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कुँवर राजेन्द्रसिंह की दर्शन-शास्त्र से बड़ी रुचि है और आपका खयाल है कि इस दिशा में भारत अन्य देशों से आगे है । 'गंध' और 'स्पर्श' पर ग्राप 'सरस्वती' में दो अच्छे निबन्ध लिख चुके हैं । इस लेख में अापने 'रूप' क्या है, यह बताया है । श्राशा है, पाठकों का आपके इन लेखों से पर्याप्त मनोरञ्जन होगा।
लेखक, कुँवर राजेन्द्रसिंह हने को चाहे जो कोई कुछ कहे, ने कहा है---"फिर वही कुंज कफस फिर वही सय्याद पर यह मानना पड़ेगा कि का घर ।" भाव कितना हृदयस्पर्शी है ! अस्तु, प्रोफेसर दर्शन-शास्त्रके मैदान में हमसे मैक्समूलर की पुस्तक 'वॉट इंडिया कैन टीचअस'
और देशवाले कोसों पीछे पढ़ने के योग्य है। उसमें उन्होंने बतलाया है कि PSI हैं। यह कहना कोई अत्युक्ति भारतवर्ष हमें क्या सिखला सकता है। उनकी और
नहीं है कि जहाँ से हमारे भी पुस्तकें हैं, जिनमें उन्होंने हमारे वेदान्त और
तत्त्व-विज्ञान-विशारदों ने दर्शन-शास्त्र पर अच्छे लेख लिखे हैं। किसी विदेशी 'श्रीगणेशाय नमः' किया है, वहाँ और लोगों की को हमारे शास्त्रों से केवल सहानुभूति ही प्रकट करना 'इति श्री' हुई है। अभाग्यवश अब वे दिन हमारे बड़ी बात है। वही आज मैं फिर कहने जा रहा हूँ सामने हैं जब हमी से कहा जाता है कि हिन्दुस्तान जिसे मैंने प्रायः कहा है कि मुझे कभी अन्य देशमें कभी खोज करने की प्रथा ही नहीं थी। अगर वालों के आक्षेपों से दुख नहीं होता है, पर आँखें खोज करने की प्रथा नहीं थी तो जो कुछ लिखा हुआ अश्रुपूर्ण हो जाती हैं जब अपनों के ही मुँह से अपने है वह लिखा कैसे गया था। यह आक्षेप तभी ठीक देश या साहित्य की निन्दा सुनाई देती है। मेरे एक मालूम होता जब आक्षेप करनेवालों ने इस ओर मित्र जो अँगरेजी-साहित्य के अच्छे मर्मज्ञ हैं, कुछ परिश्रम किया होता, और जिन्होंने परिश्रम एक रोज़ मुझसे कहने लगे कि ज्ञानेन्द्रियों के विषयकिया है वे जानते हैं कि हमारे दशन-शास्त्र के जोड़ वर्ग के सम्बन्ध में अँगरेज़ी में शायद संस्कृत से का किसी देश का दर्शन-शास्त्र नहीं है। अब जो अधिक लिखा गया है। मुझे विश्वास नहीं हुआ आक्षेप हम पर किये जायें वे सब ठीक ही हैं। स्वतन्त्रता और विश्वास न होने का कारण यह था कि यह के खोते ही सब कुछ खो जाता है। आचार, विचार, विपय बहुत रूखा-सूखा है, जिस पर कोई भी स्वार्थसंयम, नियम, साहित्य, संगीत, कला-सभी पर सेवी जाति खोज करके कुछ भी नहीं लिख पराधीनता का गहरा प्रभाव पड़ता है। और बातों का सकती, और जो कुछ लिख सकती है वह तो क्या कहना, कुछ जीवन से ही अरुचि-सी मालूम केवल विलासिता की दृष्टि से। यह देखने की मुझे होने लगती है। यही हाल प्रत्येक जाति का, प्रत्येक · उत्सुकता हुई कि अँगरेजी विद्वानों का क्या मत है। मनुष्य का और प्रत्येक जीवधारी का होता है । परा- पहले मुझे वह पुस्तक मिली जिसमें 'गन्ध' के विषय धीनता के दुख का वर्णन करते हुए उर्दू के एक कवि पर लेख थे। उन्हें पढ़ते ही मुझे मालूम हो गया कि
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