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________________ सरस्वती [भाग ३६ है और वह कटु-भाषिणी स्त्री परमसुशीला और के एक नाटक--'दि डेविल्स डिसाइपिल' का हिन्दी शिक्षिता महिला के रूप में कावस जी को उपदेश अनुवाद-मात्र है। 'घणा के प्रचारक प्रेमचन्द' शीर्षक देती है-घर चलो और शीरों को समझा दो। लेख में मैं 'शा' के इस नाटक का संक्षिप्त परिचय “ऐयाश मर्द की स्त्री अगर ऐयाश न हो तो यह दे चुका हूँ। यह हो सकता है कि प्रेमचन्द जी ने शा उसकी कायरता है, लतखोरपन है।" का वह नाटक न पढ़ा हो, पर मेरा लेख तो उन्होंने प्रेमचन्द जी की कहानी यहाँ क्लाइमेक्स पर पहुँच- पढ़ा ही होगा, क्योंकि उन्होंने उसका उत्तर देने का कर फिर थोड़ा नीचे उतर जाती है और समाप्त हो प्रयत्न किया था। इस नवीन लेखक के इन नये जाती है। महीनों की व्याकुलता के बाद कावस जी नाटकों की समालोचना करते समय प्रेमचन्द जी ने का कायर हो जाना, शापुर जी का घटनास्थल पर इस बात का जिक्र क्यों नहीं किया ? क्या वे चाहते हैं आकर उपेक्षा प्रदर्शित करना, कटुभाषिणी गुलशन कि नवयुवक भी उन्हीं की भाँति 'कहीं की ईंट कहीं का परम सुशीला नारी के रूप में प्रकट होना और का रोड़ा लेकर भानमती का कुनबा जोड़ें' या वे इस ऐसा पतन-पूर्ण उपदेश देना, यह सब कितना अस्वा- प्रकार की चोरी को चोरी ही नहीं मानते। या इसका भाविक और भद्दा है, उस कहानी में यदि प्रेमचन्द कारण यह है कि जो दोष स्वयं अपने में मौजूद है जी का कुछ है तो यही अस्वाभाविकता और भद्दा- उसे दूसरों में देखें तो किस मुँह से उसका उल्लेख पन । कहानी में यह बात उन्हें इसलिए जोड़नी पड़ी करें । कुछ भी हो, अब समय आ गया है जब हम कि भेद न खुले। पर खेद है कि इतने पर भी वे सत्य का स्वागत करें और इस प्रकार के प्रयत्नों को चोरी को छिपाने में सफल नहीं हुए। चाहे वे किसी भी परिस्थिति में क्यों न किये गये हों, गुलशन के बाग़ में पहुँचने की घटनाभी 'उलझन' कदापि प्रोत्साहन न मिलने दें। की एक घटना के ही आधार पर है। 'उलझन' में शीला प्रेमचन्द जी से मेरा कोई व्यक्तिगत द्वेप नहीं है। एक उपन्यास पढ़ती है और उससे प्रभावित होकर मैं उनका उतना ही आदर करता हूँ जितना कि कोई घर से निकल पड़ती है। (उलझन पृष्ठ ९१) और भी कर सकता है। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि प्रेमचन्द जी की कहानी में गुलशन एक सपना हिन्दी में कथा-साहित्य की वृद्धि में उनका बहुत बड़ा देखती है और उससे प्रभावित होकर निकल पड़ती हाथ रहा है और है। पर यह सब होते हुए भी मैं है। (हंस पृष्ठ ३८) 'उलझन' में और भी बहुत-सी उनके दोषों की ओर से आँख नहीं फेर सकता । अब बातें और घटनायें हैं जो इस कहानी में नहीं आई, कहानी और उपन्यास का वह स्वरूप नहीं रहा जो पर मुख्य मुख्य बातें प्रायः सभी आ गई हैं। और उस समय था जब प्रेमचन्द जी ने लिखना प्रेमचन्द जी ने जो अपनी तरफ से जोड़ा है वह शुरू किया था । आधुनिक कहानियों की सफलता अस्वाभाविक, असुन्दर और व्यर्थ है जैसा कि मैं इस बात में है कि वे मनुष्यों को उठाने में, उन्हें एकऊपर साबित कर चुका है। दूसरे के निकट लाने में, सब प्रकार के मनुष्यों के ___ कदाचित् प्रेमचन्द जी यह समझते हों कि किसी हृदयों में मानव मात्र के प्रति प्रेम, दया, सहानुभूति की भी रचना को पढ़ जाने के बाद उसे अपने शब्दों और क्षमा का भाव उदय करने में सहायक हों। वे में लिख डालना चोरी नहीं है। 'हंस' के उसी अङ्क मनुष्यों के दिल में इस बात को जमा दें कि मार डालने ' में उन्होंने श्री भुवनेश्वरप्रसाद की नये ढङ्ग के से माफ कर देना ज्यादा अच्छा है। प्राण-हरण नाटक लिखने के लिए खूब प्रशंसा की है। यद्यपि करने से प्राण बचाना अधिक सुन्दर है। मुझे यह . इन नये ढङ्ग के नाटकों में एक 'शैतान' बरनार्ड शा देखकर दुःख हुआ कि प्रेमचन्द जी ने अपनी इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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