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संख्या १]
दीनानाथ
दौड़ा हुआ आया और दूध दूध कहकर चिल्लाने उनकी भी पहुँच नहीं है। . मैं समझता हूँ, हृदय का लगा। दीना ने उसे दूध पिलाया। जो बच रहा अनुताप ही मनुष्य का सच्चा गुरु, पथ-प्रदर्शक और उसे सवेरे के लिए रख दिया।
जीवन-सुधार का सर्वोच्च ध्येय है। यह कहकर बालक का पेट भर चुका था। उसे शीघ्र ही उन्होंने उस अनाथ बालक को अपनी गोद में ले लिया नींद आ गई। दीना ने भी भगवान का नाम लेकर और मुनीम को दीना की अन्त्येष्टि-क्रिया कराने की चारपाई पकड़ी। ज्वर का वेग क्रमशः बढ़ने लगा आज्ञा देकर घर चले गये। और फिर एक-दम घट गया। शीत ने बिजली की स्त्री के निकट जाकर उन्होंने वेदना-पूर्ण गंभीर नाई सारे शरीर में फैलकर उसे अोले-सा ठडा कर स्वर में कहा-आज से तुम इसकी माता और यह दिया। दीना का घट बन्द हो गया। उसकी व्यथित तुम्हारा पुत्र! लो, इसका पालन-पोषण करो। आत्मा बन्धन-मुक्त हो शान्ति-धाम में पहुंच गई। पत्नी का हृदय आलोड़ित हो उठा। उसके नेत्रों
में अश्रु-जल देखकर घर के नौकर विस्मित हुए। दीना की मृत्यु का संवाद पाकर दीनानाथ आखिर स्त्री ही तो थी। मर्माहत हुए। वे अपने मुनीम के साथ उसके घर दीनानाथ के दो कन्यायें थीं। बड़ी का नाम पहुँचे। दीना के दीन मुख को देखकर उनका हृदय पन्ना और छोटी का होरा था। पन्ना कटोरे में दूध भर आया। उन्होंने क्षण भर निस्तब्ध रहकर भर लाई और बालक के पास आकर बोली-भैया, कहा-दीनू, मैं नहीं समझता था कि तुम बात के तुम भूखे होओगे, लो यह दूध पी लो। बालक दूध ऐसे धनी हो। नहीं तो रुपयों की कभी चर्चा तक न पीकर कातर-दृष्टि से इधर-उधर देखने लगा। यह करता । जो वस्तु लखपतियों और करोड़पतियों में देख कर हीरा ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया, प्रयत्न करने पर भी नहीं मिली वह मिथ्या-संसार और हँसकर कहने लगी-तुम डरते क्यों हो ? को सत्य में परिणत करनेवाली अमूल्य निधि तुमने चलो, अब हम सब खेलें । कैसे पाई ? सभी शास्त्र और पुराण सत्संग को बालक उस अतीत स्मृति को भुला कर आनन्द
आत्मा की उन्नति का एक-मात्र साधन बतलाते हैं। से खेलने लगा। उस समय बालक हँसता था और किन्तु देव के इस विचित्र विधान के अनुसंधान तक दीनानाथ का हृदय रोता था।
मरी कविता
लेखक, श्रीयुत बालकृष्णराव जब सुख के निर्मल नयनों में दुख के आँसू, तब लय में, भाषा में, छविमय शब्दजाल में, छा जाते हैं, विमल व्योम में तारागण से; हो जाती है व्याप्त काव्य की मूक रागिनी । भव्य भावना-भूमि दिव्य छविमय तब होकर, छन्दों के मादक गीतों में, शब्दजाल की, भर देती है मधुर विकलता, सजनि, शान्ति में । हो जाती समष्टि, सखि, अनुपम अलंकार में;
आन्दोलित हो–हर्ष, व्यथा से, सखि, प्रेरित हो, श्रा न सकी जो, सजनि, मधुरिमा के प्रसार में, बज उठती है हृत्तन्त्री तब नीरव स्वर में; केवल वह अस्फुट ध्वनि ही है मेरी कविता ॥ .
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