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सरस्वती
[भाग ३६
शबत को प्याले में उड़ेलते वक्त बायें हाथ को भी दाइने हाथ की । केहुनी के पास इस ख़याल से लगा दिया था जिसमें देना दोनों हाथ से हो । भारत की भाँति कोरिया में भी (जापान में भी) सत्कार-प्रदर्शन के लिए कोई चीज़ देते वक्त दोनों हाथों का लगाना ज़रूरी समझा जाता है।
पहला काम हमें मठ देखना था। मालूम हुआ, फ़-उन् नामक भिनु ने ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी में इस मठ की स्थापना की। बुद्ध-धर्म कोरिया में ३७२ ईसवी में पहुँचा था, और उसकी बादवाली शताब्दियों में उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया। उसी समय बौद्ध-भित एकान्त-आश्रम के लिए स्थान ढूंढ़ते हुए इस पर्वतश्रेष्ठ में पहुँचे थे,
और अमनो गज़ब को पर ब-द्वारा इसके महत्व को समझ वज्रपर्वत को कोरिया के बौद्ध-धर्म का केन्द्र तथा पवित्र स्थान बनाने में सफल हुए। यद्यपि इस मठ को स्थापना पन्द्रह शताब्दी पर्व हुई थी. तो भी लकडी का अधिक इस्तेमाल होने से पुरानी इमारते कई बार जल चुकी हैं। इस समय का सबसे पुराना मन्दिर सुखावतो (खुग-नग-चोन् ) तीन सौ । वर्ष पहले बना था। प्रधान मन्दिर को बने सिर्फ चालीस वर्ष हुए हैं,
और उसके भीतर की गौतमबुद्ध, लोकेश्वर, मंजुश्री की काष्ठमृत्तियाँ तो सिर्फ ६ वर्ष पहले बनी थीं। किन्तु प्रधान मन्दिर के द्वार पर एक पत्थर का चीनी ढंग का ८.९ फट ऊंचा जो स्तूप है वह मंदिर के प्रथम निर्माण के वक्त बनाया गया था। पत्थर सङ्गखारा है ।
और पन्द्रह शताब्दियों के जाड़े-गर्मी ने उसे जीर्ण-शीर्ण कर दिया है, तो भी स्तूप के चौखूटे घेरे में पुरानी मूर्तियों की रूप-रेखा दिखलाई |
पड़ती है। दो-तीन और छोटे छोटे मन्दिर हैं। वे भी नये हैं। [कोङ गोसान्–क्यर्युएन् जलपात]
मुख्य द्वार दोमहला है, और बिलकुल नया है। उसके देखने से मालूम | अर्थ है तातापानी गाँव । इस गाँव में गर्म पानी के चश्मे हैं, और हर होता है कि कोरिया के बौद्धधर्म में नई जान आ रही है। मन्दिर के | एक होटल ने अपने यहाँ तप्तकुण्ड तैयार किये हैं। कमरा बतलाया हाते में एक ओर पाठशाला का मकान है, जिसमें आस-पासवाले ३५ गया, और साथ ही चाय और जापानी मिठाई मुसकुराते हुए चेहरों के लड़के चार दर्जे तक की पढ़ाई करते हैं। अध्यापक मठ के एक भिक्षु साथ पहुँच गई। नहाने का पानी तैयार है, इसकी भी ख़बर आगई। ही हैं। यह भी मालूम हुआ कि बराबर रहनेवाले भि तुओं की संख्या निपटने और थोड़ा विश्राम करने में एक बज गया। फिर हम दो ये २० है; और निर्वाह के लिए पहाड़ का जङ्गल और कितने ही खेत है।
मोटर कर शिन् केइ जी (छिन्-गे-सा) मठ के लिए रवाना हुए। मन्दिर का दर्शन कर हम क्यु-यु-एन् जलप्रपात की ओर रवाना छिन्-गे-सा मठ में पहुँच गये। थोड़ी देर में ६३ वर्ष के वृद्ध प्रधान हुए। कोङ-गो-सान में ऐसे कितने हो जलप्रपात हैं, किन्तु यह जलभितुओंवाला लम्बा चोगा पहने स्वागत के लिए आगये। न वे प्रपात सबसे ऊँचा है। मठ से प्रायः ५-६ मील दूर है। रास्ते पर यद्यपि हमारी भाषा समझते थे. न उनकी भाषा हम। हमारे थी सीमेंट के पुल आदि बने हुए हैं, तो भी चढ़ाई काफ़ी कठिन है। श्री कुरिता को अगरेज़ो भी बहुत कच्ची थी, और दस बात में रास्ते में हमें एक-आध जगह दो-एक सोडावाटर, सिगरेट, फोटोकहीं एक बात वे अनुवाद कर पाते थे। तो भी वृद्ध भिनु की मुखाकृति कार्ड आदि को दूकानें भी मिलीं। इन दुकानों में कोङ्-गो-सान् में से ही मालूम होता था कि बुद्ध की जन्मभूमि के एक भिनु का यहाँ मिले नाना रूप-रङ्ग के स्फटिक तथा दूसरे पत्थर भी बेचने के लिए। आना उनके लिए असाधारण घटना हुई है। सत्कार के लिए मधु का रक्खे थे। छाल-सहित भोजपत्र के काष्ठ पर स्थानीय दृश्य भी चित्रित शर्बत और चीनी के प्याले पहुँच गये। कोरियन मठों में, मालूम होता किये हुए रक्खे थे। यात्री के बैठने के लिए बेंच, गर्म सादी चाय है, स्वागत में चाय का स्थान मधु के शर्बत ने दखल किया है । भारत और स्वागत-शब्द तो हर वक्त तैयार रहते हैं । एक तरुण दूकानदार में भी आगन्तुक को शर्बत प्रदान करना पुरानी प्रथा है। भिनु ने ने जब सुना कि मैं भारतीय हूँ तब वह जापानी भाषा में छपी महात्मा
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