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________________ २९४ सरस्वती [ भाग ३६ रवाज और आचार यहाँ ले आये । इसी तरह से में रेल, मोटर, हवाई जहाज़ ने सरहदें करीब करीब भारत में (और हर देश ही में) बहुत चश्मे और दरिया मिटा दी और दुनिया की एकता बढ़ा दी। किताबें, मुख्तलिफ़ देशों से बहकर आये और हमारी संस्कृति समाचार-पत्र, तार, रेडियो, सिनेमा इत्यादि हर वक्त पर असर डालते गये। फिर इस्लाम फतेह की सूरत हम पर असर डालते हैं और हमारे विचारों को हलके में आया और हम अपने को उससे बचाने के लिए . हलके बदलते हैं। इनको हम पसंद करें या नापसंद करें, सिकुड़ गये और अपनी संस्कृति की खिड़कियाँ जो हम इनसे बच नहीं सकते। इसलिए इनको समझना खुली रहती थीं, उनको बंद कर लिया। चाहिए और इनको अपने काबू में लाना चाहिए। ___ भाई जी की राय में हमारी हिन्दू जातीयता इन सब बातों के लिए हमारा पुराना हिन्दूत्व कब शुरू होती है ? आर्यों के आने पर ? यह क्या सलाह देता है, मैं भाई जी से पूछना चाहता हूँ ! क्यों ? हम उनके पहले मोहेनजोदारो के ज़माने को वे धार्मिक सभ्यताओं और जातीयता की चर्चा क्यों छोड़ दें, और फिर द्राविड़-ज़माने को ? क्या करते हैं। लेकिन आधुनिक संसार की सभ्यता तो द्राविड़ लोगों को कहने का अधिकार नहीं है कि लोहे की मशीन को और ज़बर्दस्त कारखानों की आर्य लोग बाहरी हैं जो आके यहाँ बलपूर्वक जम है। उसको धर्म से क्या मतलब ? और बगैर पूछे या गये हैं ? ऐसे बहुत सवाल उठ सकते हैं, क्योंकि वहस किये वह पुरानी मूर्तियों को गिराती हुई आगे इतिहास में सभ्यता, संस्कृति, विचारधारा-ये सब बढ़ती जाती है। हिन्दुओं के जाति-भेद के मिटाने बहती हुई एक देश से दूसरे देश में जाती रहती हैं को बड़े आन्दोलन हुए, लेकिन सबसे बड़ी क्रान्ति और एक दूसरे पर असर डालती हैं। उनके बीच में पैदा करनेवाली तो रेल है और ट्राम और लारी। अलग करने को क़तार खींच देनी कठिन है। किसी उनमें कौन अपने पड़ोसी की जात देखता है ? भी जीवित चीज़ की यह निशानी है कि वह बढ़ती पुराने इतिहास और आधुनिक संसार की है और बदलती है । जहाँ उसका बढ़ना रोका वहाँ राजनीति पर विचार करते हुए दिमाग़ में ख़यालात उसकी जान निकल गई । सभ्यता और संस्कृति भी का एक हुजूम पैदा हो जाता है । कलम उनका साथ इसी तरह उसी समय तक जिन्दा रहती हैं जब तक नहीं दे सकता। वह वेचारा तो धीरे धीरे काराज उनमें मादा है बदलती हुई दुनिया के साथ खुद पर काली लकीरें खींचता है, विचारों की दौड़ में भी कुछ बदलने का । सबसे बड़ा सबक़ जो इतिहास बिलकुल पिछड़ जाता है। उसकी धीमी रफ्तार से हमको सिखाता है वह यह है कि कोई चीज़ एक-सी उलझन पैदा होने लगती है । खैर यह मजमून बहुत नहीं रहती। हर समय बढ़ना या घटना, क्रान्ति या लम्बा हुआ और, हालांकि नाकाफी है और नामुकम्मल इन्कलाब । जिस जाति ने इससे बचने की कोशिश है, अब इसका खत्म करना ही मुनासिब है। संभव की और अपने को जकड़ लिया वह अपने ही बनाये है कि फिर काग़ज़-कलम और स्याही का सहारा हुए पिंजरे में कैदी बनकर सूखने लगी। लेऊँ और इन मज़मूनों पर अपने फिरते हुए विचारों पहले ज़माने में जब दूर का सफ़र करना कठिन को शक्ल और सूरत दूं। एक प्रार्थना फिर से दोहराता था, देशों का एक दूसरे से संबंध कम था और इससे हूँ कि भाई परमानन्द अपने मानों पर ज्यादा उनमें फर्क थे। जितना अधिक आना-जाना हुआ रोशनी डालें और जिन बातों की तरफ़ मैंने इस लेख उतना ही असर एक दूसरे पर पड़ा। आधुनिक दुनिया में इशारा किया है उनको साफ करें। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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