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सरस्वती
[ भाग ३६
देने के लिए एक बार अपने चेले को जाने दें। आने पर पुजारी उन आदमियों में से थे, जो घोर से घोर लड़के को यह बात अरुचिकर मालूम हुई, किन्तु दूसरा वेदना को हृदय के भीतर इस तरह छिपा सकते हैं कि चारा न था। लौटाने का वादा तो झूठा था, किन्तु अाँख तक उसकी छींट भी नहीं पहुँचने पाती । तो भी एक भोले-भाले महन्त जी पंडित की चिकनी-चुपड़ी बातों में बार उन्होंने पुत्र के सामने दिल खोलने का प्रयास किया।
आ गये । लड़का घर पर लाया गया। अब एक ओर तो 'नहीं' कहके अभी हल्ला गुल्ला सुनने की हिम्मत न होने लड़के को (पुजारी के स्वभाव के विरुद्ध) शौक़ीन कपड़ों से पुत्र ने उन्हें वहीं कहीं रहकर प्रतीक्षा करने के लिए तथा पान श्रादि का प्रबन्ध किया गया और दूसरी ओर कह दिया। पुजारी यद्यपि पुत्र की मानसिक अवस्था को उसके जाने-आने पर कड़ी निगाह रक्खी जाने लगी। समझने लगे थे, और कभी कभी चाहते भी थे कि वह लड़का एक बार भागा तब स्टेशन पर पुजारी ने जा अपनी मर्जी पर रहने दिया जाय, किन्तु अन्त में पकड़ा । इस तरह काम न बनते देखकर लड़के ने विश्वास पुत्रस्नेह का पल्ला भारी हो जाता था। पैदा कराना चाहा, और तीन मास तक अवसर ढूँढ़ने के उनकी वह अर्द्ध विक्षिप्तावस्था जानकारों के हृदय में बाद वह अपने इस बन्दी-जीवन से मुक्त हुआ। सहानुभूति पैदा किये बिना नहीं रहती थी । लड़का जिनका
अतिथि था उनकी माता तो पुजारी की अवैतनिक गुप्तचर पुजारी को इसका कितना दुःख हुआ, यह इसी से ही थीं। कुछ सप्ताहों के बाद जब लड़का चुपचाप इक्के मालूम होता है कि चिन्ता के मारे दो वर्ष बीतते-बीतते पर सवार होकर स्टेशन की ओर भाग चला तब पुजारी उनके दिमाग़ में एक प्रकार का उन्माद-सा हो गया। को भी खबर मिलते देर न लगी; और इक्के के पहुंचने लड़का उस समय आगरे में पढ़ता था। एक मित्र ने सब से कुछ ही देर बाद वे भी स्टेशन पर आ धमके । मालूम हाल बतलाकर एक बार पिता को देखने के लिए कहा। होता था, दस या बारह मील के रास्ते को उन्होंने दौड़कर इस पर लड़का घर आया । पुजारी को प्रसन्नता ही नहीं ही काटा था। वे तो जानते ही थे कि एक बार रेल हुई, बल्कि जब उनके दिमाग़ की गर्मी दूर करने के लिए में बैठ जाने पर उसे पाना उनके लिए असम्भव हो फ़स्द खोलनेवाला लाया गया तब उन्होंने कहा-क्या जायगा। ट्रेन के आने में पन्द्रह-बीस ही मिनट की करोगे? अब मेरी तबीअत अच्छी हो गई है। एक देर थी। हफ्ते के बाद लड़का उसके इच्छानुसार जाने भी लड़के ने साथ छोड़ देने के लिए जब कुछ अधिक दिया गया।
___ कहना चाहा तब पुजारी बच्चों की भाँति फूट फूटकर रोने
लगे। स्टेशन के यात्री इकट्ठे होकर लगे उसकी लानतदो वर्ष और बीत गये। लड़के का कोई पता न था। मलामत करने । उससे जान बचाने के लिए उसे फिर एक दिन पता लगा, वह बनारस आया हुअा है। फिर बनारस आना पड़ा । बनारस में श्राकर उसने. भले प्रकार ज़बर्दस्ती घर पर लाकर नज़रबन्दी का वही अस्त्र काम में समझाकर कह दिया--श्राप पकड़कर मुझे नहीं रख लाया गया। इस बार उसने अपने बन्धुत्रों से कह दिया- सकते। मेरी इच्छा घर जाने की बिलकुल नहीं है । घर एक बार निकल जाने पर फिर तुम नहीं पकड़ सकोगे। न जाने की मैं प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। आपके हठ से ध्येय अाखिर आदमी का बच्चा कब तक बाँधकर रक्खा जा को छोड़ने की अपेक्षा मुझे मरना प्रिय होगा। सकता है ? और एक दिन वह फिर निकल भागने में समर्थ पुजारी शायद पहले से काफ़ी सोच चुके थे। उन्होंने हुआ। बनारस से वह विन्ध्यपर्वत की तलहटी में पहुँचा। तुरन्त और बहुत संक्षेप में कहा-अच्छा अब मैं तुम्हें किन्तु पुजारी को लड़के के एक मित्र ने पता बता दिया, नहीं रोकूँगा, किन्तु मैं भी घर न जाऊँगा। यहीं काशी में और वे भी वहाँ जा पहुँचे ।
रहकर ज़िन्दगी बिता दूंगा।
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