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सरस्वती
[भाग ३६
मुकाबला करने का जोश दिलाते तब बेशक उनकी डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी-सी रहति छाती, कविता वीर-रस की कही जाती और वह हिन्दुओं बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिन्दुवाने की। को फड़कानेवाली होती। हमारा ख़याल है कि उनकी कढ़ि गई रैयति के मन की कसक सब, कविता हिन्दुओं में मुस्लिम-विरोधी भाव न तब पैदा मिटि गई ठसक तमाम तुरकाने की ॥ कर सकी थी और न अब कर सकती है। इसलिए तो हम अपने उठते हुए राष्ट्र का अहित ही जहाँ तक हिन्दुओं को भड़काने का सवाल है, यह करेंगे। यह जहर हम अपने बालकों को, भारत के कविता निर्जीव है और इससे निर्दोष है। पर मुसल- भावी नागरिकों को क्यों पिलायें ? पाठ्य पुस्तकों का मान इससे भड़क सकते हैं। वाजपेयी जी चाहे निर्माण हम नवीन दृष्टिकोण से क्यों न करें? । जितना कहें, यह बात कोई भी स्वीकार नहीं कर आखिर शिवाबावनी का हममें इतना मोह क्यों सकता कि मुसलमान अपने आपको 'मलेच्छ-बंस' का है ? केवल इसी लिए न कि पिछले तीन सौ वर्षों कहलवाना पसन्द करेंगे। यह बात उन्हें ज़रूर बुरी से हम उसे वीर-रस का काव्य मानते चले आ रहे लगेगी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि एक हैं और अब इस जाग्रति के युग में हमें उसकी और भी मुसलमान ने ही महात्मा जी से इसकी शिकायत की आवश्यकता है। परन्तु मैं कहूँगा कि शिवाबावनी है। वाजपेयी जी तो राष्ट्रीय विचारवाले हैं। हिन्दू- में वह वीर-रस नहीं है जिसका आस्वादन कर मुसलिम-एकता पर वे बहुत-कुछ लिख-पढ़ चुके हैं। हम वीर बाँकुरे बनना चाहते हैं। वह तो भटैतीमिश्रबन्धु तक जो राष्ट्रीयता में वाजपेयी जी से मात्र है। धन की इच्छा से लिखा गया सत्रहवीं बहुत पीछे है और हिन्दू-मुसलिम प्रश्न पर इतने शताब्दी के अन्य साहित्यिक प्रयत्नों की भाँति वह उदार विचार भी नहीं रखते, अपनी भूषण-ग्रन्थावली भी एक प्रयत्न है। उस कविता को पढ़ने से ज्ञात की भूमिका में जो काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा से होता है कि कवि का उद्देश एकमात्र शिवाजी का प्रकाशित हुई है, लिखते हैं-"वर्तमान समय की गुणानुवाद करना है। उस कविता में उस समय के दृष्टि से इस कवि की मुसलमानों के प्रति कटूक्तियाँ हिन्दुओं को जगानेवाली कोई बात नहीं है। हिन्दू बहुत ही अनुचित एवं विषगर्भित ज्ञात होती हैं।" तो मानो उस समय असमर्थ थे, भयत्रस्त थे। यद्यपि मिश्रबन्धुओं ने यह भी लिखा है कि "इनकी शिवाजी न होते तो वे सब मुसलमान हो जाते। कविता को इस दृष्टि से न जाँचना चाहिए,” तथापि फिर उस कविता में यह भी नहीं है कि शिवाजी हम कहेंगे कि औरंगजेब के समय में चाहे जो परि- ने किस प्रकार लड़ाइयाँ लड़ी, किस प्रकार मुसीस्थिति रही हो, हमारे देश को वर्तमान स्थिति ऐसी बतों का सामना किया, किस प्रकार शत्रु का दमन नहीं है कि हम इस प्रकार की कविताओं को प्रोत्साहन किया तथा उन्होंने कौन-सा बल, साहस या पराक्रम दें। उस समय हिन्दू-मुसलमान दोनों शासक थे। दिखाया। अधिकांश पद्यों में भयत्रस्त मुग़लों की दोनों राजनैतिक शक्ति के लिए लड़ रहे थे। दोनों एक स्त्रियों का वर्णन है और औरंगजेब को कोसा है कि दूसरे को हिन्दुस्तान से हटा देने का स्वप्न देख रहे तूने बाप को कैद किया, भाई को मारा, तुझे नक थे। आज वह बात नहीं रही। आज दोनों पराधीन होगा। यह असमर्थों और अपाहिजों की वाणी है। हैं और यह अनुभव कर रहे हैं कि मिलकर रहने में समर्थ अन्याय का दमन स्वयं करते हैं, ईश्वर का ही कल्याण है। इस दिशा में प्रयत्न भी जारी है। सहारा नहीं लेते। ऐसी दशा में यदि हम औरंगजेब और शिवाजी का वह असल में रोति-ग्रन्थों का युग था। सभी कवि समय बनाये रहें और गायें कि
अलङ्कार के ग्रन्थ बनाते थे और नायिकाभेद लिखते
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