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________________ पृथ्वी पर स्वर्ग ! संख्या ४] सौन्दर्य तथा माधुर्य से पूर्ण बनाती है । यह भौतिक स्वर्ग या उस पार का वह बहिश्त, एक ही भावना, एक ही विचार प्रवाह, चिर सुख की इच्छा ही उनमें पाई जाती है । और सुख, सुख ... मनुष्य उसके लिए कहाँ कहाँ नहीं भटकता है, क्या क्या नहीं • खोजता है, कौन कौन-सी कठिनाइयाँ नहीं उठाता, क्या उठा नहीं रखता ? और स्वर्ग, सुख-इच्छा का भावना - पूर्ण-पुञ्ज, वह तो मनुष्य की इन कठिनाइयों को, सुख तक पहुँचने के लिए उठाये गये दुखों को देखकर हँस देता है, और मनुष्य उसी हँसी से मुग्ध होकर स्वर्ग प्राप्ति का अनुभव करता है । स्वर्ग का वह ईषत् हास्य, उसकी वह रहस्यमयी मुस्कान... उफ ! उसने एक स्वरूप धारण करने में, एक सुचारु दृश्य दिखाने के लिए कितनों का लेखक, श्रीयुत उदयशंकर भट्ट संहार किया । इस भौतिक जगत् का वह स्वर्ग 1 वहाँ जहाँ का नूर बिखरा पड़ा था, स्वर्ण-रत्नों से भूषित ताज मिट्टी में पड़ी हुई मुमताज के अस्थिपञ्जर को प्रकाश-पूर्ण बना रहा था, सहस्रों सीपियों के दिलों को चीरकर निकाले गये मोती यत्र तत्र चमक रहे थे, उस दूसरे लोक की सुन्दरियाँ इस लोक को आलोकित करने को दौड़ पड़ी थीं, हज़ारों पुष्पों का दिल निचोड़कर उसमें सुगन्धि बिखेरी गई थी, सहस्रों स्नेह-पूर्ण बत्तियाँ जत्व जलकर उस स्वर्ग को प्रज्वलित कर रही थीं; वहाँ जहाँ का शाह बेहोश मदमस्त पड़ा लोटता था, सुख-नींद साता था, स्वप्न देखते देखते अनजाने कहने लगता था - "पृथ्वी पर अगर स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है !" जीवन में कुछ ही क्षण आये मेरे उन सपनों के, जिनमें मैं भूमा करता था हृदय लिये अपनों के । आह अश्रु बन ढली प्यार की दुनिया छोड़ निराली, होड़ लगी है आज झड़ी से अमिट घड़ी की आली || दिनकर दिन भर जला न कर ही पाया कुछ उजियाला, दीपक जल जल बुझे रात के मेरा तिमिर निराला । प्राण- स्पन्दन से हँसता है सागर का उच्छल जल, धूमिल आहों से इतराता नभ से उठ मेघानल || हृदय - तिमिर से काली रातें मिलने नित आती हैं, लिये मशाले नक्षत्रों की रोज़ झाँक जाती हैं । मेरा लघु संसार खो गया पत्ल के परिवर्तन में, कहीं ढूँढ़ पाऊँगा क्या मैं निज को निज जीवन में ॥ अब तो अन्तर के सरगम पर, करुणा रुदन राग गाती है । स्मृतियाँ कंकालों में लिपटी, विस्मृति में सोने जाती हैं ।। विश्व मंच के क्षणिक खेल में, मैं तब बना तमाशाई था । मैं सुख था मैं ही जग था, निज में निज की परछाई था । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ३३३ www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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