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________________ संख्या ४] पृथ्वी पर स्वर्ग ! ३३१ आखिरी अदा, ताज की अमर सुन्दरता में देखीः धारण किया, वैधव्य के उन फटे चिथड़ों को दर परन्तु अब भी नित नई की चाह घटी न थी। बढ़ते फेंक कर, उसने उन्मत्त कर देनेवाली लाली में स्वयं हुए साम्राज्य को प्रौढत्व में भी नवीन प्रेयसी की को रँगा और नववधू का नया बाना पहना और इच्छा हुई; आगरा की संकुचित गलियाँ साम्राज्य अपने वक्षःस्थल में अपने नये प्रेमी को स्थान देने के धधकते हुए जीवनपूर्ण हृदय को समाविष्ट करने के लिए उसने एक नवीन हृदय की रचना की। उस के लिए पर्याप्त प्रतीत न हुई। युवा साम्राज्य का महान प्रेमी के लिए, अपने नये प्रीतम के लिए, प्रेमसागर शान्त हो गया था, किन्तु अब भी अथाह दिल्ली ने इस भूलोक पर स्वर्ग अवतरित किया। प्रेमोदधि उस वक्षःस्थल में हिलोरें ले रहा था। भारत-सम्राट के लिए, दिल्लीश्वर के सुखार्थ, इस प्रशान्त महासागर में तरंगें यदा-कदा ही उठती हैं, संसार में स्वर्ग आ पहुँचा। उस वारांगना ने इस परंतु उस चाँद-से मुखड़े को देखकर वह भी खिंच भौतिक लोक में स्वर्ग का निर्माण किया, और जहाँ के जाता है, अनजाने उमड़ उठता है,......उस चाँद का शाह को उसका अधिष्ठाता बनाया । यों जगदीश्वर वह आकर्षण.........वह साधारण सागर उसके के समान ही दिल्लीश्वर ने स्वर्ग में निवास किया, प्रभाव से नहीं बच सकता, तब उस प्रेमसागर का तथा उस भौतिक पुंश्चली दिल्ली ने स्वर्गीय इन्द्राणी न खिंचना .....संसार में विरल ही उस आक- से बाजी मार ली। र्षण का सफलतापूर्वक सामना कर सके हैं। साम्राज्य नवीन प्रेयसी के लिए लालायित हो नववव ने अपने प्रियतम का स्वागत किया। गया। सम्राट् विधुर हो गया था, साम्राज्य ने अपनी उस पार से आते हुए शाहजहाँ ने यमुना में उस प्रेयसी को अपने हृदय से निकाल बाहर किया, नये स्वर्ग का प्रतिबिम्ब देखा-वह लाल दीवार और उन दोनों को रिझाने के लिए राज्य-श्री ने नव- और उस पर वे श्वेत महल, उस लाल लाल सेज वधू की योजना की। अनन्त यौवना ने बहुभर्तृका पर लेटी हुई वह श्वेतांगी। अपने प्रियतम को आते को चुना। इस पांचाली ने भी सम्राट् तथा साम्राज्य देख सकुचा गई। नववधू के उजले मुख पर लाली दोनों को साथ ही पति के स्वरूप में स्वीकार किया। दौड़ गई और उसने लज्जावश अपना मुख अपने परन्तु......इस पांचाली के लिए भी उसी कुरुक्षेत्र में अंचल में छिपा लिया, दोनों हाथों से उसे ढंक पुनः महाभारत हुआ, उसके पति को वनवास हुआ, लिया। देश देश घूमना पड़ा और उसके पुत्र......नहीं! और यमुना के प्रवाह में वायु के किचिन्मात्र नहीं ! यह पहले भी नहीं हुआ, आगे भी नहीं होगा, झोंके से ही उद्वेलित हो जानेवाली उस धारा पर, पांचाली के भाग्य में पुत्र-पौत्र का सुख नहीं लिखा निरन्तर उठनेवाली उन तरंगों पर शाहजहाँ ने था, नहीं लिखा है। देखा कि वे स्वर्गीय अप्सरायें, उस दूसरे लोक की न जाने कितने साम्राज्यों की प्रेयसी उजाड़, वे सुन्दरियाँ, अपनी अद्भुत छटा को रंग-बिरंगे विधवानगरी पुनः सधवा हुई। अपनी मांग में पुनः वस्त्रों में समेटे, उन झीने वस्त्रों में से देख पड़नेसिन्दूर भरने के लिए उसने राज्यश्री से सौदा किया, वाले उन श्वेतांगों की उस अद्भत कान्ति से सुशोभित, और अपने प्रेमी के स्थायित्व को देकर उसने अपने उजले पैरों पर महावर लगाये उसके स्वागत अनन्त यौवन प्राप्त किया और अब नई आशाओं के उपलक्ष्य में नृत्य कर रही हैं। भलोक पर अवके उस सुनहरे वातावरण में दिल्ली का चिरयौवन तरित स्वर्ग के पति के आने के समय उस दिन उस प्रस्फुटित हुआ। दिल्ली ने पुनः रंग बदला, नया चोला महानदी पर अपने सौन्दर्य, द्युति तथा अपनी कला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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