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________________ ३३० सरस्वती [भाग ३६ इतनी मस्ती थी, तब वह स्वर्ग,......और उसके वे सर्वस्व को खोकर जीवन का आसरा हूँढ रहा था । निवासी,......उनको मस्त कर देनेवाली, उन्मत्त ......सुन्दर सुकोमल अनारकली को कुचल देने बना देनेवाली मदिरा,......आठों पहर मस्ती में वाली कठोरहृदया राज्य-श्री शाहजहाँ की सहायक झूमनेवाले स्वर्ग-निवासियों के उन स्वर्गीय शासकों हुई। शाहजहाँ की प्यासी चितवन को बुझाने के को भी मदोन्मत्त कर सकनेवाली मदिरा,......... लिए राज्य-श्री ने राज-मदिरा ढाली। दो दो प्यालों उसका खयाल मात्र ही मस्त कर देनेवाला है, तब में एकबारगी सुख-स्वप्न-लोक की इस मस्ती को उसका एक घुट, एक मदभरा प्याला, .....! पाकर शाहजहाँ बेहोश होगया। राज्य-श्री ने सम्राट __प्याला, प्याला, वह मद-भरा प्याला, उस को प्रेमलोक से भुलाकर संसार के स्वर्ग की ओर स्वर्ग में छलक रहा था, उसकी लाली में पत्थर आकृष्ट किया और मंत्रमुग्ध की तरह शाहजहाँ उस तक सिर से पाँव तक रँग रहे थे, संसार खड़ा देखता स्वग की ओर बढ़ा । वह प्रेमी अपनी प्रेमिका को था, तरसता था......; परन्तु एक दिन उस स्वग का खोकर स्वयं को खो चुका था, अब इस स्वर्ग में निर्माता तक इसी मस्ती को प्यासी दृष्टि से देखता पहुँच कर वह अपने उस प्रेम-लोक को खो बैठा। था, उसका आह्वान करने को आँखें बिछा रहा था, इस पृथ्वीलोक पर स्वर्ग, इस ज़मीन पर स्वर्गीय उन्माद को उस मदमाती मदिरा की थोड़ी- बहिश्त... उस भावी जीवन में स्वर्ग पाने की आशा सी भी उन उन्मत्तकारी बूंदों को बटोरने के लिए दो ही अनेकानेक व्यक्तियों को पागल कर देती है, तब दो प्याले सरका कर एकटक देखता था। तब...... इस जगत् में, भौतिक संसार में स्वर्ग को पाकर, उसे जहाँ का शाह मादकता की भीख माँगने निकला था। प्रत्यक्ष देखकर, उसमें विचरना...... । स्वर्ग के स्वप्न उसके प्रेम पर पत्थर पड़ चुके थे, उसका दिल मिट्टी में देखकर ही कौन भौतिक जीवन को नहीं भूला है, तब मिल चुका था, उसकी प्रियतमा का वह अस्थिपंजर भौतिक स्वर्ग का निवास, उसके वे सारे सुख, उस सुन्दर ताज पहने बीभत्स अट्टहास करता था। जीवन की वह मस्ती......सदेह उस स्वर्ग में पहुँच प्रेम-मदिरा दुलक चुकी थी और शाहजहाँ रिक्त नेत्रों कर, अपना अस्तित्व भुला देना, अपना व्यक्तित्व से संसार को देख रहा था । प्रेम-प्रतिमा भग्न हो गई खो देना कोई अनहोनी बात नहीं है। और इन सबसे थी, हृदयासन खाली पड़ा था और......पाँवों तले अधिक नवीन प्रेयसी का प्रेम, प्रौढ़त्व में पुन: भारतीय साम्राज्य फैला हुआ था, कोहनूर-जड़ित प्रेम का उद्भव, उसका प्रस्फुटन और विकास......एक ताज पैरों में पड़ा सिर पर चढ़ने की बाट देख रहा ही बात मनुष्य को उन्मत्त बना देने के लिए पर्याप्त है, था, राज्य-श्री उसके सम्मुख नृत्य कर रही थी, तब इतनों का सम्मिश्रण .....बहुत थी वह मस्ती... अपनी भावभंगी-द्वारा उसे ही नहीं, संसार को + x x लुभाने का प्रयत्न कर रही थी, उनके हृदयों को साम्राज्य ने प्रौढ़त्व को प्राप्त कर अंगड़ाई ली। समेटने के लिए अनन्त सौन्दर्य बिखेर रही थी। अपने रक्षक का तिरस्कार कर, जहाँ ने अपने शाह __ मदिरा ! मदिरा ! वह मस्ती ! मादकता का वह को अपनाया, उसको पूजा, उसके चरणों में प्रेमानर्तन ....... एक बार मुँह से लगी नहीं छुटती, एक ञ्जलि अर्पित की और उस शाह ने अपने जहाँ की बार स्वप्न देखने की, सुखलोक में विचरने की लत ओर दृष्टि डाली। उसके उस साम्राज्य के यौवन पड़ने पर उसके बिना जीवन नीरस हो जाता है। का उन्माद अब कुछ घटने लगा था; नूरजहाँ भारप्रेम-मदिरा को मिट्टी में मिलाकर शाहजहाँ पुनः तीय रंगमंच से बिदा ले चुकी थी। अपनी अन्तिम मस्ती लाने को लालायित हो रहा था, अपने जीवन- प्रेयसी मुमताज़ को खोकर, साम्राज्य ने उसकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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