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________________ १५० सरस्वती "चार दिन, सच कहता हूँ, बड़ी ही बेचैनी से कटे । इतनी दौलत मेरे घर में और मैं छू नहीं सकता ! यह कम्बख्त शाह जी आता ही नहीं, मैं घर में कैदी था न कहीं आने का, न जाने का, कमरे में इधर से उधर टहलता रहता, न बैठे चैन, न लेटे । टहलने टहलते जब टाँगें थक जातीं, लेट जाता। फिर अन्दर हूक उठती, उठ खड़ा होता और टहलने लगता । मेरी स्त्री मेरी यह दशा देखकर घबराती, डाक्टर को बुलाने को कहती, मगर मैं डाँट फटकार देता । असल में मैं अपने आपे में न था और वह ठीक समझती थी कि मैं पागल होनेवाला हूँ। फिर भी मैंने उससे शाह जी का हाल नहीं बताया। मैं यह सोचता था कि जब अशर्फियों का देग वह देखेगी, मेरी ही तरह फूलकर कुप्पा हो जायगी। थोड़ी-सी फिक्र के बाद खुशी भी अच्छी लगती है । " परसों की बात है। रात को बड़े जोर की आँधी उठी थी। शायद आठ बजे होंगे कि शाह साहब आ पहुँचे । अयोध्याप्रसाद उनके साथ था । वे बोले - चलो यही वक्त है। जल्दी करो । सामान साथ ले लो। हम लोग पाँच मिनट के अन्दर घर से चल खड़े हुए। मैं और शाह जी तो खाली हाथ थे और मुंशी के हाथों में कपड़े में लिपटी गंगा जी की मूर्त्ति थी। भाई ठाकुर सिंह ! तुम मेरी उस वक्त की . खुशी का अन्दाज़ नहीं कर सकते। थोड़ी-सी देर में मैं लाखों का मालिक होनेवाला था । मेरी अर्धाङ्गिनी मना भी करती रही कि कहाँ आँधी में जाओगे, मगर मैं क्यों मानने लगा । मुझ पर तो जादू सवार था । यह मुझे पीछे मालूम हुआ कि उन्होंने ड्राइवर से चुपके से कह दिया था कि 'सरकार' का मिज़ाज ठीक नहीं है। जरा खयाल रखना । वह बेचारा क्या ख़याल रख सकता था । "गंगा जी पहुँचे तब तक आँधी में कुछ कमी हो गई थी, मगर दरिया उछल-कूद रहा था। शाह जी ने नाववाले को आवाज़ दी। एक नाव दौड़ आई । अँधेरी रात और हवा का जोर ! मैं तैरना जानता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भाग ३६ नहीं था । नाव पर चढ़ते ही डर मालूम हुआ । मगर शाह साहब कड़क कर बोले कि क्या तीन हफ्ते की मेहनत खो दोना चाहते हो। मुझे हिम्मत गई और मैं नाव पर जा बैठा । ड्राइवर को शाह जी ने नहीं चढ़ने दिया और मैं कुछ कह भी न सका । "संगम तक जाते जाते शाह जी ने कहा, कहाँ हैं वह मूर्त्ति ? लाओ, जल-प्रवाह के पहले आखिरी पूजा कर लूँ । अयोध्याप्रसाद ने मूर्त्ति उन्हें दे दी । वे पूजा कर ही रहे थे कि संगम आ पहुँचा। उन्होंने मूर्ति मुझे दी और कहा, लो, गंगा जी का ध्यान करके उन्हीं की मूर्ति उन्हीं को चढ़ा दो । “मैं बड़ी श्रद्धा से मूर्त्ति को जल में डाल दिया । वह गड़ाप से ग़ायब हो गई। शाह साहब ने कहा, मैं कल शाम को तुम्हारे साथ चल कर खजाने का क़ब्ज़ा तुम्हें दिला दूँगा । उस रात और दूसरे दिन किस मुश्किल से कटे, मैं तुमसे नहीं कह सकता | शाम को अयोध्याप्रसाद बहुत घबराया हुआ आया और बोला, हुजूर, मैं शाह साहब के घर गया था । वहाँ मालूम हुआ कि वे तो कल से ही नहीं लौटे हैं। काटो तो बढ़न में खून नहीं, मैं मुंशी को साथ लेकर खजाने की कोठरी में पहुँचा। वह खुदी पड़ी थी । न देग थी, न साँप। उस शाह साहब ने मुझको - हाँ हाँ राय साहब चिरञ्जीतसिंह एम० ए०, एल-, एल० वी० ज़मींदार आनरेरी मजिस्ट्रेट को उल्लू बना दिया" । बस, ( ३ ) यह हाल सुनकर मैं अपनी हंसी न रोक सका और मैं इतना हँसा कि मेरी आँखों में पानी गया । आखिर में वे भी हँसने लगे, मानो दिल के फफोले फूट जाने पर उन्हें शान्ति आ गई हो । “उस बेईमान को सात साल के वास्ते जेल न भिजवाया तो सही" । वे कहने लगे- “मेरे तो दो चार हज़ार रुपये ले भागा तो ले भागा, उस बेचारे अयोध्याप्रसाद के भी सौ ले गया" । www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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