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________________ संख्या २] जापान के रास्ते में कन्-सू की सीमा बाहरी मंगोलिया से लगी हुई है, जो लिए ईसाई बनना स्वीकार किया । यह कोई ज्यादा दिन की सोवियट शासन में है । वहाँ जाने पर उन्हें एक तो चीनी बात नहीं है, सिर्फ एक डेढ़ वर्ष की है। और ऐसी अस्थिरता सरकार की सेनाओं से उतना भय न होता और दूसरे उन्हें के साथ स्वार्थान्धता और अदूरदर्शिता बहुत अधिक मात्रा सीमा के पार से लालसेना की मदद की अाशा थी। में उनके सहायकों में भी है। यही कारण है कि उक्त चाङ्-कै-शक का इस वक्त चीन के धनियों और दोनों अान्दोलन तमाशा बनते जा रहे हैं। लाल-अान्दोविदेशी व्यापारियों पर बहुत प्रभाव है। वे चीन के दूसरे लन के पोषक तो वस्तुतः भयंकर दरिद्रता में फँसकर जनरलों की भाँति अपने और अपने खानदान के लिए ज़मींदारों द्वारा सताये गये चीनी किसान हैं । जब तक काफ़ी धन एकत्र कर चुके हैं। इसलिए उन्हें उसकी उतनी उनकी अवस्था आर्थिक अवस्था के बेहतर बनाने का प्यास नहीं है। इस वक्त वे चाहते हैं कि साम्यवादी उपाय नहीं होता तब तक लाल-अान्दोलन के चीन से उठ चीन से निकाल बाहर किये जायँ और चीनी राष्ट्र मजबूत जाने की अाशा नहीं की जा सकती। चाङ-कै-शक् की बनाया जाय । इसी लिए उन्होंने 'नवजीवन भादोलन' शक्ति यदि इतनी प्रबल न होती तो सारा चीन अब तक एक तथा 'राष्ट्रीय पुनर्रचना-आन्दोलन' चलाये हैं। चाङ्-कै- हो जाता । सशस्त्र डाकुओं के बड़े-बड़े दल तथा स्वच्छंद शक के स्वभाव में गम्भीरता और स्थिरता कितनी है, यह सैनिक गवर्नर बतला रहे हैं कि 'हनोज़ देहली दूरस्त' । तो इसी से सिद्ध है कि उन्होंने अपनी दूसरी शादी के मेरे प्राणों में तुम बोलो ! लेखक, श्रीयुत रामनाथ 'सुमन' [१] मेरे प्राणों में तुम बलो! जीवन है जीवन का अभिनय, मधु जीवन हो, मधुमय जग हो, इसमें कहाँ निलय है किसका ? मधुर पगों से झंकृत मग मम फिर किसका, कितना, क्या संचय ? तुमसे मुखरित और सजग हो। पीड़ा के आँसू से जग-मग के जलते पग धो लो। उग जाने दो प्यारी चंदा यूंघट के पट खोलो। मेरे प्राणों में तुम बोला। मेरे प्राणों में तुम बोलो। इस पनघट से उस पनघट पर, मन-घन रसमय जीवनमय हो, जीवन का रीता घट भरकर । तन मूञ्छित विस्मृत ममत्व मम कहाँ चली अमरित की रानी, तुममें जागे तुममें लय हो। मुझे छोड़ प्यासे मरघट पर । -- हृदय-कुंज की डाली डाली प्राण-पिकी रस घोलो। आज मृत्यु में जाग्रत जीवन, आओ दो क्षण सो लो। मेरे प्राणों में तुम बोलो॥ मेरे प्राणों में तुम बोलो॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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