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________________ सरस्वती [भागे ३६ - हो जाता और आज हमारा वैद्यक-शास्त्र उच्चाति- मांस की, उसके बाद मेद की, फिर अस्थि की, उसके उच्च शिखर पर पहुँचा होता। हमारे वैद्यक ग्रन्थों में बाद मज्जा की और फिर कहीं शुक्र की। शुक्र की जो कुछ रस के विषय पर लिखा हुआ है उसका चतु- बहुमूल्यता की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। थांश भी उद्धृत करना मानो एक अच्छी खासी और इसकी अपव्ययता पर जितना दुःख प्रकट किया बड़ी पुस्तक लिखना है। जाय वह भी थोड़ा है। रस तीन प्रकार से शरीर में भावप्रकाश में लिखा है कि पहले मधुररस, सञ्चरण करता है-शब्दसन्तानवत, अर्चिसन्तानफिर अम्ल और लवणरस और उसके बाद कटु, वन और जलसन्तानवत् ।। तिक्त और कपायरस खाने चाहिए। एक का मत सुश्रत में इसकी व्याख्या की गई है कि रस किसे है कि मधुररस खा करके भोजन समाप्त करना कहते हैं-"शीतोष्ण भेद से दो प्रकार का व चाहिए । यही प्रथा आज-कल प्रचलित है। बङ्गाल शीतोष्ण स्निग्ध आदि भेद से आठ प्रकार का में भोजनान्त संदेस और रसगुल्ले से होता है और वीर्ययुक्त, मधुर आदि छः प्रकार के रस समन्वित तथा अंगरेजी में “पुडिंग" से। खाने के पदार्थों की पेय आदि भेद से चार प्रकार का पाञ्चभौतिक सूची में मीठी वस्तु का प्रथम स्थान है। देहात में आहार-द्रव्य जब अच्छी तरह परिपाक होता है तब लोग कहते हैं-'गुड़ गोरस अरु गोहूँ जाके, नाम उससे तेजोभूत बहुत सूक्ष्म जो सार पदार्थ उत्पन्न मात्र हैं पाहुन ताके ।' होता है उसी का नाम रस है।" __ शरीरस्थ धातुओं में रस-धातु विशेष है। उसके रस खाये हुए पदार्थ से एक ही दिन में उत्पन्न पर्यायवाची शब्द "रसिका, स्वेदमाता, वपु, स्रव" होकर ३०१५ कला (पाँच दिन से कुछ अधिक) इत्यादि इत्यादि हैं। शरीर में रस का मुख्य स्थान हृदय समय में एक एक धातु में रहता है और २५ दिन ७५ बतलाया गया है। कहते हैं कि समान वायु-द्वारा कला के बाद पुरुष के शुक्र और स्त्री के आर्तव-रूप यह पहले वहीं पहुँचता है, और वहाँ पहुँच कर में परिणत होता है। यदि यहाँ लेखनी से कुछ "वहाँ की रसवाहिनी धमनी में जाकर सभी आराम करने की सिफारिश न की जाय तो वैद्यकधातुओं को पोषण करता है। पीछे वह अपने गुण- शास्त्रानुसार ही लिखते लिखते एक पुस्तक तैयार द्वारा सारे शरीर में फैल जाता है।" "रस तीन हो जाय और किसी दृष्टि से रस के देखने का समय हजार पन्द्रह कला करके एक एक धातु में रहता न मिले। है। बीस कला का एक मुहूर्त अर्थात् दो दण्ड होता न्यायशास्त्र ने रस के केवल दो भेद किये हैंहै। इस पर भोज का मत है कि “खाया हुआ रस नित्य और अनित्य । रस-शब्द का बहुत अर्थों में पाँच रात और डेढ़ दण्ड में रस आदि मज्जा पर्यन्त प्रयोग होता है, जैसे-जल, वीर्य, गुण, राग इत्यादि धातुओं में से एक एक में परिणत होता है।" फिर इत्यादि। संस्कृत में जिह्वा को रसना कहते हैं। रस दो भागों में विभक्त होता है-स्थूल और सूक्ष्म। पृथ्वी को रसा कहते हैं। मद्य को रसित कहते हैं। सूक्ष्म भाग शरीर के स्थायी रक्त द्वारा पुन: परिपाक एक कवि ने कहा है-'तो मैं कछू रसना रसना रिसि होकर पाँच दिन, पाँच रात, डेढ़ दण्ड में रक्त धातु नाहक कै रुठये रसिकाई ।' रस के अर्थ, भाव या में परिणत होता है। दशा के भी हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ईश्वर, जिन्होंने शुक्र को जीवन-रक्त कहा है उनके की प्रशंसा में कहा हैवचनों को हमारे वैद्यक-शास्त्र-द्वारा पुष्टता प्राप्त "महिमा निगम नेति करि कहहीं। होती है। पहले रस से रक्त की उत्पत्ति होती है, फिर जो तिहुँ काल एक रस रहहीं।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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