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________________ ३५० सरस्वती पर केवल कमेट - शिखर को छोड़कर उन्हें अन्यत्र सफ• लता नहीं मिली । मिस्टर स्माइथ का कहना है कि हिमा लय का चढ़ना आल्प्स पहाड़ जैसा नहीं है । आल्प्स में तो पहाड़ पर चढ़ना एक खेल सा है । चढ़नेवाला अपने होटल से चलकर पहाड़ पर जाकर किसी झोपड़ी में ठहर जाता है । दूसरे दिन वह पहाड़ पर चढ़ता है, और शिखर पर जाकर वह उसी दिन उतर कर उस झोपड़ी में श्राकर रुक जाता है या सीधा अपने होटल में जा पहुँचता है । पर यहाँ हिमालय में तो जिस पहाड़ पर चढ़ना है। उसके नीचे तक पहुँचने में ही हफ़्तों का समय लग जाता है और फिर उस पर चढ़ने के लिए तो महीनों की ज़रूरत पड़ती है । निस्सन्देह साहसी आरोहक हिमालय पर अब तक छब्बीस से अट्ठाईस हज़ार फ़ुट की ऊँचाई तक सफलतापूर्वक चढ़ गये हैं, परन्तु हिमालय के मुख्य ७० शिखरों में से पचीस हज़ार फ़ुट ऊँचे कमेट शिखर को छोड़कर और किसी पर चढ़ने में वे अभी तक समर्थ नहीं हो सके हैं। काराकोरम श्रृंखला के एक श्रृंग पर चढ़ने में विफल- मनोरथ होकर मिस्टर वालर का दल अभी हाल में ही लौटा है । मिस्टर वालर ने लिखा है कि यदि आरोही दल शीघ्र ही लौट न पड़ता तो गत वर्ष के नंगापर्वत के आरोही दल जैसी उसकी भी दशा हुई होती । इस सिलसिले में उन्होंने दार्जिलिंग के दो कुलियों - पालदीन और दावाथोनदम - की बड़ी प्रशंसा की है। ये दोनों सन् १९३३ की एवरेस्ट की चढ़ाई में भी गये थे और १६३४ की जर्मनदल की नंगापर्वत की भी चढ़ाई में थे । नंगा पर्वत पर जब श्ररोही दल का भयानक तूफ़ान से सामना हुआ था तब दावाथानदम दल के साथ था । उनका कहना है कि उपर्युक्त कुलियों जैसे लोगों के अभाव में हिमालय पर चढ़ना बहुत कठिन है । ये लोग उत्तरी नैपाल के निवासी हैं। उस अंचल के भूटिया लाग कष्ट - सहिष्णु ही नहीं होते, किन्तु पर्वतों पर चढ़ने की क्षमता इनमें जन्मजात होती है । इस विषय में ये संसार में अद्वितीय हैं। यदि ये लोग इस कार्य के लिए शिक्षित किये जायँ तो हिमालय की चढ़ाई में विशेष सुविधा हो सकती है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [भाग ३६ निस्सन्देह अभी तक हिमालय दुरारोह ही सिद्ध हुआ है, परन्तु योरपीय श्रारोहियों का साहस भी अदम्य है । इसके सिवा उन्हें विफलताओं का काफ़ी अनुभव भी हो चुका है। ऐसी दशा में हिमालय के दुरारोह शिखर एक न एक दिन इन साहसी श्रारोहियों के आगे अवश्य नतमस्तक होंगे । दो योरपीय यात्री योरपीय लोगों में विश्व पर्यटन की सदैव प्रवृत्ति रही है । और यद्यपि यात्रा के अब अनेक साधन उपलब्ध हो गये हैं, तो भी उनमें ऐसे लोग अब भी कभी कभी निकल आते हैं, जो पैदल या ऐसी ही किसी सवारी से संसार का भ्रमण करते हुए पाये जाते हैं । अभी हाल के दो अनोखे विश्वपर्यटक कलकत्ते आये थे । उन्होंने घोड़े की सवारी से संसार के एक बड़े भाग का भ्रमण किया है। ये दोनों पति-पत्नी हैं और वायना के निवासी हैं। सन् १६२६ के अप्रेल में वे अपने घर से निकले थे और नौ वर्ष से यात्रा कर रहे हैं। अब तक चालीस हज़ार मील चल चुके हैं। कलकत्ते में उन्होंने असोशिएटेड प्रेस के प्रतिनिधि को बताया है कि वे छः घोड़े लेकर चले थे और हंगरी, यूनान, तुर्की, कुर्दिस्तान, अरब और ईरान होते हुए वे उन्हीं घोड़ों से मध्य एशिया पहुँचे । वहाँ से पामीर के पहाड़ों को पारकर पूर्वी तुर्किस्तान (सिन कियांग) को गये I परन्तु मार्ग में सोवियट अधिकारियों ने २० दिन तक उन्हें रोक रक्खा । अन्त में छः दिन तक अनशन करने पर जब ब्रिटिश कान्सल ने कहा-सुना तब छोड़ दिये गये । तब तकला मखन की मरुभूमि को पार कर वे तिब्बत पहुँचे, काराकोरम की पर्वतमाला के पास से वे लया आये और तब कश्मीर । १६२६ में वे भारत से ब्रह्मदेश, शानराज्य और स्याम गये । वहाँ से इंडोचीन होकर चीन गये । उस समय चीन में सरकार का बोल्शेविक चीनियों से युद्ध हो रहा था । अतएव उन्हें चीन की यात्रा करने की अनुमति नहीं मिली। तब वे स्टीमर से शंघाई और शंघाई से टीन्स्टेन गये । वहाँ से वे घोड़े पर मंचूरिया होकर मंगोलिया गये । वहाँ से वे सैबेरिया से अलास्का www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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