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________________ ८४ सरस्वती तब लेने में क्या दोष है ? इस प्रकार किस किसको भैंस लौटाता फिरूँगा | पंडित जी का मुँह बंद रह गया । दीना प्रणाम करके चला गया । ( ३ ) दीना के घर में एक छोटे-से बालक के अतिरिक्त कोई न था । छ: माह का अबोध शिशु दीना के भरोसे छोड़कर उसकी स्त्री ने अनंतधाम की यात्रा की थी। वह उस समय चार वर्ष का था । दीना अब रोगी और अशक्त हो गया था। इससे वह नियमित रूप से काम पर भी नहीं जा पाता था । उसे अपने पेट की चिन्ता नहीं थी। जो कुछ रूखा सूखा पा जाता, खा लेता था और बालक को भैंस का दूध पिलाता था । वह उसके लिए यथेष्ट होता । सवेरे का रक्खा दूध दीना ने दोपहर के भोजन के समय बालक को पिला दिया था । किन्तु शाम के लिए क्या प्रबंध किया जाय, दीना को इसकी चिन्ता हुई । वह लोटा लेकर ग्वाले के घर गया और दो पैसे का दूध लाकर बालक को पिलाने लगा। वह दूध खट्टा हो गया था, इससे बालक ने बर्त्तन से मुँह लगाकर हटा लिया। उसने विह्वल दृष्टि से इधर-उधर देखा और दीना से कहा- दादा, भैंस कहाँ गई ? दीना ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से उत्तर दियाबेटा, भैंस तो पंडित जी के यहाँ चली गई । कल से तुम्हें अच्छा दूध ला दिया करूँगा | यह सुनकर बालक रोने लगा। दीना ने उसे उठाकर गोद में ले लिया और रोटी मसल मसलकर उसके मुँह में देने लगा। बालक ने दो-चार कौर खाकर मुँह बन्द कर लिया । दीना थपकियाँ देकर उसे सुलाने लगा। बालक सो गया । दीना उसे चारपाई पर लिटाकर पास ही बैठ गया । उसके शुष्क मुख को देखकर दीना का हृदय व्यथित हो उठा । नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प उसके मन में उठ उठकर उसे सत्पथ से हटाने की चेष्टा करने लगे । वह सदा का दुखी था । बाल्यकाल से दुख की ही गोद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भाग ३६ में पला था । अतएव उसमें सहिष्णुता का होना स्वाभाविक था। मजदूर लोग प्राय: एक ही दिन की चिन्ता करते हैं। दूसरे दिन की बात दूसरे ही दिन पर छोड़ देते हैं। दीना की भी यही दशा थी 1 नैराश्य के अन्धकार में आशा का धुंधला प्रकाश ही बहुत होता है। उसने सोचा कि पंडित जी के पास जाकर थोड़ा सा दूध ले आऊँ । वह उठकर दरवाजे तक गया। पर ज्यों ही किवाड़ खोलने लगा, उसके मन में अचानक यह आशंका उत्पन्न हुई कि बालक के संकट की बात सुनकर वे कहीं भैंस ही न लौटा दें। मान लो कि उन्होंने ऐसा ही किया तो बालक का दुःख तो दूर हो जायगा, पर मैं उनका जैसा ऋणी पहले था, वैसा ही बना रहूँगा । इस दुर्भावना के अकाट्य बंधन ने उसके पैर जकड़ लिये । वह लौटकर बालक के पास चारपाई पर लेट रहा और सूर्योदय की प्रतीक्षा करने लगा । ( ४ ) माघ का महीना था। रात को पानी के साथ छोटी छोटी बिनौलियाँ भी पड़ गई थीं। इससे आज शीत का अधिक प्रकोप था। ऐसे कठिन समय में दीना कभी मजदूरी करने के लिए नहीं जाता था । किन्तु दूध की चिन्ता ने उसे विवश कर दिया । बिना मजदूरी किये पैसों का प्रबन्ध कैसे होगा ? अस्तु वह बालक को सोता छोड़कर सवेरे ही घर से निकल पड़ा | उस दिन उसे बहुत दूर काम मिला। कोई ठेकेदार पत्थर की ढुलाई करवा रहा था । गाड़ियाँ लगी हुई । दीना भी पत्थर लादने लगा । उसने दिन भर खूब काम किया और अच्छी मजदूरी पाई । किन्तु ज्यों ही सूर्य डूबा और शीत ने अधि कार जमाया, दीना को कँपकँपी देकर ज्वर आगया । उस समय वह घर आ रहा था । ज्यों-त्यों कर उसने हलवाई के यहाँ से दूध लिया और घर आया । बालक पड़ोसी के लड़के के साथ दरवाजे पर खेल रहा था। वह दिन भर का भूखा था। बाप को देखकर www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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