन, यह वंशीवट, यह यमुना का तीर हरे ! यह तरते ताराम्बरवाला नीला निर्मल नीर हरे ! यह शशि रंजितसितधन-व्यंजित, परिचित त्रिविध समीर हरे ! बस, यह तेरा अंक और यह मेरा रंक शरीर हरे !
कैसे तुष्ट करेगी तुझको, नहीं राधिका बुधा हरे ! पर कुछ भी हो, नहीं कहेगी तेरी मुग्धा मुधा हरे ! मेरे तृप्त प्रेम से तेरी बुझ न सकेगी क्षुधा हरे !
निज पथ धरे चला जाना तू अलं मुझे स्मृति-सुधा हरे ! मैं रो रोकर सब सह लूंगी, देना मुझे न बोध हरे ! इतनी ही विनती है मेरी, इतना ही अनुरोध हरे ! क्या ज्ञानापमान करती हूँ, कर न बैठना क्रोध हरे! . भूले तेरा ध्यान राधिका तो लेना तू शोध हरे !
भुक, वह वाम कपोल चूम ले यह दक्षिण अवतंस हरे ! मेरा लोक आज इस लय में हो जाव विध्वंस हरे ! रहा सहारा इस अन्धी का अब वह उन्नत अंस हरे ! मग्न अथाह प्रेम सागर में मेरा मानस-हंस हरे !
३७१
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
卐) अाकाश
सिन्ध देश के ऊपर
'अस्त्रिया' नाम के
काब सुबह होगया है। जोधपुर से कर घने हो जाते हैं - इसी समय, जब मैं यह पत्र लिख
प्रस्थान करने के समय हमारे रहा हूँ, इन सघन गहरे बादलों ने पृथ्वी को पूर्णतया ढंक सा ऊपर आकाश में चमकीले लिया है। इस समय तूफ़ान में हिलते हुए हिमाच्छादित
| तारे प्रकाशमान थे और नीचे प्रदेश की कल्पना बहुत सहज में ही होने लगती है । CONVERSY पृथ्वी पर अन्धकार का प्रसार हम लगभग १०,००० फुट की उँचाई पर उड़ रहे हैं,
ON था। जैसे जैसे हम वायु को और हमारे ऊपर बादलों से शून्य स्वच्छ आकाश है।
'चीरते हुए पश्चिम की ओर कानपुर और दिल्ली में बहुत-से मित्र मुझसे मिलने के बढ़ रहे थे, प्रभात हमारा पीछा कर रहा था । धीरे-धीरे उसने लिए आये थे। दिल्ली में और बहुतों के अतिरिक्त बा,
आकाश के अगणित तारों को बुझा दिया । नीचे पृथ्वी पर अंसारी और ज़ोहरा भी थीं। वहाँ हमने भोजन किया मरुप्रदेश दृष्टिगोचर हुअा-ऊसर और उदास ! सूर्योदय और फिर चल दिये। नई दिल्ली तो प्रकाश की एक लपटहोगया था. और अपने से बहुत नीचे हमने देखा कि हिम, सी मालूम होती थी। रात के साढ़े बारह बजे हम जोधपुर तूल या ऊन जैसे बादलों के बड़े बड़े टुकड़े फैले हुए थे। पहुँचे और एयरोड्रोम से करीब ही स्टेट होटल में ले जाये कभी ये बादल खण्ड खण्ड होकर छोटे छोटे टुकड़ों में गये, जो हर एक तरह की आधुनिकता से परिपूर्ण था। बँट जाते हैं और खुले हुए स्थलों के बारपार-जैसे घूघट हममें से प्रत्येक को एक यात्री-कार्ड दिया गया, जिसके से-पृथ्वी दिखलाई पड़ने लगती है। फिर कभी वे घिर अनुसार हमें सुबह साढ़े तीन बजे उठना था। इसके बाद
नेहरूजी कितने विनोदप्रिय हैं यह इस चित्र से स्पष्ट .
है। उनकी एक बात ने सबों को हँसा दिया।
हवाई जहाज जिससे नेहरूजी ने यात्रा की । ये सब
चित्र बमरौली एयरोडोम के हैं।
३७२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
मार्ग में
हवाई जहाज से
५ सितम्बर १९३५
छोटी हाज़िरी और चार बजे तक सामान का पहुँचाया जाना। होटल से सवा चार बजे चल देना था और चार
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यह पत्र बज कर तीस पर जहाज की रवानगी थी। बहुत देर तक
अपनी बहन श्रीमती विजयलक्ष्मी तो मुझे नींद ही नहीं आई और उसके बाद मुझे मालूम
पंडित को लिखा है। इसके लिए हम हुश्रा, जैसे मेरी आँख झपने के कुछ ही देर के बाद मैं
श्रीमतीजी के कृतज्ञ हैं। पत्र का अनुजगा लिया गया। किसी तरह मैंने हजामत की योजना
वाद श्रीनरेन्द्र शर्मा ने किया है। की और गरम पानी से अच्छी तरह स्नान किया-यहाँ अँगरेज़ी ढंग का अच्छा स्नानगृह है। इस प्रकार में ठीक नियमित समय पर तैयार हो गया। हमारे मित्र बड़े जहाज से यात्रा करेंगे। इस जहाज़ में हम तीन ही मिस्टर पेरिन के विषय में यह बात नहीं, कई बार जगाने यात्री हैं, पेरिन के और मेरे अलावा एक और हैं, जो पर, अन्त में वे एक हाथ में कॉलर और दूसरे में टाई मेरे खयाल से आस्ट्रेलियन हैं । लिये हुए बाहर निकले, और हम लोग तुरन्त ही तारों के रात की यात्रा से हम लोगों ने समय को बहुत कुछ प्रकाश में चल दिये।
पूरा कर लिया है। कराची से 'एयरमेल' केवल एक बहुत शीघ्र ही हम सिन्ध नदी के ऊपर उड़ते हुए दिन के विलम्ब से रवाना होगा। होंगे और फिर कराची आ जायगा। वहाँ से हम इससे
नेहरूजी बमरौली एयरोडोम में इष्ट-मित्रों के साथ ।
नेहरूजी अपनी बहन श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित
और उनके बच्चों के साथ ।
+
+
+
+
L
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
नई पुलक
१-२-श्रीयुत बच्चन जी की दो रचनायं पास-द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की, (१) खय्याम की मधुशाला-फ़िट्ज़ज़ेरेल्ड-कृत विश्व-विजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला ।। 'रुबाइयात उमर खय्याम' को पढ़कर हिन्दी में उसको कवि की यह फिटकार पढ़कर कुछ हिम्मत तो न होती उपस्थित करने की स्फूर्ति कई कवियों को प्राप्त हुई है। थी, पर चूँकि थोड़ी-सी मैंने भी पी ली है, इसलिए उसके कविता कवि की आत्मा है, शरीर नहीं। शरीर को रूप स्वाद का ज़िक्र तो ज़रूर करूँगा । उमर खय्याम एक प्रदान किया जा सकता है, आत्मा को नहीं । इसी प्रकार दार्शनिक कवि थे। उनका जीवन सादगी से भरा हुआ महत् कवि के महत् भावों का रूप-प्रदान कर देना सुलभ था। वे क्या चाहते थे. यह नीचे लिखे पद से स्पष्ट हो नहीं । खय्याम दार्शनिक व्यक्ति थे। उनकी कविता तत्त्व- जायगा। ज्ञान का निदर्शन करती है। इतना ही नहीं, वे जो कुछ धनी सिर पर तरुवर की डाल, हरी पाँवों के नीचे घास, थे और उन्होंने अपनी मधुशाला में जो कुछ पाया, उसे एक बग़ल में मधु मदिरा का पात्र, सामने रोटी के दो ग्रास । अँगरेज़ी अनुवाद से एक दूसरी भाषा में अनुवादित कर सरस कविता की पुस्तक हाथ और सबके ऊपर तुम प्रान, देना भी कठिन काम है । श्रीयुत बच्चन जी हिन्दी के एक गा रही छेड़ सुरीली तान, मुझे अब मरु, नन्दन-उद्यान ॥ सफल कवि हैं, उनकी कविता में प्रवाह है और उनके उमर खय्याम मदिरा पीने लगे थे, क्योंकि इसका भावों में भावोन्माद । अतएव जहाँ तक बना है, उन्होंने नशा उन्हें उनकी दार्शनिक साधना से विमुख होने से फ़िट्ज़ज़े रेल्ड-रचित रचना को अपने शिल्प-चातुर्य से बचाये रखता था। इसी लिए मदिरा पीने पर उनका मानहिन्दी में उपस्थित करने का प्रयत्न किया है। इस प्रयत्न सम्भ्रम सब कुछ चला गया, परन्तु उन्होंने कभी भी में उन्हें बहुत कुछ सफलता भी मिली है। विश्वास है, मदिरा को हेय नहीं समझा। उन्हें आश्चर्य होता था कि हिन्दी-प्रेमी उनकी इस रचना का अवश्य आदर करेंगे। यह दीन कलाल दो-चार ताँबे के टुकड़ों पर उसे क्यों लुटा पुस्तक छोटे श्राकार की सौ पृष्ठों की है। सजिल्द है, रहा है ! उन्होंने कहा हैमूल्य ||) है।
किया मदिरा ने मुझसे घात मान की पगड़ी मेरी छीन, (२) मधुशाला-यह एक मौलिक रचना है, अपनी मगर, कब उसको समझा हेय, मगर कब उसको समझा हीन ? मधुशाला का परिचय लेखक ने इस प्रकार दिया है- मुझे प्रायः इस पर आश्चर्य, बेचता मद क्यों दीन कलाल, भावुकता-अंगूर-लता से खींच कल्पना की हाला, कहाँ ताँबे के टुकड़े चार, कहाँ भाविक-सा उसका माल ? कवि बनकर है साकी पाया भरकर कविता का प्याला । कभी न कण-भर खाली होगा, लाख पियें दो लाख पिये, दर्शनों का सीखा सिद्धान्त, गणितविद्या सीखी दे ध्यान, पाठकगण हैं पीनेवाले पुस्तक मेरी मधुशाला ॥ खपाया ज्योतिष में मस्तिष्क, बढ़ाया जड़-जीवों का ज्ञान ।
आगे चलकर कवि ने एक गर्वोक्ति की है। उसे भी जगत की ज्वाला से मैं तृप्त, जलाशय ज्ञान-विवेक अनेक, देखिए
मगर सब छिछले, उथले, क्षीण मिला बस प्याला गहरा एक ! बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला, उमर खय्याम की आयु परिपक्व हो चुकी थी, विचारपी लेने पर तो जायेगा पड़ उसके मुँह पर ताला। शक्ति व्यापक, दृष्टि निगूढ़ और अनुभूति महान् ! पर
३७४
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
नई पुस्तकें
श्रीयुत बच्चन जी के समीप है भावुकता की अँगूरी, उन्मद साधक की तो अमर पिपासा के लिए चाहिए स्वाति का एवं उद्भ्रान्त बना देनेवाला भाव-प्रवाह ! उन्होंने ऊपर बिन्दु, अगणित वर्षा-बिन्दु उसकी अतृप्त पिपासा को उठने का प्रयत्न किया है। उनके लिए कहीं बादल साकी कहाँ मिटा सकते हैं ? मीरा विशुद्ध प्रेम की भूखी थी; है तो कहीं पानी की वर्षा मदिरा; कहीं मत्त समीरण साकी उसकी भूख मिदी जीवन-परिवर्तन पर ! महाप्रभु चैतन्य है तो सागर-जल हाला है; कहीं पौधे साक्री हैं तो परिमल- प्रेम के दीवाने थे, इसलिए उन्होंने प्रेम का साक्षात्कार मिश्रित रस हाला है; कहीं रसाल-तरु साक़ी-सा है तो पाया। महाकवि कबीर अचेतन पड़े थे, उन्हें चेतन के उसका मादक सौरभ हाला है; कहीं अनिल साक़ी है तो असीम मिलन की साधना भी प्रारम्भ कर देने के लिए, मधु-ऋतु-सौरभ हाला है; कहीं उषा बाला साक़ी है तो अपने पैरों के मृदुल आघात से उन्हें जगा दिया गुरु वह धरा से हाला मोल लेती है, कहीं सन्ध्या बाला साकी रामानन्द ने । इसी लिए कबीर ने एक दिन कहा था, है तो पता नहीं हाला क्या है; कहीं शशि-बाला साकी है वीर की साधना रण में लड़कर क्षण भर में जीवनदान तो उसकी ज्योत्स्ना हाला है इत्यादि । तात्पर्य यह है कि दे देने से हो जाती है, सती की साधना अपने जीवनउन्मत्त कवि जहाँ देखता है वहीं उसे हाला, प्याला, स्वामी की चिता पर चढ़ जाने से अपने प्राण-विसर्जन साकी और मधुशाला दिखाई देती है।
कर देने से घण्टे भर में ही समाप्त हो जाती है, पर किसी अोर मैं आँखें फेस दिखलाई देती हाला, साधक की साधना तो न क्षण भर में पूरी होगी, न घण्टे किसी ओर मैं आँखें फेरूँ दिखलाई देता प्याला। भर में ! उसकी साधना तो जीवनव्यापी है, जब तक किसी
रेख मभको दिखलाई देता साकी, जियेगा तब तक उसे साधना का संग्राम लड़ना पड़ेगा-- किसी अोर देखू, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।। 'साध-संग्राम है रैन-दिन जूझना, पर इस निखिल जगत्व्यापी दृष्टि के भीतर कवि
देहपर्यन्त का काम भाई ।' का सुकोमल हृदय किस स्थल पर जाकर, चोट खाकर, श्रीयुत बच्चन जी में एक प्रतिभाशाली कवि के गुण वेदना से कण्टकित होकर रोदन और हाहाकार कर उठता मौजूद हैं । जब समय भीगेगा तब उनके हृदय में एक है उसे भी देखिए । कवि कहता है
असीम पिपासा जाग्रत होगी, तब वे दूसरों को भी पिला सुमुखि तुम्हारा सुन्दर मुख ही भाविक मदिरा का प्याला, कर उन्मत्त कर देंगे। अब हम भी उनके शब्दों में कहेंगेछलक रही है जिसमें छलछल रूप-मधुर मादक हाला। कभी न कण-भर खाली होगा, लाख पियें दो लाख पियें; मैं ही साक्की बनता, मैं ही, पीनेवाला बनता हूँ,
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला ! जहाँ कहीं मिल बैठे हम-तुम वहीं गई हो मधुशाला ।। इसकी पृष्ठ-संख्या १५०, आकार छोटा और मूल्य
किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला, दोनों पुस्तकों का गेटप सुन्दर है। पता--साधनाढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी , किस्मत में थी मृगछाला। निकुंज, प्रयाग है । किसने अपना भाग्य समझने में मुझ-सा धोखा खाया ?
-मंगलप्रसाद विश्वकर्मा किस्मत में था अवघट मरघट ढूंढ़ रहा था मधुशाला। ३-७ - श्री रामानन्द-साहित्य-प्रचारक-मण्डल,
लहरीपुरा, बड़ौदा की पुस्तकें इस उलझन और एक सीमाबद्ध प्रेम की तड़फन में (१) श्रीभगवत्स्तव:--पृष्ठ-संख्या ८ और मल्य - अानन्द की अनुभूति कब हो सकती है ? यह उन्माद तो है। इस पुस्तक में प्रारम्भ तथा अन्त में हिन्दी-कवितात्रों अन्तस्तल की एक महान् पुकार के क्षुद्र अाघात से ही का समावेश हुश्रा है। प्रातः तथा सायंकाल की भारती काँच के प्याले के समान भङ्ग हो जानेवाली चीज़ है। के पीछे गाने के लिए इन स्तुतियों की रचना की गई है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७६
सरस्वती
[भाग ३६
संस्कृत-श्लोकों में भारत की दीन अवस्था का चित्रण सम्प्रदाय. के सिद्धान्तों के आधार पर लिखी जाने के कारण
और भगवान् रामानन्द जी से उसके उद्धार के लिए राम को परात्पर ईश्वर सिद्ध करने का प्रयास करती है। सुन्दर तथा ज़ोरदार शब्दों में प्रार्थना की गई है। राम भी किसी अन्य को अपना उपास्य देव मानते थे, हिन्दी-कविताओं की भाषा खिचड़ी है। हाँ, संस्कृत के यह स्वीकार करने से इस साम्प्रदायिक मत को हानि की श्लोक अवश्य सुन्दर हैं।
सम्भावना है। इसी विचार से इस पुस्तक में यह सारा (२) श्रीलोकोत्तराम्बाचरणाश्रयणम—मूल्य = विवेचन किया गया है । आश्चर्य है कि ब्रह्मचारी जी इन और पृष्ठ-संख्या १६ है।
बातों का प्रचार करने में अपने सम्प्रदाय का गौरव समयह पुस्तक भी संस्कृत-श्लोकों में लिखी गई है। झते हैं । पुस्तक का विषय उसके नाम से स्पष्ट है । सरल, प्रसाद- (४) काठकोपनिषत्-पृष्ठ-संख्या १०२ और मूल्य गुण-पूर्ण तथा सुन्दर भाषा में यह स्तुति-कुसुमाञ्जलि लिखी ॥ है। कठोपनिषद् का उपनिषदों में विशेष स्थान है। गई है। भक्ति और श्रद्धा के भावों से पद्य श्रोत-प्रोत हैं इस उपनिषद् पर शंकर प्रभृति अनेक प्राचार्यों के भाष्य और बड़े हृदयग्राही हैं । एक उदाहरण देखिए- प्रसिद्ध ही हैं । परन्तु श्री ब्रह्मचारी जी ने इस उपनिषद्
दीनोऽस्मि तेन न धनं, किल निर्गुणोऽस्मि, की अपनी टीका में इसका अर्थ ब्रह्म-ज्ञानपरक नहीं किया तस्माद् गुणो न मयि तिष्ठति मन्दभाग्ये । है। वे इसमें 'चारित्र्य' और 'उपासना' का चित्रण पाते निन्द्यं वपुर्मलिनमेव मनस्तु तस्मात् ,
हैं। 'मृत्यु' को भी वे अन्य भाष्यकारों के समान यमराज त्वत्पादयोर्मम शिरोऽवनतिर्हि पूजा ।।
नहीं मानते, अपितु मृत्यु नामक किसी विद्वान् पंडित की (३) रामेश्वरमीमांसा-पृष्ठ-संख्या ३० और मूल्य।) कल्पना करते हैं । द्वितीय वर-द्वारा 'स्वर्ग्य अग्नि' का जो है । इस पुस्तक में ब्रह्मचारी जी ने वाल्मीकिरामायण की उपदेश नचिकेता ने यम से माँगा है उसका भी एक भूषणादि टीकात्रों के आधार पर यह सिद्ध करने का यत्न दूसरा ही अर्थ उन्होंने किया है। स्वर्ग-लोक का अर्थ किया है कि भगवान् रामचन्द्र ने सेतुबन्ध के समय न तो 'श्री साकेत में निवास करनेवाले नित्य, मुक्त जीव' किया शिव की स्थापना की थी और न पूजा ही की। उन्होंने गया है। 'लोकादिमग्निम्' का 'विष्णुपूजन रूप भक्ति' लिखा है कि "अत्र पूर्व महादेवः प्रसादमकरोद्विभुः" इस अर्थ किया गया है । इस प्रकार अर्थों की खींचातानी से वाल्मीकीयरामायणस्थ पंक्ति का 'महादेव' शब्द 'समुद्रराज' इस उपनिषद् का स्वारस्य अच्छी तरह बिगाड़ा गया है। का वाचक है न कि शिव का । भूषण टीकाकार का जो पन्द्रहवें मंत्र में 'या इष्टका यावतीर्वा यथा वा०' का अर्थ प्रमाण इसकी पुष्टि के लिए उद्धृत किया गया है वह इस करते हुए ब्रह्मचारी जी ने लिखा है कि-"जितनी और प्रकार है
जिस प्रकार की इंटें इस भक्तिरूप अग्नि के लिए अपेक्षित __ "महादेव इति समुद्रराज उच्यते । औचित्यात् । प्रभुः थीं उनका भी उपदेश कर दिया"। नचिकेता और यम समुद्रजलाधिष्ठाता । प्रसादमकरोत् । 'सागरं शोषयिष्यामि' की कथा को केवल अर्थवाद मानकर इस उपनिषद् के इति कुपितस्य मे प्रसादं प्रसन्नत्वमकरोत् ।" इसी प्रकार भाष्यकारों ने जिस प्रकार इसके शब्दों का मुख्यार्थ लेकरपृष्ठ ६ पर सत्रह युक्तियों की एक सूची दी गई है, जिनसे अनायास ही सरल स्वाभाविक अर्थ किया है, वैसा इस यही प्रकट होता है कि शिवलिङ्ग-स्थापना करनेवाला अर्थ नूतन व्याख्या में नहीं हुआ है । शब्दों का मुख्यार्थं छोड़अप्रासंगिक है, अतएव अशुद्ध है। ब्रह्मचारी जी ने कर उनके लक्ष्यार्थ की अहेतुक कल्पनात्रों से श्री ब्रह्मतुलसीदास जी को श्री-सम्प्रदाय का नहीं माना है और चारी जी ने इस उपनिषद् के सरल भावों की खूब मिट्टी तदनुसार उनके ग्रन्थ और शिव-लिङ्ग-स्थापना के वर्णन पलीद की है। जिन्हें सम्प्रदायवादियों की लीला का अनु.
को भी अप्रामाणिक ही माना है। यह पुस्तक रामानन्द- भव प्राप्त करना हो उन्हें कठोपनिषद् के ब्रह्मचारी जी के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
भाष्य तथा व्याख्या को देखकर अपना कुतूहल दूर करना चाहिए |
(५) वर्ण - विचार - पृष्ठ संख्या ४६ और मूल्य = ) है |
यह पुस्तक 'हिन्दू' नामक पत्र में 'तत्त्वदर्शी' नामक पत्र पर किये गये श्राक्षेपों का पुस्तकाकार उत्तर है। इसके लेखक वर्णों की उत्पत्ति जन्म से नहीं, प्रत्युत कर्म से मानते हैं । यही सिद्ध करने के लिए यह पुस्तक लिखी गई है । लेखक ने जिस व्यंग्यपूर्ण कटुभाषा में 'हिन्दू' की कटूक्तियों का उत्तर दिया है वह साधुजनोचित नहीं है । समालोचना तथा विचार की शैली का गौरव कटुभाषा अथवा व्यंग्य शैली नहीं है । 'हिन्दू' ने गान्धी को ‘गोघातक' लिखा था, अतएव ब्रह्मचारी जी ने हिन्दू - पुस्तकों के आधार पर गोहत्या की प्रथा को सनातन सिद्ध करके उस विशेषण को निन्दा का कारण ही नहीं रहने दिया । खण्डन के जोम में जिस वस्तु को वे स्वयं 'निकम्मी' कहते हैं उसी पर पृष्ठ के पृष्ठ काले किये गये हैं । हम इस “तू तू मैं मैं” के वाग युद्ध को जनता के समय तथा सदाचार दोनों का विघातक समझते हैं । जो लोग वर्णव्यवस्था को गुणकर्मानुसार मानते हैं वे इस पुस्तक से शायद कुछ लाभ उठा सकें । ८-६ - बिहार - प्रकाशन-भवन, आरा द्वारा प्रकाशित, बाल-ग्रंथमाला की दो पुस्तकें
(१) मिठाई का दोना - बालकों की शिक्षाप्रद कहानियों और कविताओं का एक सुन्दर संग्रह है । इसके पढ़ने से बालकों का मनोविनोद भली भाँति हो सकता है । पुस्तक की भाषा समय की रुचि के अनुसार सरल और सुबोध है । इसको पढ़कर बालकों को अपने चरित्र - सम्बन्धी सहज में उत्पन्न होनेवाली बुराइयों का ज्ञान हो सकता और वे उससे बिना प्रयास बच सकते हैं । इस दृष्टि से पुस्तक की रचना बालोपयोगी है।
नई पुस्तकें
(२) भैया की कहानी - इसमें बुकर टी० वाशिंगन के जीवन-चरित का वर्णन कहानी के ढंग पर
99
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
किया गया है। बालकों को इसके पढ़ने से अपनी उन्न की लगन पैदा हो सकती है और वे अपने को परिश्रमी तथा आदर्श बालक बना सकते हैं। अधिक से अधिक कठिनाई पड़ने पर भी उनको अपनी धुनि में लगे रहने का सदुपदेश इससे मिलता है । किन्तु विदेशी कथानक होने से उनको इस पुस्तक की वर्णित सभी बातों का ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि उनके लिए हब्शी गुलामों की तकलीफ़ों का जानना कठिन है । पर यह अवश्य है कि वे वर्तमान शिक्षा की कमी, और पढ़े-लिखे लोगों की बेकारी का कारण सुगमता से समझ सकते हैं । उपर्युक्त दोनों पुस्तकें श्री त्रिवेणीप्रसाद बी० ए० की लिखी हैं। प्रत्येक का मूल्य ।) है। छपी भी सुन्दर हैं ।
१० - वीर - विभूति - ( संस्कृत काव्य-ग्रन्थ ) — लेखक मुनि श्री न्यायविजयजी, न्यायतीर्थ, न्यायविशारद, प्रकाशक, श्रीजैन युवक संघ, बड़ौदा हैं।
इस पुस्तक में भगवान् महावीर के जीवनचरित की संक्षिप्त रूप-रेखा ५७ श्लोकों में अङ्कित की गई है । वैदर्भी रीति में लिखे गये ये सरस सुन्दर पद्य जहाँ एक ओर भगवान् महावीर की जीवन घटनात्रों पर प्रकाश डालते हैं, वहाँ दूसरी ओर उनसे मिलनेवाली शिक्षाओं को भी हृदयंगम कराते हैं । काव्य की भाषा सरल तथा प्रसादगुण-युक्त है । संस्कृतप्रेमी सभी नवयुवकों तथा विशेषतथा जैनियों को इस पुस्तक का संग्रह करना चाहिए । संस्कृतश्लोकों का सुन्दर अँगरेज़ी अनुवाद उनके सामने ही दाहने पृष्ठ पर छापा गया है । अनुवाद कर्त्ता हैं राजरत्न, डा० बी० भट्टाचार्य, एम० ए०, पी० एच० डी० डायरेक्टर, ओरियेन्टल इन्स्टिट्यूट, बड़ौदा । इस अनुवाद से संस्कृतानभिज्ञ अँगरेजी जाननेवाले सज्जन भी इस पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं। पुस्तक का गेट अप, छपाई श्रादि उत्तम हैं ।
कैलाशचन्द्र शास्त्री, एम० ए०
www.umaragyanbhandar.com
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादकीय नोट
योरप का संकट
हायुद्ध के बाद ऐसा समझ पड़ने लगा था कि अब संसार सुख-शान्ति का उपभोग करेगा और वैसे सर्व संहारक युद्ध भविष्य में नहीं होने पायँगे । ऐसा समझने का मुख्य कारण यह था कि यार के प्रमुख राष्ट्रों ने राष्ट्र संघ की स्थापना तथा अन्यान्य महत्त्वपूर्ण सम्मेलन करके यह स्पष्ट रूप से घोषित किया था कि अब संसार के भिन्न भिन्न राष्ट्र अपने अपने झगड़ों का निपटारा करने के लिए कदापि अस्त्र नहीं ग्रहण करेंगे । परन्तु श्राज अठारह वर्ष बाद भी दुनिया जहाँ की तहाँ बनी हुई है और विश्वव्यापी शान्ति की स्थापना की बात कोरी कल्पना ही सिद्ध हो रही है । संसार के सभी प्रमुख राष्ट्र पहले की अपेक्षा कहीं अधिक • युद्ध के लिए सज्जित बैठे हैं और संसार के भिन्न भिन्न भागों में जो थोड़े-बहुत भूखण्ड अभी तक अपने ढंग से अपनी स्वाधीनता का उपभोग कर रहे थे और जिनकी
र साम्राज्यवादी राष्ट्र दृष्टिपात तक नहीं करते थे, उन पर स्वाधिकार करने के लिए वे सबके सब गहरी चालें चल रहे हैं | इस समय इस तरह की राजनैतिक क्रीड़ा के केन्द्र अबीसीनिया तथा चीन का सिनकियांग- प्रदेश है । अबीसीनिया पर इटली का दाँत है और सिन कियांग को रूस हड़प लेना चाहता है । परन्तु यह सब दूसरे साम्राज्यवादी राष्ट्रों को सह नहीं है । वे नहीं चाहते कि अकेला इटली अबीसीनिया को या अकेला रूस सिन कियांग को हड़प जाय । इटली की धाँधली के कारण इस समय सिनकियांग का मामला पीछे पड़ गया है, यद्यपि पिछले तीन वर्ष से वहाँ अति भयंकर उथल-पुथल मची हुई है । इटली ने अबीसीनिया को शस्त्रबल से स्वाधिकार मुक्त
म
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
करने के लिए अपने विराट् सैनिक बल का जो प्रदर्शन किया है वह अन्य राष्ट्रों को सह्य नहीं हुआ । फलतः संसार के प्रमुख राष्ट्र ग्रेट ब्रिटेन को अन्त में लाचार होकर खड़ा ही होना पड़ा। जेनेवा में उस दिन उसके वैदेशिक मन्त्री सर सैमुअल होर ने जो महत्त्वशाली भाषण किया है उससे यह बात भले प्रकार प्रकट हो गई है इटली के लिए अबीसीनिया को हड़प बैठने का प्रयत्न करना टेढ़ी खीर होगी । सर होर के उस गौरवपूर्ण भाषण से इटली का सारा दर्प यद्यपि ठण्डा पड़ गया है, और ऐसा प्रतीत होता है कि इटली एकाएक अबीसीनिया पर धावा बोल देने का साहस नहीं करेगा, तथापि इस अवस्था से यह प्रकट हो गया है कि संसार के प्रमुख राष्ट्रों
तनाव बढ़ता जा रहा है और किसी न किसी मसले को लेकर वे सबके सब एक न एक दिन फिर लोकसंहार का जघन्य कार्य कर बैठने से नहीं चूकेंगे । पाश्चात्य सभ्यता ने संसार को अपनी जो यह विभूति दी है, अन्त में वह उसी के विनाश का कारण होगी । आज इटली और अबीसीनिया का मसला कुछ दिनों के लिए टाला जा सकता है । परन्तु इसकी कौन गारंटी दे सकता है कि वैसे ही भीषण मसले भविष्य में नहीं उठेंगे ? वास्तव में संसार की राजनैतिक स्थिति दिन प्रति दिन भीषणतर होती जा रही है और जिन लोगों के हाथों में इसके सँभालने का उत्तरदायित्व है वे उसको नहीं सँभाल पा रहे हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण इटली और अबीसीनिया का वर्तमान संघर्ष है। ऐसी दशा में अब संसार के रक्षक भगवान ही हैं।
क्रिमिनल ला श्रमेंडमेंट एक्ट
असेम्बली के शिमला के अधिवेशन में सरकार ने क्रिमिनल ला अमेंडमेंट एक्ट को उपस्थित करके जो मनोभाव व्यक्त किया है, भावी शासन-विधान को दृष्टि में
३७५
www.umaragyanbhandar.com
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
__ संख्या ४]
सम्पादकीय नोट
३७९,
रखते हुए उसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती । यद्यपि अपने देखना है कि वे अपनी इस घोषणा के अनुसार कार्य विशेषाधिकार के बल से वायसराय महोदय उसे कानून करने में कहाँ तक समर्थ होंगे। का रूप दे देंगे, तथापि असेम्बली ने अपने बहुमत से इसमें सन्देह नहीं है कि राष्ट्रीयतावादी भारतीयों में से उसे अस्वीकार करके उसके विरुद्ध लोकमत का ही नरम दलवालों में से कुछ लोग सहयोग करने की सलाह प्रमाण दिया है। ऐसी दशा में इस सम्बन्ध में दे रहे हैं। यहाँ तक कि जो लोग अभी तक निरपेक्ष तक सरकार को लोकमत की अवहेलना नहीं करनी थे वे भी उनके कथनों का समर्थन कर रहे हैं। सबसे चाहिए थी। इस कानून के पास हो जाने से और जो ताज़ा उदाहरण श्रीयुत केतकर का वह भाषण है जो असुविधायें होंगी सा तो होर्वेगी ही, सबसे बड़ी असुविधा अभी हाल में उन्होंने नागपुर में किया है। यह होगी कि इसके कारण समाचार-पत्र समुचित रूप से नये शासन-सुधारों के सम्बन्ध में राष्ट्रीयतावादी लोकअपने कर्त्तव्य का पालन न कर सकेंगे और उनकी उन्नति नेता इतना अधिक कह चुके हैं कि अब उनके लिए कुछ के माग में इससे बड़ी बाधा पहुँचेगी, जिसका कटु अनुभव कहना बाकी नहीं रह गया है। परन्तु भारत में अकेले पत्र-संचालकों को गत कई वर्षों के भीतर काफ़ी हो चुका इन्हीं लोकनेताओं को सुधारों के सम्बन्ध में कुछ कहने का है। इसके विरोध-स्वरूप २७ सितम्बर को भारतीय पत्रों अधिकार प्राप्त नहीं है। इनके सिवा और लोग भी हैं ने पूरी हड़ताल मनाकर अपना उचित असन्तोष प्रकट जो उन्हीं की तरह सुधारों के सम्बन्ध में अपनी स्वतन्त्र किया है। परन्तु सरकार अपने निश्चय पर दृढ़ है। वह राय दे सकते हैं। ऐसे लोगों में हाल में उपर्युक्त महाजब भारत में भारतीयों को शासन-सम्बन्धी अधिक से नुभाव ने भी अपना नाम लिखाया है। श्राप प्रसिद्ध महाराष्ट्र अधिक अधिकार देने जा रही है तब वह अपनी सत्ता कोशकार हैं । आपने अपने भाषण में यह घोषित किया है बनाये रखने के लिए अपने हाथों में अमोघ अस्त्र भी कि कानून से अब भारत स्वाधीन हो गया है। रहा व्यवहार बनाये रखना चाहती है। ऐसी दशा में भावी सुधारों से में स्वाधीन होना सो इसका सारा दोष महात्मा गान्धी लोकहित की कैसे और कहाँ तक अाशा की जा सकती है, तथा यहाँ के राजनैतिक अान्दोलकों पर है। अन्यथा यह वास्तव में विचार करने की बात है।
शासकों को विशेषाधिकार न दिये जाते और भारत व्यव
हारतः भी स्वाधीन हो जाता । श्रीमान् केतकर जी की __ भावी-शासन-व्यवस्था और लोकनेता इस घोषणा से उनके जैसे विचारवालों का काफ़ी परितोष
देश में नई शासन-व्यवस्था प्रचलित करने के लिए हो जायगा, पर सर्वसाधारण उनकी इस कानूनी स्वाधीनता सरकार तत्परता के साथ व्यस्त है, परन्तु प्रश्न यह है कि का कैसे उपभोग कर सकेंगे, यह समझना सचमुच टेढ़ी यहाँ के राजनैतिक नेता उसे कार्य में परिणत करने में खीर है। वे लोग तो अपने लोकनेताओं के ही स्वर में सहयोग करेंगे या नहीं। इस सम्बन्ध में अब तक जो कुछ स्वर मिलाये रहना अपने लिए हितकर समझेंगे। कहा गया है उससे इतना तो प्रकट ही है कि मुसलमान, अछूत और धनिक वर्ग उससे सहयोग करेंगे, परन्तु राष्ट्री
हिमालय की चढाई यतावादी भारत के सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक नहीं कहा दुर्गम हिमालय के उत्तुंगभंग अभी तक अजेय बने जा सकता, यद्यपि वह आज दिन तक नये शासन-विधान हुए हैं। उन पर चढ़ने के विफल प्रयत्न अनेक योरपीय को अग्राह्य ही घोषित कर रहा है। लंदन में हमारे भावी आरोही कर चुके हैं। हिमालय की ओर इन साहसी वायसराय लार्ड लिनलिथगो ने अपने भाषण में कहा है अारोहियों का ध्यान पिछले महायुद्ध के बाद से ही गया कि शासन-विधान भारत की सब जातियों तथा सब धर्मों है और गत २० वर्षों के भीतर उनके कई दल हिमालय के लोगों के सहयोग में ही कार्य में परिणत किया जायगा। की भिन्न भिन्न चोटियों पर चढ़ने का प्रयत्न कर चुके हैं,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५०
सरस्वती
पर केवल कमेट - शिखर को छोड़कर उन्हें अन्यत्र सफ• लता नहीं मिली । मिस्टर स्माइथ का कहना है कि हिमा लय का चढ़ना आल्प्स पहाड़ जैसा नहीं है । आल्प्स में तो पहाड़ पर चढ़ना एक खेल सा है । चढ़नेवाला अपने होटल से चलकर पहाड़ पर जाकर किसी झोपड़ी में ठहर जाता है । दूसरे दिन वह पहाड़ पर चढ़ता है, और शिखर पर जाकर वह उसी दिन उतर कर उस झोपड़ी में श्राकर रुक जाता है या सीधा अपने होटल में जा पहुँचता है । पर यहाँ हिमालय में तो जिस पहाड़ पर चढ़ना है। उसके नीचे तक पहुँचने में ही हफ़्तों का समय लग जाता है और फिर उस पर चढ़ने के लिए तो महीनों की ज़रूरत पड़ती है । निस्सन्देह साहसी आरोहक हिमालय पर अब तक छब्बीस से अट्ठाईस हज़ार फ़ुट की ऊँचाई तक सफलतापूर्वक चढ़ गये हैं, परन्तु हिमालय के मुख्य ७० शिखरों में से पचीस हज़ार फ़ुट ऊँचे कमेट शिखर को छोड़कर और किसी पर चढ़ने में वे अभी तक समर्थ नहीं हो सके हैं। काराकोरम श्रृंखला के एक श्रृंग पर चढ़ने में विफल- मनोरथ होकर मिस्टर वालर का दल अभी हाल में ही लौटा है । मिस्टर वालर ने लिखा है कि यदि आरोही दल शीघ्र ही लौट न पड़ता तो गत वर्ष के नंगापर्वत के आरोही दल जैसी उसकी भी दशा हुई होती । इस सिलसिले में उन्होंने दार्जिलिंग के दो कुलियों - पालदीन और दावाथोनदम - की बड़ी प्रशंसा की है। ये दोनों सन् १९३३ की एवरेस्ट की चढ़ाई में भी गये थे और १६३४ की जर्मनदल की नंगापर्वत की भी चढ़ाई में थे । नंगा पर्वत पर जब श्ररोही दल का भयानक तूफ़ान से सामना हुआ था तब दावाथानदम दल के साथ था । उनका कहना है कि उपर्युक्त कुलियों जैसे लोगों के अभाव में हिमालय पर चढ़ना बहुत कठिन है । ये लोग उत्तरी नैपाल के निवासी हैं। उस अंचल के भूटिया लाग कष्ट - सहिष्णु ही नहीं होते, किन्तु पर्वतों पर चढ़ने की क्षमता इनमें जन्मजात होती है । इस विषय में ये संसार में अद्वितीय हैं। यदि ये लोग इस कार्य के लिए शिक्षित किये जायँ तो हिमालय की चढ़ाई में विशेष सुविधा हो सकती है ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[भाग ३६
निस्सन्देह अभी तक हिमालय दुरारोह ही सिद्ध हुआ है, परन्तु योरपीय श्रारोहियों का साहस भी अदम्य है । इसके सिवा उन्हें विफलताओं का काफ़ी अनुभव भी हो चुका है। ऐसी दशा में हिमालय के दुरारोह शिखर एक न एक दिन इन साहसी श्रारोहियों के आगे अवश्य नतमस्तक होंगे ।
दो योरपीय यात्री
योरपीय लोगों में विश्व पर्यटन की सदैव प्रवृत्ति रही है । और यद्यपि यात्रा के अब अनेक साधन उपलब्ध हो गये हैं, तो भी उनमें ऐसे लोग अब भी कभी कभी निकल आते हैं, जो पैदल या ऐसी ही किसी सवारी से संसार का भ्रमण करते हुए पाये जाते हैं । अभी हाल के दो अनोखे विश्वपर्यटक कलकत्ते आये थे । उन्होंने घोड़े की सवारी से संसार के एक बड़े भाग का भ्रमण किया है। ये दोनों पति-पत्नी हैं और वायना के निवासी हैं। सन् १६२६ के अप्रेल में वे अपने घर से निकले थे और नौ वर्ष से यात्रा कर रहे हैं। अब तक चालीस हज़ार मील चल चुके हैं।
कलकत्ते में उन्होंने असोशिएटेड प्रेस के प्रतिनिधि को बताया है कि वे छः घोड़े लेकर चले थे और हंगरी, यूनान, तुर्की, कुर्दिस्तान, अरब और ईरान होते हुए वे उन्हीं घोड़ों से मध्य एशिया पहुँचे । वहाँ से पामीर के पहाड़ों को पारकर पूर्वी तुर्किस्तान (सिन कियांग) को गये I परन्तु मार्ग में सोवियट अधिकारियों ने २० दिन तक उन्हें रोक रक्खा । अन्त में छः दिन तक अनशन करने पर जब ब्रिटिश कान्सल ने कहा-सुना तब छोड़ दिये गये । तब तकला मखन की मरुभूमि को पार कर वे तिब्बत पहुँचे, काराकोरम की पर्वतमाला के पास से वे लया आये और तब कश्मीर । १६२६ में वे भारत से ब्रह्मदेश, शानराज्य और स्याम गये । वहाँ से इंडोचीन होकर चीन गये । उस समय चीन में सरकार का बोल्शेविक चीनियों से युद्ध हो रहा था । अतएव उन्हें चीन की यात्रा करने की अनुमति नहीं मिली। तब वे स्टीमर से शंघाई और शंघाई से टीन्स्टेन गये । वहाँ से वे घोड़े पर मंचूरिया होकर मंगोलिया गये । वहाँ से वे सैबेरिया से अलास्का
www.umaragyanbhandar.com
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
सम्पादकीय नोट
२८१
होकर अमरीका जाना चाहते थे । पर रूस की सरकार से परन्तु हिंडेनबर्ग ने कहा-नहीं सौरब्रुच, जब तक मैं अनुमति प्राप्त होने में कठिनाई देखकर उन्होंने अपना बाइबिल का कुछ पाठ करता हूँ, तुम यहाँ रह सकते हो। विचार बदल दिया और मंगोलिया से घोड़ों पर वे २३ तब मैंने पर्दे को कुछ खींच लेना चाहा ताकि अधिक महीने में ब्रह्मदेश आये । यहाँ उन्होंने अपने घोड़े बेच प्रकाश आवे। परन्तु उन्होंने कहा-उसे उसी तरह डाले। अब वे स्टीमर से कैरो जायेंगे। वहाँ से घोड़ों पड़ा रहने दो। जो अंश मुझे पढ़ना है वह मुझे याद है। पर वे अफ्रीका की यात्रा करेंगे और सीधा केप-टाउन को यह कहकर उन्होंने बाइबिल उठा ली। बाइबिल की पुस्तक जायँगे । इस यात्रा के बाद वे अमेरिका व्याख्यान देने सदा उनके पलँग पर रक्खी रहती थी। उन्होंने जायँगे।
पन्द्रह मिनट तक धीरे-धीरे उसे पढ़ा। इसके बाद उन्होंने ___इस प्रकार ये दोनों पति-पत्नी सारे भू-मण्डल की किताब रख दी और मुझे पलँग के पास बुलाकर कहायात्रा करके अपने घर को लौटना चाहते हैं ।
सौरब्रुच, अच्छा अब तुम मित्र मृत्युदेव से कहो कि वे
कमरे के भीतर श्रा सकते हैं। इसके दूसरे दिन सवेरे स्वर्गीय राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग के सम्बन्ध में- फ़ील्ड मार्शल मर गये। सचमुच यह एक वीर जैसी
जर्मनी के स्वर्गीय राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग ने अपनी मृत्यु ही मृत्यु हुई । का जिस धैर्य के साथ स्वागत किया था उसका प्रामाणिक वर्णन उनके डाक्टर ने पत्रों में प्रकाशित करवाया है, भारत के जलवायु का प्रभाव जो इस प्रकार है
इतिहासज्ञों का कहना है कि गर्म देशां के निवासी पहली अगस्त के दोपहर को मैं फ़ील्डमार्शल के ठंडे देशों के निवासियों के मुकाबिले में कभी नहीं ठहर शयनागार में था। वे चाहते थे कि मैं उनके पास बना सके हैं। नागपुर के मारिस-कालेज के प्रिन्सपल डाक्टर रहा करूँ.चाहे मेरी ज़रूरत भी न हो। वे उस दिन बड़ी जी० प्रार० हंटर ने हाल में एक महत्त्वपूर्ण भाषण किय देर से चुप पड़े थे। इस तरह रहना उन्हें पसन्द भी था। है। उन्होंने उसमें कहा है कि भारतीयों की उन्नति का ऐसे अवसरों पर उनसे कोई कुछ नहीं कहता था, सबसे अधिक बाधक यहाँ का उष्ण जलवायु है। भारत अतएव मैं भी खिड़की के पास चुप बैठा बाहर बाग़ का में जो जो प्रगतिशील जातियाँ समय समय पर श्राकर दृश्य देख रहा था । एकाएक फ़ील्डमार्शल ने पुकार कर श्राबाद हुई हैं उनके भी पराभव का यही कारण हो सकता कहा-सौरब्रुच, क्या तुम अभी बैठे हो ? मैं उठकर उनके है। अगर आर्यों के इतिहास पर विचार किया जाय तो पास गया और पूछा-क्या अाज्ञा है ? देर तक मुझे हम उन्हें ऋग्वेद और उपनिषद् के काल के बीच में देखकर उन्होंने कहा- सौरब्रुच, तुमने सदा मुझसे सत्य ही अत्यन्त प्रबल अवस्था में पाते हैं, अर्थात् उनके पंजाब सत्य कहा है। आज भी तुम्हें सत्य ही कहना होगा । क्या में आने के समय से लेकर बुद्ध की मृत्यु के समय तक मित्र मृत्युदेव दुर्ग में आ गये हैं और मेरी राह देख रहे आर्य लोगों की शक्ति बराबर प्रबल रही, किन्तु उसके हैं ? मैंने उनके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर कहा- बाद उनका पराभव हुअा। यह बात यूनानी, शक नहीं फ़ील्डमार्शल, परन्तु वे मकान की परिक्रमा ज़रूर और कुशाण एवं मुसलमान अाक्रमणकारियों के सम्बन्ध कर रहे हैं । कुछ देर तक हिंडेनबर्ग चुप रहे। इसके में भी घटित होती है । प्रारम्भ में ये लोग प्रबल रहे, परन्तु बाद उन्होंने कहा-सौरब्रुच, तुमको धन्यवाद है | अब मैं बाद को इनका भी धीरे-धीरे पराभव हो गया। और कुछ अपने ऊपर के स्वामी से बातचीत करना चाहता हूँ। यह अंशों में यही बात योरपीयों पर भी चरितार्थ होती दिखाई कहकर उन्होंने ऊपर की ओर संकेत किया। मैं उठकर देती है। इनमें अँगरेज़ लोग अधिक सतर्क रहते हैं। वे खड़ा हो गया और चुपचाप वहाँ से चला जाना चाहा। अपना वैवाहिक सम्बन्ध ब्रिटेन से बनाये रहते हैं तथा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८२
सरस्वती
[भाग ३६
वहाँ आते-जाते भी रहते हैं। इसमें उनका स्वास्थ्य
भारत की दरिद्रता गिरने नहीं पाता। कहने का मतलब यह है कि यहाँ के भारत किसी समय संसार में सोने की चिड़िया के उष्ण जलवायु का लोगों के स्वास्थ्य पर बड़ा बुरा प्रभाव नाम से प्रसिद्ध था। परन्तु आज वह संसार का सबसे पड़ता है।
अधिक दरिद्र देश गिना जाता है। यह बात केवल परन्तु जलवायु का यह दूषित प्रभाव ऐसा नहीं भारतीय ही नहीं कहते हैं; किन्तु इसको स्वयं पाश्चात्य है कि इसका वारण न हो सके । दूसरे देशों के अनुभवों लोग भी कहते हैं, साथ ही सप्रमाण कहते हैं । अभी से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि जलवायु का दूषित हाल में प्रसिद्ध व्यङ्गय-चित्र-निर्माता मिस्टर जे० जी० प्रभाव बहुत कुछ दूर किया जा सकता है। इंग्लैंड के होर्राबिन ने अपने एक भाषण में भारत की दरिद्रता का दूषित जलवायु का प्रभाव नये ढंग के मकान बनाकर वर्णन किया है। उन्होंने कहा है कि भारत में प्रति व्यक्ति तथा पानी के निकास की उचित व्यवस्था कर दूर किया की प्राय का औसत २ पौंड वार्षिक है । इधर ब्रिटेन में जा चुका है। पहले शीत के प्राधिक्य से वहाँ के ५० पौंड वार्षिक आय का औसत है। और भारत की यह निवासी गठिया आदि रोगों से ग्रसित रहते थे, परन्तु रहन- दयनीय दशा उसके घरेलू धन्धों के विनष्ट हो जाने से सहन की प्रणाली में समुचित परिवर्तन कर देने से अब हुई है। सन्तोष की बात है कि अब जनता का, साथ ही वहाँ के लोग विशेष रूप से स्वस्थ रहते हैं। अभी अभी सरकार का भी ध्यान घरेलू धन्धों की ओर विशेष रूप से पनामा के मच्छड़ों को मारकर संयुक्त राज्य ने उस अंचल गया है । को मनुष्य के रहने के योग्य बना ही लिया है। परन्तु भारत के उष्णता-प्रधान जलवायु का प्रभाव दूर करना,
बर्लिन में श्रोलिम्पक गेम उक्त डाक्टर साहब की राय में, असाध्य है, तथापि उचित इस बार अोलिम्पिक खेल जर्मनी की राजधानी बर्लिन व्यवस्था करने से वह बहुत कुछ रोका जा सकता है। में अगले वर्ष जून में होंगे और उसमें काई ५६ राष्ट्रों उनका कहना है कि यदि बाल-बच्चों के पालन-पोषण की के खिलाड़ी भाग लेंगे। इस सम्बन्ध में प्रचार-कार्य अभी ओर समुचित ध्यान दिया जाय तो इससे विशेष लाभ से शुरू हो गया है। यह सूचित किया गया है कि प्रतिहोने की सम्भावना है। उदाहरण के लिए ग्रीष्मकाल में योगिता में भाग लेनेवालों तथा खेलनेवाली टीमों के यदि वे पहाड़ों पर रक्खे जाया करें तो इससे लाभ हो नाम १८ जून तक तथा वे क्या क्या खेलेंगी तथा कौन
न्तु यह एक उपाय भी सब किसी के लिए कौन खेलों में भाग लेंगी, इसकी सूचना २० जून तक सुलभ नहीं है । तथापि यह प्रश्न विशेष महत्त्व का है भिन्न भिन्न राष्ट्रों की तत्सम्बन्धी कमिटियों को बर्लिन और यदि इस सम्बन्ध में लोगों का समुचित रूप से ध्यान की तत्सम्बन्धी कमिटी के पास भेजना होगा। कुछ आकृष्ट किया जाय तो यदि उतना नहीं तो बहुत कुछ देशों ने अभी से आवश्यक सूचनायें भेज दी हैं। लाभ उठाया जा सकता है। पहाड़ी स्थानों के सिवा ऐसा जान पड़ता है कि संयुक्त राज्य ३२६, जापान २३०, दूसरे भी प्रयत्न किये जा सकते हैं, जिनसे इस देश के स्वीडन २२५, हंगेरी २४०, स्वीज़लैंड १००, पोलैंड १०३, निवासियों की गर्म जलवायु के प्रभाव से रक्षा की जा बल्गेरिया ७४, पेरू ४६, इस्टोनिया ५६ प्रतिद्वन्द्वी भेजेगा। सकती है। लोगों को साथ ही सरकारी स्वास्थ्य-विभाग अन्य देश अपने यहाँ से कितने खिलाड़ी भेजेंगे, इसका को भी, इस प्रश्न पर समुचित रूप से ध्यान देना ब्योरा अभी नहीं प्रकट हुआ है। चाहिए, क्योंकि यह समग्र राष्ट्र के जीवन-मरण का इस बार बर्लिन में १६ प्रकार के खेलों में प्रतिद्वप्रश्न है।
न्द्विता होगी। १६३२ में लास एंजिल में कुल १४ खेल हुए थे । इन १६ खेलों में भिन्न भिन्न राष्ट्रों के काई
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ४]
सम्पादकीय नोट
३३.
२५,६०० प्रतिद्वन्द्वी भाग लेंगे। कोई एक हज़ार निर्णायक आदि रखने का पूरा पूरा अधिकार सबको मिलना उतने ही सहायकों के साथ खेलों में हार-जीत का निर्णय चाहिए। करेंगे। ये खेल १६ दिन तक होंगे। देखें भारत इस बार
साम्प्रदायिकतावाद का विष कैसा रूप प्रकट करता है।
पंजाब इस समय साम्प्रदायिक आन्दोलन का केन्द्र
बन गया है। शहीदगंज के गुरुद्वारे की मस्जिद के अस्त्र-धारण करने का हक
सिक्खों-द्वारा गिरा दिये जाने से वहाँ का साम्प्रदायिक पञ्जाब में सिक्खों को कृपाण रखने का सरकार से आन्दोलन अधिक उग्ररूप धारण कर गया है। परन्तु कानूनी अधिकार प्राप्त है। पिछले दिनों दो दो कृपाणे पंजाब के इस आन्दोलन में वहाँ के सभी मुसलमान धारण करने के कारण सिक्खों पर दो मुकद्दमे चले। शामिल नहीं हैं । तो भी उसे उनके एक बहुत बड़े समूह पहले मुकदमे में तो मजिस्ट्रेट ने अभियुक्त को यह कह से सहायता मिल रही है। हाल में इस आन्दोलन ने कर छोड़ दिया कि कानून में ऐसा उल्लेख नहीं है कि अपना एक भयानक रूप प्रकट किया है। वह यह कि एक ही कृपाण धारण की जाय । परन्तु दूसरे मुक़द्दमे में इस आन्दोलन के प्रमुख संचालक मौलाना पीर जमायत अभियुक्त सिक्ख को सज़ा दे दी गई। इस पर अमृतसर अलीशाह ने यह घोषणा की है कि मुसलमान लोग गैर में सिक्ख दो दो कृपाणें लेकर जुलूस बना कर घूमें। मुसलमानों का माल न मोल लें। इस साम्प्रदायिक बाययह हो ही रहा था कि पंजाब के मुसलमानों ने तलवार काट के प्रचार से जो साम्प्रदायिक ईर्ष्या-द्वेष बढ़ेगा सो बाँधने की माँग पेश की। इस कशाकशी को देखकर तो बढ़ेगा ही, उसके साथ ही एक यह हानि भी होगी कि सरकार ने पंजाब-निवासियों को क्या सिक्ख, क्या मुमल- नये सुधारों के अनुसार पंजाब में समुचित रूप से शासनमान और क्या हिन्दू सबको तलवार बाँधने की अनुमति प्रबन्ध भी न हो सकेगा। सारे प्रान्त को विशेषाधिकारों दे दी है। से। इस प्रकार पंजाबियों को तलवार बाँधने का के शासन के अधीन रहकर ही कष्टप्रद जीवन व्यतीत करना अधिकार दे दिया गया है । आत्मरक्षा के लिए हथियार पड़ेगा। इस अवसर पर पंजाब का यह साम्प्रदायिक रखना प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। परन्तु संघर्ष सारे देश की शान्ति के लिए घातक ही नहीं सिद्ध भारतीय अपने इस अधिकार से भी वञ्चित हैं । तलवार होगा, किन्तु इससे देश की उन्नति का मार्ग भी अवरुद्ध क्या, उन्हें तो बन्दूक भी रखने का अधिकार मिलना हो जायगा। आश्चर्य है, इसके पुरस्कर्ता इस बात की चाहिए। डाकू तथा उनके जैसे दूसरे आततायी जब सभी ओर ध्यान नहीं देते। तरह के हथियार रखते ही नहीं, किन्तु आये दिन उनका उपयोग तक करते पाये जाते हैं और सरकार की पुलिस श्रीयुत राधामोहन गोकुल जी उनसे शान्तिप्रिय नागरिकों की रक्षा नहीं कर पाती है तब हिन्दी के वयोवृद्ध प्रसिद्ध लेखक श्रीयुत राधामोहन तो प्रत्येक नागरिक को अपनी जान-माल की रक्षा के लिए गोकुल जी का ३ सितम्बर को स्वर्गवास हो गया । आप बड़े सभी तरह के आवश्यक हथियार रखने का हक मिलना मिलनसार, सरल और उत्साही देशभक्त थे। समय समय चाहिए । पंजाबियों को तलवार रखने का अधिकार देकर पर अापने कई पत्रों का बड़ी दक्षता के साथ सम्पादन किया सरकार ने इस माँग के उपस्थित करने का मार्ग अपने आप है। नागपुर का 'प्रणवीर' आपकी इस ओर की योग्यता का परिष्कृत कर दिया है। जनता के नेताओं को इस ओर पूरा प्रमाण है। पत्र-पत्रिकाओं में श्राप बराबर लेख ध्यान देना चाहिए । और नहीं तो कम से कम देश के उन लिखते रहे हैं और सदा कोई उद्देश रखकर लिखते रहे उन भागों के निवासियों में से अधिकांश को जहाँ आये हैं। आपके कुछ महत्त्वपूर्ण लेख 'विप्लव' नाम से । दिन सशस्त्र डाके पड़ते रहते हैं, आत्मरक्षा के लिए बन्दूक्ने पुस्तक रूप से प्रकाशित हुए हैं। आप सदा किसी न
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
किसी लोक-सेवा के काम में बराबर लगे रहे हैं। इन मैं सब प्रकार से दुखी था, शरीर अलबत्ता अच्छा हो दिनों भी आप हमीरपुर जिले के कोही नामक स्थान में चुका था, केवल निर्बलता ही शेष थी जब कि यह स्वामी जी एक आदर्श कृषि-फ़ार्म के संगठन का काम कर रहे थे। मुझे यहाँ पकड़ लाये । प्रभो! बात यह है कि हम दोने श्राप देशभक्त संन्यासी के रूप में रहते थे। आपकी मृत्यु ने कानपुर-जेल में एक स्कीम बनाई थी। पर मैं तो लगा से हिन्दी में एक देशभक्त कर्तव्यपरायण लेखक का कर ३ वर्ष बीमारी के चक्कर में पड़ा रहा और इन्होंने विचार श्रभाव हुआ है।
को कार्य में परिणत कर डाला और ढूँढ़कर मुझे अपनी - आपने हमें ७ जुलाई को एक पत्र लिखा था, उससे प्रतिज्ञा पालन करने को पकड़ लाये । अाज हमारे विद्या. श्रापके पिछले दिनों के जीवन एवं विचारों पर काफ़ी लय के पास आधा ग्राम खोही (जिसमें ११०० बीघा प्रकाश पड़ता है। उसे हम यहाँ ज्यों का त्यों उद्धत करते हैं- धरती है) है। इसकी वार्षिक आय सरकारी देन काट प्यारे शुक्ल जी,
कर ३००) है। फिर हम अपने काम के लिए अन्न पैदा कर - आपका प्रेमपूर्ण पत्र मिला, पढकर असीम आनन्द लेते हैं, पशु भी रखते हैं। विचार है कि किसानों को हा। देव ! मैं सम्पादकों की कठिनाई, सुविधा-असुविधा, हम लोग वश भर लाभ पहुँचावें । आपका आशीर्वाद स्थान और विषयों के विचार आदि को अच्छी तरह जानता और हमारे अन्तःकरण में सचाई रही तो निस्सन्देह सफलता हूँ। उपालम्भ का तो मेरे हृदय में कभी विचार ही नहीं हमारे सामने हाथ जोड़कर आवेगी। होता। श्रापको अस्वीकृत रही लेखों को रद्दी की टोकरी में अवश्य 'सरस्वती' के लिए कुछ लिखकर भेजूंगा में भी तो डालने का अधिकार है। अपनी कृति सभी को और शीघ्र भेजूंगा। इसमें तो एक पंथ दो काजवाली उत्तम जान पड़ती है, परन्तु अपने बेटे का नाम पृथ्वी- बात है। कुछ जेब-खर्च मिल जाता है और आप सदृश पति रखने से वह पृथ्वीपति हो नहीं सकता। मेरा यह विद्वान् मित्र प्रसन्न होते हैं और शाबासी देते हैं । आजलेख किष्ट और विशेष लोगों के पढ़ने के लिए था, यदि कल मुझे ८) १०) मासिक बहुत ज़्यादा होता है और सर्वसाधारण के लिए निकलनेवाली पत्रिका में उसे समय पाकर साधन से सम्भव है, इसकी भी आवश्यकता स्थान न मिलता तो मैं रत्ती भर भी बरा न मानता। न रहे। स्वामा ब्रह्मानन्द बड़े त्यागी-उद्योगो और अध्यवफारसी की एक कहावत है कि 'मनानम कि मन दानम । सायी हैं। ये धन माँग कर लाते हैं, मैं स्टाक को लिए अर्थात् मैं खूब जानता हूँ कि मैं कौन हूँ। इस लेख को काम करता रहता हूँ। स्वामी जी पैसा हाथ से नहीं छते. छापने से मुझे निश्चय हुआ कि आप इस प्रकार के लेखों जहाँ जो मिलता है, रसीद देकर छोड़ देते हैं, बाद में और लेखकों को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं । कर्तव्य
विद्यालय में श्राता रहता है। इनका रहन-सहन श्राप वशात. पत्र के कल्याण की दृष्टि से आप ऐसे लेखों की देखेंगे तो प्रसन्न होंगे। कभी चित्रकूट पधारें तो हमको उपेक्षा करें, यह दूसरी बात है। क्यों न हो अाखिर बाप भा दशन द। विद्वान् और ब्राह्मण ही तो हैं । सच्चे जर्नेलिस्ट किसी के
आपका विचार पर पर्दा डालना उचित नहीं समझते । मैंने शुद्ध
राधे हृदय से आपको धन्यवाद दिया था।
भूल-सुधार __भगवान् ! श्रापको ज्ञात नहीं कि मैं अप्रेल के मध्य से पृष्ठ २६५ पर ब्रूसेल्स से हार्बिन शीर्षक लेख के साथ जुलाई के प्रारम्भ तक अनुमानतः तीन महीने बहुत बीमार प्रकाशित होनेवाली सम्पादकीय टिप्पणी में पाठक 'एलरहा, कुछ भी लिख-पढ़ नहीं सका। इस बीच में कानपुर को' के स्थान पर 'रंगून' और 'नायक' की जगह पर में पड़ा पड़ा मासिक पत्रिकाओं को लगातार पढ़ता रहा। 'नामक' पढ़ने की कृपा करें। और करता ही क्या ?
Printed and published by K. Mittra at The Indian Press, Ltd., Allahabad. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
ARUNKARMERST
w
.
4
.
सरस्वती
साचित्र मासिक पत्रिका
सम्पादक
देवीदत्त शुक्ल श्रीनाथसिंह
१. नवम्बर १९३५ }
भाग ३६, खंड २ । संख्या ५. पूर्ण संख्या ४३१
कातिक १६४२
बढ़ो!
लेखक, श्रीयुत सुमित्रानन्दन पन्त बढ़ो अभय, विश्वास-चरण धर ! मोचा वृथा न भव-भय-कातर :
व्यर्थ तर्क !-यह भव लोकोत्तर, ज्वाला के विश्वास के चरण,
बढ़ती लहर, बुद्धि से दुस्तर; जीवन-मरण समुद्र मन्तरण,
पार करो विश्वास-चरण धर ! सुख-दुख की लहरों के सिर पर, जीवन-पथ तमिस्रमय, निर्जन, पग धर पार करो भव-सागर ।
हरती भव-तम एक लघु-किरण, बढ़ो, बढ़ो, विश्वास-चरण घर !
यदि विश्वास हृदय में अणुभर, क्या जीवन ? क्यों ? क्या जग-कारण ?
देंगे पथ तुमको गिरि-सागर ! पाप-पुण्य. सुख-दुख का वारण ?
बढ़ो अमर विश्वाम-चरण धर !
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
% 3D
-
-
-
-
-
- -
यद्धों की अनिवार्यता
लेखक,
प्रोफेसर इन्द्र वेदालङ्कार,
एम० ए०
द्ध कब बन्द हो सकते हैं ? विक्षोभ है, कहीं अन्तर्जातीय वैमनस्य है और कहीं मनुष्य का स्वभाव है राष्ट्रों का पारस्परिक विरोध है। लड़ना । संसार के इतिहाम रोमन रोलॉ के सहश महान आत्मायें तथा में कौन-सा ऐमा काल है लेखक जैमी महस्रों क्षुद्र आत्मायें विश्व की शान्ति जब युद्ध न हाए हों, लड़ाइयाँ के लिए कितनी ही मूक प्रार्थनायें करें, परन्तु युद्ध
न हुई हों ? सत्ययुग में कब रुक सकते है ? संसार की सव आध्यात्मिक ....... भी देवासुर-संग्राम हाए, चेष्टायें, सब नैतिक प्रयत्न, सब धार्मिक उपदेश विफल त्रेता में मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम को युद्ध करना हैं, व्यर्थ है । युद्ध नहीं रुक सकत, न कभी रुक और पड़ा, द्वापर में प्रलयकारी महाभारत-ममर हुआ। न कभी मकेगे। मनुष्य में छिपा हुआ पशु अपनी कब युद्ध नहीं हए ? मानवीय प्रकृति में लड़ना कूट कूट पाविकता का नहीं छोड़ सकता । पशु-जगत में कर भरा हुआ है। मनुष्य का शरीर म्वयं निरन्तर सदाचार का कोई नियम नहीं, अन्तर्राष्ट्रीयता का लड़ाई का अवशेष-मात्र है। प्राणि-संमार में बुद्धि- कोई प्रयोग नहीं, धार्मिकता का कोई भाव नहीं। शील होने के कारण-परमात्मा की उत्कृष्ट सृष्टि उसमें बुद्धिशीलता की आशा करना मूखता है, नैतिक होने के कारण-मनुष्य, सत्ता के संघप में, विजयी आचार की कल्पना करना अनभिज्ञता है। उस होकर जीवित है। मनुष्यों में भी बलवान का जगत् का केवल एक नियम है, एक ही कानून है, एक निर्बल के साथ संघर्ष है-संग्राम है, और प्रत्येक ही कोड और एक ही आचार-परिमाण है। वह है अपने जीवित रहने के लिए युद्ध कर रहा है। वस्तुत: जंगल का नियम–अथवा प्राच्य राजनैतिक परिविश्व में सर्वत्र युद्ध का कोलाहल है । कहीं परिवारों भाषा में वह है मात्स्य न्याय । जैसे एक तालाब में का कलह है, कहीं भिन्न भिन्न समाज-श्रेणियों में या नदी में बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती
३८६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
युद्धों की अनिवार्यता
३८७
है, हड़प जाती है, उसी तरह पशुओं में भी हुआ कि वस्तु-स्थिति यह है कि आज हम एकदेशीय बलवान् निर्बल को अपना ग्रास बना लेता है। पशु- धर्म, ऐकान्तिक जातीयता आदि के लिए लड़ मरते जगत् में प्रत्येक कमजोर प्राणी अपने से बली प्राणी हैं और विश्व-धर्म की तरफ किसी का ध्यान भी का शिकार है, इसमें निर्बल की कोई रक्षा नहीं। नहीं जाता। यदि कोई विश्व-धर्म का नाम तक सचमुच निर्वल के जीने का अधिकार ही नहीं। लेता है तो वह आदर्शवादी, स्वप्नदर्शी आदि कह
मनुष्य भी तो एक पशु है-चौपाया नहीं तो कर हास्य का पात्र बनाया जाता है। दोपाया ही सही। धर्म, सभ्यता, सदाचार, नीति आदि तब यही सत्य है कि मनुष्य युद्ध-प्रिय है, स्वार्थतो केवल पागल दार्शनिकों के आविष्कार हैं। किसी परायण है, अल्प-दृष्टि है, आत्मैकनिष्ठ है और एक के सम्बन्ध में कोई अन्तिम निर्णय नहीं, कोई आचारहीन है। स्वभावतः घृणा करना, दूसरे की एकमत नहीं। भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार भिन्न उन्नति से जलना, अपने ही कल्याण में तन्मय रहना भिन्न परिभाषाओं के कारण धर्म आदि का कोई मानवीय धर्म है। एक समय था जब मनुष्य अपने स्वरूप निश्चित नहीं। सभ्यता तथा सदाचार की परिवार, अपने देश तथा अपनी जाति तक परोपकार कोई सर्वमान्य पद्धति नहीं। मनमानी नीति का करना अपना कर्तव्य समझता था, परन्तु आज लक्षण, धर्म का अनियमित आडम्बर मानवीय पाश्चात्य सभ्यता के कारण यह भावना भी प्रतिदिन बुद्धि पर कलङ्क है। क्या हुआ यदि मनुष्य ने ह्रास को प्राप्त हो रही है। हाँ, राजनैतिक उद्देश से एक वैज्ञानिक आविष्कारों से स्थल, जल और वायु पर हो जाना, अपनी स्वाधीनता-रक्षा अथवा सम्मानविजय प्राप्त कर लिया ? क्या हुआ यदि अनोखे रक्षा के लिए संगठित हो जाना अब तक भी स्वतंत्र भौतिक चमत्कारों से मानवीय प्रतिभा ने शायद देशों में अवशिष्ट है-यहाँ तक एक बन्धुत्व का ईश्वर को भी आश्चर्य-चकित कर दिया ? क्या हुआ अंश अब तक बचा हुआ है । इतना भी अवश्यमेव यदि दार्शनिक जगत् में उत्कृष्ट आध्यात्मिक कल्पनाओं प्रशंसा के योग्य है। मनुष्य का इतना महत्त्व तो की सृष्टि की जा सकी ? मनुष्य ने अब तक संसार अवश्य स्वीकार करना चाहिए कि कुछ सीमा तक के निःश्रेयस के लिए, विश्व के कल्याण के लिए कौन- उसने पाशविकता को दबाया है और मानवीय सा आविष्कार किया है ? उसने आज तक अपने भ्रातृत्व की कल्पना को सर्वथा विलुप्त होने से सुदीर्घ इतिहास-काल में ऐसा कौन-सा चमत्कार बचाया है। किया है जिससे संसार में होनेवाले रक्तपातों, ध्वंस- परन्तु किसी राजनीति-शास्त्र अथवा मनोविज्ञान कारी संहारों की समाप्ति हो सके ? ।
के विद्यार्थी को मनुष्य-स्वभाव की दुर्बलता तथा संसार के सत्यान्वेषकों, शास्त्रकारों, धर्म- असमता के कारण युद्धों की अनिवार्यता समझ में संस्थापकों ने अपने बुद्धिबल से कितनी ही सुन्दर आ सकती है, मनुष्य की अदूरदर्शिता-संकीणरचनायें की हैं। किसी ने उदात्त अदृश्य सृष्टि की रचना हृदयता के कारण विश्व-प्रेम की असम्भवनीयता की, किसी ने समाज-संगठन का निर्माण किया और बुद्धिगम्य हो सकती है। जो बात बिलकुल समझ में किसी ने अपने ही धर्मस्वरूप को सर्वोत्कृष्ट बतला- नहीं आती वह युद्ध-पोषकों की विचित्र तर्कशोलता कर अपने अनुयायियों में संघ-शक्ति का अद्भुत है। वे अच्छे-बुरे सब उपायों से युद्धों की उत्कृष्टता चमत्कार दिखलाया। परन्तु किसी ने विश्व के के गीत गाते हैं। उनकी सम्मति में युद्ध न केवल एक सर्वाङ्गीण अभ्युदय का मार्ग नहीं बतलाया । यदि अनिवार्य परन्तु अन्तर्जातीय व्यवस्था के लिए बतलाया भी तो उसका प्रभाव इतना थोड़ा आवश्यक तत्त्व है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८८
सरस्वती
विकासवाद के सिद्धान्त के अनुसार युद्ध एक बिलकुल प्राकृतिक घटना है। डार्विन की दृष्टि में मनुष्य का मनुष्य को मार देना सर्वथा स्वाभाविक है । यह प्रकृति का नियम है कि निर्बल संसार से विनष्ट हो जायें। इसके अनुसार बलवान जातियों का निर्बल जातियों पर आक्रमण करना नितरां अनिवार्य है | इस क़ानून से सृष्टि के किसी भाग का संहार हो जाना सर्वथा उपेक्षणीय है और संग्रामों की सत्ता संसार के तारतम्य को व्यवस्थित रखने के लिए आवश्यक है । यदि युद्ध न हो तो मनुष्यसृष्टि का स्वरूप अति भयानक तथा व्यवस्थाशून्य हो जाय ।
अर्थशास्त्री भी माल्थस की आबादी सम्बन्धी प्रसिद्ध कल्पना का समर्थन करते हुए युद्धों की अनिवार्यता पर विश्वास करते हैं। उनका कथन है कि संसार में खाद्य पदार्थों की उत्पत्ति परिमित होने के कारण भारी मनुष्य-संख्या को भूखों मरना पड़ेगा, अतः युद्धों द्वारा इस संख्या में कमी आ जाने से आबादी और उत्पत्ति के अनुपात का समतुलित रहना आवश्यक है । यदि युद्ध न होंगे तो महामारी और बीमारी के कारण जन-संहार होना निश्चित है । इसलिए युद्धों द्वारा ऐसा विनाश हो जाना मनुष्यजाति के अन्तिम कल्याण के लिए है। ये अर्थशास्त्री अन्तर्राष्ट्रीय संग्रामों का एक आर्थिक हेतु भी मानते हैं । वस्तुतः एक राष्ट्र आधुनिक युग में दूसरे देश पर केवल इसी लिए आक्रमण करता है कि वह अपने व्यवसाय के कच्चे माल को प्राप्त करने की भूमि प्राप्त कर सके तथा अपने तैयार किये हुए माल के लिए मार्केट निर्माण कर सके । केवल साम्राज्यवाद की लिप्सा जो कभी सिकन्दर, जूलियस सीजर और नेपोलियन में थी, आज कल के राष्ट्रों में प्रेरक हेतु नहीं । यदि योरपीय शक्तियाँ अपने अपने उपनिवेशों को अपने हाथ में रखना चाहती हैं और नये उपनिवेशों को विजय करना चाहती हैं तो उनका एक मात्र उद्देश अपनी आर्थिक अवस्था को उन्नत करना है । जब से व्यावसायिक क्रान्ति का प्रारम्भ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
हुआ है और अनल्पमान पर उत्पत्ति का प्रारम्भ हुआ है तब से उत्पन्न वस्तुओं के लिए मार्केट प्राप्त करने का सतत संघर्ष प्रत्येक शक्तिशाली राष्ट्र करता रहा है। इसी कारण आज सारे संसार में हाहाकार मचा हुआ है। इसी आर्थिक विषमता के परिणामस्वरूप युद्धों की बीभत्सता अपने नग्नरूप में प्रत्येक तत्त्ववेत्ता के सम्मुख नृत्य कर रही है । अर्थशास्त्रियों का तो निश्चित मत है कि संसार में संग्रामों का मूलोच्छेद न हो सकता है, न होना ही उचित है ।
ऐतिहासिक सम्प्रदाय के विचारक भी युद्ध की अनिवार्यता का पोषण करते हैं। उनके मतानुसार जहाँ कहीं जन-समाज है, वहीं संघर्ष का उत्पन्न होना प्राकृतिक है । प्रागैतिहासिक काल में वन्य जातियाँ परस्पर लड़ती रहती थीं । कुटुम्ब प्रथा के विकसित होने के बाद भी स्त्रियों के लिए पारस्परिक कलह बने रहते थे। नगर एवं राज्यों की स्थापना के अनन्तर भी युद्ध क़ायम ही रहे, जिनका साक्षी ग्रीस, रोम और भारत के मध्यकालीन संग्राम हैं। राष्ट्र के साम्राज्य संस्था में परिणत होने के बाद साम्राज्यलिप्सा के कारण ये युद्ध जारी रहे और उन्नीसवीं शताब्दी से जाति-राष्ट्रों में व्यावसायिक विस्तार के कारण ये अन्तर्देशीय कलह बड़े परिमाण में दृष्टिगोचर होने लगे । १९९४-१८ का यारपीय महासमर इस ऐतिहासिक श्रृंखलता का एक अन्तिम नमूना था । परन्तु इन युद्धों की समाप्ति यहीं पर नहीं हो जाती है। ऐसे अनेक युद्ध भविष्य में होंगे और इतिहास अनेक बार अपने को दोहरायेगा | यद्यपि राष्ट्र संघ की स्थापना हो चुकी है, तथापि ऐतिहासिक दूर दृष्टि से युद्धों की समाप्ति की कल्पना करना अपने को धोखे में डालना है ।
सबसे विचित्र तो मनोविज्ञानियों का तर्क है। देश भक्ति के भाव से भरे राष्ट्रवादी लोग 'स्वराष्ट्र को ही अपना परम ध्येय समझते हैं। उसके लिए किसी भी साधन वा कार्य को वे अनुचित नहीं मानते । अपने देश की रक्षा अथवा उन्नति के लिए वे सब प्रकार
www.umaragyanbhandar.com
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
युद्धों की अनिवार्यता
३८९
के वैध-अवैध, नैतिक-अनैतिक मार्ग का आश्रय सप्रसिद्ध दार्शनिक हेगल तो 'शान्ति' से घृणा लेना आवश्यक ही नहीं उचित समझते हैं। ऐसे करता है। उसके विचारानुसार शान्ति से देश में देशभक्त मतवाले लोग धर्म, शिष्टाचार, सभ्यता, पतन और पाप बढ़ता है। किसी जाति को आलस्य नीति आदि किसी वस्तु के बन्धन को स्वीकार नहीं में गिर जाने से बचाने के लिए समय समय पर यद्धकरते। वे सब सम्भव उपायों से अपने देशहित का दुन्दुभि का तुमुल नाद करना न केवल उपयोगी, सम्पादन करना चाहते हैं । युद्ध की अनैतिकता तो अपितु आवश्यक है। नीश्टे, हेकल, ट्रीटस्के प्रभृति उनकी समझ में ही नहीं आ सकती। युद्ध से भी बढ़कर अन्य जर्मन विचारक भी इन्हीं सिद्धान्तों का पोषण किसी जघन्य पाप को वे करने के लिए उद्यत रहते हैं, करते हैं। उनके कथनानुसार जातीय जागृति के लिए यदि उसके द्वारा उनके देश का कोई कार्य सिद्ध होता यद्ध अत्यन्त प्रभावशाली साधन हैं। मानवीय हो। सचमुच ऐसी संकीर्ण जातीयता और स्वराष्ट्र- उन्नति में यद्धों का होते रहना एक आवश्यक तत्त्व प्रियता की कल्पना ने ही युद्धों को संसार में बद्धमूल है। इनके द्वारा प्रसप्त आत्माओं में प्रबोध एवं कर दिया है।
कर्तव्यनिष्ठा के भाव उत्पन्न होते हैं। इन्हीं यद्धों से ऐसे राष्ट्रवादियों का तक भी कुछ समझने राष्ट्रीय आचार का उत्कर्ष होता है। जातीय अभिलायक है। उनका कथन है कि राष्ट्र-संस्था का जन्म मान के अतिरिक्त युद्धों-द्वारा एकता, संगठन, संघशक्ति वा ताक़त से हुआ है। उसकी स्थापना भी शक्ति का अद्भुत पाठ प्राप्त होता है। राष्ट्र के नवशक्ति पर है और उसका विस्तार भी शक्ति-द्वारा है। युवकों में देश-भक्ति की भावना भरने का युद्ध एक उसका नाश भी यदि होगा तो किसी ताक़त की सुवर्णीय अवसर होता है। ऐसे ही अवसरों में टक्कर से ही होगा। संक्षेपतः शक्ति ही राष्ट्र का एक- जातियों के भविष्य का निर्माण होता है। प्रिंस मात्र तत्त्व है--शक्ति ही इसका अाधार तथा प्राण बिस्मार्क ने ऐसे अवसर का लाभ उठाकर जर्मनहै। इस तरह जिस संस्था का शक्ति ही सर्वस्व हो राष्ट्र का निर्माण किया। हिटलर इन्हीं भावनाओं वह कब युद्ध से पराङ्मुख हो सकती है । युद्ध तो को आज पुनः जागृत कर जमनी के शक्ति-भांडार शक्ति-परिचय एवं शक्ति-सञ्चय का एक अनुपम का संग्रह कर रहा है। अवसर है। एक 'यहच्छा-अपावृत्त स्वर्ग्य-द्वार' है। वस्तुतः योरप के सामरिक वातावरण का हेतु कौन स्वाभिमानी देश ऐसे दुर्लभ मौक़ को अपने जर्मन विचारकों के उपर्युक्त लेख और विचार हैं। हाथ से जाने देगा ? कौन उन्नतिशाली राष्ट्र ऐसे आज पाश्चात्य देशों में परस्पर स्पर्धा है- ईर्ष्या हैसुवर्णावसर की उपेक्षा करेगा ?
वैमनस्य है केवल अपने सैनिक बल-संगठन करने इन राष्ट्रवादियों में जर्मन विचारकों का स्थान के लिए। प्रत्येक शक्ति अपने जलयानों और वायउच्चतम है। वे अपने देश को मातृभूमि ही नहीं, यानों की संख्या बढ़ाने में तत्पर है। जितना व्यय पितृभूमि भी मानते हैं। उनके मतानुसार जर्मनी का अस्त्र-शस्त्र तथा अन्य युद्ध-सामग्री के संग्रह में किया एक एक बच्चा देश के लिए है-और उसके जन्म, जा रहा है, उतना जातीय शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर पालन, शिक्षण का एकतम उद्देश स्वदेश की सम्मान- नहीं किया जाता। कितनी दुःखप्रद स्थिति है कि रक्षा तथा अभ्युदय है। इन विचारकों का मूलमन्त्र संसार के धन का अधिक भाग विनाशक गैसयन्त्रों, है-माइ कंट्री, राइट आर रांग अर्थात् मेरा देश, विध्वंसक हवाई जहाजों और प्रलयकारी संहारक भला या बुरा उनके उपदेशों का सार यही है-एक- तत्त्वों के एकत्रीकरण में ही खर्च किया जा रहा है ? मात्र संक्षेप यही है।
क्या यह सब मनुष्य-जाति का कलङ्क नहीं ? क्या
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[ भाग ३६
+
+
+
+
+
पाश्चात्य सभ्यता पर यह लाञ्छन नहीं ? मनुष्य शत्रुनाशोऽभ्युपगन्तव्यः' इन शब्दों द्वारा युद्धों की मनुष्य के खून का प्यासा हो, यह कैसा बीभत्स उपादेयता का दृढ़ समर्थन किया है। विचार है ? इटली अपने सैनिक बल के उन्माद में इन सब अवस्थाओं में लेखक के ये निराशामय निरीह बालकों, स्त्रियों, धात्रियों और चिकित्सकों वचन किसी सहृदय के हृदय को व्यथित न करेंगे की एक क्षण में हत्या कर देता है। यह भी कोई कि संसार में युद्धों की कदापि समाप्ति न होगी तथा सभ्यता है ! प्राचीन समय के युद्धों में ऐसी तबाही मनुष्यस्थित पशु अपनी पाशविक नग्न लीलाओं, की कल्पना भी नहीं हो सकती। युद्धों के भी नियम कुत्सित चेष्टाओं एवं घृणित ताण्डवों का कभी थे, बन्धन थे जिनसे सीमित होकर पदाति पदाति अन्त न करेगा। विश्व में शान्ति की कल्पना शतासे, अश्वारोही अश्वारोही से तथा रथारोही रथारोही ब्दियों तक केवल कल्पना-मात्र रहेगी-आदर्शसे ही संग्राम कर सकते थे। इन युद्धों में सर्व- वादियों का जगद्वन्धुत्व का आदर्श केवल एक संहार का जघन्य पाप - कुत्सित कृत्य तथा हृदय- आदर्शमात्र ही रहेगा। संसार के सब राष्ट्र, स्वार्थ हीन पाशविक व्यवहार कदापि दृष्टिगोचर नहीं के एकमात्र उद्देश से अपने देश, भूमि, व्यवसाय होता था। .
को उन्नत करने में अग्रसर होंगे और इस अन्धी __इस छोटे लेख में प्राचीन आर्य-युद्ध-मर्यादाओं दौड़ में मनुष्यत्व के एकत्व तथा भ्रातृत्व का विचार की विवेचना नहीं की जा सकती। इसका तो विचार- एक स्वप्रमात्र ही रहेगा। अनेक क्षुब्ध आत्मायें णीय विषय केवल युद्धों की अनिवार्यता है। हमने अपनी अन्तर्वेदनाओं के मूक आवेग में अन्तस्तल भिन्न भिन्न विचारशैलियों के आधार पर यह से एक साथ प्रार्थनायें करेंगी और भविष्य में होनेनिदर्शन करने का प्रयत्न किया है कि किस तरह वाले संहारकारी महायुद्ध का अवसान चाहेंगीयुद्धसंस्था की उपयोगिता तथा आवश्यकता पर परन्तु यह महायुद्ध रोकने से भी न रुकेगा। क्या
आज तक विश्वास किया गया है। न केवल अध- यह संभव है कि सैनिक बल से उन्मत्त संसार की शिक्षित व्यक्ति अपितु शिक्षित अग्रगण्य संसार के महाशक्तियाँ अपने अपने उन्माद में एक दूसरे पर विचारक भी युद्धों की अनिवार्यता को स्वीकार प्रहार किये बिना रह सकेंगी? और फिर इस महाकरते हैं। स्वयं भारतीय नीतिशास्त्रवेत्ता आचार्य प्रलय का जो भयानक परिणाम होगा उसे वर्षों चाणक्य ने युद्धों की अनुपयोगिता के एकदेशीय मत बाद आनेवाली मनुष्यसन्तति ही समझेगी। कौन का (जित्वाऽपि क्षीणदण्डकोष: पराजितो भवती. इस अवश्यम्भावी आते हुए महासंहार को रोक त्याचार्याः) निराकरण करके 'सुमहताऽपि व्ययेन सकता है ?
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
.....
पक्षियों का अद्भुत सहज ज्ञान
लेखक, श्रीयुत सन्तराम, बी० ए०
श्रीयुत सन्तरामजी ने वैज्ञानिक अनुसन्धानों के आधार पर इस लेग्व में पक्षियों की कुछ जन्मजात अदभुत बातों का प्रामाणिक वर्णन किया है जो रोचक होने के साथ माथ जानवर्द्धक भी है।
नाय का वच्चा जब संसार के बच्चे का भी मिली होती ना वह पालन से छलाँग में आता है तब वहत अपूर्ण मारकर निकलते ही रोकड़ का हिसाव लिखने और अवस्था में होता है। उसे हवाई जहाज़ बनाने लगता । इस दृष्टि से पक्षी मनुष्य खाना-पीना, उठना-बैठना, की अपेक्षा अधिक भाग्यवान है। चलना-फिरना, बोलना- उदाहरण के लिए पक्षियों के घोंसलों को ही ले तैरना.सोचना आदि मभी लीजिए । काई उनको घामला बनाना नहीं सिखाता।
क्रियाय मिखानी पड़ती हैं। फिर भी बया, धोबी, दर्जिन आदि पक्षी ऐसे सुन्दर बिना मिखाये वह कुछ भी नहीं जान सकता । परन्तु नीड़ बनाते हैं कि देखकर आश्चर्य होने लगता पशु-पक्षियों के सम्बन्ध में यह बात नह।। मुर्गी का है। आस्ट्रेलिया में एक प्रकार का पेरू पक्षो होता बच्चा अंडे से निकलते ही चुगने लगता है, मुगाबी का है। वह झाड़ियों में रहता है। उसे 'तापमापक पक्षी' बच्चा जन्म लेते ही तैरने लगता है। उन सबका मिखाने भी कहते हैं। उसको जब घोंसला बनाना होता है की जरूरत नहीं होती। जीवन के सोपान में जो प्राणी तव पहले नर और मादा मिलकर पोली रेतीली भूमि जितना नीचे है, उतना ही अधिक उसका बच्चा में जहाँ धूप नहीं लगती होती, एक फुट गहरा गड्ढा जीवन-संग्राम के योग्य क्षमता लेकर संसार में आता खोदते हैं। उसमें वे मुआये हुए पत्तों और पौधों है। जीवन-संग्राम के योग्य जिस तैयारी के साथ पक्षी का फ़श बिछाते हैं। उसे धूप और वर्षा में खुला का बच्चा अंडे से निकलता है, यदि वही तैयारी मनुष्य पड़ा रहने देते हैं। उसके पत्ते और पौधे सड़ने लगते
३९१
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९२
हैं तब उस सड़ी-गली घास में एक मजबूत घोंसला बनाया जाता है। इसकी दीवारें कोमल कोमल दह नियों को बुनकर बनाई जाती हैं। इस प्रकार एक गज़ ऊँचा और चार फुट व्यास का एक टीला खड़ा हो जाता है । छः या नौ दिन बाद पक्षी वापस
सरस्वती
कर टीले को खोलता है और मादा उसमें एक अंडा दे देती है । फिर वह तीन तीन दिन बाद आकर एक एक अंडा देती जाती है । सब मिलाकर वह १४ अंडे देती है। हर बार टीले को खोलकर अंडा देने के बाद फिर बन्द कर दिया जाता है। सूर्य के ताप से गड्ढे की फफूँदी में खमीर उठने लगता है। इससे कोई ९० दर्जे का स्थिर तापमान पैदा हो जाता है और पेरू के अंडे पककर बच्चे निकल आते हैं। यदि मौसम बहुत अधिक गरम हो जाता है तो पेरू टीले के इर्द-गिर्द की रेत को पोला कर देते हैं ताकि अंडों को ठंडी हवा लगती रहे । ४५ दिन में चूजे निकल आते हैं और भूमि में से ऊपर चढ़कर चंपत हो जाते हैं। पहले लोगों की धारणा थी कि यह सब क्रिया पेरू विचारपूर्वक करता है । परन्तु अब मालूम हुआ है कि ऐसी बात नहीं ।
विद्वानों की शताब्दियों तक यही धारणा रही है कि पक्षियों में बहुत बड़ी बुद्धि होती है । परन्तु प्राणि-शास्त्रियों का अध्ययन दिन पर दिन बढ़ रहा है। पक्षियों के स्वभाव के सम्बन्ध में अब उनका ज्ञान पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है। अब उन्हें इसका ज्ञान हो गया है कि पक्षियों में विचार-शक्ति बिलकुल नहीं | उनको इसकी आवश्यकता भी नहीं । उनके सभी चातुर्यपूर्ण जटिल कार्यों में सहज ज्ञान ही उनका पथ-प्रदर्शन करता है ।
न्यूयार्क में जीव-विद्या के अजायबघर के डाक्टर रावर्ट कुशमन मर्फी का मत है कि " तोते, कौए और गवैये पक्षियों जैसे उच्च कोटि के पक्षियों में भी विचार करने का यन्त्र बहुत कम होता है। उनका मानसिक यंत्र मनुष्य की अपेक्षा कीड़े के यन्त्र से अधिक मिलता है। पक्षियों में सहज ज्ञान
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[भाग ३६
का यन्त्र रहता है, और वे इस बात को न जानते हुए कि हम अमुक काम क्यों करते हैं, उस काम को करते हैं; उनका जीवन उत्तेजनाओं और प्रत्युत्तरों की एक शृङ्खला सी होती है। हमें उनकी मूर्खता का पता तभी लगता है जब किसी दुर्योग से वह शृङ्खला टूट जाती है ।"
वर्ष की विशेष ऋतुओं में मादा पक्षी को मातृत्व की भावना आ दवाती है । वह बैठने की प्रबल लालसा को रोक नहीं सकती। यदि घोंसले में कोई भी अंडा नहीं होता तो वह किवाड़ के लट्ट पर ही बैठने लगती है। बच्चों को छोड़ कर मारा लाने के लिए कई कई मील जाना पड़ता है, और वह ठीक वहीं वापिस आ जाती है जहाँ से गई थी। इसमें उससे कभी भूल नहीं होती। परन्तु तनिक घोंसले को उठाकर एक गज़ इधर या एक गज़ उधर रख दीजिए। अब मादा उसे नहीं ढूँढ़ सकेगी। वह उड़कर परे चली जाती है, फिर उसी स्थान पर लौट आती है, और फिर उड़ जाती है। इस प्रकार उसे कई बार घण्टों लग जाते हैं । तब कहीं वह अपनी
की बेड़ियों से छुटकारा पाकर घोंसले को ढूँढ़ पाती है। वह बार बार भूल से ग़लत जगह पर चली जाती है और जब वहाँ घोंसला नहीं मिलता तब फिर दूसरे स्थान पर खोजने का यत्न करती है ।
डाक्टर बताते हैं कि " बहुत-से पक्षी घर को खूब सँभालते हैं और घोंसले को बहुत साफ़सुथरा रखते हैं । घोंसले में जो बीट आदि गिरती है। उसे उठाकर वे दूर फेंक आते हैं। इससे घोंसले का निशान बतानेवाली कोई चीज़ वहाँ पड़ी नहीं रहती और घोंसला छिपा भी रहता है। इससे कई लोग विश्वास करने लगे हैं कि इनकी सफाई उच्च कोटि की बुद्धि का परिणाम है । परन्तु कैम्ब्रिजविश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के एक समूह ने २० साधारण पक्षियों के घोंसलों की निगरानी की। जो भी रोयाँ या बीट घोंसले में गिरती थी वे उसे चिमटों से उठा लेते थे। इससे घोंसले निरन्तर साफ़
www.umaragyanbhandar.com
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्षियों का अद्भुत सहज ज्ञान
संख्या ५ ]
रहते थे। हर बार जब मा बच्चों के लिए कोई कीड़ा लाती थी तब घोंसले से जाते समय वह कुछ न कुछ साथ ले जाती थी । परन्तु वहाँ कोई बीट या
में
तो गिरा नहीं होता था । इसलिए वह घोंसले एक टहनी ही निकाल कर ले जाती थी। उसका यह काम —- कुछ न कुछ लाना और कुछ न कुछ ले जाना - एक यंत्र की तरह होता था । कुछ ही काल में उसने सारे घोंसले को नष्ट कर दिया ।"
अफ्रीका में एक प्रकार का बया होता है । वह अपना घोंसला बनाने के लिए कोमल टहनियों को बड़ी जटिल गाँठे देकर बाँधता है । एक समय ऐसा मान लिया गया था कि यह बया टहनियों को इस प्रकार बुनने की विद्या अपने बड़े बूढ़ों से सीखता है, और इसमें बहुत उच्च कोटि की बुद्धि होती है । तब इसका एक अंडा चिड़िया घर में लाया गया और कृत्रिम रीति से उसे सेकर बच्चा निकाला गया । इस बच्चे ने अपनी जाति का दूसरा पक्षी कभी देखा ही न था । परन्तु उचित आयु को पहुँच कर यह उसी प्रकार टहनियों में जटिल गाँठे लगा कर उनको बाँधने लग गया ।
इतना ही नहीं कि पक्षियों को प्रकृति देवी ने सहज ज्ञान का दान देते समय बहुत उदारता से काम लिया है, बरन जितना उनकी इन्द्रियाँ तीक्ष्ण होती हैं, उतना दूसरे किसी भी जीव की नहीं होतीं । उनकी श्रवण-शक्ति के सर्वोत्तम होने के उदाहरण तो अनेक हैं । समस्त भूमण्डल की जङ्गली जातियाँ अपनी झोप - ड़ियों की रक्षा के लिए बत्तनें या दूसरे मुर्ग पालती हैं। शत्रु भी बहुत दूर ही होता है कि ये पक्षी सबसे पहले उसके आने की आवाज सुन लेते हैं। बत्तखों के बोलने की आवाज सुनकर कुत्ते भी ऊंघ से जाग कर भोंकने लगते हैं । गत योरपीय महायुद्ध में फ्रांसीसी क़िलों में और ईफ़ल टावर में तोते रक्खे गये थे । वे हवाई जहाज़ों के दिखाई देने के बहुत पहले ही उनके आने की सूचना दे देते थे । यह बात एक ऐतिहासिक सत्य है कि सन् १९१५ में डोगर बैंक
फा. २
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
३९३
की समुद्री लड़ाई में तीतरों और दूसरे छोटे पक्षियों ने २१६ मील की दूरी से तोपों के चलने की आवाज़ सुन ली थी। दूसरे पास बैठे हुए लोगों को तो कुछ सुनाई नहीं देता था, परन्तु ये पक्षी भय से चिल्ला रहे थे ।
सुनने की शक्ति के समान ही पक्षियों में देखने की शक्ति भी असाधारण होती है । उनकी आँखें सिर के दोनों ओर होती हैं और एक केन्द्र पर इकट्ठी नहीं होतीं, इसलिए उनकी दृष्टि के दो क्षेत्र होते हैंजब एक काम करता है तब दूसरा दबा रहता है । परन्तु इससे भी बढ़कर महत्त्व की बात यह है कि इनकी आँखें बदलकर अपने को अवस्था के अनु कूल बना सकती हैं। विलियम बीब नामक विद्वान् का कथन है कि पक्षी की आँख “एक क्षरण में बदल कर अपने को दूरदर्शक से सूक्ष्मदर्शक बना सकती है।" मुर्गी एक तरफ तो आकाश में दूर पर उड़ती हुई चील को देख लेती है और दूसरे ही क्षरण धूल पड़े कीड़ों के महीन अंडों को चुगने लगती है । अबाबील ६० मील प्रतिघण्टा के वेग से उड़ती हुई सुई के नाक के बराबर छोटे कीटों को पकड़ लेती है ।
में
एक देश को छोड़कर दूसरे देश में चले जाना पक्षियों की एक बड़ी ही आश्चर्य जनक बात है । उनके इस कर्म से लोगों में अनन्त कल्पनायें उठती हैं। पर वैज्ञानिकों का मत है कि जब पक्षियों के देशान्तर - गमन की ऋतु आती है तब खुद उनमें कुछ रासायनिक संक्षोभ पैदा हो जाते हैं- पिंजरे में बन्द पक्षी भी उस काल में अशान्त और असन्तुष्ट दीखने लगता है ।
देशान्तर - गमन के समय पक्षियों के उड़ने के. वेगों की मनोरञ्जक सूचियाँ तैयार की गई हैं। डॉरल नाम की चिड़िया बम्ब के गोले की तरह योरप को पार करती है । वह सवेरे की बियारी उत्तरी अफ्रीका में कर दूसरे दिन कलेवा स्कण्डीनेविया में जाकर करती है । मटियाले गालोंवाली थूश
www.umaragyanbhandar.com
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९४
सरस्वती
नामक चिड़िया दक्षिणी यूनाइटेड स्टेट्स में एप्रिल में पहुँचती है और एक मास बाद अलास्का द्वीप में जा उतरती है । इस प्रकार वह १३० मील प्रतिदिन के औसत से यात्रा करती है ।
कौन दिङ्-निर्णायक यंत्र (कम्पास ) इन पखेरु को मार्ग दिखाता है ? इनके पास दिशा का बोध करानेवाली जो अचूक चीज़ है उसकी बराबरी मनुष्य - निर्मित कोई भी यंत्र नहीं कर सकता । पश्चिम की सुनहरे रङ्ग की प्लोवर नामक चिड़िया अलास्का से दक्षिण-पश्चिम दिशा में उड़कर एल्यूशियन द्वीपों में जाती है, वहाँ से शून्य प्रशान्त महासागर के अन्तर्गत नन्हें से हवाई द्वीप की ओर दौड़ती है। एटलांटिक महासागर के किनारे की सुनहरी प्लोवर नोवास्कोशिया से उड़कर सीधी
[ भांग ३६
दक्षिण अमेरिका में पहुँचती है । वह रास्ते में किसी स्थान पर भी स्थल का स्पर्श नहीं करती। फिर वसन्त में वह दूसरे मार्ग से - मिसिसिपी - घाटी के ऊपर से स्थल को पार करती हुई- - सागर तट को वापस आ जाती है। सुमेरु- प्रदेश में रहनेवाली टर्न नामक चिड़िया के घोंसले उत्तर ध्रुव से केवल ४५० मील की दूरी पर मिले हैं। यह चिड़िया शरद् ऋतु बिताने के
लिए ११,००० मील उड़कर दक्षिण ध्रुव के बर्फानी समुद्रों को जाती है । यह इतनी यात्रा कैसे करती है ? आप चाहें तो इसे लोकोत्तर - क्रिया कह सकते हैं । परन्तु वैज्ञानिक लोग तो केवल इतना ही कह सकते हैं कि पक्षियों में यह अद्भुत शक्ति जन्म- सिद्ध है ।
जीवन के काँटे
लेखक, श्रीयुत श्रीमन्नारायण अग्रवाल, एम० ए०
जीवन के काँटे सुलझाओ ।
रक्त-सित, प्रति दुखित पड़ा मैं, प्रेयसि, अब तुम अपनाओ ॥
निकला था मैं शान्ति खोजने, ऊषा की लाली की ओर । चलते चलते बैठा थककर, कहीं नहीं था दुख का छोर ।। प्रकृति-रूप की सुखमा देखी, उडगरण-युत अंबर देखा । सागर की तरल तरङ्गों का, क्रीड़ामय कलरव देखा ||
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
देखा ज्ञान- कुंड का गौरव, विद्या की शुचि कली खिली । किन्तु शान्ति की झलक कहीं भी, प्रेयसि ! मुझको नहीं मिली || शूलों से है हृदय-विद्धि प्रिय, अब तो तुम ही अपनाओ । मनुज - प्रीति के सुखद मन्त्र से, इन काँटों को सुलझा ॥
www.umaragyanbhandar.com
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक मनोवैज्ञानिक कहानी
जेमी
रहे हैं
"
लेखक, श्रीयुत धर्मवीर, एम० ए० ME DIA च्छा, तो श्राज जनाब सैर को उतरा हूँगा कि ऊपर से डाक्टर साहब की आवाज़ पड़ी
___ "कुमार जी, ज़रा जेमी को भी साथ लेते जाना।" A मैं कुरते के बटन बन्द मैं वहीं खड़ा हो गया। कुछ क्रोध-सा भी आ गया ।
कर रहा था कि ये शब्द क्रोध में ही उलटे पाँव ऊपर चढ़ पाया और बाहर से ही
डाक्टर साहब ने मुझसे कहे। मज़ाक में कहा-"तो क्या मुझे अब जेमी जैसों को भी ख छड़ी उठाते हुए मैंने जवाब अपने साथ घसीटना पड़ेगा ? भई, मुझसे यह न होगा;
। दिया-"हाँ जनाब, जा तो मैं इस सैर से बाज़ आया ।" रहा हूँ अगर आप लोग इजाज़त दें।"
भाई साहब ने समझा कि मैं ग़स्से में हूँ। वे अपनी “ज़रूर जाइए ।” भाई साहब कहने लगे-"सैर चारपाई से उठे, गरम चादर प्रोढ़ी और ऊपर चल होनी अच्छी होती है अगर्चे हमसे नहीं किये बनती। दिये। जानते थे कि अब इसको कुछ कहना भिड़ों के इससे शायद तुम्हारा कब्ज़ भी जाता रहेगा।"
छत्ते में हाथ देना है। मैं कुर्सी पर बैठा था। जेमी साहब मैं बोला-"सर्दियों की सैर का मेरा यह पहला दिन मेरे सामने विराजमान थे। मुझे शायद गुस्सा आया हुआ है । मैंने फैसला किया है कि आज से बाकायदा सैर को था, लेकिन उसकी तो मानहानि हुई थी, इसलिए ऐसा जाया करूँगा । लेकिन अब तो डाक्टरी मशविरा भी मिल मालूम देता था कि वह गुस्से से सूजा बैठा है । मैंने रहा है, इसलिए........."
कहा-“भई, माफ़ करना । मैं तुम्हारे खिलाफ़ कुछ नहीं "नहीं नहीं, बतौर डाक्टर नहीं कह रहा था।" कह रहा हूँ। मैं तो.........." अँगड़ाई लेते हुए उन्होंने कहा। कुछ क्षण ठहरकर वे जेमी ने मेरी बात पूरी न होने दी और नाक से पूँ फिर बोले-"अरे भाई, चौबुर्जी तो तुम्हें जाना ही है। करके मुँह दूसरी तरफ़ फेर लिया। मैंने समझा मुझसे आज ज़रा-सा आगे चले जाना। सरकारी क्वार्टर वहाँ से ग़लती हुई है। मन में पाया-अगर तुम एक बार ऊपर दूर तो है नहीं ........."
आ गये तो इसमें तुम्हारा हर्ज ही क्या हो गया। जेमी ___" 'श्राज' का क्या मतलब ?” मैंने उनकी बात काट की तरफ़ देखा तो वह ज्यों का त्यों रूठा बैठा था। कर कहा-"क्या मैं रोज़ जाता हूँ ? भाई साहब, यह तो अपनी ठोड़ी वह अजीब ढंग से रक्खे था। मुझे मेरा पहला दिन है । खैर, चला जाऊँगा । कहिए।" अपने आपसे कुछ घृणा-सी हुई । मैं धीरे से उठा और ___"दो-चार दिन के बाद सोहाग-भाग का व्रत है, इस- दरवाजे के बाहर निकलते हुए जेमी की तरफ़ इशारा लिए मा जी ने छोटी भौजाई के लिए मिठाई और रुपये किया। कोई और होता तो शायद न मानती, लेकिन जेमी भेजे हैं । ये वहाँ उसे देते श्राना।"
में यह बात नहीं है। वह गुस्से के कारण बहुत जल्द __ "भई, चौबुर्जी के आगे तो उस सड़क पर बहुत गर्द रूठ जाता है, परन्तु फिर खुशी के कारण जल्द मान भी है। अच्छा. देता आऊँगा।"
__ जाता है । इशारा पाते ही वह मेरे साथ हो लिया। धन्नू ने उन चीज़ों को रूमाल में बाँध दिया। मैं . कई व्यक्तियों की आदत होती है कि वे लड़ाई मोल उसे लेकर नीचे उतर गया। अभी आधी ही सीढ़ियाँ लेते हैं । जेमी का शुमार उनमें नहीं है । वह जान-बूझकर
३९५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९६
सरस्वती
[भाग ३६
किसी से लड़ने की इच्छा नहीं करता। हाँ, अगर दूसरा कारण कि गन्दे नाले के पुल से पहले ही साँस अपनी लड़ाई करने पर उतारू बैठा हो तो फिर वह भी पीछे स्वाभाविक गति पर श्रा जाय । वर्ना पुल को अगर नहीं हटता। लेकिन अगर स्वयं जेमी में लड़ाई करने की दौड़ते-दौड़ते पार किया तो सारा दिमाग़ लाहौर की इच्छा होती तो मैं उसे अच्छा शकुन ही समझता। गन्दगी से तर हो जायगा। सैर के बाद अगर दो घंटे तक छुटपन में ही अगर बच्चे में शांतिप्रियता की इच्छा ज़ोरों दर्द के मारे सिर बाँधना पड़ा तो ऐसी सैर शायद महँगा पर हो तो बड़ा होने पर वह किसी के अाक्रमण का उत्तर सौदा ही कहलायेगी। नहीं दे सकता। बल्कि तब वह आक्रमण से बचने की इस समय तरह तरह के खयाल आये। चौबुर्जी के कोशिश करता है जो कायरता में शामिल है। पास इस वक्त जो खेत हैं यहाँ एक समय रावी नदी ___ अनारकली को पार करने के बाद हम पुरानी अनार- बहती थी। चौबुर्जी के बनानेवालों के दिल में कला से कली में दाखिल हुए। यहाँ भंगी झाड़ दे रहा था। कितना प्रेम था। इतने में हम गवर्नमेंट क्वार्टरों के सारी सड़क पर गर्द उड़ रही थी। मैं तो रूमाल से नाक नज़दीक जा पहुंचे। बंद कर इस इन्तिज़ार में एक तरफ़ हो गया कि कब गर्द अब एक अन्य विचार-धारा मन में उठी। गवर्नमेंट ज़रा थमे और मैं परली तरफ़ जाऊँ। लेकिन जेमी ने ने अच्छा ही किया जो बेचारे दफ्तरों के बाबुओं को इसकी कुछ परवा न की। वह मेरी अपेक्षा तेज़ भी ऐसी खुली जगह मकान बनवा दिये हैं। नहीं तो लाहौर ज्यादा है। इसलिए नाक सिकोड़ कर झट पार हो की तंग गलियों में रहनेवाले इन ग़रीबों के बाल-बच्चे गया। कुछ दूर जाकर वह मेरे लिए खड़ा हो गया। जब कहाँ और खुले आकाश के अधिक सूर्य और वायुदेव के मैं पास पहुँचा तब वह फिर तेज़ हो गया।
दर्शन कहाँ ? लेकिन इस खुली हवा का फायदा ही क्या ? मेरे मन में पता नहीं क्या विचार आया-या तो हर समय हवा के चलने के साथ गंदे नाले की बदबू भी साथी की तेज़-रफ़्तारी से मेरे अंदर ईर्ष्या पैदा हुई या छुट- बहती चली आये ? क्वार्टरों में रहनेवाले उस समय चाहे पन का कोई पुराना संस्कार जाग उठा—मैंने दौड़ना कहीं छिप जायँ, लेकिन वह बदबू फिर भी उनका पीछा शुरू कर दिया । चौबुर्जी तक दौड़ता ही चला गया। नहीं छोड़ती। शहर के कई लोगों को शिकायत है कि जब पाँव और टाँगें कुछ तो खुलीं। जेमी भी अब बहुत खुश से ये क्वार्टर बने हमारे मकानों को किसी किरायेदार ने पूछा मालूम देता था। लाहौर में आये अभी उसे कुल एक तक नहीं। जहाँ पहले लाहौर में मकान का होना हफ़्ता ही हश्रा था। इस अरसे में उसे घर का कोई भी प्राय का एक साधन था, वहाँ अब उसकी देख-रेख पर आदमी मकान की चहारदीवारी के बाहर न लेकर आया गिरह से खर्च करना पड़ता है। बाबू लोग मौज में रहे; था । लाता भी कौन ? डाक्टर साहब अपनी किताबों और दस फी सदी काट कटवाई और इन बँगला-नुमा क्वार्टरों अस्पताल के अलावा तीसरी बात जानते नहीं। पाल और में जा टिके । लेकिन इसके साथ ही उनको एक शिकायत किड बच्चे ठहरे । जेमी को साथ लेकर वे बाहर जायँ तो भी है । अगर कहीं घर में मेम साहब या कोई बच्चा बीमार डर है कि उसे नई चीजें दिखाते-दिखाते कहीं खद भी न हो जाता है तो शहर से डाक्टर बुलाते बुलाते टाँगों का भूल जाय। बाकी रहा मैं। मुझे अखबार में दिन के कचूमर निकल जाता है, सिर पर जो कर्ज हो जाता है अलावा रात को भी ड्यूटी देनी पड़ती थी। अब वह अलग। मुश्किल से एक महीने के लिए रात की ड्यूटी से जान इन्हीं विचारों में मारकेट गुज़र गया, ग्राउंड भी गुज़र छूटी है । यही कारण है कि सुबह को सैर की ठानी। गया, गैर-सरकारी दूकानें निकल गई और मंदिर भी निकल
चौबुर्जी से कुछ पहले ही मैंने दौड़ना बन्द कर दिया गया। मोड़ मुड़कर हमने अपने आपको भाई साहब के था-वहाँ जहाँ यूनिवर्सिटी ग्राऊंड खतम होता है । इस दरवाजे के सामने खड़ा पाया। दरवाजा खटखटाया ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
सख्या ५]
जेमी
३९७
नौकर ने साँकल खोली। उसने प्रणाम किया। मैंने तब उन्होंने मुड़कर देखा कि बलंदी तो सचमुच ही कुप्पी पूछा-'कहो जी बलंदीराम, क्या हाल है ?" लेकर दरवाज़े में तेल डाल रहा है। ___मेरे सवाल का जवाब वह अभी न दे पाया था कि "खसम नें खाणियाँ* !” कहकर वे उस तरफ़ उधर से बरामदे में खड़ी भौजाई आँगन में आ गई। दौड़ी। छोकरे के मुँह पर उन्होंने दो थप्पड़ जमाये । वह मुझे देखकर वे बलंदी को गालियाँ देने लगीं-"अरे बेचारा कुछ तो पहले ही घबराया हुश्रा था, अब थप्पड़ अंधे, कुछ बताया भी तो कर कि कौन आया है। गधे, लगे तब उसके हाथ से कुप्पी छूट गई । पटाक-से वह नीचे पहले तुझको दरवाज़े पर तेल चुत्राना था। फिर इन्हें जा गिरी। तेल का फव्वारा छूटा। बहुत-से छींटे भौजाई दाखिल होने देता। अब झटपट वहाँ जा। बैठक के के कपड़ों पर गिरे, और तेल तमाम फर्श पर फैल गया। दरवाज़े पर ही तेल चुत्रा दे यदि ये अन्दर जायँ ।" दीवार से टँगी तसवीरें खराब हो गई। खुद दीवार पर
ये बातें भौजाई ने इतनी गंभीरता से कही थीं कि मैं कई चटाख पड़ गये। हैरान हो गया। आश्चर्य हुआ कि वे तेल क्यों चुभाना मैंने यह दृश्य देखा तब हँसी आ गई । दौड़कर पास चाहती हैं । अक्सर ब्याह-शादियों में तेल चुाया जाता पहुँचा। बलंदी को पकड़कर एक तरफ़ हटा दिया (डर है, यह सुन रक्खा था। लेकिन यहाँ तो अपने राम था कि कहीं उसे और भी प्रसाद न मिल जाय)। पूछाक्वारे हैं । इसी हैरानी में मैंने प्रणाम किया। अब भौजाई "क्यों जी, इसने लसूर ही क्या किया है ? तेल ही तो ने हँसकर जवाब दिया-“भई, प्रणाम का जवाब पीछे चुनाया है न ? यही इससे कहा गया था।" दूंगी, पहले ज़रा तेल डलवा लो।"
"हाँ, यही कहा गया था ! भई, तुम भी अजीय "तेल डलवा लो ! कहाँ डलवाऊँ ?"
आदमी हो। देख रहे हो कि कालीन पर तेल का दरिया “जहाँ तुम्हारी मर्जी हो।"
बहा दिया है और मना नहीं करते । वाह-वाह !" अब समझा कि भौजाई मखौल कर रही हैं। कहने "अरे भई, मैं कैसे मना करूँ ? जब घर की मालभी लगीं-“भई, क्या किया जाय । हमारे यहाँ तो तुम किन नौकर को एक बात का हुक्म दे तब भला मैं उसे बरसों के बाद आये हो, इसलिए तेल ही चुआना ठहरा।" कैसे रोकूँ ?" इतना कहने के बाद मुझे हँसी आ गई। इसके बाद वे खिलखिला कर हँसने लगीं।
इससे भौजाई को थोड़ा गुस्सा आ गया। उहोंने इधर हम इस प्रकार बातें कर रहे थे, उधर बलंदी गुस्से को हँसी में लपेट कर कहा- "बस, अब हँसते ही जो आम तौर पर समझदारी की बातें किया करता है, जाओगे या थमोगे भी ?" रसोईघर से तेल की कुप्पी लेकर बैठक की तरफ़ गया। इस समय बाहर से अश्विन पा गया। मुझे देखकर दरवाज़े की एक तरफ़ उसने तेल गिराना शुरू किया। वह दौड़ा और आते ही टाँगों से लिपट गया। मैंने मैंने जब देखा कि यह कमबख्त सचमुच ही तेल चुश्रा पूछा-"क्यों जी, श्राज' 'काँगे' पर चलोगे ?" रहा है तब ज़ोर से चिल्लाया-"अरे, यह क्या कर उसने अपनी मा की तरफ़ देखा कि वह किसी दूसरे रहा है ?"
काम में लगी है इसलिए सिर को नीचे-ऊपर हिलाते हुए ऐसा मालूम होता है कि मेरी ऊँची आवाज़ के कारण बोला -"चलूँगा।" वह घबरा-सा गया। पहले कुप्पी का मुँह थोड़ा-सा औंधा "तो पहनो कपड़े। तुम्हारे बूट कहाँ है ?" हुआ था । अब जब आवाज़ पड़ी तब वह उलट ही गई। मैंने यह कहा तो वह मेरी टाँगें छोड़कर मा के पास बैठक में काश्मीरी कालीन बिछा हुआ था। दरवाज़े की चला गया। बोला- “भाभी जी, बूट पहनायो। चौखट से हटकर तेल कालीन पर जा पड़ा। पहले उस चाचा जी.........." तरफ़ भौजाई की पीठ थी। लेकिन जब मैंने आवाज़ दी * पंजाबी गाली-मालिक को खानेवाला।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९८
अभी वह अपनी बात खत्म न कर पाया था कि भाभी साहबा बिजली की तरह कड़ककर बोलीं- "दम भी लोगे या नहीं । बूट पहनाओ! चाचा जी तो
बस
יין.
सरस्वती
यह झिड़की खाकर अश्विन रोने लगा। उसी कारण मैं भौजाई की बात न सुन पाया। मैंने अश्विन से कहा" अरे सुनो, तुम्हारे बूट कहाँ हैं ? लाओ, मैं पहना दूँ ।"
आँखें मलते मलते अश्विन मुझे शू रैक के पास ले गया। उसके जूते उठाकर पहना दिये । हम आँगन में आ गये। जेमी एक कोने में बैठा था । धूप का वह यों भी बहुत शौक़ीन है। लेकिन इस कोने में तो किसी तरफ़ से तेज़ हवा भी न थाती थी, इसलिए यह जगह उसे बहुत पसंद आई। जेमी के बालों के साथ सूर्य की किरणें खेल रही थीं। हम दोनों के पास आने पर उस पर छाया हो गई । अब मुझे ऐसा मालूम हुत्रा जैसे हमें देखकर किरणें छिप गई हैं और उन्होंने ग्राँख-मिचौनी बन्द कर दी है। जेमी की पीठ पर मैंने हाथ फेरना शुरू किया । इसका जवाब उसने पूँछ से दिया; वह हिलने लगी । मुझे ऐसा करते देखकर अश्विन ने डरते-डरते अपना हाथ आगे बढ़ाया और बालों को छुत्रा । जेमी बदस्तूर पड़ा रहा। अब तो अश्विन का हौसला बढ़ गया । उसने पहले जेमी के पाँव को हुआ, फिर पूँछ को और अंत में आहिस्ता से सिर को ।
" तुमको यह कुछ न कहेगा । " मैंने कहा – “इसका नाम जानते हो ? इसका नाम है जेमी साहब । बस, जेमी साहब कहकर पुकारा करोगे तो यह कुछ न कहेगा । दूसरों का तो यह काटा करता है, लेकिन तुमसे यह प्यार करेगा ।"
साहब-शब्द सुनकर अश्विन को कुछ हैरानी हुई । उसने कहा - "चाचा जी, यह साहब है ?"
"हाँ, यह जेमी साहब है ।"
"यह साहब है तो फिर इसका टोप कहाँ है ?" " टोप ? टोप घर पर है ।"
अब अश्विन का विश्वास हो गया कि यह सचमुच साहब है, क्योंकि इसका टोप भी है। वह फट दौड़कर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
अपनी मा के पास गया। बोला- “भाभी जी, चाचा जी का जेमी ! इधर देखो, वह बैठा है, वह साहब है ।"
( भाग ३६
“हाँ बेटा, तुम्हारे चाचा जी भी साहब हैं और जेमी भी साहब है। दोनों एक जैसे साहब
भौजाई का पारा नीचे उतर आया था। इसलिए उन्हें मखौल सूझा |
अश्विन पर इस मखौल का तो क्या असर होना था, हाँ, उसे यह ख़याल ज़रूर हो गया कि जेमी साहब ही है। चुनांचे यह बात उसने बलंदी से भी जाकर कही ।
ין
वक्त काफ़ी हो गया था, इसलिए लौटने की ठानी। भौजाई से इजाज़त माँगी। लेकिन इजाज़त का शब्द सुनते ही वे तो तैश में आ गई - " तुम्हारे मिज़ाज अत्र बिगड़ गये हैं। शहर में क्या रक्खा है जो इतनी जल्दी जाने की पड़ गई है ? क्या वह भौजाई बहुत खातिर करती है ? भाई, हमसे जैसी होगी वैसी रोटी खिला देंगे ।"
"तो क्या जनाब रोटी के लिए इतनी नाराज़ हो रही हैं ? अंगर यही बात है तो लाइए मैं कच्ची रसद लेता जाऊँगा ।"
" कच्ची रसद क्या ?"
" सीधा, सीधा ! जैसे साधु दाल, चावल, आटा - कच्ची रसद लिया करते हैं वैसे मैं लेता जाऊँगा ताकि जनाब को तसल्ली हो जाय ?"
अब भाई साहब भी सैर से लौटकर आ पहुँचे । राम राम के बाद उन्होंने पूछा - " क्यों हज़रत, आज इधर कहाँ ?"
" आपके दर्शनों के लिए ।" मैंने कहा । "खाली दर्शन या कुछ और भी ?" "कुछ और भी । "
"क्या ?"
" कल मैंने इरादा किया था कि हर रोज़ सुबह सैर को जाया करूँगा । मुल्ला की दौड़ मसजिद तक हमारी सैर चौबुर्जी तक। लेकिन चलते वक्त डाक्टर साहब ने कहा कि मा जी का भेजा हुआ यह मिठाई वग़ैरह का पैकट भी लेते जाओ। बस, इसी लिए चला आया ।” " तब दर्शन की बात तो यों ही ग़प हुई न !”
www.umaragyanbhandar.com
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५
जेमी
३९९
"नहीं ग़प नहीं, 'बाई-प्रार्डक्ट'।"
स्तानी औरतें भी क्या चीज़ हैं। वक्त की इन्हें कोई कद्र "अच्छा, मिठाई कहाँ है ?"
ही नहीं। ये तो बस एक ही बात जानती हैं कि इसे किस "दीवान साहब, वह आपके लिए नहीं है।" तरह ज़ाया किया जाय। मैं गुस्सा से आग-बबूला होकर "तब क्या कुत्ते-बिल्लियों के लिए है ?"
बरामदे में बैठा था कि अन्दर से आवाज़ आई “भई, ___“नहीं नहीं," मैंने हँसकर कहा -"वह उनके लिए ज़रा तकलीफ़ करके ताँगा तो ले अाओ।" है जो सोहाग-भाग का व्रत रख रही हैं। यह उन्हीं को . मैंने शुक्र किया। दरवाजे के पास गया तब उसे खुला मिलेगी। ठीक है न!"
पाया । फिर अन्दर लौटा । देखा, जेमी नदारद । आवाजें "अच्छा तो जनाब हम इसे नहीं खाते। (दो मिनट दी, मुँह से सीटियाँ बजाई। लेकिन अगर वह वहाँ हो एक कर) अाज मेरा एक काम तो करना।"
तो जवाब दे। दिल में कहा-'यह एक और मुसीबत "क्या ? कहिए।"
आई।' इस खयाल से कि कहीं वह क्वार्टर के पीछे या “करना ज़रूर है।"
इधर-उधर न हो, मैं पिछली तरफ़ गया। बहुत तलाश "लेकिन आप कहिए तो सही।"
की, आवाजें भी खूब दी और सीटियाँ भी बजाई, लेकिन "अपनी भौजाई को अाज अपने साथ लेते जाओ। उसका पता कुछ न चला। मुझसे ये कई बार कह चुकी हैं कि जब से डाक्टर साहब एक और खयाल आया-कहीं शहर की दूसरी तरफ़
आये हैं, उनके बच्चों वगैरह को नहीं देखा। मैं खुद भी उलटा नये कोट को न चला गया हो। उधर हो लिया । जाना चाहता हूँ, लेकिन मुश्किल यह है कि शाम को चलो, वहाँ से कोई ताँगा भी लेते श्रायेंगे। मील भर दफ्तर से उठता हूँ तब देर हो जाती है। और सुबह ले फ़ासला तय किया, पर वहाँ कोई ताँगा न खड़ा था, न जाना तो मुमकिन ही नहीं। इसलिए अगर जनाब को कहीं जेमी ही नज़र आया। इधर-उधर जाट-ज़मींदारों और कोई तकलीफ़ न हो तो इन लोगों को भी धकेल ले दूकानदारों से दर्याप्त किया, परन्तु कुछ न पता चला । जाओ।"
एक जगह गाँव के लड़के गुल्ली-डंडा खेल रहे थे। भाई साहब ने अपना केस इतनी अच्छी तरह और लड़के प्रायः ऐसी बातों का ध्यान रखते हैं, यह सोच कर ऐसे अन्दाज़ में पेश किया कि मेरे लिए न कहने की गुंजा- मैंने एक लड़के को पास बुलाया, पूछा- "क्या तुमने इश ही न थी। हाँ के सिवा दूसरा कोई रास्ता ही नस्वाकी रंग का कोई कुत्ता देखा है ?" न था। मैंने धीरे से कह दिया- "बहुत अच्छा। लेकिन वह अभी जवाब न दे पाया था कि बाकी लड़के एक अर्ज़ है।"
भी मेरे गिर्द जमा हो गये। उनमें से एक ने जो मेरे "फरमाइए जनाब।"
नज़दीक खड़ा था, मेरा सवाल सुन लिया था। उसने "मुझे वापस जाकर थोड़ा काम करना है, इसलिए कहा-"मैंने एक कुत्ते को देखा है। सफ़ेद है न १ थूथन नौ बजे तक लौटना चाहता हूँ।"
पर काला दाग़ है न ?......" "भई, खाना बन रहा है। बस, खाने के बाद तुम "नहीं नहीं," मैंने उसकी बात काटते हुए कहाइन्हें घसीट कर ले जानो।”
"उसका रंग सफ़ेद नहीं है, नस्वाकी है, भूरा ।" । इधर भौजाई रसोई से बोली-"हाँ हाँ, मंज़र है।" एक और लड़के ने जो कुछ बहुत अधिक चंचल
खाना खाते साढ़े नौ बज गये। भाई साहब तो मालूम देता था, आँखें और सिर कई बार दायें से बायें साइकिल पर बैठकर दफ़्तर चले गये। पीछे मैं रह हिलाने के बाद कहा-“नत्थू के खच्चर का-सा रंग है। गया। जल्दी करने के लिए जितना ज्यादा कहता, उतनी उसे मैंने यहाँ तो नहीं देखा । हाँ, कुछ देर हुई चुंगी-घर ही ज्यादा देर होती। गुस्सा आ गया कि देखो ये हिन्दु- के पास देखा था। ा तो इधर ही रहा था। धोती
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
- ४००
सरस्वती
बाँधे एक शख्स के साथ-साथ चला आ रहा था। मैं भी उधर से आ रहा था कि
"
एक बड़े-से लड़के ने ईर्ष्या वश उसे टोक कर कहा" तू तो श्राज उधर गया ही नहीं । "
“हुँ, गया नहीं ! तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि मैं गया नहीं ? मैं तो पिछली रात अपनी मौसी के यहाँ सोया था। उसका संदेश लेकर मैं भी वहाँ से लौट रहा हूँ ।"
उस बड़े लड़के ने फिर सवाल किया - "अरे, दो घण्टे तो तुम्हें हमारे साथ गुल्ली-डंडा खेलते हो गये हैं और तू कहता है कि मैं संदेश लाया हूँ, अभी आया हूँ !”
इस दिलचस्प विवाद के लिए मैं कुछ देर और खड़ा रहता अगर मुझे जेमी की याद न या जाती । मैंने समझ लिया कि इस लड़के ने जेमी को मेरे साथ आते देखा है । उसके बाद इनमें से किसी ने नहीं देखा । लड़कों को आपस में झगड़ते छोड़कर मैं वापस क्वार्टर को आया । मंदिर से परे दूकानदारों से पूछा कि शहर को जाता हुआ कोई कुत्ता तो नहीं देखा । किसी ने सिर हिला दिया, किसी ने 'नहीं, बाबू जी' कह दिया। लेकिन एक मियाँ ने तो शायद सहानुभूति से बाक़ायदा हुलिया पूछी“किस रंग का था ? कितना बड़ा था ? मोटा था कि पतला ? लंबा था कि छोटा ? गले में पट्टा था कि नहीं ? जिस्म पर कोई दाग़ या निशान तो नहीं था ?
मैंने सभी सवालों का जवाब दिया। इसके बाद मियाँ साहब ने थोड़ी देर सोचते हुए ग्राहिस्ता-आहिस्ता कहा"बाबू, यहाँ नूर-इलाही का कुत्ता तो हमने कई बार देखा है, पर उसका रंग तो काला है ।"
अब तो मुझे कुछ क्रोध आया, कुछ हँसी भी । दोनों का नियमन करके मैंने उसको धन्यवाद दिया और एक तरफ़ हो गया । इतने में नये कोट की तरफ़ से एक ताँगा आ पहुँचा। उसमें बैठकर हम अपने क्वार्टर के सामने जा खड़े हुए I
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[भाग ३६
"लेकिन भाई, हमारा इसमें क्या कुसूर है ? तुम खुद ही तो श्राँगन में बैठे थे और वह तुम्हारे सामने लेटा हुआ था । "
“मैं आँगन में तो बैठा था, लेकिन दरवाज़े की रखवाली थोड़े ही कर रहा था । "
भौजाई ने समझा और तो कुछ हो नहीं सकता इसलिए बलंदी को दो-चार गालियाँ देने के बाद कहा"यह है ही गधा । अक्ल तो इसके नज़दीक भी नहीं फटकी । जानते हो कि जानवर है । दरवाज़ा खुला रहेगा तो वह बाहर चला जायगा । ज़रा उठकर बंद ही कर देता । लेकिन यह इससे थोड़ा ही होगा ।"
बलंदी ने झटपट कहा - "बीबी जी, मैंने क्या किया है ? अभी मैं आपको खाना खिला रहा था। बाबू जी दफ़्तर गये । जाते वक्त वे मुझे हमेशा आवाज़ देकर जाते हैं कि दरवाज़ा बंद कर लो । आज उन्होंने कोई आवाज़ ही नहीं दी । भला इसमें मेरा क्या कुसूर ?"
" चुप रहो ! " भौजाई बोली--- "सब काम बिगाड़ कर ahar किये जा रहा है । "
उधर ताँगेवाले ने आवाज़ दी -- "बाबू जी, श्राश्र भी । आपकी कानफ़रेंस खतम भी होगी या नहीं ? मुझे तो देर हो रही है ।"
मैं बाहर जाकर ताँगेवाले पर बरस पड़ा - " अरे ! यह कानफ़रेंस क्या कह रहा है ? तुम्हें देर हो रही है तो चले जात्रो; हम और ताँगा ले आयेंगे ।"
"बाबू साहब, मैंने कुछ बुरा तो नहीं कहा । श्राखिर हो क्या गया है। कुत्ता ही तो गुम हुग्रा है न ? श्राप तो इस तरह गुस्से में हैं जिस तरह किसी के जवाहरात खो गये हों । कुत्ता है। मिल जायगा । किसी को उसे रखकर करना ही क्या है ?"
मुझे ग़ुस्से में देखकर भौजाई ने बड़ी नरम-सी आवाज़ में पूछा - " क्यों भई, कुत्ता नहीं मिला ?"
उसकी नरम आवाज़ सुनकर मैंने अगली सीट पर बैठते हुए कहा – “मियाँ, तुम नहीं जानते कि यह माल कितनी क़ीमत का है। एक लेडी ने इसको लेने के "जब आप लोगों ने उसे खो दिया है तब वह क्या लिए कितनी बार दरख्वास्तें कीं और करवाई । लेकिन कहीं मिल सकता है ?"
डाक्टर साहब न माने । तुम कहते हो, कोई इसे लेकर
www.umaragyanbhandar.com
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
सख्या ५]
जेमी
४०१
स्या करेगा। मैं कहता हूँ जो कोई इसे देखता है यही खयाल आने लगे। डाक्टर साहब क्या कहेंगे-'अच्छे चाहता है कि बस इसे अपने पास ही रख लूँ ।" हो, पहले दिन ही सैर को ले गये थे। वे शायद चुप भी हो
भौजाई की तरफ़ पीछे मुँह करके मैं बोला-"लेकिन जायँगे । मानेगी नहीं डाक्टरनी साहबा। उन्हें इतनी हिम्मत सबसे बड़ी मुसीबत तो यह है कि बड़ी भौजाई इसका बहुत तो होगी नहीं कि मुझे ऊँचा-नीचा कहें, पर बातें बनाने से प्यार करती हैं। डाक्टरनी साहबा को जब यह मालूम न रहेंगी । मेरी पीठ पर तो भर-पेट सुनावेंगी, कहेंगीहोगा कि मैंने कुत्ता गुम कर दिया है तो मुझे कभी न अपनी लापरवाही से इतने मजबूर ही थे तो उसे घर छोड़ेंगी। बस, हर वक्त इसी का किस्सा लिये बैठी रहेंगी। पर ही छोड़ जाते। अच्छी सैर करवाई ! एक दिन में डाक्टर साहब तो खैर चुप रहेंगे, लेकिन डाक्टरनी साहबा ही खो आये। इसके पीछे तो सुकेसर में सब-डिवीज़न के मेरे कानों के गिर्द हो जायँगी। आप जनाब तो वहाँ दो अफ़सर की मेम पड़ी हुई थी। कई बार कहलवाया, लेकिन घंटे ठहरेंगी, पीछे मेरी जान बवाल में पड़ जायगी।" न दिया। खुद साहब ने एक बार मुँह चढ़ कर किसी के
कुछ देर में हम पुणछ-हाउस के सामने जा पहुँचे। द्वारा कहलवा भेजा । लेकिन फिर भी न दिया । देते कैसे ? मैं बड़े ध्यान से सामने की तरफ़ देख रहा था। कुछ दूर जिस जानवर को दूध देकर पाला-पोसा और इतना बड़ा एक कुत्ता नज़र आया । वहीं ताँगा खड़ा करवा दिया। किया वह क्या दूसरों के सुपुर्द किया जा सकता है ? लेकिन जब पास पहुंचे तब एक मरियल-सा कुत्ता पाया। अब पता नहीं किसके हाथ चढ़ा है। कहीं किसी निर्दय इसको देखकर खयाल आया कि म्युनिसिपल कमेटीवाले के हाथ लग गया तो वह उसे मार ही देगा। उसे यह कहीं हलवे में ज़हर की गोलियाँ न दे रहे हों।
डर भी तो रहेगा कि अगर कुछ दिन के बाद यह पकड़ा बड़ा अफ़सोस हुअा। सिर्फ इसलिए नहीं कि जेमी गया तो वह चोर ठहराया जायगा।...... न मिला बल्कि इसलिए भी कि ताँगे को बार-बार खड़ा “पता नहीं बेचारा मर गया है या ज़िन्दा । अगर करना पड़ा। ताँगेवाला इस तरह तंग ही नहीं होता है ज़िन्दा है तो उसे सारा दिन बाँधे रखते हैं या कभी खोलते बरन उसका समय भी नष्ट होता है। अब फ़ैसला किया भी हैं ? किड और पाल तो उसको सारा दिन खिलाते थे; कि सोच-समझ कर खड़ा करूँगा। चौबुर्जी का पुल और अब नये घर में कोई उससे बात भी करता है कि नहीं। युनिवर्सिटी-ग्राउंड भी गुज़र गये। शुरू हो गई पुरानी यहाँ तो मैं उसे बाकायदा तीन बार दूध-रोटी अपने हाथों अनारकली। चौक में ट्रेफ़िक पुलिस का सिपाही खड़ा से देती। जब तक वह खा न लेता तब तक मुझे चैन था। शायद इसने देखा हो, ताँगा खड़ा करके पूछा- न पड़ता। अब क्या मालूम उसे कोई पूछता भी है "जमादार साहब, आपने कोई नस्वाकी कुत्ता तो नहीं या नहीं। ..... देखा ?"
___ “एक दिक्कत और भी है। यहाँ हमने उसे शुरू से ___पंजाब-पुलिस से श्रादमी जो चाहे उम्मीद करे, लेकिन दूध पर रक्खा था । अब क्या मालूम, वे उसे क्या गंदपता नहीं इस सिपाही को क्या खयाल आया । शा पद मुझे बला खिला देंगे। लोग डाक्टर साहब का मखौल उड़ाया इसने बहुत शरीफ़ समझा। कहने लगा- “नहीं साहब, करते थे कि आप खुद तो कालेज-पार्टी के मेम्बर हैं, लेकिन मैंने किसी कुत्ते की तरफ ध्यान नहीं दिया। आप जानते आपका जेमी धास-पार्टी का मेम्बर है। अब बेचारे को, हैं, मैं ऐसा कर भी नहीं सकता; ये ताँगे और छकड़ेवाले पता नहीं, वे मांस भी खिला दें। है तो बड़ा पक्का। मेरे ही मेरे लिए काफ़ी होते हैं।"
हाथों से उसने दूध पिया। लेकिन क्या मालूम; दूसरे के सिपाही को धन्यवाद दिया। ताँगा फिर चलने हाथों की कौन कह सकता है। फिर जानवर ठहरा । अच्छेलगा। ज्यों-ज्यों हम शहर के ज़्यादा नज़दीक होते जा रहे भले इन्सान के मुँह में कई बार पानी आ जाता है। वह थे. त्यों-त्यों मेरे दिल में डर बढ़ रहा था। कई तरह के बेचारा तो हैवान ठहरा।......
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०२
सरस्वती
| भाग ३६
.
___ "मैं कहती हूँ, यह अंधेर हो कैसे गया है । आज सुबह कि वे उसमें कुछ और भी कर देते हों । आखिर तंग से देखा तक नहीं। बदमाश मिल कर भी नहीं गया। इनको अाकर एक दिन पाल से कहा कि दरवाज़े बन्द कर जेमी भी मालूम नहीं क्या सूझी।' कुमार सीढ़ियों से उतरकर को छोड़ दो। उस दिन उसने सामान तो सारा उथलनीचे जा पहुँचा था कि इन्होंने ऊपर से आवाज़ दे मारी, पुथल कर दिया, लेकिन चूहे चार मार दिये । जब दरइसे भी साथ ले जाओ। कोई पूछे, भला यह भी कोई वाजे खोले तो दो भाग गये। अब उस दिन से शान्ति तरीका है। इसे सैर करवानी है तो बाकायदा करवाइए। है। हर एक चीज़ को अपनी-अपनी जगह पर देखती पाँच-सात रुपये का एक आदमी रखिए। कौन-सी बड़ी हूँ तो चूहे याद आ जाते हैं, और चूहों के साथ जेमी। बात है। आखिर इसकी सेहत का भी तो खयाल रखना भुलाये भूलता भी तो नहीं। कई बार दिल को समझाती चाहिए। एक दिन सैर के लिए भेज देने से क्या हो हूँ, लेकिन वह नहीं मानता । घड़ी-घड़ी वह याद आ जाता जायगा ? हर रोज़ सुबह-शाम भेजा जाय तो कुछ है।... .. बने भी......
___"कमबख्त को खुद अपने हाथों से नहलाया करती ___ "मेरे लिए तो एक और मुश्किल भी है। संतोष दिन थी। एक बार जूए पड़ गई। पता नहीं, किसी बाज़ारी भर जेमी से खेला करती थी। इसने दूध पिया, उसने भी कुत्ते के साथ फिरा-फिराया जो जूएँ चढ़ गई । भंगन पिया और लगे दोनों खेलने। तीन-चार घंटे के बाद यह से कहा—'मिरजानी, ज़रा इसके बाल देखना । शाम को उस वक्त मेरे पास पाती जब भूख लगती । आज ही रेवड़ियाँ भी लेते जाना ।' लेकिन उसने एक न सुनी। जेमी घर पर नहीं है और यह मेरी गोद से नहीं उतरती। अंत में आप ही गरम पानी और नीम के साबुन से इसके कोई काम कैसे करे। वह धन्नू तो नीचे से ऊपर पाँच- बाल साफ़ किये, तेल लगाया और कँघी की। वरना सात गागर पानी लाता है। या फिर कमरों में झाडू देता खारिश से बेहाल हो गया था।" है। वह भी इस तरह कि आधा कचरा इधर-उधर रह "बाबू जी, कहाँ उतरना है आपको ? लोहारी दरवाजे जाता है। लेकिन बस इन्हीं दो कामों को करता है । रसोई के अन्दर तो ताँगा जायगा नहीं।" ताँगेवाले के ये शब्द के तो नज़दीक नहीं आता। अन्दर से कोई बरतन लाना मेरे कानों में इतने ज़ोर से पड़े कि मैं चौंक पड़ा। उसी हो तो उसे भी आप ही लाओ। परोसी हुई थाली भी तरह जिस तरह कोई आदमी गहरी नींद में सोया पड़ा तो उनके सामने नहीं रखता। अगर कहो तो आगे से हो और एकाएक धमाके की आवाज़ से उठ पड़े। जवाब देता है-बीबी जी, दो ही हाथ तो हैं । एक वक्त मैंने देखा कि ताँगा लोहारी के चौक में फलों की दूकानों में एक काम ही तो होगा। भला कोई ऐसे नौकर को के सामने खड़ा है। कहाँ बाँस-मंडी और कहाँ लोहारी क्या करे......।
का चौक । ताँगेवाले से अब क्या कहूँ कि तुम आगे ___"एक अाफ़त होती तो भी खैर चुप हो जाती । लेकिन निकल आये हो, हमें तो पीछे बाँस-मंडी में उतरना था ! यहाँ पर तो श्राफ़तों की भरमार है। जेमी के बगैर घर ऐसा कहूँगा तो क्या वह मुझे अक्लमंद कहेगा ? सभी कितना सूना मालूम देता है । एक वक्त यहाँ चूहों ने नाक लोग यह समझेंगे कि हज़रत सो रहे थे जो बाँस-मंडी से में दम कर रखा था। जिधर जाओ उधर ही चूहे । खाने आगे निकल आये। लेकिन ताँगेवाले को ठहरने के लिए की कोई चीज़ उन्होंने न छोड़ी। पहनने का कोई कपड़ा कहा नहीं। इस बेइज्जती से बचने के लिए मैंने सबको उन्होंने न छोड़ा । जहाँ-तहाँ उनकी बीट । अाटा है तो उतरने के लिए कहा। ताँगेवाले को पैसे दिये और उस में । दालें हैं तो उनमें । कनस्तर से घी निकालो तो उलटे चल पड़े। श्राध मील फासले का जुर्माना दिया। उसमें । मरतबान से अचार निकालो तो उसमें । बाल्टी के अनारकली में भीड़ थी। मोटरें और ताँगे बेशुमार पानी को मुँह लगाते उन्हें कई बार देखा। क्या पता थे। डर था कि कहीं अश्विन किसी के नीचे ही न आ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
जाय । गोद में उठाकर चलना पड़ा। बाँस-मंडी में पहुँच गये । ज्यों-ज्यों मकान नज़दीक होता जाता, त्योंत्यों मुसीबत की सजीव मूर्ति अधिक भयप्रद मालूम देने लगी। दिल चाहता था कि अश्विन का बोझ उठाये हुए घंटों फिरता रहूँ, लेकिन मकान न आये । इतने ही में अपने आपको पीले मकान के सामने पाया । बस प्राण सूख ही तो गये; काटो तो लहू नहीं । अब ऊपर कौन चढ़े १ हिम्मत किसमें ? भौजाई को आगे किया । पहले तो उन्होंने न की और कहा, देखो मर्द को आगे जाना चाहिए । पर मेरी ज़िद के सामने वे बहुत देर न ठहर सकीं। इसके बाद मैंने अश्विन को नीचे उतार
उसकी मा के पीछे किया ।
जेमी
अब एक ख़याल आया कि नीचे से ही दफ़्तर को
जीवन
लेखक, श्रीयुत व्यथितहृदय
पूछ रही हो जीवन क्या है, क्या मैं तुम्हें बताऊँ । जान सका प्रिय, नहीं जिसे उसको कैसे समझाऊँ ? ॥ पूछ रही है प्रकृति, पूछते निशि में नभ के तारे । पूछ रहे हैं जीवन क्या है, सरिता - कूल- किनारे ॥
चल दूँ; शाम को लौटने पर जो होगा, देखा जायगा । फिर ख़याल आया कि नहीं, जेमी बेचारे की इन लोगों को खबर तो देनी चाहिए ताकि डाक्टर साहब किसी को इधर-उधर भेज सकें या और नहीं तो कम-से-कम थाने में रिपोर्ट तो कर सकें । सारी हिम्मत समेट कर सीढ़ी पर पाँव रक्खा। पैरों के साथ जैसे मनों भारी चक्की के पाट बँधे थे। फिर भी किसी तरह ऊपर पहुँच ही गया । श्रागे देखा तो जेमी साहब बैठक के सामने लेटे पड़े हैं। मुझे देखकर वह उठ बैठा और दुम हिलाने लगा। उधर से भौजाई ने सवाल किया - " जेमी तो बहुत देर का या हुआ है । आप इतनी देर कहाँ रहे ?"
मैं चुप । कुर्सी पर बैठ कर सोचने लगा । इतने में जेमी भी मेरे पास आ गया ।
कंपित लहरें दौड़ रही हैं, किरणें थक थक जातीं । निशा - दिवा जागृति के रथ पर पथ पर आती-जाती ॥ अरुण रागवाली वह ऊषा नभ-खिड़की पर आती । किंतु देखती नहीं वही क्या, संध्या बन सेो जाती ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
X
X
X
मत पूछो प्रिय जीवन क्या है, यह है गूढ़ कहानी । प्रेम दया, करुणा जीवन की केवल स्वर्ण निशानी ॥
४०३
www.umaragyanbhandar.com
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
इंग्लैंड में विद्यार्थियों के
New Band Encloure. E
aurma
[ईस्टबोर्न में समुद्र के किनारे वेंड का स्थान
लेखक, श्रीयुत श्रीमन्नारायण रीक्षा के समाप्त होते ही एक बड़ा सुन्दर स्थान है। समुद्र के नहाने के लिए। लन्दन से बाहर भागने यहाँ हज़ारों लोग आते हैं। स्वास्थ्य के लिए भी की पड़ी। बाई० एम० यह जगह बहुत अच्छी समझी जाती है। हम लोग सी० ए० के मंत्री मिस्टर शहर में नहीं रहना चाहते थे, इसलिए पास ही एक |
पोन्सफ़ोर्ड ने ईस्टबार्न के सुन्दर गाँव में अपने डेरे खड़े किये । हमारा कैम्प | Pe पास एक गाँव में कैम्प एक ऊँचे स्थान पर था, जहाँ से दूर तक खेतों का
का प्रबन्ध किया था। दृश्य और समुद्र भी दिखलाई देता था। ऊँचीदूसरेही दिन सुबह हम लोग कैम्प के लिए रवाना हुए। नीची भूमि पर हरी हरी घास और पेड़ बहुत ही। ईस्टबान इंग्लेंड के दक्षिण में समुद्र के किनारे सुहावने लगते थे।
थोड़ा आराम करके हम लोगों ने समुद्र में स्नान । करने का विचार किया। अपने अपने नहाने के |
कपड़े लेकर पैदल चल दिये। धूप काफी तेज थी । इंग्लेंड में लोग अपना अवकाश
और दूर से समुद्र का पानी खूब चमक रहा था। का समय किस तरह विनोदपूर्वक
यद्यपि हमारा स्थान ईस्टबोन से दूर था, तो भी | व्यतीत करते हैं। इसका एक
यहाँ समुद्र-स्नान के प्रेमियों की भीड़ थी। सागर । उदाहरण पाठकों को इस लेख
की लहरें किनारे के कंकड़ों पर ज़ोर ज़ोर से गिर में मिलेगा ।
रही थीं। कुछ दूर पर छोटे छोटे जहाज़ इधर-उधर । जा रहे थे। किनारे पर बहुत-से स्त्री और पुरुष
अपनी नहाने की पोशाक पहने सूर्य-स्नान कर रहे |
४०४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-mara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
छुट्टी के खेल और विनोद
सन्मद
[ गाँव का एक दूसरा दृश्य ]
अग्रवाल, एम० ए०
थे । कोई छाती के बल लेटा था, कोई पीठ के बल । स्त्रियाँ अपने पतले छातों के नीचे पड़ी थीं। पहलेपहल यह दृश्य बड़ा विचित्र लगा । स्त्री और पुरुष जिनकी देह का अधिकांश खुला था, बिलकुल पास पास लेटे हुए थे । लन्दन में तो बिना मोजे पहने निकलना पाप समझा जाता है। घरों में भी ड्रेसिङ्ग गाउन पहनना बहुत ज़रूरी होता है। बिना टाई के खुले कालर की कमीज़ पहनना तक अनुचित समझा जाता है। लेकिन ये सब बातें समुद्र के किनारे लागू नहीं हैं। शरीर का जितना अधिक भाग खुला रहे, उतना ही अच्छा है। लोगों की खुली देह को देखकर बड़ा मनोरंजन होता है । कोई तो मोटे और बड़े पेटवाले, कोई पतले-दुबले और कोई सुगठित देहवाले - सभी प्रकार के लोग दिखलाई देते हैं। स्त्रियों की मोटी मोटी खुली टाँगे बड़ी विचित्र लगती हैं। नहाने के लिए बालों के ऊपर तंग टोपी बाँधकर तो उनकी सुन्दरता नाम के लिए भी नहीं रहती । स्त्री और पुरुष लगभग एक-से ही दिखलाई पड़ते हैं ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
EAST DEAN.
किनारे पर थोड़ी देर तक घूमने के बाद हम लोगों ने भी अपने कपड़े उतारकर नहाने की
४०५
www.umaragyanbhandar.com
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०६
सरस्वती
[भाग ३६
पोशाक पहनी और पानी में प्रवेशकरनाशुरू किया। पानी बहुत ही ठंडा था, और लहरें जोर जोर से चली आ रही थीं। समुद्र में नहाने का मेरा यह पहला अवसर था, कुछ भय मालूम हुआ। लेकिन सचमुच किसी नदी में नहाने की अपेक्षा समुद्र में नहाना कम खतरनाक है। किनारे पर डूबने की कोई आशंका नहीं होती, और लहरों के कारण देह ऊपर ही उठी
[ केम्प में खाने की स्वतन्त्रता, रहती है । कुछ देर तैरने के बाद देह में गर्मी आगई, और ठंड का लगना पीछे ये लोग सब कुछ करने को तैयार हैं। जब धूप कम हुआ। रबड़ के एक गेंद से आपस में खेलना में पड़े पड़े इनकी देह लाल हो जाती है तब तेल शुरू किया। लेकिन जब मुँह में समुद्र का खारा और क्रीम लगाते हैं और पाउडर का व्यवहार करते पानी चला जाता तब सारा मज़ा बिगड़ जाता था। हैं। वह सब भी फेशन में शामिल है। यहाँ के
लगभग बीस मिनट के बाद हम लोग पानी के लोगों में समुद्र-स्नान और सूर्य-स्नान की कए प्रकार बाहर निकले । देह पोंछ कर धूप में लेटने की की बीमारी-सी हो गई है। अखबारों और पत्रिठहरी। मैं भी सब लोगों की तरह छाती के बल काओं में भाँति भाँति के मनोरंजक कार्टून इस लेटकर सूर्य-स्नान का मज़ा लेने लगा। लेकिन कुछ विषय पर निकला करते हैं, लोगों का मजाक बनाया देर बाद तो मेरा सारा बदन जलने लगा। मैंने जाता है, लेकिन फैशन में किसी प्रकार की कमी उठकर अपने कपड़े पहने और चट्टान के पास साया नज़र नहीं आती। में जाकर बैठ गया। साथ के हिन्दुस्तानियों ने समुद्र से वापस आकर हम लोगों ने खुले में भी यही किया। लेकिन कुछ लोग तो बहत देर खाना खाया। अब कुछ बदली-सी होगई थी और तक पड़े ही रहे । और भी लोग समुद्र के किनारे ठंडी हवा बह रही थी। इंग्लैंड में पहली बार खुले बहुत दूर तक लेटे थे। कुछ लोगों की तो देह बिल- मैदान में खाने का अवसर मिला । कुछ लोगों का कुल लाल होगई थी। न जाने ये लोग किस प्रकार विचार है कि यहाँ मांस खाये बिना काम नहीं इतनी देर तक सूर्य-स्नान या कहिए सूर्य-ताप का चल सकता। लेकिन व्यक्तिगत अनुभव से मैं कह उपभोग करते रहते हैं ? माना कि धूप स्वास्थ्य के सकता हूँ कि लन्दन को छोड़कर बाहर गाँवों में भी लिए लाभदायक होती है, लेकिन आखिर इसकी आराम से निरामिष भोजन प्राप्त हो सकता है। कुछ हद भी तो है। सच तो यह है कि यहाँ अगर रोटी, फल, दूध, आलू और कुछ हरी तरकारी सब एक बार कोई फैशन चल जाता है तो उसको काबू जगह मिल सकती है। अगर कोई अंडा खाता हो में रखना बहुत ही कठिन हो जाता है। फैशन के तब तो किसी प्रकार की भी कठिनाई नहीं हो
Shree Sudhammaswami Gyanbhandar Umara Surat
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
इंग्लैंड में विद्यार्थियों के छुट्टी के खेल और विनोद
४०७
East Deim. 24
कठिनाई नहीं है। जैसा लगभग सभी गाँवों में होता है, यहाँ भी एक बहुत पुराना गिर्जा है। सभी मकान पक्के हैं, लेकिन कुछ घरों की छतें फूस की बनी हुई हैं। प्रत्येक मकान के सामने एक छोटा-सा बगीचा या केवल कुछ फूलों के पेड़ लगे हुए
हैं । कुल गाँव बहुत [ ईस्ट डीन के गाँव का एक दृश्य]
साफ़ और सुन्दर है।
यहाँ के ग़रीब से सकती। और लन्दन में तो अब इतने हिन्दुस्तानी ग़रीब गाँववाले भी भारत के ग्रामीणों की अपेक्षा रेस्टोरेन्ट हो गये हैं कि किसी भी प्रकार का भोजन बहुत अमीर हैं। सबके पास कोट, पतलून, टोप मिल सकता है । पूड़ी, तरकारी, रोटी, दाल इत्यादि और अन्य आवश्यक वस्तुएँ होती हैं। खाने के सब चीजें मिलती हैं। अँगरेज़ी घरों में भी रोटी, लिए भी अच्छा भोजन प्राप्त होता है। यदि किसी दाल, चावल, फल, आलू और कुछ तरकारी के पास केवल रोटी और मक्खन ही खाने को रह आसानी से प्राप्त हो सकती है। इसलिए जो लोग जाय, तो वह अपने को मरा हुआ ही समझता है। मांस नहीं खाना चाहते उनको इंग्लैंड में आने से यहाँ के गाँवों में ग्रामोफोन के सिवा कुछ रेडियो के डरने की कोई आवश्यकता नहीं है।
सेट भी रहते हैं । इस गाँव में एक सुन्दर गेस्ट हाउस शाम को सब लोग गाँव की ओर चल पड़े। है, जहाँ बेतार के तार का समुचित प्रबन्ध है। टेनिस ईस्ट डीन नामक यह छोटा-सा गाँव था । कुल खेलने के लिए भी अच्छा इन्तिज़ाम है। इसी स्थान एक अच्छी दूकान थी जिसमें सब प्रकार की चीजें पर हम लोगों ने शाम को खाना खाया। मिलती हैं। चाकलेट, शक्कर की रंगबिरंगी मिठाई यहाँ के लोग ऊपर से तो सब चीजों को बड़ी
और सिगरेटों के बिना तो यहाँ के लोगों का काम सफ़ाई से रखते हैं-साफ कपड़े, साफ़ घर और ही नहीं चल सकता । जो चीजें दूकान में नहीं होतीं सुन्दर बगीचा, सब जगह दिखलाई देते हैं, लेकिन वे शहर से मँगवा दी जाती हैं। इसी दूकान में एक शरीर की सफ़ाई में ये लोग बहुत पीछे हैं। शहर में तरफ़ डाकघर और टेलीफोन भी था। गाँव में नल- गर्मी के दिनों में भी जब पसीना आ जाता है, लोग द्वारा पानी का इन्तिजाम था, लेकिन बिजली की आम तौर पर हफ्ते में एक ही बार नहाते हैं। गाँवों रोशनी नथी। लोग गैस से ही काम निकालते हैं। गाँव में तो शायद और भी कम नहाते होंगे। इनके के पास से पक्की सड़क शहर की ओर जाती है, नहाने का प्रबन्ध भी अच्छा नहीं है। टब को एक जिस पर बराबर मोटर-बसें आती-जाती रहती हैं। बार पानी से भर के उसी में साबुन लगाकर देह इसलिए गाँववालों को सवारी की किसी प्रकार की धोते हैं। मुँह, पैर इत्यादि सब उसी साबुन से मिले
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragvanbhandar.com
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०८
सरस्वती
[हम लोग समुद्र-स्नान कर रहे हैं]
पानी में धोये जाते हैं। टब से निकलते समय सतह पर तैरता हुआ साबुन बदन में लग जाता है और नहाना एक प्रकार से मिट्टी में मिल जाता है । हमारे देश में कम से कम नहाने का तरीक़ा तो इन लोगों से कहीं अच्छा है। संडास में पानी का व्यव हार न करने से भी इन लोगों में गन्दगी रहती है। हफ़्ते भर की मल की सफ़ाई उसी साबुन मिले हुए टब के पानी में होती है। पता नहीं, ये लोग इस प्रकार की गन्दगी कैसे सहते हैं ! दाँत की सफ़ाई तो यहाँ कोई जानता ही नहीं। खाने के बाद कुल्ला करने की प्रथा ही नहीं है। भारत की तरह दातून का व्यवहार भी नहीं किया जाता। बहुत ही कम लोग पेस्ट और ब्रश का इस्तेमाल करते हैं ! इसी लिए यहाँ 'के लोगों को दाँत की बीमारी बहुत हुआ करती है। बच्चों के दाँत शुरू से ही गन्दे और कमज़ोर हो जाते हैं । मुँह में बुरी बदबू आने लगती है। हिन्दुस्तानियों के सफेद चमकते हुए दाँत देखकर इन लोगों को बड़ा आश्चर्य होता है । शायद ये लोग सोचते हैं कि सफ़ेद चमड़ेवाले मनुष्य ही साफ़
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
प्रक
[ भाग ६३
रह सकते हैं। गाँव के खेतों की जमीन बड़ी कँकड़ीली है, तो भी उसमें गेहूँ की खेती की जाती है। भारतवर्ष में तो ऐसी भूमि में किसी प्रकार की भी खेती नहीं की जाती। यहाँ लोगों के पास अच्छे हल हैं। और ट्रेक्टर का व्यवहार करते हैं, अतएव पथरीली भूमि भी खेती के काम में लाई जा सकती है। घास के मैदानों में गायें और भेड़ें चर रही थीं। यहाँ की गायें यद्यपि भारत की गायों जैसी सुन्दर नहीं होतीं, तो भी दूध देने में पक्की होती हैं। उनका पिछला हिस्सा बहुत मोटा और मुँह बहुत पतला और छोटा होता है। गाँव में मकान एक-दूसरे से दूर दूर होते हैं। भारत की तरह पास पास घर न होने से सामाजिक जीवन का मज़ा यहाँ नहीं है। हाँ, जब कोई फुटबाल या क्रिकेट का मैच होता है। तब सब लोग अवश्य एकत्र होते हैं।
दूसरे दिन हम लोग ईस्टबोर्न शहर गये । यहाँ का विशेष सौन्दर्य समुद्र के किनारे ही है। दूर तक किनारा पक्का बना हुआ है और लोगों के नहाने और बैठने का समुचित प्रबन्ध है। शाम को यहाँ
[ हम लोग वोली-बॉल खेल रहे हैं]
www.umaragyanbhandar.com
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
मंख्या ५]
इंग्लैंड में विद्यार्थियों के छुट्टी के खेल और विनोद
बड़ी रौनक रहती है। जनता के मनोरंजन के लिए कार्ड में कोई विशेष बुरी बात नहीं निकली। इसी एक बड़े अच्छे बैंड का भी इन्तिजाम है। लेकिन प्रकार की मशीनें बहुत-सी थीं। सचमुच बड़ा सबसे अच्छा स्थान पियर के ऊपर है, जहाँ ठंडी विनोद और मनोरंजन होता है। ठंडी हवा बराबर चलती रहती है। समुद्र के ऊपर हमारा कैम्प एक हफ्ते तक रहा। इम्तिहान के कुछ दूर तक एक पुल बाँधा गया है और जनता के बाद मैंने तो खूब ही मज़ा किया । चिन्ता रहित विनोद के लिए उस पर भिन्न भिन्न प्रकार की मशीनें होकर खूब खेला, नहाया, खाया और घूमा। सब लगाई गई हैं। शाम को बहुत-से लोग इस पियर लोग वोली-बॉल खेलकर हर रोज़ समुद्र-स्नान के के ऊपर घूमते हैं और मशीनों द्वारा अपना भाग्य लिए जाते और फिर शाम को घूमने चलते थे। आजमाते हैं। एक मशीन में एक पेनी डालने से एक दिन पास ही एक नदी में नौका-खेवाई की। हाथ की रेखाओं का अर्थ मिलता था, दूसरी नदी छोटी ही थी, किन्तु दोनों ओर बड़ा सुहावना मशीन में चरित्र बतलाया जाता था। मेरे एक था। पास ही गाँव में चढ़ने के घोड़े भी किराये पर मित्र ने एक पेनी डाली और उनके चरित्र का एक मिलते थे। कुछ लोगों ने एक दिन जीन-सवारी का कार्ड उसमें से निकला। उसका पहला वाक्य था- भी आनन्द लिया। भारतवर्ष में भी यदि इस "तुम बड़े ही बदमाश हो !" यह देखकर हम सब प्रकार के कैम्प विद्यार्थी लोग किया करें तो बड़ा ही लोग खूब ही हँसे । और लोगों ने भी एक एक पेनी अच्छा हो। कुछ अधिक खर्च भी नहीं होता और डाली। सबके भिन्न भिन्न चरित्र-वर्णन निकले। समय अच्छी तरह बीतता है । छुट्टियों में घर पर अन्त में मैंने भी एक पेनी डाल ही दी। भाग्य से पड़े पड़े सोने से तो कैम्प-जीवन कहीं अच्छा है।
/ मूर्ति में अमूर्त
लेखक, श्रीयुत हरिकृष्ण 'प्रेमी' सीमा का घूघट कर आती, अयि असीम, ज्यों धन में चंदा। अखिल विश्व का मन उलझाता यह गोपन का गोरखधंदा ।
तिल की अोट, तरुणि, तुम अपनी क्यों 'विराटता' ढक लेती हो। काया के कारागृह की तुम आँखें बंदिनि कर देती हो।
प्रिये, 'रूप' को धूप छाह का मत 'अरूप' पर पर्दा डालो। कहो मूर्ति, "मुझमें अमूर्त है, आँखें हों तो दर्शन पा लो।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
हदीस
लेखक, श्रीयुत महेशप्रसाद मौलवी आलिम फ़ाज़िल्न
कोई ऐसी बात जिसका कभी कभी, हज़रत मुहम्मद से सीधा सम्बन्ध रहा हो इस्लाम में हदीस के नाम से पुकारी जायगी । हदीसों की गिनती नहीं है फिर भी उनके कई संग्रह मिलते हैं । इस लेख में विद्वान् लेखक ने हदीसों के बारे में बहुत-सी ज्ञातव्य बातें बतलाई हैं।
थी। इस घटना के पश्चात् वे लगभग ३३ वर्ष तक कला स्लाम में क़रान के पश्चात जीवित रहे थे। इस काल में नाना प्रकार की बातों
धार्मिक दृष्टि से हदीस को का सम्बन्ध उनके जीवन के साथ था, इस कारण उच्च पद प्राप्त है। हदीस इस इतने बड़े काल की 'बातें' (हदीमें) मंख्या में अरवी का शब्द है और बहुत ज्यादा हैं। इसका माधारण अर्थ है।
'बात' अथवा 'नई बात'। समस्त हदीमों का सम्पादन तथा संग्रह बहुत ZEE
परन्तु इसकी विशेष परि- लोगों ने किया है, जिनमें से प्रसिद्ध लोग ये हैंभाषा यह है—'वह बात जो हजरत मुहम्मद ने की हो, (१) काजी अबूबकर बिन खरम मदीना नगर कही हो अथवा वह कथन या कार्य जिसको हज़रत ने में गवर्नर थे। इन्होंने ही पहले-पहल बहुत-सी सुना या देखा हो और उसको अनुचित न बतलाया हदीसों को एकत्र किया था, किन्तु इनकी कीर्ति हो या यह कि उसको अच्छा ही समझा हो।' इस विषय में इतनी अधिक नहीं है जितनी बाद
वह बात जिसको हज़रत ने स्वयं कार्यरूप में के लोगों की है। इसका मूल-कारण शायद यह हो किया है। हदीस फेली' कहलाती है। जो बात उन्होंने कि जैसी छान-बीन बाद के लोगों ने हदीसों के कही है उसे 'हदीस क़ौली' कहते हैं और 'हदीस विषय में की थी, वैसी छान-बीन इन्होंने नहीं की तक़रीरी' अर्थात् 'निर्धारित बात' ऐसे कथन या कार्य थी। इनका देहान्त मन १०० हिजरी (मन ७१८ को कहते हैं जिसको हज़रत ने केवल सुना या देखा ई०) में हुआ था। था, किन्तु जिसको अनुचित नहीं ठहराया था। (२) इमाम मालिक-द्वारा जमा की हुई हदीमें ___ अरबी में हदीस के पर्यायरूप में 'खबर', 'असर' एक हजार सत्ताईम हैं। इनके ग्रन्थ का नाम
और 'सुन्नत' शब्दों का प्रयोग हुआ है, किन्तु कुछ 'मोअत्ता' (सुसज्जित किया हुआ) है। ये सन ९३ विद्वानों के मतानुसार इन समस्त शब्दों के अर्थ में हिजरी (सन ७११ ई.) में मदीना नगर में पैदा हुए थोड़ा थोड़ा मतभेद है । हदीस-शब्द का बहुवचन- थे और ८५ वर्ष की आयु पाकर सन १७९ हिजरी अहादीस है। मुसलमान लोग मानते हैं कि जिस (सन ७९५ ई.) में स्वर्ग-लोक सिधारे थे। समय हज़रत मुहम्मद रसूल अर्थात् ईश्वरीय दूत * इन्होंने कितनी हदीसे एकत्र की थीं, इसका पता बनाये गये थे उस समय उनकी आयु ४० वर्ष की ठीक ठीक नहीं लग सका ।
४१०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५ J
(३) अबू मुहम्मद अब्दुल्ला बिन अब्दुर्रहमान समरक़न्दी की पुस्तक का नाम 'दारमी' है । ये सन् १८३ हिजरी (सन ७९९ ई०) में पैदा हुए थे और सन ८६ ईसवी में मरे थे ।
हदीस
(४) अबू दुल्ला मुहम्मद बिन इस्माईल प्राय: इमाम बोखारी के नाम से विख्यात हैं। ये सन ८०९ ईसवी में बोखारा में पैदा हुए थे। इन्होंने १६ वर्ष परिश्रम करके छः लाख हदीसें एकत्र की थीं, जिनमें से लगभग चार हज़ार हदीसों को इन्होंने ठीक समझा और उनको विषयानुसार क्रम से अपने ग्रन्थ में जमा किया, जो 'महीह बोखारी' के नाम से प्रसिद्ध है । हदीस के समस्त ग्रन्थों में इनका यह ग्रन्थ सबसे अधिक माननीय है । इनका देहान्त सन ८६९ ईसवी में हुआ है ।
(५) अबुल हुसैन मुस्लिम बिन हज्जाज प्रायः 'इमाम मुस्लिम' के नाम से विख्यात हैं । ये सन ८१९ ईसवी में नीशापुर (ईरान) में पैदा हुए थे, इन्होंने तीन लाख हदीसें एकत्र की थीं, जिनमें से बारह हज़ार को ठीक समझकर अपने ग्रन्थ में लिखा था जो 'सहीह मुस्लिम' के नाम से विख्यात हैं और जिसका पद 'सहीद बोखारी' के बाद है । इन दोनों को ही सुन्नी मुसलमान अधिक शुद्ध मानते हैं । इस कारण दोनों का एक संयुक्त नाम 'सहीहैन ' है । इमाम मुस्लिम का देहान्त सन् ८७४ ईसवी में हुआ था ।
1
(६) इमाम अबू दाऊद सुलेमान बिन अशअस सन् ८१७ ईसवी में सीस्तान (ईरान) में पैदा हुए थे । इन्होंने पाँच लाख हदीसें एकत्र की थीं, जिनमें से केवल चार हजार आठ सौ हदीसों का एक संग्रह तैयार किया था, जो 'सुनन अबू दाऊद' के नाम से प्रसिद्ध है। कुछ लोगों का मत है कि 'सहीह मुस्लिम' के पश्चात् इसी ग्रन्थ का पद है । इसके सम्पादक का देहान्त सनईसवी में
हुआ था ।
(७) अबू ईसा मुहम्मद बिन ईसा का जन्म
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
४११
तिर्मिज नामी स्थान में सन् ८२४ ईसवी में हुआ था । ये इमाम बोखारी के शिष्य थे। इनका ग्रन्थ 'जामे तिर्मिज़ी' के नाम से विख्यात है । इनका देहान्त सन ८२४ ईसवी में हुआ था । कुछ लोगों का मत है कि 'सहीह मुस्लिम' के पश्चात् 'सुनन अबू दाऊद का नहीं, बल्कि 'जामे तिर्मिज़ी' का है।
पढ़
का
(८) इमाम अबू अब्दुर्रहमान अहमद बिन यैब जन्म थसा नामक स्थान (ईरान) में सन् ८२९ ईसवी में हुआ था। इनके ग्रन्थ का नाम 'सुनन अब्दुरहमान नसाई' है । इनकी मृत्यु ९१५ ईसवी में हुई थी ।
(९) इमाम अबू अब्दुल्ला मुहम्मद बिन यजीद इब्न माजा का जन्मस्थान क़ज़वीन (ईरान) है । इनके ग्रन्थ में चार हज़ार हदीसें हैं। इनके जन्म का समय सन ८२४ ईसवी और मृत्यु का सन् ६ ईसवी है । उक्त समस्त ग्रन्थकारों के। ग्रन्थों में से केवल छः को 'सेहाह सित्तः' अर्थात् 'विशुद्ध छ : ' कहते हैं और ज्यादातर उन्हीं को लोग मानते हैं । इनमें से नंबर ४, ५, ६, ७ र ८ अर्थात् इन पाँचों को सभी लोग उत्तम समझते हैं, किन्तु कुछ लोगों की दृष्टि में विशुद्ध छठा ग्रन्थ नं० ९ है और कुछ लोगों के विचार से नं० ३ है । ( ३ )
इन समस्त ग्रन्थों में अनेक हदीसें ऐसी हैं जो कई ग्रन्थों में पाई जाती हैं, यद्यपि प्रत्येक ग्रन्थ के सम्पादक ने स्वतंत्रता के साथ एक-दूसरे से पृथक रहकर काम किया है । समस्त लेखकों के जन्मस्थान, जन्मकाल तथा मृत्युकाल से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनेक लेखक अरब के बाहर के थे और सब लोगों का जन्म हज़रत मुहम्मद की मृत्यु ( सन् ६३२ ई०) के समय से बहुत दिन बाद हुआ
* यह स्थान जेहूँ नदी के निकट पूर्वीय तुर्किस्तान में है ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१२
सरस्वती
था । अनेक लोगों ने अपना बड़प्पन प्रकट करने के विचार से बहुत-सी बातें झूठ-मूठ गढ़ ली थीं और उनका सम्बन्ध हज़रत के साथ बतलाया था। ऐसी हालत में दूध का दूध और पानी का पानी करना कठिन काम था । यही कारण है कि कुछ लोगों ने लाखों हदीसें एकत्र कीं, परन्तु उनमें से बहुत कम को ही ठीक माना और उन सभों का विषयानुसार सम्पादन किया ।
यहाँ एक हदीस का अर्थ दिया जा रहा है"हमको बतलाया मुहम्मद के पुत्र अब्दुल्ला ने और उस (अब्दुल्ला ने कहा कि हमको क़ासिम के पुत्र हाशिम ने बतलाया और उस ( हाशिम) ने कहा कि हमको शैबान अबू मोबिया ने बतलाया और उससे कहा लाक़ा के पुत्र ज्याद ने और उससे कहा शोबा के पुत्र मुग़ीरा ने कि हज़रत मुहम्मद के समय में सूर्य ग्रहण लगा और उसी दिन हजरत के पुत्र इब्राहीम का देहान्त हो चुका था। इस पर लोगों ने कहा कि इब्राहीम की मृत्यु के कारण सूर्य ग्रहण लगा है। इस पर हज़रत ने कहा कि वास्तव में सूर्य व चन्द्र ग्रहण किसी के मरने व जीने के कारण नहीं लगा करते सो जब तुम ग्रहण देखा करो तो नमाज़ पढ़ा करो और प्रार्थना किया करो। "
इस अनुवाद से स्पष्ट है कि असल हदीसे किस किसके पास से होकर लेखक तक पहुँची हैं और इनमें से प्रत्येक वर्णनकर्ता का हाल अर्थात् उसकी सचाई - कुठाई की छान-बीन के हेतु लेखक को कितना कष्ट उठाना पड़ा होगा । निदान ज्ञात रहे कि जिस हदीस के वर्णनकर्ता सत्यवादी तथा आचार-विचार के ठीक थे और जो हदीस भी 1. कुरान के बतलाये हुए धर्म के अनुकूल थी वही ठीक
* यह संकेत हदीस के लेखक इमाम बोखारी की श्रोर है। देखा ‘सहीह बोखारी' मिस्र का संस्करण, भाग
प्रथम, पृष्ठ १२० ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
मानी गई है। यदि वह ठीक बात नहीं है अथव उसके वर्णनकर्ता में कुछ त्रुटि पाई गई तो हदीस कमज़ोर अथवा अविश्वसनीय मान गई है।
प्रत्येक वर्णनकर्ता के नाम से प्रत्येक हदी बहुत बढ़ जाती हैं, इसलिए वर्णनकर्ताओं का नाम उड़ाकर अर्थात् केवल असल हदीस को सम्मुख का कुछ लोगों ने हदीसों का संक्षेप किया है अथव यह कि उनको छाँट छाँट कर नये ग्रन्थ रच दिये हैं। परन्तु साथ ही साथ यह भी ज्ञात रहे कि हदीस के बड़े बड़े ग्रन्थों की बड़ी बड़ी टीकायें भी लिखी गई हैं और उनके पठन-पाठन की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है ।
जो हदीसें क़ौली हैं अर्थात् जो मुहम्मद साह के कथन हैं वे सर्वथा अथवा प्रायः उन्हीं शब्दों हैं जिन शब्दों में हज़रत ने उन्हें कहा है, किन्तु जं अन्य श्रेणियों की हदीसें हैं उनके शब्द अवश्य दूसरे के हैं ।
इसमें सन्देह नहीं कि हज़रत मुहम्मद के वचन धार्मिक दृष्टि से बहुत आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं, किन्तु ये वचन साहित्यिक दृष्टि से भी कुछ कम उच्च पद नहीं रखते। इसके सिवा यह भी ज्ञात रहे कि हदीसों से क़ुरान की टीका तथा टिप्पणी करने में बहुत मदद ली जाती है, मुहम्मद साहब के जीवन पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है और अन्य अनेक घटनाओं के सम्बन्ध में बहुत-सा ज्ञान प्राप्त किया जाता है ।
हदीसों के विषय में ऊपर जो कुछ लिखा गयाहै वह सुन्नी मुसलमानों के मत के अनुसार है। शिया मुसलमान हदीस के उन ग्रन्थों को पूर्णतया ठीक नहीं मानते जिनको सुन्नी मानते हैं । शिया लोग केवल थोड़े से विशेष लोगों की बतलाई हुई हदीसों को ही ठीक मानते हैं और ऐसी हदीसों को मानते हैं। जो क़ुरान में आई हुई बातों के अनुकूल हैं।
www.umaragyanbhandar.com
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
अगस्त
पर बैठा दिया और क्योतो की
कहा, यही ट्रेन सीधी यात्रा समाप्त
कोयासान्--केबलकार कर एक बजे
स्टेशन तक जायगी। स्टेशन पर पहुँचे ।
फिर १५ मिनट केबहमारे चिर-सहचर श्री
लकार से सीधी चढ़ाई शकाकिबारा का यहीं
चढ़नी होगी और तब से साथ छूटनेवाला
कोई सवारी लेकर था। ट्रेन के बारे में
शिन्नो हन्-मठ में पूछतांछ करने पर
मीजुहारा सान् के पास मालूम हुअा, तोक्यो
चले जाइएगा। | के लिए टिकट के
गाड़ी पर बैठ | रास्ते से जाने पर
जाने के बाद मैंने गाड़ी को कई जगह
देखा कि शकाकिबारा बदलना होगा और
का चेहरा उतर गया हमारे जैसे सौ जापानी
है। मेरे हृदय में भी शब्दों के पंडित के
कुछ एकान्तपन का लिए यह छोटी
अनुभव होता था। समस्या न थी । अन्त
शकाकिबारा का परिमें शकाकिबारा की
[ तीर्थ-यात्री]
चय ३ वर्ष पूर्व जर्मनी सलाह हुई, श्रोसाका
में हुआ था और इधर लेखक, श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन होते चलें, वहाँ तक
जापान पहुँचने पर साथ रहेगा । हम कोयासान जापान में बौद्धों के शिङ्-बोन-सम्प्रदाय का पहले एक मास तक टिकट के आफ़िस में एक बहुत बड़ा विहार है। इसके अन्तर्गत १२ हजार उनका ही अतिथि गये और एक मिनट से अधिक मंदिर हैं। इस लेख में श्रीयत राहुल जी ने रहा। बाद भी रहने के भीतर हमारा टिकट इसी विहार का वर्णन किया है।
का आग्रह कर रहे लौटाकर नकद पैसे
थे, किन्तु दूसरे मित्र मिल गये । (मुताबिला कीजिए भारतीय रेलों से) । तोक्यो को संस्कृत के एक अनुवाद में सहायता देने के लिए मुझे से मंचोली (सोवियट-मंचूरिया-सीमा) तक का टिकट लिया। गाँव में रहना पड़ा। अब इधर फिर दो सप्ताह साथ रहा। स्टेशन से टेक्सी करके हम बिजली की रेल से नम्बा-स्टेशन शकाकिबारा के विषय में इतना ही कहना चाहता हूँ कि पर पहुँचे । रिटर्न टिकट ले लिया। शकाकिबारा ने ट्रेन यदि एक सौ जापानी पुरुषों ने भी मेरे साथ अभद्रता का
४१३
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१४
सरस्वती
[भाग ३६
कठिनाइयों का सामना करते हुए |
आगे बढ़े हैं, अतएव ऐसे आदमी में विशेषता होनी ही चाहिए।
अाखिर हमारी गाड़ी ने सीटी दी। 'सायोनारा' (विदाई का अभिवादन) कर हम एक-दूसरे से | अलग हुए। बिजली की रेल के | स्टेशन करीब करीब होते हैं। दो-तीन स्टेशनों के बाद गाँव श्रा गये। जहाँ-तहाँ घरौंदे-से छोटे छोटे खपरैलवाले मकान, दूर तक | फैले हरे-भरे धान के खेत । खेतो में पानी की नहरें भी हैं, और कहीं
कहीं पानी को ऊपर उठाने के लिए। [ प्राकृतिक दृश्य (गर्मी)]
हवा से चलनेवाले रहट लगे हैं।
सड़क के किनारेवाले खेतों में मोटे बर्ताव किया होता और मुझे सिर्फ एक शकाकिबारा के मोटे अक्षरों में कितने ही साइनबोर्ड लगे हैं । विज्ञापनबाज़ी साथ कुछ समय रहना पड़ता तो मेरी जापान के प्रति से किसानों के झोपड़ों की छतें तक नहीं बची हैं। प्रायः सारी बुरी धारणा लुप्त हो जाती। शकाकिबारा की उम्र पौन घंटा चलने पर हम पहाड़ में घुसे, किन्तु यहाँ बड़े ३३-३४ वर्ष की है। प्राइमरी शिक्षा के बाद वे बौद्ध पहाड़ नहीं हैं। हाँ, रेल की सुरंगें काफ़ी हैं। इतनी पुरोहित बनने की तैयारी करने लगे। वह शिक्षा पा ही सुरंगांवाली रेलवे लाइन कैसे कोई प्राइवेट कम्पनी एक रहे थे कि १६२३ का भूकम्प आया। उनकी कार्यतत्परता वाणिज्यरहित स्थान के लिए निकालेगी, हम तो इसी को देखकर भूकम्प-सहायता का काम करने के लिए उनके विचार में पड़े थे। हाशीमोतो-जंकशन से अब हम बड़ सम्प्रदाय के प्रधान केन्द्र (कोशो जी, क्योतो) ने उन्हें पहाड़ की ओर चले । यहाँ का पार्वत्य दृश्य देखने से तोक्यो भेजा। उनके कार्य से लोग इतना सन्तुष्ट हुए मालूम होता था कि हम कलिम्पोङ के आस-पास हिमालय कि उनसे तोक्यो में एक मन्दिर बनाकर रहने का आग्रह में चल रहे हैं। फूसवाले घरों की छतें तो बिलकुल नैपाल-सी करने लगे। उन्होंने नका-अोकाची माची में दस हज़ार मालूम होती थीं। धानों के खेत नीचे से ऊपर सीढ़ी की येन् (उस समय के तेरह हज़ार रुपये) की ज़मीन खरीदी, भाँति वैसे ही चले गये थे। किन्तु एक खास बात थी।
उतना ही और लगाकर मन्दिर बनवाया। हर जगह बिजली के तार के खम्भे थे। कहीं कहीं तो तारों जापान में दिन में कालेज या हाई स्कूल में न पढ़ सकने- का पिंजड़ा-सा बन गया था। कई दिनों से वर्षा न होने वालों के लिए रात में पढ़ने का सुन्दर प्रबन्ध है। शका- के कारण आज बहुत गर्मी थी। गर्मी के दिनों में छड़ी। किबारा ने रात्रि-कालेज में ही शिक्षा प्राप्त की थी। मंदिर छाता भले ही भूल जायँ, किन्तु कोई जापानी मुड़नेवाली का काम समाप्त कर १६३२ में विशेष अध्ययन के लिए पंखी नहीं भूल सकता। इन पंखियों में भी ज़नाना-मर्दाना वे जर्मनी चले गये थे। वहाँ से दो वर्ष बाद स्वदेश लौटे भेद रहता है। आज ही नम्बा-स्टेशन पर शकाकिबारा के हैं। इस संक्षिप्त कथा से मालूम होगा कि शकाकिबारा मित्र की स्त्री ने अपनी पंखी भेंट करनी चाही, और इस
और कर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५ ]
कोयासान
गर्मी में हम भी इनकार करने के लिए तैयार न थे, किन्तु मालूम हुआ, इस भेंट को हम बक्स में रख भर सकते हैं, इस्तेमाल नहीं कर सकते । खैर, शकाकिबारा ने अपनी पंखी दी, और उसने बहुत सहायता पहुँचाई ।
आजकल गर्मी का दिन है, बहुत-से स्कूल के लड़के तथा दूसरे यात्री जापान के दार्जिलिंग और बदरीनाथ- कोयासान् की यात्रा कर रहे हैं । वसन्त में कोयासान् फूलों से ढँक जाता है । उस वक्त इस पर्वतस्थली के दर्शनार्थ और भी अधिक यात्री आते हैं। प्रतिवर्ष दस लाख तीर्थाटक कोयासान् पहुँचते हैं । यद्यपि यह पर्वत समुद्रतल से २,८५८ फुट ही ऊँचा है, तथापि भूमध्यरेखा से ३४ डिग्री से अधिक उत्तर होने से यह हिमालय के छः हज़ार फुट के बराबर ठंडा है । इसकी हरियाली को देखकर मुझे बार बार शिकम के पहाड़ याद आते थे ।
पाँच बजे हम अपनी ट्रेन के अन्त पर पहुँचे । दस क़दम चढ़कर केबलकार का स्टेशन श्राया । केबलकार और दूसरी रेलों में इतना ही फ़र्क़ है कि इसके खींचने में लाइन के दोनों लोहों के बीच में लोहे का मोटा रस्सा (केबल) लगा रहता है, जो बिजली के ज़ोर से चक्के पर होकर ऊपर की ओर खींचा जाता है । चढ़ाई इतनी सीधी थी, जिसे हमारे लड़कपन के अध्यापक बाबू पत्तरसिंह के शब्दों में कह सकते हैं कि 'ऊपर ताकने पर टोपी गिर जाय' । यहाँ अब न कोई गाँव दिखाई पड़ता था और न अधिक घर | अपनी गाड़ी और लाइन का खयाल छोड़ देने पर मालूम होता था, हम जापान में नहीं, हिमालय में आ गये हैं। चारों ओर जिधर देखिए, उधर सदा हरित विशाल देवदार किसी विशाल शिवालय के शिखर की तरह खड़े हैं। यदि कहीं थोड़ी-सी भी भूमि वनस्पतिशून्य है तो वह पर्वत के सौंदर्य को बढ़ाने के लिए ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
४१५
[ दाई-मान ( महान् द्वार]
पक्षियों के कलरव और कीट भृङ्ग की गुनगुनाहट बहुत मधुर मालूम होती थी ।
ट्रेन से उतरकर बाहर जाते ही दो-तीन मोटर बसें खड़ी मिलीं । १० सेन् (पाँच पैसे) दे हम एक बस पर बैठ गये, / और चन्द मिनटों में न्योनिन्-दो (महिला-द्वार) पहुँच गये । १८७२ ईसवी से पहले स्त्रियाँ यहीं तक सकती थीं। यहीं से उन्हें देवालयों के शिखरों के दर्शन होते थे, श्रागे उनका जाना निषिद्ध था । इसी लिए इस द्वार का महिला-द्वार नाम पड़ा। फाटक पर एक लेखक रहता है, जो यात्री का नाम-धाम लिखता है । कोयासान् की आबादी ३५०० (८०० साधु) है । किन्तु यहाँ कोई ठहरने का होटल नहीं है; ठहरने का प्रबन्ध मठों की ओर से अच्छे होटल से भी बढ़कर है। फाटक का आदमी आपको साथी देगा, जो ले जाकर आपको आपके ठहरने की जगह पर पहुँचा देगा । हमारे पास शिन्-नो-इन विहार के अधिपति भिक्षु मीज़हारा के लिए चिट्ठी थी, इसलिए हमें वहाँ पहुँचाने के लिए आदमी मिल गया ।
तार पहले से ही पहुँच चुका था, इसलिए पहुँचते ही स्वच्छ सीतलपाटियाँ बिछे तथा तीन सौ वर्ष पुराने सुन्दर चित्रफलकों से अलंकृत कमरे में जगह दी गई।
www.umaragyanbhandar.com
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१६
सरस्वती
[भाग ३६
एक संभ्रान्त वंश में हुआ था। बचपन से ही वे बड़े । मेधावी थे। उनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। वे अच्छे । दार्शनिक, सुन्दर लेखक, दक्ष चित्रकार तथा मूर्तिकार और । पक्के साधक थे। वैसी सर्वतोमुखी प्रतिभा के पुरुष । जापान में कम हुए हैं। ८०४ ईसवी में वे अध्ययनार्थ । चीन गये। वहाँ से लौटने पर राजधानी क्योतो में उनका । बड़ा सम्मान हुअा। जब उन्हें अपने मठ के बनाने की। आवश्यकता हई तब क्योतो राजधानी के आस-पास की जगह न पसंद कर उन्होंने अपने लिए अनुकल स्थान खोजना शुरू किया। कहते हैं, जब वे कोयासान् की जड़ । में आये तब पास के देवता ने शिकारी का रूप धारण कर काले और सफ़ेद दो कुत्तों के साथ उन्हें रास्ता बतलाया। पहाड़ के ऊपर अपेक्षाकृत चौरस तथा देवदार से हरीभरी उपत्यका को देख वहीं उनका मन लग गया और उन्होंने वहाँ अपने मठ की स्थापना की। ८३५ ईसवी में | देहान्त होने पर उनका शरीर भी वहीं अोकुनो-इन् में |
कोबोदाइशी (७७४-८३५ ई०)]
बैठने के साथ पानी में उबला गर्मागर्म तौलिया मुँह हाथ पोंछने के लिए आ गया और थोड़ी ही देर में पीत वस्त्रधारी भिक्ष मीज़हारा सान् भी आ गये। आप कोयासान के पाठ सौ भिक्षुत्रों में बड़े प्रतिष्ठित साधु हैं । भिक्षुनियमों के पालन का भी आपको बहुत ध्यान रहता है, इसलिए घर के भीतर प्रायः भिक्षत्रों के पुराने पीले वेष में ही रहा करते हैं। हमारे मेज़बान को जापानी के अतिरिक्त किसी दूसरी भाषा का कोई एक शब्द नहीं मालूम था, इसलिए हमने अपने जापानी सौ शब्दों के कोष से काम चलाया। रात को यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि यहाँ क्योतो जैसी मच्छरों की श्राफ़त नहीं।
कोयासान् का माहात्म्य भारतीयों को समझाने के लिए कुछ विशेष लिखने की आवश्यकता है। कोयासान्विहार के संस्थापक कोबोदाइशी का जन्म ७७४ ईसवी में
[बाबू आनन्दमोहन जी]
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ संख्या ५]
कोयासान्
रक्खा गया। तब से कोयासान् उनके शिङ्-बोन्-सम्प्रदाय का केन्द्र बन गया। आजकल भी कोबोदाइशी के अनुयायियों की संख्या नबासी लाख के करीब है, और उनके मंदिर बारह हज़ार से अधिक हैं। मंत्र और पूजा का मान्य करने से जापान के इस सम्प्रदाय के भिक्षत्रों को कुछ संस्कृत-मंत्र तथा सातवीं शताब्दी में प्रचलित उत्तरी भारत की लिपि को ज़रूर सीखना पड़ता है।
५ अगस्त को जल-पान के बाद श्री मीज़हारा के साथ हम दर्शनार्थ निकले। दो मील से अधिक दूर तक फैले इस संघाराम में सौ से ऊपर मठ हैं। हर एक मठ में कितने ही पुराने कलाकारों के चित्र या मूर्तियाँ हैं। कितनी ही पुरानी स्मृतियों से युक्त श्रावास हैं, किन्तु उनका देखने के लिए महीनों चाहिए । इसलिए हमें प्रधान प्रधान स्थानों को देखकर ही संतोष करना था । पहाड़ पर देवदार वृक्षों के नीचे स्थापित लाल स्तूप को देखते हुए हम दाइतो (महास्तूप) के पास गये। इस स्तूप को पहले-पहल कोबोदाइशी ने बनाया था, किन्तु काठ का होने से इसमें कई बार आग लगी, और कई बार इसका पुनर्निर्माण हुआ। -११४६ ईसवी में शोगुन (ताइरानो) कियोमोरी ने इसका पुनर्निर्माण कराया और अपने रक्त से लिखित मंडल-चित्र को इसमें स्थापित किया। वह चित्र आज भी यहाँ के म्यूज़ियम में सुरक्षित है। १६० फुट ऊँचा यह स्तूप कोयासान् की अत्यन्त भव्य इमारतों में है। कुछ वर्ष
[ोकुना-इन् ] पूर्व यह आग से जल गया था, अभी पुनर्निर्माण का काम थी, उसी समय सीमेंट निर्मित नई इमारत तैयार हुई। समाप्त नहीं हुआ।
हाते से बाहर किन्तु थोड़ी ही दूर पर रेइहोकान् पास में ही मिए इदो है। इसमें राजकुमार शिन्न्यो - (संग्रहालय) है। इसमें पाँच हज़ार मूर्तियाँ, चित्रपट तथा द्वारा अंकित कोबोदाइशी का चित्र है। राजकुमार कोबो- दूसरी चीजें संगृहीत हैं। इन वस्तुओं में कितनी ही राष्ट्रीय दाइशी के दस प्रधान शिष्यों में थे । इस चित्र को उन्होंने निधि मानी गई हैं। जापान भर के मठों और मंदिरों में अपने गुरु की मृत्यु से ६ दिन पूर्व समाप्त किया था। जहाँ कहीं भी कला, इतिहास या दूसरी दृष्टि से कोई कहावत है कि इस चित्र की आँखों पर कोबोदाइशी ने अधिक महत्त्वपूर्ण मूर्ति चित्र आदि हैं, उन्हें सरकार ने स्वयं तूलिका फेरी थी।
राष्ट्रीय निधि के तौर पर दर्ज कर लिया है । और ऐसी राष्ट्रीय कुछ दूर पर इसी हाते में कुन्दो विहार है। इसे निधि की सुरक्षा आदि के लिए विशेष नियम और प्रबन्ध भी कोबोदाइशी ने बनाया था, किन्तु मूल-विहार कई किये गये हैं। कोयासान् के विहारों में ऐसी राष्ट्रीय निधियाँ बार आग से जला और नया बना है। पिछले वर्ष कई सौ हैं। संस्थापक के निर्वाण की एकादश शताब्दी मनाई गई वहाँ से कोयासान् कालेज में गये। कोयासान् के
फा.५ Shree Sudhg maswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१८
सरस्वती
[भाग ३६
में अपनी हड्डियों के पहुँच जाने की हर एक बौद्ध के हृदय में बड़ी लालसा होती है, उस समय उनको भी इसी प्रकार का कुछ अनुभव हुआ था। उन्होंने साफ़ तो नहीं कहा, किन्तु एक बार लोटा-पानी का ज़िक्र
आने पर जब मैंने कहा कि अब चौका-चूल्हा बहुत ढीला हो गया है तब उन्होंने आश्चर्य
और प्रसन्नता प्रकट की [ एक क्रीडा-उपवन ( शोजो शिन्-इन् )]
थी। खयाल कीजिए, विहार ने अपने भिक्षुओं की शिक्षा के लिए एक हाई जब भारत से कोई विद्वान् अावे तब तो उसका जापान स्कूल और एक कालेज (या विश्वविद्यालय) स्थापित किया के तोक्यो, क्योतो, कोयासान् तथा दूसरे स्थानों में बौद्धहै। हाई स्कूल के ४०० विद्यार्थियों में ३०० भिक्षु हैं। शिक्षित समुदाय विशेष प्रकार से स्वागत तथा अभ्यर्थना कालेज के २६० लड़कों में ५-७ ही बाहरी हैं, बाकी करें, किन्तु जब कोई बाहर से संभ्रान्त बौद्ध विद्वान् या सभी भिक्षु हैं । हाई स्कूल पास करने में ग्यारह वर्ष लगते नेता भारत जाय तब न गया में, न बनारस में उसका मान हैं, और कालेज पास करने में ५ वर्ष । कालेज को डिग्री या स्वागत हो । क्या इसी पर हिन्दू चाहते हैं, सारे भारत में देने का सरकार से चार्टर प्राप्त है, इसलिए इसे यूनिवर्सिटी धर्मियों का बन्धुत्व और सहानुभूति प्राप्त करना ? तोक्यो, भी कहते हैं। कालेज की पढ़ाई में बौद्ध-धर्म और दर्शन क्योतो आदि की तरह यहाँ के अध्यापकों ने भी अाज के अतिरिक्त संस्कृत भी सम्मिलित है। संस्कृत के प्रधान शाम को 'राहुल सांकृत्यायन' के स्वागतोपलक्ष में चायपार्टी अध्यापक प्रोफ़ेसर फुजिदा जर्मनी के पी० एच-डी हैं। की, और उसकी कृतज्ञता में अपने देशवासियों से यहाँ ये | वे भारत में भी तीर्थाटन कर चुके हैं। हम भारतीयों को दो शब्द कह देना ज़रूरी समझा । गर्व तो होता है कि दूर दूर से लोग हमारी मातृ-भूमि कालेज के पुस्तकालय में सत्तर हज़ार पुस्तकें हैं। की वंदना करने पहुंचते हैं, किन्तु हमारा खयाल इस ओर इमारत तिमहला और चौमहला है। इस पर तीन चार नहीं जाता कि इन प्रतिष्ठित मेहमानों के साथ हमारा बर्ताव लाख से कम खर्च न हश्रा होगा। कैसा होता है। संसार-प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् जब डाक्टर दोपहर के भोजनोपरान्त एक बजे हम फिर दर्शनार्थ तकाकुसू भारत तीर्थाटन करने गये थे, उस समय प्यास निकले। पहले कोङ्-गो-बुजी गये । यह शिङ्गोन्लगने पर उन्हें म्लेच्छ समझकर रास्ते में किसी ने पानी देने संप्रदाय का केन्द्रीय विहार है। सम्प्रदाय के प्रधान या खन्चो से इनकार कर दिया था। एक दूसरे वृद्ध बौद्ध नकाजीमा यहीं रहते हैं । प्रधान देवालय २१० फुट लम्बा और कितने ही वर्षों तक संयम और ब्रह्मचर्य रखकर अपनी पूज्य १८० फुट चौड़ा है। इस सारे विहार को दसवीं शताब्दी माता की अस्थियाँ लेकर बोध-गया गये थे (धर्म-भूमि भारत से लेकर बीसवीं शताब्दी तक के अनेक चोटी के चित्रकारों
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
कोयासान्
४१९
की चित्र-प्रदर्शनी समझे। मोतोनोबु, तन्साई, तोएकी जैसे अमर चित्रकारों की अमर कृतियाँ यहाँ चलभित्ति-फलकों पर अंकित हैं।
और मंदिरों की भाँति इस मंदिर में भी कई बार आग लगी है, किन्तु चित्र खिसकनेवाले पट फलकों पर होने से बचाये जा सके हैं। एक कोने में वह कमरा है, जिसमें तरुण हिदेसुगु ने शत्रुओं के हाथ में जीते पड़ने से बचने के
[ गोसामइ-इन् (पर्णकुटी)] लिए हराकिरी की थी। हिदेत्सुगु तत्कालीन जापान के शासक हिदेयाशी का पोष्य ताकिगुची एक मठ में जा साधु हो गया। किन्तु क्योतो पुत्र था, किन्तु पीछे विमाता की ईर्ष्या के कारण हिदेयाशी के उस मठ में भी जब-तब उसकी प्रेमिका पहुँचने लगी। (१५३६-६८ ई०) के कोप का भाजन बना।
तब वह भाग कर कोयासान् के इसी मठ में रहने लगा। मंदिर के एक बग़ल में वह कमरा भी है जिसमें प्रेमिका वन वन की खाक छानती फाटक पर पहुंची, जापान के कितने ही पुराने सम्राट अाकर रह चुके हैं। किन्तु फाटक के भीतर स्त्री का प्रवेश तो निषिद्ध था। एक बग़ल में और कितने ही कमरे हैं जिनमें पिछली प्रेमिका कितने ही समय तक अपने प्रेमी की झाँकी के एकादश शताब्दी महोत्सव के अवसर पर कितने ही प्रिंस, लिए न्यो निन्-दो के बाहर बैठी रही। आखिर निराश हो कौंट और बैरन आकर रहे थे। इन कमरों में जापान के उसने नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली। मरने के बाद कितने ही आधुनिक चित्रकारों के चित्र-फलक हैं। वह बुलबुल हुई । अब भला किसकी मजाल थी, जो कोई
अब पीले कपड़ों-द्वारा बाज़ारवालों का मनोरंजन योकोबुए को भीतर आने से रोकता। वह नित पाकर कराते हम शोजोशिन् विहार में पहुँचे। यह कोयासान् के अपने प्रेमभाजन की कुटिया के सामनेवाले वृक्ष पर बैठ मठों में सर्वसुंदर समझा जाता है। पुराने चित्रों और कर शब्द किया करती थी। किन्तु उसके प्रेमी को इसकी मूर्तियों का यहाँ भी अच्छा संग्रह है। पीछे की खबर न थी। आखिर बुलबुल चिन्ता से कृश होते होते
ओर पहाड़ की जड़ में इसका क्रीडा-उपवन तो एक दिन क्रीड़ा-पुष्करिणी में डूब कर मर गई। भिक्षु लाजवाब है। इस विहार से दो प्रेमियों की कथा ने अपने हाथ से उठा कर दाह-कर्म किया। कालान्तर का घनिष्ठ सम्बन्ध है। ताकीगुची एक संभ्रान्त सामु- में भिक्ष ने भी शरीर छोड़ दिया। कहते हैं, उसके बाद राई (राजपूत) था। इस सुन्दर तरुण का घर की दोनों उस लोक में गये, जहाँ उनके प्रेम में न पिता बाधा परिचारिका योकोबुए से प्रेम हो गया। दोनों ब्याह कर दे सकता है, न माता, न जाति रुकावट पैदा कर सकती है, लेना चाहते थे। किन्तु राजपूत पिता अपने पुत्र की शादी न सम्बन्धी । जहाँ नित्य निरन्तर मिलन के ही दिन और / नीच कन्या से क्योंकर होने देता । आखिर निराश हो मिलन की ही रातें हैं।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२०
सरस्वती
[भाग ३६
757
। अति दूर अवस्थित टापू में एक सजीव ज्वालामुखी है । रोज़ उस टापू के लिए नहाज़ जाया करता है। प्रेमी युगल जाकर मीहार के अग्नि-मुख में कूद पड़ते हैं। शिन् जू के मारे सरकार ने मीहार पर कड़ा पहरा बैठा रक्खा है। रात को खुले कुत्ते पहरा देते हैं । तब भी कुत्तों को मांस का टुकड़ा डाल कर कितने ही पहुँच
जाते हैं । मैंने अपने जापानी [ गोसामइ-इन् ]
मित्र से पूछा -- ज्वालामुखी
के पेट से लाश तो मिलेगी। -एक प्रसिद्ध चित्रकार के चित्र-फलक को दिखला नहीं, फिर पता कैसे लगता है कि मीहार में रोज़ दो एक कर जब मुझे यह कथा सुनाई गई तब मैंने कहा शिन्-जू के शिन्-जू होते हैं। उत्तर मिला-जहाज़ के मुसाफ़िरों की प्रचार का यह एक उत्तम साधन है। हिन्दी-पाठकों ने शिन्-जू गिनती करने से । पहली बार जब जापान में रोजाना १२-/ के बारे में नहीं सुना होगा । जापान में प्राज-कल इसकी १३ शिन्-जू की बात मुझसे कही गई तब मैंने उसको | भरमार है। दो तरुण-तरुणी आपस में प्रेम करते हैं । दोनों इतना अविश्वनीय समझा कि उस पर आश्चर्य भी नहीं | ब्याह करना चाहते हैं । माबाप की ओर से विरोध होता है । आर्थिक, सामाजिक या दूसरी कठिनाई बाधक होती है। तरुण-तरुणी सोचते हैं, इस जन्म में हमारा सुखमय मिलन नहीं हो सकता। चलो उस लोक को चले चलें । दोनों रेल के नीचे लेट जाते हैं, ज़हर खा लेते हैं या गैस का पाइप नाक पर लगा लेते हैं या सबसे अधिक प्रचलित ढंग है मीहारयामा का टिकट कटा लेना। मीहारयामा तोक्यो
[शेोजो शिन्-इन् (चित्रफलक )]
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
_ संख्या ५]
कोयासान
४२१
प्रकट किया। दूसरी बार भी मेरा वही भाव रहा। तीसरी बार जब मैंने गम्भीरता से पूछ-ताछ कीक्या बारह तेरह रोज़ाना या सालाना ? उत्तर मिला-रोज़ाना, रोज़ाना। बात यह है, हम लोग मृत्यु को बहुत महत्त्व देते हैं, उससे बहुत डरते हैं। जापानी उसको उस तरह नहीं लेते । उनके खयाल से · मरनेवाले के लिए अन्तिम निश्चय के बाद वह कुछ समय की मानसिक वेदना है। यदि मीहार जैसा सामान हो, तो मृत्यु की पीड़ा होती ही नहीं । और बचे लोगों के लिए–'अाह !
[प्राकृतिक दृश्य (जाळा)] हमारा मित्र चला गया । हमारा सम्बन्धी चला गया । अच्छा निप्पोन् (जापान) की भक्ति, अपने सम्राट के देव-तुल्य कर्म को कौन टाल सकता है ?' यदि कहा जाय जापानी- सम्मान का पाठ पढ़ा है। उसने स्वामिभक्त ४७ रोनिनों जाति मृत्युंजय है तो इसमें अतिशयोक्ति बहुत कम होगी। की कुर्बानियाँ पढ़ी हैं और शायद उनकी समाधियों को अपने आदर्श, अपने भाव के सामने एक जापानी अपने जाकर देखा है, अथवा उनके फ़िल्म देखे हैं। उसने जीवन का मूल्य तुच्छ समझता है। उसने लड़कपन से पोर्टअार्थर विजेता नेोगी को सपत्नीक अपने सम्राट (मेहजी)
के वियोग में हराकिरी करते पढ़ा है । वह समझता है, जीवन का मूल्य किसी समय बहुत भी हो सकता है, किन्तु कुछ ऐसे अवसर, कुछ ऐसी वस्तुएँ हैं, जिनके बदले में जीवन दे देना सबसे सस्ता सौदा है। जापानियों में ये भाव इतने भीतर तक घुस गये हैं कि उसका अनुमान करना भी हमारे लिए मुश्किल है। मृत्यु के साथ खेलने में वे बड़े दक्ष हैं। यदि कोई बड़ा युद्ध हो जाय, जिससे दस लाख आदमी मर जायँ, जानते हैं, जापानी क्या कहेगा-भवितव्यता के
साथ किसका वश ? अच्छा वह तो हो [ काङ्गो-बुजी]
गया । मृत्यु का घाटा देखकर हमारी
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२२
सरस्वती
[भाग ३६
VIE
MONT
मिट्टी के स्तूपों को पढ़िए। ये सम्राटों और सम्राट्कुमारों की समाधियाँ हैं । इन सबकी यही अन्तिम कामना । थी कि मरने के बाद अपने | उपदेशक-अपने गुरु की। समाधि के पास उनको । जगह मिले । कहीं आप तीन हाथ लम्बे खम्भे-जैसे । चिकने पत्थरों को एक अोर खुले मुँहवाले अायत । क्षेत्र के रूप में देखेंगे। ये
हैं क्योतो या तोक्यो, [शोजो शिन्-इन् ( द्वार)]
अोसाका या योकोहामा की
नर्तकियाँ (गेईशा)। जीवनजाति हर साल दस लाख प्राणियों के नफ़े में रहती है। काल में भी उन्होंने इसी तरह पंक्तिबद्ध हो नृत्य किया। चलो समझेंगे एक साल नफ़ा नहीं हुआ। वस्तुतः इतने था। मरने के बाद भी आज वे उसी प्रकार पंक्तिबद्ध भीषण जन-विनाश का जापानी दिल पर उतना ही असर खड़ी हैं। बीच बीच में आपको कोबोदाइशी की पीतल होगा, जितना काई से श्रावृत तालाब पर फेंके हुए डले या पत्थर की बाल्य, तारुण्य वा वार्धक्य की मूर्तियाँ का । संसार की किसी जाति और उसके योद्धाओं में यह दिखाई पड़ेंगी। और दो दो सौ फुट ऊँचे देवदार ! उनका | दृढ़ अधिष्ठान नहीं है । अधिष्ठान-बल, संख्या-बल, सेना- तो कहना ही क्या। सुन्दर पुल, स्वच्छ पत्थर बिछे हुए विज्ञान-बल-ये चीजें हैं जिनके कारण आज जापान रास्ते के छोर पर पहुँचिए । यहाँ कितने ही चिराग़ अहसंसार की बड़ी बड़ी शक्तियों को मुँहफट-सा जवाब दे रहा निश जल रहे हैं। किन्तु समाधि यह नहीं है। परिक्रमा है । योरप या अमेरिका चीन को आर्थिक सहायता करना करते हुए पीछे चलिए। चहारदीवारी से घिरे देवदार के चाहते हैं, जापान कहता है—खबरदार ! यह तुम्हारी वृक्षों के बीच देखिए वह छोटा झोंपड़ा-सा मकान । यही अनधिकार चेष्टा है।
है उस महान् दार्शनिक, महान् कलाकार, महान् पर्यटक, । सब देखकर हम कोबोदाइशी की समाधि आकुनो- महान् सिद्ध का समाधि-गेह । दो पैसा खर्च कर धूपइन् की ओर चले। पहला पुल पार करते ही दोनों ओर बत्ती लीजिए। धूपदान पर रखकर जलाइए। ऐसे अद्समाधि-पाषाण दिखलाई देने लगते हैं। हर एक पत्थर भुतकर्मा पुरुष के प्रति अपना सत्कार प्रदर्शन करना । पर उस व्यक्ति का नाम खुदा हुअा है जिसकी राख हमारा कर्तव्य है। उसके नीचे दबी हुई है । यदि आप चीनी अक्षर पढ़ सकते लौटकर हम करुकायादो तथा कोङ्-गो-सामइ-दो में हैं तो एक एक पत्थर को पढ़ते जाइए । अथवा इन लाखों गये। हर जगह का वर्णन एक-दो लेख में नहीं किया पत्थरों का पढ़ना असंभव समझते हों तो बड़े बड़े स्तूपा- जा सकता। उनके लिए पाथा चाहिए। संक्षेप में तो कार पत्थरों को पढ़िए। इनमें आप पुराने जापान के कह ही दिया, ये विहार मूर्ति और चित्रकला के अपूर्व कितने ही सेनापतियों और सामन्त राजाओं को पायेंगे। या संग्रहालय हैं।
Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
कोयासान
४२३
गोकुराकुजी बौद्ध-मन्दिर में डेरा पड़ा । तीन दिन ठहर कर जापान से प्रस्थान करने की सलाह ठहरी।
७ तारीख को इंडिया लाज देखने गये। कोबे में भारतीय छात्रों तथा अपरिचित व्यक्तियों के रहने के
लिए किसी अच्छे स्थान की [शोजो शिन्-इन् ताकी गुची और योकाबुए)]
आवश्यकता थी। आनन्द
मोहन बाबू आज दस साल पता लगा था, मंचूरिया के तीन मगोल भिक्षु यहाँ से जापान में हैं। असहयोग में मेडिकल कालेज के पढ़ रहे हैं। सोचा उनमें कोई तिब्बती-भाषा का जान- अन्तिम वर्ष से उन्होंने असहयोग किया था। पीछे कार होगा, और उससे मंचूको और मंगोलिया के बारे में राजेन्द्र बाबू के प्राइवेट सेक्रेटरी हुए। यहाँ आने के विशेष हाल मालूम होगा। भेंट होने पर सच्चे मंगोल की बाद से भारत के राष्ट्रीय कार्य में संलग्न हैं। वे जापानीभाँति वे खुले दिल से मिले । तिब्बती-भाषा का उनका भाषा बहुत अच्छी तरह बोलते हैं। उनके जापानीज्ञान अत्यन्त अल्प था । पढ़ कर वे देश में जा कर धार्मिक भाषा के व्याख्यान कई बार रेडियो पर भी ब्राडसुधार करना चाहते हैं। सात बजने का समय नज़दीक कास्ट हुए हैं। उनकी योग्यता और संलग्नता के कारण था, इसलिए कालेज की लाइब्रेरी में गया । कितने ही जापान के प्रधान पुरुषों में
है। भारअध्यापक और कुछ छात्र जमा थे। चाय और फल का तीयों के तो वे सर्वमान्य नेता हैं। भारतीय व्यवसायी भोज दिया गया। संस्कृत के सहायक अध्यापक उएदा ने पहले से भी जापान में आते हैं, किन्तु अानन्दमोहन स्वागत किया। दूसरों ने भी कुछ कहा । हमसे भारत बाबू के प्रयत्न से जापानियों की दृष्टि में उनका मान में बौद्ध-धर्म के बारे में पूछा गया। हमने जापानी अधिक बढ़ा है। भारतीय विद्यार्थियों की वे हर तरह से बंधुत्रों को भारत में बौद्ध-धर्म के पुनरुज्जीवित करने के मदद करते हैं। कितने ही कामों के सीखने के लिए बारे में कहा। उन्होंने इच्छा प्रकट की, यदि भारतीय अधिक प्रभावशाली व्यक्ति की सिफ़ारिश चाहिए, और बालक धार्मिक विद्याध्ययन के लिए आयें तो उन्हें हम वैसे कामों में आनन्दमोहन के जापानी मित्रों का प्रभाव अपने मठों में भिक्षु बनाकर रख सकते हैं।
काम देता है। भारतीय विद्यार्थियों तथा यात्रियों के लिए ६ अगस्त को सवेरे सात बजे ही हम चल पड़े। कोबे में ठहरने की कोई सस्ती जगह न थी। उन्होंने आकाश मेघाच्छन्न था, और बूंदा-बाँदी हो रही थी। स्थानीय भारतीयों से चंदा करके हाल में ही ७,५०० येन् फाटक पर प्रोफ़ेसर फुजिदा मिले । वे केबलकार के स्टेशन में एक जगह खरीदी है। श्री आनन्दमोहन और उनके तक पहुँचाने पाये।
मित्र इस पुरानी इमारत को गिराकर वहाँ पर एक अच्छा इस सुन्दरतम पार्वत्य दृश्य को देखते हुए हमारी कार भारतीय आवास बनाना चाहते हैं। इस पर पचास हज़ार उतरने लगी। हाशीमोतो होते हुए साढ़े दस बजे अोसाका येन् खर्च होंगे। कुछ सहायता जापानी सजन भी देंगे। पहुंचे और गाड़ी बदल कर ११|| बजे कोबे । श्री आनन्द- किन्तु आवश्यकता है कि भारतीय उनके इस काम में मोहनसहाय को पहले सूचित कर रखा था। हिगाशी मदद करें ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
संसार
लेखक, श्रीयुत कुंवर हरिश्चन्द्रदेव वर्मा 'चातक' कविरत्न
शीतल सुखद विभात-वायु निज मधुर मधुर सर सर रव सेकहता है " गतिशील जगत यह" द्वार द्वार चलकर सबसे । सौरभ ने मिलकर के उससे कहा “ठीक है ठीक सखे ! 'आज यहाँ कल वहाँ न जाने डोल रहा हूँ मैं कब से" !
"सदा सुगन्ध-भरे फूलों का दिव्य जगत है यह सुन्दर" भन भन कर कहते फिरते हैं ललित लताओं से मधुकर | afterयें भी शीश हिलाकर मानो कहती हैं उनसे“एक फूल ही नहीं किन्तु हैं साथ साथ में शूल प्रखर " । मालधारिणी उषा है, और अरुण रक्तांशुकधर" नित्य मिलनमय जगत अमर यह " कहते हैं दोनों मिलकर । तभी धूल में मिल बतलाते तरल प्रोस के लघु मोती"अपनी तो क्षण भर की दुनिया हम क्या जानें जगत अमर ।
पल्लव अवगुण्ठन सरकाकर कलियाँ ताक रही हैं राहवे कहती "जग एक प्रतीक्षामय है छवि-दर्शन की चाह " । पर फूलों ने कहा " न भूलो यहाँ किसी का कब कोईअपना रूप रङ्ग ही होता जब फिर अपना घातक आह ? " ।
सान्ध्य अरुणिमा के कुङ्कुम से बधू प्रतीची रँग निज चीरकहती है बस यही कि 'दुनिया है सुन्दरता की तसवीर' । किंतु उसी क्षण तम की चादर बुनता कहता काल कुविन्द"सुन्दरता की क्षीण प्रभा को घेर रहा तम का प्राचीर" ।
पावन दूर्वादलास्तरण पर सुख से सोई विधुबाला - कहती है "जग एक मनोहर शिशु-सा है भोला भाला” । “नहीं ! नहीं !! जग मधु-मन्दिर है", विभावरी रानी बोली"अरुण कपोल हुए पाटल के पीते ही जिसकी हाला " ।
इस प्रकार से जग क्या है ? जैसा जिसके जी में आयाअपने दृष्टिकोण से उसने उसको वैसा बतलाया । शेफालिका-कुञ्ज में बैठा कवि सुनता था सबके भावऔर गुनगुनाता था “जग है एक रहस्य - पूर्ण माया " ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
४२४
www.umaragyanbhandar.com
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
माननीय
सर सीताराम
लेखक, श्रीयुत रूपकिशोर
अग्रवाल, बजाज़
माननीय सर सीताराम इन प्रान्तों के प्रमुख व्यक्तियों में हैं। पिछले दस वर्षों से प्रान्तीय कौंसिल के प्रेसीडेंट होते आ रहे हैं और उस पद के सम्मान की आपने बराबर रक्षा की है। इस लेख में लेखक महोदय ने 'सरस्वती' के पाठकों की जानकारी के लिए आपका
संक्षिप्त परिचय दिया है।
माननीय सर सीताराम क्त प्रान्तीय लेजिस्लेटिव ख्याति इन्होंने प्राप्त की है वह वास्तव में प्रशंसनीय है। कौंसिल के अध्यक्ष माननीय इनमें कितना शिष्टाचार और वाणी का माधुर्य एवं 'सर सीताराम जी' का भी शील-संयम है, एक बार साक्षात् होने पर इन सबका पूर्ण
जीवन एक आदर्श जीवन परिचय मिल जाता है। ऐसे महानुभाव का संक्षिप्त
| है। इन्होंने जो समाजोन्नति जीवन-परिचय भी अवश्य लाभदायक और शिक्षाप्रद जाऔ र लोक-हित आदि सार्व- होगा। इसी उद्देश से ये पंक्तियाँ यहाँ लिखी गई हैं। HR
जनिक सेवायें की हैं वे सर्वथा जन्म और वंश-परिचय–सर सीताराम जी का जन्म बनुकरणीय हैं। विद्या-सम्पन्न और वैभव-युक्त होकर सन् १८८५ ई० में मेरठ के प्रसिद्ध अग्रवाल-परिवार पत्थरअपने अविराम उद्योग और सद्भावना के द्वारा जो वालों के यहाँ हुआ था। पत्थरवाले प्रख्यात होने से
४२५
Shree Shah&maswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२६
सरस्वती
[भाग ३६
wire PustaTANTrevpardees
900
-
2
WAGNER KARLSBAD 2721931
[सर सीताराम कार्क्सबाद (योरप) में अपनी मित्रमंडली के सहित]
पूर्व इनके पूर्वज मुग़ल-शासन-काल में कानूनगो थे। गई। उसके बाद ये इलाहाबाद भेजे गये और १६ वर्ष उस समस कानूनगो की पदवी महत्त्व-पूर्ण समझी जाती थी। की आयु में सफलतापूर्वक इलाहाबाद-यूनिवर्सिटी से सम्राट का शाही फ़रमान भी इनके एक वंशज के पास बी० ए० की परीक्षा में सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुए । सन् है। इनका कुटुम्ब ‘कानूनगोयान' कहलाता था । कानूनगो- १६०६ में एम० ए० तथा एल-एल० बी० में भी कृतवंशवाले मेरठ के समीप 'मलियाना' ग्राम में रहते थे। कार्य्यता प्राप्त की। इनकी दूसरी भाषा संस्कृत थी। विवाह आदि संस्कारों में इनके घर के लोग अब भी संस्कृत की विशेष योग्यता के कारण ये 'पंडित' शब्द से पूर्वजों के देवता पूजने के लिए वहाँ जाते हैं। कहते हैं संबोधित किये गये, इसी लिए ये लाला सीताराम की। कि इनके पूर्वज बड़े धर्मज्ञ और सत्य-प्रतिज्ञ थे, जिनकी बात अपेक्षा पंडित सीताराम के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं।। पत्थर की लकीर के समान अचल और दृढ़ होती थी। जातीय सुधार और सार्वजनिक सेवा-शिक्षायह भी कहा जाता है कि वे पत्थर का व्यवसाय करते समाप्ति के पश्चात् इन्होंने कुछ समय तक मेरठ में वकालत थे। इन्हीं कारणों से इनके पूर्वज 'पत्थरवाले' विख्यात की, परन्तु इनके परोपकारी हृदय में सेवाभाव के उदय हुए। इनके पूज्य पितामह लाला हरसहायमल मेरठ में होने से वकालत को स्थगित करना पड़ा। सन १६०८ में अपने समय के बड़े साहसी, निर्भीक और हिन्दू-जाति के 'आल इंडिया वैश्य कान्फरेंस' का वार्षिक महोत्सव था। स्तंभ माने जाते थे। उनके सुयश की अनेक बातें अब ये वैश्य-महासभा के स्वयंसेवक-दल के अध्यक्ष थे । उन्हीं तक लोगों में प्रचलित हैं।
दिनों स्वर्गीय लाला लाजपतराय जी मंडाले-जेल से मुक्त। शिक्षा-प्रारम्भिक शिक्षा इनको मेरठ में ही दी होकर वैश्य-कान्फरेंस में पधारे थे। उस समय इन्होंने
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५ ]
लाला जी तथा प्रतिनिधियों के स्वागत और श्रातिथ्यसत्कार में बड़ा उद्योग किया था। इसी प्रकार माननीय गोखले के मेरठ आने पर इन्हीं ने उनका उपयुक्त स्वागत-सत्कार किया था । सन् १९११ में महामना मालवीय जी हिन्दू विश्वविद्यालय का झंडा लेकर मेरठ पधारे तब इनके प्रबन्ध को देखकर वे भी बहुत सन्तुष्ट हुए थे 1 सन् १९११ के दिसंबर में वैश्य महासभा के प्रमुख संचालक माननीय रायबहादुर लाला रामानुजदयालु जी के स्वर्गवासी होने पर उनके रिक्त स्थान पर इनका निर्वाचन हुआ । इनके प्रयत्न और सुप्रबंध से अखिल भारतीय वैश्य महासभा की बड़ी उन्नति हुई । कितने ही दिनों तक ये महासभा के सहायक मंत्री और प्रधान मंत्री रहे और अब भी उसके उपसभापति हैं ।
माननीय सर सीताराम
सन् १९१५ में इनके उत्साह और परिश्रम से मेरठ में 'सेवक मंडल' की स्थापना हुई । ' सेवक मंडल' की महत्त्वपूर्ण सेवाओं द्वारा गढ़मुक्तेश्वर आदि गंगा स्नान के मेलों पर जहाँ लाखों मनुष्यों का जन-समूह एकत्र होता है, यात्रियों को अनेक प्रकार की सहायता और सुख पहुँचाया जाने लगा । ये मंडल के प्रमुख कार्यकर्ता थे । मेरठ की समस्त सामाजिक और धार्मिक संस्थानों में विशेषरूप से इनका सहयोग रहा है। मेरठ के वैश्य यंगमैन एसोसियेशन के भी ये एक उच्च पदाधिकारी थे ।
सन् १९१७ में मेरठ में मोहर्रम और दशहरा ( रामलीला) एक ही साथ होने के कारण मेरठ के हिन्दूमुसलमानों में दंगा हो जाने की घोर आशंका थी । सरकारी कर्मचारी भी इसके लिए विशेष चिंतित थे, परन्तु इनकी कार्यदक्षता से वह संकट की घड़ी अनायास ही टल गई ।
सहारनपुर, मेरठ और मुज़फ़्फ़रनगर - ज़िला के धारी वाल ग्राम में हिन्दू-मुसलमानों के भीषण उत्पात हुए । उस समय इन्होंने पीड़ितों और दुखी परिवारों की बड़ी सहायता की तथा अत्याचारियों को दंड दिलाया ।
सन् १९२४ में गंगा-यमुना की भयंकर बाढ़ से हज़ारों मनुष्यों और पशु को अपार क्षति पहुँची थी। इनका हृदय दुखी-जनों के आर्तनाद से अत्यन्त द्रवित हुआ और इनके ही प्रयत्न से उस वर्ष यू० पी० कौंसिल में
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
४२७
मालगुज़ारी छोड़ने और तनाब देने का प्रस्ताव पास हुआ ।
इनकी ज़मींदारी की ग्रामीण प्रजा इनके सद्व्यवहार से अत्यंत संतुष्ट और प्रसन्न रहती है। जनता के हितार्थ कुएँ, नालियाँ, सड़कें, पाठशालायें और मंदिर श्रद अनेक प्रकार की सुव्यवस्था और सुविधायें कर दी गई हैं। इसके सिवा इनकी रियासत में बेदखली और इज़ाफ़े के मुक़द्दमे बहुत कम चलते हैं ।
जनवरी सन् १९२४ में इनके सभापतित्व में मेरठनिवासी वैश्यों में प्रचलित दुष्प्रथाओं के संशोधनार्थ 'व्यवहार- रीति- पत्र' (दस्तूरुल अमल) का निर्माण हुआ । वास्तव में इनके हृदय में जातीय सुधार की प्रबल आकांक्षा है और ये सदैव जातीयान्नति का ध्यान रखते हैं।
राजनीति -- परन्तु इनकी केवल सामाजिक ही नहीं, बल्कि शिक्षा सम्बन्धी और राजनैतिक सेवायें भी कम महत्त्व नहीं रखती हैं। ये राजनैतिक क्षेत्र में सन् १६०७ से ही सम्मिलित हुए हैं । महात्मा गांधी ने सन् १९१६ में जब सहयोग का शंखनाद किया था तब इन्होंने भी उसमें निर्भयता से भाग लिया था । सन् १६२० में ये मेरठ में ज़िला राजनैतिक कान्फरेंस के अध्यक्ष हुए थे, और उसी साल अमृतसर- कांग्रेस की विषय निर्वाचिनी समिति के सदस्य हुए थे । इसके बाद ये प्रायः कांग्रेस के अधिवेशनों में सम्मिलित होते रहे ।
६ अप्रेल सन् १६१६ को देशव्यापी हड़ताल हुई थी । वह मेरठ के प्रसिद्ध नौचंदी मेले का अंतिम दिन था। इस दिन दूकानदारों की मेले में अधिक बिक्री होती है । परन्तु इनके असीम उद्योग से नौचंदी के मेले में भी पूर्ण हड़ताल रही। इस क्षति पूर्ति के लिए इन्होंने मेला एक दिन और बढ़ा दिया। सरकारी कर्मचारियों ने रुष्ट होकर अपना समस्त प्रबन्ध ---- - पुलिस, रोशनी यदि उठा लिया था, अतएव इन्होंने नगर - निवासियों की सहायता से ऐसा उत्तम प्रबन्ध किया कि दूकानदार इस अतिरिक्त दिन की बिक्री से परम संतुष्ट और प्रसन्न हो गये। इसी भाँति ११ तारीख को महात्मा गांधी जी के पकड़े जाने पर पुनः हड़ताल हुई। उस समय सूर्य कुंड
www.umaragyanbhandar.com
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२८
सरस्वती
पर पचीस सहस्र जनता की उपस्थिति में इनका अत्यन्त प्रभावशाली भाषण हुआ । इनके प्रयत्न से ये दोनों हड़तालें शान्तिपूर्वक बीत गई, अन्य स्थानों की भाँति किसी प्रकार का झगड़ा टंडा नहीं होने पाया । म्यूनिसिपल बोर्ड - ई-सन् १६२० में ये मेरठ- म्यूनिसिपलटी के सदस्य चुने गये । उक्त बोर्ड के ये पहले हिन्दू वायस - चेयरमैन तथा शिक्षा विभाग के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। बोर्ड में इनका कार्य विशेषरूप से प्रशंसनीय रहा । हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही इन पर पूर्ण विश्वास रखते थे ।
साहित्य-सेवा और राज्य - सम्मान – मेरठ के देव नागरी स्कूल में ही इन्हें प्रारम्भिक शिक्षा मिली थी। इस स्कूल को साधारण स्थिति से इन्होंने हाई स्कूल बना दिया और उसके लिए एक विशाल भवन भी बन - वाया । मेरठ कालेज को आर्थिक संकटों से मुक्त कराना, उसमें बोर्डिंग हाउस की स्थापना कराना तथा ऐतिहासिक और दार्शनिक वर्ग खुलवाना भी इनका ही काम है । 'वैश्य - नाइट स्कूल' को भी इन्होंने ही 'वैश्य - स्कूल' बनाकर पूर्ण उन्नतावस्था में पहुँचा दिया है । इनका शिक्षाप्रेम यहाँ तक बढ़ा हुआ है कि इस स्कूल में रात्रि के समय ये स्वयं विद्यार्थियों अँगरेज़ी तथा संस्कृत पढ़ाया
करते थे ।
इनकी सार्वजनिक सेवाओं पर मुग्ध होकर प्रान्तीय सरकार ने इनको 'आनरेरी मजिस्ट्रेट' बनाया और 'राय साहब' की उपाधि प्रदान की । सन् १६२० में ये 'राय बहादुर' बनाये गये। इसके बाद सन् १६३० में 'नाइट हुड' अर्थात् 'सर' का उच्च पद इन्हें प्रदान किया गया ।
सर सीताराम बनारस के 'हिन्दू विश्वविद्यालय' के सदस्य हैं ।
सन् १६३२ में इलाहाबाद और सन् १९३३ में आगरा की यूनिवर्सिटी तथा वृन्दावन गुरुकुल के वार्षिक अधि वेशनों पर दीक्षांत भाषण किये। इनके भाषणों की प्रशंसा अनेक सामयिक प्रमुख पत्रों ने मुक्तकंठ से की है । ज्वालापुर के गुरुकुल - महाविद्यालय ने भी इनके साहित्यप्रेम से प्रभावित होकर इनको मानपत्र समर्पित किया ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
कौंसिल-कार्य्य- - सन् १६२० में ये प्रान्तीय लेजिस्लेटिव कौंसिल के मेम्बर चुने गये । वहाँ जनता के हित के अनेक कार्य किये, जिससे इनके प्रति जन साधारण का और भी अधिक विश्वास बढ़ गया। इनके ही प्रयत्न से आगरा यूनीवर्सिटी का क़ानून स्वीकृत हुआ और उक्त यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई। ये बहुत बड़े जमींदार हैं, फिर भी कृषकों का पक्ष लेने और उनकी भलाई करने में तनिक भी नहीं हिचकते । ये अवध के कृषक -कानून की सेलेक्ट कमेटी के भी सदस्य थे । नक़लों तथा नालिशों पर जो स्टाम्प बढ़ा दिया गया था, इनके प्रयत्न से फिर पूर्ववत् हो गया। इन्होंने सट्टे को संशोधन द्वारा जुवे के क़ानून में सम्मिलित कराया, प्राइवेट प्रेक्टिस करनेवाले डाक्टरों को सिविल सर्जन बनाने, राजनैतिक कैदियों को छुड़ाने तथा उनको सुख पहुँचाने, और फ़ौजदारी के नये क़ानून को इस प्रांत से हटा लेने इत्यादि के लिए इन्होंने भरसक परिश्रम किया। ये यू० पी० कौंसिल की प्रायः सभी उपसमितियों के सदस्य रहे । इनकी काय युक्तियों और प्रभावशाली भाषणों से कौंसिल का इतिहास परिपूर्ण है ।
प्रान्तीय सरकार ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को एक लाख बीस हज़ार रुपये वार्षिक सहायता देना स्वीकार किया था, इस स्वीकृति के प्राप्त करने में इन्होंने भी सहायता पहुँचाई थी ।
सन् १९२३ में ये यू० पी० कौंसिल के लिए बिना प्रतिद्वन्द्विता के दूसरी बार सदस्य चुने गये तथा बहुमत से यू० पी० कौंसिल के प्रेसीडेंट निर्वाचित किये गये । इनके न्याययुक्त तर्क और कार्य कुशलता की कौंसिल में बड़ी प्रशंसा हुई । इनका अध्यक्ष पद का कार्य बहुत ही संतोष - प्रद रहा। सरकारी, ग़ैर-सरकारी और अन्य सभी दल के नेताओं के हृदय पर इनकी कार्य- पटुता का प्रभाव अंकित हो गया ।
इनके अध्यक्ष होने से पहले जो सदस्य हिन्दी या उर्दू में भाषण करते थे उनके भाषणों की रिपोर्ट नहीं ली जाती थी और न छपती थी । इनका पहला कार्य यह हुआ कि उर्दू और हिन्दी की स्पीचों के लिए एक शार्ट
www.umaragyanbhandar.com
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
माननीय सर सीताराम
४२९
हैंड राईटर नियत किया गया। इनका कास्टिंग वोट, व्यक्तिविशेष को अवसर नहीं मिला। वास्तव में इनकी इनकी रूलिंग और इनका निर्णय सदैव निष्पक्ष और नीति-निपुणता श्लाघनीय है। न्यायानुकूल होता है। अपनी ऐसी ही विशेषताओं के विदेश-यात्रा–सन् १९३१ में ये योरप गये। इटली, कारण ये अलीगढ़ और मेरठ से तीसरी बार निर्विरोध यू• स्विटज़लेंड, फ्रांस, इंग्लेंड, आयलैंड, स्काटलैंड, बेल. पी० कौंसिल के सदस्य चुने गये और १० जनवरी सन् जियम, जर्मनी, चेकोस्लोवेकिया, हंगरी आदि देशों का १६२७ को कौंसिल-अधिवेशन में सर्वसम्मति से पुनः भ्रमण किया। ये इस यात्रा में अपने धर्म (नित्य-कर्मादि) अध्यक्ष पद पर आसीन किये गये। ..
में दृढ़ रहे, और इनकी समस्त वेश-भूषा भारतीय रही; देशी ___ जेलों की परिस्थिति सुधारने के विषय में ये प्रायः अचकन, पाजामा, और किश्तीनुमा टोपी के अतिरिक्त जेलों की दशा का अध्ययन करते रहे हैं। बरेली, बदायँ कोट-पतलून कभी नहीं पहना, भोजन सदैव की भाँति तथा मेरठ श्रादि के जेलों का निरीक्षण करने के पश्चात् निरामिष रहा । स्थान स्थान पर इनका विशेष रूप से जो रिमार्क दिये हैं वे बड़े प्रशस्त और अधिकारियों के आतिथ्य और स्वागत हुआ। इंग्लैंड में प्रधान मन्त्री से प्रति पर्याप्त चेतावनी देनेवाले प्रमाणित हुए हैं। लेकर सभी श्रेणी के अनेक सजनों से इनकी भेंट हुई ।
सन् १९२३ में श्रीयुत चिन्तामणि के पद-त्याग करने छः मास इस पर्यटन में लगे और लगभग बारह सहस्र पर तथा सन १६२८ में भी इनको शिक्षा विभाग का रुपया व्यय हुश्रा । इस यात्रा से लौटने पर मेरठ-कालेज मिनिस्टर (मंत्री) बनाने के लिए गवर्नमेंट ने चेष्टा की थी, में छात्रों को उपदेश देते हुए इन्होंने अपनी यात्रा का परन्तु दोनों अवसरों पर इस पद को ग्रहण करने से इन्होंने विस्तृत वृत्तांत और उसके अनुभवों का वर्णन किया था । अनिच्छा ही प्रकट की। यदि उस समय ये यह पद स्वीकार योरप में एक स्थान 'कार्ल्सबाद' है। वहाँ इनका मित्रकर लेते तो अब गृह-सदस्य (होम मेम्बर) का अधिकार मंडली-सहित फ़ोटो लिया गया था। साथ में इनके बड़े इनको ही प्राप्त होता।
पुत्र चिरंजीव चन्द्रशेखर जी हैं। यह चित्र अन्यत्र दिया सन् १६३० में बरेली शहर से चौथी बार अविरोध गया है। इनका चुनाव हुआ, और अध्यक्ष पद के लिए केवल ३ तीर्थ-पर्यटन-सन् १६३४ में इन्होंने श्री बदरीनाथ वाट विपक्ष में और १०७ पक्ष में आये। इस प्रकार बह- जी तथा केदारनाथ जी के दर्शनार्थ यात्रा की। मार्ग में मत से ये.अध्यक्ष पद पर फिर सुशोभित हुए, और आज अनेक स्थानों पर इनका स्वागत हुआ, विशेषकर 'गढ़पर्यन्त राजा और प्रजा का समान रूप से हित-साधन वाल' में तो आतिथ्य-सत्कार की अपूर्व धूम-धाम रही, करते हुए अपने अधिकृत कार्य को बड़ी सुचारुता और और इनके साथ बड़ी सुजनता का व्यवहार हुआ। सुन्दरता से सम्पादन कर रहे हैं।
साथ डाँडी-यान के होते हुए भी इन्होंने २५० मील से ____ इस तृतीय बार के अध्यक्ष-पद पर आरूढ़ होने के अधिक पैदल यात्रा की । इससे पूर्व ये काशी, अयोध्या, उपलक्ष्य में सरकारी और गैर-सरकारी समस्त सदस्य हरिद्वार, ऋषिकेश, मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन, महानुभावों ने इनको एक प्रीति-भोज (पार्टी) दिया और प्रयाग, चित्रकूट और श्री जगन्नाथपुरी की यात्रा कर चुके हैं। इनके कौंसिल-कार्य से संतोष और प्रसन्नता प्रकट करते सन् १९३५ के मई मास में इन्होंने 'पिंडारी लेशियर हुए इनको एक बहुमूल्य घड़ी पुरस्कार-स्वरूप भेंट की। को यात्रार्थ प्रस्थान किया। रानीखेत, सोमेश्वर, श्रीनगर
कौंसिल में इनके स्वाभिमान, प्रतिष्ठा और योग्यता के आदि जितने भी स्थान मार्ग में पड़े, सभी में इनका साथ अपना कर्तव्य-पालन करते हुए लगभग दस वर्ष स्वागत-सत्कार होता गया। इसी प्रकार लौटते समय भी बीत गये हैं । इनकी सुजनता और सहृदयता आदि शुभ कटारमल नायक स्कूल आदि संस्थाओं ने इनको मानपत्र गुणों से इनके प्रति आक्षेप और विरोध करने का किसी दिये।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३०
जहाँ ये जाते हैं, वहाँ के स्थानीय क्षेत्र, अनाथालय, विद्यालय, देवालय तथा बालक-बालिकाओं को दान देते रहते हैं । इस प्रकार के दान में इनका पुष्कल धन व्यय हो जाता है।
धार्मिक विश्वास - सनातन धर्मावलम्बी हैं, किन्तु लकीर के फ़क़ीर नहीं हैं। इनके धार्मिक विचार बड़े समुन्नत और गहन हैं । 'विधवा विवाह', 'अछूतोद्वार' और 'शुद्धि' के समर्थक हैं और दीर्घकाल से इन कृत्यों से इनकी सहानुभूति रही है । लगभग बीस वर्ष हुए, मेरठ में इन्होंने हरिजनों के लिए स्कूल खुलवाये थे। विद्या प्रचार, ब्रह्मचर्य्यसाधन, कला-कौशल आदि उद्योग-धन्धे और पंचायतप्रथा के पोषक, एवं बाल- बुद्ध - विवाह, कन्या-पुत्र-क्रय
1
हाँ प्रेम किया है प्रेम किया है मैंने वरदान समझ अभिशाप लिया है मैंने । अपनी ममता को स्वयं डुबाकर उसमें । जित मदिरा को देवि पिया हैं मैंने ॥
सरस्वती
मैं दीवाना तो भूल चुका अपने को । मैं ढूँढ़ रहा हूँ उस खोये सपने को ।। छाया को छाया बन कर मैंने देखा । खिंच गई हृदय पर वहीं कसक की रेखा । मैं मिटा मिटा कर स्वयं मिटा जाता हूँ । पर अमिट बन गया वह विधिना का लेखा ||
अभिशापित प्रेमी
लेखक, श्रीयुत भगवतीचरन वर्मा
देकर मैं अपनी चाह आह लाया हूँ प्राणों की बाज़ी हाय हार आया हूँ ।। हैं कसक रहीं अब उर में बीती बातें । घिर आती हैं पीड़ा बन खोई रातें । मेरे जीवन में धुँधला-सा सूनापन | है उमड़ पड़ा बन आँसू की बरसातें ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
विक्रय, व्यर्थ ग्राडम्बर आदि सामाजिक रूढ़ियों में बहिष्कारक हैं।
संतति - ईश्वर की कृपा से इनके तीन पुत्र और कई पुत्रियाँ हैं । सबसे ज्येष्ठ पुत्र श्री चन्द्रशेखर जी उच्च शिक्षा प्राप्त हैं । ये धन-जन - शिक्षा आदि सभी सांसारिक वैभवों से युक्त हैं ।
[ भाग ३६
इतने महान् पद पर होते हुए भी ये बड़े सरल प्रकृति, अभिमान रहित तथा दयालु हैं । साधारण से साधारण पुरुष भी इनसे मिलकर अत्यन्त प्रसन्न और हर्षित हो जाता है। परमात्मा इनकी दिन-प्रतिदिन उन्नति और वृद्धि करे, जिससे देश और समाज का अधिकाधिक श्रेय और कल्याण हो ।
दिन जलता है, रजनी आहें भरती है । मुझसे मेरी लघुता खेला करती है ।
वे दिन बीते जब मैं भी अभिमानी । भ्रूपातों में उठता था आँधी पानी । अब तो मेरा धन स्मृतियों का बन्धन है । प्रत्येक साँस है मेरी करुण कहानी ||
समर्थ बन गया लो सहसा अधिकारी । देनेवाला बन गया नितान्त भिखारी ||
लेकर मस्तक पर अपनी हीन पराजय । मैं करता हूँ असफलताओं का संचय । तुम एक बार तो मुझे देखकर हँस लो । तब था पाने का अब खोने का अभिनय ॥
मिटने ही को तो मैं बन 'लुटा रहा हूँ जो कुछ
मैं
कर आया हूँ । मैं लाया हूँ ॥
www.umaragyanbhandar.com
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
गीत
[हिन्दी के आधुनिक कवियों में श्रीयुत सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का अपना एक विशेष स्थान है। वे कवि ही नहीं काव्य-मर्मज्ञ और वेदान्ती भी हैं। हिन्दी में वे गीतों के प्रवर्तक माने जाते हैं । 'सरस्वती' के लिए उन्होंने दो गीत भेजे हैं। पाठक उनका आनन्द ले।]
निशिदिन तन धूलि में मलिन; क्षीण हुआ मन छन छन, छिन छिन ।
ज्योति में न लगती रे रेणु; श्रुति-कटु स्वर नहीं वहाँ,
वह अछिद्र वेणु; चाहता, बनें उस पग-पायल की रिन रिन ।
व्यर्थ हुआ जीवन यह भार; देखा संसार, वस्तु
वस्तुतः असार; भ्रम में जो दिया, ज्ञान में लो तुम गिन गिन ।
घन, गर्जन से भर दो वन, तरु-तरु पादप-पादप तन।
अब तक गुञ्जन-गुञ्जन पर नाची कलियाँ, छबि निर्भर; भौरों ने मधु पी पीकर
माना, स्थिर मधु-ऋतु कानन । गरजो, हे मन्द्र, वज्र-स्वर, थर्राये भूधर-भूधर, झरझर-झरझर धारा झर पल्लव-पल्लव पर जीवन ।
दुर्दम वर्षा-वर्षण पर जीवित हो हर्ष वर्ष भर, जन-जन को कोमल-तन कर दो हे विसव के मावन !
लेखक, श्रीयुत सूर्यकान्त त्रिपाठी
"निराला"
४३१
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
धन की शोभा
लेखक, श्रीयुत आत्माराम देवकर
५ )
केदार किशनचन्द्र बुद्धिमान और दूरदर्शी थे। मुक्तहस्तता भी उनमें पर्याप्त थी। जब देने के लिए हाथ उठाते तत्र किसी प्रकार की कसर न रखते थे । पर उनमें एक बड़ा दुर्गुण यह था कि वे जिस बात की हठ पकड़ लेते उसे पूर्ण करके ही रहते थे। इसी से शील और नम्र होने पर भी लोग उन्हें कठोर समझते थे । मुनीम गुमाश्ते सदा चौकन्ने रहते थे। उनके मुख से निकले हुए शब्द 'ब्रह्म वाक्य' थे। नौकर-चाकर सबसे पहले उनकी मौखिक आज्ञा का पालन करने में सदा सतर्क रहते थे। उनके आसामी उनसे बहुत कम मिलते-जुलते थे। यों तो वे कभी किसी से तक़ाज़ा नहीं करते थे, पर जिसके लिए मुँह से निकल
या कि हिसाव चुकता कर दो उसे तत्काल रुपयों का प्रबन्ध करना पड़ता था। घर के लोग भी उनसे मशंक रहते थे। जिस दिन उन्हें इच्छित वस्तु भोजन के थाल में नहीं दीखती थी, उस दिन सब पर मानो शनिदेव की कुदृष्टि आ जाती थी । उस दिन ठेकेदार साहब की एकादशी हो जाती थी । सृष्टि की रचना ही ऐसी है । जिसमें चार गुण रहते
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
श्रीयुत श्रात्माराम देवकर महाराष्ट्र हैं । परन्तु आप का हिन्दी से विशेष प्रेम है । सामाजिक जीवन की छोटी छोटी और सरल कहानियाँ लिखने में आप सिद्धहस्त हैं । इस कहानी में आपने भातृप्रेम का सुन्दर ढङ्ग से चित्रण किया है ।
हैं उसमें उन गुणों को छिपानेवाला कोई न कोई अवगुण भी पाया जाता है । लक्ष्मी के प्रताप से वह भले ही छिपा रहे, पर कसौटी पर घिसने से उसकी झलक स्पष्ट दिख जाती है।
( २ )
देवकी किशनचंद की छोटी बहन थी। वह उसी नगर में व्याही गई थी । उसके पति का नाम चंपालाल था | चंपालाल एक छोटी-सी दुकान करते थे और उसकी आय से अपनी जीविका चलाते थे । चार-पाँच वर्ष तक उन्हें किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा । किन्तु इसके बाद गृहस्थी का खर्च बढ़ जाने से उनकी दशा चिन्तनीय हो उठी। एक दिन उनसे स्त्री ने कहा- "इस थोड़ीसी आय से कितने दिन काम चलेगा ? आप दूकान के बढ़ाने की चेष्टा क्यों नहीं करते ?"
चंपालाल ने कहा - " द्रव्य के बिना कुछ नहीं हो सकता। मैं उसे अब तक अपने बुद्धि बल और अनुभव के सहारे चलाता रहा हूँ । पर उथले कुएँ की पेंदी कब तक ढँकी रह सकती है ?"
उत्तर सुनकर देवकी का मुख निष्प्रभ हो गया । उसने रुक कर कहा--"तब भैया से क्यों नहीं कहते ? वे क्या आपकी सहायता नहीं करेंगे ?"
चंपालाल ने तीत्र दृष्टि से देवकी की ओर देखकर कहा - "ऐसी बात फिर मुँह से न निकालना ।"
४३२
www.umaragyanbhandar.com
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारी अमलानन्दी-सन् १६३१ में आपने पेरिस इंटरनेशनल कलोनियल एरिज़वीशन में प्राचीन भारतीय नृत्य का प्रदर्शन करके समस्त योरप में ख्याति प्राप्त की है। बाद में उदयशंकर के साथ
आपने योरप के दो सौ शहरों में नृत्य का अभिनय किया था । Shree Sudhanaswami Gyanbhandari
anwarmareigvarmonandan coms
DIR
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
SEXVRAN
. बम्बई में नवरात्र के उत्सव में गुजराती लड़कियों का गर्वा नृत्य ।
कुमारी प्रभावती शालग्राम और मास्टर नरेन्द्र जिन्होंने हाल में अपने -संगीत से प्रयाग-निवासियों को
मुग्ध किया।
- कुमारी आशा अोमा जिनके
आश्चर्यजनक नृत्यों के कारण प्रयाग का गत संगीत-सम्मेलन बहुत
सफल समझा गया।
लेफ्टिनेंट कर्नेल राव बहादुर कराची की कुमारी विश्वनी जगासिया जिन्होंने ठाकुर कोकसिंह इन्स्पेक्टर कवीन्द्र रवीन्द्र की ७४ वीं वर्ष-गाँठ के अवसर जेनरल पुलिस, ग्वालियर, जिनकापर कराची-संगीत-सम्मेलन में भाग लिया। हाल में ही स्वर्गवास हो गया। संगीत में आपने दो बार ट्राफ़ी जीती है ।
hree Sudharmaswami Gyanbhandar Umara. Surat
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
(बाई अोर)। यह चित्र बम्बई
आपके हाल में विलायत वापस आने पर जहाज़ से उतर के बाद का है। दाहनी अोर स सिकन्दर हयातखाँ (रिज़र्व बैङ्क अाफ़ इंडिया के स्थानापन
गवर्नर) हैं।
जस्टर स्पेन्डर (बाई ओर) और डाक्टर सी० वारेन- वरेस्ट पर्वत पर चढ़ाई करनेवाले दल के दो सदस्य ।
ये हाल में स्वदेश वापस गये हैं।
कुमारी लीला रेड्डी (दाहनी अोर) और कुमारी मोहिनी रे हैदराबाद की दो सुन्दरी युवतियाँ । उनमें प्रथम डाक्टर
और दूसरी कानून पढ़ने विलायत गई हैं।
एवरेस्ट पर चढ़नेवाले दल के नेता मिस्टर सिफ़टन दाहनी
ओर और डाक्टर विग्राम । ये भी अपने देश को लौट रहे हैं, पर सन् १९३६ की चढ़ाई
में फिर भाग लेंगे। Shree Sudjarmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar com
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारत-सरकार के नये शिक्षा-मत्री सर जगदीशप्रसाद और लेडी जगदीशप्रसाद, जो हाल में विलायत गये हैं । इसके पूर्व आप संयुक्त-प्रान्त के होममेम्बर थे । आपका यह चित्र बम्बई में जहाज़ पर चढ़ते समय लिया गया था।
सर चिमनलाल सीतलवाद (मध्य में) हाल में अपनी विलायत की यात्रा समाप्त करके लौटे हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
धन की शोभा
४३३
देवकी ने विस्मित होकर कहा-"क्यों, आपने उन्हें चंपालाल ने शीघ्रता से कहा-"दो हजार ।" कभी परोपकार से पश्चात्पद होते हुए देखा है ?" किशनचंद ने पूछा-"आप कितने समय में ___ चंपालाल ने इतस्ततः करते हुए कहा-“मैं चुका देंगे ?" यह बात नहीं कहता । परमात्मा ने उन्हें हृदय अवश्य चंपालाल ने उत्तर दिया-“दो वर्ष में कुल दिया है, और वह उनके लिए भूपणीय है। पर वे रुपया चुका दूंगा।" धुन के पक्के हैं । जो जी में आया, कर बैठते हैं।" ठेकेदार साहब ने मुस्कराकर कहा-"दूर तक
देवकी ने आश्वस्त स्वर से कहा-"कर बैठते हैं, सोच लीजिए। आगे की बात कौन जानता है ? यदि पर मेरे स्नेह-बन्धन को तो एकदम तोड़ नहीं सकते। समय पर आप रुपयों का प्रबंध न कर सके तो ?" ऐसा दुस्साहस उन्होंने कभी नहीं किया।"
चंपालाल ने दृढ़ता से कहा-"तब दूकान ___ चंपालाल हंसकर बोले-“नब तुम्हीं क्यों न आपकी हो जायगी। मैं आपका मन भरने के लिए इसका बीड़ा उठाओ? तुम्हें किस बात का संकोच है?" पक्की लिखा-पढ़ी कर दूंगा।"
देवकी ने नीचा सिर करके उत्तर दिया- ठेकेदार साहब ने उपदेश के रूप में कहा"संकोच तो नहीं है। पर आप जाते तो और ही "देखिए, फिर भी आपसे कहता हूँ कि इस झगड़े में बात होती। वे अपना मन भी भर लेते। समझे ?" न पड़ें। मेरी तो यही राय है कि आप अपनी वही
चंपालाल ने कुछ सोचकर कहा-"अच्छा, छोटी-सी दूकान चलाये चले। थोड़ी-बहुत सहायता ऐसा ही करूँगा।"
जो मुझसे बन पड़ेगी, समय समय पर करता रहूँगा। देवकी की कल्पना के चित्र-पट पर आशादेवी चंपालाल ने शान्त भाव से कहा-"आप चिन्ता की धुंधली मूर्ति दिख गई।
न करें मैं मब बातें पहले से ही सोचकर यहाँ
आया हूँ।" किशनचंद बैठकखाने में बैठे हुए थे।
किशनचंद ने उच्च स्वर से कहा- "इसके लिए __ चंपालाल ने जाकर अन्य पुरुष के रूप में देवकी मैं आपसे नकाज़ा नहीं करूंगा।" की प्रार्थना उन्हें सुना दी। वे सुनकर चुप हो गये। चंपालाल ने मस्तक हिलाकर कहा-"आपका चंपालाल को कुछ और कहने का साहस न हुआ। कहना ठीक है । मैं समझ गया।" मुनीम-गुमाश्ते भी मौनावलम्बनपूर्वक उनके मुख से किशनचंद बोले-"तब आपकी इच्छा। मुनीम निकलनेवाले चुने हुए शब्दों की प्रतीक्षा करने लगे। जी, इन्हें रुपये देकर लिखा-पढ़ी करा लीजिए।" ।
थोड़ी देर में निस्तब्धता को भंग करते हुए किशनचंद ने कहा-"आप जानते ही हैं कि रुपया- लोग कहते हैं कि लक्ष्मी के पास लक्ष्मी आती पैसा मन में मैल डाल देता है। उससे चिरकाल के है। पर मुझे उनका यह कथन ठीक नहीं जंचता। अर्जित स्नेह और संकोच की मर्यादा क्षण भर में लक्ष्मी उद्योग की दासी है, सम्पत्ति की नहीं। ऐसा टूट जाती है।"
ही होता तो सम्पत्तिमानों को कभी दरिद्रता का सामना चंपालाल ने उत्तर दिया-"भगवान की दया ही न करना पड़ता । सौभाग्य उद्योग का ही प्रतिफल से यह नौबत न आने पायेगी।"
___ है। जन्मान्तरवाद से भी यही बात सिद्ध होती है। किशनचंद अँगड़ाई लेकर गम्भीर स्वर से चंपालाल प्रतिष्ठा और प्रभुत्व के इच्छुक थे । वे बोले-"इसका कोई निश्चय नहीं । अच्छा, आपको चाहते थे कि नौकरों से काम लें और आप तकिया कितना रुपया चाहिए ?"
लगा कर बैठे । सुख किसे बुरा लगता है ! मेहनत
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३४
सरस्वती
[भाग ३६
से कमाना-खाना बहुत कम मनुष्यों को पसन्द है। मैं भाई के राखी न बाँध सकूँगी ? उनके पास जाने 'सहे वेध बन्धन सुमन तब गुण संयुत होय'--इस से मुझे अपमानित और लांछित होना पड़ेगा। पर सुन्दर नीति के अनुयायी इने-गिने ही होते हैं। इससे मेरा क्या घट जायगा? वे भले ही राखी अस्तु, चंपालाल के पहले के वे सब विचार बदल न बाँधने दें, पर मैं उनके पास अवश्य जाऊँगी। गये। पास में पैसा आने से उन्हें हरा ही हरा सूझने मैं उनसे कुछ न लूंगी, खाली राखी बाँध दूंगी। न • लगा । देवकी ने किशनचंद की प्रकृति का स्मरण बँधवावेंगे तो रखकर चली आऊँगी । मेरा दस्तूर हो दिलाकर उन्हें सचेत करना चाहा, पर कुछ फल न जायगा | लोग हंसेंगे तो हंस लेंगे। वे हठी अवश्य हुआ। वे समझते थे कि यदि रुपया समय पर न हैं, पर हृदय-हीन नहीं हैं। मैं उनके स्वभाव को भी चुका सका तो ठेकेदार साहब अवधि बढ़ा देंगे। जानती हूँ। पत्थर-सा कठोर और मोम-सा कोमल । कम से कम देवकी के लिए तो उन्हें ऐसा करना ही ऐसा विचार मन में आते ही उसके हृदय में पडेगा। यह उनकी स्वार्थान्धता थी। ठेकेदार साहब माहस का संचार हुआ। वह ठंडी साँस लेकर उठ बहन-बहनोई से बराबर मिलते-जुलते थे। पर कभी खड़ी हुई और राखी को कपड़े में छिपा लोगों की रुपयों के लिए मुँह से एक शब्द भी नहीं निकालते दृष्टि बचाती हुई किशनचंद के पास पहुँची। वे थे । निदान जिस बात की आशंका थी वही हुई। आरामकुर्सी पर बैठे हुए समाचार-पत्र पढ़ रहे थे। चंपालाल निर्धारित समय पर रुपया न चुका सके। देवकी के अंग पर कुछ न था। आभूषण के लज्जा के मारे उन्होंने किशनचंद के यहाँ का आना- नाम से दोनों हाथों में काँच की दो दो चूड़ियाँ थीं। जाना बन्द कर दिया। देवकी भी संकोच करने लगी। काँपते हुए नंगे हाथों में भ्रातृ-स्नेह के निदर्शक दिव्य
मियाद के खत्म होने के एक माह के बाद ठेकेदार रक्षा-सूत्र को देखकर किशनचंद का हृदय पिघल माहब ने नालिश करके दूकान कुर्क करवा ली। उठा । प्रेम के अजस्र स्रोत ने उनके संकल्प एवं देवकी का मोह-बन्धन भी तोड़ दिया। दोनों से हठ-धर्म के प्रबल बाँध को तिनके की नाई तोड़कर उन्हें आन्तरिक घृणा हो गई। वे उनके नाम से नाक फेंक दिया। वे उसी क्षण उठकर बहन के गले से सिकोड़ते थे। मच है, मीठे फल में ही कीड़े पड़ते हैं। लिपट गये और बच्चे की नाई रोने लगे। ____ चंपालाल के पास जीविका का कोई अब ठाँव देवकी ने कहा-"भैया, मैं तुम्हारी अपराधिनी न रहा। गहना बेचकर उन्होंने कुछ दिन बिताये। हूँ। मुझे क्षमा करो। तुम मेरे पिता के समान हो। पर जब कुछ न रहा तब दूसरे की नौकरी करने तुम्हें छोड़कर कहाँ जाऊँगी ?" लगे। जठर-ज्वाला तो किमो प्रकार शान्त करनी ही किशनचंद ने बहन के पैरों पर गिर कर कहापड़ती है।
"परमात्मा के लिए क्षमा करो। मुझे ऐसी बातों के
सुनने का अभ्यास नहीं है। मैंने दो हजार के लिए श्रावण की पूर्णिमा थी। पास-पड़ोस की सभी दूकान कुर्क करवाकर तुम्हें निराधार कर दिया था। बहनें, भाइयों को राखी बाँध रही थीं। देवकी का आज उसके बदले चार हजार देकर मैं अपनी भूल हृदय शून्य था । वह किसे राखी बाँधती ? किशन- का संशोधन करता हूँ ।” चंद के सिवा उसके पीहर में कोई नहीं था। संसार देवकी के नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। का यह माया-बन्धन टूट ही चुका था। इसी से उसे उसने हिचकियाँ लेते हुए कहा-"भगवान तुम्हारा आज का यह प्रेम-पर्व प्रतारणा-पूर्ण प्रतीत हो रहा भला करें । भैया, धन की शोभा धर्म से ही है।" था। वह मन ही मन सोचती थी-क्या इस वर्ष
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह की कुछ और विचित्र प्रथायें
PA
(
लेखक, श्रीयुत मार्कण्डेय वाजपेयी, एम० ए०, एल-एल० वी०
रत के उत्तर में हिमालय के लौटी । बस तलाक हो गया। श्रीयुत हेरिसन फार्मन परे तिव्बत का देश है। बरसों तिब्बत में रहे हैं और उन्होंने बड़े गौर से वह देश बौद्ध-धर्म का वहाँ के रवाजों को देखा है। उनका कथन है कि केन्द्र है। वहाँ के दलाई तलाक के इतना आसान होते हुए भी वह वहाँ बहुत
लामा विश्व-विख्यात हैं। ही कम देखने में आता है। तिब्बत में संतान पिता तह भारत की ही भाँति तिब्बत के नाम से नहीं पुकारी जाती है, बल्कि वह माता] LE O भी धर्मान्धता और रूढ़ियों की संतान कही जाती है। तिब्बत की विशेषता का दाम है, पग पग पर धर्म है। पर एक बड़ी यह है कि वहाँ हर तरह के विवाह प्रचलित हैं और विचित्र बात यह है कि वहाँ विवाह का धर्म से मब जायज़ माने जाते हैं। एक पति और एक पत्नी, कोई सम्बन्ध नहीं है । विवाह न तो धार्मिक संस्कार एक पति और कई पत्नियाँ, एक पत्नी और कई है और न पुरोहितों का उसमें कोई दखल है । विवाह पति, कई पति और कई पत्नियाँ ये सब जायज़ हैं। की जो प्रथा प्रचलित है वह बड़ी आसान है। जो और इसके साथ थोड़े दिनों के लिए भी शादी होती भी व्यक्ति विवाह करना चाहता है वह अपने मित्रों है, जैसे शिया मुसलमानों में मुताह होता है। तीन के साथ अपनी प्रेमिका के तम्बू में घुस जाता है और दिन यह देखने को मिलते ही हैं कि मियाँ-बीबी में उसे उठाकर घोड़े पर बिठा लेता है और वहाँ से पटती है या नहीं। शादी के इतने तरीके एक साथ चल पड़ता है। लड़कीवाले बड़ा शोर मचाते हैं और ही संसार के और किसी भी देश में न मिलेंगे। बन्दूक्त दागते हुए उसका पीछा करते हैं। फिर दोनों तिब्बत में बहुतेरे रईस कई पत्नियों से दल साथ बैठकर खाते हैं और शराब पीते हैं । बस, विवाह कर लेते हैं। यह भी बहुत प्रचलित है कि इतने से ही वर-वधू का विवाह हो जाता है, और एक पत्नी दो या तीन भाइयों के बीच में हो, जैसे कुछ टीम-टाम की ज़रूरत नहीं होती। तीन दिन द्रौपदी के पाँच पति भारत में थे। इसका कारण तक वर-वधू साथ साथ रहते हैं। यदि वधू को तिब्बत की हीन आर्थिक अवस्था है। दो या तीन अपना पति नहीं पसंद होता तो वह चौथे दिन भाइयों के एक ही पत्नी होने से लड़के जितने भी अपने पिता के तंबू को लौट जाती है और विवाह- होते हैं, पत्नी के कहलाते हैं और संपत्ति का बँटवारा सम्बन्ध टूट जाता है। लड़की का मोल वहाँ के नहीं होता। एक कारण यह भी है कि उतनी उँचाई लोगों को निगाह में इससे घटता नहीं, बरन बढ़ पर लड़के कम होते हैं, और औरतों का यह विश्वास जाता है। अमरीका में तो अब प्रस्ताव हो रहे हैं कि है कि कई पति होने से लड़के जरूर होंगे। फिर शादी से पहले थोड़े दिन वर और वधू को साथ तिब्बत में याक और भेड़ों के झुण्ड चराने के लिए रहना चाहिए और अगर इस बीच में दोनों में निभ लड़कों की बड़ी आवश्यकता रहती है। एक और जाय तो शादी होनी चाहिए। पर तिब्बत में तो कारण इस तरह के विवाह का यह है कि तिब्बत तीन दिन हमेशा इस काम के लिए मिलने आये हैं। के पुरुषों को व्यवसाय के लिए बड़ी लंबी यात्रायें तलाक़ भी तिब्बत में बड़ा सीधा-सादा है। पत्नी करनी पड़ती हैं। उनमें अक्सर महीनों लग जाते अपने पिता के घर चली गई और वहाँ से नहीं हैं। एक भाई यदि ऐसी ही यात्रा पर जाता है तो
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३६
सरस्वती
[भाग ३६
-
-
व्याह ली जाती हैं। पर प्रत्येक भाई की प्रत्येक पर्न एक समान ही पत्नी होती है। यह नहीं होता कि एक भाई की एक ही पत्नी हो। इस भाँति कई पति और कई पत्नियाँ हो जाती हैं। संतान पारि वारिक संतान होती है, व्यक्तिगत संतान नहीं। इस तरह का परिवार भारतीयों के परिवार से कह अधिक शक्तिशाली होता है और बँटवार की शायद ही कभी आवश्यकता पड़ती हो।
तिव्वत में विवाह एक आर्थिक अथवा व्यावमायिक संस्था है, धार्मिक संस्कार नहीं। तिब्बत की स्त्रियाँ कई पति वरण करने को बाध्य नहीं की जाती हैं। वे इस प्रणाली का स्वयं पसंद करती हैं। उनकी ममझ में यही नहीं आता है कि जिस स्त्री के एक ही पति होता है वह अपने पति के लंबी यात्रा पर चले जाने पर निवाह कैसे करती है। हम लोगों को तिब्बत का इस प्रकार का विवाह अजीब मालूम हो सकता है, पर तिव्वतवाले उसी में बड़े सुग्बी हैं और ऐसा विवाह उनकी आर्थिक दशा के बहुत अनुकूल है। उन्हें पाप या भ्रष्टाचार का इस विषय में अनुवोध नहीं होता और ठीक भी है। आचार-विचार
और प्रथायें समय और परिस्थिति पर निर्भर हैं। [एशियाई यहूदी विवाह के बाद मछली के ऊपर
भारतवासियों की तरह यह विश्वास करना कि जो से कूदते हैं
हम करते हैं या कहते हैं वही ठीक है और बाक़ी दूसरा भाई घर संभालता है और जब उसको सब ग़लत है, केवल मूर्खता और कूपमंडूकता है। भौजाई उसकी पत्नी भी होती है तब वह जी लगा- विवाह की काई एक प्रथा सर्वव्यापी नहीं कर काम भी करता है। उधर जो भाई यात्रा पर कही जा सकती। देश, काल और जाति के अनुसार गया होता है उसे अक्सर महीनों बाहर रहना पड़ता प्रथायें वनती और बिगड़ती चली जाती हैं। अक्सर है। तिव्वत में रेल नहीं है और सड़कें भी बहुत कम यह होता है कि सिद्धान्त एक ही होता है, पर भिन्न हैं। यदि बर्फ पड़ने लगी तो चलना असंभव हो जाता भिन्न देशों में वह भिन्न भिन्न प्रकारों से चित्रित है। इसलिए परदेश में यात्री को स्त्री की आवश्यकता किया जाता है। उदाहरण के लिए एक सिद्धांत यह पड़ती है। थोड़े दिनों के लिए वह परदेश में ही है कि शुभ कार्य में अनिष्ट से बचाने का प्रयत्न किया व्याह कर लेता है। तिब्बत-निवासी ऐसे विवाहों जाय। सब देशों में यह समझा जाता है कि विवाह को बुरी निगाह से नहीं देखते हैं। यदि परिवार के समय अशुभ शक्तियाँ अपना कारोबार खास की आर्थिक स्थिति इस बीच में अच्छी हो गई तो तौर से जारी रखती हैं और उनसे बचने के लिए एक पत्नी के स्थान पर दो अथवा तीन पत्नियाँ हजारों टोटके किये जाते हैं। वधू का भूमि पर पैर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
विवाह की कुछ और विचित्र प्रथायें
PARIES
../
रखना विशेषतया अशुभ समझा जाता है, क्योंकि लोगों का खयाल है कि उसका पैर ज़मीन पर पड़ते ही पाताल में दानव उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। मुसलमानों में ना आज भी यह धारणा प्रचलित है कि ऐसी वध के बच्चे दानव होते हैं। भारको में वर वधू को गोद में उठाकर मकान के भीतर घुसता है। चीन, पलेस्टाइन, मिस्र, प्राचीन गेम
और ब्रिटेन तथा वहत-से अन्य आधुनिक यारपीय देशों में इमी प्रथा का साम्राज्य है अथवा रहा है। वेल्स म गिरजाघर से विवाह के उपरांत लोटन पर वध बहुत संभाल कर मकान की देहरी के ऊपर से उठाकर मकान के भीतर ले जाई जाती है, क्योंकि वधू के लिए देहरी पर या उसके आस-पास पैर रखना बहुत ही अशुभ और अनिष्टकारी समझा जाता है। स्काटलैंड में भी अभी हाल तक नवव देहरी या पहली सीढ़ी के ऊपर से उठाकर ले जाई जाती थी, जिसमें उसे किसी की नज़र न लगे और उस पर किसी का जादू न चले। बहुत-से देशों में वधू को उठाकर ले जाने के बजाय उसे देहरी पर पैर न रखने का आदेश दिया जाता था। भारत में भी वधू को यही आदेश मिलता था. और यह वध तक ही सीमित नहीं है। बहुत-से देशों में वर को भी
[मोरक्को में इसी तरह गठरी बनाकर वधु के घर के भीतर ले जंगली जानवर न घुस आया हो कि घर में घुसते जाते हैं। भारत में ही वध का मामा वर को गोद ही आदमी पर दौड़ पड़े। इसी लिए इन सब भयामें उठाकर भीतर ले जाता है। नज़र लगना बचाने नक बातों से बचने के लिए यह अधिक अच्छा था के लिए भारत में भी बर को कजरबिलौटा बना कि वर-वधू भीतर उठा कर ले जाये जायें। धीरे कर घर से निकालते हैं। इन सब प्रथाओं का जन्म धीरे मनुष्य सभ्य हो चला, गृह उसका गढ़ बन असभ्य काल में हुआ था। बाहर के उजले से एक- चला, पर रूढ़ियाँ और कूट कूट कर भरे हुए विचार दम घर के अंधेरे में पहुँचते ही आदमी एक बार उसे विवश किये रहे और कारण न समझ में आने महम उठता था । भूत, प्रेत, दानव, जिन्न इन सबका पर भी वे कार्य वरावर होते रहे। आज भी हजारों भय उसे पग पग पर मताता था, जादू टोना पढ़े-लिखे आदमियों के मुंह से मुझे स्वयं सुनने को उसके जीवन का त्रास था। मकान उस ज़माने में मिलता है कि "अमुक घर मुझ फला हे". "अमुक ठीक तरह सूर्य के दशन भी न करते थे। ऐसी दशा घर अशुभ है, उसे छोड़ दो" इत्यादि । तब विवाह में वह घर के भीतर पैर रखते कैसे न सहम जाता? में इस तरह की नासमझी की बातें क्यों न की कुटियों के काल में यह भी भय था कि भीतर कोई जायँ ? धर्म-संस्कार तो बड़ी ही कठिनाई से परिव
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
र्तित हुआ करते हैं। मोरक्को में वधू और वर की साने की प्रथा बहुत प्रचलित है। भारत के अलावा, दाहनी चट्टी में सुई अथवा थोड़ा-सा नमक भूतों हिन्द-चीन, मलयद्वीप-समूह से लगाकर अटलांटिक से बचाव के लिए रख दिया जाता है। नार्वे, स्वीडन महासागर तक यह प्रथा पाई जाती है। सभी योर
और अन्य अनेक देशों में जूतों में सिक्के इसी लिए. पीय देशों में चावल और मिठाई वर-वधू पर बररख दिये जाते हैं कि वर-वधू जादू-टोने से सुरक्षित साई जाती है। प्राचीन ग्रीस में वर के घर में घुसते
ही वयू चूल्हे के सामने ले जाई जाती थी और उस ___ इंग्लैंड, स्काटलैंड, डेनमार्क, राइन नदी के पर खजूर, अंजीर, मेवा, छोटे छोटे सिक्के इत्यादि किनारे (जर्मनी इत्यादि), ट्रांसलवानिया के जिप्सियों बरसाये जाते थे। स्लेवोनिक देशों में अनाज इत्यादि
और प्राचीन यूनानियों में यह प्रथा प्रचलित पाई वर-वधू के जुलूस पर फेंका जाता है। फ्रांस में गेहूँ जाती है कि वर-वधू पर पुराने जूते फेंके जाते हैं। वरमाया जाता है और वधू का स्वागत तीन रोटियों अधिकांश देशों में नवदंपति पर यह विचित्र बौछार से किया जाता है। इंग्लैंड में चावल के अलावा गेहूँ गिरजाघर से शादी के बाद निकलने पर या शादी भी वधू पर फेंका जाता था। ब्रिटेन में बहुत-सी की दावत से उठने पर होती है, पर कहीं कहीं वर जगहों में रोटियाँ वधू के सिर के ऊपर तोड़ कर
और वधू पर अलग अलग भी यह बौछार होती है गिराई जाती हैं और उनके नीचे गिरते ही लोग उन जैसा कि आइल अाफ़ मैन नामक टापू में इमका पर टूट पड़ते हैं, क्योंकि उन टुकड़ों का खाना बड़ा रवाज था। इस प्रथा के कई कारण बताये गये है। शुभ समझा जाता है। रोम में वर मेवा बिखराता कहा जाता है कि इससे भाग्योदय की कामना प्रद- हुआ चलता है। यह सब इसलिए किया जाता है शित होती है अथवा मातृत्व में यह प्रथा सहायक कि वधू फलवती हो। जैसे अनाज और फलों के होती है अथवा ऐसा करने से जादू-टोने से बचाव बीजों से और अनाज और फल उत्पन्न होते हैं, इसी होता है। यह भी कहा गया है कि यह प्रथा उस भाँति स्त्री से पुत्र और पुत्रियाँ उत्पन्न होती हैं। इसी ज़माने की है जब वर वधू को उठाकर ले जाया करता लिए. ये चीजें नव दंपति पर फेंकने से वधू जादू से था और वधू के सम्बन्धी लड़ाई की नक़ल करते हुए फलवती बनती हुई समझी जाती है। मोरक्को में वर पर जते फेंका करते थे। यह भी सम्भव है कि ये यह कहा जाता है कि जो खजर. अंजीर और जूते पहने हए जूतों के अलावा जादू से राह चलने में किशमिश इत्यादि वधू पर फेंका जाता है वह पद-वाण बनते समझते गये हों, जो जमीन छूने से उसे अपने पति के लिए मीठी बनाता है। वर-वधू को बचायें । भारतको में वर-वधू इसका बड़ा मछली और अंडों का भो व्यवहार इसी काम के खयाल रखते हैं कि उनकी चट्टियां कहीं खिसक कर लिए किया जाता है। एशियाई यहूदियों में नव गिर न पड़े और चीनी वधू जमीन से स्पश बचाने दंपति धर्म-संस्कार के अनन्तर तुरन्त ही मछलियों से के लिए अपने पिता के जूते पहना करती हैं। पृथ्वी भरी हुई एक बड़ी तश्तरी के ऊपर से तीन बार के स्पर्श होते ही भूतों के अंग में घुस आने का डर कूदते हैं। बहुत-सी मछलियाँ न हों तो एक जीवित रहता है!
मछली के ऊपर तीन छलाँगे मारी जाती हैं अथवा - इसी भाँति को जादू-टोने की एक प्रथा का मंशा मछली के ऊपर सात बार आगे और पीछे चला वधू को फलवती (माता) बनाना है। हिन्दुओं में जाता है। और यह प्रथा सन्तान-प्राप्ति के लिए नव-दंपति के ऊपर मंडप के नीचे अनाज फेंका जाता प्रार्थना समझी जाती है। मोरक्को के यहूदियों में है। अनाज, मिठाई, फल इत्यादि इस भाँति बर. विवाह के दिन वर एक कच्चा अंडा वधू पर फेंकता
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
विवाह की कुछ और विचित्र प्रथायें
४३९
है और उसका अर्थ यह होता है कि संतान बहुत- साज ढीला करती है। इससे भी यह समझा जाता सी और आसानी के साथ हो। पश्चिमी रूस के है कि वधू फलवती होगी और संतानोत्पत्ति में उसे यहूदियों में वर अपनी वधू के सम्मुख एक अंडा कोई कष्ट न होगा। रखता है और उसका यह अर्थ समझा जाता है कि ये सारी प्रथायें जादू-टोने के काल की हैं। हम जैसे मुर्गी आसानी से अंडा देती है, वैसे ही वधू के लोग जादू-टोने से तो अब हटते चले जाते हैं, विज्ञान भी सरलता से संतान हो। स्वीडन देश के कुछ ने उसका स्थान ही अब मनुष्य-जीवन में नहीं छोड़ भागों में वधू अपने जूते के फीते खुले छोड़ देती है रक्खा है, पर अभी रूढ़ियाँ पुरानी ही चली जा
और उसका अर्थ यह लगाया जाता है कि जैसे खुले रही हैं। हुए जूते से पैर आसानी से निकल आता है, वैसे ही नोट-मुझे इस लेख के और इससे पहलेवाले संतानोत्पत्ति में वधू को कोई कष्ट न हो। वहाँ यह लेख के लिखने में, Nash Magazine तथा London भी होता है कि गिर्जाघर से लौटकर वयू घोड़े से Life से बहुत सहायता मिली है। इसलिए उन दोनों तुरन्त ही उतरती है, घोड़े को बाग फौरन निकाल पत्रों के प्रति कृतज्ञता प्रकाश कर देना मैं अपना लेती है, घोड़े को नाक पर मारती है और उसका कर्तव्य समझता हूँ। लेखक ]
- जीवन लेखक, कुवर सोमेश्वरसिह, बी० ए०
है बँधा परिस्थितियों से, जग की मेरा यह जीवन । चलने है कभी न पाता, वाञ्छित पथ पर उन्मन मन ॥१॥
हैं निठुर सत्य से टकरा, मिटती मंजुल आशाय। उल्लास-सुमन को मुरझा,
जाती हैं विपुल व्यथायें ।। २॥ हँसने है मुझे न देता, जीवन का अविरल क्रन्दन । सोने निर्विघ्न न देता, वनों का मधुमय गुंजन ।। ३ ।।
मन को मृदु कहीं जगत का, परिहाम टोक जाता है। सीमा का अकरुण शासन,
फिर मुझे रोक जाता है ।।४।। सुख का प्रवाह अनियंत्रित, उर में जब बह जाता है। कर्त्तव्य तभी कुछ मुझसे, चुपके से कह जाता है॥५॥
है मुझे डुबो देता जब, मेरा सुखमय पागलपन । है चुटकी-सी ले जाती, चेतना निपट निष्ठुर बन ॥६॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
मेरी श्री बदरीनाथजी की यात्रा
लेखक, श्रीयुत रायबहादुर पण्डित राजनारायण मिश्र पी० सी० एस०
श्री बदरी धाम की यात्रा एक प्राचीन धार्मिक यात्रा है। यह यात्रा पाण्डवों के समय से अधिक प्रसिद्ध हुई है। वास्तव में हिन्दुओं के जीवन में यह एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। श्रीमान् मिश्र जी ने इस लेख में उसका ब्योरेवार वर्णन बड़े सुन्दर ढङ्ग से किया है।
सन् १६०१ में मैंने बी० ए० की परीक्षा
में पहुँचकर नाथ जी के धर्मशाला में दी थी। उस समय परीक्षा प्रयाग
ठहरा। उस समय वहाँ केवल एक ही में ही होती थी। मेरे बड़े भाई पण्डित
धर्मशाला और एक ही दूकान थी। श्रीनारायण जी ने अपने मित्र पण्डित
ऋषीकेश से एक रोज़ लक्ष्मणझूला परमेश्वर जी शुक्ल के यहाँ मेरे ठहरने का
गया। गंगा-स्नान करके जब झूला पर प्रबंध किया था। पर अभाग्यवश शुक्ल जी
पहुँचा तब बड़ा डर मालूम हुआ। झूला किसी मामले में फँस गये थे और मुझे
बहुत ऊँचा था और हिलता भी था। मैं इलाहाबाद-स्टेशन पर नहीं मिल सके ।
तो किसी तरह उसको पार कर गया, पर मैं अपरिचित जगह में अपने साथियों की
हमारे चचा अवधनारायण जी बगैर एक तलाश कर कटरे में ठहर गया । रोटी अच्छी तरह बनानी अादमी के सहारे उसके पार न जा सके। उस पार जाकर नहीं आती थी और कट्टरपन भी नहीं छोड़ना चाहता था। मैंने श्री बदरी विशाल की एक मूर्ति के दर्शन किये और कच्ची-पक्की जैसी रसोई तैयार करता था, खा लेता था। दर्शन करते समय यह प्रण किया कि यदि मैं बी० ए० पास परन्तु उसका असर तो होना ही था। मेरा पेट खराब हो हो जाऊँगा तो श्री बदरीनाथ जी के दर्शन ज़रूर करूँगा। गया और मुझे बुखार आ गया। दर्शन-शास्त्र का पर्चा १६०२ से अब तक बराबर दर्शन करने की इच्छा मैंने घोर ज्वर में किया । मुझे यह भी न मालूम हुआ करता रहा, परन्तु कतिपय कारणों से मेरी इच्छा नहीं कि मैंने क्या लिखा है। इस कारण मुझे बड़ी चिन्ता पूरी हुई। इस साल भी कुछ ऐसे काम या पड़े थे कि रहती थी। मैं किसी परीक्षा में कभी फेल नहीं हुआ था, यात्रा के होने की सम्भावना न थी, इसलिए चलने में देर इसलिए और भी फ़िक्र थी कि कहीं फेल न हो जाऊँ। हो गई। चिन्ता के कारण घर पर नहीं बैठ सकता था। भाई साहब मैं यात्रा-लाइन को अर्थात् हरिद्वार से केदारनाथ जी ने हरद्वार जाने का प्रबन्ध कर दिया। स्वर्गीय चचा होते हुए बदरीनाथ जी नहीं गया। मैं नैनीताल से चला। अवधनारायण जी भी मेरे साथ चले। हरद्वार में कई यहाँ से रानीखेत पहुँचा। रानीखेत से चमोली जाने के दो रोज़ रहकर कनखल, चंडीदेवी, भीमगोडा श्रादि स्थानों रास्ते थे-एक द्वाराहाट होकर कर्ण-प्रयाग को गया था, में देवताओं के दर्शन किये। फिर पैदल ऋषीकेश को दूसरा गरुड़ होकर नन्द-प्रयाग को।। चल दिया। राह में सत्यनारायण जी का मन्दिर पड़ा। गरुड़ तक मोटर होने के कारण दूसरे रास्ते से जाने वहाँ दर्शन करने में बड़ा आनन्द आया। मूर्ति बड़ी में २५ मील पैदल कम चलना पड़ता था। लेकिन गरुड़ सुन्दर और चित्त को आकर्षित करनेवाली थी। ऋषीकेश से ग्वालदम तक तो कुछ सीधा रास्ता था। आगे बहुत
४४० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
मेरी श्री बदरीनाथ जी की यात्रा
चढ़ाई और उतार था और रास्ते में ठहरने का भी कोई बड़े बड़े साँप निकलने लगे तब उसको बन्द कर दिया अच्छा प्रबन्ध न था, इसलिए मैंने सीधा दूर का रास्ता और चारों तरफ़ ज़मीन साफ़ करके उसे घेर दिया। यह लिया। सवारी के लिए डाँडी और असबाब ले जाने को भी अब सुरक्षित यादगार है । बदरीनारायण जी का एक कुली किये । रानीखेत में सरकारी एजंसी है । लाला काशी- मन्दिर यहाँ भी है।। प्रसाद एजेंट है । वे मब प्रबन्ध कर देते हैं - - कोई विशेष बाज़ार तो मामूली और पहाड़ी बाज़ारों की तरह है। कष्ट नहीं होता।
कोई सब्ज़ी या फल नहीं मिल सका। लौटते समय मुझे मैं १-६-३५ को चला और द्वाराहाट में पहला पड़ाव द्रोणागिरि पर्वत दिखलाया गया। यह द्वाराहाट से लगा हुआ। यह एक प्राचीन स्थान मालूम होता है। यहाँ हुया है और वहाँ की देवी जी की आरती के घंटे का बहुत-से पुराने मन्दिर हैं, जिनमें कुछ तो टूट फूट गये शब्द मैं डाकबंगले से सुन सकता था। परन्तु वह पर्वत हैं और कुछ अभी अच्छी दशा में हैं।
इतना ऊँचा था कि ६ या ७ मील चले बिना वहाँ पहुँ____ कहा जाता है, इस जगह को द्वारका बनाने का चना सम्भव नहीं था। यह वही पर्वत है, जहाँ से हनूविचार किया गया था और रामगंगा, कोसी और गगास- मान जी लक्ष्मण जी के बचाने के लिए अपने उड़नये तीनों नदियाँ यहाँ मिलनेवाली थीं। परन्तु कासी की खटोला पर संजीविनी श्रादि बूटियाँ ले गये थे । यह पर्वत असावधानी के कारण ऐसा न हो सका । तब उन दोनों बहुत सुन्दर और हरा-भरा है। खेद है, मैं इसको देखने नदियों ने शाप दिया कि कोसी का जल नष्ट हो जाय और नहीं जा सका। समुद्र तक न पहुँच सके। इस कारण कोसी रामनगर के द्वाराहाट से चलकर दूसरे दिन मैं गणाई पहुँचा । खेतों में फैल कर वहीं समाप्त हो जाती है।
इसको चौखुटिया भी कहते हैं। यह स्थान रामगंगा के ५, बजे शाम को गाँव की सैर करने निकला। किनारे है और रमणीक है। परन्तु यहाँ गरमी बहुत थी बँगले के बाहर ही ईसाइयों के बँगले थे। उनका एक और ३ बजे तो लू चलती थी ! यहीं से कुछ यात्री सीधा अस्पताल और एक अँगरेज़ी मदरसा भी है। यहाँ रामनगर चले जाते हैं और वहाँ से प्रार० के० आर० ईसाई अच्छी तादाद में मिलते हैं।
लाइन पर सवार हो जाते हैं और कुछ रानीखेत चले जाते गाँव में घुसते ही एक कतार मन्दिरों की मिली। इन हैं और वहाँ मोटर पर चढ़ काठगोदाम-स्टेशन पर पहुँच मन्दिरों में कोई मूर्ति नहीं है । पर ये मन्दिर सरकार की जाते हैं। रानीखेत जाने में यात्रियों को ३० मील कम तरफ़ से सुरक्षित हैं। उनकी देख-भाल के लिए १०) पैदल चलना पड़ता है, परन्तु गगास नदी से रानीखेत माहवार पर एक आदमी नौकर है। इसके बाद मैं 'धज' तक ५ मील की चढ़ाई थके हुए यात्री को मार डालती देखने गया । 'धज' का अर्थ २ संख रुपया है । यह धज है। गगास में घोड़े और डाँडियाँ मिल सकती हैं। एक टूटा-फूटा मन्दिर है। इस मन्दिर की कारीगरी और तीसरे दिन का पड़ाव लम्बा था। १५ मील चलकर मन्दिरों से कहीं ज्यादा अच्छी है । इसकी कुर्सी बहुत ऊँची लोहबा मिला। द्वाराहाट से गणाई तक रास्ता करीब है और दरवाज़े पर एक बेल बनी है, जिसमें इधर-उधर करीब चौरस था। ऐसा ही रास्ता ६ मील और मिला। दो शंख बने हुए हैं। यह मन्दिर मुझे हिन्दुओं का नहीं उसके बाद चढ़ाई शुरू हुई। सबसे ऊँची जगह पर मालूम हुआ। यदि इसमें एक जगह गणेश जी की मूर्ति पहुँचते ही एक कुली के कंधे से डाँडी का डंडा सरक न होती तो मैं इसका जैन-मन्दिर मानता। कहा जाता गया और डाँडी धम से गिर पड़ी। पर कोई चोट नहीं है कि सरकार को किसी तरह यह खबर लगी कि इस आई। यहाँ से उतार शुरू हुआ और एक मील नीचे मन्दिर में दो संख रुपया गड़ा हुआ है। सरकार ने मेलचौरी मिला। मन्दिर के अन्दर चार-छः हाथ खोदवाया । खोदने पर मेलचौरी ही तक बहुधा हरिद्वार या देवप्रयाग के
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४२
सरस्वती
लिये हुए कुली आते हैं । यहाँ से रानीखेत या रामनगर को दूसरे कुली र डाँडी लेनी पड़ती है ।
रास्ते में बहुत से यात्री मिले। उनमें अधिकतर स्त्रियाँ थीं । वे बहुत थकी हुई थीं । मुकाम पर पहुँचने के लिए फिर चढ़ाई मिली । ३ या ४ ही फ़लांग में धूप के समय मेरे आदमियों की सब गति हो गई । पर मुकाम ठंडा था । वहाँ जाकर आराम मिला ।
शाम को मैं चट्टियाँ देखने गया । यहाँ चड्डी बनिये की दूकान को कहते हैं । यह कहीं दो मंज़िला होती है, कहीं एक मंज़िला । रास्ते भर में एक-एक, दो-दो मील पर बराबर चट्टियाँ मिलती जाती हैं। कोई चट्टी साफ़सुथरी, कोई गंदी होती है। यात्री लोग यहीं खाना पकाते हैं और नज़दीक ही पाखाना - पेशाब भी करते हैं । इस कारण यात्रा मार्ग में मक्खियाँ बहुत ज्यादा हो गई हैं । इसी लिए गढ़वाल - जिले के सरकारी अफ़सर जहाँ तक बन पड़ता है, यात्रा मार्ग को छोड़कर चलते हैं। यात्रा मार्ग में खाने-पीने का सामान भी महँगा मिलता है, चीज़ें भी अच्छी नहीं मिलतीं । जो यात्री अपने साथ खाने-पीने का सामान ले जाना चाहते हैं उनको कुली-भाड़ा तो देना ही पड़ता और ठहरने को जगह भी नहीं मिलती, क्योंकि बनिया उन्हीं को ठहरने देते हैं जो उनके यहाँ सामान खरीदते हैं, इसी लिए यात्री लोग अपने साथ सामान नहीं ले जाते हैं ।
४-६- ३५ को लोहवा से त्रादिवदरी आया । ११ मील का पड़ाव था । ३ मील से ज्यादा चढ़ाई पर पैदल चला । रास्ते में ५ मील चढ़ाई और ५ मील उतार था । ज्यों ज्यों बदरीनाथ जी निकट आते जाते थे, लौटनेवाले यात्रियों की संख्या बढ़ती जाती थी। मुझे अजमेर, जोधपुर, जयपुर, आगरा, ग्वालियर, बुंदेलखंड, लखनऊ, खीरी, सीतापुर और रायबरेली के यात्री मिले। कोई कोई यात्री अपने साथ छोटे छोटे बच्चे भी लाये थे । घोड़ा, देशी
प्पान, कंडी और डाँडी की सवारियों पर कमज़ोर स्त्री और मर्द जा रहे थे । सवारी के घोड़े कम थे । लद्द् घोड़ों पर ही असबाब लाद कर उसी पर औरतें और मर्द बैठे थे । प्पान तो मामूली लकड़ियों का बना था और उसमें मचिया
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
की तरह बैठने की जगह थी । यह कंडी से ज्यादा आराम देनेवाला है और इसको भी चार आदमी लेकर चलते हैं। कंडी एक बड़ा भावा-सा लम्बा लम्बा होता है, जिसमें पैर बाँधकर बैठना होता है और उसे एक आदमी अपनी पीठ पर लाद लेता है । इस आदमी के हाथ में एक नोकदार लकड़ी चलने में सहारा देने के लिए और एक देवकी होती है । देवकी ( का आकार ) पर वह सहारा 1 लेकर खड़ा हो जाता है 1
मैं दिबदरी १० बजे से पहले पहुँच गया । यह एक छोटी जगह है । यहाँ सत्यनारायण व बदरीनाथ जी के मंदिर हैं। शाम को आरती के समय दर्शन किये। यह स्थान 'पंच बदरी' में नहीं है । मंदिर पुराने ज़रूर हैं। और सरकार की तरफ़ से संरक्षित भी हैं । यहाँ के एक आदमी से मालूम हुआ कि उस स्थान के निकट ही टेहरी के पुराने राजाओं की राजधानी थी और इसी मंदिर में उन्होंने अपने कुल देवता श्री बदरीनाथ को स्थापित किया था । भूकंप में सब स्थान नष्ट हो गया है। केवल बदरीनाथ का मंदिर कुछ टेढ़ा होकर बच गया है ।
पहाड़ पर मैंने खाने-पीने की बड़ी एहतियात की । पानी गरम करके पिया और ज्यादातर दलिया ही खाया । तिस पर भी पेट ठीक नहीं रहा, चूरन का प्रबंध करना
पड़ा ।
५-६- ३५ को कर्णप्रयाग पहुँच गया । यह मुक़ाम १२ मील पर था । जो उतार कल शुरू हुआ था वही आज शिमली तक रहा। शिमली से कर्णप्रयाग ४ मील है । शिमली में पिंडरगंगा के दर्शन हुए। यह नदी पिंडारी ग्लेशियर से निकली है और कर्णप्रयाग में अलकनंदा से मिल गई है। जहाँ दो नदियाँ मिलती हैं उसी को यहाँ 'प्रयाग' कहते हैं। सुबह को चलते वक्त संगम में स्नान किया ।
६-६-३५ को सोनला में ठहरा था, परन्तु डाकबँगला बिलकुल सुनसान जगह था। कोई दूकान भी नज़दीक न थी । मेरे पास कुछ काम भी न था । इसलिए ३ मील आगे नन्दप्रयाग चला गया । नन्दप्रयाग में नन्दाकिनी और अलकनन्दा का संगम हुआ है । नन्दा
www.umaragyanbhandar.com
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
मेरी श्री बदरीनाथ जी की यात्रा
४४३
किनी का जल हरा है और वह पिंडर से छोटी नदी है। इस नदी का वेग रुक गया और पानी पीछे को लौट नन्दप्रयाग में कोई डाक-बँगला न होते हुए भी ठहरने की पड़ा । सारे गाँव व पुल जो इस नदी के किनारे थे, तकलीफ़ नहीं हुई । ठाकुर रामसिंह जी का नया कमरा बह गये । २ या ३ दिन बाद इस नये पहाड़ की मिट्टी बह मेरे लिए पंडित अनुसूयाप्रसाद जी, चेयरमैन डिस्ट्रिक्ट- निकली और पानी का रास्ता मिला। उससे सब नदियों बोर्ड, की कृपा से खाली हो गया। नन्दप्रयाग के नज़दीक में बाढ़ आ गई । अब उस झील का फ़ाज़िल पानी मुझे पहले-पहल एक बरगद का छोटा वृक्ष देखने में बराबर बहा करता है जो 'बिरही नदी' के नाम से पुकारा अाया। आम के पेड़ तो यहाँ बहुत हैं, पर नीम का पेड़ जाता है। यहाँ नाम को भी नहीं है। उसकी शकल का एक पेड़ चमोली में नायब तहसीलदार से यह मालूम हुअा 'वितर्ण मिला। पीपल की कमी नहीं है। नन्दप्रयाग कि वहाँ नज़दीक एक सोने की खदान है। सरकारी तौर में कुछ शहरियत है। यहाँ से श्री बदरीनाथ का सम्बन्ध से पहले उसमें काम लगा था। आमदनी से ज़्यादा खर्च बहुत रहता है।
होने की वजह से वह काम बन्द कर दिया गया। उन्होंने बहुत दिनों के बाद आज लीडर व हिन्दुस्तान टाइम्स यह भी बतलाया कि शिमली के ऊपर पिंडरगंगा की बालू अखबार देखने को मिले । पर वे दोनों २ जून के थे। से लोग सोना अब भी निकाला करते हैं और कुछ न क्वेटा की बरबादी पढ़कर सहसा आँसू आ गये । कई घंटे कुछ रोज़ पा ही जाते हैं । इसी से यहाँ यह कहावत मशहूर इन्हीं दोनों अखबारों के पढ़ने में लग गये।
है कि गढ़वाल में कुबेर का खजाना है। ७-६-३५ को चमोली पहुँच गया । इसको लोग पैदल चलने में कुछ थकावट तो ज़रूर आई, परन्तु लालसाँगा भी कहते हैं । डाँडी और कुलियों को जवाब तबीअत अच्छी रही। पीपलकोटी का बाज़ार बड़ा है। दे दिया। बँगला ऊँचे पर था। जो गर्मी की शिकायत यहाँ भोट देश की चीजें मिल जाती हैं। इस मार्ग में बाज़ार में ठहरनेवालों की थी वह मुझको नहीं थी। अभी तक इतना बड़ा बाज़ार मुझे नहीं मिला था। नन्दयह तहसील का मुक़ाम है और हाकिम परगना का प्रयाग से यह अच्छा है। वहाँ तिब्बत की चीजें जैसे इजलास भी यहाँ है । इसलिए यहाँ ७ या ८ वकील भी चमर, बकरी व हिरन की खाले, कस्तूरी इत्यादि बिकती हैं और तलाश करने से कुछ सब्ज़ी भी मिल जाती है। थीं। शिलाजीत, ब्राह्मी, जाहरमोहरा आदि भी बिक रहे यहाँ अस्पताल, डाकघर और पुलिस की चौकी भी है। थे। हमारे दफ्तर के एक बाबू बनवारीलाल मिले । चित्त चमोली से तीन कुली मेरा असबाब लेकर चले और मैं प्रसन्न हुआ। पैदल चला। ११ बजे दिन के करीब मैं पीपलकोटी के ६-६-३५ को सुबह ५१ बजे चलकर ४ मील पर बँगले पर पहुंचा और कुली १२ बजे पहुँचे। रास्ते में गरुड़गंगा पहुँचा। यह 'तीर्थ' माना जाता है। यहाँ बिरहीगंगा नाम की एक नदी मिली। यह नदी गोहना स्नान किया। रास्ते में दूध पिया और करीब ६ बजे दिन झील (डुमरी ताल) से निकली है। कहा जाता है कि यह में पातालगंगा पहुँच गया। गुलाबकोटी पर १०३ बजे नदी दूर से आई थी। गोहने में एक पहाड़ गिर गया पहुँच गया। रास्ते में एक पहाड़ टूट गया था। उसके
और उसका रास्ता बंद हो गया और एक बड़ी भारी भील ऊपर मामली रास्ता बना दिया गया था। उस पर चलते बन गई । कुछ समय बाद (सं० १८६४-६५ में) इस पहाड़ हुए कुछ डर मालूम होता था। यहाँ ।-) सेर आटा व का ऊपरी भाग टूटकर झील में गिर पड़ा, रुका हुआ मामूली चावल मिलता है और 3॥ बोतल मिट्टी का तेल पानी उछल पड़ा और इतने ज़ोर से बहा कि रास्ते में मिलता है। जगह रमणीक नहीं है । कहीं घूमने जाने की जितनी नदियाँ पड़ी उनमें बहिया अा गया । अभाग्यवश जगह नहीं है। एक पहाड़ आगे चलकर अलकनन्दा में गिर पड़ा। अब १०-६-३५ को सुबह ५ बजे चला। रास्ते में बहुत
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
चढ़ाव-उतार नहीं था और कुछ बादल भी थे। १० बजे के कुंड यात्री चले जा रहे थे और कोई नीचे देखता भी के पहले ही ६ मील चलकर जोशीमठ पहुँच गया। नहीं था। पांडुकेसर में दूध =) सेर और बाकी सब चीजें रास्ते में लखनऊ के वैद्य पंडित चिदानन्द से मुलाकात - सेर बिकती हैं । बँगला बहुत अच्छी जगह पर है। हुई। चित्त प्रसन्न हुआ। जोशीमट एक अच्छी जगह नज़दीक ही गंगा जी बह रही हैं और एक बर्फीला पहाड़ है । यहाँ की चट्टियाँ बहुत साफ़ सुथरी हैं। यहाँ अस्प- सामने है। ताल, डाकखाना और पुस्तकालय हैं। यहाँ नरसिंह बदरी यहाँ एक मंदिर श्री वासुदेव जी का है और दूसरा जी के मंदिर हैं। जोशीमठ में उस समय यात्री लोग श्री योगी बदरी का। ये मंदिर पाण्डवों के बनाये हुए नहीं ठहरते थे। किसी ने यह खबर उड़ा दी थी कि कहे जाते हैं। श्री योगी बदरी के मंदिर में लोहे की यहाँ फ़सली बीमारी फैली हुई है। मुझे बँगले में ठहरना ४ पाटियाँ रक्खी हैं। उनकी पुछियों पर नन्दी था, जो गाँव से दूर और ऊँचे पर बना है । इसलिए (नादिया) की मूर्ति बनी है और बाकी पट्टियों में कुछ मैं तो चला आया । डाक्टर साहब के यहाँ से ७-६-३५ लिखा है । वहाँ का पुजारी तो यह कहता है कि इन का लीडर मँगा कर देखा। यहाँ से नीती दर्ग को एक पट्टियों के लेखों को कोई पढ़ नहीं सकता। परन्तु वे लेख सड़क गई है। यह दर्रा तिब्बत से भारत को मिलाता पढ़ लिये गये हैं। उनमें आठवीं और नवीं सदी में जो है । जोशीमठ से ६० मील पर तिब्बत की सीमा मिलती दान राजाओं ने इन मंदिरों को दिये थे उनका ज़िक्र है। है। इस जिले के रहनेवाले वहाँ से ऊन और नमक गरुड़ जी की मूर्ति यहाँ करीब करीब हर मंदिर के सामने लाते है । पहाड़ पर नमक पानी से भी तैयार होता है, है और मंदिर विष्णु जी के नाम पर ही हैं। जोशीमठ में और उसकी खदान भी है। यह नमक भोट में होता है, जरूर एक नौ दर्गा जी का मंदि
गले के इर्द-गिर्द दो पहाड़ हैं, जिन पर उस समय १२-६-३५ को रास्ता हर रोज़ से ज्यादा लम्बा और तक कुछ कुछ बर्फ जमी थी।
खराब मिला । हनूमान-चट्टी के बाद ३,००० फुट से ज्यादा ११-६-३५ को एकादशी का दिन था। मुझे इस उँचाई चढ़नी पड़ी। रास्ते में बर्फ पर भी ३ या ४ जगह बात का संतोष था कि उस दिन का पड़ाव पांडुकेसर तक चलना पड़ा । एक जगह तो पैर फिसलते फिसलते बचा। ८ मील का ही होना अच्छा था । परन्तु ये ८ मील कल इस कष्टप्रद मार्ग में भी बर्फ के पुल और बर्फ की सुफ़ेद के ६ मील से खराब थे। जोशीमठ से चलते ही २ मील चट्टाने जो संगमरमर से भी सुन्दर मालूम होती थीं, हृदय का उतार विष्णुप्रयाग तक मिला। विष्णुप्रयाग में को आकर्षित करती थीं। बड़ी कठिनाई के साथ १२ बजे संगम सड़क से करीब १०० फुट नीचे था। वहाँ जाकर दोपहर को श्री बदरीनाथ धाम पहुँचा। स्नान करना भी मामूली काम न था। संगम पर तो कोई , बजे शाम को भगवान् बदरीनाथ जी के दर्शन नहा ही नहीं सकता है। अलकनन्दा में नहाया ओर धवली- को प्रारती के समय गया। दर्शन पाकर जो भाव मेरे गंगा में मार्जन किया। यही संगम-स्नान हो गया। पानी चित्त में उत्पन्न हुअा वह मैं ही जानता हूँ। मुझे मंदिर के बहुत ही ठंडा था । हाथ-पैर सब गल गये। फिर जंजीर कर्मचारियों ने दरवाज़े पर बग़ल में बिठला दिया। मैंने के सहारे ऊपर आ गया। वहाँ से चढ़ाई शुरू हुई। खूब दर्शन पाये और अपने को धन्य समझा । जिस प्रेम से रास्ते में पहाड़ की सीधी चट्टान की चट्टानें मिलीं। यहाँ यात्री लोग दर्शन करने आते हैं वह दृश्य देखने योग्य था। रास्ता बनाने में बड़ी कठिनाई पड़ी होगी । इसी लिए बहुत- कुछ औरतें तो बाहर भजन गाती और मन होकर सी जगहों में सिर्फ २ या २३ फुट ही सड़क चौड़ी थी। कूदती थीं । अन्दर पुजारी लोग विष्णुसहस्रनाम श्रादि . इतनी तंग सड़क पर से पाताल में गंगा जी को बहती हुई का पाठ करते थे। एक स्त्री मुझे दिखलाई गई जो कहती देखकर किसका दिल नहीं दहल सकता है ! परन्तु कुंड है कि उसने १४ वर्ष से खाना-पीना छोड़ रक्खा है। न
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
सख्या ५]
मेरी श्री बदरीनाथ जी का यात्रा
वह पेशाब करती है और न पाखाने नाती है। उसके सी मालूम होती है। चेहरे में कोई प्राकृति नहीं है । बहुत भक्त चेले हैं । मुझे इस बात पर विश्वास नहीं आया। कहा जाता है कि श्री शंकराचार्य ने उसे नारद कुंड से यहाँ के रावल जी भी उसके कथन पर संदेह करते निकाला था। शृंगार बड़ा सुन्दर होता है। हज़ारों श्रादहैं। पर उन्होंने एक स्त्री का हाल सुनाया, जो पारसाल मियों की भक्ति के कारण वहाँ साक्षात् भगवान् का यहाँ अकेली ६ महीना जाड़े के दिनों में रह गई थी। समीपत्व का भास होता है । भगवान् की मूर्ति के पास उसके पास केवल एक कम्बल और एक चादर थी। उसके कुबेर जी, गरुड़ जी, उद्धव जी व नर-नारायण की मूर्तियाँ भोजन के लिए कुछ सत्तू उसके पास छोड़ दिया गया था। हैं । नर-नारायण की मूर्ति के पास देवियों की ४ मूर्तियाँ उसी पर उसने छः महीने तक गुज़र की। उसने छः महीने हैं। उनमें एक उर्वशी भी है । करीब १० बजे प्रारती तक भाग नहीं जलाई। यह औरत २५ साल की है। बड़ी लेकर चरणामृत पान कर वापस पाया। तपस्विनी कही जाती है। इसको एक रोज़ जब वह बर्फ बदरीनारायण-धाम में बहत-से बँगले गंगा के बायें पर पड़ी थी, स्वप्न में एक साधु ने कुछ हलवा दिया। वह किनारे पर बन गये हैं। परन्तु गंगा का बायाँ किनारा जाग पड़ो, देखा तो हलवा उसके हाथ में है। उसने ठहरने के लिए पुनीत स्थान नहीं माना जाता। गंगा के हलवा को तप्तकुंड पर जाकर खाया । एक दिन उसने दाहने तरफ़ जो पानी की धारायें गिरती हैं या जो पहाड़ तप्तकुंड पर कई श्रादमियों को स्नान करते देखा । उनकी हैं वे सब पवित्र और तीर्थ माने जाते हैं। वहाँ नर-नाराबोली न समझी।
यण नाम के पहाड़ हैं। इन्हीं पहाड़ों पर नर (अर्जन) जिस रोज बदरीनाथ जी पहचा उसके दसरे दिन और नारायण (श्रीकृष्ण जी) ने तपस्या की है। एक (१३-६-३५) सुबह उठते ही तप्तकुंड में स्नान को गया। पहाड़ का नाम नीलकाँठा है। उसके नीचे एक स्थान है
। पानी इतना गर्म था कि उसके अंदर घुसने जिसको ब्रह्मकपाली कहते हैं। यहाँ पितरों का श्राद्ध किया की हिम्मत न पड़ी। सूर्य-कुंड पर गया। वहाँ गर्म पानी जाता है। यहाँ श्राद्ध करने का माहात्म्य गया से भी की धारा से लोटे से स्नान किया। यहाँ भी शरीर पर अधिक है। कहते हैं कि कुम्भ के अवसर पर भक्तों को पानी पड़ते ही मालूम हुआ कि सारा शरीर जल गया। भगवान् के दर्शन इस पहाड़ पर मिलते हैं । बदरीनारायण वहाँ से स्नान कर गौरी-कुंड पर जहाँ गर्म धारा गंगा जी से ७ मील चलकर स्वर्गारोहण का रास्ता है, जहाँ चार से मिलती है, मार्जन किया। गंगा जी में स्नान करना पांडवों ने अपना शरीर त्याग किया था और युधिष्ठिर मेरे लिए संभव न था। थोड़ी ही दूर पर स्थित बर्फ से सदा महाराज स्वर्ग को गये थे। इस जगह कोई वृक्ष नहीं है। ढंके रहनेवाले पहाड़ से गंगा जी आई हैं। उनका जल बहुत साल में छः महीने यह स्थान बर्फ से ढका रहता है और ही ठंडा था । ऊपर आकर संध्या-तर्पण करके देव-दर्शन एक तरह की हवा वेग से चला करती है। को चला गया। अभिषेक (अर्थात् विशेष पूजा) का दिन अभी तक हनूमान्-चट्टी और बदरीनाथ के बीच में था। एक बाई ने १०१) देकर पूजा कराई थी। रावल जी दो जगह गंगा जी पर पुल नहीं बन सके हैं । पुराने महाराज ने बड़े परिश्रम से करीब ३ घंटे पूजा की। मुझे ज़माने की तरह झूले ही हैं। ये झले चलने पर हिलते हैं रावल जी की कृपा से एक अच्छा स्थान बैठने को मिल और इन पर एक साथ तीन या चार आदमी से ज्यादा गया था। वैसे तो यात्री ५ मिनट से ज्यादा मंदिर में नहीं जाते। ठहरने नहीं पाते हैं। और ठहर भी किस तरह सकते हैं लौटते समय मैं फिर जोशीमठ में नरसिंह-बदरी के जब कि ६०० व ७०० यात्री रोज़ आते हैं और कम से मन्दिर को गया । मूर्ति बड़ी विशाल चिकने काले पत्थर कम ३ रोज़ ठहरते हैं ? २,००० श्रादमियों को दर्शन भी की है। एक हाथ बाल की बराबर किसी चीज़ से जुड़ा तो कराना था। भगवान की मूर्ति बैठी हुई बौद्ध की मूर्ति- है। कहा जाता है कि जब यह हाथ किसी कारण टूट
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४६
सरस्वती
[भाग ३६
जायगा तब कोई बड़ी दुर्घटना होगी। मन्दिर में बैठ भी मिला जो गौत्रों के चराने के लिए (गोचर) किसी रानी गया । लोगों से वहाँ के मन्दिरों का हाल पूछने लगा। ने खरीद कर पुण्य कर दिया है। इस मैदान के दरख्त मालूम हुअा कि वासुदेव नामक एक राजा जोशीमठ काटकर और पत्थर हटाकर हवाई जहाज़ के उतरने के के जंगल में अपनी रानी-सहित तपस्या को गया था। लिए जगह बनाई गई है। एक बहुत बड़ा बरगद का एक रोज़ उसकी कुटी में एक बाघ घुस गया। रानी पेड़ और एक चट्टान का टुकड़ा रह गया है। इसी चट्टान घबराकर बाहर आगई। राजा उस समय वहाँ नहीं था। से लड़कर एक बार एक हवाई जहाज़ टूट पड़ा था। मेरे जब वह कुटी पर आया तब रानी ने सब हाल बतलाया। सामने जहाज़ आया था और एक हिन्दुस्तानी साहब उसे साधु राजा तलवार लेकर कुटी में घुस गया और बाघ के चला रहे थे । इसमें टूटे हुए जहाज़ को बनाने के लिए एक तलवार मारी। तलवार उसके हाथ पर पड़ी जो एक इंजीनियर पाया था। वह उसी वक्त एक मारवाड़ी झूल गया, पर खून के बजाय उससे दूध बह निकला। और उसकी स्त्री को लेकर उड़ गया । २ आदमियों को बाघ चला गया। रात को राजा को स्वप्न हुआ कि लेने के लिए फिर आने का वादा किया। ४५) एक आदमी बदरीनारायण जी ही बाघ की शक्ल में दर्शन देने आये । का १२२ मील के लिए किराया और आने-जाने का थे । उसी घटना की यादगार में नरसिंह-बदरी का मन्दिर | किराया ७५) रक्खा गया है। हवाई जहाज़ यहाँ से ४५ राजा वासुदेव ने बनवाया और राजा की याद में वासुदेव | मिनट में हरिद्वार पहुँचा देता है। जी का मन्दिर बनाया गया।
यह घाटी
यहाँ पीपल, बरगद, श्राम के पेड वहाँ बैठकर पाँच बदरी का नाम व स्थान पूछा। दिखाई दिये। इनके पास ही चीड़ वगैरह के पेड़ भी मालूम हुआ कि आदिबदरी इनमें नहीं हैं । पाँच बदरी ये पहाड़ पर मिले। आम यहाँ बहुत हैं, परन्तु आँवला हैं-(१) श्री बदरीनाथ जी, (२) योगेश्वर बदरी जो पांडु- से बड़ा कोई अाम नहीं देखा। आम अभी कच्चे थे। केसर में हैं, (३) नरसिंह बदरी जो जोशीमठ में हैं, (४) जब ८ मील चल चुका तब कोटेश्वर महादेव जी के वृद्ध बदरी जो जोशीमठ से ४, मील पर चमोली की तरफ़ दर्शन गंगा के इस पार से किये । महादेव जी का स्वयंभू
हैं, (५) ध्यान बदरी जो उर्ग गाँव में गंगा के उस पार लिंग एक पथरीले पहाड़ में एक कुदरती गुफा में गंगा जी • कुमारचट्टी के सामने हैं । यहाँ बहुत मन्दिर हैं, परन्तु गंगा के पास है। उस पर पानी बराबर चुश्रा करता है । यहाँ जी को पार करने के लिए २ लट्ठों ही पर चलना पड़ता है। रने के लिए २ लट्ठों ही पर चलना पड़ता है। एक साध रहते हैं। एक धर्मशाला भी बन गई है।
एक साधु र इसलिए यात्रियों की हिम्मत नहीं पड़ती। यह भी बतलाया रुद्रप्रयाग पहुँच कर पहले मंदाकिनी गंगा और अलकगया कि भविष्य बदरी का स्थान पुराणों में लिखा है । वह नन्दा के संगम पर स्नान किया। मंदाकिनी केदारनाथ स्थान नीती की तरफ़ 'तपोवन' से ३ मील प्रागे धौलीगंगा जी से आकर यहाँ मिली है। काली कमलीवाले बाबा ने के नज़दीक जोशीमठ से ६ मील पर है। तपोवन में भी यहाँ एक पक्का घाट बनवा दिया है और १२० सीढ़ी उतर एक गर्म चश्मा है । एक स्वयम्भू-मूर्ति भी वहाँ बन रही कर संगम मिलता है। वहाँ भी जंजीर पकड़कर स्नान हुआ। है । कहा जाता है कि एक पहाड़ की चट्टान पर चेहरे की कर्णप्रयाग से रुद्रप्रयाग तक यात्रा-मार्ग नहीं है । आकृति बन चुकी है। स्थान बड़ा रमणीक बतलाया इसलिए रास्ते में बहुत कम भीड़ मिली। परन्तु रुद्रप्रयाग जाता है।
/ से निकलते ही सैकड़ों यात्री मिले। इनमें बहुत-से रुद्र२३-६-३५ को नये रास्ते से चला और १० मील प्रयाग से केदारनाथ जी होकर श्री बदरीनाथ जी जा रहे पर नगरासू आया। पहले दो मील तो पथरीला पहाड़ थे। रुद्रप्रयाग से केदारनाथ जी ४८ मील है। बदरीनाथ
और तंग रास्ता मिला। बाद को कच्चा पहाड़ मिला। जी से लौटकर यात्री कर्णप्रयाग से रानीखत अथवा वहाँ कुछ मैदान भी मिला। यहाँ ६ मील पर वह मैदान रामनगर को जाते हैं ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५
मेरी श्री बदरीनाथ जी की यात्रा
४४७
२६-६-३५ को श्रीनगर पहुँच गया। जगह अच्छी स्पष्ट देख पड़ती है। पुरानी बस्ती में सिवा २ या ३ है, पर पंखे की हवा में काम करना पड़ता है। शाम को मंदिरों के कुछ भी नहीं रह गया है। नई बस्ती चौकोर कमलेश्वर महादेव के दर्शन किये। कहा जाता है कि जयपुर के नमूने पर बनाई गई है। यहाँ टोन एरिया महादेव जी का नाम कमलेश्वर इसलिए पड़ा कि एक और स्पेशल मजिस्ट्रेट की कचहरी भी है। इसके उस समय भगवान् ने हज़ार कमलों से इनका पूजन किया पार टेहरी-रियासत है । श्रीनगर किसी समय टेहरी-रियासत था । एक कमल घट जाने पर अपनी आँख निकाल कर की राजधानी थी। अब वह उजाड़-सा देख पड़ता है। चढ़ाने को तैयार हो गये थे तब शिव जी ने प्रसन्न होकर इस प्रकार हमारी यह यात्रा कुशलपूर्वक समाप्त हुई दर्शन दिये।
1 और हम पौड़ी सरकारी काम करने चले गये। वहाँ जाकर श्रीनगर में विरहीगंगा ने जो हानि पहुँचाई थी वह मैंने वज़न लिया । वह ५ सेर बढ़ गया था।
अभिलाषा
लेखक, श्रीयुत उपेन्द्र दिल के धोरे आ बैठो तुम, बनो प्रेम की प्यास,
ताल-हीन हो जैसे नर्तन, आँखों पर छा जाओ जैसे अवनी पर आकाश। मैं हूँ बुझते दिल की धड़कन तुम हो उसकी आस, रे, आशा का दीप जलाकर,
दिल के धोरे आ बैठो तुम बनो प्रेम की प्यास ॥ बुझी हुई यह प्यास जगाकर,
सिर से पैरों तक जादू तुम, मैं मोहा अनजान, मत झिझको अब आग लगाकर।
तुम हो रूप छली औ' मैं हूँ सरल प्रेम नादान। मुझे तड़फता देख करो तुम मत मेरा उपहास,
तुम हो दीपक मैं परवाना, दिल के धोरे आ बैठो तुम बनो प्रेम की प्यास ॥
मैं तन्मयता तुम हो गाना, भला न हँसने दो प्राणों को लेकिन ऐ सरकार,
___ तुम पागलपन मैं दीवाना, रोको नहीं अश्रुओं का तुम पागल पारावार ।। नयनों की नदियों का पानी,
बिना तुम्हारे जीवन नीरस सुमन-हीन मधुमास, बहती जिसमें व्यथा कहानी,
दिल के धोरे आ बैठो तुम बनो प्रेम की प्यास ॥ जिसमें दिल रोता है मानी ।
जगत आँख है मैं हूँ आँसू, तुम धरती हो प्राण, इसे बिगाड़ो नहीं, न होने दो तुम इसका ह्रास,
इससे पलकों के छोरों पर मैं बैठा हूँ आन । दिल के धोरे आ बैठो तुम बनो प्रेम की प्यास ॥
अपना हृदय उदार बिछा लो, तुम हो रुह अगर ऐ प्यारे ! मैं हूँ जीर्ण शरीर,
अपने में अब मुझे मिला लो, मैं हूँ जो सूखी-सी नदिया तुम हो शीतल नीर ।
'मुझे' मिटा दो, 'मुझे बना लो, बिना तुम्हारे मेरा जीवन,
यह अभिलाष करो पूर्ण या कर दो सत्यानाश, एक मरुस्थल-सा है निर्जन,
दिल के धोरे ा बैठो तुम बनो प्रेम की प्यास ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
Eakalam
कार
एमएफ
हम लोग एक ऐसा ग्रंथ प्रकाशित कर रहे हैं जिसमें सुदामापुरी का कलाकार
वर्तमान हिन्दी-लेखकों, हिन्दी-कवियों और हिन्दी-साहित्यश्री दाऊदत्त उपाध्याय, बम्बई, से लिखते हैं
पोषकों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। इसके लिए अगस्त की 'सरस्वती' में 'सुदामापुरी का कलाकार आवश्यक सामग्री का संकलन बहुत-कुछ किया जा चुका के शीर्षक से श्री जगन्नाथ अहिवासी का परिचय छपा है। है । इसके पहले भी पत्रों में सूचना प्रकाशित कराई गई उस लेख से एक बात का भ्रम फैल सकता है। श्री थी, जिसके फल-स्वरूप अनेक सजनों ने सामग्री भेजने की श्रहिवासी जी सुदामापुरी के कलाकार नहीं हैं, किंतु वे कृपा की । अब ग्रंथ तैयार हो चला है। अति शीघ्र प्रेस बेज-निवासी हैं। उनका जन्म संयुक्त प्रान्त में मथुरा में दे दिया जायगा। जिन सजनों ने अपना संक्षिप्त परिचय जिले के 'बलदेव' नामक स्थान में हया है। अहिवासी अब तक न भेजा हो, वे शीघ्र ही भेज देने की कृपा करें । उपाधि भी वहीं के ब्राह्मणों की है। पर वे तीन महीने के यह ग्रंथ सचित्र होगा और प्रतिवर्ष इसका नवीन संस्करण अल्पवय में ही सौराष्ट्र चले आये थे, पोरबंदर में उनके निकला करेगा । अाशा है, हिन्दी में ऐसे ग्रंथ की श्रावपिता जीविकावश निवास करते थे। उनका पालन-पोषण श्यकता समझकर समस्त साहित्य-सेवी हमारी सहायता पोरबन्दर में ही हुश्रा; और कला भी वहीं सीखी, अतएव करेंगे । इसका श्रेय काठियावाड़ और बम्बई को ही है । परन्तु जन्म-स्थान के बारे में जो भ्रम फैलाया जाता है, ठीक नहीं है। उनका सम्बन्ध अपनी जन्म-भूमि से अद्यावधि
हिन्दी-लेखक-संघ बना हुआ है और उनके समस्त पारिवारिक कार्य अभी उपर्युक्त संघ के मंत्री श्री प्रेमनारायणजी अग्रवाल के तक वहीं सम्पन्न होते हैं, और वे प्रतिवर्ष वहाँ जाते हैं। हिन्दी के लेखकों आदि के नाम एक अपील निकाली है। घरबार भी वहीं है. जगह-ज़मीन भी । वास्तव में अहिवासी उसमें वे इस प्रकार लिखते हैंजी भारत के अन्तर्राष्ट्रीय कलाकार हैं। उनका शिष्य- हिन्दी-लेखक-संघ की ओर से 'हिन्दी-जगत' नामक समुदाय बहुत बड़ा है और वह उच्च श्रेणी का है। इसके साहित्यिक विवरण-पुस्तक के प्रकाशन का आयोजन किया बारे में लिखने का विचार था, सामग्री भी जुटाई, परन्तु जा रहा है। इस ग्रन्थ में साहित्य-सम्बन्धी आवश्यक तथा एक परिचय प्रकाशित हो चुका है तब वही काफ़ी है।
उपयोगी सामग्री एकत्र करने का विचार है । इस हेतु हमें हिन्दी-जगत् की समस्त ज्ञातव्य बातें एकत्र करनी हैं।
हमने विवरण-पुस्तक में अन्य बातों के अतिरिक्त हिन्दी. लेखकों और कवियों से नम्र निवेदन लेखकों, प्रकाशकों, पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तक-विक्रेताओं,
लहेरियासराय (बिहार) के पुस्तक-भंडार-प्रबन्धक साहित्यिक संस्थाओं आदि का पूरा परिचय भी समाविष्ट लिखते हैं
करने का निश्चय किया है। इस प्रकार जनता को इन ४४८
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
चिट्ठी-पत्री
४४९
सबके विषय में पूरी जानकारी प्राप्त हो सकेगी। इसमें शान्ति-निकेतन से लेखकों, पत्र-संचालकों और पुस्तकदोनों का लाभ होगा और हम भी अपने मनोरथ और प्रकाशन-संस्थाओं के नाम निम्नलिखित अपील प्रकाशित उद्देश में सफल होंगे।
की हैहम आशा करते हैं कि आप इस पुस्तक के आयोजन प्रिय महोदय, में हमारी सहायता करेंगे तथा अपना पूरा परिचय शीघ्र आपको यह जानकर खुशी होगी कि शान्ति-निकेतन भेजेंगे । हमें पूर्ण विश्वास है कि आप हमारे इस आयोजन में हिन्दी-भाषी प्रान्तों से आनेवाले विद्यार्थियों की संख्या को सफल बनाने में पूर्ण सहयोग प्रदान करेंगे तथा अपने । बड़ी शीघ्रता से बढ़ रही है। स्कूल-विभाग के अतिरिक्त मित्रों को भी इसकी सूचना देंगे।
कालेज-विभाग में ही इस समय पन्द्रह विद्यार्थी शिक्षा पा रहे हैं । श्राशा है, यह संख्या और भी अधिक बढ़ेगी।
विद्यार्थियों की यह बढ़ती हुई संख्या देश के बंगला और चक्रधर-पुरस्कार
हिन्दीभाषी दलों के मध्य सांस्कृतिक एकता का द्योतक साहित्य-समिति, रायगढ़, के मंत्री पण्डित श्रानन्द- है। मध्यकालीन हिन्दी-साहित्य के मर्मज्ञ श्री क्षितिमोहन मोहन वाजपेयी एम० ए० लिखते हैं
सेन के महत्कार्य के फलस्वरूप अनेक प्राचीन हिन्दी___समस्त हिन्दी-भाषा-भाषी समाज को यह सुनकर अपार कवि गुरुदेव के आश्रम में परिचित हो चुके हैं। दादू की|
आनंद होगा कि हमारे साहित्य-मर्मज्ञ महाराज चक्रधर कविता पर उनकी महत्त्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। सिंहजू देव (रायगढ़-नरेश) ने श्रीगणेशोत्सव के उपलक्ष और मैं श्राशा करता हूँ कि उसका अँगरेजी संस्करण भी में प्रतिवर्ष २००) रुपये का एक साहित्यिक-प्रतियोगिता- शीघ्र ही प्रकाशित हो जायगा। पुरस्कार देने का निश्चय किया है।
हिन्दी के मध्यकालीन प्रेमियों के सम्बन्ध में उनके सौभाग्यवश, आज दिन, हिन्दी में अखिल भारत- व्याख्यानों का अँगरेज़ी संस्करण मैंने स्वयं पढ़ा है । इसके वर्षीय प्रतियोगितायें कई एक प्रचलित हो चुकी हैं, परन्तु द्वारा जो ज्ञान-राशि पाश्चात्य जनता के सम्मुख उपस्थित प्रान्तीय प्रतियोगिताओं का अभी अभाव-सा ही है । शिक्षा होने जा रही है उसे देखकर मुझे आश्चर्यचकित रह की कमी के कारण मध्य-प्रान्त के निवासियों के लिए अभी जाना पड़ा है। मैं आशा करता हूँ कि यह ग्रन्थ भविष्य कुछ वर्षों तक अखिल भारतवर्षीय प्रतियोगिताओं में में आनेवाले उन कितने ही प्रकाशनों में प्रथम होगा जो सफलता पाना साधारणतः कठिन-सा दिखाई देता है । इस हिन्दी-भाषी सन्तों और कवियों की वाणी का पश्चिम के प्रकार इस प्रान्त के साहित्य-सेवियों के लिए अब तक कोई पंडितों में प्रसार करेंगे। मध्यकालीन मौलिक ग्रन्थों के साधन प्रस्तुत नहीं किया गया। इसी अभाव की पूर्ति के अनुवाद-कार्य का मैं भी हर प्रकार से अपनी शक्ति भर लिए श्रीमान् राजा साहब ने इस पुरस्कार की घोषणा की प्रोत्साहन दे रहा हूँ। है । अतएव इस प्रतियोगिता का क्षेत्र मध्य-प्रान्त और आश्रम में हम लोगों की सहायता करने के लिए 'ईस्टर्न स्टेट्स एजेन्सी' तक ही परिसीमित रहेगा।
क्या मैं आपसे इस बात की प्रार्थना करूँ कि आप अपने रायगढ़-नरेश का यह कार्य प्रशंसनीय ही नहीं, अनु- यहाँ से मंत्री हिन्दी-समाज' शान्ति-निकेतन के नाम करणीय भी है।
नवीन पुस्तकें और पत्र-पत्रिकायें भेजने की कृपा करें, जिनके द्वारा विश्व-भारती में हिन्दी के गहरे अध्ययन की
सुविधाओं में वृद्धि हो सके। एक अपील दीनबन्धु सी० एफ० ऐन्ड्रयूज़ ने गत ३० जुलाई को
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
योरप-जैसा कि मैंने उसे देखा
२--फैराश्रो का देश लेखक, श्रीयुत हरिकेशव घोष
A
घामम कुक के प्रवन्ध के अनु
जिसमें सब देशों के लोग सम्मिमार कैरो की यह मक्षित
लित थे। 'कुक' के एक कर्मचारी यात्रा अत्यन्त मनोरम होती है।
की सलाह के अनुसार मईद बन्दर कुल मिलाकर व ५ पौड लेते हैं।
में हम माटरों में सवार होन के इमी में मोटर, भोजन और मन्ध्या
लिए चार चार की टोलियों में का स्टीमर तक वापस पहुँचने का
विभक्त हो गये । दो अमरीकन व्यय भी सम्मिलित रहता है । यदि
महिलाये, मैं और दिल्ली के एक कोई चार मित्रों की मंडली बना
प्रसिद्ध व्यापारी की पुत्री ने एक मक तो उसे जो व्यय करना पड़ेगा,
साथ जाने का निश्चय किया। उसका प्रायः दृना व्यय इममें
मेरे मित्र मिस्टर झिलानी और बैठता है। खैर, हम सोचते है कि
मंग वम्बई के एक दूसरे मित्र भी यह मूल्य चुकाने के योग्य है
इम यात्रा में हमारे साथ थे। क्योंकि इस प्रकार सम्पृण भ्रमण
जिन्हें दम दिन तक कोई एक दिन में समाप्त हो जाता है
देश देखने का अवसर न मिला हो और इस यात्रा का सम्ता प्रवन्ध
उन्हें जब जहाज सईद बन्दर के कंवल वे ही, या कम-से-कम उनमें
निकट पहुँचने लगता है तब बड़ा एक व्यक्ति, जो उम स्थान को
मुहावना मालूम होता है। महान भली भाँति जानता है, कर सकता
अफ्रीका के दृरम्थ प्रदेश को जो। है। दिन बहुत गर्म नहीं था, कम
सवथा नग्न और निजन पड़ा था. मं-कम यह हमें, जो भारत में
ऊबड़ ग्वाबड़ समुद्री किनारे को अत्यन्त उग्र जल-वाय के आदी हैं,
जो नीचे की नील जल-राशि के एमा प्रतीत नहीं हुआ। भारतवर्ष
मम्मुख विशाल दीवारों के समान में इन दिनों मई में जो गर्मी
खड़ा था, देखना हम सबको बहुत पड़ती है उसके मुकाविले में यहाँ १८ डिगरी गर्मा भला प्रतीत हुआ। इतने दिनों के बाद फिर से कम थी।
मनुप्य की वम्ती देखने की आशा से ममन्त यात्री यह ५, व्यक्तियों का अत्यन्त रमणीय दल था सतृष्ण नत्रों के साथ डंक पर आ जमा हुए।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
योरप जैसा कि मैंने उसे देखा
४५१
NEEDED
[स्वेज़ नहर में (पोर्ट सईद के करीब)]
पाठक जानते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि-कोण से नग्न पर्वत के सर्वथा उदासीन दृश्य के अतिरिक्त यह नहर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। स्वेज़ कैनाल और कुछ न था। सौभाग्य से प्रातःकाल शीतल कम्पनी, जिसका कि इस नहर पर अधिकार है, एक था इसलिए हमें बहुत बेचैनी का अनुभव नहीं अन्तर्राष्ट्रीय संस्था है। परन्तु अधिक हिस्से अब हुआ । 'कार' का ड्राइवर एक नवयुवक यूनानी था ब्रिटिश गवर्नमेंट के हाथ में हैं, यद्यपि इसके कर्मचारी जो मिस्र देश में छुटपन में ही आया था और तभी प्रायः फ्रांसीसी हैं। इसलिए स्वभावतः यह कहा से वहाँ रह रहा है। उसकी अरबी निर्दोष और जा सकता है कि नहर की कुञ्जी ब्रिटेन के हाथ में अँगरेज़ी साधारण थी। हमें ज्ञात हुआ कि यूनान है जो कि राजनैतिक दृष्टिकोण से उसके लिए एक महान जय-हर्ष का विषय है। स्वेज-शहर काफी बड़ा है
'सरस्वती' में अपने यात्रा-सम्बन्धी लेखों का और उसका विकास मुख्यतः कम्पनी की बहुसंख्यक
मासिक क्रम जारी न रख सकने के लिए मैं इमारतों और उसके अफसरों के बँगलों से हआ है।
अपने पाठकों से क्षमा-प्रार्थी हूँ। इस यात्रा शहर का नवीन विकास सवथा आधुनिक है और
में लेखनी के लिए मुझे बहुत कम अवकाश जो लोग वहाँ रहते हैं उनकी माँगों की पूर्ति के लिए
मिला। साढ़े चार महीने से कुछ अधिक वहाँ बहुत-सी बड़ी बड़ी दूकानें खुल गई हैं।
प्रवास के पश्चात् मैं आक्टोबर के प्रारम्भ में स्थानीय निवासियों की बस्ती ज़रा गन्दी है । साधा
स्वदेश लौट आया । मुझे आशा है कि मेरे रण शिष्टाचार के बाद हम 'कुक' के लाञ्च से किनारे
संस्मरणों के मासिक वर्णन का क्रम अब भङ्ग पर गये और सीधे मोटर-कार में सवार हो गये।।
नहीं होगा और जो पाठक योरप नहीं गये हैं, हम द्रत गति से कैरो की ओर, जो बन्दर से लगभग
उन्हें ये लेख रुचिकर प्रतीत होंगे। लेखक ७५ मील की दूरी पर है, बढ़े। हमारा मार्ग मुख्यतः रेगिस्तान से होकर गया था। सड़क के दोनों ओर
Shree Sudharmaswami Cyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५२
सरस्वती
[ स्फिंग्ज़ के निकट नमाज़ का एक दृश्य (कैरो) ]
में भीषण बेकारी के कारण यूनानियों की एक यथेष्ट संख्या समुद्र-पार करके मिस्र में आ बसी है। उसने कैरो की एक लड़की के साथ शादी कर ली है । उसने हमसे मिस्रियों की हास्यपूर्ण कहानियाँ कहीं कि वे किस प्रकार उसकी स्त्री के यूनानी गिर्जे में
[ रेगिस्तान का एक दृश्य ]
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
दीक्षित हो जाने के कारण रुष्ट हैं। हमें बालू की बड़ी बड़ी पहाड़ियाँ दिखाई पड़ीं। ये सब हिमाच्छादित पर्वत के समान श्वेत थीं और उस महान मरुभूमि के ऊपर उठ रही थीं। कभी कभी हमें हरियाली का एकाध छोटा टुकड़ा मिल जाता था परन्तु मनुष्य की कोई बस्ती वहाँ नहीं थी। कहीं कहीं
सड़क की मरम्मत हो
रही थी और बलिष्ट सुडानी वहाँ काम कर
रहे थे । वे प्रायः ऊँचे क़द के लोग थे और
उनका स्वास्थ्य अच्छा था । परन्तु उनके शरीर पर कपड़े बहुत कम थे । यह भूमि
सर्वथा शून्य है और कहीं कहीं कृषि के लिए, जो
कुछ प्रयत्न हुए भी हैं वे सिंचाई का प्रबन्ध
www.umaragyanbhandar.com
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
योरप जैसा कि मैंने उसे देखा
न होने के कारण असफल सिद्ध हुए हैं। वर्षा यहाँ बहुत ही कम होती है। सड़क की मरम्मत हो रही थी परन्तु यह आशा की जाती है कि जब यह बन जायगी तब कैरो के लिए मोटर की बहुत अच्छी सड़क होगी।
लगभग ११ बजे सर्वथा लस्त हालत में हम कैरो पहुँचे । इस
कैरो-पिरमिड के निकट का एक दृश्य ] नगर के बाहर का दृश्य अच्छा नहीं लगता। कैरो दो भागों में आबादी का एक बड़ा शहर प्रतीत हुआ। नये विभक्त है। सरकारी शहर में बहुत-सी आधुनिक शहर में मुख्यत: योरपियनों की बस्ती है। वहाँ इमारतें और आधुनिक दूकानें सुव्यवस्थित ढङ्ग से बहुत-से बड़े बड़े होटल हैं जो यात्रियों द्वारा बहुत बनाई गई हैं। इन इमारतों की बनावट फ्रांसीसी अच्छी तरह संरक्षित जान पड़ते हैं। 'कुक' के कार्याढङ्ग की है। कैरो हमें दो लाख से कुछ अधिक लय के सामने हम रुके, वहाँ हमारे साथ स्थानीय
गाइड जो बहुत अच्छी तरह अँगरेजी बोल सकते थे, कर दिये गये। उनके साथ हम सीधे कैरो के संग्रहालय में पहुंचे। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि यह मिस्री पुरातत्त्वों के अति प्रसिद्ध संग्रहालयों में है । हमने तूतनखामन की क़ब्र से निकाली हुई वस्तुओं
का निकट से निरीक्षण [ कैरो]
किया और प्राचीन
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५४
सरस्वती
[भाग ३६
बड़ी बड़ी दूकानें थीं। उनमें से अधिकांश ठग थे और जब तक आप उनसे खूब दृढ़तापूर्वक सौदा न करें, आपका ठगाया जाना अवश्यम्भावी है। हमने कुछ वस्तुएँ खरीदीं और होटल में गये। भोजन के बाद हम पिरमिड देखने निकले। पिरमिडों को
जो सड़क जाती है वह [अरबी कहवा (पोर्ट सईद)]
कैरो की अत्यन्त सुन्दर
सड़कों में से एक है। राजसी महल की विभिन्न वस्तुओं के रूप-रङ्ग को, जो सड़क के दोनों ओर मिस्र के श्रीमन्तों के बँगले हैं। बिलकुल नये-से जान पड़ते थे, देखकर हमें बड़ा पहाड़ी के नीचे उपत्यका में एक मील जाकर सड़क
आश्चर्य हुआ। क़ब्र में रक्खी गई शृङ्गार की विभिन्न समाप्त हो जाती है। यहाँ से पिरमिडों तक जाने वस्तुओं की कारीगरी और उन पर किये गये सुनहले के लिए ऊँट मिलते हैं। ये ऊँट बड़े ही सीधे काम का सविस्तर वर्णन करना असम्भव है। प्रद-- होते हैं। यद्यपि आरम्भ में यह सवारी बड़ी र्शन की वस्तुओं से ३,५०० वर्ष पूर्व की मिस्री संस्कृति खतरनाक जान पड़ी तथापि हमें इससे बहुत आनन्द का अनुमान किया जा सकता है। इन अवशेषों मिला। प्राचीन पिरमिड, जिनके विषय में मिस्री से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन दिनों के मिस्र- पुरातत्त्व के विशारदों ने आश्चर्यजनक बातें बतलाई निवासी किस प्रकार का जीवन व्यतीत करते थे। हैं वास्तव में दर्शनीय हैं और जो स्वेज नहर से हमारी चार पहिये की गाड़ियों की तरह उनके रथ गुज़रते हैं उन्हें यह अवसर न चूकना चाहिए। हम होते थे। उनके रथों में मील बतानेवाले यंत्र भी पिरमिडों के आन्तरिक भाग में गये और प्राचीन थे। हमारे पाठक मिस्र देश की ममियों और मिस्री मिस्रियों ने उन विशाल स्तूपों की कैसे रचना की है पुरातत्त्व के महान ज्ञाता मिस्टर होवर्ड कार्टर-द्वारा यह देखकर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। प्रत्येक पत्थर खोजे गये अन्य अवशेषों के सम्बन्ध में पढ़ चुके हैं। समान पूर्ण घनाकार वज़न में लगभग १५ टन के इसलिए मैं पुरातत्त्व-सम्बन्धी खोजों का यहाँ वर्णन होगा। पिरमिड नम्बर १ की उँचाई लगभग ५०० न करूँगा। इस संग्रहालय में रोमन-काल की, जो फीट है और इसकी बनावट क्रकचायत के समान पुरातत्त्ववेत्ताओं को अध्ययन की यथेष्ट सामग्री है। अन्दर के भाग में शिखर तक जाने के लिए प्रदान करता है, कुछ आश्चर्यजनक मूर्तियाँ भी हैं। सीढ़ियाँ हैं। मैं और मेरे चीनी मित्र मिस्टर कू
संग्रहालय देखने के पश्चात् हम देशी बाजार में चोटी तक गये । परन्तु जब हम नीचे उतरे तब | गये। वहाँ यहूदियों, इटालियनों और यूनानियों की सर्वथा थक गये थे।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.core
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
योरप जैसा कि मैंने उसे देखा
४५५
पिरमिड देखने के बाद टामस कुक का मार्ग-दर्शक हमें नील नदी में एक नाव पर ले गया। वहाँ एक अत्यन्त रमणीक दृश्य के बीच में हमने चाय पी। सुन्दर नील के दोनों किनारों
[ स्थानीय लोगों की बस्ती (पोर्ट सईद)] पर कैरो के धनी पाशाओं के सुन्दर बँगले हैं। नदी भरी हुई थी और पर एक बड़ा मेला लगा था वहाँ हमने बहुत-सी सम्पूर्ण पास-पड़ोस दुर्लभ सौंदर्य से व्याप्त था। चर्खियाँ देखीं जो सुन्दर पोशाकों से युक्त बच्चों को योरपियन ढङ्ग से बिछाये गये उन उद्यानों के मध्य लिये आनन्द से घूम रही थीं। हम कई क़सबों से में भी पूर्वीय वैभव का अभाव नहीं था। नील नदी भी गुज़रे जिनमें आधुनिक इमारतें दिखाई पड़ी। में इस नौका-भ्रमण का यात्री बड़ा आनन्द लेते हैं। अधिकांश क़सबों में बिजली की रोशनी हो रही थी। बहुत-से लोग जो योरप से कैरो में छुट्टी का दिन उपहार-गृहों में लोगों की भीड़ दिखाई पड़ी। एक बिताने आते हैं, वे नदी-मार्ग में स्वास्थ्यप्रद वायु नवयुवक मिस्री हमारे साथ रेलगाड़ी में सवार था। का आनन्द लेते लक्सर तक जाते हैं। सन्ध्या की वह मामूली अँगरेजी बोल लेता था और वह ठण्ढक बड़ी सुहावनी थी। उसमें हमने नदी के हमें बहुत सुखदायक साथी प्रतीत हुआ । किनारे शान्तिपूर्वक आध घंटा बिताया। हमारे देश उसने हमसे बताया कि गत महायुद्ध के बाद से देश में बहुत-सी सुन्दर नदियाँ हैं परन्तु आर्थिक अभावों काफ़ी सँभल गया है और रहन-सहन के औसत दर्जे के कारण हम उनका उपयोग करने से वञ्चित रह में उन्नति हुई है। उसका सम्बन्ध प्रगतिशील दल से जाते हैं।
है और कट्टर धारणायें उसमें नहीं हैं। उस ऋतु | सन्ध्या को हम पोर्ट सईद की गाड़ी पकड़ने के की मुख्य फसल कपास थी। पौधे नये थे और उनमें लिए रेलवे स्टेशन को द्र ति गति से लौटे। गाड़ी काफ़ी ओज था । कपास की इन हरी हरी घनी झाड़ियों भरी थी। इस यात्रा में लगभग ४ घंटे लगते हैं और का देखना बड़ा रुचिकर प्रतीत होता था। रेल नील नदी के उपजाऊ बेसिन से होकर गुजरती आठ बजे शाम के लगभग हम सईद बन्दर के । है । सौभाग्य से सन्ध्या निर्मल थी इसलिए हमें नील निकट एक स्टेशन पर पहुंचे। यहाँ एक दुर्घटना हो की उपजाऊ घाटी की भी एक झलक देखने को मिल गई और सौभाग्य से भीषण काण्ड होते होते बच गई। वहाँ के निवासी स्पष्टरूप से खुशहाल प्रतीत गया। दो डिब्बे जो एक दूसरे से स्प्रिंगदार कटियों होते थे। साधारण किसान भी यथेष्टरूप से प्रसन्न से जुड़े हुए थे टूट गये और दूर जा पड़े। चूंकि थे और स्त्रियों की पोशाक अच्छी थी। एक स्थान गाड़ी अभी छूटी ही थी और उसकी चाल में तेजी
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५६
सरस्वती
[भाग ३६
दो घंटे प्रतीक्षा में बिताने पड़े। अधिकारी इस दुर्घटना के लिए बड़ा खेद प्रकट कर रहे थे। यदि रेल की चाल ३० घंटा प्रतिमील के हिसाब से होती तो इसका अन्त भयानक होता। दो घंटे के पश्चात् हम सईद बन्दर के स्टेशन पर किसी प्रकार पहुँचे।
बन्दरगाह में तेज़ प्रकाश हो रहा था और समुद्री हिस्से में ऐसा जान पड़ता था मानो दिवाली हो रही हो। बन्दरगाह में १५ से अधिक जहाज थे और उन सबमें तेज रोशनी हो रही थी। हममें । से कुछ लोग बन्दरगाह देखना चाहते थे। इसलिए । माँझी से कहा कि वह हमें एक घंटे बाद जहाज़ पर । ले जाने के लिए आवे। हम बाजार में टहलते हुए । गये और याददाश्त के लिए कुछ चीजें खरीदी कुछ मुहल्ले बहुत गन्दे थे और वेश्या-गृहों से भरे हुए थे। मार्ग-दर्शक ने समय पर हमें उधर न जाने के लिए। सावधान कर दिया था।
मिस्र में शिक्षा का औसत प्रचार बहुत कम है | और यद्यपि वहाँ अब बहुत-से आधुनिक स्कूल खुल | गये हैं तथापि जन-साधारण में शिक्षा का प्राबल्य |
होने में अभी पीढ़ियाँ लग जायेंगी। तो भी जन[ मिस्री स्त्रियाँ (कैरो)]
साधारण में शिक्षा के प्रचार की समस्या वहाँ इतनी |
दारुण नहीं है जितनी कि हमारे देश में है। उपनहीं आई थी इसलिए वह उलटने से बच गई। यह जाऊ हिस्से के लोगों की आय का औसत हमारे | दुर्घटना इञ्जीनियरिङ्ग विभाग की समुचित निग- देश के किसानों की आय के औसत से अधिक है। रानी न होने के कारण हुई थी। इस व्यवस्था- और उनका स्वास्थ्य भी अधिक अच्छा है। पद्धति को कोसते हुए इस स्टेशन पर हमें लगभग
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
नई पुलके
R
[प्रतिमास प्राप्त होनेवाली नई पुस्तकों की सूची । परिचय यथासमय प्रकाशित होगा। ]
१--गुजरात एन्ड इट्स लिटरेचर-(अँगरेज़ी) प्रोफ़ेसर कृष्णराय नारायण भानू , फ्रीगंज उज्जैन (C. I.) लेखक, श्री के० एम० मुंशी, प्रकाशक, लांगमैन्स ग्रीन हैं। मल्य || है। एण्ड कं. लिमिटेड, ५३ निकल रोड, बम्बई हैं।
११-लन्दन में भारतीय विद्यार्थी लेखक, श्री २-गुप्त-गायन-(संगीत) संग्रहकर्ता, श्री झूमरमल राजकुमार मानसिंह जी, प्रकाशक, राजस्थान-साहित्यपाटनी जैन, प्रकाशक, गुप्ता संगीतालय, ३६१।१ अपर- मंडल, अजमेर हैं । मूल्य १।) है। चितपुर रोड, कलकत्ता हैं और मूल्य |=) है।
१२-१४-सस्ता-साहित्य-मंडल, दिल्ली. सं . ३-उदगार-लेखक, श्री 'कनक' अग्रवाल, प्रका
प्रकाशित ३ पुस्तकेंशक, भारतीय विद्वत्परिषत्-कार्यालय अजमेर हैं ।
(१) भारत के स्त्री-रत्न (तीसरा भाग)- लेखक, श्री ४-प्रण-पालन-लेखक, श्री बाबूलाल उपाध्याय, प्रकाशक, राजस्थान-साहित्य-मंडल अजमेर हैं और
मुकुटबिहारी वर्मा, मूल्य ११) है।
(२) बुद्धि-वाणी-लेखक, श्री वियोगी हरि और मूल्य 10) है। ५-माहित्य-सुषमा-(गद्य-साहित्य) सम्पादक, श्री
मूल्य ||-) है।
(३) आगे बढ़ो-लेखक, पंडित नाथूराम शुक्ल और नन्ददुलारे वाजपेयी और लक्ष्मीनारायण मिश्र, प्रकाशक तरुण-भारत-ग्रन्थावली-कार्यालय, दारागंज, प्रयाग हैं और
मूल्य ।।) है।
१५-दर्दे-दिल-(कविता) सम्पादक, श्री सुखदेवमूल्य १||) है। ६-फलों की खेती और व्यवसाय-लेखक, श्री
प्रसाद सिनहा बिस्मिल, प्रकाशक, सरस्वती-सदन, दारागंज, नारायण दुलीचन्द व्यास एल० एजी०, इम्पीरियल इन्स्टी
प्रयाग हैं और सजिल्द पुस्तक का मूल्य २) है। ट्यूट आफ एग्रीकल्चरल रिसर्च, पूसा ।। मूल्य १||-) है ।
१६-जैन-बौद्ध-तत्त्वज्ञान---लेखक व प्रकाशक
ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद, व्यवस्थापक, आत्मधर्म-संमेलन ___हृदय-निकुंज-(कविता) रचयिता, श्री गयाप्रसाद द्विवेदी, 'प्रसाद', प्रकाशक, साहित्य-सदन राजप्रमाद
चंदावाड़ी, सूरत हैं और मूल्य III) है। श्री रामनगर, अमेठी राज्य हैं । मूल्य ॥1) है।
१७-१६–मेहरचन्द्र लक्ष्मण दास, सैदमिट्ठा ८-यास्क-युग-लेखक, श्री चमूपति, एम० ए०, बाज़ार लाहौर की प्रकाशित तीन पुस्तकेप्रकाशक आर्य-प्रतिनिधि-सभा पंजाब, लाहौर हैं । (१) कृष्णचन्द्रिका-(कविता) सम्पादक, श्री उदय मूल्य ।।) है।
शंकर भट्ट, और मूल्य २॥) है। ___९-गोरा-बादल की कथा-संपादक, पं० अयोध्या- (२) शाङ्गधर-संहिता-(हिन्दी अनुवाद-सहित प्रसाद शर्मा “विशारद", प्रकाशक, तरुण-भारत-ग्रंथावली, टीकाकार, आयुर्वेदाचार्य प्रोफेसर हरदयाल गुप्त और दारागंज, प्रयाग हैं । मूल्य -) है।
मजिल्द पुस्तक का मूल्य ४) है। १८-संख्याशास्त्रशिक्षक-लेखक और प्रकाशक, (३) जैनतत्त्वकलिकाविकास-(धार्मिक) लेखक
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५८
सरस्वती
[ भाग ३६
जैनमुनि उपाध्याय आत्माराम जी पंजाबी, और मूल्य १-योग-दृष्टि-लेखक, श्री परमहंस स्वामी स्वरूपा२) है।
नन्द तीर्थ हैं। पृष्ठ-संख्या ६६. मल्य ||-॥ है। पता२०-२७-गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित व्यवस्थापक, नित्याश्रम, पो० लोहाघाट (अलमोड़ा) है। पाठ पुस्तके
इस पुस्तक के श्रावरण-पृष्ठ पर लिखा है- "मंत्र(१) मुमुक्षु सर्वस्वसार (हिन्दी अनुवाद-सहित, -
योग, हठ-योग, लय-योग, राजयोग तथा वर्णाश्रम-धर्म, अनुवादक, श्री मुनिलाल और मूल्य ॥-) है ।
आचार, अछूतोद्धार इत्यादि विविध विषयों पर प्रकाश (२) प्रेम-दर्शन (भक्ति-सूत्र)-टीकाकार, श्री हनुमान
डालते हुए ब्रह्मनिर्वाण का मार्ग दिखलानेवाला अत्युत्तम
अनुभूत ग्रन्थ" । परन्तु पुस्तक पढ़ने पर हमें बड़ी निराशा प्रसाद पोद्दार, और मूल्य |-) है।
(३) केनोपनिषद्-मूल्य ॥) है। (४) काठोपनिषद्---मूल्य ।।-) है।
। प्रस्तुत पुस्तक के लिखे जाने का मुख्य कारण, (५) मुण्डकोपनिषद्-मूल्य |a) है।
प्रकाशक महोदय ने अपने प्रारम्भिक वक्तव्य पृष्ठ (च)
में लिखा है, सनातनधर्म का ह्रास और सुधारकों-द्वारा (६) प्रश्नोपनिषद्-मूल्य IS) है। (७) ईशावास्योपनिषद्-मूल्य ) है ।
किया गया अछूतोद्धार का होना सुनकर स्वामी जी के (८) श्री गोविन्ददामोदरस्तोत्र—टीकाकार पंडित
करुण हृदय (१) का द्रवीभूत होना। इस पुस्तक के पढ़ने
से स्पष्ट प्रतीत होता है कि लेखक और प्रकाशक दोनों ने प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, और मूल्य -॥ है। २८-कर्त्तव्य-शिक्षण (हिन्दू-लॉ)—प्रकाशक, पंडित
वर्तमान हरिजन-आन्दोलन तथा मन्दिर प्रवेश आदि विश्वेश्वरदयालु जी वैद्यराज, बरालोकपुर, इटावा और
विषयों का समुचित अध्ययन नहीं किया है। केवल सुनी
सुनाई बातों के आधार पर उन्हें यह भ्रम हो गया है कि मूल्य ॥) है। ___ २९-जीवन (कविता)-लेखक, श्री राजाराम शुक्ल
अछूतोद्धार अथवा हरिजन-अान्दोलन के प्रवर्तक नेता (राष्ट्रीय श्रात्मा), प्रकाशक, मित्र-मंडल-कार्यालय, प्रानन्द
इस आन्दोलन की अोट में देश से हिन्दू-वर्ण-व्यवस्था
को उठा देना और पारस्परिक अन्तर्जातीय विवाह तथा बाग़, कानपुर हैं और मूल्य ११) है।
सहभोज का प्रचार करना चाहते हैं। इसका परि३०-३१-श्री अम्बिकादत्त त्रिपाठीलिखित,
गणाम यह हुआ है कि पुस्तक में सभी वर्णित विषयों का साहित्यसागर कार्यालय सुइथा कलां, .
इसी आन्दोलन के निराकरण तथा विरोध में पर्यवसान जौनपुर से प्रकाशित दो पुस्तकें
हुआ है। (१) कृष्णा-कुमारी (कविता)-मूल्य ।) है।
प्रकाशक तथा लेखक दोनों ही अछूतोद्धार के (२) भंग में रंग-मूल्य ।) है।
अान्दोलन को “प्रज्ञाविहीन प्रकृतिगत कामल प्रेम और ३२-श्रीमद्भगवद्गीता-सम्पादक, पंडित श्री करुणा" से चलाया हुअा और देश को पतन की ओर माधव शर्मा, 'श्रीगीतार्थप्रकाश' कार्यालय, ३५।१३, ले जानेवाला समझते हैं। प्रकाशक महोदय का तो जंगमबाड़ी, काशी (यू० पी०) है और वार्षिक मूल्य कहना है कि "अछूत-व्यवस्था निर्धारित करके ऋषियों ४) है।
ने भारत का महान् कल्याण किया है ।" वे अछूतपन ३३-अमी (गुजराती)-लेखक, श्री जयेन्द्र राय को वैज्ञानिक आधार पर स्थित और सनातन-धर्म का भगवानलाल दुर्काल एम० ए०, अहमदाबाद और मूल्य “एक अपरिहार्य अंग समझते हैं ।" लेखक महोदय ने १॥) है।
भी सत्त्व, रज, तम की त्रिगुणात्मक सृष्टि-प्रक्रिया में गुणों के तारतम्य से वर्ण-व्यवस्था को माना है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
नई पुस्तकें
यद्यपि स्वामी जी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि कारण से असमर्थ हैं वे आपके जैसे विचारशील उदार"वर्णाश्रम-धर्म की सुव्यवस्था इस समय नहीं है, क्योंकि चेता योगिराट की सहायता यदि पाते तो कितने प्रसन्न ब्राह्मण ब्राह्मणत्व में नहीं, क्षत्रिय क्षत्रियत्व में नहीं, वैश्य होते ! हमें आशा है, स्वामी जी अपनी वैयक्तिक मुक्ति वैश्यत्व में नहीं और शूद्र शूद्रत्व में नहीं (पृष्ठ २६)” की साधना को छोड़कर इस विशाल देश की मुक्ति के तथापि आप इस निर्जीव "वर्णाश्रमधर्म को तोड़ कर, लिए, ब्राह्मण से लेकर अछुतपर्यन्त, सबको अपने विचारों जातिपाँति मिटाकर खिचड़ी" बनाने के पक्षपार्ता के अनुसार सच्चे आत्मरूप हरि का दर्शन कराकर कल्याणनहीं हैं।
पथ की ओर ले चलेंगे। स्वामी जी हरिजनों को श्री कलि“मन्दिर-प्रवेश तथा हरिजन" नामक अध्याय में मन्तरणोपनिषद् के तारक ब्रह्म महामंत्र 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण स्वामी जी कहते हैं कि “किसी मनुष्य को यानी ब्राह्मण इत्यादि का सप्रेम कीर्तन करने का भी अधिकार देते हैं।' से लगाकर (लगायत ?) अछूत डाम, मेहतर, चमार तक परन्तु उन्हें शायद मालूम नहीं कि विश्वनाथपुरी काशी में को श्रात्मोन्नति के विकास के लिए (?) मन्दिर की कोई इसी महामंत्र की दीक्षा का प्रयत्न करने पर महामना मालअावश्यकता नहीं होती है। हाँ, धर्म का एक गौण अङ्ग वीय जी को सनातनधर्मियों के हाथों ही कैसी लांछना मन्दिर है।" परन्तु स्वामी जी को यह जानकर श्राश्चर्य उठानी पड़ी थी। होगा कि ग्राप जिसे प्रात्मोन्नति के विकास के लिए अना- अाध्यात्मिक योग की अोर वर्तमान भारत की जनता वश्यक और धर्म का गौण अंग बतलाते हैं उसी मन्दिर की दृष्टि आकर्षित करना, वर्णाश्रमधर्म की अव्यवस्था का द्वार कुछ स्वार्थी लोग रोके खड़े हैं और सर्वसाधारण को व्यवस्थित करने की चेष्टा, तथा ब्राह्मणों के उद्बोधन की समान सम्पत्ति, इन मन्दिरों, को उन्होंने अपनी बपौती के लिए ज़ोरदार अपील, ये इस पुस्तक के गुण हैं । समझ रक्खा है। स्वामी जी, सुधारकों को इस विषय में अछूत-श्रान्दोलन पर हमें विस्तार से कुछ कहना पड़ा जो उपदेश देते हैं वह भी सुनिए-“यदि सुधारक महा- अन्यथा पुस्तक के इस अंश से भ्रान्ति फैल सकती थी। शयगण. हरिजनों को अपने अपने हृदय-मन्दिर का अछूत अान्दोलन के मूल तथा न्याय्य कारणों को यहाँ कपाट खुलवा देते, हरिप्रेमस्रोत में बहा देते, हरिज्ञान दिखाने की आवश्यकता हम नहीं समझते। प्रदीप प्रज्वलित करा देते, हरिभक्ति की आदर्श शिक्षा पुस्तक की भाषा सर्वथा शुद्ध नहीं है, तथा वाक्यों देते, चित्तरूपी तालाब में हरि-प्रेम-तरंग उठा देते, तब का विन्यास भी स्थान स्थान पर शिथिल और विचित्र हरिजन मन्दिर के पत्थर के हरि की अपेक्षा, अपने हृदय- बेढंगा-सा हो गया है। पुस्तक की विषय-सूची में केवल मन्दिर की (?) चेतन देवता प्रत्यक्ष हरि का दर्शन कर हिन्दी का प्रयोग होना चाहिए था। हिन्दी और अँगरेज़ी कई कोटि गुण अधिक कृतार्थ होते।" निःसन्देह स्वामी की खिचड़ी अच्छी नहीं प्रतीत होती । जी के इन उदार विचारों की हम हृदय से प्रशंसा करते।
-कैलासचन्द्र शास्त्री, एम० ए० हैं । परन्तु महाराज परमहंस जी से हमारा नम्र निवेदन इस ८ -अनुराग-वाटिका-लेखक, श्रीयुत वियोगी हरि, विषय में इतना ही है कि आत्म-स्वरूप परमात्मतत्त्व के प्रकाशक, गोपालदास सेवक, साहित्य-सेवा-सदन, काशी दर्शन कराने की बात से हरिजनों के मन्दिर प्रवेश का हैं। पृष्ठ-संख्या ५८ और मूल्य ।-j है। निषेध नहीं होता, प्रत्युत उन्हें श्रात्मदर्शन का अधिकारी यह पुस्तक का दूसरा संस्करण है। श्री वियोगी हरि सिद्ध करके श्राप स्वतः ही उन्हें 'धर्म के गौण अङ्ग' तथा जो व्रज-भाषा के सुकवि हैं। उनकी शैली और उनके 'श्रात्मोन्नति के विकास के लिए अनावश्यक' इन मन्दिरों विषय ऐसे हैं कि उनके पदों में सूर की वाणी की प्रति. में प्रवेश का स्वतंत्र अधिकार प्रदान कर रहे हैं। जो ध्वनि-सी जान पड़ती है । पुस्तक में कुछ दोहे और शेष नेता इस उच्च पद तक हरिजनों को पहुँचाने में किसी भी पद हैं । सभी पद कृष्ण-भक्तिपरक हैं। ऐसा जान पड़ता
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६०
सरस्वती
[भाग ३६
है कि समय के परिवर्तन के साथ भक्त-हृदय परिवर्तित ४-कल्याण-भावना-लेखक, श्रीयुत ताराचन्द्र नहीं हुआ करता और अब भी वह अपने को उसी प्रकार पाँड्या, प्रकाशक, गीता-प्रेस, गोरखपुर हैं । पृष्ठ-संख्या व्यक्त करता है जिस प्रकार उसने आज से चार सौ वर्ष १४ और मूल्य ।। है । पूर्व किया था। कृष्ण-भक्तों और व्रज-भाषा-प्रेमियों के यह एक पद्य-पुस्तिका है। इसमें दो रचनायें हैं खिए यह पुस्तक संग्रहणीय है।
एक संस्कृत वृत्त में ईश्वर की प्रार्थना है और दूसरी का ३-दुबलियाँ की याद में-लेखक, श्रीयुत शीर्षक 'सच्चा वीर' है, जिसमें सच्चे वीर के लक्षण विश्वनाथसिंह, एल० बी० पी० हैं। पता - सरस्वती-साहित्य- बताये गये हैं। सदन, भोजूबीर, बनारस कैंट है। पृष्ठ-संख्या ४० और ५–मनप्रबोधमाला--रचयिता श्री सीतारामीर मूल्य ६ आने हैं।
श्री मथुरादास जी महाराज, प्रकाशक श्री अवधकिशोर ___ दुबवलियाँ एक उजड़े हुए गाँव का नाम है। यह दास 'श्रीवैष्णव' अयोध्या हैं। मूल्य ।। पृष्ठ-संख्या काव्य-पुस्तक इसी गाँव की स्मृति में लिखी गई है। १६ है। पुस्तक-रचयिता ने लिखा हैअँगरेज़ी के प्रसिद्ध कवि गोल्डस्मिथ की लिखी हुई, डिज़र्टेड "कविता के गुण-दोष कछु, नहिं जानौ मतिमंद, विलेज' नामक कविता प्रसिद्ध है। इसका अनुवाद कविवर उस प्रेरक की प्रेरणा (ते) प्रगट भये ये छन्द ।" श्रीधर पाठक ने 'ऊजड़ ग्राम' के नाम से किया है। 'उस प्रेरक की प्रेरणा' से लिखे गये नीति, वैराग्य, प्रस्तुत पुस्तक के लेखक ने एक मौलिक ऊजड़ ग्राम ईश्वर-भक्ति-सम्बन्धी दोहों का यह एक संग्रह है। साधु. लिखने का प्रयत्न किया है। अपने प्रयत्न में कवि को सन्तों के काम का है। पर्याप्त सफलता मिली है। उजड़ी दुबवलियाँ को देखकर ६- श्रीनैमिषारण्य-रचयिता और प्रकाशक उसकी पुरानी स्मृतियाँ जाग पड़ती हैं । जो कुछ शेप श्री कृष्णदत्त त्रिवेदी, बरम्हौली, सीतापुर हैं । पृष्ठ-संख्या बचा हुआ है, वह कितनी वेदना, कितनी विवशता, कितनी १४ है। मूल्य नहीं दिया है । असमर्थता व्यक्त करता है, देखिए
त्रिवेदी जी ने अपने इस 'प्रथम प्रयास' में सीतापुर"बेलपत्र का वृक्ष पुराना, कुछ मिहदी की डार, स्थित नैमिषारण्य तीर्थ का गुण-गान किया है। तीर्थसूखी एक तलैया जिसके उर में अमित दरारें। यात्री पुस्तक से लाभान्वित होंगे। छोटे छोटे उजड़े घर की हैं दो-चार कतारें, ७-पद्य-पुष्प-लेखक, कुमार उदयरत्नसिंह, प्रकाबाकी एक पेड़ पीपल का है उस ताल किनारे ।" शक, बाबू रामानुग्रहनारायणसिंह, मीरगञ्ज, गया हैं।
दुबवलियाँ की वर्तमान दशा का वर्णन कर कवि मूल्य - और पृष्ठ-संख्या ३२ है । उसके अतीत का दृश्य दिखाता है और क्षण-मात्र में यह एक कविता-पुस्तक है। आरंभ में श्री माहनलाल ऐसा मालूम होता है कि उजड़ी दुबव लियाँ फिर बम गई। जी महतो वियोगी ने कवि की बाल-सुलभ प्रतिभा, उत्साह प्रातः संध्या के कार्य-क्रम, गाँव के विशेष व्यक्तियों, अलाव, और लगन की ओर संकेत किया है। हमें भी इसमें संदेह अखाड़ा, कोल्हू, बरात इत्यादि का बड़ा सजीव वर्णन है। नहीं। कवि के हृदय में भावना के अंकुर हैं। उन्हें शब्दों - गाँव की एक विधवा की दशा का वर्णन करते हुए में व्यक्त करने के लिए अध्ययन और अभ्यास का प्राव भारत की विधवा-समस्या को उठाना और अंत की प्राध्या- श्यकता है। मित्कता हमें रुचिकर नहीं प्रतीत हुई। कहीं कहीं भाषा- ८-प्रकृति-पूजा (काव्य)-लेखक पंडित बालक सम्बन्धी त्रुटियाँ भी हैं। यदि विश्वनाथसिंह जी प्रयत्न राम शास्त्री 'बालक', प्रकाशक हिन्दी-प्रचारिणी सभा, करेंगे तो आशा है, ग्रामों के सम्बन्ध में आगे वे इससे बलिया हैं । पृष्ठ-संख्या ३६, मूल्य ।) है। अच्छी रचना कर सकेंगे।
शास्त्री जी ने इस पुस्तक में पड़ऋतुओं, प्रभात और
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
नई पुस्तके
४६१
सन्ध्या के दृश्य, वस्तु और व्यापारों के वर्णन के द्वारा सामर्थ्य और रुचि के अनुसार दृष्टि-भेद का अवलम्बन प्रकृति देवी के चरणों में अपनी काव्यकुसुमाञ्जलि अर्पित करके, विचार-भेद कैसे होता है और उससे सिद्धान्त-भेद की है। संस्कृत-छन्द द्रुतविलम्बित में सम्पूर्ण पुस्तक कैसे होता है। इसलिए विचारवानों के लिए इस विद्या लिखी गई है। पुस्तक की भाषा सरल और प्रायः अपने का अनुशीलन कुतूहलप्रद है। प्रकृत सिद्धान्त या चरम स्वाभाविक चलते रूप में ही दृष्टिगोचर होती है। संस्कृत- सिद्धान्त क्या है, इस विषय में काई सर्वसम्मत उत्तर नहीं वृत्त में ऐसी भाषा एवं ऐसी सरल शैली का निर्वाह करना दिया जा सकता।" अासान नहीं है । पुस्तक की कविता सरस और सुन्दर प्रस्तावना के अनन्तर विषयों की सूची तथा उसके । हुई है। लेखक की कृति में संस्कृत-काव्यों के भावों की बाद प्रथम भाग में आनेवाले नव्यन्याय के कठिन पारिझलक होते हुए भी नूतन उद्भावनाओं की कमी नहीं है। भाषिक शब्दों की विशद व्याख्या दी गई है। इन पारिएक उदाहरण देखिए जो 'संध्या-सख्य' नामक शीर्षक भाषिक शब्दों को बिना ठीक ठीक समझे भारतीय दर्शनसे लिया गया है
शास्त्र में प्रवेश करना असम्भव है, यह बात तो दर्शन"मुकुल पद्म कमण्डलधारिणी, .
शास्त्र पढ़नेवाला प्रत्येक विद्यार्थी जानता ही है। इस _ विधु-विभूति-विभूति-विभूषिता ।
दृष्टि से विशद व्याख्या-सहित पारिभाषिक शब्दों की यह . अजिन-ध्वान्त दबा कर यामिनी,
सूची परम आवश्यक और दर्शन-ग्रन्थों के समझने के लग रही वह आज समाधि में ॥" लिए परमोपयोगी है। . हमें आशा है, शास्त्री जी निकट भविष्य में अपनी ग्रन्थ में (१) आकस्मिकवाद, (२) असत्कार्यवाद, अधिक उत्तम कविताओं से हिन्दी-साहित्य को विभूषित (३) सत्कार्यवाद, (४) सदसत्कार्यवाद तथा (५) अनिर्वकरेंगे। पुस्तक काव्य-रसिकों के लिए दर्शनीय है। चनीयवाद का विशेष विवेचन हा है। न्याय, वैशेषिक.
९-मायावाद (अद्वैत सिद्धान्त विद्योतन) (प्रथम प्राभाकर, सांख्यादि मतों का पूर्वपक्ष, उनकी शंकायें तथा भाग)-लेखक श्री साधु शान्तिनाथ हैं । पृष्ठ-संख्या ६८ उनका खण्डन करके सिद्धान्त-पक्ष का स्थापन प्रबल है । मूल्य पुस्तक पर नहीं लिखा है । पता-साधु शान्ति- युक्तियों द्वारा किया गया है। प्रत्येक अनुच्छेद पूर्वपक्षी, नाथ, मंगलभुवन, पंचवटी, नासिक।
सिद्धान्ती, शंका तथा समाधान नामक शीर्षकों में बँटे यह उच्च कोटि का एक दार्शनिक ग्रन्थ है। इस होने के कारण प्रतिपाद्य विषय के समझने में बड़ी सरलता ग्रन्थ में मायावाद का प्रतिपादन किया गया है। पुस्तक हो गई है। इस शैली का दार्शनिक ग्रन्थों में समावेश की 'प्रस्तावना' में लेखक ने प्रौढ़ तर्क के आधार पर यह होने से पाठक को कौन पूर्व-पक्ष है और कौन सिद्धान्त-पक्ष, सिद्ध किया है कि "तर्काप्रतिष्ठानात्" वचन असंगत है। यह समझने में ज़रा भी अड़चन नहीं हो सकती। इसी प्रस्तावना में लेखक ने दर्शनशास्त्र-द्वारा मोक्षविषयक इन दुरूह युक्तियों के सहारे भिन्न भिन्न सिद्धान्तों का अशेष कल्पना को “अनुभवविवर्जित, विचारविगर्हित पहले स्थापन और फिर उनका खण्डन करके मायावाद तथा श्रद्धजडताविजम्भित" सिद्ध करने के लिए अपने का प्रतिपादन लेखक ने इस ग्रन्थ में बड़े परिश्रम, खोज आगे प्रकाशित होनेवाले 'धर्म-विमर्श' नामक ग्रन्थ की तथा कुशलता से किया है। ओर संकेत किया है।
लेखक की शैली दार्शनिक विषयों के सर्वथा उपयुक्त ___दर्शनशास्त्र के विचार का फल क्या है ? इस प्रश्न है। भाषा भी सरल तथा शुद्ध है। प्रखर प्रक्रिया ग्रन्यों का उत्तर लेखक ने इस प्रकार दिया है-"उससे तत्त्व- से और गुरुचरणों में बैठकर जो बातें जानी जाती हैं, विषयक नाना प्रकार के सिद्धान्तों का परिचय होता है। उनमें से अनेक बातें इस ग्रन्थ में हिन्दी-भाषा-द्वारा दर्शनशास्त्र के मनन से अवगत होता है. कि व्यक्तिगत लेखक ने दर्शनशास्त्र के प्रेमियों के लिए सुलभ कर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
भाग ३६
दी हैं । 'मायावाद' का यह प्रथम भाग है। हमें पूर्ण विवादग्रस्त विषयों को छोड़ देने पर भी. ग्रन्थकार का विश्वास है कि मम्पूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हो जाने पर प्रतिपाद्य विषय-दिगम्बरत्व तथा उसका प्राचीनत्व - हिन्दी के दार्शनिक साहित्य में यह ग्रन्थ उच्च स्थान अक्षुण्ण रहता है। प्राप्त करेगा। इसके लेखक बंगाली है, राष्ट्रभाषा हिन्दी के ११--गोपीचन्द्रोदयम (संस्कृत नाटक)-श्री पण्डित प्रति उनका यह प्रेम प्रशंसनीय है। दर्शनशास्त्र के मणिराम शास्त्रिकृत, पृष्ठ-संख्या ११८; मूल्य ॥) है। प्रेमियों को इस ग्रन्थ का समुचित अादर करके लेखक को पता–पण्डित दुर्गादत्त शर्मा, दयालबाग़, आगरा । उत्साहित करना चाहिए ।
इस नाटक की कथा-वस्तु सुप्रसिद्ध है। राजा गोपी१०-दिगम्बरत्व और दिगम्बर-मुनि-लेखक, चन्द्र अपनी माता मेनावती के उपदेश से राज-पाट छोड़ श्रीयुत कामताप्रसाद जैन, एम० आर० ए० एस०, प्रका- कर अपने मामा योगी भर्तृहरि और योगी जालन्धर के शक, पंडित मंगलसेन जैन, चम्पावती जैन पुस्तकमाला- पास चले जाते हैं। वहाँ गुरु गोरखनाथ से योगप्रकाशन-विभाग, अम्बाला छावनी हैं । पृष्ठ-संख्या ३१६ युक्ति जानकर वे उनके माथ कामाक्षा जाते हैं । वहाँ और मूल्य १) है।
मत्स्येन्द्रनाथ विषय-वासना में फंसे हए थे। गोरख ने वेष नग्न साधुत्रों का जनता में विचरण करना उचित बदल कर उनका उद्धार किया और राजा गोपीचन्द्र ने है या अनुचित, ऐसी प्रथा पहले थी या नहीं, इन्हीं विषयों अपने पराक्रम से सैन्य को परास्त किया और मच्छन्दरपर लेखक ने इस पुस्तक में भली भाँति प्रकाश डाला नाथ तथा गोरखनाथ को अपने तपोवन तक पहुंचने में है। प्राचीन काल से आधुनिक काल तक उनकी इस इस प्रकार सहायता दी। अन्त में गोपीनाथ लौट कर धार्मिक प्रथा में शामकों द्वारा कभी हस्तक्षेप न होना गुरु के पास आये। गुरु ने अपने ही रनवास में जाकर
आदि विषयों को लेखक ने ऐतिहासिक प्रमाणों, साक्षियों भिक्षा लाने के लिए गोपीचन्द्र को कहा। इस परीक्षा में तथा धार्मिक ग्रन्थों के उद्धरणों-द्वारा प्रमाणित किया है। वे उत्तीर्ण हुए। वहाँ से वे गौडदेश (बंगाल) को गये, सम्पूर्ण पुस्तक विस्तृत अध्ययन का परिणाम है । पाश्चात्य जहाँ की रानी चम्पावती ने जब अपने भाई को योगी के देशों में दिगम्बरत्व के पक्ष में विद्वानों और डाक्टरों वेश में देखा तब वह शोक से मूर्छित होकर गिर पड़ी की सम्मतियों का भी इसमें खोज खोज कर समावेश और मर गई । इस पर योगी गोपीचन्द्र बड़े चिन्तित हुए किया गया है। पुस्तक में दिगम्बरावस्था में स्थित जैन और उन्होंने अपने गुरु गोरखनाथ जी का स्मरण किया । तीर्थंकरों तथा जैन मुनियों के आठ-नौ चित्र भी दिये गये गोरख जी ने शिष्य को दुःखी देख दया-चित्त होकर हैं । इस विषय के जिज्ञासुत्रों के लिए इसमें अनेक ज्ञातव्य चम्पावती को पुनरुज्जीवित कर दिया। इसके बाद शिष्यबातें मिलेगी। लेखक ने कुछ वेदमंत्रों से भी, यथा- सहित गोरखनाथ जी अपने आश्रम में चले आये । लेखक "अातिथ्यरूपं मासरं महावीरस्य नग्नहुः” इत्यादि यजु- ने इस नाटक को प्राचीन शैली पर ही लिखा है । भाषा वेंद-मंत्र से स्वामी महावीर तथा उनका नग्नत्व सिद्ध करने प्राञ्जल, और रचना प्रौढ़ है। नाटक में कथा का निर्वाह का प्रयत्न किया है। यह न केवल विवादास्पद है अपितु बड़ी कुशलता से हुअा है। नाटक में शान्तरस है । उपहासास्पद भी है। वेदों का समय पाश्चात्य विद्वानों स्त्री-पात्रों की भाषा प्राकृत है। इस प्रकार प्राचीन शैली की दृष्टि में भी महावीर स्वामी से पूर्व का है। फिर जिस का पूर्ण निर्वाह हुअा है। संस्कृत-रसिकों को इसका अवमंत्र का उद्धरण दिया गया है उसका 'देवता' तो सर्वानु- लोकन अवश्य करना चाहिए । नाटक के अन्त में लेखक क्रमणिका में 'सोम' कहा गया है न कि स्वामी महावीर। की कुछ हिन्दी-कवितायें भी हैं जो साधारण हैं। नाटक महावीर स्वामी बुद्ध के समसामयिक थे, यह बात आज की कथा हिन्दी में भी परिशिष्ट में दे दी गई है। इतिहास से बहुत-कुछ निश्चित हो चुकी है। अस्तु, इन । १२-वैदिक भूगोल-लेखक, बाबू नारायणप्रसाद
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५ ]
पता -1
मौहनिया हैं । पृष्ठ संख्या १४, मूल्य चार आने है । - हिन्दू - शुद्धि-सभा, राजा की मंडी, आगरा । विष्णु पुराण के भौगोलिक वर्णनों का ग्राज-कल के देशों, पर्वतों, नदियों तथा भूमिखण्डों के नामों के साथ संगति-स्थापन की चेष्टा लेखक ने इस पुस्तक में की है। सप्तद्वीपा वसुमती के पौराणिक भूमिखण्डों का विभाजन, नदियों के समूहों का वट, कदम्ब, पीपल तथा जम्बु वृक्षों का नाम देना आदि कई एक बातों पर लेखक ने एक नवीन दृष्टिकोण से विचार किया है। लेखक ने जिन प्राचीन नामों की श्राज-कल के द्वीपों या देशखण्ड आदि के नामों से संगति बैठाई है वह एक विवाद ग्रस्त विषय हैं। इसी विषय पर अन्य विद्वानों की पुस्तकों से अपने मतभेद के कारण तथा पुष्टि के लिए लेखक ने प्रमाण नहीं दिये हैं । पुस्तक में कई एक बातें बड़े मार्के की कही गई हैं । गजप्रमाण जम्बुका गिरना और उनके रस से नदियों के निकलने के वर्णन को लेखक ने बड़ी कुशलता से तुषार के बड़े बड़े खण्डों वा ग्लेसियरों का पतन कह कर समझाया है। उनकी उद्भावनायें हमें बुद्धिसंगत प्रतीत होती हैं। कृष्ण के बाल्यकाल, गोवर्धनधारण, चीरहरण आदि को भी लेखक ने भौगोलिक चित्रों का रूप दिया है। इन चित्रों की स्पष्ट व्याख्या करने की आवश्यकता है । पुस्तक में अनेक मान-चित्र दिये गये हैं । परन्तु पुस्तक का काग़ज़ और छपाई दोनों ही रद्दी हैं । यदि लेखक महोदय अपनी इन खोजों को उचित रूप में प्रकाशित करें तथा इस विषय पर अन्य लेखकों की गवेषणाओं की तुलनात्मक समीक्षा करके अपने विचारों की पुष्टि में दृढ़ प्रमाण उपस्थित कर सकें तो यह पुस्तक बड़ी उपयोगी सिद्ध होगी ।
२३ - कविवर रत्नाकर -- लेखक, पण्डित कृष्णशंकर शुक्ल, एम० ए०, प्रकाशक, विद्याभास्कर बुकडिपो, बनारस | मूल्य २| है |
स्वर्गीय श्री बाबू जगन्नाथदास 'रत्नाकर' याधुनिक काल के एक प्रसिद्ध महाकवि थे । उन्होंने सदैव (आजीवन) व्रजभाषा देवी की उपासना तन-मन-धन से की।
पुस्तकें
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
४६३
प्रस्तुत पुस्तक में पंडित करुणाशंकर जी ने रत्नाकर के काव्य- कौशल पर बड़े ही सुन्दर रूप से मार्मिक प्रकाश star है और बड़ी ही चारुता से उसकी आलोचना की है | हिन्दी - साहित्य में इस प्रकार की आलोचनात्मक पुस्तकों की बड़ी कमी है। प्रकाशक महोदय का भी कार्य सर्वथा स्तुत्य है । ऐसा प्रकाशन वस्तुतः हिन्दी - साहित्य का श्रीवर्धक ही है । पुस्तक छपाई - सफ़ाई तथा आकार प्रका रादि में भी बड़ी ही रुचिर - रोचक है। आशा है पुस्तक का पूर्णतया समादर होगा ।
-- रामशंकर शुक्ल, 'रसाल', एम० ए० २४ - - पटना के दो साप्ताहिक - गत दो वर्षों से पटना से योगी और नवशक्ति नामक दो सुन्दर सचित्र साप्ताहिक पत्र प्रकाशित हो रहे हैं। योगी के सम्पादक श्रीयुत रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी बिहार के नवयुवक और अनुभवी पत्रकार हैं। आपका खयाल है कि अन्य प्रान्तवाले बिहारवालों का समुचित श्रादर नहीं करते, इसलिए इस सम्बन्ध में भी 'योगी' के पृष्ठों में बराबर श्रान्दोलन करते रहते हैं । 'नवशक्ति' के सम्पादक श्रीयुत देवव्रत जी भी बिहार के नवयुवक और अनुभवी पत्रकार हैं । आपका प्रयत्न यह है कि 'बिहार का अपना एक पत्र हो जो स्थायी रूप से समस्त राष्ट्र और खास कर बिहार की सेवा करता रहे' । आप अपने इन प्रयत्न में बहुत कुछ सफल हुए हैं । राष्ट्रपति श्री राजेन्द्रप्रसाद जैसे बिहार के लोकनेताओं का आपको सहयोग प्राप्त है । नवशक्ति कांग्रेस की नीति का समर्थक है । 'योगी' की नीति इससे कुछ भिन्न है । वह कांग्रेस के अन्तर्गत जो नवीन साम्यवादी दल क़ायम हो रहा है उसका पोषक प्रतीत होता है। इस भेद के अतिरिक्त दोनों पत्रों में बहुत कुछ साम्य है । दोनों की छपाई-सफ़ाई एक-सी है और दोनों का वार्षिक मूल्य भी एक ही अर्थात् ३ ) है । हम पटना के इन दोनों महयोगियों की हृदय से उन्नति चाहते हैं ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारत में औद्योगिक उन्नति का प्रश्न
लेखक, प्रोफेसर शंकरसहाय सक्सेना, एम० ए० (इकान), एम० ए० (काम), विशारद
हमारे देश की आर्थिक स्थिति बहुत डावाँडोल है वह किस प्रकार संभल सकती है और देश की ७५ प्रतिशत भूखी जनता की रोटी का प्रश्न कैसे हल किया जा सकता है ये ऐसे प्रश्न हैं जिन पर प्रत्येक भारतीय को विचार करने की आवश्यकता है। इस लेख में विद्वान लेखक ने कुछ
ऐसी ही विचार-मामग्री अत्यन्त रोचक और मौलिक ढङ्ग में उपस्थित की है।
मारा देश संसार के देशों में सकता है, नहीं तो देश निर्धन रहेगा। सम्पत्ति के मबसे निर्धन और निर्बल है, उत्पादन में चार चीज़ों की आवश्यकता है, प्रकृति की यह बात प्रत्येक भारतवासी देन, श्रमजीवी, पूँजी तथा औद्योगिक संगठन । इन चारों को खटकती है । जिस समय साधनों में से पिछले तीन साधन बढ़ाये जा सकते हैं, हमारी दृष्टि जीर्ण वस्त्रों में से अर्थात् जन-संख्या बढ़ने से श्रमजीवी बढ़ सकते हैं, दिखलाई देनेवाले निर्बल सम्पत्ति का बचा कर पूँजी अधिक बढ़ाई जा सकती है
शरीर तथा ३५ वर्ष की आयु और ऐसे व्यवसायी भी उत्पन्न हो सकते हैं जो धंधे में ही चेहरे पर बुढ़ापे के चिह्न धारण किये हुए देश- की जोखिम उठाकर उसका संगठन करें, किन्तु प्रकृति की वासियों पर पड़ती है, उस समय किस देशप्रेमी का हृदय देन किसी भी देश में बढ़ाई नहीं जा सकती। अभी तक सिहर नहीं उठता ? आज देश के सामने रोटी का प्रश्न मनुष्य भूमि, जलवायु, खनिज पदार्थ, बन-प्रदेश तथा भयंकर रूप में उपस्थित है। देश का शिक्षित समुदाय पर्वत और नदियाँ नहीं बना मका है। अस्तु प्रकृति इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने के उपरान्त की देन बढ़ाई जानेवाली चीज़ नहीं है। इस निश्चय पर पहुँचा है कि भारतवर्ष का भी ग्रेट ब्रिटेन, यही कारण है कि जिन देशों में जन संख्या अधिक जर्मनी, जापान तथा संयुक्तराज्य की ही भाँति औद्योगिक है, वहाँ सम्पत्ति का उत्पादन इस प्रकार किया जाता है कि देश बनना होगा तभी हमारी कल्पनातीत निर्धनता का प्रकृति की देन का कम से कम खर्च हो और जहाँ जनअन्त हो सकेगा। बात भी ठीक जान पड़ती है, औद्योगिक संख्या कम होती है, वहाँ प्रकृति की देन का अपव्यय होता देशों के वैभव और ऐश्वर्य को देखकर हम निर्धन भारत-' है। उदाहरण के लिए, जंगली जातियों को ही लीजिए। वासी चकित होकर यह सोचते हैं कि वैभव के स्रोत के इन जातियों के मनुष्य वनों के कंद-मूल तथा जन्तुओं पर खोलने का मुख्य साधन मिल और कारखाने खोलना है। निर्वाह करते हैं, अर्थात् ये लोग अपने भरण-पोषण के किन्तु जो लोग देश को मिलों और कारखानों से भर लिए केवल प्रकृति पर ही अवलंबित रहते हैं। यही कारण कर उसे समृद्धिशाली बनाने का स्वप्न देख रहे हैं, सम्भवतः है कि इनकी जन-संख्या प्रतिवर्गमील बहुत कम होती उन्होंने इंग्लेंड तथा अन्य औद्योगिक देशों के औद्योगिक है। ढोरों को चरानेवाली जातियाँ प्रकृति की देन का संगठन का अध्ययन नहीं किया है।
अपव्यय कम करती हैं, इस कारण प्रतिवर्गमील उनकी ____सम्पत्ति की उत्पत्ति से जन-संख्या का घनिष्ठ संख्या कुछ अधिक होती है। खेतिहर जातियाँ प्रकृति की सम्बन्ध है । यदि कोई देश अधिक सम्पत्ति उत्पन्न करता देन पर निर्भर तो रहती हैं, किन्तु श्रम और पूंजी के द्वारा है और वहाँ की धन-वितरण प्रणाली दूषित नहीं है तो वह थोड़ी-सी भूमि पर अधिक सम्पत्ति उत्पन्न करती हैं, इस देश अधिक जन-संख्या का भरण-पोषण भले प्रकार कर कारण वे प्रतिवर्गमील अधिक मनुष्यों का भरण-पोषण
४६४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीकृष्ण और स्यमन्तक मणि सत्राजितः स्वतनयां कृष्णाय कृतकिल्बिषः । स्यमन्तकेन मणिना स्वयमुद्यम्य दत्तवान् । श्रीमद्भागवत १०-५६-१
[चित्रकार श्रीयुत उपेन्द्रकुमार मित्र Shtee Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५
भारत में औद्योगिक उन्नति का प्रभ
कर सकती हैं। यही नहीं, जो देश गहरी खेती(Intensive cultivation ) श्रम - पूँजी प्रधान खेती करते हैं, वहाँ जन संख्या और भी घनी होती है । किन्तु सबसे अधिक घनी जन-संख्या औद्योगिक देशों की होती है, क्योंकि प्रौद्योगिक पदार्थों के उत्पन्न करने में प्रकृति का व्यय अपेक्षाकृत बहुत कम होता है । किन्तु औद्योगिक देशों को भी कच्चा माल उत्पन्न करने और अपनी जनसंख्या के लिए भोज्य पदार्थ प्राप्त करने के लिए कोई न कोई उपाय करना ही पड़ता है। यदि वे स्वयं कच्चा माल उत्पन्न करें तो उन्हें बहुत अधिक भूमि की आवश्यकता होगी । एक कारखाना सैकड़ों वर्गमील भूमि पर उत्पन्न किये हुए कच्चे माल को पक्के माल में परिणत कर देता है ।
यही कारण है कि इंग्लैंड, जर्मनी और जापान इत्यादि को इस बात की आवश्यकता प्रतीत होती है कि उनके कारखानों के लिए कच्चा माल उत्पन्न करने का कार्य दूसरे देश करते रहें और उनको कच्चा माल अपनी भूमि पर उत्पन्न न करना पड़े । यदि इंग्लेंड अपनी भूमि पर उत्पन्न किये हुए कच्चे माल पर ही अवलम्बित रहे तो उसे ६० प्रतिशत कारखाने बंद करना पड़ेंगे और लगभग तीन चौथाई जन संख्या को बाहर भेजना पड़ेगा या फिर इस ऐश्वर्य को तिलांजलि देकर निर्धनता से गुज़ारा करना पड़ेगा ।
इंग्लैंड का आधुनिक संगठन दो बातों पर निर्भर है । एक तो उसने कच्चा माल और भोज्य पदार्थ उत्पन्न करने का भार अन्य देशों पर लाद रक्खा है, दूसरे उसके पास कारखानों के तैयार किये हुए माल को बेचने के लिए सुरक्षित बाज़ार हैं । इसके लिए इंग्लैंड को अन्य देशों पर राजनैतिक प्रभुत्व बनाये रखना श्रावश्यक है ! किसी भी देश का आर्थिक शोषण किये बिना राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित नहीं हो सकता । अस्तु, ऐसे देश का औद्योगिक संगठन अप्राकृतिक है। जब तक इंग्लैंड भारतवर्ष, बर्मा, अफ्रीका के उपनिवेशों, मिस्र, सूदान तथा आस्ट्रेलिया इत्यादि प्रकृति-देन से भरे हुए देशों को कच्चा माल उत्पन्न करने तथा इंग्लैंड के कारखानों में तैयार
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
४६५
1
किये हुए माल को खरीदने के लिए बाधित कर सकता है तभी तक उसकी इतनी अधिक जनसंख्या का भरणपोषण भली भाँति किया जा सकता है। इंग्लैंड को आज भी भयंकर कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है । प्रत्येक आश्रित देश अपनी स्वतंत्रता की माँग कर रहा है। स्वतन्त्र होते ही प्रत्येक देश अपने धंधों की उन्नति करेगा और इंग्लैंड के माल पर आयात कर लगाकर उसके माल का श्रना बंद कर देगा । उस समय समृद्धिशाली इंग्लेंड का औद्योगिक संगठन नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा और रोटी का सवाल वहाँ वालों के सामने भी भयंकर रूप में उपस्थित होगा | आज हम संसार के राजनैतिक रंग-मंच पर जापान को कोरिया पर अत्याचार करते और चीन को हड़प जाने का प्रयत्न करते पाते हैं, इटली स्वतन्त्र अबीसीनिया को पराधीन बनाने पर तुला हुआ है, जर्मनी ने पिछले योरपीय युद्ध में अपना सर्वस्व स्वाहा कर दिया और संयुक्तराज्य (अमरीका) दक्षिणअमरीका में येrरपीय देशों को घुसने नहीं देना चाहता, इस सबका भेद केवल यही है कि ये देश अपने अप्राकृतिक औद्योगिक संगठन को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए उन देशों का हथियाकर उनका आर्थिक शोषण करना चाहते
। जिस दिन यह आर्थिक शोषण बंद होगा वही दिन इन देशों की आर्थिक मृत्यु का दिन होगा ।
क्या भारतवर्ष कभी स्वप्न में भी इन देशों के समान ही कारखानों का देश हो सकता है ? जब चार करोड़ मनुष्यों की आवादीवाला देश जिसकी दो-तिहाई जनसंख्या कारखानों में काम करती है, अपने तैयार माल की खपत के लिए संसार की एक तिहाई जन संख्यावाले देशों को अपने राजनैतिक प्रभुत्व में रखना श्रावश्यक समझता है तब यदि भारतवर्ष की आधी जनसंख्या भी किसी दिन कारखानों में काम करने लगी तो भारतवर्ष का संसार- विजय करके संसार के सब देशों को अपना तैयार माल खरीदने के लिए बाधित करना होगा । ध्यान रहे अब वह आर्थिक युग श्रा रहा है जब हर एक देश अपने धंधों की उन्नति में लग जायगा और संसार के पिछड़े हुए देश भी बाहर का वह तैयार माल मँगवाना
www.umaragyanbhandar.com
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
बन्द कर देंगे जो उस देश में बन सकता है। अब आर्थिक भूल है, जिसका फल उसे आये दिन भुगतना
औद्योगिक उन्नति देश की माँग पर ही निर्भर होगी। पड़ता है। विशेषज्ञों का मत है कि यदि भारतवर्ष में देश में जितने पक्के तैयार माल की माँग होगी उतने की वैज्ञानिक ढंग से खेती-बारी की जाय तो लगभग पचास पूर्ति के लिए कारखाने खोले जा सकते हैं। इससे अधिक प्रतिशत किसान ही सारी भूमि पर खेती-बारी कर सकते के लिए प्रयत्न करना भयंकर अार्थिक भूल होगी, जिसका हैं । किन्तु इन पचास प्रतिशत किसानों को भी खेती-बारी कुफल देश को अवश्य भोगना होगा।
के साथ साथ अवकाश के समय कोई न कोई ग्रामीण प्रश्न हो सकता है कि भारतवर्ष जैसे विशाल देश में धंधा करना ही होगा । तभी वे अकाल तथा आर्थिक संकट जहाँ समस्त संसार की जन-संख्या का पाँचवाँ भाग से छुटकारा पा सकेंगे। निवास करता है, कारखानों के तैयार माल की इतनी यदि ऊपर लिखे हुए विवरण में तनिक अतिशयोक्ति माँग होगी कि हमारे कारखाने देश की ही माँग पर की सम्भावना को भी मान लें तो भी यह बात सर्व. निर्भर रह कर चल सकेंगे। उस दशा में हमारा देश मान्य है कि खेती में लगी हुई जन-संख्या अत्यधिक है, इंग्लैंड, जापान तथा जर्मनी के समान कारखानों का जिसका पालन केवल खेती की भूमि के द्वारा नहीं हो सकता देश नहीं बन सकेगा, यह तो निर्विवाद है, हाँ, देश की है। अब प्रश्न यह है कि यह अधिक जन-संख्या किस माँग पर रह कर बहुत-से धंधे चलाये जा सकते हैं और कार्य में लगाई जाय जिससे यह अपना भरण-पोषण विदेशों से आनेवाला तैयार माल रोका जा सकता है। भले प्रकार कर सके, साथ ही बचे हुए किसानों को
देखना यह है कि क्या इतने कारखानों के खुलने से भी अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने का अवसर दे। संक्षेप देश की आर्थिक समस्या हल हो सकेगी। १६३१ की में भारतवर्ष की मुख्य आर्थिक समस्या यह है कि भूमि मनुष्य-गणना के अनुसार भारतवर्ष की जन-संख्या पैंतीस पर जन-संख्या का अत्यधिक भार है। करोड़ से कुछ अधिक है। इसमें से लगभग ७५ प्रतिशत भारतवर्ष के पास निज के उपनिवेश नहीं हैं, जहाँ खेती-बारी में लगी हुई है, तथा गाँवों में रहनेवाली शेष भारतीयों को प्रवास कर जाने के लिए कहा जाय । अन्य १५ प्रतिशत जन-संख्या अप्रत्यक्ष रूप से खेती-बारी पर देश जहाँ की आबादी बहुत कम है, पाश्चात्यों की अधीअपने भरण-पोषण के लिए निर्भर है। श्रार्थिक दृष्टि नता में हैं और उनमें एशियाई लोगों के लिए द्वार बन्द से देश की यही निर्बलता है। भारतवर्ष में जन-संख्या है। अस्तु, प्रवास हमारी समस्या को हल नहीं कर सकता। अधिक है और वह क्रमशः बढ़ती जा रही है, किन्तु खेती. अब उद्योग-धंधों के अतिरिक्त दूसरा उपाय ही क्या है ? बारी के योग्य भूमि तो परिमित ही है, वह बढ़ाई नहीं जा देखना यह है कि मिल और कारखाने खोलकर हम सकती। इसका फल यह हो रहा है कि प्रतिकिसान भूमि इस समस्या को कहाँ तक हल कर सकते हैं । श्राधुनिक बहुत कम पड़ती है, जिस पर खेती-बारी करके वह अपने ढंग के पुतलीघर और कारखानों की स्थापना इस देश में कुटुम्ब के भरण-पोषण के लिए यथेष्ट सम्पत्ति उत्पन्न नहीं सन् १८५० के उपरान्त हुई है, तब से उत्तरोत्तर फ़ैक्टरियों कर सकता। यही नहीं, खेती-बारी अत्यन्त अनिश्चित की संख्या यहाँ बढ़ती जा रही है । १६३३ की फैक्टरी-रिपोर्ट धंधा है। जो धंधा प्रकृति पर इतना अधिक निर्भर हो के अनुसार भारतवर्ष में ८,४५२ फैक्टरियाँ कार्य कर रहीं उसका अनिश्चित होना अनिवार्य भी है। वर्षा, वायु, धूप थीं, जिनमें १४,०३,२१२ श्रमजीवी कार्य कर रहे थे। तथा अन्य किसी जलवायु-सम्बन्धी गड़बड़ से खेती-बारी ध्यान रहे, भारतवर्ष में एक्ट के अनुसार फैक्टरी वह स्थान नष्ट हो जाती है और उस भाग की ग्रामीण जनता के है, जहाँ कम से कम १० मनुष्य कार्य करते हैं और जिसमें सामने अकाल भयंकर रूप में उपस्थित हो जाता है। शक्ति (बिजली, भाफ इत्यादि) का उपयोग होता है। अस्तु, किसान का केवल खेती-बारी में लगा रहना भयंकर फैक्टरियाँ दो प्रकार की होती हैं-- एक तो वे जो वर्ष भर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
भारत में औद्योगिक उन्नति का प्रश्न
४६७
कार्य करती हैं, जैसे सूत कातने तथा कपड़ा बुनने के कार• धंधों को नष्ट न कर दे। अस्तु, अप्रत्यक्ष रूप से जनता खाने; दूसरी मौसमी फ़ैक्टरियाँ जो वर्ष में केवल कुछ वस्तुओं का अधिक मूल्य देकर पूँजीपतियों की थैली ही महीने कार्य करती हैं । उदाहरण के लिए शक्कर के भरती है। प्रारम्भ में प्रत्येक धंधों को संरक्षण की आवकारखाने तथा कपास के पेंच । ऊपर लिखे आँकड़ों में श्यकता पड़ती है, किन्तु एक बार संरक्षण मिल जाने पर दोनों प्रकार की फैक्टरियों में काम करनेवाले मजदूरों की बहुधा वह स्थायी हो जाता है। क्योंकि जब संरक्षण संख्या दे दी गई है। भारतवर्ष की सब खानों में लगभग हटाये जाने का प्रश्न अाता है तभी पूँजीपति यह कहकर १,७०,००० मज़दूर कार्य करते हैं। फैक्टरियों और कि ऐसा करने से यह जातीय धंधा नष्ट हो जायगा, उसका खानों के अतिरिक्त चाय. कहवा तथा रबर के बागों में विरोध करते हैं। लगभग दस लाख पचास हज़ार मज़दूर कार्य करते हैं। यहाँ बड़े बड़े कारखानों के विषय में कुछ विचार
ऊपर लिखे हुए आँकड़ों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि कर लेना आवश्यक है। मैं यहाँ इन कारखानों की लगभग ८५ वर्षों की औद्योगिक उन्नति के उपरान्त हमारे गंदगी, स्वास्थ्य को हानि पहुँचने की बात, मज़दूरों से देश के सब प्रकार के कारखाने, खाने और प्लांटेशनस (बाग़) एक यन्त्र के समान काम कराने की बात, औद्योगिक केन्द्रों केवल २६ लाख मज़दूरों को काम दे सके हैं । दूसरे शब्दों में नरक के समान गंदे तथा स्वास्थ्य और चरित्र को नाश में यह कहना चाहिए कि देश की समस्त जन-संख्या की एक करनेवाले स्थानों पर श्रमजीवियों के रहने तथा दुर्व्यसनों प्रतिशत जनसंख्या भी इनमें काम नहीं पा सकी । भविष्य में पड़ने आदि के विषय में कुछ नहीं कहूँगा । ये तो प्रत्यक्ष में चाय और कहवे के बाग़ों और खानों के बढ़ने की कोई हैं और इन कारखानों में कार्य करने का अवश्यम्भावी सम्भावना नहीं है। हाँ, फ़ैक्टरियों की संख्या अवश्य परिणाम हैं। हम पाठकों का ध्यान उस समस्या की ओर बढ़ाई जा सकती है। कोई भी बुद्धिमान् मनुष्य ऊपर के याकर्षित करना चाहते हैं जो आधुनिक औद्योगिक
आँकड़ों को देखकर यह कहने का दावा नहीं कर सकता उन्नति के कारण उपस्थित होती है। वह है एकाधिकार कि फैक्टरियाँ कभी देश की समस्त जन-संख्या की और ट्रस्ट की समस्या। पाँच प्रतिशत जनसंख्या को भी काम दे सकेंगी। वास्तव बात यह है कि यन्त्रों और शक्ति का उपयोग पूरी तरह में भारत की आर्थिक समस्या बड़े बड़े कारखानों के . तभी हो सकता है जब बड़ी मात्रा में उत्पादन-कार्य किया खोलने से हल नहीं हो सकती। हमें तो बेकारों को काम जाय । यही कारण है कि फैक्टरियाँ हाथ से काम करनेवाले देना है और वह फ़ैक्टरियाँ नहीं दे सकतीं।
कारीगरों की अपेक्षा सस्ते दामों पर माल तैयार कर सकती ___बड़े बड़े कारखानों और फैक्टरियों से कुछ पूँजीपति हैं । यही नहीं, बड़ी फैक्टरियाँ छोटी फैक्टरियों की अपेक्षा तो धनवान् हो सकते हैं, किन्तु निर्धन जनता को काई सस्ते दामों पर माल तैयार कर सकती हैं। फल यह होता विशेष लाभ नहीं होगा । यही नहीं कि फैक्टरियाँ हमारी है कि औद्योगिक उन्नत देशों में बड़े-बड़े कारखाने माल बेकार जन-संख्या को काम नहीं दे सकेंगी, बरन हमें उनके को सस्ते दामों पर बेचना प्रारम्भ करते हैं और उनकी द्वारा तैयार किये हुए माल का मूल्य भी अधिक देना प्रतिद्वन्द्विता में छोटे कारखाने बन्द हो जाते हैं । . पड़ता है। देश की औद्योगिक उन्नति के लिए संरक्षण जब देश में थोड़े-से बहुत बड़े कारखाने बच जाते की नाति स्वीकार की गई है। हमारे व्यवसायी और हैं तब वे भीमकाय कारखाने एक संघ बना लेते हैं और पूँजीपति विदेशी माल पर आयात-कर लगाने के लिए उस वस्तु पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लेते हैं । घोर आन्दोलन करते हैं । उनके पास पत्र और नेटफार्म हैं, देश में एक ही कारखाना उस वस्तु को तैयार करता है। साथ ही राष्ट्रीय भावना भी उनके पक्ष में है। संरक्षण अस्तु, वे जो मूल्य भी चाहें ग्राहकों से वसूल कर सकते इसलिए दिया जाता है कि विदेशी माल देश के नये हैं। यही नहीं, इनके द्वारा कतिपय पूँजीपतियों के हाथ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६८
सरस्वती
में इतनी अधिक शक्ति या जाती है जिसका हम स्वप्न में भी ध्यान नहीं कर सकते ।
संयुक्त राज्य (अमरीका), जर्मनी और इंग्लैंड में यह समस्या भयंकर रूप धारण कर रही है । यहाँ केवल स्टैंडर्ड श्रायल ट्रस्ट का संक्षिप्त परिचय दिया जायगा जिससे इस समस्या की भयंकरता का अनुमान हो सके । स्टैंडर्डयल ट्रस्ट का वार्षिक लाभ लगभग पाँच करोड़ डालर है और यह सब लाभ कतिपय पूँजीपतियों की जेब में जाता है। ट्रस्ट ने लगभग ६ या १० रेलवे लाइनें तथा २५ बैंक खरीद लिये हैं । संयुक्त राज्य की लगभग सब तेल की खानें इस ट्रस्ट के हाथ में हैं । यदि तेल की कोई नई खान निकलती है और कोई दूसरी कम्पनी उसको ले लेती है तो ट्रस्ट उस क्षेत्र में एक फ़र्ज़ी कम्पनी खड़ी कर देता है, जो नाममात्र के मूल्य पर तेल बेचती है और कुछ ही समय में नई कम्पनी को अपना कारबार बन्द करना पड़ता है और खान ट्रस्ट को बेच देनी पड़ती है । यद्यपि ट्रस्ट को भी इस प्रतिद्वद्विन्ता में लाखों डालर की हानि उठानी पड़ती है, तथापि यह उसके लिए एक खिलवाड़ मात्र है। ट्रस्ट अपनी रेलों को आज्ञा देता है कि उसके प्रतिद्वन्द्वी का तेल बीच में ही नष्ट कर दिया जाय और क्षतिपूर्ति कर दी जाय । फल यह होता है कि नई कम्पनियों के ग्राहकों को कभी तेल प्राप्त ही नहीं होता। यही नहीं जो रेलवे लाइनें ट्रस्ट की नहीं हैं उन्हें भी ट्रस्ट की आज्ञा माननी पड़ती है, क्योंकि ट्रस्ट उनका सबसे बड़ा ग्राहक है । इस प्रकार ट्रस्ट अपने प्रतिद्वन्द्वियों को थोड़ी-सी हानि उठा कर सर्वदा के लिए नष्ट कर देता है ।
ट्रस्ट का राजनैतिक प्रभाव भी कुछ कम नहीं है । ट्रस्ट अपने कर्मचारियों को संयुक्त राज्य की व्यवस्थापिका सभा के लिए खड़ा करता है और जो भी राजनैतिक दल प्रबल होता है उसी को आर्थिक सहायता देकर मोल ले लेता है । संयुक्त राज्य में केवल यही एक ट्रस्ट नहीं है। स्टीलट्रस्ट, तम्बाकू- ट्रस्ट, तथा शक्कर ट्रस्ट इत्यादि सभी बलवान् हैं। ये सब ट्रस्ट कुछ इने-गिने पूजीपतियों के हाथ में हैं । अस्तु, ये ही पूँजीपति वास्तव में देश के शासक हैं, प्रजा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
तंत्र तो नाम मात्र को है । वास्तव में जो भी देश औद्यो गिक देश हैं, वहाँ पूँजीपतियों का ही शासन है, प्रजातंत्र तो देखने भर को है । दक्षिण अफ्रीका में जवाहरात की खानों का ट्रस्ट (डी बियर्स कम्पनी) अपने कर्मचारियों को व्यवस्थापिका सभा के लिए खड़ा करता है, धन व्यय करके वोट खरीदे जाते हैं और वहाँ का शासन उस कम्पनी के स्वामियों के हाथ में है। यही नहीं, ये प्रबल पूँजीपति अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भी बहुत बड़ा प्रभाव रखते हैं । स्टैंडर्ड आयल ट्रस्ट ने मैक्सिकन विद्रोह को प्रोत्साहन दिया, मैसोपोटेमिया, तुर्की, फ़ारस की राजनैतिक हलचलों में भाग लिया केवल वहाँ की तेल की खानों को हथिया लेने के अभिप्राय से ।
आधुनिक पूँजीवाद से उत्पन्न हुई दूसरी समस्या से तो आज प्रत्येक मनुष्य अवगत है । वह है समाज में आर्थिक विषमता । कुछ पूँजीपतियों के पास अनन्त धनराशि इकट्ठी हो गई है और अधिकांश जनता दरिद्रजीवन व्यतीत कर रही है। यही कारण है कि ग्राज संसार के प्रत्येक देश में श्रमजीवी और कृषक समुदाय क्षुब्ध हो उठा है । साम्यवाद तथा कम्यूनिज्म इसी क्षुब्धता के चिह्न हैं। यदि हम चाहते हैं कि हमारे देश में भी वर्ग -युद्ध न छिड़े तो हमें अपना औद्योगिक संगठन दूसरे प्रकार से करना होगा ।
इससे पाठक यह न समझ लें कि भारतवर्ष को औद्यो गिक देश न बनाये जाने का परामर्श दिया जा रहा है। वास्तव में हमारे देश को जितनी आवश्यकता उद्योगधंधों की है, उतनी किसी भी देश को नहीं है । श्रौद्योगिक संगठन किस प्रकार का हो, इसी में मतभेद है । कुछ धंधे तो बड़े बड़े कारखानों के बिना चल ही नहीं सकते | उदाहरण के लिए लोहे, स्टील तथा अन्य धातुओंों के कारखाने, इंजिनियरिंग वर्क्स, यन्त्र बनाने के कारखाने, रेलवे सम्बन्धी सामान बनाने के कारखाने, जलप्रपात द्वारा बिजली बनाने के कारखाने, माइनिंग ( खानों को खोदना) इत्यादि । ये धंधे तो बड़ी मात्रा में बड़े बड़े कारखाने खोल कर ही खड़ा किये जा सकते हैं। बिना इन धंधों की उन्नति किये देश औद्योगिक उन्नति
www.umaragyanbhandar.com
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
भारत में औद्योगिक उन्नति का प्रश्न
४६९
कर ही नहीं सकता। इस श्रेणी के और भी धंधे हो सकते कार्य के लिए एक संस्था की यावश्यकता है जो इनके हैं । इन धंधों पर राज्य का विशेष नियन्त्रण होना चाहिए, विषय में खोज करती रहे और इन धंधों का संगठन जिससे पूँजीपति इन पर एकाधिपत्य स्थापित न कर लें। करे।
ऊपर लिखे हुए धंधों के अतिरिक्त अन्य धंधों के किन्तु इतने से ही देश की आर्थिक समस्या हल नहीं हो लिए यह आवश्यकता नहीं है कि हम योरपीय देशों की ही जायगी । हमें गृह-उद्योग-धंधों की भी उन्नति करनी होगी। भाँति बड़े बड़े कारखाने खोलें । गृह-उद्योग-धंधों और जिस अव्यवस्थित दशा में हमारे गृह-उद्योग धंधे इस समय ग्राम्य उद्योग-धंधों के द्वारा हमारी आवश्यकतायें भली चल रहे हैं उसे देखकर तो यह आश्चर्य होता है कि ये भाँति पूरी हो सकती हैं और हमारी बेकार जनता को कार्य क्योंकर अभी तक जीवित रह सके । सूती, ऊनी और रेशमी मिल सकता है। ग्राम्य उद्योग-धंधों के बिना तो हमारे कपड़े बुनने का धंधा; दरी, कालीन, कम्बल तथा शाल के किसानों को जीवित रहना ही कठिन हो रहा है। धंधेः पीतल, कांसे तथा ताँबे के बर्तन और मूर्तियाँ बनाने का
खेती-बारी मौसमी धंधा है। उसमें लगा हुआ किसान धंधा; खिलौने, तथा लकड़ी और मिट्टी के बर्तनों का धंधा वर्ष में चार से छः महीने तक बेकार रहता है । अस्तु, यह यान भी किसी प्रकार जीवित हैं। इससे यह स्पष्ट ज्ञात स्वाभाविक है कि वह वर्ष में केवल छः महीने कार्य करके होता है कि इनमें जीवन-शक्ति है और वैज्ञानिक ढंग से बारह महीने का भोजन नहीं पा सकता। साथ ही यह चलाये जाने पर ये पनप सकते हैं। भारतीय गृह-उद्योग धंधा अत्यन्त अनिश्चित है, इस कारण किसान का केवल धंधों की उन्नति करने के लिए निम्न लिखित बातों की खेती-बारी पर ही अवलम्बित रहना आर्थिक दृष्टि से खतरे आवश्यकता है - कारीगरों की शिक्षा, पूँजी का प्रबन्ध, से खाली नहीं है । किन्तु किसान गाँव छोड़कर बाहर कार्य कच्चे माल का उचित मूल्य पर पाने का अायोजन, करने नहीं जा सकता, क्योंकि वह लगातार चार महीने हल्के, सस्ते किन्तु अच्छे यन्त्रों का आविष्कार, तैयार माल तक बेकार नहीं रहता, इस कारण हमें उमकी आर्थिक को बाजार में बेचने की सुविधा और बिजली की शक्ति का स्थिति को सुधारने के लिए गाँव में ही कुछ कार्य देना उपयोग । कारीगरों को व्यापारियों से पूँजी उधार लेनी होगा । संसार के किसी देश का भी किसान केवल खेती- पड़ती है और उस पर भयंकर सूद देना पड़ता है । धंधे के बारी पर ही निर्भर नहीं रहता। श्रीयुत कैलवर्ट महोदय लिए कच्चा माल प्राप्त करने में भी कारीगर लूटा जाता है, के शब्दों में “वह अपनी कमान में दो डोरे लगाता है।" क्योंकि उसे अपने महाजन से ही कच्चा माल लेना पड़ता जापान का किसान रेशम के कीड़े पालता है, फ्रांस का है। कारीगर के कर्जदार होने के कारण उसी व्यापारी किसान अंगूर की बेल और रेशम का धंधा करता है, तो को तैयार माल बहुत सस्ते दामों पर बेचना पड़ता है । डेन्मार्क का किसान दूध का धंधा करता है। भारतीय कारीगर को इस लूट से बचाने के लिए हमें उत्पादक किसान के लिए फल, तरकारी, दूध, घी, मुर्गी के अंडे, सहकारी समितियाँ स्थापित करनी होगी। समितियों में शहद की मक्खी पालने, गुड़, शक्कर, सूत कातना, ऊन मंगठित होकर कारीगर उचित मूल्य पर पूँजी और कच्चा कातना, रेशम के कीड़े पालना, रस्सी, चटाई, डलिया तथा माल प्राप्त कर सकेंगे और साथ ही ये सहकारी समितियाँ बान इत्यादि वस्तुएँ बनाना आदि उपयोगी धंधे होंगे। तैयार माल को अच्छे दामों पर बाज़ार में बेचने का प्रबंध भारतीय किसान के लिए केवल वे ही धंधे उपयोगी सिद्ध करेंगी। प्रत्येक धंधे के लिए सहकारी समितियाँ पृथक होंगे जिनमें अधिक पूँजी तथा कारीगरी की अावश्यकता होगी। हर एक प्रान्त की समितियाँ एक यनियन का संगन हो, जिनके लिए कच्चा माल वह स्वयं उत्पन्न करता ठन करें । यूनियन विज्ञापन, एजेंट, कनवेसर तथा प्रदर्शहो, जिनके तैयार माल की या तो उसे स्वयं आवश्यकता नियों के द्वारा अपने से संबंधित समितियों के सदस्यों के हो अथवा गाँव के आस-पास ही जो बेचे जा सकें। इस उत्पन्न किये हुए माल की खपत बाज़ारों में करें । साथ ही
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
यूनियन बाज़ार का अध्ययन करके समितियों को बतलावें उपयोग किया जाय तो देश में औद्योगिक क्रान्ति हो कि कौन-सी डिज़ाइन बाज़ार में अधिक चलती है जाय । कारीगर को स्टीम एंजिन की आवश्यकता न रहे इत्यादि । अच्छे किन्तु सस्ते यन्त्रों के अाविष्कार की बहुत (जिसे वह खरीद ही नहीं सकता), केवल बिजली का तार बड़ी आवश्यकता है, जिससे कारीगर थोड़े समय में लेकर वह बड़े से बड़े कारखाने का मुकाबिला कर अधिक माल तैयार कर सकें। यह कार्य सरकार का सकेगा। औद्योगिक इंजीनियरिंग विभाग करे। यन्त्र और औज़ारों भारतवर्ष की औद्योगिक उन्नति तीन प्रकार के का आविष्कार हो जाने पर उनको अधिक मात्रा में उत्पन्न धंधों के सम्मिश्रण से होगी। बड़े बड़े कारखाने उन धंधों करने के लिए बड़े बड़े कारखाने खोले जाएँ जो उन के खोले जायँ जिनके बिना काम नहीं चल सकता। यन्त्रों को तैयार करें। यदि भारत सरकार तथा प्रान्तीय उनके अतिरिक्त गृह-उद्योग-धंधों और ग्रामीण उद्योगसरकार जल के द्वारा बिजली उत्पन्न करके बिजली को धधों के संगठन की भी श्रावश्यकता होगी। देश की सस्ते दामों पर कारीगरों को दे सकें तो हमारे गृह- आर्थिक समस्या तभी हल होगी जब कृषि की वैज्ञानिक उद्योग-धंधे सहज में बड़े बड़े कारखानों की प्रतिस्पर्धा में ढंग से उन्नति करने के साथ साथ ऊपर लिखे अनुसार खड़े हो सकते हैं । छोटे छोटे कारीगर सहकारी समितियों औद्योगिक उन्नति की जाय। केवल देश को कारखानों से के द्वारा बड़े बड़े कारखानों की सब सुविधायें प्राप्त कर ही भर देने से काम नहीं चलेगा। यदि हमने पाश्चात्य सकते हैं, किन्तु शक्ति की सुविधा उन्हें प्राप्त नहीं हो देशों का अंध अनुसरण किया तो हमारी आर्थिक समस्या सकती। जल-द्वारा उत्पन्न की हुई बिजली ने यह समस्या और भी जटिल हो जायगी। भी हल कर दी है । यदि भारतवर्ष भर में बिजली का
रजकरण
लेखक, श्रीयुत रुस्तम सैटिन इक रजकण में प्रतिबिम्बित,
इसके सीमित बन्धन में, इस अखिल विश्व को देखा।
जग का अपनापन देखो। संमृति के शून्य गगन में,
मलयानिल ले उड़ता है, ... रवि को रजकण सा देखा ।।
इस छोटे-से रज-कण को। इन कण, कण को उलझन में,
उनकी स्मृति-आँधी जैसे, जग-जीवन उठता गिरता।
ले उड़ती मेरे मन को॥ पल पल के परिवर्तन में,
इस माया के पर्वत में, जग-जीवन बनता मिटता ।। आशा की ज्वाला सोती। इन लघु, लघु रज के कण में,
इसके नीरव जीवन में, माया की मूरत देखो।
मेरी संज्ञायें खोती ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामयिक साहित्य
WI
हिन्द-समाज का कलंक
में उनका आदर नहीं होता, इसलिए धर्मान्तर करना तिल ज भी हाल में डाक्टर अम्बेड- चाहिए । यह बात नहीं है कि ऐसा केवल डाक्टर अम्बेडकर
लोक कर ने घोषणा की है कि ही अनुभव करते हों । प्रसिद्ध ऐतिहासिक और पुरातत्त्ववेत्ता
हिन्दू-धर्म में उन्हें आत्म- श्री काशीप्रसाद जायसवाल भी सुना जाता है कि कहा M विकास का पर्याप्त क्षेत्र नहीं करते थे क्योंकि मैं हिन्दू के घर में पैदा हुया हूँ इसलिए मिलता, अतएव वे उसे कभी भी समाज में वह उच्च स्थान नहीं प्राप्त कर सकता
जो और किसी देश में अपनी योग्यता और क्षमता मे
प्राप्त कर सकता था। ऐसे न जाने कितने ही योग्य व्यक्ति ईसाई, मुसलमान और आर्य-समाज आदि के अपने जन्म के कारण समाज में हीन और तुच्छ दृष्टि से अनयायियों ने उन्हें अपने अपने धर्म में आने के देखे जाते होंगे। इसके कारण तथा कतिपय निम्न श्रेणी लिए आह्वान किया है। उधर कुछ हिन्दुओं ने उन में अन्दर ही अन्दर सुलग रही असन्तोष की अग्नि ही पर रोप भी प्रकट किया है। यद्यपि हमारा यह अाज डाक्टर अम्बेडकर के धर्म-परिवर्तन के निश्चय में विश्वास है कि हिन्दू-धर्म किसी के आत्मविकास प्रकट हुई है। इसलिए डाक्टर अम्बेडकर की आलोचना में बाधक नहीं सिद्ध हो सकता, तथापि हमें उन करने के बजाय यदि हम आत्म-निरीक्षण करें तो अधिक कारणों पर भी विचार करने की आवश्यकता है उपयुक्त होगा। जिनसे डाक्टर अम्बेडकर जैसे लोग हिन्दू-धर्म से डाक्टर अम्बेडकर के धर्मान्तर के निश्चय से ज़माने असन्तुष्ट हैं। इस सम्बन्ध में उपर्युक्त शीर्षक के पर कोई असर होगा, इसकी भी हमें कोई अाशा नहीं है। अन्दर 'नवयग' ने एक विचार-पूर्ण अग्रलेख लिखा जिस समाज में असमानता के भाव और विषम व्यवहार के है, जिसका एक अंश हम नीचे उद्धृत करते हैं- कारण एक व्यक्ति यह अनुभव करता है कि वह अपनी ___डाक्टर अम्बेडकर का धर्म-परिवर्तन का निश्चय योग्यता, क्षमता से इतना ऊँचा जिस समाज में नहीं उठ हिन्दू-समाज-व्यवस्था और धर्म पर कलंक का एक अमिट सकता उस समाज को यदि कोई व्यक्ति छोड़ दे तो इसमें धव्या है। डाक्टर अम्बेडकर एक उच्च शिक्षित व दोप छोड़नेवाले व्यक्ति का नहीं है, बल्कि सामाजिक सम्भ्रान्त व्यक्ति हैं। वे कानून और अर्थशास्त्र के रचना और सामाजिक व्यवस्था का है। जब तक व्यवस्था एक महान् पंडित हैं । जब ऐसा व्यक्ति यह अनुभव कायम है तब तक डाक्टर अम्बेडकर-सदृश व्यक्ति उस करता है कि मेरे पूर्ण विकास के लिए हिन्दू-समाज समाज से निकलते ही रहेंगे। इमलिए आवश्यकता इस में अवसर और क्षेत्र नहीं है तब हर एक विचार- बात की है कि हिन्दू-जाति अपने को टटोले और उन शील व्यक्ति को मानना होगा कि हिन्दू-जाति की सामा- छिद्रों को बन्द कर दे जिनके कारण डाक्टर अम्बेडकरजिक व्यवस्था में कोई मौलिक दोष है और इस दोष सरीखे प्रतिभाशाली, विचारक और विद्वान् इम समाज के कारण ही डाक्टर अम्बेडकर-सदृश पुरुष अनुभव करते को छोड़ने के लिए लाचार हो रहे है। हैं कि उनकी योग्यता, शक्ति और क्षमता के अनुरूप समाज हमारा अपना विचार है कि जब तक वर्तमान
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
जाति-व्यवस्था व वर्णाश्रम-व्यवस्था कायम है तब तक हिन्दू- ट्रेन में सफर कर चुका हूँ। वहाँ मुझे सादे कपड़ों में एक जाति प्रगति-पथ पर अन्य जातियों के समकक्ष आगे चलने गुप्तचर के सिवा और कोई भी शरीर-रक्षक दिखलाई योग्य नहीं हो सकती। हम इस बात में बिलकुल विश्वास नहीं दिया। मुझे ज्ञात हुया कि प्रिंस अाफ़ वेल्स तो नहीं करते कि इसी सामाजिक व्यवस्था ने हिन्दू-जाति किसी तरह जब इस गुप्तचर की नज़र से भी अपने को को अब तक बचाये रक्खा है । सम्भव है, इस विचारवालों अलग कर पाते हैं तब उन्हें बड़ी खुशी होती है। का कहना ही सत्य हो। मगर आज यह व्यवस्था वर्तमान परन्तु मुसोलिनी, हिटलर, स्टेलिन और मुस्तफ़ा समय के लिए सर्वथा अनुपयुक्त और अनुपयोगी सिद्ध हो कमाल पाशा के लिए बहुत-से सशस्त्र पहरेदारों की चुकी है। आज तो इसका जड़-मूल से नाश ही इष्ट है। आवश्यकता होती है। इसका एक कारण और भी है-- जब तक हिन्दू-समाज में सामाजिक स्थिति की दृष्टि से डिक्टेटर और उनके अनुयायी राज्य का शासन चलाने मालवीय जी और डाक्टर अम्बेडकर एक पाये पर नहीं के लिए अपने आपको इतना आवश्यक समझते हैं कि समझे जायेंगे, जब तक हिन्दू-धर्म-व्यवस्था मनुष्य और उनके सामने सदा यह समस्या नाचती रहती है कि उनकी मनुष्य के बीच भेद देखती है और उसे अपने धार्मिक मृत्यु के बाद स्थान ग्रहण करने के लिए कौन अावेगा। नियमों से स्थिर करती है तब तक हिन्दू-जाति के उद्धार
हिटलर की अाशा करना व्यर्थ है।
जर्मनों का विश्वास है कि हिटलर के रूप में उन्हें
ऐसा व्यक्ति मिला है जो-और केवल वही उनके राष्ट्र डिक्टेटरों की रक्षा का प्रबन्ध को योरप में सबसे अधिक शक्तिशाली बना सकता है। योरप में आज-कल डिक्टेटरों का बोलबाला है। इसलिए जिन देशों में तानाशाही है उनमें डिक्टेटर को जितने वे लोकप्रिय हैं, उतनी ही उनकी जान का मारना या उसे मारने का प्रयत्न करना सबसे भारी जुर्म जोखिम भी है। उनकी रक्षा का कहाँ क्या प्रबन्ध माना जाता है। है, इस सम्बन्ध में 'स्टेट्स मैन' में एक ज्ञातव्य लेख फिर भी मुझे बर्लिन में ऐसे लोग मिले हैं जिनका प्रकाशित हुआ है। यहाँ हम 'भारत' से उसका कहना है कि उन्होंने हिटलर को सड़क पर अकेले जाते अनुवाद उद्धृत करते हैं
देखा है । इस बात की सम्भावना तो अवश्य है, पर संसार में डिक्टेटरों की रक्षा के लिए, जितना प्रबन्ध ऐसा शायद साल भर पूर्व हुअा होगा जब तक कि करना पड़ता है उतना बादशाहों और सम्राटों की रक्षा हिटलर ने विद्रोहियों की हत्या करके अपने दल की के लिए भी नहीं । बात यह है कि डिक्टेटर शासना- सफ़ाई नहीं की थी। इसके बाद से तो हिटलर जब कभी धिकार अपने अातंक के कारण पाते हैं और अातंक के सार्वजनिक रूप में प्रकट होते हैं तब वे चारों तरफ़ से बल पर ही उनका शासन भी चलता है। डिक्टेटरों को सशस्त्र पहरेदारों से घिरे रहते हैं। बराबर अपने मारे जाने का भय लगा रहता है। सैनिक अभी कुछ दिन हुए मैं हिटलर से मिलने गया प्रदर्शन, कवायद का निरीक्षण और जुलूसों के समय था। हर हिटलर केसरहोफ़ होटल में रहते हैं । हमने अकसर षड्यंत्रकारी कुछ ही गज़ की दूरी पर उन्हें मारने देखा कि जिस कमरे में वे बैठते हैं उसके द्वार पर ६ के घात में फिरा करते हैं । यदि गुप्तचर पुलिस डिक्टेटरों सशस्त्र पहरेदार अाटोमेटिक पिस्तौल लिये हुए तैनात की रक्षा न करती तो शायद वे अधिक दिन तक कभी थे। ये लोग हिटलर के टेबिल से कुछ ही कदम दूर जीवित न रह सकते। ब्रिटिश राजकुल की रक्षा के थे। जब कोई व्यक्ति हिटलर से मिलने के लिए कमरे लिए बहुत ही कम प्रबन्ध की आवश्यकता होती है। मैं में घुसता है तब ये लोग बड़ी सतर्कता से उस व्यक्ति स्वयं प्रिंस अाफ़ वेल्स तथा ड्यूक अाफ़ ग्लाउस्टर के साथ की जाँच करते हैं ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
सामयिक साहित्य
४७३
प्रधानमंत्री के कार्यालय में भी हिटलर की रक्षा का सम्भवतः कांग्रेस में दोनों प्रकार के विचार रखनेबड़ा प्रबन्ध है । वहाँ १०० सशस्त्र सिराही उनकी रक्षार्थ वाले लोग हैं। और इस प्रश्न पर राय देने से किसी रहते हैं । इन लोगों के हाथों में राइफ़लें रहती हैं और एक दल के असन्तुष्ट हो जाने का भय था, इससे ये सिर पर लोहे के हैलमेट पहने रहते हैं। जिस कमरे में समिति ने इस प्रश्न को 'लखनऊ-कांग्रेस त डिक्टेटर महोदय श्रागन्तुकों से मिलते हैं उसमें भी इन टाल दिया है। इस पर 'आज' ने एक अग्रलेख लोगों का एक दल मौजूद रहता है। इसके सिवा प्रकाशित किया है, जिसका कुछ अंश इस प्रकार हैहिटलर के दफ्तरों की इमारतों के बरामदे भी इन १५ अक्तूबर को मदरास में कांग्रेस-कार्यसमिति ने पहरेदारों से भरे रहते हैं।
पुनः यही निश्चय किया कि कांग्रेसवालों के नये शासन डिक्टेटरों को देश भर में समय समय पर दौरा करने में सरकारी पद-ग्रहण करने न करने के सम्बन्ध में कोई की आवश्यकता रहा करती है। इसके लिए हिटलर और राय देने का समय अभी नहीं पाया है। उसके मत से मुसोलिनी दोनों ही हवाई जहाज़ का उपयोग करते हैं। इस समय कोई राय देना 'नीतिविरुद्ध, असामयिक और भारत के वायसराय को भी यही सवारी अधिक पसन्द हानिकारक' होगा । कार्यसमिति के प्रति गम्भीर आदर आई है, क्योंकि उनको भी आक्रमण का खतरा काफ़ी रखते हुए भी हम इस मामले में उससे सहमत होने में रहता है। हिटलर के हवाई जहाज़ में एक कमी अवश्य अपने आपको असमर्थ पाते हैं । नये शासन में कांग्रसरहती है। उसमें अन्य डिक्टेटरों के हवाई जहाज़ों की वाले सरकारी पद-ग्रहण करें अथवा न करें, इस तरह मशीनगनें नहीं लगी रहतीं।।
सम्बन्ध में आज कोई निर्णय करना 'अनैतिक, असामयिक हिटलर का मोटरकार चारों तरफ़ से बन्द और शक्ति- और हानिकारक' क्यों होगा । जब तक नया विधान बन शाली इंजनवाली गाड़ी होता है। हिटलर जब कभी सार्व- नहीं गया था तब तक यह कहा जाता था कि वह विधान जनिक उत्सव में भाग लेने के लिए जाते हैं तब ड्राइवर देखे बिना कोई राय नहीं दी जा सकती, यद्यपि यह राय
और शोफ़र के बग़ल में बैठनेवाले दोनों सजन उच्च पदा- दे दी गई कि कांग्रेस की और जनता की सम्मति के धिकारी होते हैं । पिछलीवाली पाँच सीटों में ५ तेज़ गोली बिना जो विधान बनाया जायगा वह कांग्रेस को स्वीकृत चलानेवाले सैनिक घुटनों के बीच बन्दुक्क साधे बैठे रहते न होगा । एक महान् सिद्धान्त के आधार पर यदि विधान हैं और उनकी कमर में पिस्तौल लटकी रहती है। ये ही अस्वीकृत किया जा सकता है तो क्या वही आधार लोग भीड़ में दोनों तरफ़ बड़ी सतर्कता से अपनी नज़र पद-ग्रहण न करने की राय देने के लिए पर्याप्त कारण डालते चलते हैं। सैनिक अफसर भी हथियारों से लैस नहीं है ? रहते हैं। इस परिस्थिति में यदि कोई भीड़ में से मोटर वे व्यावहारिक बातें क्या है ? हम कार्यसमिति के की ओर आगे बढ़ने का प्रयत्न करे तो गज़ भर आगे भीतर की बातें नहीं जानते और न किसी को जानने का श्राने के पहले ही उसकी मृत्यु हो जायगी ।
अधिकार ही है। एक बात जो स्पष्ट देखने में आती है, यह है कि कांग्रेस के नेताओं में ही इस प्रश्न पर घोर
मतभेद हो गया है। एक पक्ष पद-ग्रहण करने पर तुला असामयिक क्यों ?
हुआ है तो दूसरा पक्ष उसका वैसा ही घोर विरोधी भी है। नवीन शासन-विधान के कार्य्यरूप में परिणत एक तीसरा भी पक्ष है, पर वह बेचारा इस समय निर्बल होने पर कांग्रेसवाले उसमें पद-ग्रहण करें या न करें हो रहा है, जो समझता है कि कांग्रेसवालों का कौंसिलों इस प्रश्न पर, मदरास में कांग्रेस की जो कार्यसमिति में जाना ही उचित नहीं है। आपस के इस विरोध को बैठी थी उसने कोई अन्तिम निर्णय नहीं किया। देखकर ही यदि कार्यसमिति इस समय इस विषय पर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७४
सरस्वती
[भाग ३६
राय देना "अनैतिक, असामयिक और हानिकर" समझती और सरकार पर यह असर डालना चाहिए कि वह इन हो तो इस पर यही पूछा जा सकता है कि वह किस चिकित्सा-पद्धतियों को प्रोत्साहन दे। मेरे स्वर्गीय मित्र समय की राह देख रही है। क्या वह समझती है कि हकीम अजमलखाँ ने दिल्ली में यूनानी कालेज खोलकर लखनऊ के अधिवेशन तक वातावरण निर्मल हो जायगा प्रशंसनीय काम किया है। इस सम्बन्ध में मैं यह कहना और कांग्रेसवाले एक दिल से पद-ग्रहण करने अथवा न चाहता हूँ कि सरकार ने डाक्टरी शिक्षा देने में तो कोताही करने का निश्चय कर सकेंगे ? यह अाशा सफल होने की नहीं की, पर इसका कोई प्रबन्ध नहीं किया गया कि कोई अाशा नहीं है, वरञ्च ज्यों ज्यों समय बीतेगा, विदेशों से ओषधियों का मँगाना बन्द किया जाय । भारत त्यो न्यों भावों की तीव्रता बढ़ती ही जायगी । अब तो में सब तरह की जड़ी-बूटियाँ और अोषधियाँ पैदा होती हैं। कार्यसमिति के सदस्यों को भी वादविवाद में पड़ने की बंगाल में हमारे कुछ डाक्टर भाइयों ने दवाइयाँ बनाने स्वतन्त्रता मिल गई है, इससे वाद पर और भी रंग चढ़ का प्रबन्ध किया है, और मैं इस सम्बन्ध में बंगाल केमिकल जायगा । यह विषय ही ऐसा है जिसमें कांग्रेस के भीतर वर्क्स और बंगाल इम्यूनिटी वर्क्स को बधाई देता हूँ। एक-मत हो नहीं सकता।
पर बंगाल में जो कुछ हो रहा है वह अभी बहुत कम - कांग्रेसवालों का उसके नेताओं का कर्तव्य है कि है। इस कार्य का और भी विस्तार होने की बड़ी जनता को प्रश्न समझा और दिशा भी दिखावें । आवश्यकता है। नेताओं का चुप हो रहना और समय पर केवल वोट दूसरा बड़ा प्रश्न है डाक्टरी शिक्षा का । इस समय गिनकर ऐसे प्रश्न का निर्णय कराना सर्वथा अनुचित है। इसके लिए दो मुख्य शिक्षालय हैं—एक तो लखनऊ इसी अर्थ में हम कहते हैं कि इस समय कार्यसमिति को का किंग जार्ज मेडिकल कालेज और दूसरा है आगरे का चाहिए था कि हमें दिशा दिखाती, नेतृत्व ग्रहण करती, मेडिकल स्कूल । ब्रिटिश मेडिकल कौंसिल में उनका न कि टाल-मटूल करती।
रजिस्ट्रेशन नहीं स्वीकार किया जाता इसलिए आगरे के मेडिकल स्कूलवाले नाराज़ हैं। दूसरा बड़ा प्रश्न है
मेडिकल शासन का। इसकी भी तारीख ईस्ट इण्डिया प्राचीन और नवीन चिकित्सा पद्धति कम्पनी के साथ है जब कि कम्पनीवालों को अपनी गोरी ___ संयक्त प्रान्तीय मेडिकल कान्फरेंस में सभापति फ़ौजों के साथ डाक्टर भी विलायत से भेजने पड़ते थे। के आसन से मेजर रंजीतसिंह ने जो भाषण किया गत महायुद्ध से यह प्रमाणित हो गया है कि सब काम गोरे है उसमें आपने बहुत-सी महत्त्व की बातें कही हैं। डाक्टर ही नहीं कर सकते, क्योंकि बहुसंख्यक हिन्दुस्तानी नवीन चिकित्मा-पद्धति के पण्डित होते हुए भी डाक्टरों ने भी महायुद्ध में काम किया था। आई० एम०
आप प्राचीन प्रणाली को प्रोत्साहन देने के पक्ष में एस० के बारे में मैं यही कहूँगा कि केवल ज़िद के ही हैं। अपने भाषण में आपने कहा है
कारण योरपीय डाक्टरों को हिन्दुस्तानियों के मुताबिले मैं भूतपूर्व मंत्री राय राजेश्वरबली को धन्यवाद देता में ऊँचे पद दिये जाते हैं। मैं केवल इतना ही कहूँगा हूँ जिन्होंने सर्वप्रथम देशी चिकित्सा पद्धति को सुधारने के कि ग्रेट ब्रिटेन में इस समय सैकड़ों हिन्दुस्तानी डाक्टर लिए कहा, और सरकार से कुछ सहायता भी दिलवाई। काम कर रहे हैं, जिनमें से कई डाक्टर वहाँ उच्च पदों पर हमें इस पद्धति की ओर सहायता का हाथ बढ़ाना चाहिए. आसीन हैं।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादकीय नौट
योरप की परिस्थिति
__बढ़ाने को प्रवृत्त हुआ है तब यह अवस्था फ्रांस के भय का नाटली ने अबीसीनिया पर अाखिर कारण तो होगी ही और ग्रेट ब्रिटेन भी उसकी उपेक्षा ANS चढ़ाई कर ही दी। उसने नहीं कर सकता । और सा भी उस दशा में जब जर्मनी पहा ब्रिटेन के, साथ ही राष्ट्र-संघ लुथिबानिया के अन्तर्भुक्त अपने मेमल को लोभ-भरी
के विरोध की कुछ भी परवा दृष्टि से देख रहा है । यही देखकर इटली ने अबीसीनिया पर नहीं की। इससे यह एक आक्रमण किया है और यही देखकर फ्रांस ने तथा ब्रिटेन ने बार फिर प्रकट हो गया कि भी उसे ऐसा अन्यायमूलक कार्य करने दिया है। क्योंकि
युद्ध रोकने में राष्ट्र-संघ कहाँ भावी संघर्ष में फ्रांस और ब्रिटेन दोनों को इटली की तक अक्षम है और उसके साथ ही केलाग-पैक्ट श्रादि सहायता की आवश्यकता पड़ेगी और कम से कम फ्रांस अन्तर्राष्ट्रीय समझौते भी निरर्थक हैं। साथ ही यह भी कि उसे सुदूरस्थ अबीसी निया के कारण हाथ से जाने देना राष्ट्र-संघ ने योरप को जिस संगठन में रखने का प्रयत्न उचित नहीं समझता। यह सच है कि जर्मनी इस समय किया था वह कारगर नहीं सिद्ध हुआ। यही नहीं, उसके केवल अपने राष्ट्र का संगठन करना चाहता है, वह युद्ध स्थान में कतिपय राष्ट्रों का अपना अलग संगठित होना के लिए न तो उत्सुक है, न उसके लिए तैयार ही है । परन्तु शुरू हो गया है जो योरप के लिए किसी दिन घातक सिद्ध उसकी निगाह रूस पर ज़रूर है, क्योंकि हिटलर रूस के होगा। कदाचित् इसी भय से ब्रिटेन भी इटली और वर्गवादियों का घोर शत्रु है। और यद्यपि रूस उसकी अबीसीनिया के मामले से बच निकलने का भाव व्यक्त कर मंशा जानता है और उसके भय से उसने फ्रांस, इटली रहा है। यदि ऐसा न होता तो सर सेमुअल होर ने जेनेवा प्रादि से अपने सिद्धान्तों को ढीला कर के समझौता भी कर में जो गर्जन-तर्जन उस दिन किया था तथा ब्रिटेन ने लिया है, तथापि इससे अवस्था में सुधार नहीं हुआ है। भूमध्यसागर में अपने नौबल का जो प्रदर्शन किया था इधर इटली ने अबीसीनिया के ऊपर आक्रमण कर उसे वह सब अाज युद्ध छिड़ जाने पर इतना निस्सार कदापि और भी जटिल बना दिया है। न सिद्ध होता । वास्तव में ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस तथा इनके ऐसी दशा में यदि ब्रिटेन राष्ट्र-संघ के कानूनी दाँवसाथ राष्ट्र-संघ भी यह नहीं चाहते कि योरप में युद्ध छिड़े। पेंचों का अाश्रय लेकर उन्हीं के द्वारा इटली का विरोध
और उधर जर्मनी अपनी ऐसी गति-विधि प्रकट कर रहा करना चाहता है तो यह उसके लिए स्वाभाविक है । जापान है कि फ्रांस के लिए वह हौया हो रहा है। जर्मनी ने ने जब राष्ट्र संघ की उपेक्षा करके मंचूरिया पर आक्रमण पोलैंड से समझौता कर लिया है, उसका हंगरी से भी किया था उस समय भी ब्रिटेन ने इसी तरह के कानूनी हेल-मेल बढ़ रहा है और अब उसने अास्ट्रिया तथा दाँव-पेंच दिखाये थे। तब जो लोग यह समझते हैं कि बेल्जियम की ओर भी अपना मैत्री का हाथ बढ़ाया है। इटली और अबीसीनिया के युद्ध में ब्रिटेन भी शामिल होगा इस प्रकार मध्य-योरप में इन राष्ट्रों का एक संघ-सा बन वे भूलते हैं । योरप का राजनैतिक वायुमण्डल इस समय रहा है। ग्रेट ब्रिटेन की सद्भावना के फल-स्वरूप जर्मनी ऐसे किसी युद्ध के उपयुक्त नहीं है। ने वर्सेलीज़ के सन्धि-पत्र के विरुद्ध अपना सैनिक बल बढ़ा ही लिया है और अब वह जब इस तरह राजनैतिक बल
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७६
सरस्वती
[भाग ३६
इटली और अबीसीनिया ___ करता है । इस समय तो वह दो ही राष्ट्रों के बीच में हो अबीसीनिया पर इटली का जो आक्रमण हुअा है रहा है, जिनमें एक अर्थात् अबीसीनिया आक्रान्त है और उसे राष्ट्र-संघ ने भी अन्यायमूलक घोषित किया है । परन्तु इतना साधनरहित है कि वह अपने शत्रु के श्रागे अधिक इटली को इसकी परवा नहीं और वह अबीसीनिया को समय तक ठहर नहीं सकता। चाहे जो हो, इस युद्ध से हड़प लेने को कटिबद्ध है। इटली उसकी अपेक्षा कहीं इतनी बात भले प्रकार स्पष्ट हो गई है कि जिसकी लाठी अधिक सभ्य और बलसम्पन्न है। ऐसी दशा में अबीसी निया उसकी भैंसवाला सिद्धान्त अाज भी सोलहो अाने ठीक और उसकी क्या बराबरी है। इसमें सन्देह नहीं कि अबी- दिखाई दे रहा है और यह दिखाई दे रहा है कि वर्तमान सीनिया यों ही डर कर तलवार नहीं रख देगा, वह अपनी योरपीय सभ्यता की चमक-दमक के पीछे दानव-युग की शक्ति के अनुसार इटली से डटकर युद्ध करेगा। परन्तु असभ्यता पहले की ही भाँति आज भी खुलकर खेल इस युद्ध में अन्त में उसी का पराभव होगा । इटली क्या, रही है । इस बात को सारी दुनिया जानती है। तथापि अबीसीनिया के सम्राट काफ़ी चतुर राजनीतिज्ञ हैं । इसका
देश की दुरवस्था प्रमाण उन्होंने पिछले दिनों बार बार दिया है। ऐसी इस समय जहाँ कांग्रेस में फूट पड़ी हुई है और उसके दशा में कौन कह सकता है कि इस संकट-पूर्ण अवस्था छोटे-बड़े नेता परस्पर लड़-झगड़ रहे हैं, वहाँ दूसरी ओर का सामना करने के लिए उन्होंने यथाशक्ति पहले से सम्प्रदायवादियों का बोलबाला हो रहा है । पंजाब में इस तैयारी न की होगी ? तो भी इटली के आगे वह सारी समय शहीदगंज के मामले को लेकर सिक्खों और मुसलतैयारी उनकी रक्षा न कर सकेगी। और यदि कोई वैसी मानों में जिस वैमनस्य का बीज बोया गया है उसने बहुत ही विचित्र घटना न हो गई तो वह दिन दर नहीं है जब ही उग्र रूप धारण कर लिया है। मुसलमान यहाँ तक अबीसीनिया को इटली के आगे घुटना टेकना पड़ेगा। क्रुद्ध हो उठे हैं कि उन्होंने सिक्खों के साथ हिन्दुओं से भी एक तो उसे आधुनिक शस्त्रास्त्रों से सजित किसी राष्ट्र की व्यवसाय व्यापार न करने का आन्दोलन शुरू कर दिया सहायता नहीं प्राप्त हो सकी, दूसरे वह स्वयं इटली के है और यदि सरकार के हस्तक्षेप करने का डर न होता तो समान तैयार नहीं है। तब उसे अपने बल से ही शत्र अब तक सारे पंजाब में नहीं तो कम से कम उसके सभी का सामना करना पड़ेगा। और उसका वह बल ऐसा मुख्य मुख्य शहरों में मुसलमानों की सिक्खों और हिन्दुओं नहीं है कि इटली उसे पददलित करने से विमुख हो से खूनी भिड़न्त हुए बिना न रहती। निस्सन्देह अब इस जाय । परन्तु योरप की वर्तमान दशा को देखते हुए यह विकट दशा की ओर कुछ इने-गिने मुसलमान नेताओं का बात भी निश्चय-पूर्वक नहीं कही जा सकती कि ऐसा ही ध्यान गया है और उन्होंने इस विषम परिस्थिति को काबू होगा । यह भी बहुत कुछ सम्भव है कि राष्ट्र-संघ के अपने में लाने का कुछ प्रयत्न भी किया है, परन्तु ऐसे लक्षण सिद्धान्तानुसार इटली का आर्थिक बायकाट करने पर नहीं दिखाई देते कि पंजाब के इस गृह-कलह पर वे अपना उससे बायकाट में प्रमुख भाग लेनेवाले राष्ट्रों का संघर्ष न उपयुक्त प्रभाव डाल सकेंगे। हो जाय । उस दशा में यह दो राष्ट्रों का युद्ध योरप के इधर कांग्रेस में अलग विशृंखलता बढ़ रही है। और महायुद्ध में परिणत हो सकता है । इसी स्थिति को बचाने इसका सबसे अधिक खेद जनक रूप लखनऊ के कांग्रेसी के लिए ग्रेट ब्रिटेन के राजनीतिज्ञों ने पिछले दिनों अपना नेताओं ने दिखाया है । यों तो साम्यवादी कांग्रेसी शुरू उग्र रूप दिखाया था। परन्तु मुसोलिनी के इटली ने उस से ही अपना मतभेद प्रकट करते हुए कांग्रेस के प्रधान सबकी उपेक्षा करके युद्ध छेड़ ही दिया। अब देखना है प्रधान नेताओं का विरोध करते श्रा रहे हैं, परन्तु इधर कि उसका यह युद्ध आनेवाले दिनों में कैसा रूप धारण जब से नया शासन-विधान पास हुआ है और नये
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
सम्पादकीय नोट
शासन-प्रबन्ध में कांग्रेसियों के सरकारी पद-ग्रहण करने लब है कि मुसलमान यदि मुसलमानों से हो खरीदेंगे तो का प्रश्न उठ खड़ा हुआ है तब से कांग्रेसवालों में और भी मुसलमान का पैसा मुसलमान के ही पास रहेगा और अधिक मतभेद हो गया है। लोगों का अनुमान है कि इससे मुसलमान-जाति की आर्थिक दशा सुधरेगी। और पद-ग्रहण करने के पक्ष में कांग्रेस के बड़े बड़े सूत्रधार हैं, यह विचार प्राचीन 'बैतुल-माल' के विचार से मेल अतएव जो लोग उस के पक्ष में नहीं हैं वे अपना तीव्र खाता है । बैतुल-माल अर्थात् सार्वजनिक काष की व्यवस्था मतभेद प्रकट कर रहे हैं और ऐसा जान पड़ता है कि सदा मुसलमानी देशों में रही है और उसके धन से कांग्रेस का यह गृह-कलह उसके अगले अधिवेशन में आपद्ग्रस्तों की सहायता होती रही है । अपने उक्त अान्दोसूरत की तरह उसकी सूरत बिगाड़ने में ज़रा भी अागा- लन से पीर साहब इसी बैतुल-माल की फिर स्थापना करना पीछा नहीं करेगा।
चाहते हैं, जिससे मुसलमानी उद्योग-धन्धों का पुनरुजीवन ___इस प्रकार एक ओर कांग्रेस की फूट और दूसरी किया जा सके। इस अान्दोलन का उद्देश किसी का
ओर साम्प्रदायिक कलह देश की शान्ति और व्यवस्था के बायकाट करना नहीं है, न पि केटिंग करना है। ये महाविघातक सिद्ध हो रहे हैं और देश के वे सभी नेता चुप- नुभाव यह भी कहते हैं कि बायकाट और पिकेटिंग मुसचाप बैठे इस सारी दुरवस्था की उपेक्षा कर रहे हैं जो लमानी विचार नहीं हैं, ये तो हिन्दू चीजें हैं । पीर साहब देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर चुके हैं। जान के समर्थकों की ये दलीलें सरल और स्पष्ट हैं । इनसे पड़ता है कि इस समय प्रतिक्रियावादियों ने देश में अपना किसी का विरोध भी नहीं हो सकता है। परन्तु कठिनाई महत्त्व बढ़ा लिया है, उन्होंने राष्ट्र के संयम और बुद्धि को सिर्फ यही है कि यदि उनके अनुकरण पर भारत की दूसरी हतप्रभ कर दिया है । इस समय देश की ऐसी ही भीषण जातियाँ भी अपने अपने 'बैतुल-माल' स्थापित करने लग दुरवस्था है। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि यह सब जायँगी तो इसका परिणाम क्या होगा । क्या इससे राष्ट्र के नेता महात्मा गांधी की आँखों के सामने हो राष्ट्रीय भावना के विकास में बाधा नहीं पहुँचेगी जो वर्षों रहा है। इससे अधिक दुःख की और क्या बात हो के परिश्रम और अात्मत्याग के बाद इस देश में पल्लसकती है !
वित हो चुकी है ? परन्तु पीर साहब के अनुयायी राष्ट्रीय
भावना का इस देश में अस्तित्व ही नहीं स्वीकार करते । 'बैतुल-माल' का प्रश्न
न सही, किन्तु उनके इस आन्दोलन से क्या वे पारस्परिक शहीदगंज के मामले के बाद से पंजाब के मुसलमानों व्यवहार-बन्धन नहीं टूट जायँगे जो गत सात सदियों से के एक बड़े समूह ने 'मुसलमानों से खरीदो' का जो यहाँ जड़ पकड़े हुए हैं। इस अान्दोलन के पुरस्सर
आन्दोलन खड़ा किया है उसकी निन्दा दिल्ली के मुस- कर्ताओं को समझ लेना चाहिए कि यह बेल मड़ये नहीं लमानों ने खुल्लमखुल्ला की है । उक्त आन्दोलन के प्रवर्तक चढ़ेगी, बल्कि इसके बढ़ने पर भारतीय सामाजिक पोर जमायतअली शाह उस दिन जब अपने प्रचार अवस्था सारी की सारी इस तरह बिगड़ जायगी कि उसके के दौरे के सिलसिले में दिल्ली में पधारे थे तब वे वहाँ सुधरने में युगों का समय लगेगा। खेद की ही नहीं, बड़े अपना प्रचार नहीं कर सके और दिल्ली के मुसलमानों ने परिताप की बात तो यह है कि जो लोग इस घातक उनकी बात सुनने से इनकार कर दिया। यह देखकर अवस्था का सारा भेद समझते-बूझते हैं वे भी इस समय पीर साहब के अनुयायियों ने अब एक दूसरी चाल चली या तो उसकी उपेक्षा कर रहे हैं या एक-दो वक्तव्य निकाल है। वे उक्त आन्दोलन को 'बैतुल-माल' के सिद्धान्त कर अपने कर्तव्य से छुट्टी पा लेते हैं । परन्तु सबसे अधिक पर आश्रित बताकर उसे धार्मिक बाना पहनाना चाहते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि रावी के तट पर स्वाधीउनका कहना है कि इस आन्दोलन का केवल यही मत- नता का बिगुल फूंकनेवाली कांग्रेस भी पंजाब के इस
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७५
सरस्वती
· 44
भीषण आन्दोलन के प्रति तटस्थ की नीति ग्रहण - सा किये हुए है । निस्सन्देह, पंजाब का यह ग्रान्दोलन अपने ढङ्ग का एक विकट आन्दोलन है और इसका परिणाम देश की शान्ति और व्यवस्था के लिए अन्त में उसी प्रकार घातक सिद्ध होगा जैसा कि ऐसे ग्रान्दोलन यहाँ सिद्ध हो चुके हैं । अतएव हिन्दू-मुसलमान – दोनों जातियों के नेताओं को इसकी ओर समुचित रूप से ध्यान देना चाहिए ।
बुनकरों के उन्नति की योजना
ग्राम-सुधार के सम्बन्ध में भारत सरकार ने जो व्यवस्था की है उसके अनुसार प्रान्तीय सरकारें अपने अपने प्रान्त में कार्य करने लग गई हैं। संयुक्त प्रान्त में इस सिलसिले में जो योजना कार्य में परिणत की जा रही है उसमें हाथ के बने कपड़े को प्रोत्साहन देने का भी प्रबन्ध किया गया है। इस कार्य के लिए प्रान्तीय सरकार ने गत अप्रेल में १५ निरीक्षक यह बात जाँच करने के लिए नियुक्त किये थे कि कहाँ कहाँ कितना कपड़ा बुना जाता है तथा - कितने बुनकर हैं एवं उनके तैयार किये हुए माल की कैसी खपत है। इन लोगों की जाँच का काम समाप्त हो गया है और अब उनकी रिपोर्ट शीघ्र ही प्रकाशित होगी। इसके बाद प्रान्तीय उद्योग-धन्धा - विभाग उन पर विचार कर कपड़े की बुनाई के धन्धे का समुन्नत करने के विचार से अपने निश्चयों को कार्य में परिणत करेगा ।
उपर्युक्त जाँच से पता लगा है कि बुनकरों को सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि वे अपना बनाया माल बेच नहीं पाते । यह भी मालूम हुआ है कि प्रान्त के पश्चिमी ज़िलों की अपेक्षा पूर्वी जिलों में बुनकरों की दशा संतोषजनक है। पश्चिमी जिलों के बुनकरों की जहाँ ६-७ रुपया मासिक औसत प्राय है, वहाँ पूर्वी जिलों के बुनकरों की औसत आय १६ से २० रुपया मासिक तक है। प्रान्तीय सरकार की इस सम्बन्ध की कार्यवाही का यहाँ के बुनकरों पर अच्छा प्रभाव पड़ा है और उन्हें श्राशा हुई है कि सरकार उनके तैयार किये हुए माल की बिक्री का समु
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
चित प्रबन्ध करके उनके धन्धे को समुन्नत करेगी। उनके लिए प्रान्तीय सरकार लखनऊ में एक ऐसी बड़ी दूकान खोलने का प्रयत्न कर रही है जहाँ वह भिन्न भिन्न केन्द्रों के बुने हुए कपड़ों के नमूने तथा विक्रयार्थ कपड़े रखकर उनके प्रचार का प्रबन्ध तथा लोक- रुचि का परिचय प्राप्त करना चाहती है । इस दूकान के साथ सरकार १२ कनवेसर भी नियुक्त करेगी जो सारे प्रान्त में घूमकर बुने हुए कपड़े की बिक्री की व्यवस्था करेंगे। सरकार यह भी प्रबन्ध करने का प्रयत्न करना चाहती है कि वह बुनकरों
उनका सारा माल खरीद कर लिया करे । प्रारम्भ में वह केवल सहयोग समितियों से सम्बन्धित बुनकरों का ही माल खरीद करेगी। आशा है, इस व्यवस्था से इन प्रान्तों के बुनकरों का धन्धा अधिक उन्नत हो जायगा ।
शर्मा जी का सत्याग्रह
जयपुर के पण्डित रामचन्द्र शर्मा देवी मन्दिरों में पशुबलि के विरुद्ध दो-चार जगह अनशन व्रत करके उसे रोकने का उपक्रम कर चुके हैं । कहते हैं कि उन्हें अपने इस प्रयत्न में सफलता भी मिली है। फलतः उन्होंने इस बार कलकत्ते के प्रसिद्ध काली मन्दिर में होनेवाली पशुबलि को रोकने के लिए आमरण अनशन व्रत प्रारम्भ किया । परन्तु कलकत्ते में उनके इस प्रयत्न का वहाँ के बंगाली शाक्तों ने विरोध किया, जिसके फलस्वरूप वहाँ के अधि कारियों ने उन पर तथा उनके अनुयायियों पर ऐसे प्रतिबन्ध लगा दिये कि शर्मा जी को काली मन्दिर से काफ़ी दूर रह कर अपना भीषण प्रदर्शन करना पड़ा। वे वहाँ ३२ दिन तक निरन्न पड़े रहे। इस बीच में उनके पक्ष में काफ़ी आन्दोलन होता रहा अन्त में महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय जी के बीच में पड़ने पर उन्होंने अपना सत्याग्रह एक वर्ष के लिए स्थगित कर दिया । कुछ लोगों ने उन्हें यह लिखकर वचन दिया है कि बलि प्रथा रोकने के लिए उन्हें प्रचारार्थ एक वर्ष का समय दिया जाय । इस प्रकार शर्मा जी ने अपना अनशन भंग किया जो सचमुच बड़े सन्तोष की बात है ।
।
इस प्रसंग पर कुछ लोगों ने ऐसा भाव प्रकट किया है।
www.umaragyanbhandar.com
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५]
सम्पादकीय नोट
कि हिन्दुओं में प्रचलित पशुबलि के रोकने के लिए ऐसे यही नहीं, वे ऐसी अनर्गलता का तूफान उठाकर खड़ा अत्र के प्रयोग की क्या ज़रूरत है जब स्वयं उनका एक कर देते हैं कि सिवा चुप रह जाने के उस सम्बन्ध में विशाल समूह उस प्रथा का घोर विरोधी है। हिन्दु यों कुछ लिखने का माहम ही नहीं होता। जब कोरी सम्मतियाँ में कुछ नामधारी शाक्त स्मात ही इस प्राचीन प्रथा देकर ये मानी लेखक अपने कथन का समर्थन करना के हामी हैं । उनका विशाल समूह तो जैनधर्म के अहिंसा- चाहते हैं तब रनम वाद-विवाद करना विशुद्ध वितण्डावाद का या तो अनुयायी है या सुधारवादी नये समाजों वाद करना हो जाता है । परन्तु इस सम्बन्ध में मौन हो के अन्तर्भुक्त है । फिर जैनधर्म के प्रमुख नेता तो हिन्दुओं जाने या उनकी अनर्गलता की उपेक्षा करने में भी तो के मन्दिरों की बलि प्रथा का बन्द करने का अान्दोलन हिन्दी के अहित की ही मम्भावना है । ऐसी दशा में क्या अब तक बराबर करते ही पाये हैं। ऐसी दशा में शर्मा करना चाहिए, यह वास्तव में एक प्रश्न है । हिन्दी के जी जैसे वीर पुरुषों को इस साधारण प्रथा का उन्मूलन हितचिन्तकों का इस हल करने के लिए प्रवृत्त होना करने के लिए ग्रामरण उपवास का ग्राश्रय लेना महात्मा चाहिए । जी के इस अमोघ अस्त्र का दुरुपयोग करना ही कहा जायगा । तथापि जो कुछ हुया मा हो गया। भविष्य के स्वर्गीय श्रीमती गमश्वरी देवी 'चकोरी' लिए उन्हें सावधान होकर ही अनशन-यन्त्र का प्रयोग श्रीमती रामेश्वरी देवी चकोरी के स्वर्गवास का करना चाहिए । जब उनके अान्दोलन को देश के बड़े बड़े ममाचार सुनकर किस हिन्दी प्रेमी का हृदय दुःखी न नेताओं की सहानुभूति प्राप्त है तब उसे वे अन्य उपायों में भी भले प्रकार सफलता प्रदान कर सकते हैं ।
एक प्रश्न हिन्दी के क्षेत्र में इस समय पालोचकों का अच्छा दौर दौरा है। जिसे देखो वही अपनी मनमानी सम्मतियों को लेखबद्ध कर उने ग्रालोचना के नाम से लोगों की आँखों में धूल झोंकने का उपक्रम कर रहा है । और तो और, इस प्रवृत्ति को हिन्दी की उच्च संस्थायें तथा दिग्गज नेता तक पुरस्मर करते दिखाई दे रहे हैं । इस पद्धति के हिन्दी में प्रचलित हो जाने में माहित्यिकों में जो कटुता बढ़ रही है उससे हिन्दी का अहित ही हो रहा है। खेद की बात है कि लेखकों का ध्यान इस योर नहीं जा रहा है और वे अपनी मनमानी करने के सरल मार्ग का अनुधावन करना ही अपने लिए श्रेयस्कर समझ रहे हैं । लेखकों की यह प्रवृत्ति बाम्नव में निन्दनीय है, पर गुटबन्दी के वर्तमान युग में इसकी और कोई ध्यान नहीं दे
स्वर्गीया श्रीमती रामेश्वरीदेवी मिश्र 'चकोरी'] रहा है। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति की किसी निराधार सम्मति का विरोध करने का साहम करता होगा। आपने अल्यावस्था में ही सुन्दर कवितायें लिखकर है तो उसे सम्मतिदाता के चेले लोग काटने दौड़ते हैं। हिन्दी की कवियित्रियों में अपना एक विशेष स्थान बना
NET
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८०
सरस्वती
[भाग ३६
+
+
+
+
+
+
+
लिया था और यदि यक्ष्मा का उन पर यह घातक आक्र. था और पहले दिन की कार्यवाही में बीमारी की अवस्था मण न होता तो निस्सन्देह हिन्दी-कविता की श्री-वृद्धि में में भी सम्मेलन के मंडप में आप पधारे थे । साहित्यिक उनका बहुत कुछ हाथ होता । पिछले दो वर्षो से ज्यों और सामाजिक कार्यों में आप बरावर अार्थिक सहायता ज्यों उनकी ख्याति बढ़ी त्यों त्यों उनका स्वास्थ्य भी गिरता देते और उनमें दिलचस्पी लेते रहते थे। ईश्वर गया और अन्त में हमें हिन्दी की इस श्रेष्ठ कवियित्री के श्रापको सद्गति और आपके कुटुम्बियों को धैर्य प्रदान करे, निधन का असामयिक समाचार सुनना पड़ा। स्वर्गीय यही हमारी कामना है। - चकोरी जी के पति श्रीयुत अरुण जी जो कि स्वयं एक मरा हुआ बाप बेटी का ब्याह देखने आया साहित्यिक हैं के प्रति इस अवसर पर हम अपनी हार्दिक बहुतों का यह खयाल है कि मृत्यु के बाद भी समवेदना प्रकट करते हैं।
मनुष्य इस संसार से सम्बन्ध रखता है। बहुत-से लोग । डाक्टर साजूप्रसाद तिवारी का स्वर्गवाल मृतात्मा को बुलाते और उससे बातें करते सुने गये हैं।
हमें दुःख के साथ लिखना पड़ता है कि डाक्टर सरजू- हाल में एक बहुत ही आश्चर्य जनक घटना हुई है उसका प्रसाद तिवारी का इन्दौर में स्वर्गवास हो गया । डाक्टर यहाँ उल्लेख करते हैं । पटना के प्रतिष्ठित व्यक्ति रायबहादुर साहब इन्दौर ही में नहीं, इन्दौर के बाहर भी बहुत श्री विनोदबिहारी मजूमदार, एम० ए०, बी० एल०, लोकप्रिय थे और उनकी माहित्यिक और मार्वजनिक की यह आँखों देखी घटना है जो इस प्रकार हैसेवायें भुलाई नहीं जा सकेंगी। 'मध्यभारत हिन्दी- रायबहादुर का लड़का सन् १९२४ में स्वर्गवासी हुआ साहित्य-समिति' जिसका प्रधान कार्यालय इन्दौर में था। वह अपने पीछे एक लड़की छोड़ गया था। गत मार्च
में उस लड़की का विवाह था । विवाह के समय रायबहादुर ने ही नहीं, वहाँ जो लोग भी उपस्थित थे सबों ने उस म्वर्गीय लड़के को अपनी लड़की के पास बैठे हुए देखा और पहचाना। उसके साथ ६ व्यक्ति और थे, जिन्हें कोई नहीं पहचान सका । शायद वे उसके दूसरे लोक के साथी थे। इतना ही नहीं, इस मृत पुत्र ने अपनी मा (रायबहादुर की। स्त्री) को जो मंडप की दूसरी ओर बैठी थीं, पुकारा भी। __इस घटना का वर्णन रायबहादुर ने इस ढंग से और इतने करुणोत्पादक शब्दों में किया कि सभा में जो लोग उपस्थित थे सबों की अाँखों में आँसू आ गये।
रायबहादुर एक ज़िम्मेदार व्यक्ति हैं, और उनका
अविश्वास नहीं किया जा सकता । किसी अवसर पर हो [ स्वर्गीय डाक्टर सरजप्रसाद तिवारी]
सकता है कि पुत्रवियोग से पीड़ित उनकी आत्मा ऐसा स्वप्न
देख सकती है, उनकी स्त्री को भी ऐसा अनुभव हो सकता है-बहुत कुछ अापके ही प्रयत्न का फल है। पिछली है। पर विवाह में उपस्थित सभी व्यक्तियों को यह मृत बार ईस्टर के दिनों में इन्दौर में हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का पुत्र कैसे दिखाई पड़ा और उसकी आवाज़ भी सुनाई पड़ी, वार्षिक अधिवेशन हुअा था तब आप उसके स्वागताध्यक्ष यह एक प्रश्न है, जिस पर मनोवैज्ञानिकों और प्रेतात्मा या थे। उस समय भी आपका स्वास्थ्य चिन्त्य था, तथापि दूसरे लोक में विश्वास न रखनेवाले वैज्ञानिकों के लिए आपने यथाशक्ति स्वागत-समिति के कार्यों में भाग लिया विचार करने के योग्य है।
MARPAN
Printed and published by K. Mittra at The Indian Press, Ltd., Allahabad.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारत का फूल
[चित्रकार-श्रीयुत वेदरतन वर्मा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
सचित्र मासिक पत्रिका
दिसम्बर १९३५ }
सम्पादक
देवीदत्त शुक्ल श्रीनाथसिंह
भाग ३६, खंड २ संख्या ६, पूर्ण संख्या ४३२
लेखक, श्रीयुत सुमित्रानन्दन पन्त
तारों का नभ ! तारों का नभ ! सुन्दर, समृद्ध, आदर्श सृष्टि ! जग के अनादि पथ-दर्शक वे,
मानव पर उनकी लगी दृष्टि ! वे देव-बाल भू को घेरे,
भव भव की कर रहे पुष्टि ! सेबों की कलियों-सा प्रभूत वह भावी जग-जीवन-विकास !
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
{ मार्गशीर्ष १६६२
मानव का विश्व - मिलन पवित्र, चेतन आत्माओं का प्रकाश !
तारों का नभ ! तारों का नभ ! अंकित अपूर्व आदर्श सृष्टि ! शाश्वत शोभा का खिला दन,
होने को है पुष्प वृष्टि ! चाँदनी चेतना की अमन्द, ग-जग को छू दे रही तुष्टि !
----
www.umaragyanbhandar.com
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
जवाहरलाल नेहरू
और हिन्दू-संस्कृति
भाई परमानन्द जी ने अगस्त की 'सरस्वती' में "स्वराज्य क्या है ?" शीर्षक एक लेख लिखा था। उसके उत्तर में पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने एक लेख प्राक्टोबर की 'सरस्वती' में "भाई परमानन्द और स्वराज्य' शीर्षक से लिखा था। भाई जी का यह लेख नेहरू जी के उसी लेख के प्रत्युत्तर में लिखा गया
है। आशा है इस विवाद से इस जटिल प्रश्न पर समुचित प्रकाश पड़ेगा।
जा राज्य के बारे में मैंने पिछले मैं यहाँ नहीं ले सकता, क्योंकि उस दशा में लेख av a दिनों एक लेख "स्वराज्य बहुत ही लंबा हो जायगा। फिर भी मैं उन कुछ
क्या है ?" लिखा। अल- सवालों को लेकर जवाब देने का प्रयत्न करूँगा जो
मोड़ा में रहते हुए पं० पं. जवाहरलाल के दिल में पैदा हुए हैं।
ATM जवाहरलाल नेहरू ने उसे असली विषय को लेने से पूर्व मैं इतना निवेदन ISABा पढ़ा। ऐसा मालूम होता कर देना चाहता हूँ (अगर यह धृष्टता न समझी
है कि उसे पढ़कर उनके जाय) कि इस विषय पर पंडित जी के अपने विचार विचारों को थोड़ी-सी ठोकर लगी और उन्होंने इस बहुत साफ़ या स्पष्ट नहीं हैं। इस बात को उन्होंने विषय पर अपने विचारों को लेखबद्ध करना आवश्यक अपने लेख के अंत में इस प्रकार स्वीकार किया समझा। अपने लेख में पंडित जी ने न सिर्फ अपना है-"पुराने इतिहास और आधुनिक संसार की पक्ष पेश करने का यत्न किया है, बल्कि कई स्थलों राजनीति पर विचार करते हुए दिमाग में खयालात पर यह इच्छा प्रकट की है कि कुछ एक बातों पर मैं का एक हुजूम पैदा हो जाता है । कलम उनका साथ अपने विचार खोल कर स्पष्ट करूँ। पं. जवाहरलाल नहीं दे सकता। वह बेचारा तो धीरे-धीरे काग़ज़ पर जैसे राजनैतिक स्थिति रखनेवाले व्यक्ति जब काली लकीरें खींचता है, विचारों की दौड़ में बिलमुझसे कुछ सवाल करें तब मेरे लिए यह एक प्रकार कुल पिछड़ जाता है। उसकी धीमी रफ्तार से से कर्तव्य हो जाता है कि मैं उनका उत्तर हूँ। लेख में उलझन पैदा होने लगती है।" कई बातों को छुआ गया है। उनमें से हर एक को जब वस्तु-स्थिति ऐसी हो तब मेरी राय है कि
४८२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
. लेखक, श्री भाई परमानन्द जी, एम० ए०,
एम० एल० ए०
हमें एक-दूसरे के विचारों पर चाहे वे कितने ही कला आदि सम्मिलित हैं)। परंतु इसके साथ-साथ परस्पर-विरोधी हों, बड़ी गंभीरता से ध्यान देना हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हर जातीयता के चाहिए ताकि हम किसी मही नतीजे पर पहुंच सकें। बनने के लिए इन सभी तत्त्वों का होना ज़रूरी नहीं
पं. जवाहरलाल का पहला प्रश्न यह है"स्वराज्य में स्व (सेल्फ) क्या है ? (और अगर
कांग्रेस ने खिलाफ़त के मजहबी अांदोलनइसका संबंध 'हिन्दू' शब्द से है तो) भाई जी की
द्वारा इस्लामी जोश भड़कायाः हिन्दू मुस्लिमराय में हिंदूत्व क्या है ?"
एकता पर असाधारण एवं अनावश्यक ज़ोर वास्तव में यह एक मौलिक प्रश्न है। इससे पूर्व
देकर मुसलमानों के दिमाग़ को सिर पर कि इस बात का जवाब दिया जाय कि हमारा
चढ़ाया; एकता-सम्मेलनों के द्वारा तथा कोरे 'सेल्फ' क्या है और हमारा हिन्दुत्व क्या है, मैं यह
चेक दे-दे कर हिन्दू-हितों को कुर्बान किया; . बताना आवश्यक समझता हूँ कि वर्तमान जातीयता
सांप्रदायिक निर्णय जैसे प्रजासत्ता एवं राष्ट्र(नेश्नेलिटी) का विचार यारप में करीब दो सौ वर्ष
विरोधी फ़तवे पर मौन धारण किया-ये पूर्व से पैदा हुआ है और विभिन्न अवस्थायें या
घटनाएँ एवं तथ्य ऐसे हैं जिनसे एक अंधा मंज़िलें तय करता हुआ वतमान रूप में हमारे सामने
अादमी भी साफ़ नतीजा निकाल सकता है आया। जान स्टुअट मिल तथा अन्य विद्वानों ने
कि अगर कांग्रेस की नीति इसी प्रकार चलती जातीयता की परिभाषा करते हुए बतलाया है कि
रही तो हिन्दू दिन-प्रतिदिन कमज़ोर होते वह कई बातों के मिलने से बनती है। उदाहरणार्थ
और मिटते चले जायेंगे। खून या नस्ल का एक होना, देश का एक होना, भाषा का एक होना, मजहब और गवर्नमेंट का एक
दू परमाला होना, और, इन सबसे बढ़कर, संस्कृति का एक होना (संस्कृति में इतिहास, परंपरायें, त्योहार, दर्शन,
४८३
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
है। इनमें से कोई दो-तीन भी ऐसे मजबूत हो सकते मैंने बताया था कि ज्यों ही इन देशों ने इस्लाम हैं कि वे, अन्य भेद-भावों की विद्यमानता में स्वीकार किया, त्यों ही इनकी अपनी-अपनी असली भी, जाति बना दें। जातीयता के वास्तविक भाव जातीयता मिट गई और अरवी-सभ्यता में जज्ब हो (स्पिरिट) को समझना बहुत आसान हो जाता जाने से ये एक प्रकार के स्थायी दासत्व का शिकार है, अगर हम एक मनुष्य के जीवन को अपने बन गये। पं. जवाहरलाल ने मिस्र का उदाहरण संमुख रख लें। छः-सात बरस का बच्चा है। उसका लिया है। उन्होंने कहा है कि मिस्र में कई हजार रङ्ग-रूप और बौद्धिक अवस्था बच्चों की-सी है। वर्ष तक एक सभ्यता रही। "फिर क़रीब २,२०० वर्ष वही बच्चा बड़ा होकर लड़का बनता है और फिर हुए सिकंदर ने मिस्र फतह किया और इसके बाद जवान होता है। बाद में बूढ़ा हो जाने पर उसके रोमवासियों ने । १,३०० बरस हुए मुसलमानों ने शरीर और दिमाग़ में अगणित परिवर्तन आ जाते हैं। उसको विजित किया। इस पर पण्डित जी का परन्तु एक बुड्ढा आदमी भी अपने छुटपन की हालत सवाल है कि मेरे पहले लेख में किस युग के मिस्त्रियों को याद करके इस बात का ज्ञान रखता है कि को असली जाति कहा गया है। इसका उत्तर यह है उसका जीवन बचपन से लेकर बुढ़ापे तक बराबर, कि जब तक मिस्र-वासियों ने अपने अंदर जातीय सिलसिलेवार, एक ही चला आता है। जीवन का अनुवर्तन या सिलसिले (Continuity) को कायम इस प्रकार जारी रहना या जीवन-अनुवर्तन (Conti- रक्खा और जब तक उनके अंदर यह भाव विद्यnuity of Life) ही वास्तविक जातीयता है। मान रहा कि वे उसी जाति में से उत्पन्न हुए हैं
यदि हम जातीयता के इस सिद्धान्त को अच्छी जिसने पिरामिडों को बनाया और योरप में तरह से समझ लें तो 'स्व' या 'हिंदूत्व' के विचार अपनी सभ्यता फैलाई, तब तक वे चाहे स्वाधीन के विषय में जितने प्रश्न या संदेह पं० जवाहरलाल रहे, चाहे रोमन लोगों के अधीन रहे या यूनानियों ने किये हैं, वे खुद-ब-खुद मिट जाते हैं । हिन्दुओं के के, उनकी जातीयता बराबर बनी रही। परंतु वर्णो या जातियों के विभाजन को, उनके सामाजिक जब अरबवासियों ने मिस्र को विजित करके संस्कारों और रस्मों को, उनके विभिन्न मत-मतान्तर को मिस्रवासियों को उनके समस्त भूत (Past) से अलग ! मैं हिन्दुओं की जातीयता नहीं समझता, बल्कि जाति कर दिया तब उस समय मिस्री-जाति मिट गई और के लिए एक प्रकार का लिबास खयाल करता हूँ, जिसे तब मिस्र में उस बड़े शानदार मिस्त्री वृक्ष के स्थान बनाये रखना या बदल देना जाति के अपने इख्ति- में अरब की एक शाखा गाड़ दी गई। यार की बात है। और, इसमें कोई परिवर्तन कर देने यह बात ब्रिटेन के इतिहास से भी भली भाँति से जाति मिट नहीं जाती, बल्कि इसे एक प्रकार की प्रकट हो जाती है। ब्रिटेनवासी जो केल्ट (Celts) उन्नति (Progress) का साधन समझा जा सकता कहलाते थे, तीन सौ वर्ष तक रोमन-शासन के है। इस प्रश्न पर दो प्रकार के लोग पाये जाते हैं; अधीन रहे। रोमन-दासत्व के होते हुए उनका एक वे जो परिवर्तन के खिलाफ़ होते हैं-रूढ़िवादी मजहब, संस्कृति और जातीयता बने रहे । (उनके (Conservative ) और दूसरे तबदीली-पसंद मजहब, और रीति-रवाज पुराने आर्यो -जैसे और (Progressive)।
वर्तमान हिन्दुओं से मिलते-जुलते थे।) जब एंग्लो___ इस अवसर पर एक अन्य बड़े सवाल का सेक्सन लोगों ने ब्रिटेन पर आक्रमण करने आरंभ जवाब भी दे दिया जाय तो कोई हर्ज न होगा। किये तब उन्होंने अपनी जीतों के साथ ब्रिटेनअपने लेख में मिस्र, ईरान आदि के उदाहरण देकर वासियों को मिटा दिया और उस जाति के स्थान
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
जवाहरलाल नेहरू और हिन्दू-संस्कृति
४८५
में एंग्लो-सेक्सन नस्ल न सिर्फ़ शासक बन गई, हिन्दूत्व उड़ गया है वे भारत पर आक्रमण करनेवाले बल्कि वहाँ की जाति कहलाने लगी।
महमूद ग़ज़नवी, मुहम्मद गोरी, तैमूर, बाबर आदि ___ इसी प्रकार जो कुछ मिस्र में हुआ, ठीक वही शत्रों को स्मरणीय पर्वज और क़ौमी 'हीरो' ईरान में हा। जब अरबी फौजों ने ईरान को समझते हैं। विजित किया और सभी ईरानियों को मुसलमान अपने पहले लेख में मैंने इस बात को नहीं छेड़ना बनाना चाहा तब उन ईरानियों के सामने जो चाहा कि स्वतन्त्र भारत की गवनमेंट का क्या अपनी जाति से प्रेम करते थे, यह सवाल पैदा हुआ रूप हो; वह लोकतंत्रात्मक हो या प्रजातंत्र, साम्यकि या वे जातीयता को तिलांजलि दे दें या देश वादी हो या फेसिस्ट । परंतु इतनी बात मैं जरूर कह को। कुछ हजार ईरानियों ने अपनी जाति और देना चाहता हूँ कि राजनैतिक या आर्थिक स्वतंत्रता मज़हब को बचाना श्रेयस्कर समझा और कश्तियों का सांस्कृतिक और सामाजिक स्वतंत्रता से आसानी में बैठकर अनहलवाड़ा (गुजरात) आ पहुँचे । (इनकी के साथ भेद किया जा सकता है। भारत सदियों संतानें आज-कल के भारतीय पारसी हैं।) यह बात तक मुसलमान बादशाहों का गुलाम रहा। गुलाम भी बहुत दिलचस्प है कि इस समय रज़ाशाह पह- होने से इसकी राजनैतिक स्वतंत्रता जाती रही, लवी के शासन में ईरान में जो नया जातीय या परन्तु बाह्य प्रभावों के बावजूद इसकी सांस्कृतिक राष्ट्रीय आन्दोलन चल रहा है उसका बड़ा उद्देश स्वतंत्रता बनी रही। मांस्कृतिक स्वतंत्रता ही थी यह है कि ईरानियों में से बाद की अरबी-सभ्यता जिसने हिन्दुओं को मुसलमान शासकों से अलग को निकाल कर ईरान की पुरानी संस्कृति को नये रक्खा और इस कारण ही हिन्दुओं में इस्लामी सिरे से कायम किया जाय।
गवर्नमेंट के मुताबिले पर विरोध का झंडा खड़ा करनेस्वतंत्र होते हुए या परतंत्र रहते हुए जब तक वाले उत्पन्न हाए । यदि राजनैतिक स्वतंत्रता के साथ हिन्दू स्त्री, पुरुष और बच्चे के अन्दर यह भाव हिन्दुओं की संस्कृति और सामाजिक जीवन खत्म मौजूद है कि उनका संबंध श्री राम और श्री सीता से हो गये होते, जैसा कि मिस्र, ईरान और अफ़ग़ाहै और वे अपने देश के पूर्वजों की आत्माओं का निस्तान में हुआ, तो हिन्दुओं में ऐसे देशभक्त और अपनी आत्मा के अंदर देखते हैं तब तक वे हिन्दू- राष्ट्रीय वीर न उत्पन्न होते। राजनैतिक दासत्व जातीयता या राष्ट्रीयता को कायम रखते हैं। ज्यों ही एक प्रकार से जाति का शारीरिक दासत्व होता है, कुछ हिन्दू अपने सभी पूर्वजों से संबंध-विच्छेद परन्तु सांस्कृतिक दासत्व उसके दिमागी दासत्व के करके अपने मज़हब, अपने इतिहास और अपनी समान है। पहले शारीरिक गुलामी आती है। संस्कृति आदि का नाता अरब से जोड़ लेते हैं, त्यों इसके बाद विजेता जाति का लाभ इसमें होता है ही उनके अंदर से हिन्दूत्व मिट जाता है और उसके कि विजित जाति के अंदर अपनी संस्कृति, अर्थात् स्थान में गैरीयत आ जाती है। यह बात एक छोटे स्व-भाषा, स्व-साहित्य और स्व-गौरव का प्रचार से उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है। जिन लोगों के करके (जैसा कि ब्रिटिश गवर्नमेंट ने अपनी शिक्षादिल में हिन्दूत्व (स्व) विद्यमान है वे महाराज पद्धति के द्वारा भारत में किया है) उसके अंदर ऐसी युधिष्ठिर, राजा विक्रमादित्य, महाराना प्रताप, दिमागी गुलामी पैदा कर दे कि विजित अपने महाराज शिवाजी, और गुरु गोविंद को अपने आपको विजेता का ही एक अंश (Mind-born राष्ट्रीय वीर और मुक्तिदाता (Liberators) मानते sons) समझने लग जाय और इस प्रक्रि । के पूर्ण हो हैं। इसके विपरीत जिन लोगों के दिल से वह जाने पर उसके अंदर स्वतंत्रता की इच्छा ही मिट जाय।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८६
सरस्वती
[भाग ३६
- आर्य-संस्कृति और द्रविड़-संस्कृति के पारस्परिक और अफ़ग़ानिस्तान में बड़े बड़े इस्लामी राज्य खड़े हो सम्बन्ध के विषय में कई मत हैं। उदाहरणार्थ गये । इस्लाम नदी की तरह उमड़ता हुआ भारत की 'ऋग्वेदिक इंडिया' के प्रसिद्ध लेखक श्री अविनाश- तरफ बढ़ रहा था। पंजाब के राजा जयपाल ने इस चन्द्र दास का मत अन्य इतिहासज्ञों से सर्वथा भिन्न बढ़ती हुई शक्ति को उसके घर में ही दबा देने के लिए है। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि अफगानिस्तान पर आक्रमण किया। उसके बेटे अनपुराने बेबिलोनियावामी, मिस्रवासी और उनके ङ्गपाल ने महमूद ग़ज़नवी को रोकने के लिए पेशावर समान द्रविड़ भी आर्य नम्ल की एक शाखा थी, जो पर चढ़ाई की और महमूद की फ़ौज के साथ बड़ा कई युग पहले आर्य नस्ल से अलग होकर दूर देश जबर्दस्त मुकाबिला किया। ऐसा मालूम होता था में जाकर आबाद हुई । यह अन्वेपण-फल सही हो या कि महमूद और उसकी सेना नष्ट होने को है कि न हो, यह एक तथ्य है कि इतिहास-काल से बहुत पूर्व अनङ्गपाल के हाथी ने राजा को धोखा दिया और उत्तर-भारत के आर्य और दक्षिण-भारत के द्रविड़ लड़ाई की किस्मत बिलकुल पलट गई । इसके बाद दो एक दूसरे के साथ मिल-जुल गये और उन्होंने अपनी बड़े प्रबल आक्रमणों का पंजाब ने मुक़ाबिला किया। संस्कृति को सम्मिलित बना लिया। इसलिए पिछले जब पंजाब विजित हो गया तब भारत का फाटक युगों में दोनों नस्लें हिन्दू कहलाने लगी और अगर खुल गया और उसके बाद शेष भारत में, दो-चार इनमें कोई पृथकत्व था तो वह धीरे-धीरे मिट गया। को छोड़ कर, विदेशी आक्रमणों के मुक़ाबिले का
पं० जवाहरलाल कहते हैं-"विचारणीय बात मामर्थ्य ही न रहा। कई शताब्दियों के शासन के तो यह है कि इस समय इसी पंजाब में हिन्दू-महासभा बाद पंजाब में वही शक्ति उत्पन्न हुई जिसने इस की शक्ति ज्यादा है और दक्षिण में तो उसकी पहुँच इस्लामी नदी को न सिर्फ रोका, बल्कि इसका बहाव बहुत कम है।"
उलटा कर दिया-पंजाब की फौजों ने पठानों को जम__पंडित जी के इस सवाल का जवाब ऐतिहासिक रोद तक जा भगाया और अफ़ग़ानिस्तान के बादघटनाओं से मिलता है। भारतवर्ष पर विदेशी शाह का मुकाविला किया । इसे भारत के इतिहास
आक्रमण का रास्ता उत्तर-पश्चिम से ही रहा है। में एक बड़ा भारी चमत्कार कहा जा सकता है। इसलिए इन बाह्य आक्रमणों का मुक़ाबिला करने के पंजाब में यदि हिन्दुत्व का ज्यादा जोर है तो इसका लिए पंजाब एक प्रकार से भारत के फाटक का काम कारण पंजाब की भौगोलिक स्थिति और इसके करता रहा है । सिकंदर ने पंजाब को जीता। परन्तु पिछले युग की ऐतिहासिक घटनायें हैं। चंद्रगुप्त ने थोड़े ही दिन बाद सिकंदर के शासन पं. जवाहरलाल एक और जगह कहते है कि को पंजाब के लोगों की सहायता से हटा दिया कांग्रेस के ध्येय के बारे में मैं अपनी राय को सिद्ध
और सिकंदर का एक बड़ा भारी प्रांत. जो कंधार कम । अर्थात यह कि “हिन्दू-महासभा पहले प्रकार तक फैला हुआ था, सेल्यूकस की लड़की के विवाह के स्वराज्य, अपनी जातीयता और धर्म के रखने, के के कारण उसके अधीन हो गया। चंद्रगुप्त लिए यत्न कर रही है, और दूसरे प्रकार के स्वराज्य, के राज्य-काल में चाणक्य एक बड़ा भारी देशभक्त अपनी जातीयता मिटाने और पराये की ओढ़ने, की राजनीतिज्ञ था, जिसने पंजाब में से विदेशी कांग्रेस कोशिश करती है।" शासन निकालने की तदबीर की। इसके बाद अपनी बात को स्पष्ट करते हुए पंडित जी ने सदियाँ गुज़र गई। अब हम उस काल में पहुँ- कहा है कि कांग्रेस ब्रिटिश गवर्नमेंट से लड़ाई करती चते हैं जब भारत की सीमाओं से परे ईरान, तातार है और व्यंग्य से यह भी कि हिन्दू-महासभा नौक
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
जवाहरलाल नेहरू और हिन्दू-संस्कृति
४८७
रियों की फ़िक्र में रहती है। पं० जवाहरलाल को हिन्दू हिन्दुत्व को छोड़ दें। कांग्रेस ने खिलाफ़त के हिन्दू-महासभा के बारे में थोड़ी-सी ग़लत-फहमी है। मजहबी आंदोलन को अपने अंदर घुसेड़कर इस्लामी हिन्दू-महासभा को इस बात की परवा नहीं है कि जोश भड़काया। परन्तु इसके परिणाम स्वरूप जब कोई हिन्दू नौकरी करे या न करे। जिस बात का मलाबार से शुरू होकर देश भर में हिन्दू-मुस्लिम दंगे विरोध हिन्दू-महासभा करती है वह केवल इतनी ही हुए और प्रायः हर जगह हिन्दू क़त्ल किये गये तथा है कि भारत-सरकार एक संप्रदाय या समुदाय की लूटे गये तब कांग्रेस ने हिन्दुओं के लिए सहानुभूति रिआयत करके और उसे ऊँचा उठाकर दूसरे सम्प्र- का एक शब्द भी मुँह से न निकाला। कांग्रेस ने दाय को नीचा दिखाती है और दोनों में पारस्परिक अपनी इस थियरी से कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के बगैर घृणा एवं ईर्ष्या उत्पन्न करती है जैसा कि उसने स्वराज्य नहीं मिल सकता, मुसलमानों के दिमाग़ को सांप्रदायिक निर्णय के द्वारा किया है। हर एक आसमान पर चढ़ा दिया है। कांग्रेस के नेताओं का न्याय-प्रिय मनुष्य इस बात को पसन्द करेगा कि हाल यही रहा है कि मुसलमानों को खुश रखने के सरकारी मुलाज़मते योग्यता की मीयाद पर हर एक लिए हिन्दू अधिकारों का बलिदान करते जायें । भारतीय के लिए खुली हों। इसमें न नौकरियों की कांग्रेस की तरफ़ से जितने एकता-सम्मेलन हुए हैं उन इच्छा है, न नौकरियों की माँगः बल्कि हिन्दू- मबमें इसी बात का यत्न किया गया है कि मुसलमानों महासभा के सामने यह सिद्धांत का प्रश्न है। की दिन-प्रति-दिन बढ़ती हुई माँगों को मंज़र कर
अब रही यह बात कि कांग्रेस किस तरह से अपनी लिया जाय ताकि किसी तरह हिन्दू-मुस्लिम-एकता जातीयता को मिटाकर स्वराज्य प्राप्त करना चाहती हो जाय और गवर्नमेंट के साथ लड़ाई में कांग्रेस है। मुझे यह बताना है कि मैं इस परिणाम पर कैसे जीत जाय। कोरे चेक पेश करने की नीति के अंतपहुँचता हैं। मझे इसका सबत या प्रमाण देने के लिए तल में यही नीति काम करती है। सांप्रदायिक यह आवश्यक नहीं मालम देता कि इसके समर्थन में निर्णय जैसे प्रजासत्ता-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी मैं कांग्रेस का कोई प्रस्ताव उद्धृत करूँ। मेरा निष्कर्ष फतवे पर मौन धारण करने का कारण इसी में पाया कांग्रेस के संचालकों की नीति और उनके जीवन भर जाता है। के आचरण पर आश्रित है । हिन्दु कांग्रेसी नेता हिन्दू- कांग्रेस ने खिलाफ़त के मजहबी आंदोलन-द्वारा नाम को कायम रखना नहीं चाहते। वे कहते हैं कि इस्लामी जोश भड़काया; हिन्दू-मुस्लिम एकता पर हम न हिन्दू हैं, न मुसलमान । जो हिन्दू अपने असाधारण एवं अनावश्यक ज़ोर देकर मुसलमानों
आपको हिन्दू कहने से शरमाते हैं वे हिन्दू-संस्कृति के दिमाग को आसमान पर चढ़ाया; एकता-सम्मेके प्रेमी कैसे हो सकते हैं ? कांग्रेसी नेता दिन-रात, लनों के द्वारा तथा कोरे चेक दे-देकर हिन्दू-हितों हर घड़ी, हमें यह बताते हैं कि सांप्रदायिकता देश को कुर्वान किया; सांप्रदायिक निर्णय-जैसे को विनष्ट कर रही है। इसका मतलब क्या है ? प्रजासत्ता एवं राष्ट्र-विरोधी फतवे पर मौन धारण क्या वे यह नहीं जानते कि उनकी इस बात को किया-ये घटनायें एवं तथ्य ऐसे हैं जिनसे एक सुननेवाले केवल हिन्दू ही हैं ? मुसलमान न उनकी अंधा आदमी भी साफ़ नतीजा निकाल सकता है बात सुनते हैं, न मुसलमानों पर इसका कोई असर कि अगर कांग्रेस की नीति इसी प्रकार चलती रही होता है । मुसलमानों को कट्टर संप्रदायवादी तो हिन्दू दिन-प्रति-दिन कमजोर होते और मिटते बनते देखकर हिन्दुओं से यह कहना कि सांप्रदा- चले जायँगे। और, दूसरी तरफ़ न सिर्फ संप्रदाययिकता ज़हर है, सिर्फ यही मानी रखता है कि वादी मुसलमानों की बल्कि वर्तमान गवर्नमेंट
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८८
सरस्वती
. [भाग ३६
की शक्ति बढ़ती और मजबूत होती जायगी। हम अपने 'स्व' को बदल लें और अपने आपको इससे एक और नतीजा भी साफ़ निकलता है- इंग्लैंड के 'स्व' में जज्ब कर दें। इससे हमको बगैर अगर हमें हिन्दुओं को मिटाते हुए ही स्वराज्य का किसी तकलीफ़ या कुर्बानी के स्वराज्य मिल युद्ध करना है तो इससे कहीं बेहतर बात यह है कि जायगा।
बस्ती है यह किन मस्तों की
लेखक, श्रीयुत रामानुनलाल श्रीवास्तव बस्ती है यह किन मस्तों की कैसी अद्भुत मधुशाला है । बेहोश पड़े पीनेवाले मदहोश पिलानेवाला है। क्या नहीं जानते हो कोई इस ढब से आनेवाला है।
उर में मरुथल की प्यास भरी कर में टूटा-सा प्याला है। ऐसे प्यासे को मधुबाले कुछ अपना जादू दिखला दे। सुधिवालों को बेसुध कर दे सुधिहीनों में फिर सुधि ला दे। मुझको तो कुछ ऐसी दे दे बस एक दिवू मैं लाखों में ।
कुछ शीशे की कुछ सागिर की कुछ दे जो भरी है आँखों में । तू ढाले जा ऐ मधुबाले जिससे मैं तलछट तक पाऊँ।
औ' चूम चूम अपने ओठों को झूम झूम पीते जाऊँ ॥ . मधु कभी नहीं है चुकने की तू देने में संकोच न कर ।
मैं पीनेवाला मतवाला कुछ कम ज्यादा का सोच न कर ॥ तू यह न समझना मधुबाले मैं प्यास बुझाने आया हूँ। मस्तों के उर का एक तुझे संदेश सुनाने आया हूँ॥ यह प्यास हमारी बनी रहे औ' बना रहे आना-जाना ।
दर पर यह लगती रहे सदा आबाद रहे यह मैखाना ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदयपुर
N
विजयादशमी लेखक, कुवर चाँदकरण शारदा कुँवर चाँदकरण शारदा गत दशहरा के दिनों में उदयपुर गये थे और मेवाड़ के महाराना के मेहमान हुए थे। इस लेख में आपने वहाँ के दशहरे
के उत्सव का बड़े सुन्दर ढङ्ग से वर्णन किया है। [हिज़ हाइनेस महाराना सर भूपाल सिंह जी, जी० सी० एस० आई०
रभूमि राजस्थान के मेदपाट हथेली में लिये हुए, निर्भय वीर योद्धाओं के ऐतिहासिक (मेवाड़) प्रान्त की राजधानी वीरतापूर्ण कार्यों से सुवासित है । अतः इसके यश
उदयपुर और प्रातःस्मरणीय गा-गाकर कर्नल टाड जैसे निष्पक्ष अँगरेज़ और भारत नवी देशभक्त महाराना प्रताप की के बड़े-बड़े विद्वान् इतिहास-लेखकों ने इसके सुवर्ण
जन्मभूमि चित्रकूट (चित्तौड़) इतिहास को लिखकर इसे अमर कर दिया है। ऐसी किस देशभक्त भारतवासी को वीरभूमि की तीर्थयात्रा करने के लिए हम इस बार
प्यारी नहीं ? प्राचीन संस्कृति दशहरे के सुअवसर पर गये। भगवान् राम के वंशज के रक्षक धनुष की टंकार करनेवाले भीलों की विहार- सूर्यकुल-शिरोमणि, आर्यकुल-कमल-दिवाकर, हिन्दु स्थली मेवाड़ की कौन प्रशंसा नहीं करता ? धर्म के रक्षार्थ सूर्य उदयपुर के महाराना किस प्रकार दशहरा मनाते ज़िन्दा चिताओं में भस्म होनेवाली वीर-प्रसविनी वीर हैं, यह देखने की उमंग कई वर्षों से मेरे हृदय में थी। राजपूतनियों की जन्म-भूमि का कौन गुणगान नहीं राजस्थान प्रान्तीय हिन्दू-सभा का शिष्टमंडल उदयपुर करता ? मेवाड़ की पुनीत भूमि धर्म, जातीयता तथा पहुँचा । हिज़ हाईनेस महाराना साहब सर भूपालसिंह जी भारतीय संस्कृति की त्रिवेणी के निर्मल जल से सिञ्चित बहादुर जी० सी० एस० आई० ने तथा उनके योग्य है। यह वीर-वाटिका, केसरिया बाना पहने हुए, सिर को मंत्रिमंडल ने हमें राज्य का मेहमान बनाया और हमें
४८९
Shredu armaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९०
सरस्वती
पिचोलिया झील के सुन्दर तट पर गनगौर घाट के ऊपर बने हुए सुन्दर महलों में से 'बागौर की हवेली' में जो 'सत्कारालय' कहलाता है, ठहराया था ।
असोज शुक्ला अष्टमी के सायंकाल के चार बजे से ही सारे उदयपुर नगर में बड़ी चहल पहल थी। सड़कों पर छिड़काव हो रहा था। नये नये वस्त्र पहनकर अमरशाही पगड़ियाँ बाँधकर लम्बी अँगरखियाँ पहनकर, कमर बाँधे हुए, हाथों में सोने चाँदी की मूठों की तलवारें लिये हुए सरदार पैदल तथा घोड़ों पर तथा मोटरों पर महलों की तरफ़ बढ़े जा रहे थे । उदयपुर की जनता और स्त्रियाँ भी इस दृश्य को देखने के लिए अपने कुर्व कायदे के मुताबिक उमड़ पड़ी थीं। महलों के सामने ही बड़े-बड़े चबूतरों पर खास सूर्यद्वार के नीचे दरीखाने का प्रबन्ध हो रहा था। लाल जाज़ में बिछाकर उन पर सफ़ेद बुर्राक चाँदनी बिछाई गई थी और उस पर एक बड़े सिंहासन पर मसनद रक्खी हुई थी। पुरोहित सरदारों की पोशाकों में यह देख रहे थे कि कौन-कौन सरदार बाकायदा पोशाक में पधारे हैं। चोबदार लाल बनात की लम्बी अँगरखियाँ और केसरिया पोशाकें पहने हुए इधरउधर काम कर रहे थे । महलों के सामने ही सुन्दर सुन्दर सोने-चाँदी के जेवर पहने हुए कई हाथी अच्छी अच्छी बेशकीमती भूलें डाले हुए सोने-चाँदी की अम्बारी से सुसज्जित झूम रहे थे । एक से एक सुन्दर घोड़े सोने-चाँदी के ज़ेवरों से सुसज्जित अलग ही अपना यौवन दिखा रहे थे । श्राज इन हाथी-घोड़ों की भी खुशी का ठिकाना न था, क्योंकि आज हिन्दु सूर्य मेदपाटेश्वर अपने करकमलों से इनकी पूजा करनेवाले थे ।
• हम लोगों को भी 'सत्कारालय' से लाल वर्दी पहने हुए चोपदार महलों में दरबार दिखाने ले गया। ठीक हाथी घोड़ों के पूजा-स्थान और दरीखाने के ऊपर ही तिवारी में हम लोग बैठाये गये । हमारे सामने के विस्तृत मैदान में लाल वर्दी पहने हुए महाराना साहब की पैदल पल्टन बन्दूकें लिये खड़ी थी। उसके आगे सजे हुए पूजन के घोड़े और हाथी खड़े थे। ठीक समय पर रेज़िडेंट श्रीमान् कर्नल बीथम साहब पधारे। फ़ौज ने
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
2
[ भाग ३६
[ गनगौर-घाट, उदयपुर]
उनको सलामी दी और बाजा बजाया । हमारे सामने के हाथीखाने के ऊपरवाले कोठे पर फ़ौज के पीछे दरी पर कुछ कुर्सियाँ रक्खी थीं। वहाँ रेज़िडेंट साहब बिठाये गये। एक-दो और अँगरेज़ और मेमें भी उनके साथ बिठाई गई। उदयपुर के सिक्कों पर लिखा हुआ 'दोस्ती लंदन' का चित्र हमारे सामने घूमने लगा । ठीक ६ बजे महाराना साहब की सवारी बाई । चारों ओर से "खड़े हो" "खड़े हो" की आवाजें आने लगीं। रेज़िडेंट साहब और सब उपस्थित जनता एक साथ खड़े हो गये। उनके सत्कार में फ़ौज ने सलामी दी, बाजा बजा । महाराना साहब ने घोड़ों का पूजन करना आरम्भ किया। सबसे पहले श्री एकलिंग जी का घोड़ा जिस पर चॅवरें डोलाई जा रही थीं, सोने-चाँदी के गहने पहने हुए लाया गया ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
उदयपुर में विजयादशमी
४९१
उसके सिर पर जवाहिरों का मुकुट बाँधा गया। एक लाल कपड़ा दिया गया । पुरोहित जी मंगलाचरण और वैदिक मंत्र पढ़ते जाते थे। साईसों को दो दो नारियल और एक चाँदोड़ी रुपया और चार चार पापड़ियाँ दी जाती थीं। वे नम्बर से अभिवादन कर घोड़े को वापस लौटा ले जाते थे। इस प्रकार कई घोड़ों का पूजन हुआ। तत्पश्चात् महाराना साहब सर
[महाराना साहब अपने सरदारों।।के साथ शेर के शिकार में भूपालसिंह जी बहादुर तामजाम में दरीखाने में लाये गये। दरीखाने के नुक्कड़ उनके सामने लाया जाता था। महावत अभिवादन करता। पर द्वार के पास घुसते ही उनके लिए कुर्सी लगाई गई था। हाथी को एक लाल कपड़ा दिया जाता था और थी। एक एक सुन्दर सजा हुअा हाथी झूमता हुआ उसके मौर जो तोरण की किस्म का खजूर का बना हुआ
था, बाँधा जाता था। इस प्रकार कई हाथियों का पूजन हुआ। उधर पास के द्वार से ज़नानी | ड्योढ़ी पर महारानी | साहबा ने भी पूजन के समय घोड़ी और हथिनी की पूजा इसी प्रकार की। सारे दरबारी खड़े थे। परन्तु १६ उमराठे हुए थे। इन उमरा और सरदारों में पहले नम्बर
और दूसरे नम्बर के
सरदार होते हैं। और ['सत्कारालय' से पिचोलिया झील का दृश्य
अपने अपने पद तथा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९२
सरस्वती
[भाग ३६
• ही कदम पर तामजाम से उतरे जहाँ से १६ उमरा की बैठक प्रारम्भ होती है। उनके उतरते ही सब उमरा खड़े होगये । श्रीमान् महाराना साहब के आगे आगे चोपदार दो सुन्दर शाही शमादान लिये हुए चल रहे थे। उनके पीछे पंचोली घरानेवाले चँवर डोलाते चल रहे थे। महाराना साहब के आते
ही उमराने झुककर अभि[खास प्रोडी, जहाँ से जंगली सूअरों को रोज़ कई मन मक्की खाने को डाली
वादन किया। महाराना जाती है । यह वहाँ का एक अपूर्व दृश्य है]
साहब के गद्दी पर विराजने प्राचीन पद्धति के अनुसार ये दरबार में बैठाये जाते हैं। पर सब अपने अपने स्थान पर बैठ गये। दरबार बड़ा जिनको जिस वर्ष पधारने का हुक्म होता है वे उसी वर्ष भव्य मालूम होता था । महाराना साहब की गद्दी के पीछे ।
आते हैं । शाहपुरा, बेगूं , बनेड़ा, बेदला, कानौड़, बदनोर, दो एक-से कद के जवान डाढ़ीवाले एक-सी दरबारी वर्दी बीजोलिया, सादड़ी, देलवाड़ा, गोगुंदा, भींडर, बान्सी, पहने बड़े बड़े चँवर डोला रहे थे । गद्दी के पीछे मुसद्दी, कोठारियाँ, पारसोली, सलूम्बर, भैंसरोड़गढ़, कुराबड़, देवगढ़, करेड़ा, आमेट, मेजा, सरदारगढ़ आदि औवल दर्जे के सरदार माने जाते हैं। ये सब सरदार अपनी अपनी पोशाकों में सुसजित वीरता-पूर्वक तलवारें धारण किये हुए बहुत ही शोभायमान प्रतीत होते थे।
तत्पश्चात् श्रीमान् महाराना साहब तामजाम में बैठकर ठीक उतने
[झील के तटवर्ती राजमहल, उदयपुर]
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६ ]
मुसाहब, दीवान वगैरह जिनकी बैठकें नियुक्त हैं, अपने अपने स्थान पर बैठे
हुए थे। गद्दी की
बाईं ओर कर्जाली
के महाराना साहब
के स्वयं राज-परिवार
वाले सफ़ेद पोशाक
धारण किये हुए दोनों
पैरों में चूड़ीदार पाय
जामे पर सोना धारण
उदयपुर में विजयादशमी
किये हुए महाराज अभयसिंह जी और महाराज प्रतापसिंह जी बड़े शोभायमान मालूम होते थे ।
गद्दी से सीधी और १६ उमरा चबूतरे के कटघरे की दीवार से लगे हुए अपने अपने स्थान पर बैठे थे । गद्दी के सामने सादड़ी, बनेड़ा वग़ैरह के राजकुमार बैठे थे । इनके पीछे चारण, बारहट, कविगण जिनको उत्तम कविताओं के कारण महारानाओं की तरफ़ से जागीरें बख्शी हुई हैं, बैठे थे । गद्दी की बाईं ओर मुसाहब खड़े थे । लाल वर्दी • पहने घोटेदार, छड़ीदार छड़ियाँ और घोटे लिये खड़े थे । इनके आगे जागीरदार बैठे थे। बीच बीच में राजपुरोहित दरबार के इशारे पर कुछ बात कह सुनकर श्राता था । सबके बैठने के पश्चात् खड़ग जी की सवारी श्रई । गुलाब बाग़ में एक ताख में कनफटा नाथों में से एक नाथ नवरात्र आरम्भ होने से पहले खाना-पीना आदि त्याग कर बैठ जाता है । ८ दिन बराबर आसोज शुक्ला १ से ८ तक एक स्थान पर बिना पानी पिये रोटी खाये खड़ग हाथ में लिये जप करता रहता है। इस कठिन तपस्या का व्रत वही साधु करता है जो महन्त जी की फेरी हुई हरड़ ले लेता है । जैसे प्राचीन काल में राजा-महाराजा किसी कठिन कार्य के सम्पादन के लिए पान का बीड़ा सरदारों में
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[पूजनार्थ लाये गये घोड़े, उदयपुर]
४९३
घुमाया करते थे, उसी प्रकार इस आठ दिन की निराहार और निर्जल तपस्या के लिए महन्त जी हरड़ घुमाते हैं। जो चेला उस हरड़ को ले लेता है वही इस आठ दिन के निर्जल - निराहार व्रत को करता है। खड़ग जी की सवारी महलों के आगे बड़ी धूम-धाम से श्राई । खड़ग जी की सवारी के श्रागे श्रागे घुड़सवार पल्टन थी । उसके पीछे कई बाजे बजते थे । “रणकाँकरण" का बाजा जो बाँसों पर था और जिससे उदयपुर के महारानाओं ने बड़े बड़े युद्धों में काम लिया था, विशेष श्राकर्षक था ।
उसके बाद खड़ग जी की सवारी पालकी में आई । खड़ग जी को गोद में लेकर नाथ उठाकर दरबार के सम्मुख ले आया। उसने खड़ग दरबार को भेंट की । वह खड़ग सिलहेखाने का अफ़सर सिलहेखाने में ले गया । तत्पश्चात् घोड़े और हाथी के फेरने का काम प्रारम्भ हुआ । एक घोड़ा सामने श्राता गया । उसको घुमा घुमाकर दिखाते गये। इस प्रकार सब नौ घोड़े देखे गये । तत्पश्चात् हाथी एक बाद एक लाया गया और वे भी घुमा घुमाकर दरबार को दिखाये और ले जाये
www.umaragyanbhandar.com
Page #542
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९४
सरस्वती
[भाग ३६
बाज़ी लगाकर पान के बीड़े चाबते होंगे। अब वह आत्मा नहीं है। आज कोरा शरीर और बाह्य बातें रह गई हैं।
जिस वीर-भूमि चित्रकूट में जन्म लेने के लिए देवता भी लालायित थे उस स्वतंत्रता के श्रोजस्वी पुजारियों और भक्तिरस में लवलीन मीरा की भूमि की वर्तमान दशा को निहार कर न मालूम क्या क्या भाव हमारे मन में आने लगे। अब चित्तौड़ में न तो प्राचीन
ज़माने के गगन स्पर्शी महल [पूजनार्थ लाये गये हाथियों का दृश्य, उदयपुर
हैं, न स्वर्ण और रत्न-जटित
देवालय और मूर्तियाँ हैं। गये। तत्पश्चात् एक के बाद एक चारणों, बारहटों ने वैसे महल तो अब उदयपुर में हैं। वहाँ तो एक मात्र खड़े होकर वीरतापूर्ण शब्दों में कवितायें कहीं। फिर कीर्ति-स्तम्भ सारे प्राचीन काल की स्मृति दिलाने पान के बीड़े बाँटे गये । पान के बीड़े हाथ में ले लेकर के लिए अटल वीर-योद्धा की भाँति खड़ा चित्तौड़ के कई सरदारों ने बैठे बैठे अभिवादन किया और कइयों ने खंडहरों से वीर-रस अब भी टपकता है । जिस भूमि की खड़े हो होकर अपने कायदे के अनुसार अभिवादन रक्षा के लिए वीरों ने अपना बलिदान किया उनका स्मरण किया। तत्पश्चात् दरबार बरखास्त हो गया। ये बीड़े सीख दिलाने के लिए चबूतरे और छत्रियाँ खड़ी हुई अब भी के बीड़े थे । दरबार की सवारी तामजाम में बैठकर गई। हमें कर्तव्यनिष्ठ योद्धा बनने के लिए उत्साहित कर रही सरदार जागीरदार सबके चले जाने के बाद उमरा गये। हैं। पान पर मरनेवाले स्वतंत्रता के पुजारियों की दरीखाने की चाँदनियाँ और जाज़में उसी वक्त उठ गई। स्मृतियाँ अब भी हमें आततायियों को पददलित करने के | अन्दर महलों में दरबार की सवारी जाते ही पातरियों और लिए ढाढ़स बँधा रही हैं । राना कुम्भ का जयस्तम्भ अब ढोल नियों के गाने के शोर-गुल में दरबार पधारे। इन भी हमारे रक्त में वीरता का संचार करता है। जौहरपातरियों आदि का दृश्य हमें अच्छा न लगा, हम भी कुण्ड अब भी पद्मिनी-सी अादर्श पति-भक्ता देवियाँ बनने अपने डेरे पर लौट आये।
के लिए हमारी माता और बहनों को उत्साहित कर रहा रात को सोते सोते विचारने लगे कि क्या कभी आर्यों है। क्या भारत के दिन फिर फिरेंगे ? क्या सांगा, कुम्भ, का वह प्राचीन गौरव जागृत होगा ? महाराना प्रताप के प्रताप, जयमल, पत्ता जैसे भीषण बलिदान करनेवाले ज़माने में ये घोड़े और हाथी युद्ध की तैयारी देखने के इन खंडहरों से पुनः पैदा होंगे ? क्या भगवान् वह वीर लिए देखे जाते रहे होंगे। सरदार और उमरा रणभूमि आत्मा इस जर्जर शरीर में कभी दिखावेगा ? ऐसी बातें। में मातृभूमि के हितार्थ बलिदान होने के लिए प्राण की सेचते-सोचते हम निद्रादेवी की गोद में विलीन हो गये।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #543
--------------------------------------------------------------------------
________________
गूढ अर्थ रखनेवाली एक सुन्दर कहानी
वह
लेखक, श्रीयुत विजय वर्मा
"और वह-?"
नहीं?
__ इस बार मैंने शीघ्रता के साथ कहा--अर्थात् । कहकर वह मेरी ओर देखने लगी। मानवरूपधारी होने से ही कुछ नहीं होता। यह मैंने कहा-जाने दा; सब कुछ इसी जीवन में तो बहुत पुरानी बात है। पा लेने की इच्छा की पूर्ति यदि न हो तो उसके लिए उसकी भौहें टेढ़ी होगई । “अब नई बात-इस इतनी बेचैनी 'संसार के सर्वश्रेष्ठ' विशेषण से युक्त युग की बात--यह है कि यह रूप-यह शरीरप्राणी को शोभा नहीं दे सकती।
पा लेने से ही कर्तव्य की इतिश्री मानकर मन को वह विचलित हो उठी। मेरी ओर उसने जिस बेलगाम छोड़ देना चाहिए, इन्द्रियों के संयम की बात दृष्टि से देखा उसे भूलना असंभव है, किन्तु उसमें को हंसी उड़ानी चाहिए और तरह तरह के राग-द्वेष जो कुछ था उसका विश्लेषण करना भी मेरे लिए को जोरों के साथ पकड़ते जाना चाहिए ?" संभव नहीं। यही कह सकता हूँ-उसमें था क्या यह कहकर उसने व्यंग्यपूर्ण हँसी हँसी।
मेरा सब शरीर जल उठा। सहने की भी एक मैं तो चुप रह गया।
सीमा होती है । दर्शनशास्त्रियों की भाँति मैं भी ऐसी तब वही बोली-जिसके कारण यह विशेषण अनेक बातें कह सकता हूँ, किन्तु इस व्यावहारिक उचित हो सकता है उसी पर कुठार चलाकर तो जगत् में अपनी इस अवस्था में ऐसी बातें सुनकर उसका गर्व करना शोभा नहीं दे सकता । 'सब मुझे क्रोध आये बिना नहीं रहता। मुझे ये बातें कुछ न मिले पर जो जीवन के लिए अन्य सब कुछ या तो अबोध बच्चों को जान पड़ती हैं या भयंकर से भी बढकर है उसके लिए प्रयत्न किये बिना ढोंगियों की। कोई कैसे रहे?
वह यह जानती है और जानने पर भी मुझसे ___ 'कोई' का तो प्रश्न ही न था। 'मैं' कैसे रह ऐसा कह रही है! सकती हूँ ?-यही स्पष्ट बात थी। ऐसा न होता तो जान पड़ता है फिर उसने मेरे मन की अवस्था कह देता, 'जैसे अन्य सब रहते हैं। पर उसके लिए समझ ली। परन्तु इस बार उसने उस बारे में कुछ तो मैं ऐसा कह नहीं सका।।
कहना व्यर्थ समझा! परन्तु न कहने से क्या होता है ? यही उत्तर वह बोली-मैं तो नहीं जाऊँगी। आपको मैं मेरे मन में है, यह उसने समझ लिया और फिर कह जाने से रोक नहीं सकती। मेरा कहना तो यही उठी-जैसे हम हैं वैसे ही अन्य सब है, अथवा है कि ऐसे स्थान के निकट खड़े होना भी पाप है। जैसा हम समझते हैं, वैसे ही और सब लोग हैं, यह "पाप?" कैसे ठीक कहा जा सकता है ? संसार में सभी "निस्सन्देह पाप।" प्रकार के प्राणी हैं।
४९५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #544
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
___उस दिन का प्रथम ‘प्राइज़ टिकट' मेरे ही नम्बर- उसने सिर हिलाकर जतलाया 'नहीं', किन्तु वाला निकला और मुझे पूरे सौ रुपये मिल गये। उसकी आँखों के ऊपर उठते ही मैंने देखा वे वेदना इन रुपयों को पाकर मैं फूला न समाया। रास्ते में से चिल्ला रही हैं- इसमें सन्देह ही क्या है ? . मैं जब चलने लगा तब मुझे जान पड़ा मानो हवा में "यह वेदना किसलिए ?" मैं कहने लगा--"मैं तो उड़ा जा रहा हूँ। कपड़े की एक बड़ी दूकान देखते पूर्व-जन्म, पर-जन्म, कर्म-फल आदि कुछ भी तुम्हारी ही- उसके भीतर जाकर मैंने साड़ियाँ दिखलाने की तरह नहीं मानता; परन्तु तुम जैसा मानती हो उसके फरमाइश की और एक साठ रुपये की साड़ी अनुसार तुम्हें इस तरह दुखी क्यों होना चाहिए ? पसन्द की।
तुम्हारे सिद्धान्तों के अनुसार तो मेरा-तुम्हारा वह इन साड़ियों को छूती तक नहीं, इसका सम्बन्ध इसी जन्म का नहीं है । तुम तो ऋण चुकाने खयाल करना मैंने मूर्खता ही समझी। घर पहुँचकर के लिए ही आई हो । फिर यह दुःख क्यों ?" दरवाजे की दराज से झाँककर देखा लालटेन जल "इसी लिए तो। हम तो सभी के प्रति ऋणी हैं, रही है और एक पुस्तक पढ़ी जा रही है। कान पर उस ऋण को तो राग-द्वेष को हटाकर, सच्ची लगाकर सुनने लगा। शायद कुछ शब्द सुनाई करुणा, सच्ची वेदना के उत्पन्न होने से ही हम पड़ें और यह मालूम हो जाय कि कौन पुस्तक पढ़ी चुकाने को कुछ शक्ति पा सकते हैं।" जा रही है । पर कुछ भी न सुनाई पड़ा। ___तो अब तुम मुझ पर दया करोगी-मेरे प्रति साँकल ज़ोर से खटखटाई।
करुणा और वेदना को तरंगें अपने हृदय-सागर में तेजी से उठकर उसने भीतर की जंजीर उत्पन्न करोगी !-नहीं जानता तुम्हारी इन पागलों खोल दी।
की-सी बातों पर हँसना चाहिए या रोना । क्या तुम किवाड़े खोलकर मैं सीधा उस पुस्तक के पास दुनिया की सीधी-सादी एक साधारण स्त्री नहीं पहुँचा । मुझे भय था कि कई पुस्तकें वहाँ न हों। बन सकती ? तुम्हारी पुस्तक को देखने के लिए मेरे पर केवल एक पुस्तक थी।
मन में इतनी अधिक उत्सुकता हुई, किन्तु मैं हाथ में उसे मैने उठाया नहीं। पूछा-क्या पढ़ एक बंडल लिये हूँ, इसे देखने या इसके बारे में पूछने रही थीं?
की तुम्हारे मन में तनिक भी इच्छा उत्पन्न नहीं हुई। वह बोली-रहस्य ।
यह विरक्ति तो अपमान-घोर अपमान-करने"क्या ? 'रहस्य' क्या ! जीवन-रहस्य, चरित- वाली है।" रहस्य, पेरिस-रहस्य-"
___ मैंने समझा था मेरी यह बात सुन वह लज्जा बात काटकर उसने गंभीरता से कहा-गीता- से सिर नीचा कर लेगी, परन्तु उसने तो बच्चे कीरहस्य ।
सी सरलता और उसी के-से आश्चर्य के साथ मेरी "लोकमान्य तिलक का गीता-रहस्य ?" ओर देखा ! न जाने क्यों मेरा ही सिर नीचे झुक "हाँ"।
गया ? "क्यों ? क्या तुम यह निर्णय करना चाहती हो मैं अपने पथ पर-जिसे वह पाप-पथ कहती थी कि यदि मैं एक ओर होऊँ और तुम दूसरी ओर उसी पर -चलता गया । तो तुम्हारा कर्तव्य क्या है ?"
वह चुप रही। मैंने कहा-मौन सम्मति का लक्षण है।
"मैं फिर अपना ऋण चुकाने आऊँगी। आशा
xx
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #545
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
वह
४९७
है...।" वह आगे न कह सकी। यह देखना कठिन मैंने चिल्लाकर कहा-आना, जरूर। फिर न था कि वह थोड़ी ही देर की मेहमान है। आना।
मेरे नेत्रों में आँसू आ गये। मैंने कहा-तुमने उसकी आँखें बन्द हो गई थी, किन्तु उसने उन्हें मुझे ऐसा पशु समझा जिसका स्वभाव किसी भी खोल दिया। शिक्षा-दीक्षा से बदला नहीं जा सकता। तुमने भूल डाक्टर आ गया। डाक्टर को देखकर उसके की है।
कोमल मधुर होंठों पर विद्रूप परिहास की रेखा - "बस, यही मैं सुनना चाहती थी। इसी लिए मैंने खिंच गई।
आज यह सारी-जला-दी-है।" वह फिर आगे वह अन्तिम और अमिट रेखा थी! कुछ न कह सकी।
अनुरोध लेखिका, श्रीमती कुमारी शकुन्तला देवी 'अकर्मण्य' श्रीवास्तव कोमल कुसुमित कलियों का शुचि स्वागत डाल सजाये। अन्तरतम के कोने में आशा का दीप जलाये ॥ कितनी कितनी श्रद्धाओं से नव नैवेद्य लुटाये। अपलक लोचन से लखती पथ कब पलक बिछाये ॥
राह देखते नेत्र थके जीवन भी थकता जाता। निशि निशीथ अवसान निकट बस मिलने तक है नाता ॥ इस उजड़ी कुटिया को एक दिन आ आलोकित करना ।
मुझ आहत के शून्य गगन में पुलक प्रेम रस भरना । अरे ! दीप बुझने पर है सूखी फूलों की माला। बाधक होता क्या मेरा यह अक्षुण जीवन काला ॥ दीन तुम्हें प्यारे लगते रखते दीन तुम्हें दृग-पल । भर दो ! निज कर से प्रभु मेरे आ मेरा अंचल ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #546
--------------------------------------------------------------------------
________________
लाला
देवराज जी
ग्यक, श्रीगुत मन्तगम, वी: एक
लाला देवगन ने पंजाब में स्त्री-शिना और दिन्दी का प्रचार उन समय ग्राम्य किया था जब वहां के लेाग त्रा-शिक्षा के विरोधी थे और हिन्दी का नाम भी न जानते थे। खेद है कि गत वैशाव में ७५ वप की यायु में उनका स्वर्गवास हो गया पर जालन्धर के कन्या-महाविद्यालय के रूप में उनका सबने बड़ा स्मारक हमारे सामने है। श्रीयुत मन्तगम जी उन्हें व्यनिगत रूप से भी जानते थे और इस लेग्य में अापने उनका मंनिर पर
सुन्दर परिचय दिया है।
स्वर्गीय लाला देवरान जी।
गदवि यात इतिहामशास्त्री आज में पचास वप पीछे जाना पड़ेगा। उस समय SAGAR
श्रीयुत एचः जाः वल्म भारत में. विशेषत: पंजाब में. स्त्री-शिना का नामक मतानुसार किसी व्यक्ति निशान न था। उस समय नन महावीरों न, लोककी महत्ता के परखने की मन के. जोर विरोध के रहने भी. स्त्री-शिक्षा का कसोटी यह है --"क्या पंजाब में प्रकार किया उनमें श्रीमान दवराज जी वह विमित होने के सवप्रधान थे। उनके द्वारा संन्यापित जालन्धर
लिए छोड़ गया है ? क्या का कन्या-महा वद्यालय ही शायद पंजाब में स्त्रीउसके प्रयत्न में लोग नवीन जोनी पर तो जोर के शिक्षा की सबसे पहली संस्था है। इसमें कंवल पंजाब माथ सोचने लग है कि उसके मरने के बाद भी से ही नहीं. वरन सदर काठियावाड़. गुजरान. उनकी वह विचार-मरणी बंद नहीं बढ़ ?" म कच्छ, मंयक्त नान्न. मध्यप्रदेश और बिहार से भी कसोटी के अनुसार भी श्रीमान दवराज जी एक कन्याय शिना प्राम करने आनी थीं। विद्यालय का महापुरुप थे। उनकी महत्ता को समझने के लिए वार्षिकोत्सव स्त्रियों और स्त्री-शिक्षा के प्रेमियों के
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #547
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६ ]
लिए एक पुण्य पर्व का काम देता था। जिस काल में पंजाब का नारी-समाज पर्दे की कड़ी बेड़ियों में जकड़ा पड़ा था, उस काल में यह विद्यालय स्त्रियों के लिए राक्षसों से पीड़ित प्रदेश में वाल्मीकि के आश्रम के समान था । यहाँ आकर वे स्वतंत्रता और निर्भयता के साथ बिना पर्दे के घूमती-फिरती थीं। इन पंक्तियों के लेखक ने सनातन-धर्म के नाम को बदनाम करनेवाले कुछ अज्ञानी लोगों को बहुत ही घृणित रीति से स्त्री-शिक्षा और जालन्धर के कन्या- विद्यालय की खिल्ली उड़ाते देखा है। कुछ लड़के लड़कियों का वेष बनाकर एक छकड़े पर बैठ जाते थे और अतीव अश्लील गीत गाते हुए गेंद बल्ला खेलने का स्वाँग भरते थे । सनातन धर्म के उत्सवों में इसी मंडली के साथ सबसे अधिक भीड़ हुआ करती थी । परन्तु आज हम क्या देखते हैं ? वही सनातन-धर्मी खुद कन्या पाठशालायें खोल रहे हैं । आज उनके उत्सवों में स्त्री-शिक्षा के विरुद्ध वैसी बकवाद करने का किसी को साहस नहीं होता । दूसरे शब्दों में श्रीमान् देवराज जी ने आज से पचास वर्ष पूर्व जनता को जिस सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा की थी, जिस नवीन विचार सरणी पर उसको डाला था, उस पर वह अब पूरे प्रेम और उत्साह के साथ अग्रसर हो रही है। इसी लिए मैं कहता हूँ कि महत्ता की कसौटी पर वे पूरे उतरते हैं । खेद है कि स्त्री जाति के इस परम हितकारी और पंजाब में स्त्री-शिक्षा के इस निर्भीक मार्ग-दर्शक का, ७५ वर्ष की आयु में, गत ४ वैशाख संवत् १९९२ को अचानक देहान्त हो गया ।
लाला देवराज जी
लाला देवराज जी का जन्म जालन्धर के एक सम्पन्न और प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था । उनके पिता राय सालिगराम जी एक बड़े रईस और सरकारी इलाके में तहसीलदार थे। लाला जी को अपनी माता श्रीमती काहनदेवी पर बड़ी भक्ति और स्नेह था। अपने चार भाइयों में वे दूसरे थे। सबसे बड़े भाई का देहान्त बहुत दिन पहले हो
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
४९९
चुका था। तीसरे भाई रायजादा भक्तराम जालन्धर के प्रसिद्ध बैरिस्टर थे । चौथे भाई श्रीयुत हंसराज जी वैरिस्टर कांग्रेस के प्रसिद्ध कार्यकर्त्ता हैं । श्रीमान् देवराज की एक भगिनी भी थीं। उनका विवाह स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्द जी (तब महाशय मुंशीराम जी) के साथ हुआ था ।
मुझे स्वर्गीय लाला देवराज जी के साथ कोई दो बरस तक रहने का सुअवसर मिला था। इस थोड़े-से समय में मैंने उनमें अनेक देवदुर्लभ गुण देखे। सबसे पहला सद्गुरण तो उनका बहुत उच्च चरित्र था । विद्यालय की लड़कियाँ उन्हें 'चाचा जी' कहा करती थीं और वे सचमुच उनके चाचा ही थे। जिस प्रकार किसी स्नेहशील पिता के घर में प्रवेश करते ही सभी बच्चे हर्ष से प्रफुल्लित हो उठते हैं और उससे आकर लिपट जाते हैं, ठीक उसी प्रकार श्रीमान देवराज जी के महाविद्यालय के आँगन में पाँव रखते ही विद्यालय की सभी लड़कियाँ उनसे आकर लिपट जाती थीं । कई छोटी लड़कियाँ तो उनकी पीठ पर चढ़ जाती थीं और जेबों में हाथ डाल कर फल-फूल निकाल लेती थीं। उस समय वे भी उन बच्चियों के साथ बच्चे ही बन जाते थे । वे भी उनके साथ उसी प्रकार खेलते थे, हो हो करके चिल्लाते थे, भागते थे, लुकते थे। लड़कियाँ उन्हें खोजती थीं, वे लड़कियों को खोजते थे। मुझे यह दृश्य देखने का सौभाग्य अनेक बार प्राप्त हुआ था । सचमुच ऐसा जान पड़ता था, मानो पिता अपनी पुत्रियों के साथ खेल रहा है। माता-पिता के स्नेह से वंचित 'आश्रम' - निवासिनी कन्यायें लाला जी के साथ इस प्रकार खेलकर अपने माता-पिता के विछोह को भूल जाती थीं । आश्रम का कठोर और स्नेहशून्य जीवन लाला जी के इस पिता सदृश व्यवहार से उन्हें सरस जान पड़ता था ।
मैंने बहुत कम कन्या-संस्थायें ऐसी देखी या सुनी हैं, जिनके संचालकों पर किसी-न-किसी प्रकार का आचार-दोष जनता ने न लगाया हो । यही कारण
www.umaragyanbhandar.com
Page #548
--------------------------------------------------------------------------
________________
५००
सरस्वती
[भाग ३६
है कि आज से कुछ वर्ष पूर्व तक किसी भी कन्या. हो आया कि हाँ, इस नाम की अमुक स्थान की एक विद्यालय के साथ छात्राओं के रहने के लिए आश्रम लड़की विद्यालय में पढ़ा करती थी। तब उन्होंने जेब या बोर्डिङ्ग हाऊस न होता था। परन्तु श्रीमान् से एक रुपया निकाल कर, पुराने शिष्टाचार के देवराज-द्वारा संस्थापित जालन्धर के कन्या-महा- अनुसार, उस युवक को भेंट किया और कहा कि विद्यालय के साथ लगभग आरम्भ से ही छात्रावास आप सचमुच मेरे जामाता हैं, ससुर का यह प्रेमोपहार का होना इस बात का प्रमाण है कि जनता को लाला स्वीकार कीजिए और मेरी बेटी से राजी- खुशी देवराज पर कितना भारी विश्वास था। उनका कट्टर- कह दीजिएगा। से-कट्टर विरोधी भी कभी उनके चरित्र पर दोष आज कितने कन्या-विद्यालय या गर्ल्स स्कूल हैं नहीं लगा सका।
जहाँ इस प्रकार का पिता-पुत्री का सम्बन्ध देख ___ एक समय की बात है, मैं लाला जी के साथ पड़ता है या सम्भव भी है ? कहावत है कि मर्द की विद्यालय को जा रहा था। विद्यालय नगर से बाहर माया और वृक्ष की छाया उसके साथ ही जाती है। कोई डेढ़ मील के अन्तर पर है। रास्ते में एक मुसल- श्रद्धेय लाला जी के निधन से विद्यालय को जो इस मान किसान युवती सिर पर रोटी और हाथ में अंश में हानि हुई है उसकी पूर्ति अब किसी भी छाछ का लोटा लिये जाती मिली। लाला जी ने झट प्रकार सम्भव नहीं। लाला जी की मानस-पुत्रियों उसकी पीठ पर हाथ रख दिया और बड़े स्नेहपूर्ण का सारे देश में एक जाल-सा फैला हुआ था। कोई शब्दों में पूछा-बेटी, कहाँ जा रही हो? युवती ने भी नगर ऐसा न होगा, जहाँ जालंधर-विद्यालय की भी ठीक उसी भाव से जो पुत्री का पिता के प्रति पढ़ी हुई दो-एक लड़कियाँ न हों। होता है, उत्तर दिया-चाचा जी, खेत में हरवाहे को लाला जी में वाणी का संयम भी बहुत था। रोटी देने जा रही हूँ। उस स्वर्गीय दृश्य को देखकर मैंने कभी उनको किसी की निन्दा करते नहीं सुना । मुझे बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ। मैंने मन में सोचा, बड़े आदमियों में बहुधा निन्दा-चुगली सुनने की बड़ी कितनी पवित्र आत्मा है, कितना शुद्ध हृदय है ! कोई आदत होती है। वे कान के भी बड़े कच्चे होते हैं। दूसरा मनुष्य इस प्रकार नि:संकोच होकर दूसरे की परन्तु लाला जी की बात इसके विलकुल विपरीत थी। लड़की की पीठ पर हाथ रखने का साहस नहीं कर जब कोई मनुष्य उनके सामने किसी की निन्दा करने सकता।
लगता तब वे फौरन उसे रोक देते और कहते कि लड़कियाँ भी सचमुच उनके साथ अपना पिता- यदि उसमें एक-आध कमी थी तो सद्गुण भी तो पुत्री का सम्बन्ध मानती थीं । लाला जी ने मुझे खुद बहुतेरे थे। सर्वतोभावेन वह बहुत भला मनुष्य था। सुनाया था कि एक समय वे रेल में यात्रा कर रहे थे। हमें उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। जिस डिब्बे में वे सवार थे उसी में एक और यवक लाला जी रसिक और आनन्दी भी खूब थे। भी आ बैठा। उसने आकर बड़े प्रेम और सम्मान निर्दोष हँसी-मखौल में अच्छा रस लेते थे। एक के साथ उन्हें नमस्ते किया। थोड़ी देर के बाद समय की बात है, जालन्धर में एक ब्रह्मचारी आये । उन्होंने उससे पूछा कि मैंने आपको पहचाना नहीं, वे कोई २०-२२ वर्ष के युवक थे। घर की सारी
आप मुझे कैसे जानते हैं ? उस लड़के ने फट से संपत्ति किसी आर्य-सामाजिक संस्था को दान कर कहा-आप मुझे नहीं जानते ! मैं आपका जामाता दी थी और अब आप स्वामी दयानन्द की शैली पर हूँ। आपकी अमुक लड़की मेरे साथ व्याही हुई है। संस्कृत पढ़ने के उद्देश से जगह-जगह घूमते-फिरते यह सुनकर लाला जी दंग रह गये। फिर उन्हें याद थे। उनके सिर पर गाय के खुर के बराबर चौड़ी
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #549
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
लाला देवराज जी
५०१
और बहुत लंबी चोटी थी। सिर नंगा रखते थे। नहीं देखा। परन्तु सभा में बैठे हुए एक घोर आर्यपाँवों में खड़ाऊँ और तन पर धोती मात्र रहती थी। समाजी, मास्टर सत्यपाल जी, मुझसे बहुत बिगड़े। वहाँ एक आर्यसमाजी प्रोफेसर के यहाँ ठहरे थे। मैंने उनके बिगड़ने का कारण पूछा, तब बोले-तुमने जब चलते थे तब खड़ाऊँ की खटखट और चोटी का एक ब्रह्मचारी को तेल के पकौड़े क्यों खिलाये हैं ? फहराना अजब बहार दिखाता था। कुछ दिनों के मैंने पूछा-इसमें क्या हर्ज है ? वे बोले-शास्त्र बाद जब वे जालन्धर से जाने लगे तब मैंने उनको में ब्रह्मचारी को तेल के पकौड़े खिलाने का कहाँ एक एड्रस देने का आयोजन किया। कुछ सज्जन विधान है ? मैंने कहा-भाई, मैंने तो शास्त्र पढ़े निमंत्रित किये गये। उनमें अधिकांश लोग तो नहीं। मुझे पता नहीं था, क्षमा कीजिए। उदार विचार के रसिक मनुष्य थे, पर दो-एक घोर लाला देवराज जी ने जब ब्रह्मचारी को अभि
आर्यसमाजी भी थे! ब्रह्मचारी जी के जल-पान के नन्दन-पत्र देने की बात सुनी तब वे बहुत हंसे और लिए एक पैसे के पकौड़े मंगाये गये। मेरे पास कुछ बोले-तुमने मुझे क्यों न बुलाया ? उस सभा में तो शक्कर पड़ी थी, उसका शबंत बनाकर निमंत्रित मैं भी सम्मिलित होना चाहता था। मैंने कहा-जी, सज्जनों को पिलाया गया। जब एड्स-अभिनन्दन- आपको किसने बता दिया ? आपको सभा में पत्र देने का समय हुआ तब पहले तो ब्रह्मचारी जी बुलाना तो दूर, मैं तो डरता था कि आप सुनगे तो ने ही आने से इनकार कर दिया। बड़ी मुश्किल से नाराज होंगे। वे बोले-ऐसी निर्दोष हँसी में क्या वे पकड़ कर लाये गये। अब उस विचित्र सभा डर है ? का सभापति कौन हो, यह समस्या आ खड़ी हुई। लाला जी बड़े विद्या-व्यसनी थे। उनको उत्तउन दिनों मित्रवर भदन्त राहुल सांकृत्यायन (तव मोत्तम पुस्तकें इकट्ठी करने का बड़ा शौक़ था। वे अपने श्री केदारनाथ जी) भेरे पास ठहरे हुए थे। वे पीछे अपना निज का एक बहुत बड़ा पुस्तकालय उठकर खड़े हो गये और वोले कि मैं समझता हूँ, छोड़ गये हैं। भगवान बुद्ध का जीवन चरित और इस सभा के प्रधान पद के लिए मुझसे योग्य दूसरा उनके उपदेश वे विशेष चाव से पढ़ा करते थे। मनुष्य नहीं । इसलिए मैं इसका प्रधान बनता हूँ। उन्होंने पंजाब में हिन्दी-प्रचार के लिए भी इतना कहते ही वे झपटकर कुरसी पर जा बैठे। बहुत काम किया था। छोटे बच्चों की प्रकृति को वे तब मैंने अभिनन्दन-पत्र पढ़ना शुरू किया—"श्री व समझते थे। उनके लिए उन्होंने ४० के लगभग ब्रह्मचारी जी महाराज, जब आपकी चोटी का छोटी-छोटी सुन्दर पुस्तकें लिखी है। कन्या-पाठफहराना और खड़ाऊँ का खटखटाना याद आयगा, शालाओं में आज भी जितना लाला जी की पुस्तकों तब हम रो-रो मरेंगे—मैं इतना ही कह पाया था कि का प्रचार है उतना किसी दूसरे की पुस्तकों का नहीं । ब्रह्मचारी जी वहाँ से भागने लगे। उन्हें पकड़कर उन्होंने 'पाञ्चाल पण्डिता' नाम की एक मासिक बैठाये रखने का यत्न किया गया कि आप पूरा एड्स पत्रिका भी कई वर्ष तक चलाई थी। उस समय तो सुनकर जायें, परन्तु वे रोनी सूरत बनाकर पंजाब में हिन्दी का बहुत ही कम प्रचार था। फिर कमरे से बाहर भाग गये । प्रधान जी समेत सारी सन् १९१९ में उन्होंने महाविद्यालय की ओर से सभा उनके पीछे भागी और उनको सड़क में पकड़ 'भारती' नाम की एक और मासिक पत्रिका लिया कि हमने इतनी तैयारी की है, अब आपको निकाली थी। एड्स लेना ही पड़ेगा। खैर, ज्यों-त्यों करके वे वहाँ लाला देवराज जी आर्यसमाज के पुराने सेवक से भाग गये और फिर उनको जालन्धर में किसी ने और पक्के समाज-सुधारक थे। उनके परिवार में
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #550
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०२
सरस्वती ।
[भाग ३६
दो लड़कियों और एक लड़के ने जात-पात तोड़कर में धाक है । मेरा अपना भी अनुभव है कि कन्याविवाह किया है। पर्दा-प्रथा पर तो वे बहुत दिन महाविद्यालय की लड़कियाँ पंजाब में हिन्दी लिखने पहले से ही कुठाराघात कर चुके थे। वे आनरेरी में सबसे अच्छी हैं। मजिस्ट्रेट थे। परन्तु सन् १९२० में, मार्शल ला के लाला जी अपने पीछे दो पुत्र, श्रीयुत गन्धर्वगज कारण असहयोग करके, उन्होंने मजिस्ट्रेटी छोड़ तथा श्रीयुत ऋषिदेव, और विधवा स्त्री श्रीमती दी थी।
टहलदेवी जी को छोड़ गये हैं। उनकी पुत्री श्रीमती वे बड़े मिलनसार, निरभिमान और सहृदय गार्गीदेवी और पुत्र श्री बोधराज का देहान्त पहले थे। उनसे मिलकर सदा आनन्द प्राप्त होता था। हो चुका था। परन्तु लाला देवराज का सबसे बड़ा संगीत, वाद्य, चित्रकारी आदि ललित कलाओं का स्मारक उनका स्थापित किया हुआ कन्या-महाविद्यालय भी उनको बड़ा शौक़ था। महाराष्ट्र आदि से है। बड़े सन्तोष का विषय है कि लाला जी के बहुत अच्छे-अच्छे संगीताचार्य मॅगाकर वे विद्यालय लोकान्तरित होने पर कुमारी लज्जावती, श्री में लड़कियों को शिक्षा दिलाया करते थे। मेरा अनु- कर्मचन्द्र एडवोकेट और श्री खैरायतीराम जी मान है कि अब भी लड़कियों के लिए संगीत, वाद्य एडवोकेट आदि अनेक देवियों और सज्जनों ने
और चित्रकारी का जैसा अच्छा प्रबन्ध जालन्धर- लाला जी के लगाये हुए उपयुक्त पौधे की रक्षा और महाविद्यालय में है, उतना किसी दूसरे में नहीं। सेवा का भार अपने ऊपर ले लिया है और तन, महाविद्यालय की हिन्दी-शिक्षा की तो सारे पंजाब मन, धन से उसमें लगे हुए हैं।
अपरिचित से
लेखक, श्रीयुत पद्मकान्त मालवीय मैंने भी देखी हैं अच्छी घड़ियाँ तुम्हें बताऊँ क्या ? सुन न सकोगे, लम्बी गाथा है, यह तुम्हें सुनाऊँ क्या ?
हँसती है तो हँस ले दुनिया, ऐसा समय हमारा है।
शिकवा उसका क्या जब अपनी किस्मत कसे किनारा है। भिक्षापात्र भाग्य का लेकर बैठा अलख जगाता हूँ। अपने आप कभी हँसता हूँ और कभी मैं गाता हूँ ॥
लाल सखी का कभी इधर भी कोई तो आयेगा ही।
सोया है जो आज.किसी दिन आखिर वह जागेगा ही। यद्यपि भाग्य पास है ऐसा जिससे जग भय से भागे। हाथ न फैला है फैलेगा यह न किसी के भी आगे ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #551
--------------------------------------------------------------------------
________________
नारी-अपहरण में हिन्दू-समाज की जिम्मेदारी
MC
ANDE
लेखक, पण्डित मोहनलाल नेहरू मजोर मार खाने की ही होता रहा है और हो रहा है। इसका भी काफ़ी निशानी' एक पुरानीमसल सुबूत है। वे लोग कानून-कायदों-द्वारा रोक-थाम अब है, और आज तक यह ठीक भी करते रहते हैं । फौज-द्वारा लड़कर स्त्री का साबित होती जा रही है। अपहरण करना उतना ही बुरा है, जितना चुरा ले स्त्री-जाति कमजोर है। जाना । हमारे देश में आज-कल स्त्रियाँ चोरी जाती
उसे शायद परमेश्वर ने हैं, इसमें शक नहीं और उनमें अधिकतर हिन्दू-जाति
- ही कमजोर बनाया है, की ही होती हैं, इसमें भी सन्देह नहीं। इस तरह कम से कम पुरुप से तो कमजोर बनाया ही है। चोरी जाने में और सीना-जोरी से ले जाये जाने में
आदमी जब जंगली हालत में था तब से आज तक ज़रा-सा भी भेद नहीं है। जब कि वह अपने को
बहुधा लेखक इस सभ्य समझता है, स्त्री
SEXSISAMSKRISHCHINTSS विपय पर लिख चुके है पर नाना प्रकार के हिन्दुनों की ही स्त्रियों का अपहरण क्यों होता है ?
और अभी हाल में ही अत्याचार करता आया
श्री राधारमण जी शर्मा इसलिए कि हिन्दू-समाज में अपहृत नारी वापस नहीं है। उनमें से एक उसे
के लेख में जो सितम्बर ली जा सकती। जब तक समाज की यह संकीर्णता अपहरण करने का भी
के 'चाँद' में छपा है दूर नहीं की जायगी तब तक हिन्दू स्त्रियों का है। कमजोर होना तो
बहुत विस्तार से हिन्दूअपहरण रुक नहीं सकता। यह लेख पढ़िए । बड़ा पाप है और यह
स्त्रियों के चोरी जाने उसी पाप का प्रायश्चित्त r+MSSEN>KAKKKr<++r>
Page #552
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०४
सरस्वती
[ भाग ३६
पा चुके हैं। वास्तव में ऐसा मालूम होता है कि इन दूसरा उदाहरण उससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक गुंडों की मंडलियाँ हैं, जिनमें हिन्दू, मुसलमान, पुरुष, है ! वह भी सुनिए। एक हिन्दू उच्च कोटि के स्त्री, सभी सम्मिलित हैं। अगर मैं यह कहूँ कि परिवार में दो भाई थे। बड़े विवाहित थे और दोनों हिन्द-समाज स्वयं ही अपनी स्त्रियों का अपहरण भाइयों में काफी मेल व प्रेम था। अचानक बडे • कराता है तो शायद अनुचित न होगा । शर्मा भाई का देहान्त हो गया और घर में उनकी विधवा
जी ने स्वयं ही ऐसा एक उदाहरण अपने लेख में और छोटा भाई रह गये। भावज को वह काफ़ी दिया है, जिससे भेरी राय का समर्थन होता आदर भाव से रखता था, जो उसके लिए उचित भी है। मगर मैं खाली उसी पर दार-मदार नहीं था। मगर समाज को कहाँ चैन ? लोगों में काना फूसी करता । अगर सेवा समिति से कोई दरियाप्त होने लगी। वह भिन्न भिन्न वर्ग के दो व्यक्तियों को करे तो वह सैकड़ों उदाहरण इसके सुबूत में दे एक घर में रहते देख उनका सम्बन्ध पवित्र समझ सकती है। यहाँ मैं केवल दो उदाहरण दूंगा जो ही नहीं सकता था। काना फूसी इस दर्जे तक बढ़ी कि मुझे सेवा समिति के सेक्रेटरी श्री भारतीय जी ने भाई का विवाह होना असम्भव हो गया और उसे बताये हैं।
भावज के त्यागने पर मजबूर होना पड़ा। पर किस ___ एक १७-१८ वर्ष की लड़की जो नवविवाहिता मुँह से यह सब भावज से कहता ? उसे तीर्थ कराने थी, किसी कारण से गर्भवती हो गई । पति ने उस घर से ले चला और नैनी के स्टेशन पर जो इलाहा. गर्भ का अपने द्वारा होना स्वीकार न कर उसे घर बाद से ४ या ५ मोल पर है, उसे छोड़कर गायव हो से निकाल दिया । बिरादरी को तो मौका मिलने की गया। वह युवती इतनी बेवका न थी जितनी उसे देर थी। हमारा हिन्दू-समाज किसी सुधार में यक़ीन समाज ने समझा.था और वास्तव में बहुधा हिन्दू-स्त्रियाँ नहीं करता। बस, वह नवयौवना बहिष्कार करने होती भी हैं। वह इलाहाबाद शायद आई-गई हो योग्य हो गई, चाहे जो भी उसका परिणाम हो । उसके या कुछ अनुभव उसे प्रयाग-सेवा-समिति का था। पिता से कहा गया कि यदि वह उसे आश्रय देगा उसने इलाहाबाद-स्टेशन पर उतरकर सेवा समिति तो वह भी समाज से निकाल दिया जायगा । वह वालों को जो वहाँ तैनात रहते हैं, बुलाकर सारा इस धमकी से इतना डरा कि प्रयागराज लाकर उसे कच्चा चिट्ठा कह सुनाया। वे बेचारे उसे उसके त्याग दिया । सेवा-समितिवालों ने उसे बहुत घर ले गये और कुछ रुपया-पैसा उसे दिलसमझाया, किन्तु वह कब माननेवाला था। धारों वाकर उसके रहने-सहने का उचित प्रबन्ध कर रोता था, परन्तु लड़की को तो त्यागना ही था सो आये। त्याग गया। सेवा-समिति ने उसे आश्रय दिया, मगर और एक ताजा उदाहरण लीजिए। जबलपुर न मालूम वैसी कितनी लड़कियाँ निराश्रिता रह जाती के जिले में बेंडा नाम का एक ग्राम है। जुलाईहोंगी। समाज की हालत तो देखिए ! जो कोई उस महीने की बात है, वहाँ कुछ गोरे सैनिकों लड़की को आश्रय दे वह भी बहिष्कार के योग्य। ने धावा बोल दिया। एक आदमी जान से मारा
और यह है हमारा हिन्दू-समाज जो रात-दिन गया और कितनी ही स्त्रियाँ दिन-दोपहर बेइज्जत की अहिंसा की दोहाई देता रहता है। किसी कीड़े को गई। गाँववाले कुछ छिपकर, कुछ घायल होकर खुले जान से मारो तो वह हिंसा है, मगर अपने बाल- मैदान में अपनो स्त्रियों तथा मा-बहनों पर बलात्कार बच्चों को भूखा मारने पर मजबूर किये जाओ। यह होता देखते रहे। वाद को वे सब स्त्रियाँ जाति कैसी अहिंसा है ? वाह !
से अलग कर दी गई। ऐसा उन्होंने जज साहब के
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #553
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
नारी-अपहरण में हिन्दू-समाज की जिम्मेदारी
५०५
सामने बयान किया है। यह दोहरा अत्याचार यदि लड़कियों के माता-पिता स्वयं उन लड़कियों हुआ ! यही तो हमारा हिन्दू समाज है !! को पञ्जाव में व्याह देते ! लड़की भगानेवालों का
समाज की ऐसी दशा में चरित्र-सम्बन्धी शिक्षा पेशा ही खत्म हो जाता। क्या करेगी? कितनी ही सञ्चरित्र, कितनी ही एक मित्र ने मुझे एक ऐसा मामला बताया है, शिक्षित कोई युवती क्यों न हो, समाज तो फर्जी जहाँ एक मित्र की स्त्री का दूसरे मित्र ने उसकी बातों पर उसका बहिष्कार करने पर कटिबद्ध है, अनुपस्थिति में अपहरण कर लिया। उन दोनों में चाहे वह गुंडों के हवाले ही हो जाय। चरित्र की रक्षा न कोई मुसलमान है, न गुंडा । मुझे एक दूसरा ऐसा की हिम्मत तो ज़रूरी चीज़ है । मगर मैं पूछता हूँ मामला मालूम है, जहाँ एक ऊँचे अफसर की स्त्री को कि वह हिम्मत ऐसे मामलों में जो श्री राधारमण दूसरे ऊँचे अफसर ने भगा लिया और थोड़े ही जी ने स्वयं लिखे हैं या बेंडा में हुए, क्या कर दिनों के बाद निकाल बाहर भी किया। ऐसी दशा में सकती है।
___ यह देखा गया है कि हिन्दू-समाज स्त्री को ही सज़ा ____ गुंडे चाहे हिन्दू हों, चाहे मुसलमान हों, अधिक- देता है और पुरुष साफ़ छूट जाता है और गुलछरें तर हिन्दू-लड़कियों पर ही अपना हाथ माफ करते उड़ाता है। हैं । क्यों ? उन्हें हिन्दू-समाज ही सहायता देता है। ऐसा भी देखा गया है कि बहुत कुछ घर के मुसलमान-समाज उन्हें सहायता नहीं देता, बरन झगड़ों से तंग आकर या सास-ननद के अत्याचारों रोक-थाम करता है । इसी से एक लड़की के अपहरण को न सहकर भी लड़कियाँ भाग खड़ी हुई हैं। में चारों तरफ से हाय-पुकार होने लगती है। जब वह अपने समाज में जब तक सुधार न होगा और जब समाज अपहृत लड़की को वचा लेता है तब उसको तक वह सामाजिक बहिष्कार के शब्दों को भूल न दोपी या कुलटा ठहराकर समाज से निकाल जायगा तब तक यह समस्या हल न होगी । हमें बाहर नहीं करता। वह गुंडों को दण्ड दिलाकर दूसरों पर इल्ज़ाम लगाने के पहले अपने घरों को उसे आदरपूर्वक घर में रखता है और आगे उसका ठीक करना है। अपहरण होने से बचाता है। हिन्दू लड़की का पिता यह न समझा जाय कि मैं राधारमण जी से पहले तो स्वयं ही उसका चोरी जाना छिपाता है, चरित्र-सम्बन्धी शिक्षा देने में सहमत नहीं हूँ। मैं क्योंकि उसे डर रहता है कि समाज उस लड़की का चरित्र-सम्बन्धी शिक्षा उसे समझता हूँ जिससे कोई बहिष्कार करावेगा ही, और अगर वह लड़की मिल व्यक्ति अपनी आत्मरक्षा या अपने सतीत्व की रक्षा गई तो क्या लाभ । यहाँ तो घर से एक दफे जाना कर सके। दूसरे शब्दों में वह शिक्षा जो अपराधी या बहिष्कार के वास्ते काफी है। वह मिली तो उसके भावी अपराधी को दण्ड दे सके। उस शिक्षा की घरवालों की और उसकी दोनों की तबाही, न न केवल स्त्रियों को जरूरत है, बरन हिन्दू पुरुषों को मिली तो कुछ हालतों में उसकी तबाही बच जाती भी। वह शिक्षा न किताबी है, न स्कूलों में ही मिल है। इस खयाल से शायद समझदार लड़कियाँ खुद सकती है। वह तो मा-बाप के उत्साहित करते रहने ही छिप रहती हो। कहते हैं, पञ्जाब में अक्सर ये में बच्चे को शुरू से ही मिल सकती है। जब अपनी भगाई हुई लड़कियाँ व्याही जाती हैं । सच-झूठ की आत्म-रक्षा का भार हम अपने ऊपर उठा लेंगे तब खबर नहीं। पञ्जाब में लड़कियाँ कम हैं, बङ्गाल में दूसरा आसानी से हमारे घरों पर आक्रमण नहीं और संयुक्त प्रांत में बहुत हैं। क्या अच्छा होता कर सकता।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #554
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस लेख में कुँवर साहब ने "शब्द" नाम की तन्मात्रा का विवेचन किया है। तन्मात्राओं-सम्बन्धी आपका यह अन्तिम लेख है।
शब्द
लेखक, श्रीयुत कुँवर राजेन्द्रसिंह भूतपूर्व मिनिस्टर
नॉगरेजी के लेखकों ने फिर
को माना है। हमारे आचार्यों ने वही गड़बड़ किया।
बातें बना करके टाल देनेवाला श्रवणेन्द्रिय के विषय
ढंग नहीं रक्खा था । जितनी तरह को छोड़कर उसके कर्म को तन्मात्र
से किसी गूढ विषय पर प्रकाश मान लिया है। उनके लेखों का
डाला जा सकता है, उतनी ही शीर्षक 'शब्द' नहीं, 'श्रुति' है।
तरह से प्रकाश डालने और समयदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो
झाने की कोशिश की गई है। प्रतीत होगा कि दोनों में महान
अमरकोप में शब्द के पर्यायअन्तर है । हमारे देश के आचार्यों
जैसे, “निनाद, निनद, ध्वनि, ने किसी विषय को क्षिप्रदृष्टि से नहीं देखा, बरन ध्वान, रव, स्वन, स्वान, निर्घोप, निर्हाद, नाद, उसका इतना मनन और मथन किया कि 'वाल की निःस्वान, निःस्वन, आरव, आराव, संराव, विराव खाल' निकल आई। किसी अन्य देशवासी से यदि इत्यादि कहे हैं । इसकी चौथाई सूची भी क्या किसी पूछा जाय कि शब्द कितने तरह के होते हैं तो वह और भाषा में मिलेगी ? विश्वकोप में लिखा हैमुस्करा देगा, और वह मुस्कराहट यह सूचित कर रही "ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक भेद से शब्द दो प्रकार का होगी कि क्या लड़कों का-सा सवाल करते हो। है। मृदङ्गादि के शब्द को ध्वन्यात्मक और कण्ठतालु___हम लोगों का यह कहना है कि शब्द श्रवणेन्द्रिय अभिघातजन्य क, ख इत्यादि शब्द को वर्णात्मक का विषय है और इसका देवता आकाश है। यह कहते हैं। दोनों प्रकार के शब्द आकाश से उत्पन्न माननीय है कि कानों का विषय शब्द ही हो सकता होते हैं तथा जब श्रोत्रेन्द्रिय के साथ उसका अभिहै न कि सुनना। और यह भी विवादरहित है कि योग होता है तब अविकृत श्रोत्रेन्द्रियवान जीवमात्र बिना आकाश के कोई शब्द नहीं सुनाई देगा। ही उसका अर्थ बोध कर सके या न कर सके, पर
आकाश की गणना पञ्च महाभूतों में है । 'क्षिति जल शब्द अवश्य अनुभव कर सकता है। फलतः जब पावक गगन समीरा, पञ्च रचित यह अधम शरीरा। तक शब्द के साथ श्रोत्रेन्द्रिय का अभिषङ्ग नहीं इसी कारण, और यथार्थतः, शब्द का देवता आकाश होता तब तक उसकी उपलब्धि नहीं होती । यही
५०६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
शब्द
५०७
कारण है कि हम बहुत दूर का शब्द नहीं सुन शब्द की महिमा अपार है। यह अतिवाक्य है-- सकते ।" जिन्हें पुस्तकें 'हड़प' कर जाने का शौक़ "शब्दो नित्यः”। इसी कारण इसका स्थान विषयहोता है उन्हें ऊपर के वाक्य क्या समझ में आवेंगे? वर्ग की सूची में प्रथम है; इसी पर सब कुछ निर्भर दूसरे ये उस भाषा में लिखे हैं जिसका लिखना या है। यह कहा जाता है, और रोज़ का अनुभव भी है बोलना ग्रामीणता की पहचान समझी जाती है। कि संगीत का प्रबल प्रभाव केवल मनुष्यों पर ही कहाँ तक हम अपनी प्रशंसा करें . हम अपनी भाषा क्या, समस्त जीवधारियों पर पड़ता है। यदि कान अब भूल गये हैं। हा ! “धिक है जो उसी के विरोधी ही नहीं हैं तो उन मधुर शब्दों से कैसे आनन्द बने जिसने इस योग्य बनाया तुम्हें ।"
आवेगा? शब्द-विषय की अधिकता मृग में इतनी नैयायिकों का कहना है कि 'मृदङ्गादि वा कण्ठ- ज्यादा होती है कि उसी के द्वारा वह नाश को प्राप्त तालु आदि में अभिघात लगने से वहाँ के नभः- होता है। यह कहा जाता था-यद्यपि अब एक प्रदेश में उत्पन्न शब्द वीचितरङ्गन्याय से अर्थात् निमूल कपोलकल्पित कहानी मालूम होती है जब जिस प्रकार किसी स्थान के जल में वायु द्वारा एक कि वीणा की जगह बेसुरा पाइप बज रहा है कि तरङ्ग उत्पन्न होने से क्रमशः उसी के घात-प्रतिघात- मग वीणा का शब्द सनकर इतना मग्ध और स्तब्ध द्वारा बहुत दूर तक तरङ्ग बढ़ती जाती है, मृदङ्गादि हो जाता था कि वह जिन्दा पकड़ लिया जाता था। में प्रथम, द्वितीय, तृतीय इत्यादि आघातजन्य सूरदास जी ने यह दिखलाया है कि केवल मृग ही उत्पन्न शब्द भी वायु-द्वारा क्रमशः उत्तरोत्तर उक्त पर नहीं, बरन और जीव-जन्तुओं पर भी शब्द का प्रकार के तरङ्गाकार में श्रवणेन्द्रिय-पयेन्त पहुँचकर प्रबल प्रभाव पड़ता है। आपने तानसेन की प्रशंसा उसमें प्रतिहत होने से वहाँ उसका विकास होता है।' में कहा है---
यह भी किसी किसी का मत है कि "कदम्ब- विधना यह जिय जानि के दियो शेष नहिं कान । गोलकन्याय से अर्थात् मृदङ्गादि में प्रथम, द्वितीय धरा मेरु सब डोलि है सने तान की तान ॥' आदि आघातजन्य क्रमशः उत्पन्न शब्दों की उस जिस तरह संसार में भूकम्पों का जोर है, उससे प्रथम उत्पत्तिस्थान को ही कदम्ब-पुष्प की तरह तो यह मालूम होता है कि कान न होते हुए भी किसी गोलाकार वस्तु के केन्द्रस्वरूप तथा उसके केशरों बिहारी या क्वेटा के गवैये के मधुर शब्दों का प्रभाव की तरह उक्त केन्द्रोत्पन्न शब्द व उनकी गति व्यासार्द्ध शेप जी पर इतना पड़ा है कि वे उसकी प्रशंसा में स्वरूप चारों ओर विक्षिप्त होती है, इस विक्षेपकाल खूब सिर हिला रहे हैं। में जहाँ जहाँ उस शब्द या उसकी गति के साथ वेदान्त या सांख्य की दृष्टि से तो नहीं, लेकिन श्रोत्रसंयोग होता है उन्हीं सब स्थानों में उनका अंगरेजों ने प्राण्योपधिजीवनशास्त्र की दृष्टि से इस विकास दिखाई देता है।"
ओर अच्छी खोज की है। हमारे देश में जो खोज महाभारत के अश्वमेधपर्व में शब्द को कई की गई थी वह लुप्त हो गई है। इंसायक्लोपीडिया भागों में विभक्त किया है-'षड्ज, ऋषभ, गान्धार, ब्रिटानिका में शब्द की अच्छी व्याख्या की गई है। मध्यम, पञ्चम, निषाद, धैवत'। इष्ट और संहत के भेद यह कहा गया है कि शब्द एक तरह के यांत्रिक कम्प से शब्द दस भागों में विभक्त किया गया है। संस्कृत हैं, जिन्हें चाहे हम सुन सकें या न सुन सकें। इस पर में विशेष विशेष शब्द का विशेष विशेष नाम है । सूची लोगों ने प्रायः ध्यान दिया होगा कि पदार्थों में शब्द बहुत लम्बी है और इस स्थान के लिए कुछ असङ्गत- उत्पन्न होने के समय एक प्रकार का कम्प पैदा हो सी प्रतीत होती है, इस कारण वह छोड़ दी जाती है। जाता है जो अँगुली रखने से जाना जा सकता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०८
सरस्वती
[भाग ३६
वह कम्प किसी किसी पदार्थ में दिखलाई भी देता है, तीव्रता में कमी नहीं होती है। बाज़ बाज़ कान घड़ी जैसे खिंची हुई तन्त्री। वह कम्प केवल धुंधली बाह्य के टिक टिक करने से व्याकुल हो जाते हैं, पर बन्दूक रेखा से मालूम होगा। वायवी साधन से सब जगह या तोप की आवाज़ का उन पर कोई बुरा प्रभाव शब्द पहुँचता है। उदाहरण में टेलीफ़ोन का खिंचा नहीं पड़ता है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रकृति हुआ तार बतलाया गया है। यह भी लिखा है कि कई का एक यह नियम है कि शब्द की तीव्रता बढ़ते ही बधिर पुरुषों को सिर की हड्डियों-द्वारा शब्द सुनवाया कान की चेतनता घट जाती है। यह भी कुछ कान गया है । तरकीब यह की गई थी कि एक सख्त को प्रकृति ने शक्ति दी है कि एक ही तरह के शब्दों डंडा उनको दाँतों के नीचे दबाने को दिया गया की भिन्नता को वह पहचान ले । वास्तव में बहुत जिसका एक सिरा उस पदार्थ से लगा हुआ था (जैसे कम शब्द हैं जो 'शुद्ध' कहे जा सकते हैं, यानी जिनमें घड़ी या पियानो बाजा) जो ध्वनित हो रहा था। स्वर की अधिकता न हो। स्वर की अधिकता की यह भी खोज करनेवालों ने पता लगाया है कि शब्द उपस्थिति या अनुपस्थिति शब्द के गुण का सूचक का वेग कितना होता है। उन्होंने बतलाया है कि होती है, और इससे यह सिद्ध होता है कि शब्द का बिजली की कड़क चमक के थोड़ी देर बाद सुनाई गुण बहुत कुछ वायु की तरङ्ग के आकार पर देती है। उसी तरह बन्दूक़ से पहले एक ज्वाला निर्भर होता है जो हमारे कान तक पहुँचती है। निकलती दिखलाई देगी तब शब्द सुनाई देगा। इससे खोज से यह भी पता चला है कि उस तरङ्ग का यह सिद्ध होता है कि शब्द को भी यात्रा करने में आकार कैसा होता है और अमुक पदार्थ से उत्पन्न कुछ देर लगती है । शब्द से प्रकाश अधिक शीघ्रगामी हुए शब्द में कौन कौन सस्वरता उपस्थित है और है। इसकी गति १,८६,००० मील प्रति सेकंड उनका एक-दूसरे के प्रति क्या सम्बन्ध है। है। वायु में शब्द की यात्रा का वेग केवल पाँच जो कुछ आज-कल के विज्ञान-विशारदों ने इस सेकंड प्रति मील है। पानी में लगभग एक सेकंड ओर खोज करके लिखा है यदि उसका शतांश भी के और लोहे या फौलाद में एक सेकंड के तिहरे लिखा जाय तो एक छोटी-मोटी पुस्तक लिख जायगी के । वायु से पन्द्रह गुणा अधिक वेग शब्द की यात्रा और यह लेख अपनी सीमा को उल्लंघन करके एक का लोहे में होता है। उन लोगों ने बतलाया है कि नया रूप धारण कर लेगा। पुराने ज़माने में हमारे बिना तीन चीजों के न तो शब्द उत्पन्न हो सकता देश में जो खोजें की गई थीं उनका तो पता नहीं है, है, न वह दूर तक यात्रा कर सकता है और न उसका लेकिन जिनका पता है और जिनके कुछ अंश ऊपर ज्ञान ही हो सकता है-(१) शब्द उत्पन्न करनेवाले उद्धृत किये गये हैं उनसे पता चलता है कि आधुनिक पदार्थ में कम्प हो, (२) उस पदार्थ से कोई साधन जुड़ा और प्राचीन समय के खोज करनेवालों का हो, (३) और दूसरी ओर कम्पों को स्वीकार करने- विचार-प्रवाह एक ही ढङ्ग का है।। वाला कोई यन्त्र हो जो कम्पों की गति बता सके। अँगरेज़ी-लेखकों ने शब्द की व्याख्या करके श्रुति तब उनका अनुभव किया जा सकता है। यह भी की व्याख्या की है। वे कहते हैं कि जो वायु हमारे खोज से पता लगाया गया है कि शब्दों में भिन्नता चारों तरफ रहती है वह कम्पों-द्वारा बराबर होती है। शब्द की उच्चता चेतनता के अंश का आकुलित हुआ करती है जो लहरों के आकार में हम अनुरूपक है, और इन दो बातों पर निर्भर है कि तक पहुँचती है। अँगरेजी में 'श्रुति-शब्द इस अर्थ वह कितना तीव्र है या कान में कितनी चेतनता है। का सूचक समझा जाता है कि किस प्रकार शब्द के किसी किसी शब्द की उच्चता दुर्बल होने पर भी कम्प ज्ञानेन्द्रियों पर प्रभाव डालते हैं और कैसे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
५०९
उनमें एक विशेष चेतनता उत्तेजन-द्वारा उत्पन्न होती सदा परिपूर्ण रहता है। किसी किसी के सोने के है। केवल वही कम्प शब्द को उत्तेजना देते हैं समय वह बन्द हो जाता है। इसका सम्बन्ध तालु से जिनमें सतता होती है। ये सीमायें प्रत्येक मनुष्य में होता है। किसी चीज़ के निगलने के समय यह पृथक् पृथक् होती हैं। इनका सामान्य अतीत २० से सदैव खुल जाता है, और अन्दर की हवा बाहर लेकर २०,००० कम्प प्रति सेकंड है। बहुत-से जानवर निकल जाती है और बाहर की हवा अन्दर आ जाती केवल बहुत ऊँचा शब्द सुन पाते हैं, इसके प्रतिकूल है। इससे बाहर और अन्दर की हवा का दबाव मछलियों और जलजन्तुओं में मन्द कम्पों की चेतना बराबर रहता है। यदि दबाव बराबर न रहे तो कान होती है और सो भी वे जिनमें शीघ्रता न हो। की चेतना जाती रहती है। ___ कान के तीन हिस्से होते हैं। बाहरी हिस्सा शब्द कानों से केवल हम सुनते ही नहीं हैं, बरन की लहरों को जमा करता है, बीचवाला सबसे अन्दर- शब्द की व्याख्या भी करते हैं। शब्द की तरङ्गों में वाले हिस्से तक पहुँचाता है और अन्दरवाला उनका भिन्नता होती है-किसी में तीव्रता होती है और विभेद और विच्छेद करता है और उन्हें ज्ञानतन्तुओं किसी में स्वर । स्वर यह सूचित करता है कि अमुक की प्रवृत्तियों में परिवर्तित कर देता है, जिन्हें मस्तिष्क समय में कितनी वायु की तरङ्गे कान तक पहुँचती पा कर उनको प्रतिबंधित करता है। दोनों कानों हैं और उनका स्थायित्व क्या है। यह अभी अँगरेज़ में बराबर शब्द पहुँचता है, और एक-दूसरे की विद्वानों के मतानुसार विवाद-रहित नहीं है कि सहायता किया करता है। यदि उस आदमी से किस तरह से हम किसी शब्द का स्वर पहचान पाते बातें की जायँ जिसके कानों की चेतना घट गई है हैं, जिसकी ध्वनि मिश्रित होती है । इस ओर खोज तो वह कान के पीछे हाथ लगा कर सुनेगा, जिससे करनेवालों का कहना है कि बहुत कुछ खोज किये यह प्रकट होता है कि वह शब्द की लहरों को जाने पर भी अभी बहुत कुछ खोज करना बाकी है। अधिक एकत्र करने की चेष्टा कर रहा है और वह जानवर कान का उपयोग अधिकतर नर और बातें करनेवाले मनुष्य के ओठों की तरफ़ देखेगा। मादा के खोजने में करते हैं। नर शब्द उच्चारण करता देखने और सुनने में बड़ा सम्बन्ध है। बहुत कुछ है और मादा उसे सुनकर समद हो जाती है। मादा हम देख करके समझ लेते हैं कि क्या कहा जा रहा शब्द के अोज से प्रभावित होती है। टेलीफ़ोन-द्वारा होगा, चाहे कान न मदद करें। मनुष्यों को प्रकृति नर का शब्द मादा तक पहुँचाया गया और उसे सुनने यह शक्ति नहीं दी है कि वे अपने कानों को कर उस पर वही प्रभाव पड़ा जो नर के सामने होने इधर-उधर चला सकें। यह शक्ति बाज़ बाज़ जान- पर पड़ता। कुछ पतिंगों में सुनने की शक्ति उनके वरों में होती है, वे अपने कानों को घुमाते हैं और अगले पैरों में होती है और किसी किसी के शरीर विस्तृत भी कर लेते हैं और वह भी जिधर से शब्द में । प्रकृति की ऐसी ही विचित्र रचना है। आ रहा होता है उधर कान कर देते हैं। कान के अब यह मालूम हो गया है कि शब्द क्या है, अन्दर का हिस्सा अनियत होता है और इसी वजह शब्द कितनी तरह के होते हैं, कैसे उत्पन्न होते हैं, से उस पर प्रतिनाद का बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। कैसे यात्रा करते हैं और कैसे सुनाई देते हैं। यह नहीं है कि उसे प्रतिनाद मालूम ही न होता हो। अब यह देखना रह गया है कि शब्द का प्रभाव ___ कानों के परिमाण से शब्दों की लहर कहीं बड़ी कामकारिणी इच्छाओं पर क्या पड़ता है। कुछ होती है। उसका अतीत ३ इंच से लेकर ५५ फुट अँगरेज़ी-लेखकों ने इस ओर बहुत खोज की है। तक होता है। कान के मध्यभाग का छिद्र वायु से शब्द-द्वारा ही हम अपनी इच्छायें प्रकट करते हैं
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #558
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१०
सरस्वती
[भाग ३६
और इसी वजह से विषयवर्ग की सूची में इसका को छू देता है और स्वभावतः वह ध्वनित हो जाती प्रथम स्थान है। घोड़े हिनहिना कर, कुत्ते गुर्रा कर है। यदि स्त्री चुप रही तो पुरुष समझ लेता है कि अपनी मादाओं को उत्तेजित करते हैं। कहा जाता उसका प्रस्ताव स्वीकृत हो गया है। है कि प्राचीन समय में मनुष्य भी इसके लिए अश्लील प्रभाव बहुत कुछ प्रथा पर निर्भर होता है। शब्दों का उच्चारण करते थे। एक और लेखक का आस्ट्रिया में किसान जब सवेरे अपने बैलों या घोड़ों कहना है कि इस प्रथा का लोप अभी तक नहीं हुआ को खेतों में काम करने के लिए ले जाने लगते है, और न शायद कभी होगा। ऐसे अवसरों पर हैं तब अपने चाबुकों को बजाते हैं। कहा जाता सभ्यता संकुचित होने लगती है और मनुष्यों और है कि इस शब्द का बहुत बड़ा प्रभाव गाँव की जानवरों में केवल नाममात्र का फ़र्क रह जाता है। युवतियों पर पड़ता है, और वे पहचान लेती हैं एक लेखक का मत है कि ऐसे भाषित शब्द ही कि अमुक शब्द उनके प्रेमी के चाबुक का है। नहीं, बरन कोई सरीली ध्वनि भी आनन्ददायक होती गड़ियों के (नागपञ्चमी) अवसर पर यहाँ पतावर है और उसके मतानुसार कटिकिंकिणी पहनने का के कोड़े बनते हैं जिन्हें मनचले युवक या 'बुड्ढे अभिप्राय भी यही है। हमारे देश के कवियों का भी लड़के' घुमा घुमा कर बजाते हैं और उनका भी शायद यही विचार था। इस तरह की चीजों की अभिप्राय गाँव की युवतियों को प्रसन्न करने का सूची में उनके मतानुसार चूड़ियों और बिछुओं का होता है। भी स्थान है। एक कवि कहता है-'कटिकिंकिणी प्रभाव बहुत कुछ स्वर पर भी निर्भर होता है। नेक न मौन गहै चुप लैबो चुरीन से माँगती हैं।' मन्द स्वर में विश्वास होता है। एकान्त में भी प्रेमी मतिराम जी कहते हैं
अपनी प्रेमिका से अपने तप्त हृदय का उद्गार मन्द "गौने को द्योस सिंगारन को,
स्वर में ही कहता है । जैसे, 'चुराये हुए चुम्बन मीटे 'मतिराम' सहेलिन को गन आयो।। होते हैं। वैसे ही मन्द स्वर में कहे हुए शब्द अति कञ्चन के बिछुवा पहिरावत,
मधुर होते हैं। अपवादवक्ता भी मन्द स्वर में ही ___प्यारी सखी परिहास जनायो। बातें करते हैं। उनका यह खयाल होता है और पीतम स्रौन समीप सदा,
ठीक खयाल होता है कि इससे प्रभाव कम-से-कम ____ बजे यों कहके पहले पहिरायो। द्विगुणित हो ही जायगा। अपने यहाँ की एक कहाकामिनी कौल चलावन को,
वत है, "क्या कनफुसकी करते हो।" इसका प्रयोग ___ कर ऊँचो कियो पै चल्यो न चलायो॥" उन अवसरों पर किया जाता है जब यह सूचित करने 'नूपुर की झनकार एक' प्रचलित कहावत है। का अभिप्राय होता है कि क्या प्रपञ्च कर रहे हो।
ये सब आभूषण कामदेव के बड़े सहायक हैं। जितने भर शब्द कान में आते हैं उन सबमें रामायण में तुलसीदास जी ने कहा है- संगीत का प्रथम स्थान है। केवल यही नहीं कि
"कंकणकिकिणि नूपुर धुनि सुनि । मस्तिष्क आनन्दित हो जाता है, बरन उसका बहुत कहत लपण सन राम हृदय गुनि ।। बड़ा प्रभाव मांसपेशियों पर पड़ता है जो स्वास्थ्य मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्हीं।
के लिए अत्यन्त हितकर हैं। एक अँगरेजी लेखर मनसा विश्वविजय कह कीन्हीं ॥"
'विल्कस' का कहना है कि संगीत की उत्पत्ति मांस कहीं कहीं यह प्रथा है कि जो पुरुष किसी स्त्री से पेशियों के कार्य के साथ हुई है। यह और भी प्रेम प्रकट किया चाहता है वह उसकी कटिकिंकिणी लेखकों का मत है कि संगीत की ताल और मांस
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६ ]
शब्द
पेशियों में घनिष्ठ सम्बन्ध है । यह बहुत लोगों का मत है कि ताल कार्य प्रवर्तक है । एक लेखक का कहना है कि सस्वरता यह कहते हुए जान पड़ती है कि वाणी नाच रही है, एक अच्छा भाव अच्छी तरह प्रकट किया गया । अरिस्टाटिल ने सबसे पहले यह कहा था कि ताल और सस्वर गति या वेग हैं, और इस कारण मनोवृत्ति के चिह्न हैं । इर्गो ग्राफ़-यंत्र द्वारा यह पता लगाया गया है कि सोल्लास संगीत चेतनावान् पुरुषों की थकावट मिटा देता है, और बाज़ को मध्यम स्वर का संगीत अरुचिकर होता है । आधुनिक समय में यह खोज करके पता लगाया गया है कि मांसपेशियों को छोड़कर हृदय और श्वास पर भी संगीत का अच्छा प्रभाव पड़ता है । संगीत के प्रभाव से रक्त भी शरीर में शीघ्रगामी हो जाता है, और मस्तिष्क अधिक काम करने लगता है। एक नवयुवक के सिर में गहरी चोट लगने से सिर की हड्डी का एक भाग टूट कर गिर पड़ा था। उस समय देखा गया कि संगीत के प्रभाव से पहले की तरह मस्तिष्क में रुधिर संचालित हो गया। एक दूसरे का कहना है कि यह भी देखा गया है कि संगीत के प्रभाव से मूत्राशय में सिकुड़न पैदा हो जाती है । जर्मनी में यह खोज से पता लगाया गया है कि यदि संगीत ध्यान पूर्वक सुना जाय तो नाड़ी की गति तीव्र हो जाती है और यदि विशेष ध्यान न दिया जाय तो उसकी गति मंद हो जाती है। इसका भी पता लगाया गया है कि सुखमय उत्तेजना नाड़ी की गति को मंद कर देती है और सुखकर चेतना उसे तीव्र कर देतो
रुधिर के परिभ्रमण पर संगीत का प्रभाव पड़ता है और इसी कारण त्वचा पर भी प्रभाव पड़ता है । किसी किसी को अच्छा संगीत सुनने से बहुत पसीना निकलने लगता है । संगीत का प्रभाव गुर्दों पर भी पड़ता है, क्योंकि कोई कोई बहुमूत्र के वेग से कुलित हो जाते हैं। बाजों में
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
५११
संगीत सुनने के समय दृष्टि की तीव्रता बढ़ जाती है ।
1
1
जानवरों पर भी संगीत का बड़ा प्रभाव पड़ता है। कुत्तों में चेतनता इतनी बढ़ जाती है कि २० प्रतिशत अधिक आक्सीजन का वे उपभोग करते हैं और १७ प्रतिशत कार्बोनिक एसिड का परित्याग करते हैं। शेर सारंगी को बहुत पसन्द करता है सारंगी और वीणा बहुत-से जानवरों को पसन्द है अँगरेज़ी - लेखकों के भी मतानुसार वीणा का बड़ा प्रभाव मृग पर पड़ता है, और सर्प पर भी वैसा ही बड़ा प्रभाव पड़ता है। चिड़ियों, कीड़ों और पतिंगों का भी वही हाल है - संगीत से वे भी प्रभावित होते हैं। पतिंगों में मच्छड़ों पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है।
चीन और ग्रीस देशवासियों का यह कहना था कि संगीत का चरित्र पर शुभ और अशुभ दोनों प्रभाव पड़ सकते हैं। लगभग ३,००० वर्ष पहले चीन के एक सम्राट् का विश्वास था कि वही अच्छा शासक हो सकता है जो अच्छी तरह संगीत समझता हो । उसके प्रतिकूल औरंगज़ेब को संगीत से चिढ़ थी। एक दफ़ा कुछ लोगों ने कृत्रिम र्थी बनाकर उसे उठाया और शोकनाद करते हुए महल के पास से निकले । बादशाह ने पूछा कि किसकी मृत्यु हो गई है। शोकनाद करनेवालों ने कहा कि संगीत की । स्मशान में बादशाह ने अपने प्रतिनिधिद्वारा कहला भेजा कि इतनी गहराई में दफ़न किया जाय कि फिर वह बाहर न आ सके ।
शुष्क हृदयवालों पर बेशक संगीत का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। संगीत का भी उस सूची में नाम है जिससे अनभिज्ञ पुरुषों की संज्ञा पशु है । एक देहाती मसल है- “भैंस के आगे बीन बजे और भैंस खड़ी पगुराय । "
फिर वही श्रुति-वाक्य स्मरण हो आता है— "शब्दो नित्यः । "
www.umaragyanbhandar.com
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवन-सरिता
लेखक, एक राष्ट्रीय आत्मा' देखो तो तटिनी के तट पर, जाकर उसके परम समीप, कितने हैं जल चुके वहाँ पर, और बुझ चुके प्रेम-प्रदीप । कितने लाल लुट चुके, कितने मिट्टी में मिल चुके सुहाग, कितने बालक, युवा-वृद्ध थे कितने निर्धन, धनिक-महीप ॥१॥
देखो पावन पयस्विनी वह, फिर भी बहती है अविराम, नहीं देखती, नहीं देखती, कोई दृश्य विकट-अभिराम । अहोरात्र चलती जाती है, सज सज समयोचित अभिसार,
इस श्रम का पयोधि प्रियतम से, क्या होगा परिणय-परिणाम ? ॥२॥ उसी आपगा के पुलिनों पर, पादप-पुञ्ज लगाकर पाँति, अचल-अटल हो अड़े-खड़े हैं, पथ-रक्षक प्रहरी की भाँति । जो सन्तत सचेत रहते हैं, पाते हैं उत्तम उपहार, पथ-बाधक सब बह जाते हैं, होता है उनका संहार ॥३॥
वे जो निज मन-मल धोने को, करते हैं मल मल स्नान, या वे जो धोखा देने को, हैं धरते बहुधा बक-ध्यान । स्रोतस्विनी बहाती अपना, सबके लिए सदा शुचि स्रोत,
अपनी अपनी अभिलाषा का, पाते हैं सब उससे दान ।।४।। रंग-रँगीले विविध विहंगम, बहुधा बोल मनचले बोल, भाव टटोल रहे हैं उसका, निज निज गाँठ गिरह की खोल । सुनी-अनसुनी कर उन सबकी, जाती चली धुनी धुन बाँध, कोई मोल नहीं ले सकता, उसका मन-माणिक अनमोल ॥५॥
विमल-वारि-भरिता सरिता वह, दिखलाकर निज चारु चरित्र, दोनों ही कुल-कूल कर रही, कुल-ललना की भाँति पवित्र । कितने ही गन्दे नालों को कर लेती वह निर्मल नीर,
कोई छल से भी न छू सका, उसका रुचिकर चीर विचित्र ।।६।। तीर तीर ही रम्य नगर हैं , आस-पास ही हैं बहु ग्राम, अगणित दुर्गम दुर्ग बने हैं, पक्के घाट सुभग सुरधाम । जिनमें नरनागर, नयनागर, भटनागर हैं नागर-देव, छूने न दी किसी को छाया, पाया उचित नदी यह नाम |||
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोरिया का जनमत
FHtitiHitta
[कोङ-गोसान्–उतेन्जी (नया पुल)]
लेखक, श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन कोरिया का वज्रपर्वत प्राकृतिक सौंदर्य का अद्भुत नमूना है। पचास मील के गिर्द में फैले इस पर्वत पर बौद्धों के अनेक मठ, मन्दिर और विहार हैं । श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन जी को भी इस पर्वत और इसके बौद्ध आश्रमों ने आकर्षित किया, और आपने इस पर्वत-प्रदेश की यात्रा की। इस लेख में उसी का वर्णन है।
ङ-गो-सान् कोरिया का अतिसुन्दर सेन् स्टेशन तक गई है। कोरिया के स्थानों के नाम मैं यहाँ जापानी-भाषा तथा जगत्प्रसिद्ध पर्वत है। अँगरेज़ी में लिख रहा हूँ। कोरियन और जापानी दोनों भाषाओं में नाम के लिए में इसे 'डाइमंड मौन्टेन' कहते हैं चीनी शब्द-संकेत लिखे जाते हैं, उच्चारण में दोनों अपनी अपनी भाषा
और कोरिया की भाषा में 'खिम्-खङ्- का प्रयोग करते हैं । अँगरेज़ी-भाषा में छपे काग़ज़-पत्रों में जापानी उच्चा
सान्' । दक्षिण-भारत के आन्ध्र-प्रदेश रण ही ज़्यादातर लिखा जाता है, और वही बहुत प्रचलित हो गया है। AAMA में अवस्थित श्री पर्वत (वर्तमान हम लोग पौने आठ बजे गाड़ी से रवाना हुए। रास्ते में कहीं धान, लात नागार्जुनी कोंडा) का दूसरा नाम साँवाँ के खेत, कहीं छोटे देवदार और दूसरे वृक्षों से हरे-भरे पर्वत, कहीं
वज्रपर्वत था। बौद्ध-धर्म के प्रचार के फूस की चौरस छत के छोटे छोटे घरोंवाले कोरियन गाँव थे। जहाँ-तहाँ साथ कोरिया का यह पर्वत वज्रपर्वत हुआ। कोरिया का वज्रपर्वत जापानियों के भी घर, जो अपेक्षाकृत अधिक बड़े, खपडैल या टीन की अपनी अनुपम शोभा और प्राकृतिक वैचित्र्य के लिए विश्व-विख्यात हो छतोंवाले तथा काँच से जड़े सरकन्त कपाटों से युक्त दिखलाई पड़ते थे।
पूर्वी समुद्री-तट पर ५० मील के घेरे में पचासों जगह गाड़ी की सुरंगें पार करनी पड़ी। खेतों को देखने से स्पष्ट अवस्थित है। कोरिया की राजधानी सीमोल (केइ-जो) से ८ घंटे में रेल- मालूम होता था कि यहाँ के किसानों ने नये ढङ्ग के खेती के तरीके को द्वारा पहँचा जा सकता है। कोरियावासियों को कहावत है-“प्राकृतिक बहुत अशों में अपना लिया है। यहाँ जापानी पुरुष आम तौर से सौन्दर्य की बात मत चलाओ, जब तक तुमने कोङ खिम्-खङ-सान् कोट-बूट पहने हुए दिखाई दिये, किन्तु कोरियन पुरुष प्रायः सभीनहीं देखा है।"
सफ़ेद अचकन और पायजामे पहने हुए दिखाई पड़ते थे। ___कोङ्-गो-सान् की इस प्रकार की ख्याति सुनकर किसका मन उसे साढ़े दस बजे के करीब हम चु-सेन् स्टेशन पर पहुँचे। ओन्देखने को न ललचायेगा? १३ अगस्त को श्री कुरिता के साथ हम वज्र- सेइ-री (ओन्-छङ्-नी) के लिए मोटर-बस तैयार थी। हम बस पर बैठकर पर्वत के लिए रवाना हुए। गन्-जेन् से समुद्र-तट से होती हुई रेल चु- आध घंटे में एक जापानी होटल में दाखिल हो गये। ओन्-सेइ-री का
५१२
Shree Sudilantaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
शबत को प्याले में उड़ेलते वक्त बायें हाथ को भी दाइने हाथ की । केहुनी के पास इस ख़याल से लगा दिया था जिसमें देना दोनों हाथ से हो । भारत की भाँति कोरिया में भी (जापान में भी) सत्कार-प्रदर्शन के लिए कोई चीज़ देते वक्त दोनों हाथों का लगाना ज़रूरी समझा जाता है।
पहला काम हमें मठ देखना था। मालूम हुआ, फ़-उन् नामक भिनु ने ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी में इस मठ की स्थापना की। बुद्ध-धर्म कोरिया में ३७२ ईसवी में पहुँचा था, और उसकी बादवाली शताब्दियों में उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया। उसी समय बौद्ध-भित एकान्त-आश्रम के लिए स्थान ढूंढ़ते हुए इस पर्वतश्रेष्ठ में पहुँचे थे,
और अमनो गज़ब को पर ब-द्वारा इसके महत्व को समझ वज्रपर्वत को कोरिया के बौद्ध-धर्म का केन्द्र तथा पवित्र स्थान बनाने में सफल हुए। यद्यपि इस मठ को स्थापना पन्द्रह शताब्दी पर्व हुई थी. तो भी लकडी का अधिक इस्तेमाल होने से पुरानी इमारते कई बार जल चुकी हैं। इस समय का सबसे पुराना मन्दिर सुखावतो (खुग-नग-चोन् ) तीन सौ । वर्ष पहले बना था। प्रधान मन्दिर को बने सिर्फ चालीस वर्ष हुए हैं,
और उसके भीतर की गौतमबुद्ध, लोकेश्वर, मंजुश्री की काष्ठमृत्तियाँ तो सिर्फ ६ वर्ष पहले बनी थीं। किन्तु प्रधान मन्दिर के द्वार पर एक पत्थर का चीनी ढंग का ८.९ फट ऊंचा जो स्तूप है वह मंदिर के प्रथम निर्माण के वक्त बनाया गया था। पत्थर सङ्गखारा है ।
और पन्द्रह शताब्दियों के जाड़े-गर्मी ने उसे जीर्ण-शीर्ण कर दिया है, तो भी स्तूप के चौखूटे घेरे में पुरानी मूर्तियों की रूप-रेखा दिखलाई |
पड़ती है। दो-तीन और छोटे छोटे मन्दिर हैं। वे भी नये हैं। [कोङ गोसान्–क्यर्युएन् जलपात]
मुख्य द्वार दोमहला है, और बिलकुल नया है। उसके देखने से मालूम | अर्थ है तातापानी गाँव । इस गाँव में गर्म पानी के चश्मे हैं, और हर होता है कि कोरिया के बौद्धधर्म में नई जान आ रही है। मन्दिर के | एक होटल ने अपने यहाँ तप्तकुण्ड तैयार किये हैं। कमरा बतलाया हाते में एक ओर पाठशाला का मकान है, जिसमें आस-पासवाले ३५ गया, और साथ ही चाय और जापानी मिठाई मुसकुराते हुए चेहरों के लड़के चार दर्जे तक की पढ़ाई करते हैं। अध्यापक मठ के एक भिक्षु साथ पहुँच गई। नहाने का पानी तैयार है, इसकी भी ख़बर आगई। ही हैं। यह भी मालूम हुआ कि बराबर रहनेवाले भि तुओं की संख्या निपटने और थोड़ा विश्राम करने में एक बज गया। फिर हम दो ये २० है; और निर्वाह के लिए पहाड़ का जङ्गल और कितने ही खेत है।
मोटर कर शिन् केइ जी (छिन्-गे-सा) मठ के लिए रवाना हुए। मन्दिर का दर्शन कर हम क्यु-यु-एन् जलप्रपात की ओर रवाना छिन्-गे-सा मठ में पहुँच गये। थोड़ी देर में ६३ वर्ष के वृद्ध प्रधान हुए। कोङ-गो-सान में ऐसे कितने हो जलप्रपात हैं, किन्तु यह जलभितुओंवाला लम्बा चोगा पहने स्वागत के लिए आगये। न वे प्रपात सबसे ऊँचा है। मठ से प्रायः ५-६ मील दूर है। रास्ते पर यद्यपि हमारी भाषा समझते थे. न उनकी भाषा हम। हमारे थी सीमेंट के पुल आदि बने हुए हैं, तो भी चढ़ाई काफ़ी कठिन है। श्री कुरिता को अगरेज़ो भी बहुत कच्ची थी, और दस बात में रास्ते में हमें एक-आध जगह दो-एक सोडावाटर, सिगरेट, फोटोकहीं एक बात वे अनुवाद कर पाते थे। तो भी वृद्ध भिनु की मुखाकृति कार्ड आदि को दूकानें भी मिलीं। इन दुकानों में कोङ्-गो-सान् में से ही मालूम होता था कि बुद्ध की जन्मभूमि के एक भिनु का यहाँ मिले नाना रूप-रङ्ग के स्फटिक तथा दूसरे पत्थर भी बेचने के लिए। आना उनके लिए असाधारण घटना हुई है। सत्कार के लिए मधु का रक्खे थे। छाल-सहित भोजपत्र के काष्ठ पर स्थानीय दृश्य भी चित्रित शर्बत और चीनी के प्याले पहुँच गये। कोरियन मठों में, मालूम होता किये हुए रक्खे थे। यात्री के बैठने के लिए बेंच, गर्म सादी चाय है, स्वागत में चाय का स्थान मधु के शर्बत ने दखल किया है । भारत और स्वागत-शब्द तो हर वक्त तैयार रहते हैं । एक तरुण दूकानदार में भी आगन्तुक को शर्बत प्रदान करना पुरानी प्रथा है। भिनु ने ने जब सुना कि मैं भारतीय हूँ तब वह जापानी भाषा में छपी महात्मा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
कोरिया का वज्रपर्वत
५१५
गान्धी की संक्षिप्त आत्मजीवनी उठा लाया। मालूम होता है, कोरियन लोग महात्मा गान्धी से विशेष प्रेम रखते हैं। | क्यु-यु-एन् का अर्थ है नौ-नागों का ह्रद । जलप्रपात के ऊपर आठ कुंड हैं । यहाँ का मनोरम दृश्य देखकर हम लौट पड़े।
शाम को पाँच बजे हम लौटकर फिर उक्त मठ में आ गये। हमारे साथी के लिए कोरियन भोजन तैयार था । नियम के अनुसार बारह बजे बाद तो हम खा नहीं सकते थे, उधर कोरियन भोजन की बानगी भी देनी ज़रूरी थी, इसलिए. भात के दो नेवाले तथा ६-७ तरह की प्यालियों में रक्खी सागभाजी से एक एक कौर मुँह में डाला । लाल मिर्च सिर्फ अचार में थी। कोरियन लोग मिर्च के शौकीन हैं, किन्तु हमारे जापानी साथी का ख़याल कर मिर्च डालने से हाथ रोका गया था। एक समुद्री वनस्पति की पत्ती तथा पकौड़ी-जैसी चीज़ ही तेल में तली गई थी। बाको सभी चोजें पानी में उबाली हुई थीं। नमक ठीक पड़ा था, और प्याज़ के पड़ने से रङ्ग चोखा आ गया था। चीनकोरिया के भिनु मांस से बहुत परहेज़ करते हैं।
हमारे साथी ने जल्दी जल्दी भोजन समाप्त किया, और चिराग़ जलते-जलते हम अपने होटल में आ दोबारा तप्तकुंड में उतरने को तैयार हो गये। मालूम हुआ, लौटते वक्त का मोटर का किराया मठवालों ने बहुत आग्रह-पूर्वक स्वयं दे दिया है।
काङ-गो-सान् के मठों में युतेन्-जी (यु-जम्-सा) का मठ सबसे बड़ा और सबसे पुराना है। किसी समय के ङ-गो-सान् में १०८ मठ जहाँ| तहाँ बिखरे हुए थे। तीस वर्ष पूर्व उनकी संख्या ४० थी, किन्तु
आज-कल ३२ है, जिनमें २१० मिनु और तीस भिक्षुणियाँ रहती हैं। दोनों के मठ अलग अलग हैं। हमारे साथी श्री कुरिता युदेन् जी
[संकेइजी संस्थापक | नहीं जानेवाले थे, इसलिए एक पथप्रदर्शक ले लिया जो जापानी भाषा | जानता था। ७॥ बजे हमारी मोटर टैक्सी रवाना हुई। उसने कोतेइ होता है। कोरियन लोगों के घर झोपड़े होते हैं, किन्तु उनके । में हमें उतार दिया। कोतेइ अच्छा बाज़ार है। यहाँ कई जापानी कपड़े बहुत साफ़ होते हैं। फटे कपड़ेवाले आदमी बहुत कम देखने दूकान भी हैं। ८ बजे के करीब वहा टक्सा फिर आई, और हम पीछ में आते हैं। सफेद रंग उनका जातीय रंग है। तरुण, बाल वृद्ध की ओर लोटे । जापान टूरिस्ट ब्यूरो की ओर से छपे पैम्फलेट में नकशा स्त्री-पुरुष सभी को आप सफ़ेद कपड़ों में देखेंगे। एक-आध स्त्री कभी देखा तब मालूम हुआ कि मेाटर का रास्ता बहुत धूम कर गया है। कुछ कभी काले या हरे घाँघरे में भी दिखाई पड़ जायगी, किन्तु ऐसा बहुत पीछे लौट कर एक लकड़ी के पुल से नदी पार कर हम आगे चले। कम है। हमारे रास्ते में एक-आध जगह दो-एक जापानी घर भी दिखाई । सड़क बहुत रद्दी थी। कुछ समय के बाद हम पहाड़ के अंचल में पहुँच पड़े, और उनके घरों के पास सेब, नासपाती और आड़ के बाग़ भी
गये। फिर रास्ता नदी और पहाड़ के दर्मियान से जा रहा था। बराबर थे। जापानियों का गुजारा भला साँवा, टाँगुन (काकुन) और मक्के से की भूमि में सभी जगह धान की खेती होती है। आज-कल वे फूल चल सकता है ! कोरियन लोगों का ध्यान इन बातों की ओर कम है। रहे हैं।
हमारे एक जापानी इंजीनियर सहयात्री ने कहा-काम में कोरियन गाँवों में कोरियन लोगों के घर सारे ही फूस की छतवाले तथा लोगों को आप हमेशा पीछे पायेंगे. हाँ बात बनाने तथा राजनैतिक एकमहले मिले। वे गरीब तो हैं ही, किन्तु उनकी गरीबी को भारत से आन्दोलन में वे बहुत उत्साह दिखलाते हैं । इंजीनियरिंग की ओर वे नहीं मिलाया जा सकता। घरों में एक-दो कमरे ऊँची कुसी के होते हैं, नहीं आते। उक्त इंजीनियर १९०४ ईसवी में रूस-जापान-युद्ध के और बगुल का नीची कुर्सी का एक कमरा रसोई घर होता है। मुगियों समय में यहाँ आये थे. तब से यहीं रेलवे-विभाग के इंजीनियर हैं। का दरवा बाहर होता है, और सूअर का खोभार भी बाहर ही एक तरफ़ ह्य-कु-सेन्-क्यो में उतर गये। टैक्सी थोड़ी देर के बाद लौट गई
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #564
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१६
सरस्वती
[को गोसान्-धार पर पुल ]
होगी। यह गाँव छोटा-सा है। लेकिन दो-तीन दूकानें तथा दो-तीन कोरियन होटल हैं। दस बजे हम चले | १|| मील तक तो रास्ता ठीक मिला। उसके बाद चढ़ाई शुरू हुई, और खूब जोर-शोर से । बारह बजे थे, जब हम जोत् पर पहुँचे। वहाँ से दूर तक के पहाड़ियों को ही नहीं, दिगन्त विस्तृत नीले समुद्र को भी देख रहे थे।
1
थोड़ा उतरकर दो-चार घरों का एक गाँव मिला। हमारा मध्याह्नभोजन का समय हो रहा था, और होटलवालों का भात भाजी का पाथेय प्रतीक्षा कर रहा था। हमारी बाईं ओर ठंडी जल की धारा बह रही थी । जल के तट पर छाया में बैठ गये। वहाँ हमने भोजन किया।
उतराई साधारण थी, और वह भी हरे वृक्षों की छाया से । कुछ दूर उतरकर दूसरी ओर से आनेवाली बड़ी धार के तट से ऊपर को चढ़ने लगे। कुछ दूर चलकर एक लीक मिली। फिर एक चौड़ी सड़क आ गई । मोटर की नहीं, पैदल की। अनुमान हो गया, अब हम यु-देन् जी मठ से बहुत दूर नहीं हैं। वृक्षों के बीच से चलते हुए हम एक छोटे गाँव में पहुँचे । यह होटलों का गाँव था। चंद क़दमों के बाद ही मठ का प्रथम दरवाज़ा था। इसके भीतर स्त्रियों का रहना नहीं हो
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
सकता था, इसलिए सारे होटल बाहर बने हुए थे। दरवाज़े से मठ दो फर्लांग पर होगा। एक हाल में का बना सुन्दर काठ का पुल मिला, जिसके पार मठ था। इस जगह भूमि अधिक विस्तृत और पर्वतपंक्ति दूर हट जाती है। चारों ओर देवदार ही देवदार दिखाई पड़ते हैं। नदी, देवदार, पर्वतावली देखकर मैं तो समझने लगा, हिमालय में पहुँच गया हूँ । युतेन जी को गो- सान् का सबसे बड़ा मठ है। इसमें १०६ भिक्षु रहते हैं, इसलिए बहुत-से मकान होने ही चाहिए। इस मठ की स्थापना चौथी सदी में हुई थी। और उसी जगह पर जहाँ भारत से आये हुए भिक्षुओं को एक कथा के अनुसार नौ-नागों ने डरा धमकाकर भगाना चाहा था !
भारतीय भिक्षु का नाम सुनते ही लोगों के कान खड़े हो गये, और संकेजी के प्रधान की चिट्ठी पर तो और भी प्रभाव बढ़ा। मठ के प्रधान ने स्वागत किया । जापानियों के आने के समय संकेजी के प्रधान काफ़ी उम्र के हो गये इसलिए वे जापानी भाषा बोल- समझ नहीं सकते थे, किन्तु यहाँ अब सभी उसे धड़ल्ले से बोल रहे थे। दो भिक्षु कुछ अँगरेजी वाक्य भी बोल लेते थे । १ बजे हम पहुँचे थे और तीन बजे ही लौटना था, इसलिए झटपट मन्दिर देखना था। बूट छोड़ कोरियन जूता पहना । इसकी शकल बिलकुल भारतीय जूतों की होती है, और आज-कल रबड़ के जूतों के सस्तेपन के कारण चमड़ेवाले जूते ढूँढ़े भी नहीं मिलते। प्रधान मन्दिर में गये। एक वृक्ष की शाखाओं पर बहुत-से बुद्ध खड़े हैं। कहा तो गया, छः सौ बुद्ध हैं, किन्तु उतने मालूम नहीं पड़ते। विहार की स्थापना के समय का बाहर का चतुष्कोणपाषाण स्तूपमात्र है। स्तूप में नौ तल्ले हैं, और वे चतुष्कोण हैं। संकेजी की अपेक्षा यह स्तूप अधिक सुरक्षित है, इसी लिए भ्रम होता है, शायद पीछे का हो। विहार की सबसे पुरानी इमारत प्रधान द्वारमंडप है, जो नदी के तट के क़रीब है। आजकल इसमें सैकड़ों नामांकित काठ की पट्टियाँ लटक रही हैं। हर एक नाम अमर करनेवाले स्त्री-पुरुष कुछ पैसे खर्च कर उन्हें यहाँ लगवा देते हैं। यह मंडप तेरहवीं सदी में बना था। प्रधान मन्दिर के एक ओर चार सौ वर्षों का पुराना एक विशाल घंटा है। उसी की बगल में मन्दिर का म्यूज़ियम है। इसमें कुछ पुरानी पुस्तकें, चित्र- फलक, कपड़े और बर्तन रक्खे हैं। इनमें एक सात सौ वर्ष की पुरानी पुस्तक है । छः सौ वर्ष के पुराने दो-तीन जापानी चित्र फलक हैं। एक में हरे बॉस के सामने नरमादा सारस को चित्रित करने में बड़े कौशल का परिचय दिया गया है। छः सौ वर्षों का एक भिक्षु वस्त्र (चीवर केसा -कषाय) भी है। मठ का हाता खूब साफ़ है, और मकान भी साफ़ रक्खे गये हैं, इससे जान पड़ता है कि युतेन् जी मठ अच्छी अवस्था में है। मठ के भिक्षुओं के पढ़ने के लिए पाठशाला है, जिसमें ६० विद्यार्थी पढ़ते हैं।
आते ही को-गो- सानू के दूध जैसे सफ़ेद मधु से स्वागत किया गया था। चलते वक्त हस्तलेख देने के लिए आग्रह हुआ। दो-तीन
www.umaragyanbhandar.com
Page #565
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६ ]
छोटे बड़े काग़ज़ों पर कुछ संस्कृत वाक्य लिख दिये,
जो भविष्य में आनेवाले
भारतीय को ज़रूर दिखाये
जायेंगे।
ठीक तीन बजे बिदा
हुए। पहले सवा तीन घंटे मैं पूरी की गई यात्रा
लौटते वक्त, सवा दो ही घंटे में तब की मोटर के
|
लिए पौन घंटे इन्तज़ार करना पड़ा। शाम को चिराग़ जलने से पूर्व ही होटल में आ दाखिल हुए। तप्तकुंड में विधिपूर्वक स्नान हुआ। आकर कमरे में बैठने पर एक जापानी भिक्षु मिलने आये । वे आज ही आये थे। श्री कुरिता ३ बजे लौट गये
कोरिया का वज्रपर्वत
थे, इसलिए आगे की यात्रा के बारे में बहुत-कुछ जानना था। भिक्षु गो-तो थोड़ी अँगरेज़ी भी बोल लेते हैं। इसलिए जब उन्होंने प्रस्ताव किया कि "यदि एक दिन और अधिक दें तो हमारे साथ परसों चो-अन्-जी मठ में पहुँच सकते हैं। हाँ, रास्ता (४० (किलोमीटर) प्रायः खारा पैदल का है"। हमने तुरन्त स्वीकार किया, और सात बजे उनके साथ प्रस्थान करने का निश्चय कर सो गये ।
[कोड गोसान् संकेइजी मठ ]
मुसीबत शाम को भूल जाती है। हमारे आगे आगे एक हृष्ट-पुष्ट योरपियन व्यक्ति जा रहा था। नज़दीक से देखने पर मालूम हुआ, कि पुरुष-वेष में वह स्त्री है। बड़ी बेतकल्लुफ़ी से पीठ पर पंद्रह सेर का बोझा लादे जा रही थी। पूछने पर मालूम हुआ, हमारे आज के गन्तव्य स्थान से वह कल ही लौट चुकी है।
नौ बजे के करीब हम जात् पर पहुँचे । पन्द्रह मिनट की उतराई उतर कर सोडालेमेनेट, मिठाई चाकलेट की दूकान मिली। वहीं टैक्सी खड़ी थी, ४० येन् (1)) देकर ४ मील तक चलना तय हुआ। दस बजे इंजीनियर और हम मोटर से रवाना हुए। हमारे बाक़ी दो साथी भम्पान पर सवारी कर रहे थे। यहाँ का भम्यान बदरीनाथ से दूसरी ही तरह का है। दो बाँसों से एक बेंत की कुर्सी बँधी रहती है। आगे की ओर रस्सी से बँधा एक पावदान भी लटकता रहता है। दोनों बाँस ६-७ हाथ लम्बे होते हैं। हर एक सवारी पर तीन आदमी होते है एक बार दो आदमी उठाते हैं। सवारी कंधे पर नहीं उठाई जाती। आदमियों के कंधे से काँधासोती दो फंदे लटकते रहते हैं। फंदे के भीतर बाँस को डाल हथेली से भी बाँस को पकड़े वाहक चलते हैं। मोड़ के संकीर्ण होने पर सवारी को गिरने का डर होता है, इसलिए ऐसी जगह उतर जाना पड़ता है। एक आदमी को एक
पन्द्रह तारीख़ को हाथ-मुँह धो नाश्ता हुआ । ७ येन् होटल के वास- भोजन तथा डेढ़ पैन् परिचारक गण को पारितोषिक देकर मोटर के अड्डे पर गये। पन्द्रह पैसे देकर ठीक वक्त पर मोटर से रवाना हुए। हमारे नये तीन साथियों में एक डाक्टर, इकेगामी महाशय इंजीनियर, और श्री गो-तो भिक्षु थे। पिछले दोनों सज्जन इंग्लिश बोल लेते हैं। आज की पैदल यात्रा में बहुत आदमी थे । मोटर छोड़ने पर चढ़ाई शुरू हुई । प्रायः घंटे भर चलकर हम क्यु-वन्-वुत्सु के नीचे पहुँचे। यहाँ तीन विचित्राकार पर्वतशिखर हैं, जिन्हें तीन बुद्ध कहते हैं। एक शिखर पर चढ़ने के लिए सीढ़ी और लोहे की जंजीर भी लगी है। कुछ सौ गज़ चढ़कर हम वहाँ पहुँचे। फोटोग्राफर केमरा लिये तैयार था । चारों का फ़ोटो उतरा। ऊपर से दूर तक के हरे तथा पथरीले पहाड़ों की एक झाँकी ली। फिर दूसरी ओर से उतर कर रास्ते पर पहुँचे। अभी चढ़ाई ही चढ़नी थी। चढ़ाई कठिन तो थी, किन्तु सवेरे की
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
५१७
www.umaragyanbhandar.com
Page #566
--------------------------------------------------------------------------
________________
५१८
सरस्वती
[ भाग ३६
कोरियन को ७५ येन वेतन मिलने पर जापानी को १०० येन् मिलेगा। दोनों की तनख्वाह में बराबर २५ सैकड़े का अन्तर होता है। पुलिस कान्स्टेबल जापानी होने पर ५० येन् पायेगा, किन्तु कोरियन होने पर ३५ येन् ही मिलेंगे। जापानी को घर, वस्त्र आदि पर कोरियन की अपेक्षा अधिक खर्च करना पड़ता है, इसी लिए यह तर्क रखना पड़ता है। नौकरी में व्यक्ति के निर्वाह-मान को तो देखना ही पड़ेगा।
आज के अन्तिम दो. तीन मील की यात्रा तो
प्राकृतिक दृश्य में अद्भुत [कोङ गोसान्-वैरोचन शिखर, कुमे होटल]
थी। चाहे पहाड़ और उसकी
शिलाओं और शिखरों को रोज़ का ३॥ येन् देना पड़ता है। (येन् की क्रय-शक्ति देखने पर उसे देखिए, चाहे हरे वृक्षों और वनस्पतियों की ओर नज़र दौड़ाइए। साढ़े तीन रुपया ही समझिए)। और इसी से यह भी मालूम होता है सभी मुझे तो पद-पद पर नगाधिराज हिमालय का स्मरण दिला रहे कि कोरिया में मजदूरी उतनी सस्ती नहीं है, जितनी भारत में। ढोने- थे। कुमे होटल के मील डेढ़ मील पर जाने पर तो भोजपत्र के वृक्ष वाले के मोज़-सहित जापानी बूट, साफ कपड़े और तिनके की हैट भी आ गये। यहाँ साल में चार मास तक बर्फ रहती है। रास्ता देखने से भी आपको उसका अनुमान हो जायगा।
अप्रैल-मई में खुलता है। होतेन में टैक्सी से उतर हम धार पार हो एक दूसरी धार से ऊपर चार बजे हम कुमे होटल में पहुँचे । एक पर्वत की बाही पर समुद्रकी ओर चलने लगे। इंजीनियर साथ साथ चल रहे थे। दोपहर को तल से पाँच हज़ार फुट ऊपर यह होटल अवस्थित है। कोङ्-गो-सान् एक शीतल स्थान पर बैठकर हमने होटल-द्वारा प्रदत्त पाथेय को उदर- के सर्वोच्च शिखर विर-हो वैरोचनकूट) के दर्शनार्थी बहुत-से लोग हर सात् किया। रास्ते में जहाँ-तहाँ थोड़ी थोड़ी दूर पर विश्राम करते हुए साल यहाँ आया करते हैं । उन्हीं के लिए रेलवे के भूतपूर्व प्रधान डाक्टर
आगे बढ़ रहे थे । एक जगह इंजीनियर से कोरिया के बारे में बात-चीत कुमे के स्मरण में यह होटल बना है। होटल अभी पूरी तरह से छिड़ गई। उन्होंने कहा-हज़ारों कोरियनों ने जापानी लड़कियों से शादी तैयार नहीं हुआ है। रेडियो का भी यहाँ इन्तज़ाम है। तैयार की है। जापानी इसे बुरा नहीं मानते । स्वयं जापान-सम्राट के कुल को हो जाने पर यह भी एक आकर्षक स्थान होजायगा। यह स्थान ३८ राजकन्या को कोरिया के एक राजवंशी कुमार ने ब्याहा है। लेकिन अक्षांश में अवस्थित होने से भारत के बदरीनाथ के समान ठंडा है। जापानी लोग बहुत कम कोरियन लड़कियों से ब्याह करते हैं। कारण शाम को सलाह हुई थी-कल पाँच बजे सवेरे ही वैरोचनकूट पर शायद कोरियन स्त्रियों की काम करने में उतनी तत्परता का अभाव हो, चढ़ना है। सोते वक्त पाँच बजे उठने का संकल्प किया था, और ठीक जितनी जापानी स्त्रियों में पाई जाती है। अथवा पोशाक के भद्दपन समय पर नींद खुल भी गई, किन्तु अपनी मंडली को देखा कि अभी लम्बी से कोरियन स्त्रियाँ अपने सौंदर्य को उतना आकर्षक नहीं बना पड़ी है। तब सात बजे तक कुकुरनिंदिया लेता रहा। उठकर हाथसकतीं।
मुँह धोने गये, तब देखा, बाहर बूंदें पड़ रही हैं, और आकाश में धना तनख्वाह की बात चलने पर मालूम हुआ-उसी काम के लिए बादल छाया हुआ है। ऐसे समय में वैरोचनकूट से समुद्र और पर्वत
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #567
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६ ]
माला देखने का आनंद
कहाँ मिलनेवाला था, और
इसी लिए साथी इन्तज़ार
कर रहे थे कि शायद बादल
हट जायँ और कूटारोहण
का मज़ा आ जाय । किन्तु
वह होनेवाली बात न थी। हमने नाश्ता किया। पाथेय साथ बाँध दिया गया। भोजन, बिस्तरा आदि सबके लिए २ येन् देने पड़े ।
७ बजे चले, कूट आधा मील से अधिक दूर नहीं था । चढ़ाई भी बहुत मुश्किल नहीं थी। आध घंटे से कम में ही ऊपर पहुँच गये। शिखर के बिलकुल
कोरिया का वज्रपर्वत
पास सोडा, मिठाई, फल आदि की दुकान है। पास
में यात्रियों के ठहरने का एक मकान था, जिसकी टीन की छत एक ही दो दिन पूर्व बड़ी सफाई से उलटकर बाहर रख दी गई थी।
की नोक पर तो हम चढ़ गये, किन्तु दस गज़ से आगे कुछ कूट दिखाई नहीं पड़ता था । हमारे ज़िद करने पर बूँदें कुछ कड़ी हो गई। भागकर दूकान के भीतर पनाह ली।
साथी लोग एक बार उठकर बादलों के पर्दे के पीछे सूर्य की सफेदी देखकर फिर बैठ गये । चंद मिनटों के बाद हताश होकर चलना पड़ा।
अब तक हमारी यात्रा बाहरी कोड़-गो में हुई थी, किन्तु अब भीतरी कोगो में उतरना था। कुछ दूर ढलुया पथ देखकर अनुमान हुआ था, पेट का पानी हिले बिना ही उतर चलेंगे। किन्तु यह ग़लत ख़याल कुछ ही मिनटों तक रहा। बाईं ओर मुड़े, और देखा, अरे ! यह तो खड़ी उतराई है। साथियों ने उतरते हुए बतलाया - यह सोने रूपे की सीढ़ी है। शायद बहुत खड़ी सोने की और कम खड़ी रूपे की। एक घंटा उतरने पर देखा, कितने ही स्त्री-पुरुष ऊपर की ओर जा रहे है। अपने राम तक़दीर मना रहे थे अच्छा हुआ जो बाहर से भीतर की ओर चल रहे हैं, नहीं तो इस चढ़ाई में छठी का दूध याद आ जाता । प्रायः सारी कठिन उतराई उतर आने पर देखा, कुछ कोरियन सम्भ्रान्त महिलायें ऊपर जा रही हैं। उनमें एक-दो दस वर्ष पूर्व के पेरिस - फैशन में ज़र्क- बर्क़ थीं; और उनके पीछे एक साठ वर्ष की बुढ़िया एक फैशनेबुल तरुणी का हाथ पकड़े ऊपर की ओर घसीटी
[कोङ् गोसान्–अवलोकितेश्वर (कन्नन्) शिखर ]
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
५१९
जा रही थी। भाषा मालूम न थी, नहीं तो कहना चाहता था- अरे डोकरी ! क्यों मरने जा रही है ? अभी तो चढ़ाई का श्रीगणेश ही हुआ है 1
बूँदें ऊपर ही भर भी
उतराई में नहीं हरे वृक्षों की छाया में हम चलते गये। दस बजने के क़रीब म्योकिश्शो पहुँचे। यहाँ एक पर्वतकक्ष में ५० फुट ऊँची पद्मासनासीन बुद्ध मूर्ति खुदी हुई है। इसका आसन ही ३० फुट ऊंचा है। कला की दृष्टि से अच्छी तो नहीं कही जा सकती, किन्तु को गो सान् की यह सबसे बड़ी शिलोत्कीर्ण मूर्ति है। किसी समय यहाँ मन्दिर रहा होगा, किन्तु जब बौद्ध-धर्म के बुरे दिन आये तब वह मठ उजड़ गया। अब सामने चबूतरा-सा है, जिसकी मरम्मत होती रहती है। किसी ने यहाँ पत्थर की एक लालटेन लगा दी है।
कुछ समय और उतरने पर हम मक-इन् ( महायान-मठ) के सामने पहुँचे। रास्ता छोड़कर ५० गज़ ऊपर बढ़ने पर मठ मिला। मठ की सभी इमारतें नई हैं, और सभी साफ़-सुथरी तथा अच्छी अवस्था में है। मितु भी बगले के पर जैसे सफेद कपड़े पहने थे। यह सब देखने से मालूम हुआ कि कोरिया में बौद्ध धर्म की फिर जाग्रति हो रही है। इस मठ में ३० भिक्षु रहते हैं। और उतरते नदी तट पर एक जापानी भोजनालय मिला। नदी पार कुछ ऊपर फुतोकुत्सु का बौद्धमठ है। इसका एक देवल एक चट्टान की छोर पर बना है, और उसके
www.umaragyanbhandar.com.
Page #568
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२०
सरस्वती
[भाग ३६
में हुई थी। अनेक शिल्पियों ने इसे अतिसुन्दररूप दिया था, किन्तु ५५६ ईसवी में
आग से जलकर राखमात्र रह गई। दसवीं और पंद्रहवी सदियों में इसके पुनर्निर्माण में राजाओं का हाथ रहा। किन्तु सोलहवीं सदी के जापानी हमले में यह फिर आग की भेंट हुआ
और ताइयुहो देन-मन्दिरमात्र बच रहा। रेल के स्टेशन के पास होने से अब इस मठ की भो श्रीवृद्धि । हुई है। ६० भितु | रहते हैं।
_स्टेशन-मास्टर से | मालूम हो चुका था, अन्तिम |
ट्रेन साढ़े तीन बजे जायगी।। [समुद्र-तट से कोङ्गो—कोरिया का वज्रपर्वत
जाकर मन्दिरों के दर्शन ।
किये, भिक्षुओं से मिले, बाक़ी भार को सँभालने के लिए एक लोहस्तम्भ लगा है। यह एक- मध्याह्न भोजन समाप्त किया। फिर थोड़ी देर विश्राम किया और दो स्तम्भी मठ कोङ-गो-सान् की अजायबात में से है।
बजे रवाना हुए। स्टेशन तक (प्रायः ॥ मील) पहुँचाने के लिए तीनों शिलाओं में छ:-छः इंच गहरे कितने ही लेख हैं। उनमें अधिकांश साथी भी चले। मठ के कार्यालय के सामने लोहे और सोमेंट का नये हैं। कुछ मिनट और उतरने पर नदी की बाई ओर रास्ते सुन्दर पुल था। यहाँ तक मोटर भी आते हैं। सड़क अच्छी है। जहाँ । की एक शिला में बहुत-सी मूर्तियाँ उत्कीर्णं मिलीं। सामने तीन बुद्ध- तहाँ कोरियन और जापानी होटल हैं। स्टेशन प्रायः ११॥ मील पर है। मूर्तियाँ हैं, इसो लिए जापानी लोग इसे सम्बुत्सुगन् (तीन बुद्धशिला) उससे पहले ही योरपीय ढंग का चो-अन्-जी होटल है, जो रेलवे-द्वारा कहते हैं।
सञ्चालित है। ___ ग्यारह बजे के कुछ बाद हम ह्योकुन-जी मठ में पहुँचे। यहाँ भी स्टेशन पर पहुँचने पर मालूम हुआ, अभी गाड़ी के आने में आध ३० भिक्षु रहते हैं। मठ अच्छी अवस्था में है। कोरिया की भाषा में घंटे की देर है। इसे प्यो हुन्-शा कहते हैं। प्यो हुन् नाम के एक यशस्वी भिक्षु ने ६७७ यहाँ से तेचुगन् तक (प्रायः ७० मील) एक कम्पनी की बिजलोईसवी में इसकी स्थापना की थी। किन्तु उस समय की कोई चीज़ अब चालित रेलवे है। पहाड़ों की अधिकता के कारण बहुत-सी सुरंगें। नहीं है। प्रधान मन्दिर तथा कुछ और इमारतें पंद्रहवीं सदी में बनी पड़ती हैं। लाइन बड़ी लाइन ( थीं। इस मठ के एक दर्जन शाखा-मठ हैं।
९॥ बजे रात को गाड़ी केइ-जो स्टेशन पर पहुँची: प्लेटफार्म पर आते । यहीं हमें अगले चोअन्-जी मठ के एक भिनु तथा उचिकोङ्गो के ही देखा श्री ताची पहुँचे हुए हैं, और इस प्रकार भाषा की दिक्कत का स्टेशन-मास्टर मिल गये। साथ ही नीचे चले । प्रायः डेढ़ मील पर सामना न करते हुए हम हिगाशी होङ्-गान्-जी मन्दिर में पहुँच गये। चोअन्-जी (चङ-अन्-शा) मठ मिला। इस मठ की स्थापना पाँचवीं सदी
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #569
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वर्ग
एक
कोना
लेखिका, श्रीमती महादेवी वर्मा
एम० ए०
[शिकारा] श्रीमती वर्मा जी काश्मीर गई थीं। उसे उन्होंने 'स्वर्ग का एक कोना' बताकर जिस कवित्वपूर्ण भाषा में उसका इस लेख में चित्रण किया है, आशा है, वह भावप्रवण पाठकों को अधिक रोचक प्रतीत होगा।
स सरल कुटिल मार्ग के के कारण बादलों से बने घेरे-जैसा जान पड़ता था। वे दोनों ओर, अपने कर्त्तव्य पर्वत अविरल और निरन्तर होने पर भी इतनी दूर की गुरुता से निस्तब्ध थे कि धूप में जगमगाती असंख्य चाँदी-सी रेखाओं प्रहरी-जैसे खड़े हुए, के समूह के अतिरिक्त उनमें और कोई पर्वत का लक्षण आकाश में भी धरातल के दिखाई न देता था । जान पड़ता था किसी चित्रकार समान मार्ग बना देनेवाले ने अपने आलस्य के क्षणों में रुपहले रंग में तूलिका
सफेदे के वृक्षों की पंक्ति से डुबाकर नीले धरातल पर इधर-उधर फेर दी है। उत्पन्न दिग्भ्रान्ति जब कुछ कम हुई तब हम एक जहाँ तक दृष्टि जाती थी, पृथ्वी अश्रुमुखी ही दूसरे ही लोक में पहुंच चुके थे जो उस व्यक्ति के दिखाई पड़ती थी। जल की इतनी अधिकता हमारे समान परिचित और अपरिचित दोनों ही लग रहा यहाँ वर्षा के अतिरिक्त कभी देखने में नहीं आती, था जिसे कहीं देखना तो स्मरण आ जाता है परन्तु परन्तु उस समय के धरातल और यहाँ के धरातल नाम-धाम नहीं याद आता।
में उतना ही अन्तर है, जितना धुले हुए सजल मुख - उस सजीव सौन्दर्य में एक अद्भुत निस्पन्दता और आँसूभरी आँखों में। मार्ग इतना सूखा था थी जो उसे नित्य दर्शन से साधारण लगनेवाले कि धूल उड़ रही थी, परन्तु उसके दोनों किनारे सौन्दर्य से भिन्न किये दे रही थी।
सजल थे, जिनमें कहीं कहीं कमल की आकृतिवाले ___ चारों ओर से नीलाकाश को खींचकर पृथ्वी से छोटे फूल कुछ मीलित और कुछ अर्धमीलित दशा में मिलाता हुआ क्षितिज रुपहले पर्वतों से घिरा रहने झूल रहे थे।
५२१
फा.६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #570
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२२
सरस्वती
[भाग ३६
हुए दूसरों के कौतूहल का कारण बन रहे थे
और कहीं कोई धर्मदिग्गज धर्मपालन और उदरपूर्ति में कौन श्रेष्ठ है, इस समस्या के समाधान में तत्पर थे। प्रकृति की चञ्चलता। की कमी की पूर्ति मनुष्य में हो रही थी।
अधिकारियों ने हमारे कमरे, नौकर
आदि की जैसी सुव्य[शीतकाल में काश्मीर का एक दृश्य
वस्था थोड़े समय में
कर दी वह सराहने रावलपिण्डी से २०० मील मोटर में चलने से योग्य थी, परन्तु वहाँ के वास्तविक जीवन का परिशरीर अवसन्न हो ही रहा था, उस पर चारों ओर चय तो हमें अपने हाउसबोट में जाकर ही मिल बिखरी हुई अभिनव सुषमा और संगीत के आरोह- सका। नीले आकाश की छाया से नीलाभ झेलम अवरोह की तरह चढ़ाव-उतारवाले समीर की के जल में वे रङ्गीन जलयान वर्षा से धुले आकाश सरसर ने मन को भी ऐसा विमूर्च्छित-सा कर दिया में इन्द्रधनुष की स्मृति दिलाते रहते थे। कि श्रीनगर में बदरिकाश्रम पहुँचकर बड़ी कठिनता जिसने इस प्रकार तरङ्गों के स्पन्दित हृदय पर | से सत्य और स्वप्न में अन्तर जान पड़ा। वह अछोर अन्तरिक्ष के नीचे रहने का इतना सुन्दर आश्रम जहाँ हाउसबोट में जाने तक हमारे ठहरने साधन ढूंढ़ निकाला उसके पास अवश्य ही बड़ा का प्रबन्ध था, सहज ही किसी जू का स्मरण करा कवित्वमय हृदय रहा होगा। जीना सब जानते हैं। देता था, कारण, वहाँ अनेक प्रान्तों के प्रतिनिधि और सौन्दर्य से भी सबका परिचय रहता है. अपनी अपनी विशेषताओं के प्रदर्शन में दत्तचित्त परन्तु सौन्दर्य में जीना किसी कलाकार का ही थे। कहीं कोई पञ्जाबी युवती अपने वीरवेश में गर्व काम है। से मस्तक उन्नत किये देखनेवालों को चुनौती-सी हमारे पानी पर बने हुए घर में एक सुन्दर देती घूम रही थी, कहीं संयुक्त-प्रान्त की कोई सजी हुई बैठक, सब सुख के साधनों से युक्त दो प्राचीना घूघट निकाले इस प्रकार संकोच और भय शयनगृह, एक भोजनालय और दो स्नानागार थे। से सिमटी हुई खड़ी थी मानो सब उसी के लज्जा- भोजन दूसरे बोट में बनता था, जिसके आधे भाग में रूपी कोष पर आक्रमण करने पर तुले हुए हैं और हमारा माँझी सुलताना सपत्नीक चीनी की पुतली-सी वह उसे छिपाने के लिए पृथ्वी से स्थान माँग रही कन्या नूरी और पुत्र महमदू के साथ अपना छोटाहै, कहीं कोई महाराष्ट्र सज्जन शिखा का गुरुभार सा संसार बसाये हुए था। साथ ही एक तितली. सिर पर धारण किये जलाने की लकड़ियों को धोते जैसा शिकारा भी था जिसे पान की आकृतिवाली
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #571
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
स्वर्ग का एक कोना
५२३
छोटी-सी पतवार से चलाकर छोटा महमदू दोनों कूलों को एक करता रहता था। ___ हम रात को लहरों में झूलते हुए खुली छत पर बैठकर तट के एकएक दीपक को पानी में अनेक बनते हुए तब तक देखते ही रह जाते थे जब तक नींदभरी पलकें बन्द होने के लिए सत्याग्रह न करने लगती थीं और फिर सवेरे तब तक कोई काम न हो
तैरता हुआ खेत पाता था जब तक जल में सफेद बादलों की काली देखने लगता। उसकी गम्भीरता देखकर यही प्रतीत छाया अरुण होकर फिर सुनहरी न हो उठती थी। उस होता था कि उसने सलाम करके अपने गुरुतम फूलों के देश पर रुपहले-सुनहले रातदिन बारी बारी कर्त्तव्य का पालन कर दिया है, अब उसे सुननेवाले से पहरा देने आते जान पड़ते थे। वहाँ के असंख्य के कर्त्तव्यपालन की प्रतीक्षा है। शीत ने इन मोम फूलों में मुझे दो जङ्गली फूल मजारपोश और के पुतलों को अंगारों में पाला है और दरिद्रता ने लालापोश बहुत ही प्रिय लगे।
पाषाणों में प्रायः सवेरे कुछ सुन्दर सुन्दर बालक | मज़ारपोश अधिक-से-अधिक संख्या में समाधि नंगे पैर पानी में करम का साग लाने दौड़ते दिखाई पर फूल कर अपनी नीली अधखुली पँखड़ियों से, देते थे और कुछ अपना अपना शिकारा लिये 'सलाम अस्थिपञ्जर को ढंके हुई धूलि को नन्दन बना देता जनाब पार पहुँचायेगा' पुकारते हुए। ऐसे ही कम है और लालापोश हरे लहलहाते खेतों में अपने आप अवस्थावाले बालकों को कारखानों में शाल आदि उत्पन्न होकर अपने गहरे लाल रंग के कारण हरित पर गम्भीर भाव से सुन्दर बेलबूटे बनाते देखकर हमें धरातल पर जड़े पद्मराग की स्मृति दिला जाता है। आश्चर्य हुआ। फूलों के अतिरिक्त उस स्वर्ग के बालक भी स्मरण की काश्मीरी स्त्रियाँ भी बालकों के समान ही सरल वस्तु रहेंगे। उनकी मजारपोश जैसी आँखें, जान पड़ीं। उनके मुख पर न जाने कैसी हँसी थी, लालापोश जैसे होंठ, हिम जैसा वर्ण और धूलि जैसा जो क्षण भर में आँखों में झलक जाती थी और मलिन वस्त्र उन्हें ठीक प्रकृति का एक अंग बनाये क्षण भर में होंठों में । वे एड़ी चूमता हुआ कुर्ता और रखते हैं। अपनी सारी मलिनता में कैसे प्रिय लगते उसके नीचे पायजामा पहनकर एक छोटी-सी ओढ़नी हैं वे ! मार्ग में चलते चलते न जाने किस कोने से को कभी कभी बीच से तह करके तिकोना बनाकर कोई भोला बालक निकल आता और 'सलाम जनाब और कभी कभी वैसे ही सिर पर डाले रहती हैं। पासा' कहकर विश्वासभरी आँखों से हमारी ओर प्रायः मुसलमान स्त्रियाँ ओढ़नी के नीचे मोती
www.umaragyanbhandar.com,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
Page #572
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२४
सरस्वती
[भाग ३६
आश्चर्य का विषय है। कोई काष्ठजैसी नीरस वस्तु को सुन्दर आकृति देकर सरस बना रहा था, कोई काराज कूटकर बनाई हुई वस्तुओं पर छोटी तूलिका से रंग भरभरकर उसमें प्राण का संचार कर रहा था और कोई रंग
बिरंगे ऊन या रेशम [शिव जी का मन्दिर
से सूती और ऊनी
वस्त्रों को चित्रमयलगी या सादी टोपी लगाये रहती हैं जो सुन्दर जगत् किये दे रहा था। सारांश यह कि कोई किसी लगती है।
वस्तु को भी ईश्वर ने जैसा बनाया है वैसा नहीं प्रकृति ने इन्हें इतना भव्य रूप दिया, परन्तु रहने देना चाहता था। निष्ठुर भाग्य ने दियासलाई के डिब्बे जैसे छोटे मलिन काश्मीर के सौन्दर्यकोष में सबसे मूल्यवान अभव्य घरों में प्रतिष्ठित कर और एक मलिन वस्त्र- मणि वहाँ के शालामार और निशातबाग़ माने जाते मात्र देकर इनके सौन्दर्य का उपहास कर डाला और हैं और वास्तव में सम्राज्ञी नूरजहाँ और सम्राट हृदयहीन विदेशियों ने अपने ऐश्वर्य की चकाचौंध जहाँगीर की स्मृति से युक्त होने के कारण वे हैं भी से इनके अमूल्य जीवन को मोल लेकर मूल्य-रहित इसी योग्य । शालामार में बैठकर तो अनायास ही बना दिया। प्रायः इतर श्रेणी की स्त्रियाँ मुझे काग़ज़ ध्यान आ जाता है कि यह उसी सौन्दर्यप्रतिमा का में लपेटी कलियों की तरह मुबई मुस्कराहट से युक्त प्रमोदवन रह चुका है जिसे सिंहासन तक पहुँचाने जान पड़ों। छोटी छोटी बालिकाओं की मन्द स्मित के लिए उसके अधिकारी को स्वयं अपने जीवन में याचना, प्रौढ़ाओं की फीकी हँसी में विवशता और की सीढ़ी बनानी पड़ी और जब वह उस तक पहुँच वृद्धाओं की सरल चितवन में असफल वात्सल्य गई तब उसकी गुरुता से संसार काँप उठा । यदि झाँकता रहता था।
वे उन्नत, सघन और चारों ओर वरद हाथों की ___ इसके अतिरिक्त, सफेद दुग्धफेनिभ दाढ़ीवाले, तरह शाखायें फैलाये हुए चिनार के वृक्ष बोल सकते,
आँखों में पुरातन चश्मा चढ़ाये, पतली उँगलियों में यदि आकाश तक अपने सजल उच्छ्वासों को सुई दबाकर कला को वस्त्रों में प्रत्यक्ष करते हुए पहुँचानेवाले फौवारे बता सकते तो न जाने कौन-सी शिल्पकार भी मुझे तपस्वियों-जैसे ही भव्य लगे। इस करुणमधुर कहानी सुनने को मिलती ? सुन्दर हिमराशि में समाधिस्थ पर्वत के हृदय जिन रजकणों पर कभी रूपस्वियों के रागरञ्जित । में इतनी कला कैसे पहुँचकर जीवित रह सकी, यह सुकोमल चरणों का न्यास भी धीरे-धीरे होता था,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #573
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६ ]
उन पर जब यात्रियों के भारी जूतों के शब्द से युक्त कठोर पैर पड़ते थे, तब लगता था कि वे पीड़ा से कराह उठेंगे । किंवदन्ती है कि पहले शालामार का निर्माण और नामकरण श्रीनगर बसानेवाले द्वितीय प्रवर
फिर
स्वर्ग का एक कोना
सेनद्वारा हुआ था, उसी के भग्नावशेष पर जहाँगीर ने अपने प्रमोदउद्यान की नींव डाली । अब तो उसके, अनन्त प्रतीक्षा में जीर्ण, वृक्षों की पंक्ति में, किसी परिचित पदध्वनि को सुनने के लिए निस्तब्ध पल्लवों में, ऊपर क्षणिक वितान बना देने वाले फ़ौवारों के सीकरों में और भङ्गिमामय प्रपातों में पारस्य देश की कला की अमिट छाप है। हमारे अजस्र प्रवाहिनी सरिताओं से निरन्तर सिक्त देश ने जल को इतने बन्धनों में बाँधकर नर्तकी के समान लास सिखाने की आवश्यकता नहीं समझी थी, परन्तु मुसलमान शासकों के प्रभाव से इसने हमारे सजीव चित्र से उपवनों को सजल भी बना दिया । जिस समय सारे फ़ौवारे सहस्रों जलरेखाओं में विभाजित हो-होकर आकाश में उड़ जाने की विफल चेष्टा में अपने तरल हृदय को खण्ड खण्ड कर पृथ्वी पर लौट आते हैं, सूखे प्रपातों से
पात होने लगता है, उस समय पानी के बीच में बनी हुई राजसी काले पत्थर की चौकी पर किसी अनन्त अभाव की छाया पड़कर उसे और भी अधिक कालिमामय कर देती है।
[मानस बल ]
इस लेख के सब चित्र डब्ल्यू लैक्पर्ट की कृपा से प्राप्त
डल झील की दूसरी ओर सौन्दर्य्यमयी नूरजहाँ के भाई आसफ अली का पहाड़ के हृदय से चरण तक विस्तृत निशातबारा है, जिसकी क्रमबद्ध
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
५२५
उँचाई के अनुसार निर्मित १२ चबूतरों के बीच से अनेक प्रकार से खोदी हुई शिलाओं पर से भरते हुए प्रपात अपना उपमान नहीं रखते। इसकी सजलता में शालामार की-सी प्यास छिपी नहीं जान पड़ती, बरन एक प्रकार का निर्वेद मनुष्य को तन्मय - सा कर देता है । मनुष्य ने यहाँ प्रकृति की कला में अपनी कला इस प्रकार मिला दी है कि एक के अन्त और दूसरी के आरम्भ के बीच में रेखा खींचना कठिन है, अतः हमें प्रत्येक क्षण एक का अनुभव और दूसरे का स्मरण होता रहता है। इसके विपरीत अन्तःपुर की सजीव प्रतिमाओं के लिए इन प्रतिमाओं के आराधक और आराध्य बादशाह के लिए तथा इनके कौतुक से विस्मित सर्वसाधारण के लिए तीन भागों में विभक्त शालामार के पत्ते पत्ते में मनुष्य की युगों से प्यासी लालसाओं की अस्पष्ट छाया मदिरा की अतृप्त मादकता लिये घूमती-सी ज्ञात होती है, परन्तु दोनों ही अपूर्व हैं, इसमें सन्देह नहीं ।
इस चिर नवीन स्वर्ग ने सुन्दर शरीर के मर्म में लगे हुए व्रण के समान अपने हृदय में कैसा नरक पाल रक्खा है, यह कभी फिर कहने योग्य करुण कहानी है।
www.umaragyanbhandar.com
Page #574
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक ऐतिहासिक कहानी
प्राणदण्ड
लेखक, श्रीयुत योगेन्द्रनाथ गुप्त
(१)
हाहाकार करती रहती, किसी के घर में भोजन को सामग्री नहीं ज़ार वर्ष से भी पहले की बात है। उस समय राजराजा दक्षिण- रहती थी। जिस मार्ग से होकर सेनायें निकलती उसके आस-पास
भारत के चोलों के राजा थे । छोटा-सा देश था, छोटा ही की खेती नष्ट हो जाती, गृहस्थों के मकान तक न रहने पाते। सैनिक
राज्य था। त्रिचनापली और तऔर को मिलाकर ही उस गण घरों को लूटकर प्रायः आग लगा दिया करते, और देखते ही समय चोलों का राज्य था। उस समय देश में शान्ति
देखते वे स्वाहा हो जाते। केवल उनकी जली हुई दीवारें । नहीं थी। छोटे छोटे राजा परस्पर कलह करके रक्त की
हृदय में ध्वंस की स्मृति लिये खड़ी रह जाती थीं। नदी बहा देते थे। पांड्य और चेर नामक दो छोटे
राजराजा जिस समय सिंहासन पर बैठे थे, वे । छोटे देश और थे। इन दोनों ही देशों के राजाओं
किशोरावस्था को पार नहीं कर पाये थे। उनके बड़े भाई । का आपस में बराबर युद्ध होता रहता था । प्रजा
देश के लिए युद्ध करते-करते एक-एक करके अपने प्राण ।
कुण्ठवि स्वरलहरी का अनुसरण करती हुई वहाँ पहुँची और
देखकर विस्मित हुई।
५२६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #575
--------------------------------------------------------------------------
________________
गंवा चुके थे। राजराजा को अल्पवयस्क देखकर पांड्य तथा चेर देश के राजाओं ने समझा कि चोल-राज्य को हड़पने के लिए यह समय अनुकूल है। उन लोगों ने कहला भेजा कि हमारी अधीनता स्वीकार करो या युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।
यह समाचार पाकर राज्य के लोग भयभीत हो उठे। किन्तु अल्पवयस्क होकर भी राजराजा विचलित नहीं हुए। उनके हृदय में पूर्व-पुरुषों के गौरव की कथा स्मरण हो आई। राजा परान्तक ने देश पर देश जीत कर चोलवंश का जो गौरव बढ़ाया था, क्या वह आज नष्ट हो जायगा? नहीं, नहीं, कदापि नहीं । जीवन रहते तक मैं ऐसा न होने दूंगा। राजराजा ने सोचा कि यदि शत्र का यह अहङ्कार मैं न तोड़ सका तो चोलराज्य का ध्वंस हो जायगा। प्राण रहते क्या मैं ऐसा होने दूंगा?
युवक राजा ने परामर्श के लिए राज्य के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को दरबार में बुलाया। मन्त्रीगण राजा की बात सुनकर चमत्कृत हो उठे। चोल
राज्य के अतीत गौरव को सुप्रतिष्ठित करने की उन्हें भी प्रबल आकांक्षा थी। किन्तु तामिल-देश के समस्त राजाओं पर आधिपत्य करना कोई है। इस प्रकार युद्ध करने से चोलराज्य पाण्ड्य तथा चेर देशवालों आसान बात तो थी नहीं। कहाँ उसके लिए आवश्यक सेना थी और के हाथ में चला जायगा। आप किस बल पर असाध्य साधना कहाँ उतना धन था ? कोई कुशल सेनापति भी तो नहीं था! करेंगे?
मन्त्रियों तथा देश के बड़े बड़े लोगों ने एक-स्वर से कहा-महा- राजा ने कहा-बहुत अच्छा। आप लोगों का परामर्श सुन राज, अर्थबल, सैन्यबल तथा रणकुशल सेनापति होने पर ही शत्रु पर लिया, अब मैं अपना कर्तव्य स्थिर करूँगा। सब लोग विस्मित होकर विजय प्राप्त करना सम्भव है, अन्यथा विजय की कोई आशा नहीं अपने अपने घर चले गये।
५२७
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #576
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२८
सरस्वती
[(भाग ३६
(२ )
कोई-न-कोई व्यवस्था करूँगा, जिससे चेर तथा पाण्ड्य-राज्य के राजाओं राजा की किशोरावस्था व्यतीत हो चुकी थी। यौवन के प्रबल की लोलुप दृष्टि चोल-राज्य पर न पड़े।" उत्साह और पराक्रम से उसका शरीर और मन परिपूर्ण था। उसने राजराजा यह बात जानते थे कि कहलनिरत चेर तथा पाण्ड्य-राज सेनापति अविरम्यण को बुलवा भेजा। सेनापति की अवस्था उस समय पाँच वर्ष ही नहीं, बल्कि उससे भी अधिक समय तक पारस्परिक युद्ध पचास वर्ष से अधिक हो चुकी थी। किन्तु वाक्य की मलिन छाया में ही संलग्न रहेंगे। तथा अवसाद उनके शरीर में नहीं था। उनका लम्बा शरीर स्वस्थ, सुटौल और सुन्दर था।
राजा के आह्वान से देश के लिए युद्ध करने को हज़ारों युवकों का म्यान से तलवार निकाल कर सेनापति ने तरुण महाराज का दल आया और सेना में सम्मिलित हुआ। उन युवकों के ललाट में अभिवादन किया और कहा-महाराज का क्या आदेश है ? दीप्ति थी, मुख में हास्य था और बाहुओं में बल । उन सभी का हृदय
दारुण निदाघ के प्रथम प्रभात में जिस समय उषा की सुनहरी उत्साह से पूर्ण था । अविरम्यण उन्हें युद्ध कला की शिक्षा आभा की आड़ में सूर्य प्रकाशित होते हैं तब उसकी रश्मियों के देने लगा। पीछे जिस प्रकार के दीप्त ताप की प्रखरता का आभास रहता है, इतिहास के सभी पाठकों को यह बात मालूम है कि प्राचीन काल उसी प्रकार अभिज्ञ सेनापति ने देखा कि अवस्था तरुण होने पर भी में भिन्न भिन्न देशों के सभ्य भारतवासियों के साथ व्यापार हुआ यह युवक राजा होने के योग्य है । अविरम्यण ने अनिमेष दृष्टि से उस
करता था। आयों ने भिन्न भिन्न देशों में जितने राज्य स्थापित किये दीप्त मुखच्छवि की ओर ताकते हुए प्रसन्न मन से कहा-आज्ञा
थे उन सभी देशों में व्यापार के निमित्त वे आया-जाया करते थे। दीजिए।
एक देश की वस्तुएँ अन्य देशों में ले जाकर वे विक्रय किया राजराजा ने कहा- मेरे शरीर का एक बिन्दु भी रक्त जब तक करते थे। धमनियों में प्रवाहित होता रहेगा तब तक मैं चेर, चालुक्य तथा एक वह भी दिन था जब इन चेर, चोल और पाण्ड्य राजाओं पाण्ड्य राजाओं की अधीनता कदापि नहीं स्वीकार करूँगा।
गा।
के जहाज़ समुद्र का अतिक्रमण करके भिन्न-भिन्न देशों में व्यापार के उत्साह से सेनापति का मुख प्रदीप्त हो उठा। उसने खुली लिए जाया करते थे। उस युग में वर्तमान मदरास के समीप एक तलवार म्यान में बन्द कर ली और घुटना टेककर कहा-महाराज, ऐसी राज्य था। उस देश की राजकुमारी पाण्डुवा ने विवाह के समय ही बात आपके मुख से शोभा देती है।
पिता से तीन सौ पैंसठ ग्राम दहेज़ के रूप में प्राप्त किये थे। प्रति“सेनापति, में युद्ध करूँगा। किन्तु मेरी सेना कहाँ है ? सेना के दिन एक-एक गांव के लोग अपने अपने गाँव का राजस्व लाकर राजकप्तान कहाँ है ? युद्ध के योग्य रणपोत कहाँ है ? राजकोष में अर्थ कुमारी को दिया करते थे। इस राजकुमारी के कई व्यापारिक जहाज़ भी नहीं रह गया है। यदि चेर और पाण्ड्य देश के राजाओं ने एक थे। वे सब जहाज़ मोती लादकर यूनान और रोम जाया करते थे। साथ हमारे राज्य पर आक्रमण किया तो चोल-राज्य का एक भी उस समय भारतवासी इसी प्रकार समुद्र पार करके व्यापार किया आदमी जीवित न रहेगा । इसका कोई प्रतीकार कीजिए।" करते थे। इस सिलसिले में चोल, चेर और पाण्ड्य राजाओं की
सनापति ने कहा-महाराज, सम्राट् परान्तक जब तक जीवित सामुद्रिक चढ़ाइयों के सम्बन्ध में भारत में खब प्रसिद्धि थी। थे तब तक तो किसी वस्तु का अभाव था नहीं । स्वगीय महाराज की जहाज़-निर्माण का काय्य बहुत ही शीघ्रतापूर्वक किया गया। मृत्यु के बाद ही इस राज्य की यह दुर्दशा हुई है। किन्तु मुझे यदि सैकड़ों जहाज़ तैयार करके जल में छोड़ दिये गये। सारे जहाज़ तैयार समय मिला, अधिक नहीं केवल पाँच वर्ष का भी समय मिल गया, हो जाने पर राजराजा उन्हें देखने गया। समुद्र के तट पर खड़े होकर तो मैं धन एकत्र कर लूँगा, साथ ही युद्ध के लिए उपयुक्त रणपोत उसने देखा—यह असीम अनन्त नीलसागर अनन्त आकाश की गोद में तथा सेना भी प्रस्तुत कर लूंगा।
क्षितिज्ञ में जाकर मिल गया है। इसकी हर एक तरङ्ग से कैसा __"क्या आप ऐसा कर सकेंगे ?"
गर्जन हो रहा है ! उसके मन में याद आई उस दिन की बात जब "हाँ महाराज, अवश्य कर सकूँगा। अपने देश के गौरव से कौन उसके पूर्वज फेनिल नील अनन्त सागर के हिंडोले पर भूलते झूलते नहीं गौरवान्वित होता? कौन नहीं चाहता कि अपने देश की मान- व्यापार के निमित्त अपनी वस्तुएँ देश-विदेश को भेजा करते थे। रक्षा करूँ ? आपकी कृपा से मातृभूमि की गौरव-रक्षा के लिए अवश्य वही समुद्र है, वही चोल-राज्य है, वही चोल-निवासी हैं, वही गिरि, समुचित प्रयत्न कर सकूँगा।"
नदी, बन आदि सभी कुछ हैं ! तब कौन-सी ऐसी बात है जिसके ___ “आपका कल्याण हो। मैं जिस तरह भी हो सकेगा, धन-संग्रह कारण उस युग में जो सम्भव था वह आज क्यों न सम्भव होगा? कर दूँगा। आप सेना का संगठन प्रारम्भ कर दीजिए। मैं ऐसी भी वही साहस, वही पराक्रम क्या आज न लौट सकेगा?
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #577
--------------------------------------------------------------------------
________________
समरकन्द में तैमूरलङ्ग का मकबरा । ईटों और खपड़ों पर की गई नक्काशी का एक नमूना।
उस समय वहाँ ऐसी इमारतों का बाहुल्य था।
Shree Sudharmaswami Cyanbhandar Umara Surat
www.umaragyanbhandancom
Page #578
--------------------------------------------------------------------------
________________
अबीसीनिया में योरपियन ढङ्ग की सैनिक शिक्षा बड़े जोरों से प्रारम्भ हो गई है। तीन लाख सैनिक उत्तरी मोर्चे पर भेजे जा रहे हैं । चित्र में स्वेडन देश का एक शिक्षक उन्हें फौजी तालीम दे रहा है।
खाइयों में बाबीसीनिया के अल्प सन्जित सैनिक इटली के सैनिकों के आक्रमण की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
agyeRDSahdar.com
Page #579
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिसम्बर के अन्त में-- त्रिवेन्द्रम् में होनेवाले महिला सम्मेलन के लिए बम्बई- महिला संघ के स्त्री-प्रतिनिधि ।
कुमारी कमला शिवदा सिन (कराची सिंध) - इन्होंने बङ्गाल के शान्तिनिकेतन की नृत्य कला का सुन्दर अध्ययन किया है। इस चित्र में ये अपना एक भारतीय नृत्य कर रही हैंlami Gyanbhandar-Umara,
बेला सरकार-मार्टिन एण्ड कम्पनी के इंजीनियर मिस्टर जी० के० सरकार की पुत्री हैं। इस वर्ष प्रयाग संगीत सम्मेलन में की ध्रुपद प्रतियोगिता में ६ वर्ष के अन्दर की मंडली में ये प्रथम आई हैं।
मिस रेवादत्त —ये अभी अपनी उम्र के ११ वें वर्ष में हैं । प्रयाग में जो हाल में सर्वभारतीय संगीत-सम्मेलन हुआ था उसमें ये संगीत तथा नृत्य में द्वितीय श्रेणी में मानी गई हैं।
www.umaragyanbhandar.com/
Page #580
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीयुत (वाङ्ग शीङ्ग वेई- चीन के प्रधान
मंत्री और वैदेशिक
मंत्री जिन पर हाल में गोली का
ग्राक्रमरण
घातक हुआ था।
श्रीयुत बी० बी० चौधरी । ये प्रथम गूँगे और बहरे भारतीय चित्रकार हैं जो लन्दन के 'रायल कालेज ग्राफ़ आर्ट' से चित्रकला में ग्रेज्युएट होकर निकले हैं ।
पंजाब सरकार
के भूतपूर्व
मिनिस्टर लाला हरकिशनलाल । इन्हें अदालत का अपमान करने के कारण गत मास में एक महीने की सज़ा सुनाई गई थी। ये पंजाब के एक बड़े बैंक के चेयरमैन और वहाँ के प्रमुख व्यापारियों में हैं।
बड़ौदा की हर हाइनेस महारानी साहवा अपनी विलायत यात्रा समात करके स्वदेश लौट आई हैं। आपका यह चित्र बम्बई में इटालियन जहाज़ विक्टोरिया से उतरने के बाद लिया गया है।
कुमारी रोशन नौशेरवाँ मिर्ज़ा । ये मदरास विश्व विद्यालय की ग्रेज्युएट हैं और ताता की छात्रवृत्ति पाकर आक्सफ़ोर्ड में पढ़ने के लिए इंग्लैंड गई हैं।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat,
सर एडवर्ड बक | ये रूटर
लन्दन में स्थित
कार्यालय के एजेंट
हैं और हाल में
भारत भ्रमण के
लिए आये हैं ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #581
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
प्राणदण्ड
५२९
- अन्त में सम्भव हो गया। एकलव्य की गुप्त साधना के समान होती रहती, गाँव गाँव में उत्सवगीत होते रहते । नगर धन-धान्य से. राजराजा की साधना सफल हुई। आज उसके दस लाख सैनिक युद्ध पूर्ण थे, देवमन्दिर स्तवगीत से मुखरित तथा भारती के घंटे से ध्वनित के लिए आवश्यक अस्त्र-शस्त्र से तैयार थे। सैकड़ों युद्धपोत रण के थे। ऐसा सुखमय युग था। गौरव से गर्वित थे। उनके मस्तूल पाल डालकर वन के वृक्षों के ऐसे ही समय में समाचार आया कि वेगी का राजा अभी तक समान आकाश की ओर मस्तक उठाये खड़े थे। इस प्रकार की सारी पराजित नहीं हो सका। वह इस समय भी स्वाधीन है। वेंगी छोटातैयारी हो जाने पर उस पहली मुलाकात के ठीक पाँच वर्ष बाद सा राज्य था, इसलिए राजराजा ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया था। सेनापति अविरम्यण ने आकर राजा के दर्शन की प्रार्थना की। शायद बाद को भी वह उधर ध्यान न देता। परन्तु वेंगी के राजा . राजराजा ने बड़े ही आदर के साथ सेनापति को ग्रहण किया। विमलादित्य ने राजराजा की राजधानी तऔर के एक वैश्य को इस पाँच वर्ष में सेनापति और भी वृद्ध हो गया था। उसके मस्तक अपमानित और लाञ्छित किया था, इसलिए इस अनुचित अपमान के के सभी बाल सफेद हो गये थे, किन्तु मुख में प्रसन्नता की प्रतीकार के लिए. राजराजा सोये हुए सिंह के समान जाग पड़े। उन्होंने मुस्कराहट थी।
अपने पुत्र राजेन्द्र में कहा कि जिस प्रकार भी सम्भव हो, इस उद्धत एक दिन चेर तथा पाण्ड्य देश के राजाओं ने राजराजा के पास दृत राजा को बन्दी करके लाओ, अन्यथा जीवित अवस्था में मत लौटना। भेजकर कहलाया था कि या तो हमारी अधीनता स्वीकार करो या युद्ध पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके राजेन्द्र ने बेंगी के राजा के विरुद्ध करो। आज उसके उत्तर के रूप में चोलराज्य का दूत चेरराज्य तथा युद्ध करने के लिए प्रयाण किया। अन्यान्य तामिल-राजाओं के पास यही सन्देश लेकर गया। चेरराज्य ने उद्धृत-भाव से कहा-मैं युद्ध करूँगा। पाण्ड्य-राज्य ने कहा- राजा विमलादित्य को प्रजा नहीं चाहती थी। सैनिकगण भी सोचकर उत्तर दूंगा।
उसके प्रति श्रद्धा नहीं करते थे । जो राजा प्रजा का पालन नहीं करता, राजराजा ने अब युद्ध की घोषणा कर दी। पहले युद्ध हुआ चेर- जो राजा सैनिकों को वेतन नहीं देता, दीन-दुखियों के दुख से दुखी राज्य के साथ। चेरराज्य जल तथा स्थल दोनों ही प्रकार के युद्ध में होकर आँसू नहीं बहाता, उसकी दुरवस्था देखकर प्रजा क्यों आँसू पराजित हुआ, उसकी नौवाहिनी ध्वंस हो गई, उसका अहङ्कार चूर्ण बहावे ? सैनिकगण ही उसके लिए क्यों लड़ने लगे ? राजा विमलादित्य हो गया। इसी प्रकार पराजित होने पर पाण्ड्य-राज्य ने भी उसकी राजकार्य नहीं देखा करता था। वह केवल आमोद-प्रमोद में ही अधीनता स्वीकार कर ली। विजय-लक्ष्मी ने उस दिन जो गौरव की अपना समय व्यतीत किया करता था, प्रजा के सुख-दुख का उसे माला हाथ में लाकर राजराजा को पहनाई थी वह आजन्म अम्लान-भाव कोई ख़याल नहीं था। राजेन्द्र चोल जिस समय अपना दल-बल लेकर से उनके गले में भूलने लगी।
विमलादित्य की राजधानी के तोरण के सम्मुख पहुँचा और मोरचाबन्दी देखते देखते चोलराज्य समस्त करमण्डल-समुद्र-तट तक विस्तृत कर दी, उस समय विमलादित्य की आँखें खुलीं। किन्तु कहाँ उसके हो गया। राजराजा ने एक-एक करके अपनी मेनाओं का दिग्विजयी सेनापति थे, कहाँ मन्त्री थे और कहाँ सैनिक थे ? कोई उसके पास तक दल लेकर उत्तर में कलिङ्ग और दक्षिण में सिंहल तक विजय न फटका । सैनिकों ने कह दिया कि हम युद्ध नहीं करेंगे। उन्होंने कर लिया।
माचा कि राजराजा प्रजावत्सल राजा हैं। वे चोल हैं तो इससे हानि राजधानी तंजौर अतुल धन-सम्पत्ति में ऐश्वर्यशाली हो उठा। ही क्या है ? हम चालुक्य होकर भी तो चालुक्यराज से किसी प्रकार वहाँ राजराजा ने एक अपूर्व देव-मन्दिर बनवा दिया। वह देव- के उपकार की आशा नहीं कर सकते ? वेंगी-राजा की एक चिड़िया भी मन्दिर आज भी वर्तमान रहकर उनकी कीर्ति का गौरव प्रकाशित राजा के पक्ष में युद्ध करने के लिए तैयार न हुई, विन्दुमात्र भी कर रहा है। इसी प्रकार देश पर देश जीतकर वे दक्षिण-भारत रक्तपात न हुआ। अनायास ही वेंगी पर विजय हो गई। बन्दी के एक विजयी सम्राट के रूप में परिगणित हो गये। उनकी उपाधि विमलादित्य की मुखश्री मलिन हो उठी। विजयी राजराजा के सैनिक हुई राजाधिराज राजचक्रवर्ती ।
विजय के उल्लास में वेंगी-राजा के हृदय पर आधात पर आघात
पहुँचाने लगे। लज्जा और अपमान से उसका मस्तक नत हो उठा। इसी तरह बहुत दिन बीत गये। राजराजा अब प्रौढ़ हा चुके . इस विजय का समाचार पाकर राजराजा आनन्द से गद्गद हो थे। सेनापति अबिरम्यण दिवंगत हो गया था। युवराज राजेन्द्र उठे। विजय का डंका बज उठा, देवमन्दिरों में पूजा-पाठ होने लगे। तरुण युवक था। सैन्यदल का वह प्रिय सेनापति था। सर्वत्र शान्ति, सर्वत्र सुख-समृद्धि विराजमान थी। कमला के कमल हास्य से खेत-खेत उस दिन राजमार्ग में बेहद भीड़ थी। घर घर, बरामदों में तथा । में हरी-भरी खेती लहलहाती रहती, नदियों में क्षीर की धारा प्रवाहित खिड़कियों के पास सर्वत्र आदमी ही आदमी भरे थे। क़तार के कतार
का. ७
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #582
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३०
सरस्वती
[भाग ३६०
नर-नारी खड़े थे बन्दा राजा को देखने के लिए। राजेन्द्र ने बन्दा था। अब वाणा ही उसका एकमात्र सङ्गिना थी । फाल्गुन में जब वनों विमलादित्य को लेकर विजयी सेना के साथ नऔर नगर में प्रवेश में फूल खिल उठते थे, चिड़ियाँ मधुर स्वर में गा-गाकर समस्त दिन किया। विमलादित्य के हाथ शृङ्खला से बँधे थे। बन्दी राजा विमलादित्य कलरव किया करती थीं, दक्षिणी हवा व्याकुल भाव से आवेग के साथ मस्तक नोचे किये हुए धीरे धीरे चला जा रहा था. पहरेदार लोग बहने लगती थी, उस समय फाल्गुन की शुक्ल निशा में वह स्वच्छन्द. उसे घेरकर राजप्रासाद की ओर लिये जा रहे थे। करुणाहीन दर्शक भाव से वीणा बजाया करता, सुर की लहर लहर में वसन्त की उसका उपहास करने लगे और ज़ोर से हँस-हँसकर उसका तिरस्कार शोभा खिल उठती, वर्षा के आकाश पर जब कजल के समान काले करने तथा उसे धिक्कारने लगे। बहुत-से लोग कापुरुष कह-कहकर मेघ मँडराते रहते, गड़गड़ा कर बादल गरजा करते, रह रहकर उसके प्रति घृणा प्रकट करने लगे।
बिजली चमक उठती, उस समय वह अपनी वीणा में मेघमल्लार की तरुण राजा विमलादित्य के शरीर का अतुलनीय मौन्दर्य मेघ में रागिनी बजाया करता था। उसके श्रोता थे वन के पक्षी और फूले आच्छादित निष्प्रभ चन्द्रमा के ममान मलिन था, किसी ने भी उसके हुए वृक्ष और लतायें। निराशा की वेदना में उसके दिन कट रहे थे, प्रति सहानुभूति की दृष्टि से नहीं देखा । राजकुमारी कुण्ठवि ने खुली किन्तु एक दिनहुई खिड़की की राह मे उस बन्दी राजा का मलिन मुखच्छवि देवकर हृदय में वेदना का अनुभव किया। उसकी आँखों में आम के दो एक दिन एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई । उस समय शरद बूंद गिरे, परन्तु किसी को उसका पता नहीं चल सका।
ऋतु की शोभा विकसित हो उठी थी। नील निर्मल आकाश था
कहीं से मानो एक नवीन आनन्द हृदय में लेकर कमल और कुमु बन्दी जब राजराजा के सम्मुख उपस्थित किया गया तब सब लोगों खिले थे, मधु के लोभी मधुप मधु का लुण्ठन करते करते गुनगुना र को आशङ्का हुई कि कठोर प्रकृति के राजा शायद इसी समय वेंगी के थे। ऐसा ही शरद्-ऋतु के एक प्रभात में उस समय भी मू राजा के प्राणदण्ड का आदेश करेंगे। विमलादित्य ने अपने शृङ्खला मे आकाश में प्रदीप्त नहीं हो उठे थे, केवल साना उड़ाकर सबवे बँधे हुए दोनों हाथ मस्तक से लगाकर सम्राट राजराजा को प्रणाम प्रसन्न और मुग्ध कर रहे थे। चिड़ियाँ घोंसले छोड़कर उठ ही भर पा किया । राजराजा ने गम्भीर भाव से उस अलस युवक के सुन्दर और थीं। विमलादित्य उपवन के एक कोने में एक शिला पर विराजमा विवर्ण मुख की ओर तीक्ष्ण दृष्टि से देखा। बाद को युवराज राजेन्द्र हो, शरद्-ऋतु के उस सुन्दर प्रभात में वीणा बजाने में तन्मय था से कहा-वेंगो-राज का बन्धन मुक्त कर दो।
ठीक उसी समय अपनी सहचरियों को साथ में लिये हुए राजकुमार राजेन्द्र ने स्वयं आकर विमलादित्य का बन्धन मुक्त कर दिया। कुण्ठवि देवमन्दिर में पूजा करने जा रही थी। रक्षकों से व सम्राट की इस उदारता के कारण सब लोग हपध्वनि कर उठे। बाद घिरी हुई थी। उसके कानों में पड़कर उस वोणा को सुरलहरी ने एक को एकान्त कमरे में बैठकर राजराजा ने विमलादित्य के सम्बन्ध में नवीन जगत् का पता बतलाया। किस दण्ड का विधान किया, यह बात किसी का ज्ञात न हो सकी। राजकुमारी चकित हो उठी। उसके मन में यह बात आई कि इ. (८)
बन के भवन में वीणा कौन बजा रहा है। पीनस से उतरकर उस विमलादित्य का राज्य आज राजराजा के अधिकार में है। सम्राट कहा-ज़रा मैं इस बगीचे में घूम आऊँ। पहरेदारों ने कहा-या ने राज्यशासन की नई व्यवस्था कर दी है। प्रजा उनके उत्तम शासन तो ठीक नहीं है। सहचरियों ने कहा-लौटने में विलम्ब होगा। परन् से सुखी होकर शान्तिपूर्वक निवास कर रही है, इससे वह चालुक्यराज राजकुमारी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। उसने कहा-होने दो, विमलादित्य को भूल गई है। इसमें उनका अपराध ही क्या है ? जाऊँगी। सहचरियों ने साथ चलने की इच्छा प्रकट की, किन्तु राजकुमार भूल जाना तो मनुष्य का धर्म है। विशेषतः ऐसे असावधान और ने राजहंसिनी के समान गर्दन उठाकर गर्वमय स्वर में कहा नहीं। विलासी राजा के हाथ से वे लोग मुक्त हो सके है, यह तो विधाता राजा की यह दुलारी कन्या है, यह बात तो किसी से छिपी को कृपा ही हुई।
नहीं, इससे मुंह खोलने का साहस कोई नहीं कर सका। विमलादित्य नगर के बाहर एक विशाल भवन में अकेला ही रहा वन का हरा-भरा और सुहावना पथ था। दोनों ओर वृक्ष ही वृद्ध करता । कोई उससे मिलने या बात-चीत करनेवाला नहीं था। परन्तु लगे थे, वे सभी पत्रों तथा पुष्पों से सुरभित और सुसज्जित थे। वीप उसे प्रतिदिन के उपयोग की सभी वस्तुएँ यहाँ मिल जाती थीं। बजानेवाला उस समय मुग्ध होकर भावों में तन्मय था, सुरलहरी पहरेदार लोग उस भवन के तोरण के पास पहरा दिया करते। सप्तम पर पहुँच गई थी। शरद्-ऋतु के देवता मानो यहीं इस उपवन राजा कहीं बाहर नहीं जाने पाता था। तरुण चालुक्यराज अकेले ही में आकर बन्दी हो गये थे। पत्तियों की आड़ से आ-आकर सुनहरी बैठे बैठे वीणा बजाया करता । इस कला में वह बहुत ही निपुण किरणें उसके मुंह पर पड़ रही थीं।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #583
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
कुण्ठव स्वरलहरी का अनुसरण करती हुई वहाँ पहुँची और देखकर विस्मित हो गई। उसने पहचाना कि यह वही बन्दी चालुक्यराज है जिसकी दुर्दशा देखकर मेरे नेत्रों से दो बूँद आँसू उस दिन गिरे थे । एकाएक कुण्ठवि को देखकर विमलादित्य चौंक उठा। सावधानी के साथ वीणा को रखकर वह खड़ा होगया। उस समय भी वीणा का स्वर बाबु मेरी री करके हुत हो रहा था। विस्मित और स्तम्भित बन्दी ने पूछा आप कौन हैं? कुण्डलि ने अकुण्हित कण्ठ से गौरव के साथ कहा- मैं राजाधिराज राजराजा की कन्या कुण्ठवि हूँ और सङ्कचित होकर विमलादित्य ने कहा- देवि में बन्दा हूँ कौन-सा अपराध किया है? मोतियों के समान दांत विकसित हँसती हुई राजकुमारी ने कहा - इधर से ही होकर मैं प्रतिदिन देवाराधन के लिए जाया करती हूँ। मुझे यह नहीं मालूम था कि आप इस बाग़वाले मकान में ही बन्दी हैं। आज आपकी वीणा का सुमधुर स्वर सुनकर मुझे कौतूहल हुआ। उसी की निवृत्ति के लिए यहाँ आई हूँ ।
1
प्राणदण्ड
भांत
मैंने
करके
X
X
X
राजकुमारी उस दिन से देवमन्दिर में जाते समय प्रतिदिन हो उस तरुण बंदी राजा की वीणा की तान सुनने लगी। वीणा के प्रत्येक स्वर में मानो विमलादित्य के बन्दी जीवन की कथा उच्चरित हुआ करती थी। धीरे धीरे विमलादित्य और कुण्ठवि परस्पर एक दूसरे से प्रेम करने लगे ।
इसी तरह कई महीने बीत गये। एक दिन विमलादित्य ने कहा- देवि, मैं बन्दी हूँ तुमने मुझसे प्रेम करने की गुलता क्यों की? मालूम नहीं कि किस दिन मेरे प्राणदण्ड की निष्ठुर आशा सुनाई जाय राजकुमारी यह तो असम्भव है कि हम तुम प्रेम का जीवन बितायें, सर्वथा असम्भव है।
कुण्ठव ने दर्पमय स्वर में कहा - विमलादित्य, तुम किसी भी बात के लिए मत डरो। मैं तुम्हें मुक्त कर लूँगी। यदि ऐसा न कर सकी तो यह जीवन ही विसर्जित कर दूंगी। राजकुमारी के मुख में बिजली की चमक के समान हँसी विकसित हो उठी । उसकी दृढ़ता से मुग्ध होकर बन्दी ने कहा- देवि, तुम अवश्य राजाधिराज की सुयोग्य कन्या हो ।
(१०)
युवराज राजेन्द्र अपनी इस मातृदांना भगिनी को प्राणों से भी अधिक प्रिय समझता था । छुटपन में उसका कितना ही आग्रहपूर्ण किन्तु अनुचित प्रार्थनाओं को भी उसने स्वीकार किया था। ये दोनों ही भाई-बहन एक साथ ही माता-पिता के स्नेहमय अञ्चल में रहकर बड़े हुए. थे
A
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
राजेन्द्र एकान्त कमरे में बैठा था। वह यही सोच रहा था कि सिंहल विजय की यात्रा किस प्रकार करूँ। नौवाहिनी को सुसज्जित करने
५३१
तथा सेना को सुसङ्गठित करने के लिए उसका मन अधीर हो रहा था । उसी समय कुण्ठवि उसके कमरे में पहुँचा ।
राजेन्द्र ने स्नेह-पूर्वक कुण्ठवि को सम्बोधित करके कहा- तुम यहां एकाएक कैसे आई हो बहन ?
कुण्ठवि ने कहा- भैया, तुमसे मुझे एक बात कहनी है । राजेन्द्र ने विस्मित होकर कहा- तुमको ? बतलाओ । क्या किसी नये देश का कोई नई ची उपहार देना होगा ?
कुण्ठवि गम्भीर होकर विमलादित्य की मुलाक़ात तथा उसके प्रेम की कथा कह गई और उसने उस प्रेम-रक्षा के लिए कोई उपाय करने का आग्रह किया।
इस आकस्मिक संवाद से राजेन्द्र विस्मित हो उठा। उसका चेहरा उत्तर गया वह सोचने लगा कि राजराजा जैसे दुर्धर्ष राजा से मैं यह बात कैसे कहूँगा । वह समझ गया कि इसका परिणाम बहुत ही भयङ्कर हो सकता है। किन्तु कुण्ठवि ने जब अपनी जेब से मणिमुक्ता से खचित एक छोटी-सी छुरी निकाल कर कहा - भैया, यदि तुम पिता जी से कहकर हमारे विवाह की व्यवस्था न कर सकोगे तो मैं यही बुरी हृदय में भीक कर प्राण त्याग कर दूँगी।
राजेन्द्र का स्नेह से दुर्बल हृदय कांप उठा। यह क्या? यह तो बड़ी आश्चर्यजनक घटना है ! कुण्ठत्रि बन्दी राजा के प्रेम में पड़ गई !
डर के मारे राजेन्द्र का हृदय थरथर कांपने लगा। वह सोचने लगा कि किस तरह किस साहस से में सम्राट् से कहूँगा कि विमलादित्य तथा कुण्ठत्रि परस्पर एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, अतएव आप विमलादित्य को मुक्त करके उन दोनों का विवाह कर दीजिए । ऐसा कहने का फल क्या होगा, यह राजेन्द्र को अज्ञात नहीं था। परन्तु फिर मां
फिर भी बहन का मुँह ताककर राजेन्द्र राजराजा के समीप गया ।
X
X
X
में
राजराजा मंत्रियों तथा अन्यान्य सभासदों से परिवेष्टित राजसभा विराजमान था। ऐसे ही समय में राजेन्द्र वहाँ पहुँचा। पुत्र के देखकर राजराजा ने पूछा- क्या तुम्हें कुछ कहना है ?
"हां सम्राट् !"
"कह सकते हो।"
सम्राट् की आज्ञा पाकर राजेन्द्र ने कुण्ठवि और विमलादित्य का हाल कह सुनाया । श्रावण के मेघ के समान राजराजा का मुख गम्भीर हो गया । सभास्थल नीरव था । सहसा एक उच्च हास्य के अट्टहास से चारों दिशाओं को मुखरित करके राजराजा ने कहा- इतनी बड़ी स्पर्द्धा इस हतभाग्य बन्दी चालुक्यराज की इतना घोर अपमान ! असह्य है । इतने दिनों तक इसके मामले का निपटारा न करके मैंने बहुत अनुचित किया है। कल ही इसका फैसला करूँगा, उचित दण्ड दिये बिना न रहूँगा । सेनापति, कल सवेरे विमलादित्य को हमारे सम्मुख उपस्थित करो ।
•
www.umaragyanbhandar.com
Page #584
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३२
सरस्वती
[भाग ३६
किसी के मुँह से बात न निकली। राजेन्द्र नीरव, स्तब्ध, मलिन मस्तक उठाकर कुण्ठवि की ओर ताका । कैसी सुन्दर, प्रशान्त उज्ज्वल और निस्पन्द था। सारा आकाश घने काले मेघ से ढंक गया। दृष्टि थी ! दृष्टि क्या थी, मानो जगमगाते हुए दो तारे थे। कुण्ठवि की
ओर देख लेने के बाद एक बार सभा की ओर ताककर विमलादित्य विमलादित्य उस दिन रात को चिन्ता में मग्न था। कुण्ठवि अब ने गर्वमय स्वर में कहा-सम्राट ! अपराध मेरा है । राजकुमारी का नहीं आती ! वीणा अब उस तरह नहीं बजती। हतभाग्य बन्दी ने नहीं। उसे क्षमा कर दीजिए। सारी रात जाग कर ही काटी थी। प्रातःकाल की स्निग्ध और शीतल कुण्ठवि ने कहा-पिता, राजाधिराज सम्राट , बन्दी चालुक्यराज वायु लगने पर उसे जरा-सी तन्द्रा आगई। इतने में एकाएक झनझना ने कोई अपराध नहीं किया है। अपराधिनी मैं हूँ। मुझे दण्ड दीजिए, कर उसके कमरे का द्वार खुल गया। चकित होकर उसने देखा कि विमलादित्य को क्षमा कर दीजिए। कतार के कतार सैनिक चले आ रहे हैं। उन सबके हाथ में नंगी राजराजा ने एक विकट . हँसी हँसकर कहा-चालुक्यराज तलवारें हैं। बाद को-पहले एक दिन जिस प्रकार वह बन्दी के विमलादित्य, तुम्हारे लिए मैं प्राणदण्ड का आदेश करता हूँ। रूप में लाया गया था, ठीक वैसे ही सैनिक लोग कौतूहल से अभिभूत सभामण्डप के सभी लोग एक साथ ही हाय हाय करने लगे। जनता के बीच से उसे लेकर राजसभा को गये।
निभीक विमलादित्य के प्रशान्त मुखमण्डल पर हँसी की एक रेखा उस दिन राजसभा में बड़ी भीड़ थी। राजा के मंत्री, पार्षद उदित हो आई। तथा नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति उन्हें घेरे बैठे थे। उसी समय बन्दी राजराजा ने फिर कहा-मुनो कुण्ठवि, तुम्हारे प्रति मेरा आदेश विमलादित्य को लिये पहरेदार लोग राजसभा में उपस्थित हुए। है निर्वासन का। रक्षकों का दल हाथ में नंगी तलवारें लिये हुए उसे घेर कर खड़ा हो कुण्ठवि हँसी । हँसकर जेब से वह छुरा निकालने का प्रयत्न गया। एक ओर विमलादित्य खड़ा था और दूसरी ओर राजकुमारी करने लगी, किन्तु छुरा उसमें नहीं था, इससे वह मूच्छित होकर वहीं कुण्ठवि । वह भी स्त्री पहरेदारों से परिवेष्टिता थी।
गिर पड़ी। सम्राट का निर्णय सुनने के लिए सभी लोग गर्दन उठाये प्रतीक्षा कर रहे थे। राजराजा ने कहा-एक सुन्दर राजा को बन्दी करने के हाँ, प्राणदण्ड हुआ। एक शुभ मुहूर्त में नृत्य-गीत और उत्सव कारण आज मुझे अपनी कन्या का परित्याग करना पड़ रहा है। के साथ चालुक्यराज विमलादित्य ने प्राणदण्ट के रूप में कुण्ठवि को मंत्रिगण, यदि मैं पहले ही इस हतभाग्य बन्दी का मस्तक तीक्ष्ण प्राप्त कर लिया और कुण्ठवि का चिर-निर्वासन हुआ विमलादित्य के तलवार के आघात से शरीर से पृथक कर देता तो कुण्ठवि को हृदय-राज्य में । राजराजा ने कन्या और दामाद को दहेज़ के रूप में इसकी रूपराशि पर मुग्ध होने का अवसर ही न मिलता। आज मैं वेंगी का राज्य दिया। उस अनुचित विलम्ब का प्रतीकार करूँगा।
विमलादित्य ने राजराजा को पद-धूलि ग्रहण करके कहा-मैंने सभा के मध्यस्थल से होकर हा हा करता हुअा हँसा का एक आज जो अमूल्य रत्न प्राप्त किया है, उसकी तुलना में गी का राज्य अदृहास.निकल गया।
प्रेम ने विमलादित्य को साहसी बना दिया था। उसने एक बार राजराजा हँसने लगे।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #585
--------------------------------------------------------------------------
________________
फारसी में भागवत
लेखक, श्रीयुत महेशप्रसाद मौलवी आलिम फ़ाज़िल श्रीमद्भागवत हिन्दुओं का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। जिस समय भारत में फारसी का जोर बढ़ा, संस्कृत के अन्य ग्रन्थों की भाँति श्रीमद्भागवत के भी उसके प्रेमियों ने फारसी में अनुवाद कर डाले। इनमें से कई अनुवाद अब भी मिलते हैं। फारसी और अरवी के सुप्रसिद्ध पंडित श्रीयुत महेशप्रमाद जी ने इस लेख में ऐसी ही भागवतों का परिचय दिया है।
ज रत में जिस समय फ़ारसी का माहब ने पहले रचा था, क्योंकि दशम स्कन्ध के पहले
ज़ोर था उस समय संस्कृत जो पद्य हैं * उनसे स्पष्ट है कि लाला साहब लालपुर के अनेक अपूर्व ग्रन्थों का नामक स्थान के निवासी थे। इनके बाल्य-काल में ही अनुवाद फ़ारसी में हुआ जब यह स्थान पानी की बाढ़ से नष्ट हो गया तब ये दिल्ली था अथवा यह कि संस्कृत- में अपने पिता के यहाँ जाकर रहने लगे। वहाँ इन्होंने ग्रन्थों के असली भावों को पढ़ा-लिखा और सन् ११४५ हिजरी अर्थात् सन् १७४२
दर्शाया गया था। पुराणों ईसवी में पहले अन्तिम तीनों स्कन्धों को लिखा । प्रथम नौ की महत्ता कुछ कम नहीं। यही कारण है कि अनेक स्कन्धों के रचे जाने की समाप्ति का समय नवम स्कन्ध के पुराण फ़ारसी में मिलते हैं । समस्त पुराणों में सबसे अधिक अन्त में श्रावण सुदी चतुर्थी संवत् १८०७ विक्रम अर्थात् प्रसिद्ध 'श्रीमद्भागवत' है। यही कारण है कि गद्य तथा (सन् १७५० ईसवी) लिखा हुआ है। । इसी भाग के अन्तिम पद्य में इसकी कई प्रतियाँ प्रकाशित तथा हस्तलिखित पृष्ठ पर प्रेम के मैनेजर की ओर से एक विज्ञापन प्रकाशित (फ़ारसी में) सम्पूर्ण अथवा अपूर्ण मिलती हैं। फ़ारसी है। उससे स्पष्ट होता है कि प्रेस की ओर से अन्तिम तीन भागवत की ये प्रतियाँ मेरी दृष्टि में पाई हैं।
स्कन्ध प्रथम प्रकाशित हुए थे, क्योंकि लाला साहब ने
उन्हें पहले रचा था । और आदि के नौ स्कन्ध बाद को 'श्रीमद्भागवत' के नाम से सम्पूर्ण बारह स्कन्ध फारसी प्रकाशित हुए, क्योंकि ये स्कन्ध अन्तिम तीनों स्कन्धों के पद्य में हैं। इसके रचयिता का नाम लाला अमानत राय बाद रचे गये थे। नवलकिशोरी संस्करण के सिवा लाला
और उपनाम 'अमानत' लिखा हुआ है। यह सम्पूर्ण साहब के प्रथम नौ स्कन्धों का कोई अन्य संस्करण मेरी ग्रन्थ मुंशी नवलकिशोर साहब के प्रेस कानपुर से सन् दृष्टि में अभी तक नहीं आया और न किसी लेख से ही १८७० ईसवी में प्रकाशित हो चुका है। मँझले आकार के मुझे यह मालूम हो सका कि कहीं यह दुबारा छपा है, १,७४८ पृष्ठों में है। दो भागों में विभक्त है। एक भाग किन्तु अन्तिम तीनों स्कन्धों का एक और संस्करण मेरी में प्रथम ८ स्कन्ध हैं और दूसरे में बाकी तीन स्कन्ध हैं। दृष्टि में अवश्य पाया है जो 'सुदर्शन-चक्र-प्रेस' से परन्तु यह ज्ञात रहे कि अन्तिम तीन स्कन्धों को लाला जमादी-उल-औवल सन् १२७२ हिजरी (जनवरी सन्
* लखनऊ के सिवा मुंशी जी का एक छापाखाना * देखो पृष्ठ २-८॥ पहले कानपुर में भी था ।
। देखो पृष्ठ ६६५। ५३३
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #586
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३४
सरस्वती
१८५६ ईसवी) का प्रकाशित है। इस संस्करण से मुझे यह नहीं मालूम हो सका कि यह प्रेस कहाँ था । इस संस्करण की जो प्रति देखने में आई है उसके प्रथम दो पृष्ठ नष्ट थे । संभवतः इसी कारण यह पता नहीं चल सका कि यह प्रेस कहाँ था । हाँ, इसमें जो छोटी-सी भूमिका है उससे ऐसा जान पड़ता है कि यह प्रेस दिल्ली में रहा होगा । यह संस्करण बड़े आकार के १,१६६ पृष्ठों का है और सचित्र है । वास्तव में इसी संस्करण के आधार पर अन्तिम तीन स्कन्धों का नवलकिशोरी संस्करण सचित्र हुश्रा है
I
प्रथम प्रति के रचयिता ने अपने ग्रन्थ को मधुर बनाने के लिए बीच बीच में आवश्यकतानुसार ग़ज़लें व रूबाइयाँ भी लिखी हैं । इसके सर्वप्रिय होने पर लाला साहब ने संवत् १८१२ विक्रम (सन १७५४ ईसवी) में रामायण को भी फ़ारसी पद्य में लिखा था जो मुंशी नवलकिशोर के प्रेस से सन् १८७२ ईसवी में प्रकाशित हो चुका है । ( २ )
'चन्द्रमुन' अथवा 'चन्द्रमणि' नाम के कोई पण्डित हुए हैं। उन्होंने सन् १९०६ हिजरी (सन् १६६५ ईसवी) में फ़ारसी में श्रीमद्भागवत को रचा था। यह प्रति छोटे आकार के ४६० पृष्ठों में है । सन् १८६१ ईसवी की हस्तलिखित प्रति बनारस के 'कार मैकल पुस्तकालय' में है । अति सुन्दर अक्षरों में है। माना नवीन ही लिखी गई है।
इसके लिखनेवाले सज्जन का नाम इस पर नहीं । यह प्रति मूल लेखक की ही प्रति से नक़ल की गई है। इसका नाम एक स्थान पर ' नर्गिस्तान' व दूसरे स्थान पर 'संबुलिस्तान' लिखा हुआ है 1
)
'श्रीमद्भागवत' के नाम से एक तीसरी पुस्तक जो केवल दशम स्कन्ध का पद्यानुवाद है, मिली है। पूर्वार्द्ध व उत्तरार्द्ध दोनों में कुल १४,३५० शेर (पद्य) हैं।
* यह प्रति तथा नवलकिशोरी संस्करण की सम्पूर्ण प्रति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय पुस्तकालय में श्रीराम सेकशन में है - P. 9. 9., 1, 2, 3.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
| भाग ३६
यह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति हिन्दू- हाई-स्कूल, बनारस, के पुस्तकालय (म्युज़ियम विभाग) में है । इसका आकार मँझोला है । कुल पृष्ठ एक हज़ार के लगभग हैं। यह प्रति पुराने ढंग के मोटे काग़ज़ पर साधारण लिपि में है । किसी व्यक्ति तथा वस्तु के नाम व कुछ विशेष शब्द लाल रोशनाई से लिखे गये हैं अन्यथा सारा ग्रन्थ काली रोशनाई से ही लिखा गया है ।
ग्रन्थकार का नाम मक्खनलाल उपनाम 'तमन्ना' और पिता का नाम नित्यानन्द जाति माथुर कायस्थ लिखी हुई है । ग्रन्थ में रचे जाने का समय सन् १२३१ हिजरी (सन् १८१६ ईसवी) है । ग्रन्थ में लखनऊ के नवाब ग़ाजीउद्दीन हैदर के निमित्त प्रशंसात्मक पद्य हैं। उनसे ऐसा अनुमान होता है कि स्वयं लेखक महाशय अथवा उनके घरानेवाले नवाब के यहाँ अवश्य नौकर थे ।
ग्रन्थ के पूर्वार्द्ध भाग के लिखे जाने का समय १४ रजब सन् १२६७ हिजरी (सन् १८५१ ईसवी) अर्थात् पूर्णमासी पूस संवत् १६०६ विक्रम है । इसके पश्चात् ही उत्तरार्द्ध लिखा गया है । इसको जिसने लिखा अर्थात् नक़ल किया है उसका पता ग्रन्थ से कुछ नहीं चलता । ( ४ )
'श्री भागवत महापुराण' नाम की एक हस्तलिखित प्रति ( गद्य में) मेरे पास है। प्रति बड़े आकार के ३५२ पृष्ठों में थी, किन्तु इसके आदि के ६ पृष्ठ और २ पृष्ठ बीच के खण्डित हैं । नहीं तो इसमें सम्पूर्ण १२ स्कन्ध थे ।
यह किसका भाषान्तर किया हुआ है, यह कब भाषातर किया गया, कहाँ किया गया, इन बातों का पता अभी तक मुझे नहीं मालूम हो सका । हाँ, इस प्रति के लिखे जाने का समय श्रावण बदी एकादशी शनिवार संवत् १८५८ या १८५६ विक्रम है । लेखक का नाम
* दिन और तिथि यादि जो अन्त में लिखे हुए हैं उनमें से संवत् का एकाई अंक स्पष्ट रूप से नहीं पढ़ा
जाता ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #587
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६)
फारसी में भागवत
५३५
नहीं लिखा हुआ है, किन्तु लेख से स्पष्ट है कि आदि बहादुर थे। उनके छोटे भाई हरचरनदास जी थे। उन्होंने व अन्त के १६६ पृष्ठ एक व्यक्ति के लिखे हुए हैं और इस प्रति को चतुर्दशी संवत् १८५५ विक्रम अर्थात् १२ मध्य के १०० पृष्ठ किसी दूसरे के लिखे हुए हैं । पर दोनों जमादी-उल-ौवल सन् १२१३ हिजरी (सन् १७६८ ईसवी) लेखकों की लिखावट सुन्दर है।
को समाप्त किया था। मेरा खयाल है कि यह प्रति अभी कहीं नहीं छपी है। उक्त हस्तलिखित प्रति के विषय में अब यह कहना पर एक और प्रति मेरे पास अवश्य ऐसी है जिसका पाठ अनुचित न होगा कि यह प्रति वास्तव में किसी हिन्दू उक्त प्रति से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। यह प्रति सजन की रचना प्रतीत होती है। किसी अन्य व्यक्ति के हाथ की लिखी हुई है। बड़े आकार में है। इसमें दशम स्कन्ध भी पूर्ण नहीं अर्थात् प्रति यह 'श्रीमद्भागवत' के नाम से सन् १८७० ईसवी में अधूरी है, जिससे लेखक का नाम तथा लिखे जाने का गुजरानवाला (पंजाब) के 'ज्ञान-प्रेस' का छपा हुआ एक समय भी नहीं मालूम हो सकता, परन्तु काग़ज़ व और संस्करण है । यह छोटे आकार के केवल ११६ पृष्ठों लिखाई श्रादि से स्पष्ट है कि यह प्रति कम-से-कम सौ का है और गद्य में है। इसके कर्ता कौन सजन थे, उन्होंने वर्ष पूर्व अवश्य लिखी गई थी।
इसे कब लिखा था, इन बातों का कछ पता न लग सका। यह हस्तलिखित प्रति फारसी गद्य में मेरे पास है। अन्त में यह कहना अनुचित न होगा कि इन फ़ारसी भागवत का सार है। बड़े आकार के ३८४ पृष्ठों में समाप्त ग्रन्थों से चाहे कोई लाभ हो या न हो, किन्तु इनकी तुलना है। इसके रचयिता अथवा रचे जाने के समय की बाबत करने पर यह अवश्य जाना जा सकता है कि ग्रन्थ के कुछ पता नहीं चला। अन्त में जो कुछ है उससे पता विवादास्पद विषयों को इन लोगों ने अथवा इनके समय चलता है कि बनारस में ही कोई सज्जन राय सुखलाल के लोगों ने क्या समझा था ।
उद्गार लेखक, श्रीयुत कुञ्जविहारी चौवे
जीवन पाकर भी कर न सका, जी-वन की यह दावाग्नि शान्त । वसुधा में आकर सुधा छोड़,
विष-पान किया बन निपट भ्रान्त । जग निद्रा में था जागरूक, मैं जग कर भी कब सजग रहा ?
विधि की गति-विधि के हो अधीन, मैं बना रहा हतमति नितांत !!
क्रन्दन ही मेरा हृदय-गान, शोकाश्रु-विन्दु शुचि रत्न-हार । करुणा ही मन का केलि-कुञ्ज,
पीड़ा मेरा सर्वस्व-सार। संताप शुद्ध तप है मेरा, असफलता मेरी सफल सिद्धि;
चुन हारों के ही शुष्क फूल, Dथा मैंने निज विजय-हार !!
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #588
--------------------------------------------------------------------------
________________
खेलों का महत्त्व
लेखक, श्रीयुत वंशीधर सिंह
यों तो सदैव ही जनता का स्वास्थ्य राष्ट्र का सबसे बड़ा बल माना गया है पर श्राधुनिक युग तो मानों खेलों काही युग है। संसार के प्रायः सभी देशों के खिलाड़ी संगठित रूप से इस मैदान में विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से संसार-यात्रा के लिए निकलते हैं और अपनी शक्ति की परीक्षा करते हैं । यह प्रसन्नता की बात है कि इस सम्बन्ध में भारत भी नये दृष्टिकोण से विचार करने लगा है और उसने कुछ करके दिखाया भी है। इस नवीन दृष्टिकोण के प्रचार और प्रसार के उद्देश्य से ही लेखक ने यह विचारपूर्ण लेख लिखा है ।
1
किसी 'राष्ट्र की अवनति होती है, दुर्भाग्य से उसकी संस्कृति का लोप होने लगता है। अनेक महत्त्वपूर्ण कलायें एवं व्यवसाय उपेक्षा की दृष्टि से देखे जाने लगते हैं और जिन कार्यों में उसके पूर्वज गर्व - पूर्ण तत्परता से भाग लेते थे उनके सम्पर्क से उसे संकोच होता है । उदाहरण के लिए केवल संगीत और व्यायाम को ही लीजिए। प्राचीनों ने संगीत को आराधना का महत्त्वपूर्ण अंग और दलित कलाओं में से एक माना है। श्री नारद भगवद्भक्तों में अग्रगण्य माने जाते हैं। पर अब बंगाल के अतिरिक्त उत्तर भारत में इस विद्या की यह दुर्दशा हो गई है कि वेश्याओं और निम्न कोटि के लोगों को छोड़कर किसी भी वर्ण अथवा समाज में संगीत-कला का प्रचार नहीं है । रुचि भी इतनी दूषित हो गई है कि सिवा ग़जलों जैसे निम्न कोटि के गानों के और किसी चीज़ की क़द्र ही नहीं है । ठीक यही हाल खेलों का भी है। भगवान रामचन्द्र एवं श्री कृष्णचन्द्र का खेलों में भाग लेना सब जानते हैं और जानते हैं कि बिना खेलों में शरीक हुए, बिना शारीरिक शिक्षा-लाभ किये, हमारे पूर्वज इतने भारी योद्धा नहीं हो सकते थे । फिर भी कसरत करना, कुश्ती लड़ना, खेल खेलना आदि आज अधिकांश जनता को सुरुचिपूर्ण नहीं प्रतीत होते । ये काम तो नटों जैसे नीचो श्रेणी की जातियों और
५३६
ज
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
अबोध बालकों के समझे जाने लगे हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि अब कुछ कुछ रुचि परिवर्तन हो रहा है और लोग खेलों से थोड़ी-बहुत दिलचस्पी लेने लगे हैं । भारतीय टेनिस टीम 'डेविस कप' में सम्मिलित होने लगी हैं। कुश्ती का कौशल दिखलाने के लिए हमारे पहलवान विदेश जाते हैं और जो विदेशी पहलवान यहाँ कुश्ती लड़ने आते हैं वे अपना गर्व खोकर ही वापस जाते हैं । हमारी हाकीटोम संसार विजयी सिद्ध हुई है । हम अब इंग्लेंड से क्रीकेट के टेस्ट मैच खेलने लगे हैं । हमारी फुटबाल टीम अफ्रीका हो आई है । घोष और रोविन चटर्जी जैसे नवयुवक तैराकी में संसार के लिए आदर्श उपस्थित कर चुके हैं । परन्तु इस ओर हमारी यह प्रगति अभी बहुत धीरे धीरे हो रही है । इस विशाल देश के लिए यह सब कुछ समुद्र में एक बूँद के बराबर है। पढ़ाई का परीक्षा फल जानने को तो सभी माता-पिता उत्सुक रहते हैं, किन्तु बालक ने शारीरिक उन्नति कितनी की है, इसकी किसी को चिन्ता नहीं । मेरे तुच्छ विचार में यह उदासीनता प्राणघातक है । निर्बल, अल्पायु, अकर्मण्य युवकों की संख्या वृद्धि का कारण अधिकांश में यही हमारी उदासीनता है ।
पाश्चात्यों की जीवनचर्या में खेल, व्यायाम अथवा शिकार का लगभग वही स्थान है जो उनके जीविका सम्बन्धी व्यवसाय का । बड़े से बड़ा राज - नीतिज्ञ, साहित्यिक, वैज्ञानिक प्रतिदिन अनिवार्य रूप से व्यायाम के लिए समय निकालता है और
www.umaragyanbhandar.com
Page #589
--------------------------------------------------------------------------
________________
सख्या ६]
खेलों का महत्त्व
५३७
यथासम्भव वर्ष में एक-दो मास का अवकाश प्राप्त साधनम । प्रत्येक खेल मांस-पेशियों को कुछ न कुछ करने का प्रयत्न करता है ताकि वह किसी समुद्रतटस्थ पष्ट करते ही हैं । फुटबाल, क्रिकेट आदि कुछ ऐसे अथवा पार्वतीय स्थान पर जाकर और खेलों में खेल हैं जिनसे शरीर की प्रायः सम्पूर्ण पेशियों पर मम्मिलित होकर मनोरंजन करे तथा अपना स्वास्थ्य ज़ोर पड़ता है, वे सभी बलवान और पुष्ट होती हैं। सुधारे। गम्भीर मानसिक व्यापार और चरित्र- इसलिए पूर्ण शारीरिक विकास के लिए एक से गठन में खेल सहायक ही होते हैं, बाधक नहीं होते। अधिक खेलों में ऋतु के अनुसार भाग लेना चाहिए, इस सत्य को पाश्चात्यों ने समझा है। फलतः आज क्योंकि खेल एक दूसरे के पूरक हैं, अर्थात् जो कुछ वे प्रत्येक विषय में, जीवन-व्यापार के प्रत्येक विभाग कमी एक में रह जाती है वह दूसरे खेल के द्वारा पूरी में, हमसे बहुत आगे बढ़े हुए हैं।
हो जाती है। खेलों से शारीरिक बल एवं वेग के __ परन्तु खेलों के शिक्षाप्रद प्रभाव पर बहुत ही अतिरिक्त लाघवता तथा शीघ्रता के गुण भी शरीर कम लोग ध्यान देते हैं। धार्मिक शिक्षा से बहुत कुछ को प्राप्त होते हैं। इसके सिवा इनसे एक प्रकार की नैतिक उन्नति हो सकती है, पुस्तकाध्ययन मस्तिष्क शोभा, मनोहरता, शरीर-लालित्य तथा चेष्टा-सुगको पुष्ट करने में सहायक होता है, किन्तु शारीरिक मता आती है, जिनके कारण ढलती हुई आयु में भी, बल अथवा 'उपक्रमकारिता' (Intuition) की वृद्धि अर्थात शरीर में स्थूलता आ जाने पर भी खिलाड़ी में इन दोनों में से किसी के किये कुछ नहीं हो अपन खेल-प्रसाद-विहीन समवयस्कों की अपेक्षा सकता। पुस्तकों अथवा अध्यापकों के द्वारा प्रस्तुत अधिक क्रियाशील और चुस्त रहता है । अपने पहलकिये हुए मानसिक भोजन को पचाने के लिए, वानों को ही लीजिए । गामा की तोंद को देखिए ममझ कर ग्रहण करने के लिए, बालकों के अपरिपक्क और फिर उसकी बिजली जैसी झड़प की कल्पना मस्तिष्क को बहुत ही कष्टप्रद प्रयत्न करना पड़ता कीजिए, जिससे जिवेस्को जैसा विश्वविख्यात है। परन्तु वेलों में बालक जो कुछ औरों को करते सुभट बात की बात में चित हो गया। क्या ही हुए देखता है, जल्दी ग्रहण कर लेता है और अच्छी बात हो यदि हमारे पहलवान कुश्ती के अनुकरण करने का उद्योग करता है। अत: शारीरिक अतिरिक्त अन्य खेलों अथवा कसरतों से भी शौक ओज के साथ ही साथ मानसिक स्फूर्ति की अभिवृद्धि करें। शायद उनकी बड़ी बड़ी तोंदों का परिमाण एवं निर्माण-शक्तियों को उत्तेजित करने के लिए तब कम हो जाय । काम-काजी किसानों, असभ्य कहे खेल ही सर्वोत्तम माधन हैं। खेलों-द्वारा ही क्रिया- जानेवाले परन्तु नैसर्गिक विधि से जीवन-यापन शील मनुष्य उत्पन्न हो सकते हैं। जिस प्रकार खेल करनेवाले भील-सन्थालों, सदा खेलते-कूदते रहनेसिखाये और खेले जाने चाहिए यदि वैसे ही खेल वाले बच्चों (माता-पिता के अत्यधिक लाड़ के पुतले, सिखाये और खेले जायें तो विश्वास मानिए कि रुई के फाये में लिपटे हुए अभागे बच्चों का जिक्र खेलों की सहायता से ही सुयोग्य एवं सत्पात्र नहीं है) में बिरला ही दीर्घोदर मिलेगा। बम्बई से भारतीयों की संख्या बढ़ेगी।
प्रकाशित 'रामपंचायतनम' वाले चित्र को देखकर __ खुली हुई हवा में कसरत करने से स्वास्थ्य पर मन में कैसे भाव उत्पन्न होते हैं, क्या कहूँ। प्रचण्ड लाभदायक प्रभाव पड़ता है, व्यायाम से शरीर का शिव-कोदण्ड का भंग करनेवाले, महापराक्रमी गठन होता है और इस प्रकार रोगादि के प्रतिरोध परशुराम के दर्प का हरण करनेवाले, चौदह वर्ष की क्षमता आती है। भारत के सवश्रेष्ठ कवि वनवास करनेवाले, रावण-जैसे उत्कट दानव के वध कालिदास ने भी कहा है-शरीरमाद्यं खलु धम- को क्षमता रखनेवाले मर्यादापुरुषोत्तम भगवान के
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #590
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३८
सरस्वती
[भाग ३६
सेठ जी की सी तोंद ! चित्रकार एवं प्रकाशक की हैं और मनुष्य को शान्तिप्रिय व्यवसाय के योग्य बनाने बलिहारी ! "वृषभकंध केहरि ठवनि” तथा “केहरि- के साथ ही साथ इस योग्य भी बनाते हैं कि अवसर कटि पट पीतधर" पर विचार कीजिए और तब पड़ने पर वह अपनी और देश की भी रक्षा कर सके। विचार कीजिए चौदह वर्ष वन-वास से आये हुए सब खेल अच्छे होते हैं, क्योंकि सबका परिणाम महाराज के चित्र पर ! राम, कृष्ण, महावीर, भीष्म, कल्याणकारी होता है। हर प्रकार के खेल का अर्जुन, अभिमन्यु, पृथ्वीराज, आल्हा-ऊदल, प्रताप, विशेष प्रकार का शिक्षाप्रद मूल्य है। खेल दो शिवाजी इत्यादि के कल्पित चित्रों में तोंद दिखलाना कोटियों में विभाजित किये जा सकते हैं--एकाकी अपने को हास्यास्पद करना है। पुरानी बातों को खेल तथा सामूहिक खेल । साधारणत: हम कह छोड़िए। मेजर नायडू, विजय मर्चेण्ट, अमरनाथ, सकते हैं कि एकाकी खेलों से व्यक्तित्व का विकास सलीम, छोटे बाब, ध्यानचन्द, रूपसिंह, मोहनबगान होता है और स्वातन्त्र्य का गुण प्रस्फुटित होता है, के पाल इत्यादि के सुदृढ़ सबल शरीर में आधी और सामूहिक खेल हममें सहकारिता के भाव का छटाँक फालतू गोश्त या चर्बी नहीं दिखाई देगी। आप संचार करते हैं। पूछेगे, शरीर कैसा होना चाहिए। उत्तर में यही कोई खेल क्यों न हो, वह खेल खेल न कहकहना पर्याप्त है कि अपने देश के प्रमुख खिलाड़ियों लायेगा यदि उसमें किसी प्रकार की आशंका न हो। को देखिए । देखिए उन छरहरे शरीरों को जिनकी अँगरेज़ी का एक पद्य है जिसका यह भाव है कि पेशियाँ ढीली अवस्था में रेशम-जैसी मृदुल एवं विवेकी जनों की क्रीड़ा के लिए वह खेल जिसमें सुखद तथा कड़ी होने पर फ़ौलाद जैसी कठोर होती दुर्घटनाओं की सम्भावना न हो, निकृष्ठ है। कुछ हैं, और फिर यह प्रश्न आप कभी न करेंगे। खेलों में उत्तेजनापूर्ण साहस अपेक्षित है । किस ___ हाँ, शरीर को तो खेलों से लाभ होता ही है, साहस एवं मनःस्थैर्य के साथ हमारे क्रिकेट के किन्तु केवल इतना ही नहीं। खेल हमारी मांस. महारथी मेजर नायडू, अमरनाथ, वजीरअली, पेशियों को सुदृढ़ करने और हममें साहस और विजय मर्चेण्ट (माथे पर पट्टी बाँधे हुए), दिलावरसहनशक्ति भरने के अतिरिक्त वे वह प्लवनशीलता, हुसेन (जो माथे पर गेंद लगने से संज्ञाहीन हो गये वह स्थायी प्रफुल्लता, वह अदम्य जिन्दादिली प्रदान थे) और नावमल (इनके सिर में भी चोट लगी करते हैं जो मरते दम तक हारने का नाम नहीं थी) इंग्लिश बोलरों की बन्दुक की गोली के समान लेती। एन्डू लैङ्ग नामक अँगरेज़ लेखक का क्रिकेट के वेग से आनेवाले गेंदों के सामने घंटों डटे रहे सम्बन्ध का एक कथन न्यनाधिक रूप से अन्य खेलों और रन करते रहे। गेंद की तेजी का यह हाल
• भी लागू होता है। उनका वह कथन यह है- था कि थोड़ी-सी भी चूक का परिणाम होती"क्रिकेट स्वयं शिक्षा है और उसमें चित्त-स्वास्थ्य, कपालक्रिया। न्यायशीलता एवं अध्यवसाय अपेक्षित है। पाठ- किसी खेल में दक्षता प्राप्त करने के लिए नियमित शाला के कमरों की अपेक्षा क्रीड़ा-क्षेत्र पर अधिक आहार, निद्रा, बँधी हुई एवं स्वास्थ्यवर्धिनी जीवनशिक्षा मिलती है और इस शिक्षा से अधिक लाभ चर्या नितान्त आवश्यक है। बिना इसके सिद्धि उठाना चाहिए। क्योंकि बिना औत्सुक्य के---बिना मिल ही नहीं सकती। यशः-प्राप्ति के लिए अथवा भावुकता के–मनोरंजक क्रिकेट हो नहीं सकता और स्वान्तःसुखाय, नैपुण्य-लाभ सबको इष्ट है । खेलों ये गुण जीवन को अधिक समृद्ध बनाते हैं-संस्कृत के ही बहाने खिलाड़ो अपने को अच्छी शारीरिक करते हैं ।" खेल चरित्र-निर्माण में सहायक होते दशा में रखता है। यही क्या कम है !
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #591
--------------------------------------------------------------------------
________________
योरप--जैसा कि मैंने उसे देखा
३--इटली में मेरा प्रथम सप्ताह
लेखक, श्रीयुत हरिकेशव घोष
किसी समय रोमन साम्राज्य और संस्कृति की सारे संसार में बड़ी धाक थी। रोमन साम्राज्य के प्राचीन वैभव के ध्वंसावशेष अब भी इटली में यत्र-तत्र देखने को मिलते हैं। इस लेख में श्रीयुत हरिकेशव घोष ने उसी का बहुत ही संक्षिप्त और सुन्दर ढङ्ग से परिचय दिया है साथ ही इटली की वर्तमान प्रगति का भी
उन्होंने समुचित ज़िक्र किया है।
पईद बन्दर से ब्रिडिसी की
तीसरे दिन यूनान के निकट सयात्रा बड़ी सुहावनी थी।
के छोटे-छोटे द्वीप दृष्टिगोचर होने लालसागर से आगे बढ़ने
लगे। उनमें से कुछ में लोग बसे पर ठंड मालूम पड़ने लगी और
हुए थे, परन्तु अधिकांश चट्टानी हमें गर्म कपड़े पहनने पड़े।
पहाड़ होने के कारण उजाड़ थे। भूमध्य-सागर अत्यन्त शान्त था ।
चौथे दिन लगभग आठ बजे प्रात:धूप चटकीली थी, विलक्षण मन्द
काल हम ब्रिडिसी पहुँचे । मैं और वायु बह रहा था और दिन मनो
मेरे साथ कुछ और मित्रों ने रम और ठंडे थे। यात्रियों ने इस
ब्रिडिसी में उतरने का निश्चय ऋतु का पूर्णरूप से आनन्द लिया।
किया, इसलिए हमने अपने इरादे हमारे मित्र श्रीयुत के०... तो
की सूचना 'पसर' को दी और अपनी प्रसन्नता को बिना प्रकट किये न रह सके। हमें अपने पासपोर्ट पर 'विसा' मिल गया। हमने वे इतने जोर जोर से गाने और नाचने लगे कि बहुत- अपना रुपया पहले ही इटालियन सिक्के-लिरा में से गम्भीर लोगों ने उनकी कड़ी आलोचना अवश्य बदल लिया था, जो हमें एक पौंड में साठ के हिसाब की होगी। सारांश यह कि उन उज्ज्वल दिनों ने से मिला। उस समय युद्ध की चर्चा नहीं थी, इसप्रत्येक व्यक्ति को आनन्द-विभोर कर दिया था। लिए विनिमय की दर स्थिर थी ! चुङ्गी-घर के
५३९
Shree SudharmaswamiGyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #592
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४०
सरस्वती
दो
[ पाम्पियाई – साधारण शिष्टाचारों से छुट्टी पाने पर हमने टैक्सियाँ किराये पर लीं और शहर देखने निकले। ब्रिडिसी गन्दा शहर है और सिवा इसके कि वह एक बन्दरगाह है, उसका कोई और महत्त्व नहीं है । फ़ौजी सिपाहियों की एक बड़ी संख्या को सड़क पर मार्च करते हुए हमने एक बड़े खुले मैदान की ओर जहाँ रविवार का सैनिक प्रदर्शन किया जा रहा था, जाते हुए देखा ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
पालो का मन्दिर ]
होने की आवश्यकता नहीं है। उनके मित्र श्रीयुत गोविल का जो गत वर्ष ब्रिडिसी उतरे थे, कहना था कि इटली की विचित्र घाटियों से होकर अपनी नेपल्स की यात्रा में उन्होंने कुछ अत्यन्त चित्रोपम दृश्य देखे हैं। इसमें सन्देह नहीं कि जब हम इटली के दक्षिणी पर्वतों की घाटी से होकर गुजरे तब हमें श्रीयुत लाल का वक्तव्य सत्य प्रतीत हुआ ।
सड़क ऊबड़खाबड़ पत्थरों की बनी, तङ्ग और गन्दी थी। एक योरपीय शहर का हम लोगों पर जो पहला प्रभाव पड़ा वह अत्यन्त निराशाजनक था । ठाकुर साहब ने सीधा लन्दन जाने की अपनी मूल योजना में परिवर्तन कर लेने के कारण अपने आपको बहुत कोसा। मेरी योजना बदलवा देने के • कारण श्रीयुत डी... ने बहुत खेद प्रकट किया। ख़ैर श्रीयुत लाल ने विश्वास दिलाया कि हमें निराश
[ भाग ३६
सब मिलाकर हम आठ व्यक्ति थे, परन्तु हममें से कोई इटालियन भाषा का एक शब्द भी नहीं बोल सकता था, इसलिए हमने टामस कुक से एक गाइड लिया। शहर में दो घंटे घुमाकर वह हमें सहीसलामत स्टेशन पर ले गया। स्टेशन पर खाने के लिए हमें सिर्फ कुछ रोटी और मक्खन मिल सका, लेकिन फल यथेष्ट मिले। हम सब लोग बहुत भूखे थे, इसलिए जो कुछ भी मिला उसे खूब खाया। लगभग १२ बजे दिन को हमने नेपल्स की गाड़ी
www.umaragyanbhandar.com
Page #593
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
योरप जैसा कि मैंने उसे देखा
५४१
पाम्पियाई–(एम्फीथियेटर)]] पकड़ी। गाड़ी बहुत भरी थी, परन्तु हमें आराम के कुछ स्थानों का दृश्य तो अत्यन्त आश्चर्यजनक साथ बैठने के लिए जगह मिल गई। इटाली से था। पर्वतों की ढालों पर अङ्गर-उद्यानों, छोटी-छोटी होकर जानेवाले यात्रियों को रेलवे वास्तविक नदियों और सुन्दर गृहों का दृश्य हमारे लिए सर्वथा किराये में ६० प्रतिशत की रियायत करती है। दिन नवीन था। जिन स्टेशनों से हम गुज़रे वे बड़े नहीं कुछ कुछ गर्म हो चला था, इसलिए इस यात्रा में थे, परन्तु पानी, सोडा और आइस-क्रीम सर्वत्र सुलभ हमें पेय पदार्थों का यथेष्ट सेवन करना पड़ा। था। ब्रिडिसी में हमने टामस कुक से नेपल्स में टामस कुक का आदमी हमारे लिए बड़े काम का एक होटल की व्यवस्था करने के लिए कहा था। निकला, परन्तु अपनी सेवाओं का उसने हमसे बहुत नेपल्स में हम रात में पहुँचे । गाड़ी से उतरते ही अधिक मूल्य लिया । औसत दर्जे के मुसाफिरी हमें टामस कुक का आदमी मिला। उसने तुरन्त असबाब को रेल के डिब्बों तक लिवा जाने का हमें हमारे असबाब के लिए प्रबन्ध किया और नेपल्स ८ आने देने पड़े। हमें ज्ञात हुआ कि गत चार की खाड़ी पर के ठीक ऊपर अधिष्ठित एक अच्छे वर्षों में दक्षिणी इटली की उल्लेखनीय उन्नति हुई होटल में ले गया। वह रात विशेष रूप से तारों से है। गेहूँ और चावल की हमने अत्यधिक कृषि पूर्ण थी और बहुसंख्यक बिजली की बत्तियों के देखी। इटली अपनी शराब के लिए प्रसिद्ध है और प्रकाश में हमने खाड़ी की एक झलक देखी। हमने पहाड़ों की ढाल पर अङ्गर के बड़े बड़े बाग़ देखे। हमारे पाठकों को यह भली भाँति मालूम होगा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #594
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४२
सरस्वती
[भाग ३६
का अड्डा होने के कारण यह नगर बहुत प्रसिद्ध हो गया था। सन् ६३ ईसवी में भूकम्प से पाम्पियाई की भीषण हानि हुई थी, तो भी यह समृद्धिशाली व्यापारिक केन्द्र बना रहा और भूकम्प के बाद ही यह नगर फिर से बस गया। प्रथम भूकम्प के सोलह वर्ष बाद अन्तिम विध्वंस संघटित हुआ।
विसूवियस एकाएक [पाम्पियाई–एक भद्र पुरुष का गृह और उद्यान
जागृत हो उठा और
अपनी चोटी से बड़ी कि नेपल्स यथेष्ट प्राचीन नगर है। विसूवियस का शीघ्रता के साथ जलती हुई राख और लावा की जीवित ज्वालामुखी नेपल्स की खाड़ी पर प्रहरी के घोर वृष्टि करने लगा। पाम्पियाई के ऊपर २० समान खड़ा है। अतीत काल से यह ज्वालामुखी से २५ फुट तक मोटी राख पड़ गई। उसके निवासी पड़ोस के नगर का कई बार विध्वंस कर चुका है। ढहते हुए मकानों से भागे; परन्तु उनमें बहुत-से हवा प्राचीन रोमन नगर–प्रसिद्ध पाम्पियाई इसी में फैली जहरीली भाफ से दम घुट जाने के कारण विसूवियस से निकले लावा में समा गया था। जो मर गये। यात्री इटली से गुजरते हैं वे विसूवियस और पाम्पि- इस भीषण दुर्घटना ने विद्वानों के अध्ययन के याई का नगर जिसकी अब बहुत काफी खुदाई हो लिए सांस्कृतिक काल के अनेक अमूल्य स्मारकों को चुकी है, देखने से नहीं चूकते। पाम्पियाई के खंडहरों सुरक्षित रक्खा है। पाम्पियाई का पता लोगों को से रोमन नगर का प्राचीन वैभव, उसकी संस्कृति, सोलहवीं शताब्दी में चल गया था, यद्यपि वास्तविक कला और खेल सब हमारे सामने अत्यन्त स्पष्टरूप से खुदाई सन् १८०६ में आरम्भ हुई। तब से यह कार्य
आ जाते हैं । रोमन-इतिहास और संस्कृति से सम्बन्ध अविश्रान्तभाव से चल रहा है। उल्लेखनीय इमारतें रखनेवाली यहाँ जो पुरातत्त्व की वस्तुएँ निकली हैं जिनमें 'हाउस आफ वेट्टी', 'हाउस आफ सिलवर वे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। प्रत्येक वर्ष हज़ारों यात्री वेडिङ्ग' और 'हाउस आफ गोल्डेन क्यूपिड' पाम्पियाई देखने आते हैं।
सम्मिलित हैं, अभी तीस वर्ष हुए प्रकाश में लाई गई पाम्पियाई नगर को उसका विधिवत् स्वरूप हैं। सुव्यवस्थित जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण ने इसे ईसा के जन्म से ६ शताब्दी पूर्व यूनानियों ने दिया पुरातत्त्व के क्षेत्र में संसार का सबसे सफल प्रयास था। फोनेशिया और यूनान के नाविकों का उतरने प्रमाणित किया है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #595
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
पुरातत्त्व की दृष्टि से अन्य प्राचीन नगरों के ध्वंसावशेषों के विपरीत पाम्पियाई में वास्तुकला की अनेक विभिन्न शैलियों का साक्षात् होता है। कहीं कहीं लावा के ढोकों से युक्त पत्थर के गम्भीर और स्थूल तोरण हैं और कहीं मूर्तियों और भित्तिचित्रों से अलंकृत गृह-द्वार हैं, जो निर्माणकला की एक सर्वथा भिन्न शैली का परिचय
योरप - जैसा कि मैंने उसे देखा
देते हैं। विनाश के पूर्व इस नगर की जनसंख्या सम्भवतः २५,००० थी। नगर के स्थायी निवासियों के अतिरिक्त उसके औद्योगिक और व्यापारिक महत्त्व के कारण व्यापारियों की एक बहुत बड़ी संख्या उसमें आकर वास किया करती थी ।
हम नेपल्स में तीन दिन ठहरे और पाम्पियाई विसूवियस और संग्रहालय देखा । संग्रहालय में वे विचित्र मूर्तियाँ जो खोदकर निकाली गई हैं, प्रदर्शन के लिए रक्खी गई हैं। नेपल्स के इस संग्रहालय में बहुत-सी विख्यात रोमन - मूर्तियाँ भी हैं। कुछ मिस्र की विख्यात मूर्तियाँ भी इसमें संगृहीत हैं। रोमन लोगों की उन दिनों की महान संस्कृति को देखकर चकित हो जाना पड़ता है। यूनानी मूर्तियों में से कुछ तो बहुत ही आश्चर्यजनक हैं। वे अधिकतर पौराणिक विषयों से सम्बन्ध रखती हैं। यूनानी पुराण-शास्त्र अत्यन्त मनोरञ्जक है । ये संगमरमर की प्रतिमायें उसी यूनानी पुराण के महान योद्धाओं के पराक्रम, महान् प्रेमियों और शक्तिमान तथा निर्दयी राजाओं की गाथायें कहती हैं । चारु वेनस, अनुपम
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
५४३
[पाम्पियाई का संग्रहालय ]
ईरिस और नील नदी की प्रस्तर प्रतिछाया आदि उन प्रसिद्ध मूर्तियों में से कुछ हैं जिनका नेपल्स के इस संग्रहालय को गर्व है। सभी संगमरमर सफेद नहीं हैं, किन्तु विभिन्न रङ्गों के हैं और विभिन्न देशों से लाये गये थे । ये पत्थर अब अप्राप्य हैं, इसलिए ये प्रतिमायें बड़ी मूल्यवान हैं । हमारे नेपल्स में ठहरने के दूसरे दिन एक इटालियन भद्र पुरुष से जो अच्छी अँगरेजी बोल सकते थे, मेरी भेंट हुई।
इटालियन संस्कृति और फ़ैसिस्ट आन्दोलन के सम्बन्ध में मेरी उनकी कई घंटे बड़ी मनोरञ्जक बातें हुई । मैंने उन्हें और उनकी प्रिय पत्नी को 'लच' के लिए निमंत्रित किया और उसके बाद हम खाड़ी के गिर्द के बाग़ों में जी बहलाने को गये। फैसिस्ट सरकार क़ायम होने के बाद से इटली की चतुर्मुखी उन्नति के सम्बन्ध में उन्होंने बातें करनी शुरू कीं । कला, व्यवसाय और कृषि की उन्नति अत्यन्त स्पष्ट है । देश में मुसोलिनी की लोकप्रियता बहुत बढ़ी हुई है। मैंने
www.umaragyanbhandar.com
Page #596
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
और भी खराब थी और अब तो कृषि-सम्बन्धी कार्यों के विस्तार के कारण उनमें बहुत कुछ उन्नति हो गई है। इटली ने कृषिसम्बन्धी उपजें अब बाहर से मंगाना बहुत कुछ कम कर दिया है और उसने शराब, चावल, ताजे फल
और मुरब्बे बाहर भेजने में यथेष्ट वृद्धि की है। ___इटली में होटलों का व्यय उनकी श्रेणी के
अनुसार कम और अधिक [विसूवियस ज्वालामुखी
पड़ता है । बहुत-से होटलों
में मूल्य के सम्बन्ध में उनसे पूछा कि क्या मुसोलिनी विदेशियों से मिलते हैं? मोल-तोल करना पड़ता है। उन्होंने उत्तर दिया कि आज-कल यह सम्भव नहीं हमारे देश की दूकानों की भाँति वहाँ की दूकानों है, क्योंकि प्रत्येक डिक्टेटर के शत्रु होते हैं और उनके में भी मोल-तोल करने की आवश्यकता पड़ती है। जीवन पर जो पिछला आक्रमण हुआ उससे अब किसी साधारणतया दूसरे दर्जे के अच्छे होटल में ठहरने को उनसे मिलने की आज्ञा नहीं मिलती। इन इटालि- और भोजन का व्यय १० रुपया प्रतिदिन बैठता | यन महोदय ने नगर की सामाजिक स्थिति दिखाने है। भोजन अच्छा होता है और फल यथेष्ट मिलते के उद्देश से अपनी ही ओर से हमसे प्रस्ताव किया। हैं। इटली में संगीत का बहुत प्रचार है और उसका हम मजदूरों के कुछ घर देखने गये। सरकार ने जो संगीत सारे योरप में विख्यात है। नये मकान बनवाये हैं वे अत्यन्त स्वच्छ और सुख- नेपल्स में तीन दिन ठहरने के पश्चात् हम प्रद हैं, परन्तु इन्हें अन्य योरपीय देशों के समकक्ष इटली की फेसिस्ट सरकार की राजधानी-रोम के लिए | लाने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है। रवाना हुए । यह यात्रा नेपल्स से केवल ६ घंटे के दक्षिणी इटली के मज़दूर श्रेणी के लोग उतने साधन- लगभग की होने के कारण सुखप्रद प्रतीत हुई । यहाँ सम्पन्न नहीं हैं, जितने उत्तरी प्रान्तों के मज़दूर इटालियन टूरिस्ट कम्पनी का एजंट हमें मिला और हैं। खैर, मेरे मित्र ने बतलाया कि पहले उनकी स्थिति शहर के बीच में हमें एक अच्छे होटल में ले गया।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #597
--------------------------------------------------------------------------
________________
नई पुलके
[प्रतिमास प्राप्त होनेवाली नई पुस्तकों की सूची। परिचय यथासमय प्रकाशित होगा। ]
१-पद्माकर-पंचामृत-सम्पादक, पंडित विश्वनाथ- १२-दोस्त दर्जियाँ (पहला भाग)-लेखक व प्रसाद मिश्र, एम० ए०, प्रकाशक, श्री रामरत्न-पुस्तक-भवन, प्रकाशक, श्री ईश्वरदत्त, दर्जीघर, रंगमहल बाज़ार, लाहौर, काशी, है । सजिल्द पुस्तक का मूल्य ३) है।
हैं । मूल्य १॥) है। २-३–श्री ओंकारनाथ शर्मा द्वारा लिखित, १३–दि स्टोरी आफ् दि नोबुल प्राइज़ विनर्स उद्योग-मन्दिर, गुलाबबाड़ी, अजमेर से (अँगरेज़ी)-लेखक, श्री ए० के० सेन, प्रकाशक, ईस्टर्न प्रकाशित २ पुस्तके
पलिशर्स, इलाहाबाद, हैं और मूल्य २।।) है। (१) यांत्रिक-चित्रकारी मूल्य २॥) है।
१४–पत्र-पुष्प-लेखक, ठाकुर देवीसिंह, चौमूं, (२) वैक्युम-ब्रेक-मूल्य २) है।
प्रकाशक, जयपुर स्टेट प्रेस, जयपुर, हैं। मूल्य नहीं ४-५--श्री अजितप्रसाद जी द्वारा लिखित, अजित लिखा है।
श्राश्रम, लखनऊ से प्रकाशित २ पुस्तकें- १५–राष्ट्रालोक- प्रकाशक, पंडित हरिभुज शास्त्री, (१) देवेन्द्रचरित–सजिल्द पुस्तक का मूल्य ||=). है । अध्यक्ष मातृभाषाप्रचारक ग्रन्थ-माला विद्यालय, खू (२) अजिताश्रम-पाठावली भाग १- मूल्य।-) है। कौड़ियाँ, अमृतसर, हैं और मूल्य 4) है।
६--सुन्दर-सतसई (कविता)-निर्माता, पंडित १६-सेलेक्ट जेम्म (अँगरेज़ी में)-संग्रहकर्ता व सुन्दरप्रसाद, प्रकाशक, सेठ व्रजलाल जी बागड़ी, कोटा प्रकाशक, ठाकुर देवीसिंह जी, चौमूं , जयपुर हैं । (बीकानेर) हैं । मूल्य 1) है।
७-प्रलाप (कविता)-लेखक, श्री मृत्युंजय जी, १-हिन्दीमुहावराकोप- यह हिन्दी का अपने ढंग प्रकाशक, शारदा-सदन, काशी हैं । मूल्य |-) है। का एक सुन्दर कोष है । इसे दक्षिण-भारत के प्रोफेसर
-चारु चयन-संग्रहकार, श्री हनूमान् शर्मा जम्बुनाथन, एम० ए०, ने लिखा है। आपका हिन्दी के प्रति चौमूं , जयपुर हैं । पुस्तक बिना मूल्य वितरणार्थ है। बड़ा अनुराग है। आपके प्रयत्न से मैसूर-राज्य में हिन्दी
९-भारतीय अनुशीलन-(अोझा-अभिनन्दन का खूब प्रचार हुश्रा है और आज भी हो रहा है। ऐसे ग्रन्थ)--प्रकाशक, हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन, प्रयाग है। ही विद्वान हिन्दी-प्रेमी ने इस अनूठे कोष की रचना की मल्य नहीं लिखा है।
है। आपका यह प्रयत्न प्रशंसनीय है और इस क्षेत्र में काम १०-विनय-पिटक-अनुवादक, श्री राहुल सांकृ- करनेवालों को अापकी इस रचना से प्रोत्साहन ही नहीं त्यायन, प्रकाशक, महाबोधि-सभा सारनाथ, बनारस हैं। मिलेगा, किन्तु सहायता भी मिलेगी। हिन्दी में अभी तक सजिल्द पुस्तक का मूल्य ६) है।
शब्द-कोष ही निदोष नहीं बन पाये हैं, तब मुहावरा-कोष के ११–सफल जीवन-लेखक, श्री छबिनाथ पांडेय, 'पूर्ण' तथा 'निर्दोष' बनने की कैसे अाशा की जा सकती है ? बी० ए०, एल.एल० बी०, प्रकाशक, विद्यामंदिर, बनारस तथापि इस कोष से एक अभाव की अवश्य पूर्ति हुई है। सिटी, हैं । मूल्य २॥) है।
इसकी रचना में प्रोफेसर साहब ने विशेष परिश्रम किया
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #598
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[भाग ३६
है और इसके सर्वाङ्गपूर्ण बनाने में आपने अपनी ओर गुप्त प्रेम की भिक्षा माँगता है । उधर जगदीश बाबू की से कुछ उठा नहीं रक्खा है और इसमें जो यत्र-तत्र बहन युवती रमा से भी विवाह करना चाहता है, इसके त्रुटियाँ हैं उनकी ज़िम्मेदारी इसके प्रणेता पर नहीं लिए वह रमा के पिता को उधार रुपया देता है। घुरह डाली जा सकती, क्योंकि प्रणेता ने जहाँ जो मुहावरा अपनी कन्या के प्रेम की बात सुनकर उसे घर से निकाल प्रयुक्त पाया तथा जिसका जो किया गया अर्थ उन्हें प्राप्त देता है । वह अात्म-हत्या करने के लिए रेल की पटरी पर हा उसे उन्होंने वहाँ से उठाकर इसमें रख दिया है। जा लेटती है। जगदीश उसकी रक्षा करता है। इसी बीच उदाहरण के लिए प्रथम पृष्ठ के ३ नंबर के 'अंकुश देना में सूरजराम सुशीला को बदमाशों द्वारा उड़ा ले जाता है या मारना' को ही लेते हैं । इसका दूसरा अर्थ उन्होंने और एक अगम्य स्थान में कैद कर रखता है । ठीक 'ग्राधीन बनाना या वश में कर लेना' लिखा है। पर विवाह के समय रमा घर से निकल भागती है. सशीला भी यह अर्थ ठीक नहीं है । अर्थ होना चाहिए 'प्रेरित करना', कारागृह से चल खड़ी होती है। दोनों नदी तट पर मिलती 'पागे बढ़ाना' श्रादि । यद्यपि इस तरह की त्रुटियों या हैं और कलकत्ते जाकर एक वृद्ध मेम की सहार मतभेदों की इस पुस्तक में कमी नहीं है, तथापि पुस्तक व्यापार से धन कमाती हैं। घुरह तथा जगद बड़े काम की है, विशेषकर शिक्षकों और विद्यार्थियों के कलकत्ते पहुँचते हैं। वहाँ वे दोनों अपनी खोई हुई लिए । इसमें आये हुए मुहावरों की संख्या भूमिका में नहीं निधियों को पाते हैं। सूरजराम अपने पन्द्रह हज़ार रुपयों बताई गई है । अन्दाज़ से साढ़े तीन हज़ार से ऊपर ही के लिए जगदीश के पिता की सारी जायदाद नीलाम उनकी संख्या होगी। इस मॅझोले आकार की २८८ पृष्ठ पर चढ़वाता है। उसी समय खबर पाकर जगदीश की पुस्तक का मूल्य १॥) है । पुस्तक सजिल्द है। मिलने घुरहू तथा सुशीला के साथ वहाँ पहँचता है और का पता-श्री एम० वि० शेषाद्रि एंड कंपनी, बलेपेट, अपने पिता की रक्षा करता है। सूरजराम का कन्याओं के बँगलोर सिटी।
ने श• भगाने के अपराध में पकड़वा देता है। पिता की सम्मति २-प्रेम की देवी या वीर हरिजन बालिका- से जगदीश सुशीला से विवाह करने को तैयार होता है। लेखक, श्रीयुत गणेशप्रसाद श्रीवास्तव, प्रकाशक, श्री उसी समय यह प्रकट होता है कि सुशीला घुरहू चमार की चिरञ्जीलाल तुलसान, ३ दहीहट्टा स्ट्रीट, कलकत्ता हैं। नहीं, राजमंत्री विश्वेश्वर शर्मा की पुत्री है । राजकोप का मूल्य आठ आने ।
भाजन बनकर भागते समय उन्होंने अपनी पुत्री को एक यह एक नाटक है। इसका कथानक इस प्रकार अपरिचित व्यक्ति को सौंपा था और वह अपरिचित व्यक्ति है-सुशीला घुरहू चमार की युवती पुत्री है। एक दिन वह घुरहू चमार था। अपनी बकरियाँ चराते हुए गाँव के पास की नदी के किनारे हमारी सम्मति में सुशीला को विश्वेश्वर शर्मा की जा पहुँचती है। वहाँ वह गाना गाती है । जगदीश औरस सन्तान सिद्ध करने की विशेष आवश्यकता न थी। एक ब्राह्मण ज़मींदार का पुत्र है। वह घमता हुआ ऐसा करके लेखक ने वीर हरिजन बालिका का अन्त में संयोग से उधर जा निकलता है और गाना सुनकर ब्राह्मण-कुमारी बनाकर पुस्तक की सामयिकता तथा गायिका के पास जाता है। जाते समय मार्ग में पैर उद्देश दोनों को क्षति पहुँचाई है । 'प्रेम ही सच्चा धर्म है'फिसलकर वह नदी में गिर पड़ता है, जहाँ मगर के लेखक का यह उद्देश सुशीला को हरिजन बालिका ही बनी अाक्रमण से सुशीला नदी में कूद कर उसके प्राण बचाती रहने देने से सम्भवतः अधिक स्पष्टतया सफल हो सकता है। दोनों का प्रेम हो जाता है और उनकी प्रेम-लीला को और राजा तथा मंत्री-सम्बन्धी सारे अन्तर्कथानक की भी गाँव के कुछ लोग देख लेते हैं। सूरजराम नाम का एक आवश्यकता न पड़ती। पुस्तक पढ़ने में मन लगता है पचास वर्ष का धनी बुड्ढा है। वह भी सुशीला से और अभिनय तथा चित्रपट दोनों में ही इसकी कथा का
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #599
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
नई पुस्तकें
सफल उपयोग किया जा सकता है। पुस्तक की भाषा को मूर्तिमान् रूप में लाकर खड़ा कर देता है। अध्याय सरल और सुबोध है तथा कवितायें साधारण तथा श्राज- के अध्याय पढ़ जाने पर भी जी नहीं ऊबता । भारतीय कल के प्रचलित थियेटरों के ढंग की हैं।
त्रुटियाँ और विदेश की खूबियाँ कहीं कहीं पास-पास ___३-प्रलाप (कविता)-रचयित्री श्रीमती सुशीलादेवी तुलनात्मक रूप में अंकित की गई हैं । ऐसे स्थानों पर सामन्त, प्रकाशक, श्री देवेन्द्रनाथ सामन्त, एम० ए०, लेखक ने अपने व्यंग्य के चाबुकों की जो फटकार लगाई एल-एल० बी०, एम० एल० सी०, चाईबासा हैं। है उससे देशवासियों के उद्बोधन का कार्य होता है । - यह पुस्तक 'वीणा', 'अन्तर्धान', 'अभिलाषा' ग्रादि सचित्र होने से यह पुस्तक और भी उपयोगी हो गई है। भिन्न भिन्न शीर्षकोंवाली ४३ कविताओं का संग्रह है और (२) लंका- लेखक, श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन । खड़ी बोली में लिखी इन सरस कविताओं की लेखिका हैं मूल्य || मुण्डारीभाषाभाषिणी एक महिला कवि। प्रारम्भ में इस पुस्तक में श्रीयुत राहुल जी ने अपने 'लंका-प्रवास' अपना परिचय देते हुए उन्होंने लिखा है
के अनुभवों, तथा लंका के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध नगरों एवं ___ "हिन्दी मेरी मातृभाषा नहीं है। मेरी मातृभाषा तत्सम्बन्धी इतिहास का रोचक वर्णन किया है । लंकामुण्डारी है। परन्तु मैं राष्ट्र-भाषा हिन्दी को अपनी मातृ- निवासियों के पर्व, उनका रहन-सहन, रीति-रवाज यादि
समझती हूँ।" लेखिका का यह अनेक विषयों का ज्ञान इस पुस्तक से हो जाता है। विचार अभिनन्दनीय है।
समन्तकूट का तीर्थ मुसलमान, हिन्दू तथा बौद्ध सबके ___ इन कविताओं में कवि-हृदय की एक सहज स्वाभाविक लिए एक पवित्र तीर्थ क्यों है और कैसा है, इसका मनो. करुण झंकार अोतप्रोत है। इन्हें हम 'प्रलाप' कहकर कैसे रंजक वर्णन आपको इस पुस्तक में मिलेगा। लेखक की पुकारें ? निःसन्देह एक वियोगिनी के हृदय कानन के ये लेखनशैली की सब विशेषतायें इसमें भी हैं। सहज, सरस तथा सुन्दर काव्य-कुसुम साहित्य-रसिकों के साहित्यसेवक-संघ, छपरा-द्वारा प्रकाशित इन दोनों हृदय में सहानुभूतिपूर्ण यात्म-विस्मृति की अवस्था उत्पन्न पुस्तकों का गेट-अप सुन्दर है, परन्तु प्रूफ़-सम्बन्धी त्रुटियाँ कर देते हैं। पुस्तक में छन्द-सम्बन्धी कुछ त्रुटियाँ भी भी यत्र-तत्र रह गई हैं । दोनों पुस्तकें उपादेय हैं। खोजने से मिल जायँगी, परन्तु 'काव्य' हृदय का सहज
-कैलाशचन्द्र शास्त्री, एम० ए० अन्तर्नाद है, केवल छन्द ही नहीं । कविता-प्रेमियों को इस ६-लंदन में भारतीय विद्यार्थी लेखक, श्री रचना का आनन्द लेना चाहिए।
राजकुमार मानसिंह बार-एट-लॉ, प्रकाशक, राजस्थान ४-५-साहित्य-सेवक-संघ छपरा की २ पुस्तकें- मंडल, अजमेर और मूल्य ११) है ।
(१) मेरी योरोप-यात्रा-लेखक, त्रिपिटकाचार्य लेखक महोदय ने ढाई सौ पृष्ठों की इस पुस्तक श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन । मूल्य १||-) है ।
को पाठकों की सुविधा के लिए सात परिच्छेदों में ___ लंका, तिब्बत, योरप आदि के उत्साही पर्यटक, बौद्ध. विभक्त किया है । शिक्षा प्राप्ति के लिए लंदन में जानेसाहित्य के ख्यातिप्राप्त पंडित श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन वाले भारतीय विद्यार्थियों को पहले जिन कठिनाइयों का जी का विशेष परिचय देने की आवश्यकता नहीं। भिक्षु सामना करना पड़ता है और वहाँ का वातावरण उनके जी की योरप यात्रा का यह मनोरंजक वर्णन सरस और विचारों में परिवतन करके उन्हें अपने अभीष्ट से जिस सुन्दर शैली में लिखा गया है । लन्दन, पेरिस तथा जर्मनी प्रकार गिरा देता है उस सबका इस पुस्तक में यथोचित के प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थानों, शिक्षणालयों, अद्भुतालयों, विश्लेषण किया गया है। इसकी शैली उपन्यास-जैसी ग्रन्थागारों आदि का वर्णन सरल तथा सजीव भाषा में है। मदन, ऐयर और गुप्ता इसके मुख्य पात्र हैं। वे लिखे होने के कारण पाठकों के सामने उन उन चीज़ों शिक्षा-प्राप्ति की कामना से लंदन जाते हैं। ऐयर का
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #600
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती
[ भाग ३६
आचरण श्रारम्भ से अन्त तक पश्चिमी ढंग का, और स्पष्ट हो जाता है । पुस्तक की भूमिका में प्रवासी भारतीयों गुप्ता का पूर्वी ढंग का है। मदन अपने आचरण में की समस्याओं के विशेषज्ञ श्रीयुत स्वामी भवानीदयाल जी दोनों विचारों से अच्छी बातों को ही अपनाने का प्रयत्न संन्यासी ने इन बातों पर, आपबीती घटनाओं-द्वारा, अच्छा करता है । कुछ दिन के बाद उसकी भारतीय विचारधारा प्रकाश डाला है। प्रत्येक भारतहितैषी को यह पुस्तक मन्द पड़ जाती है और पश्चिमी लोगों का महवाम उसे पढ़नी चाहिए। अधिक प्रिय हो जाता है। उसे सैर-सपाटे अधिक पसन्द होते -भारतीय सहकारिता-आन्दोलन-लेखक, हैं यहाँ तक कि लंदन के समुद्री किनारे की सैर में वह मिस श्रीयुत शंकरसहाय सकसेना, एम० ए० बी० काम। जोन्स के फंदे में फँस जाता है। मदन को मिम जोन्म पता-व्यवस्थापक, भारतीय ग्रन्थमाला, वृन्दावन, हैं। के प्रेम में विशुद्धता का भान होता है, पर कुछ ही दिनों में मूल्य २) है। उसके आचरण पर उसे सन्देह भी होने लगता है। मिस प्रोफ़ेसर शंकरसहाय सकसेना बरेली-कालेज में अर्थजोन्स अपनी वाक्चतुरता से मदन को फिर विश्वास शास्त्र के अध्यापक हैं और अपने विषय के विशेषज्ञ हैं। दिलाती है और उससे मदन का मेल-जोल अधिक बढ़ इस पुस्तक में उन्होंने भारतीय ग्रामों की अनेक आर्थिक जाता है। किन्तु अचानक मदन को फिर उसके भ्रष्टा- समस्याओं तथा सहकारिता-द्वारा उनको हल करने के चरण का प्रमाण मिल जाने से उद्विग्नता उत्पन्न हो जाती उपायों पर अच्छा प्रकाश डाला है। पुस्तक विस्तृत है। वह अपनी हत्या का प्रयत्न करता है, पर दैवयोग अध्ययन तथा परिश्रम से लिखी गई है। और अपने से बच जाता है । इस घटना के बाद उसकी विचारधारा विषय की हिन्दी में संभवतः एक ही पुस्तक है। श्राजविशुद्ध हो जाती है और वह सदा के लिए सचेत हो कल जब देश का ध्यान ग्राम-संगठन और ग्राम-सुधार की जाता है।
श्रोर लगा हुआ है, इस पुस्तक में वर्णित उपायों से इस अन्य घटनायें प्रसंगवश ही इसमें लाई गई हैं। कार्य में बड़ी सहायता मिल सकती है । पुस्तक की भाषा इस पुस्तक को पढ़कर भारतीय विद्यार्थी लंदन में जाकर सरल और विषयोपयोगी है तथा गेट-अप सुन्दर है। अधिक चेतनता के साथ अधिक बातें सीख सकता है। आशा है, हिन्दी-प्रेमी इस पुस्तक का उचित श्रादर करेंगे। पुस्तक सुपाठ्य और उपयोगी है।
९--कोटिल्य के आर्थिक विचार- लेखक, श्रीयुत
- गंगासिंह जगनलाल गुप्त तथा श्रीयुत भगवानदास केला। पता७-प्रवासी भारतीयों की वर्तमान समस्यायें- व्यवस्थापक, भारतीय ग्रन्थमाला, वृन्दावन । मूल्य |||-) है। लेखक, श्रीयुत प्रेमनारायण अग्रवाल बी० ए०, प्रकाशक, कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अँगरेज़ी तथा हिन्दी में यद्यपि मानसरोवर-साहित्य-निकेतन, मुरादाबाद हैं । मूल्य १) है। कई अनुवाद हो चुके हैं, तथापि उनके ग्रन्थ के विषयों __ अपने विषय की यह एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। प्रवासी को सरल रूप में रखनेवाली एक पुस्तक की आवश्यकता भारतीयों की समस्यायें भारत के भविष्य जीवन का एक थी। इन लेखकों ने इस पुस्तक को लिखकर इस कमी को कठिन प्रश्न है। इस पुस्तक में लेखक ने बड़ी रोचक दूर किया है । इस पुस्तक के पढ़ने से मालूम होगा कि ईसा शैली तथा ज़ोरदार भाषा में प्रवासी भारतीयों की समस्याओं से ३२२ वर्ष पूर्व हमारे देश में लोक-कल्याण की भावना की ओर देश का ध्यान आकृष्ट किया है। अपने प्रवासी से प्रेरित होकर भारतीय मनीषियों ने कैसे प्रौढ़ ग्रन्थ लिखे भाइयों की कठिनाइयों की ओर से हम लोग कितने उदा- थे। उस समय की रीति-नीति तथा समाज-व्यवस्था के सीन हैं और उनके ऊपर किये गये अन्याय तथा अत्या- बारे में इस पुस्तक से हम पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं ।। चारों का विरोध न करके हम अन्याय और अत्याचार प्राशा है, पुस्तक का उचित आदर होगा जिसके कि वा को कैसे प्रोत्साहन देते हैं, यह इस पुस्तक के पाठ से सर्वथा योग्य है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #601
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
नई पुस्तकें
१०--श्री तुकाराम-चरित्र (जीवनी और उपदेश)- ११---श्री चैतन्यचरितावली (खण्ड-चतुर्थ तथा मूल-लेखक, श्रीयुत लक्ष्मण रामचन्द्र पांगारकर, बी० ए०। पञ्चम)-लेखक, श्रीयुत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, प्रकाशकहिन्दी-अनुवादक-श्रीयुत लक्ष्मण नारायण गर्दै । मूल्य गीता प्रेस, गोरखपुर । मूल्य क्रमशः ॥ और ।) है १०) है । पता-गीता-प्रेस, गोरखपुर ।।
श्रीचैन्यचरितावली के इन दोनों खण्डों के प्रकाशित यह मराठी-पुस्तक का हिन्दी-अनुवाद है। हिन्दी में हो जाने से श्री चैतन्य महाप्रभु का जीवन-चरित पूर्ण हो कबीर तथा तुलसी को छोड़कर संभवतः अन्य किसी संत जाता है। पूर्व प्रकाशित खण्डों की ही भाँति इन दोनों कवि के जीवन के विषय में इतनी छान-बीन, विस्तार खण्डों को भी लेखक ने अपनी प्रोजस्विनी, भक्तिपूर्ण तथा परिश्रम से लिखा हा ग्रन्थ हमने नहीं देखा। मध्य तथा सरल शैली में ही लिखा है। चतुर्थ खण्ड में रंगीन युग के हिन्दी के सन्त कवियों के विषय में कवीन्द्र-रवीन्द्र तथा सादे चित्रों की संख्या चौदह तथा पंचम खण्ड में के विश्वविद्यालय में वंगभाषा-भाषी विद्वान गवेषणा करें, दस है। इसके पढ़ने से महाप्रभु का जीवन आँखों के उनकी वाणियों का संग्रह करने के लिए वे सुदूर स्थानों सामने नाचने लगता है और हृदय में आध्यात्मिक बल की यात्रा करें तथा उनकी अमर वाणी पढ़कर विदेशी तथा भक्ति का उदय होता है। पंचम खण्ड के अन्त में लोग तक मुग्ध हों, परन्तु जिनकी भाषा में उन्होंने अमूल्य लेखक ने इन पुस्तकों की रचना के लिए प्रयुक्त ग्रन्थों की अनुभूतियों का अमृत भरा है वे पैर पसारे निश्चेष्ट सोया तथा चैतन्य-चरित-सम्बन्धी विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध करें। इससे बढ़ कर लजा का विषय क्या हो सकता पुस्तकों की एक सूची भी दे दी है। अध्ययनशील है ? इस पुस्तक में मूल-लेखक ने जिस परिश्रम तथा जिज्ञासु महोदय जो महाप्रभु के चरित के विषय में अधिक विस्तार से महाराष्ट्रदेशीय भक्त सन्त तुकाराम की जीवनी जानकारी प्राप्त करना चाहें, इससे लाभ उठा सकते तथा उपदेशों को संकलित किया है उसे देखकर हमें बड़ा हैं। आध्यात्मिक पथ के पथिकों तथा भक्तों के लिए ही अानन्द हुअा। कर्म, उपासना तथा जानकाण्ड नामक पुस्तक परम उपयोगी है। तीन मुख्य खण्डों में यह ६६६ पृष्ठों का ग्रन्थ लिखा गया १२–एशिया की महिला-क्रान्ति-लेखक, श्री है। साधना के पथ पर चलने की इच्छावाले भक्तों के जगदीशप्रसाद माथुर 'दीपक', प्रकाशक, हिन्दी-सहित्यलिए तथा जनता में आध्यात्मिक भावों की पवित्र जागृति मण्डल, बाज़ार सीताराम, देहली हैं। मूल्य १) है । के लिए ऐसे सन्त कवियों की आत्मानुभूतियाँ, उनकी दीपक जी ने अपनी इस पुस्तक में एशिया-महाद्वीप के चमत्कार-पूर्ण जीवन-घटनायें तथा साधारण अवस्था से रूस, चीन, जापान, बर्मा, फ़ारस और भारत-देश की स्त्रियों आध्यात्मिक चरम विकास के लिए उनके द्वारा अवलम्बित की तथा अन्य देश नामक अध्याय में तुर्की की महिलाओं की उपाय वास्तव में श्रद्धा, उत्साह और आत्मिक बल प्रदान जागृति पर प्रकाश डाला है। इन देशों में महिला-क्रान्ति करते हैं।
से पूर्व स्त्रियों की दुर्दशा, उनका क्रय-विक्रय तथा अधिकारपुस्तक के अनुवादक हैं हिन्दी के प्रौढ़ लेखक श्रीयुत हीन तथा मूक बन्दी-सा उनका जीवन अङ्कित करके लेखक लक्ष्मण नारायण गर्दै जी। इसलिए अनुवाद की सुन्दरता ने क्रान्ति के पश्चात् उन देशों की महिलाओं के कार्य, त्याग, के विषय में विशेष कहने की आवश्यकता नहीं। इस योग्यता तथा उनके द्वारा किये गये सुधारों का दिग्दर्शन ६६६ पृष्ठों ऐसे बड़े प्राकार के उपयोगी ग्रन्थ को एक रुपये कराया है। इस पुस्तक के पढ़ने से हिन्दी-भाषा-भाषियों तीन आने के नाम-मात्र मूल्य पर देने के लिए गीता- को बहुत-सी नई बातें मालूम होंगी और उनका दृष्टिकोण प्रेस भी प्रशंसा का पात्र है। ऐसे सुन्दर तथा सुलभ विस्तृत होगा। भारतीय महिलायें इसे पढ़कर अन्य देशों ग्रन्थ का हिन्दी-प्रेमियों को संग्रह तथा स्वाध्याय करना की महिलाओं से त्याग, आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्भरता चाहिए।
की शिक्षा ग्रहण कर सकती हैं। लेखनशैली सुन्दर तथा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #602
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५०
सरस्वती
भाषा सरल है । पुस्तक का गेट-अप अच्छा है, पर मूल्य यदि प्रचार की दृष्टि से कुछ कम होता तो अधिक उचित होता ।
१३ – महिलासमाज – लेखक, श्रीयुत श्रोंकारनाथ 'दिनकर', प्रकाशक, परिवर्तन-प्रकाशक विभाग अजमेर हैं । मूल्य 1) है ।
इस छोटी-सी पुस्तक में लेखक ने 'हमारा न्याय' शिक्षा, परदा तथा अधिकार नामक शीर्षकों पर अपने विचार व्यक्त किये हैं । स्त्रियों के प्रति पुरुषों द्वारा किये ये अन्याय तथा अधिकारापहरण का जोशीले शब्दों में विरोध करते हुए लेखक ने महिलाओं की शिक्षा के प्रभाव से होनेवाली हानियों को दिखलाया है तथा परदे की प्रथा को दूर करने के लिए भी उचित कारण बतलाये हैं । पुस्तक में कोई नवीन विचार नहीं हैं, हाँ महिलाओं के पक्ष - समर्थन में लेखक ने उन स्मृतिकारों तथा भक्तों की कटु आलोचना अवश्य की है जिन्होंने स्त्रियों की निन्दा की है । परन्तु यह निन्दा विरक्ति-मार्ग में जिस प्रकार, कामिनी- काञ्चन के परित्याग के लिए 'कामिनीरूप' नारी की की गई है, उसी प्रकार उस पथ की पथिक नारियों के लिए पुरुषों को हेय बतलाया है । इस दृष्टिकोण को सामने न रखने के कारण लेखक की युक्तियाँ एकाङ्गी तथा एक पक्ष की हो गई हैं । प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ के अँगरेज़ी वाक्यों के उद्धरण देकर प्रारम्भ करना, विशेषतया उन स्थानों पर जहाँ वे स्मृति के श्लोकों अथवा वेदमंत्रों के अनुवादमात्र हैं, अवाञ्छनीय है । पुस्तक में अनेक सामयिक बातों पर भी प्रकाश डाला गया है । इस दृष्टि से पुस्तक उपादेय कही जा सकती है ।
१४ - अनुवाद - चन्द्रिका - लेखक, कविरत्न पण्डित चक्रधर नौटियाल, एम० ए०, शास्त्री, हिन्दी प्रभाकर हैं । पता - मोतीलाल बनारसीदास, पंजाब संस्कृत पुस्तकालय, लाहौर | मूल्य १) 1 यह पुस्तक हाई स्कूल तथा इन्टरमीडियेट के परीक्षार्थियों का लक्ष्य में रखकर लिखी गई है । संस्कृत अनुवाद पर अन्य भी अनेक लेखकों ने पुस्तकें लिखी हैं, परन्तु जैसी सरल पद्धति तथा क्रम से अनुवाद के लिए आवश्यक
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
विषयों का विवेचन इस पुस्तक में हुआ है, वैसा बहुत थोड़ी प्रचलित पुस्तकों में दृष्टिगोचर होता है । संस्कृत-व्याकरण तथा अनुवाद दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध | इस बात का विचार रख कर ही शास्त्री जी ने इस पुस्तक को लिखा है । पुस्तक के अन्त में अशुद्धि-संशोधन, लोकोक्तिसंग्रह, पंजाब तथा संयुक्त प्रान्त की प्राश तथा हाई स्कूल परीक्षाओं के प्रश्न-पत्र तथा शब्द-सूची नामक प्रकरणों से ग्रन्थ की उपयोगिता और भी बढ़ गई है । पुस्तक परिश्रम से लिखी गई है और हाई स्कूल की श्रेणियों के लिए विशेष उपयोगी है ।
१५ - विद्यार्थी जैनधर्मशिक्षा - लेखक, श्रीयुत ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद जी, प्रकाशक, दि० जैन पुस्तकालय, सूरत हैं । मूल्य १ || ) है ।
स्कूल तथा कालेज के जैन विद्यार्थियों को जैन-धर्म के तत्त्वों तथा शिक्षाओं से परिचित कराने के उद्देश से लेखक
इस पुस्तक को लिखा है । सम्पूर्ण पुस्तक शिष्य तथा शिक्षक के प्रश्नोत्तरों के रूप में सरल, शुद्ध तथा प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप भाषा में लिखी गई है। जैन धर्म की सम्पूर्ण रूपरेखा तथा उसके तत्त्व इस एक पुस्तक के पढ़ने से पर्याप्त रूप से समझ में आ सकते हैं । पुस्तक परिश्रम से लिखी गई है । आशा है, जैन छात्र इससे उचित लाभ उठावेंगे । जैन जिज्ञासु भी जैन-धर्म की अनेक ज्ञातव्य बातों को इस एक पुस्तक से जान सकेंगे। लेखक ने पुस्तक के अन्त में जैनेतर धर्मों तथा जैन धर्म की समानता तथा असमानताओं का भी संक्षिप्त परिचय दे दिया है जिससे पुस्तक की उपयोगिता और भी बढ़ गई है । सम्पूर्ण ग्रन्थ में अन्य धर्मों के विवेचन में लेखक ने शिष्टभाषा का प्रयोग किया है। जैन तथा जैन दोनों को इससे लाभ उठाना चाहिए । १६ - प्रसंगोचित पद्यमालिका - (संस्कृतग्रन्थ) संग्रहकर्ता श्रीयुत फूलचन्द्र मुनि, पृष्ठ संख्या १६३. मूल्य II) है । पता - श्री जोतिमल मूलामल जैन (भावड़ा), मातीबाज़ार, पो० मालेरकोटला स्टेट (पंजाब) ।
उपदेश देने अथवा धर्म-प्रचार करने के समय व्याख्यान को प्रभावशाली एवं रोचक बनाने के लिए काम में
www.umaragyanbhandar.com
Page #603
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
नई पुस्तकें
आनेवाली संस्कृत सूक्तियों का तथा श्लोकों का इसमें संग्रह वितरित । प्रकाशक-श्री कन्हैयालाल दीक्षित, खलासी किया गया है। यह ग्रन्थ जैन उपदेश को तथा प्रचारकों लैन, कानपुर हैं। के बड़े काम का है। अन्य संस्कृतज्ञ विद्वान् भी इससे लेखक ने अपने पूज्य पिता की पुण्यस्मृति में "श्री लाभ उठा सकते हैं । पद्यों का हिन्दी-अनुवाद जानबूझ मिश्रीलाल दीक्षित ग्रन्थमाला" का प्रकाशन प्रारम्भ किया कर ग्रन्थकार ने नहीं दिया है। परन्तु हमारी सम्मति में है। उक्त ग्रन्थ-माला का यह प्रथम पुष्प है । इस छोटीयदि हिन्दी-अनुवाद भी दे दिया जाता तो संस्कृत न सी पुस्तक में कृष्ण विषयक स्तुति-श्लोकों का संग्रह किया जाननेवाले भी इस संग्रह से लाभ उठा सकते और ग्रन्थ गया है । श्लोक चुने हुए हैं । श्लोकों के नीचे सरल तथा के प्रचार का क्षेत्र भी बढ़ जाता। पुस्तक में शुद्धि-अशुद्धि शुद्ध हिन्दी में उनका अनुवाद दिया गया है। कृष्णकी सूची भी लगा दी गई है। छपाई साधारण है। भक्तों के काम की है।
१७-संध्या-पाठ (कबीर-पंथी पुस्तक)--टीकाकार, २०–आर्कीयोलोजी इन ग्वालियर-(अँगरेज़ी)पं० भू० १०८ महन्त श्री विचारदास जी बीजक टीकाकार, लेखक, श्रीयुत एम० बी० गर्दे, बी० ए०, सुपरिटेंडेंट अाफ़ पृष्ठ-संख्या ८० और मूल्य ) है। पता- कबीर साहेब अार्कीयोलोजी, ग्वालियर स्टेट। मूल्य १।।) है । का मन्दिर, सीयाबाग़, बड़ौदा (गुजरात)।
प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने ग्वालियर रियासत की ___संतप्रवर कबीरदास की वाणी में 'संध्या पाठ' का पुरातत्त्व-सम्बन्धी खोजों तथा वहाँ के प्रसिद्ध ऐतिहासिक . एक विशेष स्थान है। इस पुस्तक में मंगलाचरण, गौड़ी स्थानों का संक्षिप्त परिचय दिया है । ग्वालियर-राज्य में आरती, ज्ञानस्तोत्र, विज्ञानस्तोत्र, दयासागर, चेतावनी उजयिनी, विदिशा, पद्मावती, दशपुर, कुन्तलपुर आदि आदि का समावेश क्रम से किया गया है। संध्या-पाठ पर प्रसिद्ध प्राचीन नगर हैं और ये ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वमहन्त जी ने 'सरला' नामक टीका में मूल-पदों की सरल पूर्ण हैं। इस पुस्तक में इन सभी स्थानों की पुरातत्त्वतथा विशद व्याख्या की है । टीका में यथास्थान योग- सम्बन्धी बातों का विवरण दिया गया है । सम्बन्धी अनेक ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश डाला गया है। स्वर्गीय ग्वालियर-नरेश ने अपने यहाँ पुरातत्त्व-विभाग प्रारम्भ में संध्या के महत्त्व पर शास्त्रीय प्रमाणों-सहित को खोलकर तथा श्रीयुत गर्दै जी जैसे पुरातत्त्व के विशेषज्ञ एक छोटी-सी भूमिका लिखी गई है । पुस्तक कबीर- को उसका प्रबन्ध सौंपकर वास्तव में एक उपयोगी कार्य पन्थियों के काम की है और उन्हें इससे लाभ उठाना किया है । इसके द्वारा कितनी ही अमूल्य ऐतिहासिक चाहिए।
सामग्रियों की रक्षा की व्यवस्था हुई है जैसा कि इस १८ --गोपी-प्रेम - लेखक, श्रीयुत हनुमानप्रसाद पुस्तक से ज्ञात होता है। ग्वालियर के पुरातत्त्व-विभाग ने पोद्दार, पृष्ठ-संख्या ५६, मूल्य –|| है। पता -गीता-प्रेस, अपने यहाँ एक संग्रहालय भी स्थापित किया है, जो गोरखपुर । भगवान् कृष्ण और गोपियों का प्रेम भगवद्- इतिहास के विद्यार्थियों के लिए बड़े काम का है। भक्तों के साधन और सिद्धि का चरम अादर्श है। प्रस्तुत इस पुस्तक में ग्वालियर के प्रसिद्ध स्थानों के ३४ चित्र तथा पुस्तक में उसी पवित्र प्रेम की व्याख्या की गई है। गोपी- ग्वालियर का मानचित्र भी दिया गया है । छपाई, गेट-अप प्रेम क्या है और विश्वत्यागी विरक्त और भक्त महात्मात्रों में श्रादि उत्तम है। उसका क्यों इतना आदर है, यह बात इस पुस्तक के २१-माइन्ड इट्स मिस्ट्रीज एण्ड कन्ट्रोलपढ़ने से बहुत कुछ समझी जा सकती है। पुस्तक उपादेय (अँगरेज़ी)-लेखक, श्रीयुत स्वामी शिवानन्द सरस्वती, और मनन करने योग्य है।
प्रकाशक, गीता-प्रेस, गोरखपुर हैं। १९-कृष्णकीर्तन-संग्रहकार तथा अनुवादक मन के विषय में अनेक आध्यात्मिक ग्रन्थों में मिलने'दीक्षित-बन्धु' हैं। पृष्ठ-संख्या १६ है। बिना मूल्य वाली सामग्री का इस पुस्तक में संग्रह-सा कर दिया गया
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #604
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५२
सरस्वती
है । मन क्या है, किससे बना है, इसका क्या परिमाण है, खाद्य द्रव्यों का इस पर क्या प्रभाव पड़ता है, कैसी अद्भुत शक्तियों का यह भाण्डार है, कैसे यह चञ्चल मन वश में किया जा सकता है इत्यादि शीर्षकों के नीचे लेखक ने अनेक उपयोगी बातों का संकलन किया है। एक ही विषय पर विभिन्न मतों को रखने से तथा उनमें से एक के निर्णय का प्रयत्न न होने से प्रतिपाद्य विषय की स्पष्टता कम हो गई है । योग्य जिज्ञासु तथा इस विषय से अनुराग रखनेवाले सज्जन इससे अनेक ज्ञातव्य बातें जान सकते हैं । विषय- प्रतिपादन की शैली यदि अधिक क्रम-बद्ध होती तो पुस्तक और भी उपयोगी हो सकती थी । कैलाशचन्द्र शास्त्री, एम० ए० २२- ३० - ' गीता प्रेस' की ६ पुस्तकें
गोरखपुर के 'गीता प्रेस' ने अब तक जितने काम किये उनमें लोकोपकार का भाव अधिक रहा है। हाल में उसने (१) 'ईश' (२) 'केन' (३) 'कठ' (४) 'मुण्डक' (५) 'प्रश्नोपनिषद्' -- ये पाँच उपनिषद् सानुवाद शाङ्कर भाष्य सहित नवीन छापे हैं। इनकी पृष्ठ संख्या यथाक्रम ५०, १५०, १७०, १३० और १३० हे और मूल्य ), II), II−), I) और I) है । इन सबमें एक एक रङ्गीन चित्र, विषय-सूची, मंत्रानुक्रमणिका, और शब्दार्थ एवं भावार्थबोधक शुद्ध अनुवाद है । वह मूल के बराबर बगल में लगा हुआ है । ऐसा होने से प्रत्येक वाक्य या पंक्ति का अर्थ समझने में बुद्धि स्वतः प्रविष्ट हो जाती है और उसमें छात्रों को विशेष सुविधा मिलती है । 'उपनि
'वेदों के अर्थ प्रकट करनेवाले होते हैं । और वेद, भगवान् की वाणी हैं जिनमें सम्पूर्ण शास्त्रों के सारभूत बीज भरे हुए हैं।
इनके अतिरिक्त (६) 'मुमुक्षु सर्वस्व' - नामतुल्य फल देनेवाला है । इसके पाँच प्रकरण हैं। पहले में श्रात्मज्ञान, दूसरे में श्राचारदर्शन, तीसरे में विरक्ति, चौथे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
भाग ३६
में जप, ध्यान, उपासना और पाँचवें में बन्धनमोक्ष के उपाय बतलाये गये हैं । प्रत्येक विषय सोदाहरण है । इस लोक में निरामय रहने और बंधनमुक्त होकर परलोक प्राप्त करने के लिए यह ग्रन्थ मनन करने योग्य है । संपूर्ण विषय ६३, पृष्ठ चार सौ, मूल्य III), रङ्गीन चित्र १ और अशुद्धि एक भी नहीं । (७) 'प्रेमदर्शन' - है । इसे नारदभक्ति सूत्र का विस्तृत अनुवाद या भाषाभाष्य कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं । इसमें अनुवादक महोदय ने एतद्विषयक अपनी व्यापक बुद्धि का परिचय दिया है। मनोदित भाव प्रदर्शित करने के सिवा अन्यत्र के अनेक वाक्य
राय देकर इसे बहुत ही उपयोगी, हृदयग्राही एवं रुचिकारी बना दिया है । भक्तिविषयक बातों में अधिकांश व्यक्ति कम ध्यान देते हैं । किन्तु इसमें तो सामान्य मनुष्यों का मन भी श्रानन्दमग्न होकर संलग्न हो जाता है। इसके सम्पूर्ण ८४ सूत्रों का अवलोकन करने से सूचित हो सकता है कि ये सूत्र ८४ से पिंड छुड़ाने में समर्थ हैं। इसकी पृष्ठ संख्या २००, चित्र ३, प्रकरण १६ और मूल्य 1 ) हैं ।
(८) 'नारदभक्तिसूत्र' में प्रेमदर्शन के मूल सूत्र संस्कृत में हैं। साथ में भावार्थबोधिनी टीका है । भगवद्भक्त इसको कंठस्थ करके प्रेमदर्शन के सहारे तल्लीन होना चाहें तो बड़ी सुविधा मिलती है। इसकी पृष्ठ संख्या ३० और मूल्य ) | है । और ( ९ ) गोविन्द दामोदर माधवेति' स्तोत्र है । इसमें भगवान् की विविध लीलाओं IIT मनोविनोदात्मक एवं आत्मकल्याणकारक रूप में परिचय कराने के साथ ही प्रत्येक श्लोक में 'गोविन्द दामोदर माधवेति' उच्चारण करवा दिया है। इसके सुरीले श्लोकों की मधुर ध्वनि में मन मन हो जाता है। साथ में सुन्दर भाषानुवाद भी है । श्लोक ६८, पृष्ठ ४०, चित्र १ और मूल्य - ) | है |
- हनुमान शर्मा
www.umaragyanbhandar.com
Page #605
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com.
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥
[ चित्रकार — श्रीयुत सुधीन्द्र साहा
- श्रीमद्भगवद्गीता २-३७
Page #606
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #607
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामायक साहित्य
ई
भारतवर्ष का परिवर्तनकाल महत्त्वपूर्ण बात यह देखना है कि किस भावना से हम
का ग्लंड में ईस्ट इंडिया असो- भारतीयों को नवीन शासन-विधान देते हैं और किस
सिएशन' नाम की एक भावना से वे उसका स्वागत करते हैं।" परन्तु जिस परिसंस्था है। यह एक प्रकार वर्तन की बात मैं कहने जा रहा हूँ वह राजनैतिक उतना का साहित्यिक संस्था है। नहीं है जितना कि सामाजिक है । इसमें शिक्षित अंगरेज़ और उदाहरण के लिए पर्दा को लीजिए। हैदराबाद में विलायत में जाकर रहन- मैंने एक अभूतपूर्व दृश्य देखा । सड़क पर सफ़ेद वस्त्र से
वाले भारतीय परस्पर ढंकी हुई मुझे एक भूत-सी कोई चीज़ चलती दिखाई विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। इस संस्था की पड़ी। उसमें आगे आँखों के दो जालीदार निशान बने कार्यवाही लन्दन से प्रकाशित होनेवाले मासिक पत्र थे। पूछने पर मालूम हुआ कि यह भूत नहीं, 'एशियाटिक रिव्यू' में छपा करती है । गत आक्टोबर हम जैसी ही हाड़-मांस की मानव-प्राकृति है, जिसे सारी के अंक में श्रीयुत फ़िलिप मोरेल का जो पार्लियामेंट ज़िन्दगी कैदखाने में बितानी पड़ेगी। इससे यह सिद्ध के मेम्बर हैं और जो हाल में दो महीने के होता है कि भारतवर्ष में अभी पर्दा है। इसमें सन्देह नहीं लिए भारत का भ्रमण करने आये थे, एक लेक्चर कि हज़ारों औरतें पर्दे के भीतर दुःख का जीवन व्यतीत छपा है। इसे इन्होंने 'भारतवर्ष का परिवतनकाल' कर रही होंगी । परन्तु इस प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन शुरू शीर्षक में उक्त संस्था में पढ़ा था। लेक्चर के है और यह मर रही है । १८७५ में बड़ौदा में एक भी अन्त में उपस्थित सदस्यों की टिप्पणियाँ भी छापी लड़कियों का स्कूल नहीं था । परन्तु अब वहाँ ६८,००० गई हैं। यहाँ हम उनके लेक्चर का मार देते हैं लड़कियाँ शिक्षा पा रही हैं । जो हाल बड़ौदा का है वही ___भारतवर्ष से मेरा प्रेम बचपन से ही है। मेरी बुया समस्त भारत का समझिए । एनी ने भारतीयों की सेवा में अपनी ज़िन्दगी ही गुज़ार जात-पात के सम्बन्ध में भी बहुत बड़ा परिवर्तन हो दी। वे मुझे अपने पत्रों में भारत की बातें लिखकर और रहा है। अछूत अब वे पहलेवाले अछूत नहीं रहे । यहाँ के चित्र भी भेजा करती थीं। उन सब बातों से मैसूर में वे सिविल सर्विस में भर्ती किये जा रहे हैं और भारत के बारे में मेरा प्रेम बढ़ता गया। फिर भारत से बड़ौदा में महाराज के महल में उन्हें प्रतिवर्ष प्रीतिभोज मेरा इतना ही लगाव नहीं है । मेरी पत्नी भारत के एक दिया जाता है । ये नई प्रवृत्तियाँ बड़े बड़े शहरों में ही भूतपूर्व गवर्नर-जनरल की पोती हैं और दूसरे की भतीजी। नहीं, देहातों में भी देखी जा रही हैं। इसलिए मैं भारत की यात्रा करने यों ही नहीं निकल पड़ा धर्म का ज़ोर अभी कम नहीं हुआ है। यह देखना था. बल्कि उसके स्नेह के बन्धन ने हमें प्राकृष्ट किया था। हो तो बनारस जाइए ! कलकत्ता-हाईकोर्ट का एक मुकद्दमा
भारतवर्ष में बड़े बड़े परिवर्तन हो रहे हैं । नये विधान मेरे देखने में आया। बङ्गाल के एक गाँव के एक के विषय में मुझे कुछ नहीं कहना है। इस सम्बन्ध में देवमंदिर को ग़रीब किसानों की जेब से प्रतिदिन ३० पौंड लार्ड हालीफ़ाक्स का एक वाक्य काफ़ी होगा-"सबसे की आमदनी होती है । सैकड़ों अछूत ऐसे हैं जो जीवन
५५३ फा. १०
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #608
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५४
सरस्वती
[भाग ३६
की साधारण स्वच्छता से दूर रक्खे जाते हैं। कानून बन रखने के लिए अपने क्लब में गैर अँगरेज़ों को नहीं पाने जाने पर भी बाल-विवाह अपनी तलवार चलाता जा रहा देते तो इसमें किसी को क्यों आपत्ति हो ? मेरा उत्तर यह है। ग़रीबी का अब भी बड़ा विस्तार है और अमीरों में है कि जिस क्लब में केवल अधिकारीवर्ग के ही लोग सार्वजनिक हित-भावना का अभाव है। परन्तु जब हम लिये जायँ वह सर्वथा प्राइवेट नहीं कहा जा सकता। यह देखते हैं कि ये युगों के रस्म-रवाज हैं तब इधर जो इन्हीं क्लबों के कारण भारतीयों और अँगरेज़ों में भेद की सुधार हुए हैं वे कम नहीं जान पड़ते। इसमें सन्देह नहीं खाई बढ़ती जा रही है, जो अन्य स्थिति में कदापि नहीं बढ़ कि भारत के बहुत-से भागों में नया खून जोश मार रहा सकती थी। यह दुःख की बात है कि वर्तमान वायसराय है और पुरानी बेड़ियाँ टूटती चली जा रही हैं। का जिन्होंने बम्बई में विलिङ्गडन-क्लब की स्थापना की __ हम 'मदर इंडिया' जैसी किताबें पढ़ते हैं और कल्पना है, अनुकरण नहीं किया गया। रियासतों में यह भेद नहीं करते हैं कि भारतवर्ष मन्दिरों, महलों और खंडहरों का है। वहाँ भारतीय और अँगरेज़ साथ साथ बराबरी के अर्द्धशिक्षित देश है और हम सोचते हैं कि ईश्वर ने हम दर्जे पर खेलते और ग़प लड़ाते हैं । यही भाव हमें ब्रिटिश सभ्यों को वहाँ न्याय और कानून की स्थापना करने को भेजा भारत में भी बर्तना चाहिए। है। हमारे देशवासी भारत की जो सेवा कर रहे हैं उससे महारानी विक्टोरिया की यह घोषणा कि उनके मैं इनकार नहीं करता। ब्रिटिश गवर्नमेंट के हाथों भारत साम्राज्य में सब बराबर हैं, तभी सफल हो सकती है जब की महान् उन्नति हुई है। परन्तु भारत में जो बौद्धिक और हम भारतीयों के साथ उनके देश में भी समानता का आध्यात्मिक परिवर्तन हो रहा है उसकी कद्र करने में हम बर्ताव करें । असमर्थ रहे हैं। हमने किपलिंग की यह बात मान ली है कि पूर्व और पश्चिम कभी नहीं मिल सकते, परन्तु वास्तव में अबीसीनिया का भेद और उसका पाठ देखा जाय तो भारत में दोनों मिलकर एक हो रहे हैं। "अबीसीनिया का भविष्य अन्धकार में है।
और यदि हमें भारत में रहना है तो हमें भारतीयों की उस पर कुछ भी विपत्ति पड़े वह संसार को एक इच्छा से रहना होगा। किसी कदर भी हो पिछले वर्षों में पाठ पढ़ा जायगा। वह पाठ क्या है ? यही कि इस हमारी नीति कुछ ऐसी ही रही है । यद्यपि भारत में महान् बीसवीं शताब्दी में भी कोई राष्ट्र तभी तक स्वाधीन राजनैतिक परिवर्तन हो गये हैं और हो रहे हैं, तथापि अभी रह सकता है जब तक वह जन और अस्त्र-शस्त्र से यह शिकायत बनी हुई है कि हम भारतीयों के साथ बराबरी तथा आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों से पूर्ण रूप से का बर्ताव नहीं करते। किसी अँगरेज़ से बातें करते समय पुष्ट है।" यह श्रीयुत सुभाषचन्द्र बोस के उस लेख उनके दिल में यह बात बनी रहती है कि वे एक शासक की प्रारम्भिक पंक्तियों का आशय है जो नवम्बर से बातें कर रहे हैं और स्वयं शासित हैं । वर्तमान वायसराय के 'माडर्न रिव्यू' में छपा है और जिसे उन्होंने योरप
और लेडी विलिङ्गडन भारतीयों से सहानुभूति के साथ मिलते से लिखकर भेजा है। आपने योरप में प्रकाशित हैं, परन्तु किसी छोटे अँगरेज़ कर्मचारी का भी उपेक्षा का अँगरेज़ी और फ्रेंच पत्रों से उद्धारण देकर यह सिद्ध व्यवहार इस सब पर पानी फेर सकता है। अब मैं एक किया है कि इटली, ब्रिटेन और फ्रांस तीनों अबीसीअत्यन्त नाजुक प्रश्न पर आता हूँ। मेरा तात्पर्य अँगरेज़- निया को बाँट लेना चाहते हैं। इस सम्बन्ध में क्लबों में भारतीयों को सम्मिलित करने से है। जब तक आपने लंदन के 'न्यू लीडर' का लेख उद्धृत किया है। ऐसे क्लब रहेंगे, भेद-भाव बना रहेगा। अँगरेज़ यह कहते उसका कुछ अंश इस प्रकार हैहैं कि क्लब व्यक्तिगत जीवन की बात है और यदि कुछ "......१६०६ में तीनों साम्राज्यवादी शक्तियोंअँगरेज़ भारत में भी अपने घर का वायुमंडल बनाये ब्रिटेन, फ्रांस और इटली ने आपस के एक समझौते पर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #609
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामयिक साहित्य
संख्या ६ ]
हस्ताक्षर किये, जिससे यह ध्वनित हुआ कि ये तीनों शक्तियाँ आगे चलकर अबीसीनिया को आपस में बाँट लेंगी। समझौते में यह छलपूर्ण सिद्धान्त तब भी स्वीकार किया गया था कि अबीसीनिया का अङ्ग भङ्ग नहीं किया जायगा । परन्तु वास्तव में इस समझौते से अँगरेज़ों को नील नदी के शिरोभाग की धारा का अधिकार मिल गया । पश्चिमी
नया में इटली की प्रभुता स्वीकार कर ली गई और सीनिया की रेलवे लाइन पर फ्रांस का अधिकार समझा गया ।
“विश्वव्यापी महायुद्ध के साथ इस साम्राज्यवादी डकैती का भी दूसरा अध्याय शुरू हुआ । सन्धि के अनुसार इटली जर्मनी और आस्ट्रिया के साथ बँधा था । परन्तु फ्रांस और ब्रिटेन ने उसे अपनी ओर फोड़ लिया । तीनों में एक गुप्त सन्धि हुई, जिसके अनुसार इटली को यह वचन दिया गया कि उसके पूर्वी अफ्रीका के उपनिवेशों की सीमायें अबीसीनिया के अन्दर बढ़ा दी जायँगी । महायुद्ध के बाद अँगरेज़ों ने टाना झील पर बाँध बाँधकर नील नदी के ऊपरी जल पर अधिकार सुरक्षित कर लेना चाहा । इटली ने अँगरेज़ों के इस अधिकार को इस शर्त पर स्वीकार करने की माँग पेश की कि अँगरेज़ भी पश्चिमी आस्ट्रेलिया में इटली के पूर्ण आर्थिक प्रभुत्व को स्वीकार कर लें । परन्तु अँगरेज़ों ने समझा कि वे बिना इटली की सहायता के भी अधिकार बनाये रह सकते हैं, इसलिए उन्होंने इटली की शर्तों को ठुकरा दिया और यह दलील पेश की कि १६०६ की सन्धि के अनुसार पश्चिमी अबीसीनिया में इटली का पूर्ण अधिकार नहीं माना जा सकता । परन्तु ६ वर्ष बाद जब ब्रिटेन को इटली की सहायता की श्रावश्यकता पड़ी तब पश्चिमी अबीसीनिया में उसने उसका आर्थिक प्रभाव स्वीकार कर लिया ।
" तत्र एक अघटित घटना घटी। अबीसीनिया ने ब्रिटेन और इटली के इस पारस्परिक लेन-देन को नापसन्द किया और लीग आफ़ नेशन्स के सामने इसका भण्डाफोड़ करने के लिए उन्हें धमकी दी। कार्य में विफल होने पर ब्रिटेन ने नई चालें चलीं । उसने अबीसीनिया को ब्रिटिश सुमालीलैंड से होकर समुद्री किनारे तक ६०० वर्ग
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
५५५
मील भूमि देने का लालच दिया । अबीसीनिया इस लालच में आ जायगा, इसका ब्रिटेन को इतना अधिक विश्वास था कि उसने १९२६ में अबीसीनिया का नया नक़शा तैयार कराया जिसमें 'ज़ेलिया' का बन्दरगाह अबीसीनिया के अन्तर्गत दिखाया गया । परन्तु ब्रिटेन के साम्राज्यवादियों को आश्चर्य चकित करके अबीसीनिया ने इसे स्वीकार कर दिया । वह अपनी स्वाधीनता खोने को तैयार नहीं था । "
इटली जानता है कि योरप की राजनैतिक स्थिति ऐसी है कि ब्रिटेन इस समय उसके साथ युद्ध नहीं छेड़ सकता, इसलिए वह परिस्थिति से लाभ उठाकर जितना देश जीत सके, जीत लेना चाहता है । तब क्या होगा ? क्या बेचारा अबीसीनिया बे-मौत मर जायगा और संसार देखता रहेगा ? क्या इस बुराई से कुछ भलाई भी होगी ? सुभाष बाबू लिखते हैं
चूँकि योरप की राजनीति इस समय फ्रांस का विशेष हाथ है, इसलिए दो बातों का होना अवश्यम्भावी है । पहली बात यह कि बाह्य रूप से राष्ट्रसंघ की धाक बनाये रहने के लिए ग्रार्थिक बायकाट का सामूहिक रूप से कुछ प्रयत्न किया जायगा । इसका मार्ग स्वयं मुसोलिनी ने अपने २ आक्टोबर के व्याख्यान में खोल दिया है। उसमें उन्होंने कहा है कि चाहे जितनी सुविधा का सामना करना पड़े, ग्रार्थिक नियंत्रण हम बर्दाश्त कर लेंगे। दूसरी बात यह कि इटली के विरुद्ध कोई फ़ौजी कारवाई न की जायगी और न अबीसीनिया में उसको विफल करने का ही कोई प्रयत्न किया जायगा, क्योंकि मुसोलिनी कह चुका है कि ऐसे प्रयत्नों को वह युद्ध का निमन्त्रण समझेगा और युद्ध का उत्तर युद्ध से देगा और मध्य-योरप की राजनीति से अलग होकर जर्मनी को मनमानी करने का अवसर दे देगा । परन्तु इतने से ही यह नहीं कहा जा सकता कि युद्ध का खतरा अब नहीं रहा । भूमध्य सागर में ब्रिटेन का जङ्गी बेड़ा अभी पड़ा है और ब्रिटेन ने इटली की प्रार्थना पर उसे वहाँ से हटाना अस्वीकार कर दिया है। इसके अतिरिक्त ब्रिटेन के समाचार-पत्रों से यह विदित होता है कि युद्ध की सीमा
www.umaragyanbhandar.com
Page #610
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५६
सरस्वती
पर सेना और युद्ध - सामग्री का भेजा जाना अभी जारी है। यह स्पष्ट है कि ब्रिटेन बड़े क्षोभ के साथ पीछे हट गया है, पर उसने युद्ध की भावना का अभी त्याग नहीं किया है और वह अपनी पीछे हटने की स्थिति को 'सामूहिक कार्यवाही' की आड़ में छिपाना चाहता है ।
कहते हैं, प्रत्येक काले बादल में एक उज्ज्वल रेखा होती । यही बात अबीसीनिया के बारे में भी कही जा सकती । युद्ध करते करते वह गिर जायगा, परन्तु गिरते गिरते भी विश्व की आत्मा में एक प्रकार की हलचल उत्पन्न कर जायगा । इससे संसार की दलित जातियों में एक नई विचारधारा बह निकलेगी । समस्त साम्राज्यवादी बेचैनी के साथ इसका अनुभव कर रहे हैं और जेनरल स्मट्स ने अपने हाल के एक भाषण में इसका उल्लेख भी किया है । दूसरी ओर साम्राज्यवादी देशों के विचारशील लोगों ने अपने आपसे यह पूछना आरम्भ कर दिया है कि क्या इस प्रकार उपनिवेश क़ायम करने का कार्य न्यायो चित है । उदाहरण के लिए प्रोफ़ेसर लस्की ने 'मैन्चेस्टर गार्जियन' में लिखा है कि ग्रेट ब्रिटेन के अफ्रीका में जितने उपनिवेश हैं वे सब राष्ट्रसंघ को सौंप दिये जायँ । श्रीयुत लैन्सबरी ने कुछ समय हुए यह अपील की थी कि संसार के समस्त कच्चे माल का सब मनुष्यों के समान हित की दृष्टि से उपयोग किया जाय । यहाँ तक कि सर सैमुएल होर जैसे अपरिवर्तनवादी ने जिनेवा
कहा था कि वे मिस्टर लैन्सवरी के प्रस्तावों के आधार पर की गई किसी भी जाँच-पड़ताल का स्वागत करेंगे । इस तरह वे साम्राज्यवादी भी जिनके अधिकार में यथेष्ट उपनिवेश हैं, एक प्रकार के पश्चात्ताप का अनुभव कर रहे हैं ।
दो तरीके हैं जिनसे साम्राज्यवाद का अन्त हो सकता है । या तो कोई साम्राज्यवाद विरोधिनी संस्था उसको उलट दे या साम्राज्यवादी देश स्वयं आपस में लड़कर निर्बल पड़ जायँ । यदि इटली की साम्राज्य- लिप्सा ने दूसरे मार्ग को प्रशस्त कर दिया तो अबीसीनिया का बलिदान व्यर्थ नहीं जायगा ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
ख़तरा कहाँ है—
मनुष्य की जान को सबसे अधिक खतरा कहाँ है- घर में या घर से बाहर ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रीयुत एण्ड्र आर० बून नाम के एक अमरीकन लेखक ने नवम्बर की 'पपुलर सायंस' में एक लेख छुपाया है, जिसमें उन्होंने अमरीका में होनेवाली समस्त दुर्घटनाओं से यह सिद्ध किया है कि मनुष्य की जान को सबसे अधिक खतरे घर में ही हैं। उनका कहना है कि हवाई जहाज पर मीलों ऊपर उड़नेवाले आदमी की जान उतने ख़तरे में नहीं है जितने खतरे में उस आदमी की जान है जो अपने घर में कुर्सी पर बैठा उपन्यास पढ़ रहा है। इसके प्रमाण में वे लिखते हैं
गत वर्ष अमरीका के संयुक्त राज्य में दुर्घटनाओं से एक लाख आदमी मरे और आधी से अधिक जानें घर में गई । यदि आप घर में बैठे उपन्यास पढ़ रहे हैं या सीढ़ी पर चढ़ रहे हैं या ठंड से जमे हुए नल के पानी को ढीला कर रहे हैं तो आपकी जान को उस आदमी के मुक़ाबिले में जो हवाई जहाज़ पर बैठा किसी हुश्रा के दूर शहर को उड़ा जा रहा है, २६६ गुना अधिक खतरा है । आप कहेंगे यह अविश्वसनीय है। अच्छा, ज़रा इस शुष्क विषय को समझने में चित्त लगाइए । मैं यहाँ कुछ अङ्क देकर अपने इस कथन को सत्य प्रमाणित करूँगा ।
जिस गति से पिछले वर्ष दुर्घटनायें हुई हैं, यदि उसी गति से इस वर्ष भी दुर्घटनायें हुई तो इस वर्ष अमरीका की १२ करोड़ ५० लाख की जन-संख्या में ५१,८४,५०० मनुष्य दुर्घटनाओं के शिकार होंगे। कुछ सीढ़ी से फ़िसल कर गिरेंगे, कुछ कुर्सियों पर से उलट जायँगे, कुछ खासकर स्त्रियाँ रसोईघर में कपड़ों में आग लगने के कारण जल जायँगी । हवाई जहाज़ों पर ५,६१,३७० या कुछ अधिक लोग ४,६०,००,००० मील उड़ेंगे । इनमें सिर्फ़ ३५७ आदमी ७३ दुर्घटनाओं के शिकार होंगे। इन ३५७ में भी बेदाग़ बच जायँगे। उनके खरोंच भी नहीं लगेगी। घर में बैठे रहनेवालों में २० श्रादमियों में एक मी अवश्य किसी न किसी तरह घायल
जायगा । ।
www.umaragyanbhandar.com
Page #611
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ५ ]
परन्तु हवाई जहाज़ों पर उड़नेवालों में ६,३७८ आदमियों में सिर्फ़ एक आदमी घायल होगा । मान लीजिए कि
सामयिक साहित्य
पका पड़ोसी जी बहलाने के लिए किसी मित्र के साथ श्रासमान की सैर करने चला गया । श्रापका क्या खयाल है । वह ज़िन्दा लौटेगा या मरा हुआ ? गत वर्ष ग़ैर सर कारी हवाई जहाज़ों पर १३,६७, २८८ श्रादमी उड़े। इन हवाई जहाज़ों ने ७,५६,०२,१५२ मील का चक्कर लगाया । दुर्घटनायें केवल १,५४६ हुई और केवल २,७११ श्रादमी इन दुर्घटनाओं के शिकार हुए। पर इनमें केवल ७८४ घायल हुए और इन घायलों में भी आधे आदमियों को सिर्फ़ मामूली खरोंचें लगीं। इससे यह सिद्ध है कि यदि आप अपने शहर में किसी मित्र के निजी हवाई जहाज़ पर भी उड़ें तो आपकी जान को घर की अपेक्षा ७४ प्रति शत कम खतरा है |
X
X
X
प्रायः देखा गया है कि लोग जहाँ अधिक सुरक्षा का अनुभव करते हैं वहाँ विचित्र दुर्घटनायें हो जाती हैं । विज्ञान और शिक्षा की समुचित व्यवस्था होते हुए भी ऐसी दुर्घटनायें प्रतिवर्ष बढ़ती जाती हैं। बहुत-से लोग स्वयं अपनी रामकुर्सी पर से लुढ़कते देखे गये हैं । आप चाहे जहाँ विचरिए, आसमान में, समुद्र में, या ज़मीन पर, परन्तु यह न भूलिए कि घर संसार में सबसे अधिक खतरनाक स्थान सिद्ध हुआ है। गत वर्ष आदमियों को अङ्ग भङ्ग कर देनेवाली ७,६८,२१,००० दुर्घटनायें हुई । परन्तु इनमें आधी से अधिक घरों में हुई । अमरीका में बीमारी से उतने बच्चे नहीं मरते जितने दुर्घटनाओं से मर जाते हैं। अगले २५ वर्षों में प्रत्येक पाँच आदमियों में एक को घायल रहने के लिए तैयार रहना चाहिए । बाहर दुर्घटनात्रों से जितने आदमी मरेंगे, घरों में उनकी अपेक्षा दूने प्राण गँवायेंगे। सबसे अधिक लोग गिरकर या आग में जलकर प्राण गँवाते हैं । गिरने की घटनायें अधिकतर सोने के कमरों में होती हैं और जलने की रसोईघरों में । स्वास्थ्य विभाग की रिपोर्ट से पता चलता है कि सबसे अधिक लोग कुर्सियों पर बैठते या उठते समय, सीढ़ियों पर चढ़ते या उतरते समय, बिस्तर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
५५७
पर लेटते या उठते समय गिरते हैं । सबसे कम दुर्घटनायें स्नान गृह में होती हैं और उनसे भी कम हवाई जहाज़ों में ।
सुदूर पूर्व को नवीन समस्या
उपर्युक्त शीर्षक से लंदन से प्रकाशित होनेवाले 'राउंड टेबुल' नामक त्रैमासिक पत्र की नवीन संख्या में एक विद्वत्तापूर्ण लेख प्रकाशित हुआ है । उस लेख में अकाट्य तर्कों द्वारा यह बात सिद्ध को गई है कि सुदूर पूर्व की स्थिति अव वह नहीं रही जो पहले थी और जापान ने सुदूर पूर्व का राजनैतिक मानचित्र सर्वथा बदल दिया है। नीचे हम उस लेख से कुछ अवतरण देते हैं
१९३५ का वर्ष चीन और पश्चिम के सम्बन्ध में एक नया अध्याय खोलता है । पिछले चार वर्षों से जापान की नीति बड़ी उग्र रही है और गत जून में वह इस लायक़ हो गया कि उसने घोषणा कर दी कि उत्तरी चीन में उसी की इच्छा के अनुसार राजनैतिक चक्र चलेगा । उसने संसार के सामने यह स्पष्ट कर दिया कि उसने सुदूर पूर्व का मानचित्र बदल दिया है और उसकी यह घोषणा कि चीन और पाश्चात्य शक्तियों का सम्बन्ध उसके नियंत्रण में होना चाहिए, निरी घोषणा नहीं है । सन् १६२२ से संयुक्तराज्य और योरप के राज्य यह नीति बर्तते आ रहे हैं कि चीन पूर्ण स्वाधीन माना जाय, उसका अङ्ग भङ्ग न किया जाय और प्रशान्त महासागर में सबके एक निश्चित सीमा तक जङ्गी जहाज़ रहें ताकि सामूहिक रक्षा की समुचित व्यवस्था बनी रहे । १६२२ से १६३१ तक चीन में गृहयुद्धों के होते हुए भी वाशिंगटन की संधि के अनुसार यह स्थिति बनी रही । परन्तु सितम्बर १६३१ से ऐसी घटनायें होने लगीं जिन्होंने इस सन्धि पर पानी फेर दिया। चीन की पूर्णता जाती रही, उसका अङ्ग भङ्ग शुरू हो गया और उसके साथ ही प्रशान्त महासागर में जङ्गी बेड़ों का वह निश्चित अनुपात भी नहीं रहा । १६३५ की बदली हुई परिस्थिति के लिए नवीन नीति निर्धारित करनी होगी और नवीन सिद्धान्त बनाने पड़ेंगे ।
X
X
X
X
www.umaragyanbhandar.com
Page #612
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५८
सरस्वती
[भाग ३६ ।
चीन को अन्तर्राष्ट्रीय कर्ज़ दिये जाने या अन्तर्राष्ट्रीय आघात न करे और ब्रिटेन इस बात का उसे विश्वास सहयोग से चीन में किसी भी रचनात्मक कार्य के किये दिलावे कि वह उसको कच्चा माल प्राप्त करने में कभी जाने के सम्बन्ध में जापान का प्रसिद्ध पत्र 'असाही' कोई बाधा न उपस्थित करेगा। लिखता है-"जापान का यह मत है कि वह चीन में ब्रिटेन
और अमरीका के साथ बराबरी के दर्जे पर सहयोग नहीं कर सकता। सहयोग के प्रश्न पर जापान तभी विचार भीलों की वर्तमान स्थिति कर सकता है जब ग्रेट ब्रिटेन और अमरीका दोनों चीन अमृतपुरा के भील-आश्रम की ओर से श्रीयत में उसका नेतृत्व स्वीकार कर लें।" जापान अपने परीक्षितलाल मजूमदार और श्रीयत छोटेलाल मोद उद्देश की पूर्ति कैसे करेगा ? चीन और पश्चिम के बीच गांधी के हस्ताक्षर से भीलों के सम्बन्ध में एक में वह मूसलचन्द बनकर कैसे कूदेगा ? चीन में वह ग्रेट- विवरण-पत्रिका प्रकाशित हुई है। उससे भीलों को ब्रिटेन या अमरीका या लीग का हाथ कैसे पकड़ेगा? वर्तमान अवस्था का भली भाँति परिचय मिलता है। जापान चाहता है कि चीन की सरकार इतनी मज़बूत हो उक्त विवरण से एक अंश हम यहाँ उद्धृत करते हैंकि उसे वह सब प्रकार की सुविधायें दे दे. परन्तु इतनी इन जातियों का निवास खास कर पहाड़ी प्रदेश में मज़बूत न हो कि उसके लिए कभी कोई दरवाजा बन्द है । शहर का जीवन इन लोगों को अगम्य है । इनके करे । उसकी वर्तमान नीति यह है कि चीन से अमरीका निवास के लिए पर्याप्त जगह भी नहीं, कहीं कहीं तो सरकार का प्रभाव उठ जाय और उसका स्थान जापान ले ले। इन लोगों से रहने की जगह का किराया भी वसूल करती इसी उद्देश से वह गत तीस वर्षों से कार्य कर रहा है। है। उच्च जातियों के ग्रामों में ये लोग ग्राम के चारों x x x x
पोर किले के समान बसते हैं। ग्राम के आस-पास गंदगी, समस्या इस प्रकार है । जापान की वर्तमान नीति कीचड़ तथा पानी भर जाने से जहाँ मच्छरों की और चीन में उसका वर्तमान हाथ ब्रिटिश व्यापार और भरमार हो, जहाँ लोग झाड़ा-जंगल फिरते हों, ऐसी गंदी चीन में लगी ब्रिटिश पूँजी के लिए भारी खतरा है। जगह में इनका निवास है । झोपड़ियाँ एक दूसरे से बहुत x x x यदि यह समस्या यों ही बनी रही तो ब्रिटिश दूर दूर बाँधते हैं । समुदाय-रूप में रहना इनको पसन्द नहीं साम्राज्य और जापान में आगामी तीस वर्षों के भीतर है। स्वतन्त्रताप्रिय होने के कारण ये लोग पहाड़ों में संघर्ष हो सकता है । ब्रिटिश साम्राज्य के कच्चे माल के रहना पसन्द करते हैं। उद्गम-स्थान-मलाया, बोर्नियो, आस्ट्रलिया और जावा इन लोगों को जंगल में रहते हुए भी झोपड़ी बाँधने जापान के मार्ग में पड़ते हैं। इनकी रक्षा ब्रिटेन की के लिए बाँस आदि सामान भी दुर्लभ है। इनके झोपड़े जहाज़ी शक्ति पर ही निर्भर है । और जापान को कच्चे टूटे-फूटे बाँस, फूस तथा ताड़ के पत्तों से बने होते हैं ।
की कितनी भख है. यह स्पष्ट है। कठिनाइयाँ और इस समय जहाँ कि लोग घर बनाने में लोहा तथा सीमेंट खतरे बहुत बड़े हैं । अमरीका की यह नीति जान पड़ती है का उपयोग कर रहे हैं, वहाँ इनको फूस भी नसीब कि वह पश्चिमी प्रशान्त महासागर से हट जाना चाहता नहीं होता। है। दस वर्ष में वह फ़िलीपाइन को स्वाधीन करके चला इनकी झोपड़ियों का दरवाज़ा इतना छोटा होता है जायगा । ब्रिटेन की जङ्गी नीति क्या होगी, इससे हमें काई कि बिना सिर झुकाये अन्दर नहीं घुस सकते। इतनो बहस नहीं, परन्तु आर्थिक प्रश्नों के सम्बन्ध में ब्रिटेन और नीची तङ्ग तथा छोटी झोपड़ी में ही इनके ढोर, बालजापान की पारस्परिक ग़लतफ़हमी दूर की जा सकती बच्चे, बकरे, बकरियाँ, मुर्गे और एक-दो कुत्ते साथ ही है । वह इस तरह कि जापान चीन में ब्रिटेन के हितों पर साथ रहते हैं। इतनी तंग, गंदी तथा छोटी झोपड़ी में
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #613
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
सामयिक साहित्य
५५९
रहते हुए भी मानो प्रभु ने इन्हें अत्यधिक सुखी बनाया खाकर मज़बूत रहते हो, परन्तु हम क्या खाकर मेहनत हो । इनको न सुख न दुख ।
मज़दूरी करें ? हमारा मिष्टान्न, मेथीपाक जो गिनो, मुर्गी, ___इस प्रजा को वस्त्र पहनते हुए भी यदि नग्न ही मछली, बकरा ही हैं। कहा जाय तो भी अत्युक्ति नहीं। सर्दी, गर्मी और बरसात अनाज में जुार का रोटला मुख्य भोजन है । भात इस शरीर पर ही सहन करनी पड़ती है । प्रजा अाकाश बहुत कम मात्रा में खाते हैं। अतिथि-सत्कार या पर्व,
और ज़मीन के सहारे दिन पूरा करती है । पृथ्वी शय्या त्योहार पर भात को ही मिष्टान्न और इसी में ही आनन्द तथा अाकाश परिधान है।
तथा अादर मानते हैं। दैनिक भोजन में जुयार और ___पहाड़ी प्रदेश में रहती हुई यह प्रजा सिर्फ एक लँगोटी मकई ही मुख्य हैं। गेहूँ का ऊँचे आदमियों का खाना ही पहनती है । उच्च वर्ण के सहयोग से इस जाति ने कपड़ा समझते हैं। पहनना सीखा है। परन्तु कपड़ों के लिए भी साधन नहीं खाने, पीने तथा अन्य आवश्यक सभी बर्तन मिट्टी हैं । स्त्रियाँ एक कापडु (चोली), घाँघरा और एक अोढ़नी के ही होते हैं । यदि कभी मेहनत-मजदूरी कर पैसा बचा पहनती हैं। घाँघरा पहनने का दंग ऐसा है कि घाँघरा और धातु के पात्र ले भी आये तो दारू के व्यसन में लम्बा-चौड़ा होते हुए भी ये स्त्रियाँ अर्धनग्न मालूम पड़ती उसको कलाल के यहाँ गिरवी रख पाते हैं। हैं। स्त्रियाँ घाँघरा को धोती की तरह घुटने से ऊपर घर में यदि कोई बीमारी फैले तो दवा नहीं करते, ऊपर ही पहनती हैं। इस प्रकार कपड़े के उपयोग से भी परन्तु मूठ, भूत, प्रेत या डाकिनी का उपद्रव मानते हैं । यह प्रजा अनभिज्ञ है।
माता के नाम पर मुर्गी, बकरा, बकरी, भैंसे की बलि दी ___ खास कर स्त्रियाँ आभूषणों की शौकीन हैं । गले में जाती है । बीमार श्रादमी अच्छा होने पर माता को बलि काच के मनके, कौड़ियाँ और सीपियों का हार विविध चढ़ाता है और नैवेद्य के रूप में दारू चढ़ाकर पी जाते प्रकार का पहनती हैं। हाथ में पीतल के मोटे मोटे दो हैं। इस अज्ञानता से पाखण्डी, धूर्त लोग खूब लाभ कङ्गन, कहीं कहीं हाथ में एक एक और कहीं कहीं उठाते हैं और बहुत-से बीमार अकाल मौत से ही मर सारी बाँह में मोटे मोटे कङ्कन मारवाड़ियों की तरह जाते हैं। पहनती हैं।
यदि आप किसी भील से पूछिए कि तुम कौन हो___ दुर्भाग्य से ही कोई दुर्व्यसन ऐसा न होगा जिसने हिन्दू हो या मुसलमान तो जवाब मिलेगा कि मैं तो इस जाति में घर न किया हो। दारू-ताड़ी में चूर रहना भील हूँ या नायक इत्यादि। यह उत्तर इनकी धार्मिक इनका नैतिक कर्म है। इस दुर्व्यसन ने इस वीर जाति अज्ञानता का परिचायक है। का नाश किया है। इसको घर-बार तथा ज़मीन-जागीर भील स्त्री-पुरुष बहुत प्रेमपूर्वक रहते हैं। अानन्द से से रहित कर दिया है। साथ ही वैयक्तिक गुलामी के दिन व्यतीत करते हैं। पर गाँव जाते समय काम या शिकंजे में जकड़ दिया है।
मेहनत-मज़दूरी के समय दोनों साथ ही जायँगे। गृह-कार्य __ इनका बूमला (सूखी मछलियाँ), मुर्गे, बकरे, अण्डे भी दोनों साथ मिल कर करेंगे। यह रवाज प्रशंसनीय और मांस ही भोजन है।
है । अाज-कल जितना प्रेम पढ़े-लिखों में देखने में नहीं त्योहार, मरण, पर्व आदि प्रसंगों पर पाड़ा आता उससे अधिक प्रेम भील स्त्री-पुरुषों में दिखाई और भैंस के मांस का प्रयोग करते हैं। विवाह, अतिथि- देता है। सत्कार सब मांस और दारू से ही करते हैं।
भीलों में तलाक का बहुत रवाज है। विवाह होने पर जब भील स्त्री-पुरुषों से पूछिए कि मांस क्यों खाते यदि स्त्री की आदमी से न पटे तो स्त्री अमुक रकम हो तब जवाब मिलेगा कि तुम तो घी, दूध, शाक-भाजी आदमी को देकर दूसरा पति कर सकती है। इसी प्रकार
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #614
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६०
सरस्वती
भाग ३६
पुरुष भी स्वतन्त्र है । इस प्रकार भील स्त्री-पुरुष स्वतन्त्र भीलों का सर्वस्व गया, गुलामी की जंजीरों में जकड़े जीवन व्यतीत करते हैं।
गये । इसका मुख्य कारण निरक्षरता ही है । भीलों की कमाई विवाह की प्रथा हिन्दुत्रों-जैसी है। विवाह में वेदी से अाज शिक्षितवर्ग आमोद-प्रमोद, भोग-विलासितामय का रवाज नहीं था, परन्तु अब अाश्रम के प्रचार से यह जीवन व्यतीत कर रहा है। इस शिक्षा के ज़माने में भी प्रथा बदलती जा रही है। पहले वेदी से लग्न कराने पर भी जंगल में रहनेवाले भील अक्षरज्ञानशून्य हैं। कहीं कहीं ब्राह्म णविधि नहीं कराते थे। ग्राम के मुखिया लोग ही सरकारी स्कूल या मिशन की ओर से चलते स्कूलों लग्न कराते थे। विवाह का दिन याद रखने के लिए एक में बिरले ही भीलों के लड़के दो-तीन चौपड़ी पढ़ें, परन्तु रस्से में बहुत-सी गाँठे मारते हैं और प्रतिदिन एक एक घर आकर यह भी सब भूल जाते हैं । भीलों की निरक्षरता गाँठ खोलते जाते हैं । जब गाँठ शेष रहे तब वर-पक्ष बरात के कारण ही शिक्षितवर्ग भीलों को ठग लेता है और ले कन्या के घर पहुँचता है। खास कर विवाह प्रातःकाल भील ठगाये जाते हैं। ही होता है। कन्या-पक्ष के आदमी वर को कन्धे पर उठा लेते हैं और वर-पक्ष के श्रादमी कन्या को कन्धे पर उठा भारत के भिन्न भिन्न प्रान्तों में पिछड़ी क़ौमों लेते हैं। कन्या वर पर तथा वर कन्या पर चावल फेंकता
__ की जन-संख्या है। अब भी वर विवाह के समय हाथ में हाल तथा गोंड (मध्यप्रांत, मध्यहिन्द, बिहार, उड़ीसा) २६,०२,५६२ तलवार रखता है। इस प्रकार नाच-गान के साथ विवाह संथाल (मध्यहिन्द, बिहार, उड़ीसा, मदरास) २२,६५,२६५ होता है। परन्तु अब वैदिक धर्म के प्रचार से इसमें
भील (बंबई-प्रान्त, मध्यप्रांत । परिवर्तन होता जा रहा है।
'। बड़ोदा, राजपूताना) १७,६५,८०८ ___ भीलों का मानसिक स्वभाव बालकों-जैसा होता है। घड़ी कांबी (कुर्ग, मदरास, मैसूर, हैदराबाद) ८,५५,२७६ भर में भावना से खुश और घड़ी भर में नाखुश । बालक ओरांत्रो (बिहार, उड़ीसा, आसाम, मध्यप्रांत) ७,६५,६८० जिस प्रकार अपने सामान की बेदरकारी रखते हैं, इसी
वणझारा ।
। बंबई-प्रान्त, मध्य-प्रांत, ।, प्रकार भीलों का अपनी वस्तुओं के भूल जाने का "। पंजाब, हैदराबाद, मैसूर)। ६,५१,६७२ स्वभाव होता है। अनेक बार ठगे जाने पर भील बार बार मुंडा (बिहार, उड़ीसा, बंगाल, आसाम) ५,६३,८३६ ठगा जायगा। थोड़ा-सा आदर दीजिए कि सब वैर भूल शवर (बिहार, उड़ीसा, मदरास, मध्यहिन्द) ४,७५,८६८ जायगा । मांसाहार के कारण स्वभाव तेज़ चिड़चिड़ा होता हो (बिहार, उड़ीसा)
४,४०,१७४ है। थोड़ी थोड़ी बात में गरम हो जाते हैं। दूसरों को नाग (आसाम)
२,२०,६१६ नुकसान करने की आदत नहीं । भूखा भले ही कपास तथा कचारी
२,०७,२६६ अनाज आदि की चोरी कर ले, परन्तु किसी का घरबार
कुल १,११,७३,२७४ लूट किसी को पायमाल करना नहीं चाहता । देनदारी
नायक, गामीत, बावचा, बावला, थोड़ी भी यदि हो तो बहुत दुखी रहता है। देनदारी ।
चोधरा, राठवा, राठोडीश्रा, तलावीया, को ही भय या दुःख मानता है। अन्य किसी भी बात से । डरता नहीं। सिर्फ़ क़र्ज़ और साहूकार से ही डरता है।
दुबला, धाणका, किरात, कुकण, बगेरे
सब लगभग विवाह आदि प्रसंग पर थोड़ी-सी रकम उधार ले उसके
५०,००,००० अदा करने के लिए आजीवन गुलामी करते हैं । भीलों
कुल १,६१,७३,२७४ को इस प्रकार के भयंकर महादुःखसागर से पार करने की हर एक का पवित्र फ़र्ज़ है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #615
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
सामयिक साहित्य
५६१
गरीब श्रमजीवी
बम्बई जैसे शहर में कैसे गुज़ारा करता होगा, यह एक मजदूरों की आर्थिक स्थिति कहाँ तक बिगड़ गई विचारणीय प्रश्न है। है, इसका अनुमान बम्बई-सरकार के 'श्रमकार्यालय' किसानों के समान मज़दूर भी ऋण के भारी बोझ से की एक रिपोर्ट से भले प्रकार विदित होता है। 'नवयुग' लदे हुए हैं । ७४ ७४ प्रतिशत मज़दूर कर्जदार हैं। पठानों व उसका विवरण अपने अग्रलेख में इस प्रकार देता है- मारवाड़ी साहूकारों को वे १८॥ प्रतिशत से १५० रुपया
बम्बई-सरकार के श्रमकार्यालय की ओर से बम्बई के प्रतिशत सूद दे रहे हैं । औसतन सूद की मात्रा ७५ प्रतिशत १४६६ मज़दूर-परिवारों की जाँच की गई थी। यह जाँच है। बारह पाना महीना प्रतिशत देना पड़ता है। साल में मई १९३२ से जून १६३३ तक की गई थी। उसकी १५५ रुपया सूद में प्रति परिवार को देना पड़ता है। रिपोर्ट भयंकर है। इसको पढ़कर विश्वास नहीं होता कि सोचिए कि ६०० रुपया सालाना आमदनी में से २५६ रुपया बम्बई के मज़दूर इस अवस्था में किस प्रकार अपना जीवन जिस परिवार के घर का भाड़ा देने और सूद देने में चले बिता रहे हैं।
जाते हैं उसके पास खाने और पहनने के लिए क्या बचा रिपोर्ट से मालूम होता है कि ७४.७४ प्रतिशत परि- रहता होगा ? मजदूरों को मिल में प्रतिदिन कम-से-कम वार एक कोठरी में गजारा कर रहे हैं। कई जगह एक ६-१० घंटे खड़े खड़े काम करना पड़ता है। इस कडे काम कोठरी में तो दो दो परिवार तक रह रहे हैं । दो कोठरियों में उनकी जो जीवन-शक्ति खर्च होती है उसकी भरपाई के में रहनेवाले परिवारों की संख्या २५ प्रतिशत है। इन लिए उन्हें पर्याप्त और पौष्टिक भोजन की दरकार है। मगर पिंजरों में मानव-जीवन रह सकता है, यह एक आश्चर्य २८-२६ रुपया मासिक आमदनीवाला परिवार घी, दूध कैसे की बात क्या नहीं है ? इन पिंजरों में रहनेवाले यदि खा सकता है। यदि इस अवस्था में उनकी जीवन-शक्ति अकाल में काल के ग्रास हों या रोग के जीवन भर के लिए क्षीण हो रही है, कार्य क्षमता घट रही है, तो यह
र हों या जीवन में ही बूढ़े हो जायँ और हताश होकर स्वाभाविक है। अपने गाँवों को लौट जायँ तो इसमें अाश्चर्य क्या है ? यदि मिल-मालिक चाहते हैं कि भारतीय मज़दूर __ प्रति परिवार में ३.०७० श्रादमी हैं | एक परिवार की योरपीय मज़दूरों के समान कार्यक्षम हों तो उनका फर्ज़ है आमदनी ५० रुपया है। प्रत्येक व्यक्ति की मासिक आमदनी कि वे मज़दूरों की अवस्था उन्नत बनावें, उनकी ज़रूरियात बारह रुपया हुआ है। प्रति परिवार का मासिक खर्च ४५ को पूरा करें और उनके प्रतिकूल वातावरण पैदा करें। रुपया १५ आना ह पाई है । बमुश्किल पांच रुपया उनके मिल-मालिक और पूँजीपति मज़दूरों की उपेक्षा करके अपना पास बचता है। मगर यह रिपोर्ट दो साल पहले की है। रोज़गार ही नहीं बिगाड़ रहे हैं, बल्कि अपनी मौत को भी अब मज़दूरों का पगार कम हो गया है, स्थिति पहले से निमन्त्रण दे रहे हैं । भी बदतर हो गई है, इसलिए कल्पना की जा सकती है कि मज़दूर किस प्रकार आज-कल गुज़ारा करते होंगे।
मसोलिनी के व्यङ्गय चित्र ___ एक मज़दूर परिवार की आमदनी का औसतन १२.८१ योरप में इधर मुसोलिनी की सबसे अधिक चर्चा हो प्रतिशत कोठरी के किराये में जाता है। जिन मज़दूरों की रही है। सभ्यता के प्रचार के नाम पर वह अबीसीनिया
आमदनी कम है उनकी आमदनी का १७ प्रतिशत घर के की स्वाधीनता का अपहरण करने के लिए इटली को कहाँ किराये में चला जाता है । हाँ, जिनकी आमदनी कुछ लिये जा रहा है, यह तो आनेवाला समय बतावेगा, पर ज्यादा है उनकी आमदनी का कमरे के भाड़े में १०.१६ वर्तमान समय में उसका स्वरूप क्या है, यह योरप के समाप्रतिशत जाता है। जो भाड़े में ही लगभग ७ रुपया खर्च हो चारपत्रों में प्रकाशित होनेवाले व्यङ्गय-चित्रों से स्पष्ट हो जाते हैं। तब ४ आदमियों का एक परिवार ४३ रुपया में जाता है। ऐसे बहुत-से व्यङ्गय-चित्रों का संकलन लन्दन
फा० ११
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #616
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६२
सरस्वती
[भाग ३६
से प्रकाशित होनेवाले 'रिव्यू ग्राफ़ रिव्यूज़' ने किया है। उसी से लेकर यहाँ हम चार चित्र उद्धृत करते हैं ।
SH
"
RAL
PLXiy
1
+
ma
4A
DActual
[मुसोलिनी रूमी जाग्रत ज्वालामुग्वी।
[सभ्यता या विनाश का नृत्य ।।
[अबीसीनिया में सभ्यता का प्रचार ।]
["परन्तु प्रिये, मैं तुम्हें सभ्य बनाना चाहता हूँ"।]
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #617
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
सामयिक साहित्य
५६३
कविवर हाली की जयन्ती ध्येय की पूर्ति का कोई न कोई उपाय कर ही लेता है।
अल्ताफ़ के ससुरालवाले सम्पन्न थे। इससे उसने लाभ गत २६ आक्टोबर को उर्दू के प्रसिद्ध कवि हाली उठाया और अपनी स्त्री को बहाने-बहाने उसके नैहर भेज की जयन्ती उनकी जन्मभूमि पानीपत में बड़ी धूमधाम श्राप चुपचाप दिल्ली के लिए भाग खड़ा हुआ। से मनाई गई। उस तारीख को हाली को जन्म लिये दिल्ली में अल्ताफ़ ने उच्च कोटि के अरबी और फ़ारसी १०० वर्ष हो गये। उसके सम्बन्ध में दैनिक भारत' के साहित्य का अध्ययन शुरू किया । इन्हीं दिनों में एक लेख छपा है। उसका एक ज्ञातव्य अंश इस ग़ालिब का नाम उर्द-साहित्य में रोशन हो रहा था। प्रकार है
अल्ताफ़ को लिखने-पढ़ने का शौक था ही, उसने आज-ता० २६ अक्टूबर से ठीक एक सौ वर्ष ग़ालिब के पास आना-जाना शुरू किया और उनसे उर्दूपहले (सन् १८३५ ई० में) ख्वाजा ईजादबख्श नाम के शायरी का ज्ञान प्राप्त कर उन्हें अपना काव्य-गुरु बनाया। एक मुसलिम गृहस्थ के परिवार में एक बालक ने जन्म गालिब की कपाधि हाली पर विशेष रूप से रहती लिया। किसे पता था कि यही बालक आगे चलकर थी और हाली ने भी अपनी प्रतिभा के ज़ोर से उर्दूअपनी जन्मभूमि की तरह उर्दू-साहित्य और विशेषकर कविता का प्रवाह ही बदल दिया। उर्दू-काव्य में एक नवीन युग लावेगा और सदैव के लिए हाली की कविता में सबसे बड़ी विशेषता यह थी
अमर कर जायगा। इस बालक का नाम कि उनकी भाषा सरल और उनके भाव सुबोध होते थे। अल्ताफ़ हुसेन रक्खा गया ।
भाषा और भाव का निकट से निकट सम्बन्ध ग़ालिब बालक अल्ताफ़ का एक प्रकार से अपने माता-पिता की कविता की खासियत थी । हाली की कविता में भी ये के लाड़-प्यार से वंचित ही रहना पड़ा। जिस समय वह गुण मौजूद दिखलाई देते हैं। ७-८ वर्ष का ही था उसके पिता स्वर्ग का सिधार गये। अस्तु, दिल्ली में इनकी शिक्षा समाप्त भी न होने पाई माता का दिमाग़ पहले ही से ठीक नहीं रहता था। थी कि घरवाले इन्हें खोजते हुए दिल्ली पहुँचे और इन्हें
पिता की उसकी छोटी अवस्था में मृत्यु और वापस घर पकड़ ले गये। माता का पागलपन-इन दोनों का फल यह हुआ कि ये किस्मत के उलट-फेर देख ही रहे थे कि इसी बालक अल्ताफ़ हुसेन को प्रारम्भिक शिक्षा भी उचित समय सन् १८५७ का ग़दर छिड़ गया और कई साल तक रीति से नहीं मिली । साधारण मुसलिम बालकों की तरह इन्हें बेकार घर बैठना पड़ा। बाद में ये दिल्ली के एंग्लो वह भी एक मकतब में बैठा दिया गया और वहाँ उसकी अरबिक स्कूल में शिक्षक हो गये। उन्हीं दिनों हैदराबाद शिक्षा का श्री गणेश 'कुरान' रटाकर किया गया। थोड़ी के प्रधान मंत्री उक्त स्कूल को देखने श्राये। उन्होंने सी अरबी और फ़ारसी भी उसे पढ़ाई गई, किन्तु उतनी ही अरबी, फ़ारसी और उर्दू के विद्वानों, कवियों और लेखकों जितनी कि एक सामान्य से सामान्य मुसलिम को कुरान को कुछ छात्रवृत्तियाँ दीं। ७५) मासिक की एक छात्रवृत्ति श्रादि पढ़ लेने के लिए काफ़ी समझी जाती है। हाली को भी मिली। पीछे वह बढ़ाकर १००) तक कर दी
अल्ताफ़ होनहार बालक था। उसे विद्या प्राप्त करने गई जो अन्त समय तक उनको मिलती रही। का शौक था । वह चाहता था कि अधिक से अधिक उस समय तक उर्दू के कवि काफ़िये और रदीफ़ शिक्षा प्राप्त करे, पर उसके सम्बन्धी कुछ और ही खयाल के ही चक्कर में पड़े थे। क्रमबद्ध कविता करने की किसी में थे। उन्होंने १७ वर्ष की आयु में ही अल्ताफ़ की शादी की रुचि न थी। कहते हैं, कर्नल हाल राइड ने उस समय कर दी। शिक्षा-प्राप्ति में बाधा पड़ने लगी। लाहौर में एक कवि-सभा स्थापित की और उसमें समस्या
पर जिसे जिस बात की सच्ची लगन होती है वह अपने पूर्ति के बदले निर्धारित विषय पर कवितायें पढ़ा जाना
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #618
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६४
सरस्वती
शुरू हुआ। हाली भी उसमें शरीक हो गये और इन्होंने का अद्भुत परिचय दिया है । 'मुसद्दस' को देखकर उर्दू-कविता का रूप ही पलट दिया । सर सैयद ने उसकी और उसके साथ हाली की बड़ी तारीफ़ की थी। लिखा था - " किस सफ़ाई से यह नज़्म तहरीर हुई है, बयान से बाहर है। जब ख़ुदा पूछेगा कि तू क्या लाया तो कहूँगा कि हाली से 'मुसद्दस' लिखवाकर लाया हूँ ।"
सर सैयद अहमद खाँ ने अलीगढ़ में मुस्लिम ऍग्लो ओरियंटल कालेज की स्थापना कर दी थी। यही कालेज आज मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में दिखलाई दे रहा है । हाली सर सैयद की मुसलमानों को शिक्षा देने की स्कीम का पूर्ण रूप से समर्थन करते थे ।
उस समय मुस्लिमों में शिक्षा की कमी के कारण उनके कट्टरपंथी लोग शिक्षा के विरोधी थे। उनका कहना था कि पश्चिमी शिक्षा और विज्ञान इस्लाम के शत्रु हैं । इस मनोवृत्ति को मुस्लिमों से दूर करने में सर सैयद को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था । हाली ने सर सैयद को इस सम्बन्ध में बड़ी सहायता पहुँचाई । अपने लेखों, कविताओं, व्याख्यानों श्रादि से हाली ने सर सैयद के शिक्षा-प्रचार के आन्दोलन के सम्बन्ध में फैली हुई ग़लतफ़हमियों को बहुत कुछ दूर कर दिया, फिर भी कट्टरपन्थी मुसलमान सर सैयद को उनकी इस चेष्टा के लिए 'काफ़िर' तक कहा करते थे और हाली को भी उनके साथी होने के कारण अनेक बार कष्ट उठाने पड़े ।
कहा जाता है कि एक बार हाली संयुक्त प्रान्त के एक जज के यहाँ से लौट रहे थे । अलीगढ़ वापस लौटते समय उन्होंने एक गाड़ी किराये की । योरपीय ढंग से रहनेवाले जज के यहाँ हालाँ कि जज मुसलमान ही थे, कुछ दिन रहने के कारण ही उस मुसलमान गाड़ीवाले ने हाली के हाथ से पानी लेना तक पसन्द न किया । वह उन्हें क़ाफ़िर समझने लगा था। हाली का कई बार इसी तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ा था ।
सर सैयद की सम्मति से हाली ने अपना सुप्रसिद्ध 'मुसद्दस' लिखा। इस 'मुसद्दस' ने सच पूछो तो हाली को अमर किया । इसके लिखने में हाली ने अपनी प्रतिभा
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
'मुसद्दस' के प्रकाशित होने पर लोगों में एक जीव लहर - सी उठी । हाली ने उसका कापी राइट अपने हाथों सुरक्षित नहीं रक्खा, बल्कि उसे सर्वसाधारण के समर्पण कर दिया। जिसे इच्छा हो वही उसे प्रकाशित करा सकता था । लाखों की संख्या में उसकी खपत हुई । आज भी उसकी अच्छी खपत है 1
'मुसद्दस' में इस्लाम के प्राचीन गौरव तथा वर्तमान पतन का सजीव वर्णन करके मुसलमानों को जाग्रत करने की चेष्टा की गई है। हिन्दी के प्रसिद्ध राष्ट्रीय कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त को अपना प्रसिद्ध काव्य-ग्रन्थ 'भारतभारती' लिखने की प्रेरणा हाली के 'मुसद्दस' से ही मिली थी। जिस प्रकार गुप्त जी हिन्दी तथा हिन्दुओं के राष्ट्रीय कवि हैं, उसी प्रकार हाली उर्दू तथा मुसलमानों राष्ट्रीय कवि थे । उर्दू काव्य में तो वे एक नवीन रंग के प्रवर्तक ही कहे जा सकते हैं ।
हाली ने अनेक पुस्तकें लिखीं । 'शेर और शायरी' नामक पुस्तक इन्होंने गद्य में लिखी और उसके द्वारा उर्दू-कविता में सुधार के उपाय बतलाये । 'हयाते जावेद' नाम से हाली ने सर सैयद का जीवनचरित लिखा । शेख सादी और हकीम नासिर खुसरो की जीवनियाँ लिखीं। 'मुनाजाते बेवा' का तो कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इनकी रुबाइयों का अनुवाद अँगरेज़ी में हुआ है । इनकी कवितायें और निबन्ध कई विश्वविद्यालयों की पाठ्य-पुस्तको में स्थान पाये हुए हैं ।
।
www.umaragyanbhandar.com
Page #619
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादकाय नोट
ARCana
योरप और अगला महायुद्ध है। यदि उसकी यह कार्रवाई कारगर सिद्ध हुई तो
मारप के राष्ट्र निःशस्त्रीकरण के मानना पड़ेगा कि योरप शान्ति का इच्छुक है, नहीं तो A NSI सिद्धान्त का पालन जब नहीं उसका युद्ध का मार्ग खुला है-चाहे अाज हो, चाहे
कर सके तब जर्मनी ने हर कल हो । हिटलर के नेतृत्व में वसलीज़ के सन्धि पत्र को मानने से
इटली और वीसीनिया SHE इनकार कर दिया और स्वदेश जैसा कि समझा जाता था अबीसीनिया इटली का
2 की सुरक्षा की दृष्टि से अपना सामना नहीं कर सका। इटली की सेनाओं के आगे सैन्यबल बढ़ाने की घोषणा कर दी। फलतः जर्मनी ने अपनी उसकी सेनाये बराबर पीछे हटती जा रही हैं और इटली सेनायें बढ़ा ली हैं और सामरिक दृष्टि से वह दिन दिन उसके विजित प्रदेश पर अपना अधिकार कायम करता अधिकाधिक सबल होता जाता है। जर्मन के इस मनो- हुआ बराबर आगे बढ़ता जा रहा है। इटली ने यद्यपि भाव का अन्य राष्ट्रों पर काफ़ी प्रभाव पड़ा, यहाँ तक कि अबीसीनिया पर दो तरफ़ से आक्रमण किया है, तथापि जो ब्रिटेन निःशस्त्रीकरण के अान्दोलन का पुरस्कर्ता होने उसका ज़ोर अभी इरीट्रिया की ओर ही है। इटालियन के कारण अपना सैनिक बल बढ़ाने के काम से अभी तक सोमालीलेंड की ओर से उमकी जो सेनायें अबीसीनिया के बराबर विरत रहा उसने भी इस बात को लेकर अपनी प्रोगेडन प्रदेश में घुसी हुई हैं वे अभी धीरे धीरे ही आगे पार्लियामेंट का नया चुनाव किया। इससे प्रकट होता बढ़ रही हैं। परन्तु इरोट्रिया की अोर से उसकी जो है कि अब ब्रिटेन भी आत्मरक्षा के नाम से युद्धसज्जा सेनायें अबीसीनिया में घुसी हैं वे बहुत आगे बढ़ गई हैं करेगा। और इसका एक मतलब यह है कि योरप के और उन्होंने अबीसीनिया का एक भाग भी अपने अधिसभी राष्ट्र अपना सैनिक बल बढ़ा चुके हैं और जो अभी कार में कर लिया है। इटली की इस विजय का श्रेय तक इस बात से उदासीन थे वे भी अब उसे बढ़ाने लगे उसके वायुयानों को है। वायुयानों की बमवर्षा के भय हैं। अभी उस दिन आस्ट्रिया की सरकार के अधिकारी से अबीसीनिया की सेना इटली की सेना से डटकर लड़ ने भी आस्ट्रिया का सैन्यबल बढ़ाने की घोषणा कर दी नहीं रही है, और यदि यही क्रम जारी रहा तो आश्चर्य है। इस प्रकार योरप के राष्ट्र शान्ति के मार्ग की अोर नहीं कि इटली का अबीसीनिया की राजधानी अदिस नहीं, युद्ध के मार्ग की ओर बढ़ रहे हैं । राष्ट्र संघ ब्रिटेन और अबाबा पर भी एक दिन झंडा फहराने लगेगा । आधुनिक फ्रांस के प्रभाव में रहकर काम करता है, इससे राष्ट्रों ने ढंग के शस्त्रास्त्रों से सज्जित तथा शिक्षित सेना के लिए अपने अपने अलग गुट बना लिये हैं। इन गुटों का अबीसीनिया जैसे अर्द्धसभ्य राष्ट्र को आसानी से पददलित प्रभाव भी बढ़ गया है । यदि ऐसा न होता, राष्ट्र-संघ कर डालना कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी और वही सबके सहयोग से काफ़ी बलवान् होता, तो आज इटली अबीसीनिया की रणभूमि में इस समय हो रहा है । को अबोसीनिया पर इस प्रकार अन्यायपूर्वक आक्रमण इटली की अबीसीनिया के विजय करने की महत्त्वाकर बैठने का साहस न होता। ब्रिटेन की प्रेरणा से राष्ट्र- कांक्षा के मार्ग में विघ्न डालने का जो प्रयत्न ब्रिटेन की ओर संघ ने इटली के आर्थिक बायकाट की घोषणा कर दी से हुआ था वह राष्ट्र-संघ की कानूनी दाँव-पेंच की नीति
५६५
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #620
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६६
सरस्वती
[भाग ६६
रहेगी
मस्या
के कारण विफल हो गया और अब तो यही प्रकट हो रहा वह चीन को अपने राजनैतिक प्रभाव' के अन्तर्गत है कि इस सम्बन्ध में राष्ट्र-संघ आर्थिक बायकाट करने मानता है। परन्तु कदाचित् चीन या पाश्चात्य राष्ट्रों को के सिवा और कुछ नहीं करेगा। और आर्थिक बायकाट जापान का यह दावा मान्य नहीं है और चीन के सौभाग्य का इटली पर जैसा चाहिए वैसा प्रभाव भी नहीं पड़ेगा, या दुर्भाग्य से ब्रिटेन उसकी आर्थिक अवस्था का सुधार क्योंकि आस्ट्रिया, हंगरी, पुर्तगाल के सिवा उसे अमरीका करने में विशेष यत्नवान् दिखाई दे रहा है। इसमें सन्देह के संयुक्त-राज्यों का भी एक तरह का सहयोग प्राप्त रहेगा। नहीं है कि यदि चीन की आर्थिक अवस्था राह पर आ ऐसी दशा में राष्ट्र-संघ की बायकाट-सम्बन्धी ढुलमुल जायगी तो उसकी बाहर भी साख बढ़ जायगी और उसे नीति अन्त में निरर्थक ही सिद्ध होगी, क्योंकि इटली इस राष्ट्रोद्धार के भिन्न भिन्न कार्यों के लिए आवश्यक ऋण परिस्थिति का सामना करने के लिए पहले से ही काफ़ी भी मिल सकेगा। परन्तु यह सब होने कैसे पावेगा ? तैयारी कर चुका है, इसके सिवा आगे भी उसको अपने राष्ट्रीय सरकार की उन्नति के मार्ग में बाधाओं का मित्र राष्ट्रों से बहुत कुछ अावश्यक सहायता मिलती ही अभाव नहीं है । अभी उस दिन शंघाई में जापान का
राष्ट-संघ की इस नीति का वास्तव में इटली पर एक अधिकारी मार डाला गया है. जिससे नाराज़ होकर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और वह अबीसीनिया को सम्यक- जापान ने अपना एक जंगी जहाज़ शंघाई भेजकर राष्ट्रीय रूप से पददलित कर निकट भविष्य में स्वाधिकारमुक्त सरकार से उस घटना के सम्बन्ध में जवाब तलब किया कर लेने में अधिकांश में सफल-मनोरथ होगा। है । इसके सिवा उसकी यह शिकायत एक ज़माने से
बनी हुई है कि चीन में जापान के विरुद्ध बराबर आन्दोलन चीन की समस्या
होता रहता है। यही कारण है उसने अभी हाल में ब्रिटेन चीन की आर्थिक अवस्था सुधारने के लिए ब्रिटेन के चीन को अन्तर्राष्ट्रीय ऋण देने के प्रस्ताव को अस्वीकार ने सर फ्रेडरिक लीथ-रास नाम के एक अर्थविशेषज्ञ को कर दिया है। यही नहीं, उत्तरी चीन के पाँच प्रान्तों का चीन भेजा है । ये वहाँ की राष्ट्रीय सरकार के आय-व्यय एक अलग संघ बना देने का उसने एक सफल षड्यंत्र के बजट, चलन सिक्के तथा विनिमय आदि को व्यवस्थित रच डाला है। प्रबल जापान के ऐसे मनोभाव के रहते करने में चीन की सरकार को परामर्श दे रहे हैं, साथ ही चीन की राष्ट्रीय सरकार अपने पैरों खड़ी होने में कहाँ तक तत्सम्बन्धी योजनाओं को कार्य में परिणत करने में भी सफल-मनोरथ होगी, इस सम्बन्ध में उतनी दृढ़ता से सहयोग कर रहे हैं। इन्हीं के परामर्श के अनुसार अभी कुछ कहा नहीं जा सकता है। तथापि इस राष्ट्रीय सरकार ने हाल में एक आर्डीनेंस निकाल कर सिलसिले में वहाँ की सरकार जो प्रयत्न कर रही है उसके चाँदी और चाँदी के सिक्कों की निकासी एक-दम बन्द लिए वह प्रशंसा के योग्य है। कर दी है और लेन-देन के लिए नोट निकालने का भी आयोजन किया है। इसके सिवा वहाँ एक केन्द्रीय बैंक
ग्रेट-ब्रिटेन का नया चुनाव स्थापित करने का भी प्रबन्ध हो रहा है, जिसे नोट ग्रेट-ब्रिटेन का नया चुनाव हो गया और उसकी निकालने का भी अधिकार प्राप्त होगा। यह बैंक राजनैतिक पिछली राष्ट्रीय सरकार की फिर जीत हुई। इस जीत का प्रभाव से स्वतंत्र रह कर अपना कार्य करेगा। परन्तु मतलब यह है कि अनुदारदल के नेता मिस्टर बाल्डविन राष्ट्रीय सरकार की यह सब कार्रवाई जापान को पसन्द की शासन-प्रणाली की विजय हुई या यही बात इस नहीं है। वह नहीं चाहता कि ब्रिटेन या और कोई तरह भी कह सकते हैं कि वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति राष्ट्र चीन की इस प्रकार मदद करे। पाश्चात्य राष्ट्रों की के समय ब्रिटेन की जनता ने मिस्टर बाल्डविन के ही ऐसी सहायता को वह उनका हस्तक्षेप समझता है, क्योंकि कन्धों पर साम्राज्य की हितरक्षा का भार रखना सुरक्षित
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #621
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
सम्पादकीय नोट
५६७
समझा । इसमें सन्देह नहीं है कि राष्ट्रीय सरकार को
ईराक के भारतीय पिछली बार की तरह बहुमत नहीं प्राप्त हुआ, साथ ही महायुद्ध के समय ईराक में जाकर अनेक भारतीय उसके अनन्य समर्थक प्रसिद्ध मज़दूर नेता तथा भूतपूर्व बस गये थे । तब से वे वहाँ रह कर शान्तिपूर्वक तरह प्रधान मंत्री मिस्टर राम्से मैक्डानल इस बार बुरी तरह तरह के उद्योग-धन्धों में लगे रहे हैं । परन्तु कहा जाता चुनाव में हार गये, तथापि मिस्टर बाल्डविन के दल की है, अब वहाँ की सरकार भारतीयों को वहाँ रहने का पूरी जीत रही और इस चुनाव में उनके वैदेशिक मंत्री सर हुक्म नहीं दे रही है। अभी हाल में उसने कुछ भारतीयों सैमुअल होर तो बहुत ही अधिक वोटों से जीते। इससे को निकल जाने का आदेश भी दे दिया है । ईराक की वर्तजान पड़ता है कि ब्रिटेन का लोकमत बाल्डविन की नीति मान सरकार की स्थापना प्रकारान्तर से भारतीय सेनाओं के का समर्थक है । बाल्डविन की सरकार ने इटली और रक्त बहाने पर ही हुई है। नहीं तो अरबों के उस भूभाग अबीसी निया के मामले में राष्ट्र-संघ को जो महत्त्व प्रदान पर तो तुर्को की ही सत्ता स्थापित थी। परन्तु वहाँ की किया है तथा योरप के राष्ट्रों की, विशेषकर जर्मनी की, अरब-सरकार, जान पड़ता है, यह बात भुला देना चाहती सैनिक तैयारी को देखकर आत्मरक्षा के विचार से वह है और जिस ब्रिटिश सरकार की बदौलत आज उसे यह जो अपनी सामरिक तैयारी करना चाहता है उसका इस स्वतन्त्रता का युग नसीब हुअा है उसी के शान्त प्रजाजनों चुनाव से समर्थन ही हुआ है। राष्ट्र का इस तरह बल को वह अपने वहाँ रहने नहीं देना चाहती। प्रसन्नता की पाकर ब्रिटेन भविष्य में इटली और अबीसीनिया के मामले बात है, भारत सरकार का ध्यान ईराक के भारतीयों की में अधिक दृढ़ता दिखावेगा और इस बीच में जर्मनी ने इस परिस्थिति की ओर आकृष्ट किया गया है, और इस नौ-सेना-सम्बन्धी पिछले समझौते की अवहेलना करके सम्बन्ध में वह समुचित कार्रवाई कर रही है। देखना अपना नौ-बल पहले की अपेक्षा दूने के लगभग कर लिया है कि भारतीय ईराक में रहने पाते हैं या उपनिवेशों के है उसकी भी बाल्डविन की सरकार उपेक्षा नहीं कर प्रवासी भारतीय जैसा ही उनके भी साथ व्यवहार होता है । सकेगी। निस्सन्देह योरप की राजनैतिक स्थिति इस समय बहुत अधिक बिगड़ गई है। ऐसी दशा में निःशस्त्रीकरण फिलीराइन-द्वीप की स्वाधीनता
और विश्वशांति के पचड़े में पड़कर ब्रिटेन अपने हाथों संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने फ़िलीपाइन-द्वीपों अपने पैर में कुल्हाड़ी मार लेने की भूल कदापि नहीं को १५ नवम्बर से स्वतन्त्र घोषित कर दिया है और वहाँ करेगा। ब्रिटेन की राष्ट्रीय सरकार राष्ट्र संघ का पाया के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति एम० एल० कूँजन ने स्वाधीन मज़बूत बनाये रखने में दृढ़ता तो दिखायेगी ही, साथ ही फ़िलीपाइन का शासन-भार अपने ऊपर ले लिया है। इस साम्राज्य की रक्षा के विचार से वह अपना सामरिक बल प्रकार इन द्वीपों के निवासियों की स्वाधीनता की माँग अप टु-डेट ले आने की समुचित व्यवस्था भी करेगी। इसमें आखिर में पूरी हो गई । जब से यहाँ के शासन की सन्देह नहीं है कि ब्रिटेन की इस दृढ़ नीति का योरप की बागडोर स्पेन के हाथ से निकलकर अमरीकावालों के वर्तमान अवस्था पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा और आश्चर्य हाथ में आई है तभी से यहाँ के निवासी अपनी स्वाधीनता नहीं कि उस दशा में कोई ऐसा उपाय भी हाथ लग जाय के लिए लड़ते आये हैं। अन्त में अमरीकावालों को उन्हें जिससे योरप कुछ समय के लिए एक बार फिर सँभल बाध्य होकर स्वाधीन कर देना पड़ा और यदि यहाँ के जाय और वह नाशकारी महायुद्ध के मार्ग से भी विमुख निवासी अगले १० वर्षों में अपनी शासन करने की क्षमता हो जाय। इससे अधिक आनन्ददायक बात संसार की का सम्यक् परिचय प्रदान करेंगे तो १० वर्ष के बाद शान्ति के लिए और क्या हो सकती है ?
अमरीका की सेना भी वहाँ से बुला ली जायगी और फ़िलीपाइन पूर्णरूप से एशिया का एक स्वाधीन राज्य हो
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #622
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६८
सरस्वती
जायगा । इस व्यवस्था के लिए फ़िलीपाइन- निवासी तथा अमरीकावाले दोनों वास्तव में बधाई के पात्र हैं ।
कांग्रेस की फूट
कहाँ होना यह चाहिए था कि देश की सबसे बड़ी राजनैतिक संस्था कांग्रेस एकमत होकर नये शासनविधान के पक्ष या विपक्ष में अपनी कोई स्पष्ट नीति घोषित करती और उसे कार्य में परिणत करने के लिए राष्ट्र का नेतृत्व करती, कहाँ संसार को यह बताया जा रहा है कि कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता इस समय केवल श्रापस में लड़-भिड़ रहे हैं। संयुक्त प्रान्त कांग्रेसियों में यह लड़ाई तो यहाँ तक बढ़ गई थी कि उसका लखनऊ में वार्षिक अधिवेशन तक होना खटाई में पड़ गया था । अभी तक इस आपसी लड़ाई के लिए बंगाल ही बदनाम था, परन्तु इस मामले में संयुक्त प्रान्त बंगाल से भी आगे बढ़ गया है। इनके सिवा मध्य प्रदेश का भी रंग-ढंग अच्छा नहीं दिखाई दे रहा है । और आश्चर्य तो यह है कि इस आपसी लड़ाई की छूत बढ़ती ही जा रही है । और यदि यही क्रम जारी रहा तो एक दिन कांग्रेस का सारा का सारा संगठन ध्वस्त हो जायगा । ऐसी दशा में आवश्यक यह है कि कांग्रेस के प्रधान प्रधान व्यक्ति अपनी निरपेक्ष मनोवृत्ति को अलग कर आगे यावें और कांग्रेस के इन सारे आपसी झगड़ों को दूर कर उसके अस्त-व्यस्त संगठन को दृढ़ता प्रदान करें, अन्यथा गत २० वर्ष का सारा परिश्रम धूल में मिल जायगा और कांग्रेस देश के अन्य दलों की राजनैतिक संस्थाओं की श्रेणी के अन्तर्भुक्त हो जायगी, जिससे राष्ट्र का निस्सन्देह अधःपतन हो जायगा ।
मौरावाँ का पुस्तकालय - सम्मेलन
मौरावाँ उन्नाव जिले की देहात का एक बड़ा क़स्बा है । यह यहाँ के खत्री तालुक़दारों का केन्द्र भी है । ये लोग शिक्षा-प्रचार एवं लोक-सेवा के सदैव प्रेमी रहे हैं । परन्तु स्वर्गीय लाला केदारनाथ ने जब से यहाँ अँगरेज़ी का एक हाई स्कूल, एक संस्कृत पाठशाला तथा एक दातव्य
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३६
रहा है। अभी हाल
औषधालय खोला है तब से यहाँ के शिक्षा प्रचार एव लोक-सेवा के कार्यों ने और भी अधिक व्यवस्थित रूप धारण कर लिया है। उनके उपर्युक्त आदर्श कार्यों का यहाँ के उनके अन्य तालुकदार बन्धुत्रों पर भी काफ़ी प्रभाव पड़ा है, जिसके फल स्वरूप यहाँ अब कन्याओं की भी शिक्षा की व्यवस्था हो गई है तथा स्त्रियों की अँगरेज़ी ढंग की चिकित्सा का भी प्रबन्ध में वहाँ उन्नाव जिले का 'पुस्तकालय सम्मेलन' हुआ था । इस सिलसिले में हमें भी वहाँ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । हम मौरावाँ कोई २५ वर्ष बाद गये थे और वहाँ के अँगरेज़ी स्कूल के आस-पास कई एक छात्रावासों एवं अस्पताल की इमारतों को देखकर अवाक् हो गये । पहले जहाँ एक छोटा-सा अस्पताल, एक स्कूल और एक छात्रावास था, वहाँ श्राज अनेक भव्य इमारतों का एक बड़ा भारी समूह अस्तित्व में आ गया है। वास्तव में इन २५ वर्षों में मौरावाँ की बड़ी उन्नति हो गई है और अब यह इस बड़ी देहात का विद्यापीठ हो गया है । इस सबके लिए यहाँ के खत्री रईस सर्वथा प्रशंसा पात्र हैं ।
जिस पुस्तकालय - सम्मेलन के सिलसिले में हम मौरावाँ गये थे वह भी इन्हीं रईसों की उदारता का एक प्रसाद था । यहाँ का यह पुस्तकालय यद्यपि यहाँ के प्रसिद्ध वकील बाबू जयनारायण कपूर के गत १७ वर्ष के विशेष हिन्दी - प्रेम का फल है, तथापि उसकी वर्तमान संबर्द्धना में यहाँ के रईसों का भी पूरा हाथ रहा है। इस बार इसका वार्षिक अधिवेशन जिस धूमधाम से हुआ वह सर्वथा मौरावाँ के उक्त रईसों के अनुरूप ही हुआ । ऐसे सफल साहित्यिक समारोह प्रायः बड़े बड़े नगरों में ही देखने को मिलते हैं ।
मौरावाँ का यह साहित्यिक समारोह दो दिन तक विशेष व्यवस्था के साथ होता रहा । पहले दिन पुस्तकालयप्रदर्शिनी का उद्घाटन हुआ। इस अवसर पर स्वागत - भाषण स्वर्गीय लाला केदारनाथ के पुत्र राय बहादुर लाला प्रयागनारायण जी ने किया और सभापति डाक्टर वली मोहम्मद ने अपने सभापति के भाषण में साहित्य - प्रदर्शिनी का महत्त्व बताया। प्रदर्शिनी अपने ढंग की
www.umaragyanbhandar.com
Page #623
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
सम्पादकीय नोट
५६९
मा
निराली थी। पुस्तकालय-सम्बन्धी अनेक ज्ञातव्य नक्शे, बी० तालुकदार थे। उन्होंने अपने भाषण में पुस्तकालयों चार्ट तथा ग्राफ़ आदि विशेष सूझ-बूझ के साथ तैयार की उपयोगिता और गाँवों में भ्रमणशील पुस्तकालयों कर यहाँ रक्खे गये थे, जिनसे यह जान पड़ता था कि की आवश्यकता बतलाई और बतलाया कि उन्नाव-ज़िले देश में तथा विदेशों में पुस्तकालयों के प्रचार तथा प्रसार में ३४ पुस्तकालय हैं। परिषद् के मनोनीत सभापति का काम कहाँ कहाँ कैसा हो रहा है। जो हस्तलिखित लखनऊ-विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर डाक्टर परांजपे पुस्तकें यहाँ प्रदर्शित की गई थीं उनमें कई एक विचित्र ने अपने विद्वत्तापूर्ण भाषण-द्वारा पुस्तकालयों की तथा अप्राप्य थीं। इसी दिन रात्रि में कविवर सनेही जी आवश्यकता, उपयोगिता और महत्ता पर प्रकाश डाला। के सभापति में कवि-सम्मेलन बड़ी सफलता के साथ सम्पन्न डाक्टर राधाकुमुद मुकर्जी, डाक्टर राधाकमल मुकर्जी, हुआ, जिसमें स्थानीय कवियों के सिवा कानपुर, लखनऊ डाक्टर बी० एस० राम के भी भाषण हुए। इसके बाद आदि के कवियों ने भी भाग लिया था।
उन्नाव-ज़िला-पुस्तकालय-संघ की स्थापना का प्रस्ताव ___ दूसरे दिन पंडित कृष्ण विहारी जी मिश्र की अध्यक्षता स्वीकृत हुआ और सदस्यों की एक कार्य-समिति नियुक्त में साहित्य-परिषद् का अधिवेशन प्रारम्भ हुआ। स्वाग- की गई । इस अधिवेशन में जिले के ग्रामीण पुस्तकालयों ताध्यक्ष कुँवर गुरुनारायण बी० ए० तालुक़दार ने अपने के प्रतिनिधि अच्छी संख्या में शामिल हुए थे। भाषण-द्वारा उपस्थित विद्वानों का स्वागत किया । इसके अन्त में सायंकाल 'हिन्दी-साहित्य-पुस्तकालय' का बाद राय बहादुर पंडित शुकदेवविहारी मिश्र बी० ए० ने १८ वा वार्षिकोत्सव लखनऊ-विश्वविद्यालय के वाइस परिषद् का उद्घाटन किया। आपने अपने भाषण में चांसलर डाक्टर परांजपे की अध्यक्षता में प्रारम्भ हुअा। हिन्दी साहित्य-पुस्तकालय की सेवा का संक्षिप्त वर्णन प्रधान मंत्री बाबू जयनारायण कपूर ने रिपोर्ट पढ़कर करके हिन्दी-साहित्य की प्रगति का संक्षिप्त दिग्दर्शन सुनाई । तदुपरान्त कई पुरस्कार वितरित किये गये। कराया। इसके बाद परिषद् के सभापति पंडित कृष्ण- इस प्रकार मौरावाँ का यह साहित्यिक समारोह बड़ी विहारी मिश्र ने अपना भाषण पढ़ा, जो विद्वत्तापूर्ण ही धूमधाम तथा सफलता के साथ समाप्त हुआ और इसके नहीं, पर्याप्त रोचक भी था । कानपुर तथा लखनऊ के इस रूप में समाप्त होने का सारा श्रेय पुस्तकालय के मंत्री अनेक प्रतिष्ठित विद्वानों ने इस परिषद् में भाग लिया। श्रीयुत जयनारायण जी कपूर को है। इस अवसर पर श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने 'साहित्य और जाति' पर एक अत्यन्त ही पाण्डित्यपूर्ण भाषण
हिन्दी में प्रान्तीयता किया तथा अपनी दो कवितायें भी सुनाई। भाषणों के जान पड़ता है, हिन्दी में भी प्रान्तीय भेद-भावों का पश्चात् कुछ प्रस्ताव स्वीकृत हुए, जिनमें 'अवध प्रान्तीय अब ज़ोर बढ़ेगा। अभी तक हिन्दी का उर्दू से ही संघर्ष साहित्य-मण्डल' की स्थापना का प्रस्ताव मुख्य है। था और अब उसके लिए यह एक नई विपत्ति आ खड़ी कार्यवाही २ बजे समाप्त हुई। इस बैठक में लखनऊ- हुई है। कुछ दिन हुए जब 'व्रजमण्डल' नाम की संस्था विश्व विद्यालय के वाइस चांसलर डाक्टर परांजपे, डाक्टर की स्थापना हुई थी तभी यह आशंका हुई थी कि इसके राधाकमल, डाक्टर राधाकुमुद, डाक्टर बी० एस० राम, अनुकरण पर आश्चर्य नहीं, कहीं और भी मंडल अस्तित्व डाक्टर व्रजमोहन शर्मा, डाक्टर मजूमदार प्रभृति विद्वान् में ना जायँ और इस प्रकार हिन्दी के कार्यकर्ताओं भी उपस्थित थे।
की शक्ति संकुचित कार्यक्षेत्रों में बँट जाय । से वह __ उक्त परिषद् के अधिवेशन के बाद तीसरे पहर उन्नाव- आशंका ठीक ही होती नहीं आ रही है, किन्तु उसके पुस्तकालय-सम्मेलन का अधिवेशन प्रारम्भ हुआ। साथ एक और पुछल्ला लगाकर सामने आ रही है। स्वागताध्यक्ष श्रीयुत लाला हरीराम सेठ बी० ए०, एल-एल० उस दिन पटना में जो साहित्यिक समारोह हुअा था उस
फा १२
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #624
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७०
सरस्वती
[भाग ३६
सम्बन्ध में वहाँ के एक स्थानीय पत्र में बिहारी लेखकों के के भीतर अपने संघ-बल से उच्च वर्णवालों को सम्बन्ध में जो प्रान्तीयतापरक चर्चा छिड़ी थी उस सिल- अपने आगे घुटने टिकवा सकते हैं । परंतु खेद के साथ सिले में यह भी कहा गया था कि 'बिहार-प्रान्तीय हिन्दी- कहना पड़ता है, उनके नेताओं का ध्यान इस महत्त्व की साहित्य-सम्मेलन' का नाम केवल 'बिहार-हिन्दी-साहित्य- बात की ओर नहीं जाता है, वे कष्ट-साध्य संगठन जैसे सम्मेलन' रखना चाहिए । इधर हाल में मौरावाँ में 'अवध- महत्त्व का कार्य करने का उद्यत नहीं दिखाई देते हैं, किन्तु मण्डल' की स्थापना की जा चुकी है । गुजरात में हिन्दी- वे अपने पददलित भाइयों को धर्म-परिवर्तन-द्वारा किसी प्रचार के लिए 'हिन्दुस्तानी-मण्डल' की स्थापना सरदार दूसरे धर्म की अनुयायिनी जाति का आश्रय लेकर अपना पटेल के आदेश से हो ही गई है। यह सब निःसन्देह अस्तित्व मिटाना चाहते हैं। हरिजनों के नेताओं को हिन्दी की शुभ कामना को ही सामने रखकर हो रहा है, जानना चाहिए कि भारत उनका देश है और वे अपने परन्तु यदि इन्होंने किसी कारण प्रान्तीय भावना का देश में सभी क्षेत्रों में समान व्यवहार के अधिकारी हैं । आश्रय दिया तो वह हिन्दी के लिए विघातक सिद्ध होगी। परंतु अपनी अज्ञता और साधनहीनता के कारण वे अतएव हिन्दी के महारथियों को चाहिए कि वे इन अपने सारे नैसर्गिक अधिकार गँवा बैठे हैं; और वह सब संस्थाओं की गति-विधि की ओर ध्यान दें, अन्यथा इनसे उन्हें तभी प्राप्त हो सकेगा जब वे उसे प्राप्त करने एवं हिन्दी की हानि होने की सम्भावना है जैसा कि पटना के उसे अपने हाथ में रखने की क्षमता का अर्जन करने में पिछले साहित्यिक समारोह-सम्बन्धी 'योगी' और 'अभ्युदय' समर्थ हो सकेंगे। परन्तु वह क्षमता उन्हें धर्म-परिवर्तनके वाद-विवाद से प्रकट हो चुका है।
द्वारा नहीं प्राप्त हो सकेगी। अपनी वर्तमान दीन-हीन
अवस्था में वे जहाँ जायेंगे, अाज जैसे अछूत ही बने हरिजन-समस्या
रहेंगे। हरिजनों के प्रमुख नेता डाक्टर अम्बेदकर ने यह घोषणा निकाली है कि हरिजनों को हिन्दूधर्म को छोड़कर
कुमारी अमला नन्दी दूसरा धर्म ग्रहण कर लेना चाहिए। यही नहीं, वे अपने भारत की प्राचीन नृत्यकला में कुमारी अमला नन्दी दल-बल के साथ धर्म-परिवर्तन करने की तैयारी भी कर रहे ने बहुत थोड़े समय में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर ली हैं । डाक्टर अम्बेदकर यह साहसपूर्ण कार्य इसलिए कर रहे है। ये कलकत्ते के इकानमिक ज्वेलरी वर्क्स के अध्यक्ष हैं कि उच्च जाति के हिन्दू हरिजनों को अछूत समझते श्रीयुत अक्षयकुमार नन्दी की पुत्री हैं । १६३१ के अप्रैल हैं और उनके साथ समानता का व्यवहार नहीं करते। में नन्दी महोदय पेरिस के इन्टर्नेशनल कालोनियल
इसमें सन्देह नहीं कि हरिजनों के साथ ऊँची जाति एक्सपोज़ीशन में भारत के रत्नाभूषणों तथा ललितकला का के हिन्दुओं का जो व्यवहार है वह सर्वथा निन्द्य है प्रदर्शन करने के लिए योरप गये थे। पिता के साथ ही
और इस बीसवीं सदी के युग में वह असहनीय भी है। कमारी नन्दी भी वहाँ गई थीं। पेरिस में इन्होंने फ्रेंच परन्तु यह बात कि इसके लिए हरिजन हिन्दू-धर्म ही छोड़ पढ़ना प्रारम्भ किया और तीन मास में ही इतनी योग्यता देंगे, यदि वे सच्चे हिन्दू हैं तो उनके पौरुष का द्योतक प्राप्त कर ली कि फरासीसियों से ये धड़ल्ले से फ्रेंच में नहीं है। हरिजनों के पास न तो अर्थ-बल है, न विद्या- बातचीत करने लगीं। कुमारी श्रमला नन्दी ने उक्त बल है, परन्तु उनमें संख्या तथा मनुष्यता का पूरा बल प्रदर्शिनी के मनोविनोद-विभाग में प्राचीन भारतीय है। फिर उनका ऊँची जाति के अनेक समर्थ लोगों की नृत्यकला का प्रदर्शन किया । दर्शकों को इनका नृत्य बहुत काफ़ी सहायता भी प्राप्त है। ऐसी दशा में वे यदि ही पसन्द आया और उन लोगों ने इनकी भूरि-भूरि अपना संगठन करने को तैयार हो जायँ तो कुछ ही समय प्रशंसा की। नृत्यकला के इस असाधारण प्रदर्शन की
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #625
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
सम्पादकीय नोट
योरपीय तथा भारतीय पत्रों ने भी काफ़ी प्रशंसा की। विदेशी पत्रों में कुमारी अमला की नृत्यप्रतिभा का उस अवसर पर नृत्य-कलाविशेषज्ञ श्रीयुत उदयशंकर भी समाचार पढ़कर रवीन्द्रनाथ ठाकुर महाशय ने कलकत्ते के अपनी माता तथा भगिनी के साथ उपस्थित थे। ये अक्षय सर्वप्रधान रङ्गमञ्च एम्पायर थियेटर हाल में स्वयं अपने बाबू के मित्र हैं । अतएव कुमारी नन्दी ने इनके साथ अभिनय के साथ इनके नृत्य का प्रदर्शन किया। तभी भ्रमण करके जर्मनी, बेल्जियम, हालेंड, डेन्मार्क, नावें, से स्वदेश में भी अमला की नृत्यप्रतिभा की प्रसिद्धि स्वीडन, फ़िनलैंड, लिथुआनिया, पोलंड, ज़ेकोस्लोवाकिया, हो गई । इनके नृत्य में भगवान् की आराधना का जो भाव आस्ट्रिया, हंगरी, इटली, स्विटज़लैंड तथा योरप के कई उदित होता है उसे देखकर कितने ही भगवद्भक्त अाँसुत्रों अन्य देशों में अपने नृत्यों का प्रदर्शन किया, साथ ही की धारा बहाते देखे गये हैं । इनके सभी नृत्य पूर्ण रूप से योरप के विभिन्न प्रकार के नृत्यों तथा गीतों की शैलियों देशी भावों से प्रोत-प्रोत होते हैं तथा उनमें अनेक स्वयं का अध्ययन भी किया है, जिससे इन्हें बड़ा लाभ हुआ। अमला की कल्पना की उपज हैं ।
कुमारी अमला की प्रतिभा केवल नृत्यकला तक ही परिमित नहीं है। बँगला के साहित्य-क्षेत्र में भी इन्होंने ख्याति प्राप्त की है। बँगला के भिन्न-भिन्न मासिक पत्रों में इनके लेख प्रकाशित होते रहते हैं। अमला के पिता श्रीयुत अक्षयकुमार नन्दी मातृमंदिर नामक एक मासिक पत्रिका गत सात वर्ष से निकाल रहे हैं । शिक्षा के सम्बन्ध में अमला ने अपने पिता को एक सुयोग्य पुत्री के रूप में परिचय दिया है। __ जिन व्यक्तियों ने भारत से बाहर भारत के गौरव की घोषणा की है, कुमारी अमला उनमें एक हैं। इनका एक बड़ा चित्र 'सरस्वती' के पिछले अंक में भी हम प्रकाशित कर चुके हैं।
[कुमारी अमला नन्दी]
स्वर्गीय प्रोफ़ेसर सिलवेन लेवी
फ्रांस के प्रसिद्ध प्राच्य-विद्याविद प्रफेसर सिलवेन अमला नन्दी की अवस्था अभी कुल तेरह वर्ष की लेवी का स्वर्गवास हो गया । वे भारतीय संस्कृति के हे और ये अपने पिता के साथ १० चौरंगी रोड, कलकत्ता, विशेषज्ञ थ। उन्हान आज
विशेषज्ञ थे। उन्होंने आजीवन भारतीय प्राचीन साहित्य में रहती हैं । कुमारी अमला नन्दी ग्यारह वर्ष की अवस्था का अध्ययन किया और उसके सम्बन्ध में सैकड़ों लेख में अपने माता-पिता के माथ तीर्थ-यात्रा के सिलसिले में लिखे। यही नहीं, उन्होंने कतिपय भारतीय विद्वानों को वृन्दावन में होली का नृत्य तथा दक्षिण में देवदासी-नत्य भारतीय संस्कृति का वैज्ञानिक ढंग से अनुशीलन करने देखकर इस कला की ओर आकर्षित हुई थीं। बाद को पेरिस का मार्ग बताया। उनके ऐसे ही गहन पाण्डित्य के की उक्त प्रदशिनी में तथा योरप के भिन्न भिन्न नगरों में लिए भारतीय विद्वान् उनका बड़ा आदर करते थे और उदयशंकर के माथ अपनी कला का प्रदर्शन करके अच्छी इसी से सर्वभारतीय प्राच्य-सम्मेलन के दूसरे अधिवेशन कीर्ति अर्जित की । एकमात्र जर्मनी के ही सौ से अधिक का सभापति बनाकर उन्होंने उनका सम्मान किया मुख्य नगरों में इनकी कला का प्रदर्शन हुआ था। था। कलकत्ता-विश्वविद्यालय ने उन्हें डाक्टर की पदवी
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #626
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७२
सरस्वती
[ भाग ३६
देकर उनको सम्मानित किया था। भारतीय नाट्यशास्त्र के कम से कम अपने विश्वास के ही आदमियों को, जहाँ पर उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। उनका नैपाल डाके अधिक संख्या में पड़ते हैं, बन्दूक आदि रखने का का इतिहास भी प्रसिद्ध है। भारत और उसकी संस्कृति भी अधिकार प्रदान कर देती । लाठियों से बन्दूकधारी के प्रति उनका बहुत अधिक अनुराग था। प्रोफ़ेसर डाकुओं का सामना करना वास्तव में एक प्रकार का सिलवेन लेवी जाति के यहूदी थे और पेरिस में रहते उपहासास्पद साहस माना जायगा। रिपोर्ट के साल सबसे
थे। उनकी मृत्यु से भारतीय संस्कृति का एक ऐसा मर्मज्ञ अधिक डाके गोरखपुर (४३), मेरठ (४०), कानपुर विद्वान् सदा के लिए उठ गया है, जिसके अभाव की पूर्ति (३६), इटावा (३७), अलीगढ़ (३१) और बस्ती (२८) में जल्दी नहीं होगी।
पड़े। कुल डाके ६७८ पड़े, जिनमें ३३२ डाकों में डाकू
शस्त्रधारी थे । डाकों की यह समस्या वास्तव में विशेष रूप पुलिस की वार्षिक रिपोर्ट
से ध्यान देने के योग्य है । पुलिस को इसे हल करने के सन् १६३४ के साल की प्रान्तीय पुलिस की रिपोर्ट हाल लिए कोई कारगर योजना कार्य में परिणत करना चाहिए । में प्रकाशित हुई है । १६३४ का साल पुलिस के लिए एक प्रचलित पद्धति से वही होता रहेगा जो अब तक होता प्रकार से सन्तोषप्रद रहा । शान्ति कायम रखने तथा अप- आया है। राधों के रोकने या उनका पता लगाने अादि अपने मुख्य काम करने की उसे पूरी सुविधा प्राप्त रही। क्योंकि स्वर्गीय श्रीयुत गोपाल कृष्ण देवधर रिपोर्ट के साल सत्याग्रह-आन्दोलन बन्द रहा और पूना की सर्वेन्ट अाफ़ इंडिया सोसायटी के प्रधान कुल ८३ ही राजनैतिक मामले हुए जब कि १६३३ में श्रीयुत गोपाल कृष्ण देवधर का १७ नवम्बर को बम्बई में
की संख्या ८७६ थी। अतएव १६३४ में वह राज- स्वर्गवास हो गया । आप इस सोसायटी के संस्थापकों में नैतिक झमेलों से मुक्त रही। हाँ, उनके स्थान में थे। सन् १६०४ में जिन देशभक्तों के दल को लेकर साम्प्रदायिक दंगों में उसे अवश्य फँसना पड़ा । १६३४ में माननीय गोखले ने उक्त संस्था की स्थापना की थी उनमें ऐसे ६० दंगे हुए थे जब कि १६३३ में कुल ६ दंगे हुए एक अाप भी थे। सन् १६२७ से आप उक्त संस्था वे थे । रिपोर्ट के लेखक पलिस के इन्स्पेक्टर जनरल मिस्टर प्रधान पद पर आसीन रहे हैं। इधर डेढ़ महीने से आप एस० टी० हालिन्स ने लिखा है कि 'आज-कल देश लगातार रोगग्रस्त रहे । अापकी मृत्यु से देश का एव में साम्प्रदायिक मनोमालिन्य बहुत बढ़ा-चढ़ा है। सन् . प्रमुख लोक-सेवक उठ गया है। आप उन लोक-नेता १६०२ में जब मैं यहाँ के पुलिस-विभाग में नियुक्त हुअा में रहे हैं जिनका एकमात्र व्रत लोक-सेवा में अहर्निश था तब यह समस्या इतने उग्र रूप में नहीं थी।' निरत रहना रहा है । आप सदा प्रसिद्धि से दूर रहे, परन्तु
डकैतियों के सम्बन्ध में रिपोर्ट में लिखा है कि इस देशवासियों को दैवी विपत्ति से पीड़ित देखते ही बार साल कुल ६७८ डकैतियाँ हुई, और पिछले कई वर्षों की उनकी सेवा करने को सबसे पहले पहुँचते थे । अापवे अपेक्षा यह संख्या कम है । इस सम्बन्ध में निरस्त्र ग्रामीणों प्रयत्न से सहयोग-समितियों का काफ़ी देशव्यापी प्रचा की भी प्रशंसा की गई है जो सशस्त्र डाकुओं का मुकाबिला हुआ है। अापने सदा ऐसे ही रचनात्मक कार्यों में लग करने में अपने साहस का परिचय दिखलाने लगे हैं। रहना अपने जीवन का ध्येय बना लिया था। सभाओं वे इन्स्पेक्टर जनरल साहब ने लिखा है कि इस सम्बन्ध में सभापति बनने या व्याख्यान झाड़ने का रोग आपके ग्रामीणों को प्रोत्साहन भी दिया जा रहा है कि वे डाकुओं नहीं था । आपने लोक-सेवा का अपना एक मार्ग चुन का डटकर मुकाबिला किया करें । परन्तु पुलिस-विभाग लिया था और चुपचाप जीवन-पर्यन्त बराबर उसी पर का यह प्रोत्साहन अधिक सार्थक होता यदि वह उन ज़िलों चलते गये। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ लोक-नेता के निधन से
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #627
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
सम्पादकीय नोट
वास्तव में भारत की भारी क्षति हुई है, जिसकी महज में इसके सिवा पैदा होनेवाले बच्चों की मृत्यु का लेखा पूर्ति नहीं होगी।
देखिए । इनकी मृत्यु का वार्षिक औसत दो लाख है,
अर्थात् प्रति घंटे २० बच्चे मरते हैं । इसी प्रकार हज़ार वाल-विवाह की समस्या
पीछे २४५ च्चे देनेवालियों की भी मृत्यु हो जाती है । सर्वभारतीय महिला-सभा के अन्तर्गत एक बाल- यही नहीं, एक हज़ार नवजात शिशु पीछे १८१ मर विवाह-विरोधिनी कमिटी है। इसकी मंत्री श्रीमती लक्ष्मी- जाते हैं और कहीं कहीं यह संख्या ४०० तक पहुँच जाती मेनन ने हाल में एक बुलेटिन प्रकाशित की है। उसमें है। यह बाल-विवाह की कैसी विभीषिका है ! ये इतने उन्होंने लिखा है कि बाल-विवाह की बुराई समाज से दूर ही आँकड़े ग्राँग्वे खोलने के लिए काफ़ी हैं । यह सब करने के लिए यह आवश्यक है कि पहले तत्सम्बन्धी पूना के 'मरहटा' से लिया गया है। ग्राँकड़ों का अध्ययन किया जाय । उदाहरण-स्वरूप उन्होंने सन् १६३१ की मनुष्य-गणना के १५ वर्ष की इलाहाबाद-यूनिवर्सिटी के दो नये डाक्टर उम्र के नीचे की विवाहित कन्यायों के अांकड़े दिये हैं,
इलाहाबाद-यूनिवर्सिटी में हाल में दो नये डाक्टरों की जो इस प्रकार हैंएक वर्ष की
८ फीसदी एक से २ वर्ष का दो से ३ "
२० ,,,,
४ से ५
१६.६" ३८.१ .,
" .
१० से १५ " बाल-विधवानों के ग्राँकई इस प्रकार हैं१ वर्ष उम्र की
१,५१५ १ " से २ वर्ष की
१,७८५
Pr
" से ४ "
६,०७६ ४ " से ५ "
१५,०१६ ५ " से १० "
५.०५.४८२ १०" से १५"
उन्होंने लिखा है कि सन १६२१ की गणना के अनुसार एक वर्षे की उम्र की ६,०६६ कन्यायें विवाहिता थीं, परन्तु सन् १९३१ की गणना में इस उम्र की विवाहित कन्याओं की संख्या ४६,०८२ हो गई। इसी प्रकार सन् १६२१ में एक वर्ष की उम्र की बाल-विधवाओं
[डाक्टर धीरेन्द्र वर्मा] को संख्या ७५६ थी, परन्तु १६३१ में उनकी संख्या वृद्धि हुई है। इनमें एक हिन्दी के सुपरिचित श्रीयुत १,५१५ हो गई।
धीरेन्द्र वर्मा हैं। आप यूनिवर्सिटी में हिन्दी-विभाग के
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #628
--------------------------------------------------------------------------
________________
५७४
सरस्वती
[भाग ३६
प्रधान हैं । आपने पेरिस की यूनीवर्सिटी से व्रजभाषा के स्वर्गीय लाला रामनारायणलाल सम्बन्ध में फ्रेच भाषा में अपना निबन्ध लिखकर लाला रामनारायणलाल इलाहाबाद के प्रमुख डी. लिट. की डिगरी प्राप्त की है, जो सर्वथा पुस्तक-व्यवसायी थे। आपने अपने अध्यवसाय और आपके उपयुक्त है। आप भाषा-विज्ञान के मर्मज्ञ विद्वान् परिश्रम से लाखों की सम्पत्ति उपार्जित की। एक साधारण हैं। आपने विदेश में हिन्दी-भाषा की उच्च डिगरी हैसियत का साधन-रहित व्यक्ति क्या से क्या हो सकता है,
इसके आप एक आदर्श उदाहरण थे । आपके देहावसान से इलाहाबाद का एक पुरुषार्थी व्यक्ति उठ गया है। हमारी आपके दुखित परिवार से हादिक सहानुभूति है।
सीमाप्रान्त का नया सक्यूलर पश्चिमोत्तर-सीमाप्रान्त के शिक्षा विभाग के मन्त्री ने एक सक्येलर निकाल कर वहाँ के सरकारी तथा सहायताप्राप्त कन्या-स्कूलों में हिन्दी और गुरुमुखी पढ़ाने का निषेध कर दिया है, इससे उस प्रांत में बसनेवाले हिन्दुत्रों और सिक्खों की हक़तलफ़ी हुई है । फलतः पञ्जाब एवं अन्य प्रांतों की साहित्यिक संस्थात्रों ने सभायें करके उक्त सरकारी सद्युलर का विरोध किया है । अाश्चर्य है कि जब सरकार मुसलमानों की सुविधा का खयाल करके बिहार तथा मध्यप्रदेश आदि प्रान्तों में उर्दू की शिक्षा की व्यवस्था करती जा रही है तब वह मुसलमान-प्रधान प्रान्तों के ऐसे ही अल्पसंख्यक हिन्दुओं आदि की भाषा-सम्बन्धी प्राप्त सुविधाओं को दूर करने का उपक्रम क्यों कर रही है। सीमाप्रांत के उक्त भाषा-सम्बन्धी सक्यलर का जो
विरोध हिन्दुत्रों और सिक्खों की ओर से प्रारम्भ हुआ है। [डाक्टर पार० एन० दुबे]
वह उचित है और आशा है कि सीमाप्रांत की सर
कार का ध्यान हिन्दू और सिक्खों की उचित माँग की ओर प्राप्त करके अपने साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी को भी गौरव
का भा गारव जायगा और वह उस सयंलर को वापस लेकर हिन्दुओं प्रदान किया है। दूसरे सजन श्रीयुत आर० एन० दुबे हैं। और सिक्खों के साथ न्याय करेगी।
आपने भी पेरिस की यूनीवर्सिटी से ही भूगोल में उक्त डिगरी प्राप्त की है। आप इलाहाबाद-यूनीवर्सिटी में भूगोल
दीमक-भवन विषय के लेक्चरर नियुक्त किये गये हैं। उपर्युक्त विषयों हाटा, गोरखपर, के ठाकर शिरोमणिसिंह चौहान में डी० लिट० की डिगरियाँ प्राप्त करनेवाले यही प्रथम एम-एस०सी० ने दीमक-भवन का यह एक चित्र भेजा है। भारतीय हैं जो और भी महत्त्व की बात है । इस महत्त्वपूर्ण उन्होंने इसके परिचय में लिखा है कि दीमकों के ये सफलता के लिए ये दोनों महानुभाव बधाई के पात्र हैं।
भवन अतीव ठोस और दृढ़ होते हैं । बाह्य सौन्दर्य के अतिरिक्त उनका भीतरी दृश्य तो देखते ही बनता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
www.umaragyanbhandar.com
Page #629
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ६]
सम्पादकीय नोट
५७५
उनमें कमरे, कोठरियाँ आदि सभी कुछ होते हैं । ये से 'सरस्वती' की उन्नति हुई है उसको देखते हुए हम मकान टीलेनुमा हैं । पर कुछ छत्राकार भी होते हैं । कुछ निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि उसका भविष्य और भी लम्बे, ढालू और नाम-मात्र को चौड़े होते हैं; इनकी अधिक उज्ज्वल है। लम्बाई सदा उत्तर-दक्षिण की दिशा में होती है। भवन- यह सच है कि 'सरस्वती' के निन्दकों की संख्या में
कोई कमी नहीं हुई, पर हमें सन्तोष है कि इस वर्ष प्रकट रूप में 'सरस्वती' की निन्दा करने का उन्हें साहस नहीं हुअा। दो-तीन उदाहरण काफ़ी होंगे। नागरी-प्रचारिणी सभा को अपनी सभा की वार्षिक रिपोर्ट में इस बार गत वर्ष की भाँति 'सरस्वती' पर आक्षेप करने का साहस नहीं हुअा। उसे भय हुअा होगा कि इस वर्ष भी वह ऐसा करेगी तो जनता में उसकी स्थिति बहुत हास्यास्पद हो. जायगी। यह बात हमको सभा के एक प्रतिष्ठित सदस्य ने ही बताई। हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के भूतपूर्व प्रधान मंत्री ने सम्मेलन की वार्षिक रिपोर्ट में 'सरस्वती' पर कुछ अनुचित आक्षेप किये थे, परन्तु जब उन्हें यह बताया । गया कि उनका यह कार्य अनुचित है और बहुमत उनके । विपरीत जा सकता है तब अपने उस आक्षेप पर चिप्पी । चिपका देने में ही उन्होंने अपनी भलाई समझी। यहाँ हम सम्मेलन के उपसभापति श्रीमान् बाबू पुरुषोत्तमदास टंडन को बिना धन्यवाद दिये नहीं रह सकते, क्योंकि 'सरस्वती' के प्रति प्रधान मंत्री के इस अन्याय की ओर जब श्रीमान् टंडन जी का ध्यान आकर्षित किया गया तब उन्होंने तुरन्त प्रधान मंत्री से कहा कि उन्हें वार्षिक
विवरण में इस प्रकार व्यक्तिगत आक्षेप करना शोभा नहीं [दीमक-भवन
देता। वर्तमान युग में प्रगतिशील विचारों को प्रश्रय देना
ही समाचार-पत्रों का सबसे बड़ा धर्म है और ऐसे विचारोनिर्माण की यह विचित्र व्यवस्था दोपहर की कड़ी धूप से त्तेजक लेखों को प्रकाशित करके 'सरस्वती' वही काम कर दीमकों की रक्षा करती है। उनके भवन उनके कला- रही है जो वह गत ३५ वर्षों से करती आ रही है और जो कौशल एवं चातुर्य के नमूने हैं। दीमकों के ये भवन उसे करना चाहिए । पण्डित वेंकटेश नारायण तिवारी गोरखपुर के इस अञ्चल में प्रायः पाये जाते हैं। जी के लेखों से तिलमिलाकर हिन्दी साहित्य के कुछ
मुल्लापंथी लोग तो इतना अधिक आगे बढ़ गये थे कि 'सरस्वती' के ३६ वे वर्ष की समाप्ति उन्होंने जैसा कि हमें दो-एक समाचार-पत्रों में पढ़ने को इस अङ्क से 'सरस्वती' का ३६वाँ वर्ष समाप्त होता मिला, वायसराय तक के पास एक अर्जी भेजी कि 'सरस्वती' है। हमारे पाठकों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि का सरकार नियंत्रण करे और एक सभा में उन्होंने 'सरस्वती' का यह वर्ष बहुत अच्छा रहा और जिस गति एकत्र होकर प्रस्ताव पास किया कि 'सरस्वती' का कोई
Shree Sudharm
wavesyananandarrcumar
Page #630
--------------------------------------------------------------------------
________________ 576 सरस्वती [ भ३६ ग्राहक न बने / परन्तु जब उन्होंने अनुभव किया कि इस गिनाने की आवश्यकता नहीं है।नारायणलते हैं कि समय देश का वातावरण ही प्रगतिशील विचारों से इस समय 'सरस्वती' इतनी लोकप्रिय हो रही है कि पंडित प्रोत-प्रोत है और 'सरस्वती' उसी वातावरण का एक जवाहरलाल नेहरू और भाई परमानन्द जैसे भारत अङ्ग है और इस वातावरण में उनकी सुननेवाल' गेई विख्यात नेता उसे बराबर पढ़ते हैं और उसमें लिखते भी नहीं है तब वे स्वयं चुप हो गये। हमारे इन निन्दको हैं। जनवरी के नववर्षाङ्क में हम मध्य-भारत के माननीय निन्दा हमारे लिए प्रशंसा बन गई, क्योंकि हमने देखा कि नेता सेठ गोविन्ददास का एक नाटक प्रकाशित कर रहे उनकी निन्दा का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और देशव्यापी हैं। सेठ जी का लिखा हुआ हिन्दी सवाक चित्रपट वर्तमान आर्थिक संकट के होते हुए भी हमारे ग्राहकों की धुंवाधार' बहुत-से पाठक देख चुके होंगे। हमारा संख्या ड्योढ़ी हो गई। विश्वास है कि सेठ जी बड़े ही सफल नाटककार सिद्ध होंगे __इस बढ़ती हुई ग्राहक-संख्या से, नये और पुराने और अागामी वर्ष हम उनके कई-एक नाटक पाठकों की ग्राहकों की प्रशंसात्मक चिट्ठियों से, प्रगतिशील समाचार- भेंट करेंगे। इतिहास में मङ्गलाप्रसाद-पारितोषिक-विजेता पत्रों की टिप्पणियों से हमने यह अनुभव किया कि प्रोफ़ेसर सत्यकेतु विद्यालंकार का नाम पाठक जानते ही 'सरस्वती' में नवीन परिवर्तन करके और उसमें प्रगति- होंगे / आगामी वर्ष से उनके भी विचारपूर्ण लेख पढ़ने शील विचारों को प्रश्रय देकर हम वही कर रहे हैं जो का अवसर पाठकों को मिलेगा। डाक्टर पीताम्बरदत्त हमारा हमारे प्रेमी पाठकों और उदार ग्राहकों के प्रति बड़थ्वाल (हिन्दू-विश्वविद्यालय), पंडित द्वारकाप्रसाद कर्तव्य है। यहाँ इतना स्थान नहीं है कि हम उन सैकड़ों मिश्र (जबलपुर), श्रीयुत चन्द्रगुप्त विद्याल कार (लाहौर), चिहियों और समाचार-पत्रों की टिप्पणियों को उद्धृत कुँवर चाँदकरण शारदा (अजमेर), पंडित मथुराप्रसाद करें जो 'सरस्वती' की प्रशंसा में लिखी गई हैं। हमारा दीक्षित (बिहार) और हमारे वर्तमान राष्ट्रपति बाबू खयाल है, यहाँ एक उदाहरण काफ़ी होगा। सहयोगी राजेन्द्रप्रसाद और हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के प्राण बाबू 'वर्तमान ने गत मास में 'सरस्वती' की प्रशंसा करते हुए पुरुषोत्तमदास टंडन आदि महानुभावों का सहयोग हमें लिखा था-"सुन्दर लेखों, सुन्दर छपाई, सचित्र एवं प्राप्त होगा। टोस मैटर की दृष्टि से 'सरस्वती' ने जितनी अधिक उन्नति इसके अतिरिक्त हम सरस्वती में बहुत-से नये और की है वह हिन्दुस्तान के पत्रों के लिए आदर्श की बात है। उपयोगी परिवर्तन भी करने जा रहे हैं, जिसका अनुभव कई और पत्रों ने इसकी नकल करने की चेष्टा की है, पर पाठकों को नववर्षाङ्क देखने पर ही होगा। इसमें सन्देह वे असफल रहे।" नहीं कि 'सरस्वती' की वर्तमान उन्नति और उसके सम्बन्ध इस प्रकार पहले से भी अधिक श्राशा और उत्साह में हमारे भावी स्वप्नों का सारा श्रेय एकमात्र हमारे से हम सरस्वती का नवीन वर्ष प्रारम्भ करने जा रहे हैं। कृपालु ग्राहकों को ही है। इसलिए वर्ष की सुख-समाप्ति अगले वर्ष से हमें और भी श्रेष्ठ पुरुषों और विद्वानों का पर हम उन्हें बधाई देते हैं * आशा करते हैं कि आगे सहयोग प्राप्त होगा। यहाँ 'सरस्वती' के लेखकों के नाम भी हमें उनका सहयोग इसी प्रकार प्राप्त रहेगा। Printed and published by R. Mittra at The Indian Press, Ltd. Allahabad. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com