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________________ २१४ सरस्वती .[भाग ३६ कवि के भावमय शब्दों में भारती की वंदना करके 'मॅगनी कवि' कहै सरसुती सों सिनेह नाहि इस लेख को समाप्त करता हूँ (तो) धूआँ की धरोहर श्रृंगार सब छार है। कोटि कोटि सम्पति ओ लाखन सिपाह खड़े ___झूमत गजराज द्वार हलका हजारों हैं। (च) श्री मँगनीराम झा की कविताओं को संकलित कर कोठरी भरी है हेम हीरा ओ जवाहरात मैं उन्हें शीघ्र ही पुस्तकाकार प्रकाशित कराना चाहता _ अंग अंग गूंथी मणि मोतिन की हार हैं। हूँ। इनकी जन्मतिथि, जीवन-वृत्तांत तथा रचनाओं महल में भीतर चटकीली चन्द्रमुखी नारि के विषय में जिन विद्वानों को विशेष बातें ज्ञात हों वे कृपया निम्नांकित पते से लिखें-C/ The Prin___बाहरे हजार भूप करत गोहार हैं । cipal, Patna Training College, P.O. Binkipore. पत्र-व्यवहार इत्यादि का सम्पूर्ण व्यय मैं दूंगा और पुस्तक में कृतज्ञतापूर्वक उनका ऋण स्वीकार करूँगा। -लेखक। . उच्छ्वास लेखक, श्रीयुत कुँवर सोमेश्वरसिंह, बी० ए० कहते हैं जो कहने दो, मेरे नैराश्य-अनल की, हँसते हैं जो हँसने दो। आँचों से जग घबराता। मेरे आकुल जीवन को, बस एक मात्र मुझको ही, अपनी लय में बहने दो। इस ज्वाला में जलने दो॥ है जान नहीं सकता जग, सुख की निद्रा सोता जग, पहचान नहीं सकता जग। जाने क्या मेरा सपना । मेरे प्राणों को अपनी, मेरे इन उन्मादों को, पीड़ा ही में घुलने दो॥ मुझमें विलीन रहने दो॥ है मोल कौन कर सकता, सब भाँति हमारे जो हैं, मेरे मृदु अश्रुकणों का ? जानते मुझे जो रग रग। अनमोल मोतियों को इन, वे भी अजान बन जाते, बस नयनों से झरने दो। एकान्त मुझे रहने दो॥ आँधी जो छिपी हुई है, यह कसक नहीं मिट सकती, मेरे मृदु उच्छवासों में। यह हृदय नहीं फिर सकता। उसको जग समझ न सकता, पागल मुझको कहते जो, इनको अदृश्य उड़ने दो॥ निर्विघ्न उन्हें कहने दो॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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