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________________ सरस्वती [भाग ३६ का प्रदर्शन करके, जहाँ के शाह का उस लोक में, वास करने आया था, और अपने प्यारे का स्वागत नवीन प्रेयसी के उस स्वर्गीय हृदय-मन्दिर में स्वागत करने में पांचाली का हृदय, वह स्वर्ग फूला समाता करने आई है। और महानदी का वह कृष्णवर्ण जल न था । उस स्वर्ग का अन्तंरंग,..... उसकी सुन्दरता उनकी कान्ति से प्रज्वलित होकर अपने तलुओं में का वर्णन करना असम्भव है। अनन्त यौवना की लगे महावर की लाली को प्रतिविम्बित करके हर्ष लाड़ली, सिद्धहस्त वाराङ्गना का श्रृंगार......उसमें के मारे कल्लोल कर रहा था। एकबारगी यमुना सुन्दरता थी, मादकता थी; आकर्षण था, परन्तु त्रिकाल-सम्बन्धी दृश्यों की त्रिवेणी बन गई, उत्थान उमड़ते हुए नवयौवन का उभार उसमें न था, की लाली, दिवस का उजेला तथा अवसान की निरन्तर अधिकाधिक ऊँची उठनेवाली तरङ्गों की कालिमा, तीनों का सम्मिलित प्रतिबिम्ब उस महा- तरह वह वक्षःस्थल उठा हुआ न था। सौन्दर्य तथा नदी में देख पड़ता था, परन्तु अवसान की वह मादकता का इतना गहरा रङ्ग चढ़ा था कि उसमें कालिमा, लाली और उज्ज्वल प्रकाश ने उसे छिपा कोई दूसरी विभिन्नता नहीं देख पड़ती थी। स्वर्ग में, दिया; किसी को खयाल भी न आया कि विगत और उतार चढ़ाव......जहाँ समानता हो वहीं रात्रि की क्षीण होनेवाली कालिमा, अागामी रात्रि निरन्तर सुख, चिरस्थायी आनन्द, अक्षय विलास के स्वरूप में पुन: उपस्थित होकर एकच्छत्र शासन घर कर सकते हैं। स्थिरता, समानता और प्रशान्त करतो है, और तब.........वह जीवन-प्रवाह उस गम्भीरता ही स्वर्ग की विशेषतायें होती हैं। स्वर्ग स्वर्ग से बहुत दूर जा पहुँचेगा, अपनी दूसरी ही का सुख प्रौढ़ व्यक्तियों के भावों की तरह समान, धारा में बहेगा। उस समय तो स्वर्ग के सुख को प्रशान्त महासागर के वक्षःस्थल का-सा समतल; किन्तु देखकर, उस दुखद अन्त का खयाल न आया। उसी के समान गम्भीर और अगाध होता है। यदा. अनन्त-यौवना विषकन्या भी होती है, और चाँद कदा उठनेवाली छोटी तरङ्गे ही उसके वक्षःस्थल पर का जो कलंक एक दिन उसका आभपण बना रहता यत्किचित उभार पैदा करती हैं, उन्हीं से उममें है वही कलंक बढ़ते बढ़ते पूर्णिमा के चन्द्र को अमा- सौन्दर्य आता है, और उन्हीं नन्हीं तरङ्गों पर नृत्य वस्या की कालिमा में रंग देता है; प्रेम-प्रणय की करती है वह प्रेम-सुन्दरी, यौवन मदिरा से रंगे हुए उस मस्ती के उमड़ते हुए प्रवाह में ये सब खयाल उस प्रेम-महोदधि में उठी हुई, घनीभूत भावों की लाल डूब गये । वह उल्लास का दिन था, प्रथम मिलन की लाल तरङ्गों पर ही स्थिर हैं वे श्वेतप्रसाद, स्वर्गलोक रात्रि थी, सुख छलका पड़ता था, सोन्दर्य उल्लास के सुन्दर भवन, स्वप्न-संसार की वे स्फटिक वस्तुएं के प्रवाह में धुल धुलकर अधिकाधिक निखरता भावलोक की घनीभूत भावनाओं के वे भौतिव जाता था, मदिरा-सागर में ज्वार आया था, उस स्वरूप । वासना के प्रवाह से ही उड़ती हैं वे छोर्ट दिन तो उसकी वे लाल तरंगें और उन पर चमकते छोटी आनन्दप्रदायक शुद्ध बूंदें, उस कालकूट हुए वे श्वेत फेन,.........उन्होंने सारे स्वर्ग को रंग विष में से निकलनेवाले रसामृत की वे रस-भरी दिया, और मादकता-सागर की वह तलछट, वह बूंदें, जो अपनी सुन्दरता तथा माधुर्य से उस प्रवाह कृष्णवर्ण यमुना, वह तले ही पड़ी रही .....उस की कलुषता को धो देती हैं, उसकी कालिमा को तलछट में भी लाली की झलक देख पड़ती थी, अधिकाधिक सुन्दरता प्रदान करती है, अपने माधुर्य्य आभा की युति उसमें भी विद्यमान थी। से उस मदमाती लाल लाल मदिरा तक में मधुरता प्रथम-मिलन का उत्सव था, अनन्त यौवना की भर देती है। अवश्यम्भावी अन्त में पाई जानेवाली लाड़ली की सोहागरात थी। जहाँ का शाह हृदय में अमरत्व की भावना ही मनुष्य के जीवन को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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