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________________ सरस्वती [भाग ३६ लिये जा रहे हैं। शेष ३६ पुरुष और ४१ स्त्रियों की परि- विवाह-व्यवस्था की कहानी बहुत ही सरल है, और स्थिति में श्राशा की कहीं झलक भी नहीं है। उसका उद्देश भी बहुत ही स्वाभाविक था। पर समाज जब हम इनके असंतोष के मुख्य कारण की अोर के धर्मान्ध सूत्रधारों ने जब से इसे धार्मिक पवित्रता का देखते हैं तब हमें ज्ञात होता है कि इनमें ३७ स्त्रियाँ और प्रावरण पहनाकर इसे अटूट जोड़ाबन्दी का स्वरूप दे ४६ पुरुषों के दुःख का कारण स्वभाव-मूलक असन्तोष दिया है तब से इसके नाम पर स्त्रियों पर बहुत अत्याचार था। दःख का दूसरा कारण शारीरिक निर्बलता प्रकट हुए हैं । परन्तु अब संसार के साथ ही समय में भी बहुत हा है। इसमें ३० स्त्रियाँ और ३६ पुरुष निकले हैं। परिवर्तन हो गया है । उर्मिला को अकेली घर में छोड़ व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के कारण भी १० पुरुष और १८ कर जङ्गल को चले जानेवाले लक्ष्मण को उनकी वीरता स्त्रियाँ असन्तुष्ट पाई गई। डाह भी ११ स्त्रियों और ८ के लिए विक्टोरिया क्रास भले ही दे दिया जाय, पर अपने पुरुषों के असंतोष का कारण हुआ। बच्चों के कारण ७ ऊपर आश्रिता को इस प्रकार घर में रहकर बाल सफ़ेद स्त्रियाँ और ८ पुरुष, रिश्तेदारों के कारण ४ स्त्रियाँ और करने को मजबूर करने का अधिकार समाज अब मर्दो ७ पुरुष असन्तुष्ट पाये गये। परन्तु सबसे ज्यादा अाश्चर्य के हाथ में नहीं रहने देगा। यह जानकर होगा कि शराब पीने के कारण केवल ३ विवाह वास्तव में स्त्री-पुरुष का स्थायी अथवा स्त्रियों ने झगड़ा किया था। अस्थायी सम्बन्ध है, जो वासना की भित्ति पर ही स्थित इस तालिका को देखकर तो हम इस निष्कर्ष पर है । इसमें किसी प्रकार की धार्मिक पवित्रता की आवश्यपहुँचते हैं कि वैवाहिक जीवन में दुख का सबसे बड़ा कता नहीं, न यह किसी ईश्वरीय नियम से निर्धारित होता कारण स्वभाव-मूलक असंतोष ही है। वास्तव में हम है। इसका वास्तविक रूप ईश्वर के रूप की भाँति अभी किन्हीं दो प्राणियों से जिनके दो भिन्न भिन्न मस्तिष्क हैं, तक निर्धारित नहीं हो सका है। गोरिला आदि मनुष्यों जिनका अलग अलग दृष्टिकोण है और जिनकी पृथक् के पूर्वजों और सामाजिक असभ्य जातियों के समाज का पृथक् अनुभूतियाँ हैं, यह कैसे अाशा कर सकते हैं कि वे निरीक्षण करके विद्वान् लोग इस परिणाम पर पहुँचते हैं सभी विषयों पर एक-मत होंगे। अलग अलग सोचनेवाली कि संकरता, बहुपत्नीत्व, बहुपतित्व, एकपतित्व या एकशक्तियाँ अक्सर नहीं, ज़्यादातर सब विषयों पर एक-दूसरे पत्नीत्व आदि भिन्न भिन्न वैवाहिक सम्बन्धों के अलावा से मतभेद रक्खेंगी। हाँ, कोई स्त्री या कोई पुरुष दूसरे के मुताह, नियोग, धार्मिक संयोग आदि की अस्थायी प्रथायें लिए यदि अपनी सच्ची भावना को दबाकर दूसरे को भी हममें अब भी विद्यमान हैं, जिनको देखते हुए यह - खुश करने के लिए अथवा दूसरे पर आश्रित रहने के कहना उचित नहीं जान पड़ता कि स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध कारण उसकी हाँ में हाँ मिला देता है तो इसे कम से कम की कौन-सी प्रथा ग्रहण करने योग्य है और कौन-सी मैं तो दाम्पत्य-सुख नहीं कहूँगा। यह तो सुख और प्रेम नहीं । विवाह के सम्बन्ध में समाज अनेक प्रयोग कर दोनों के नाम पर मक्कारी करना है । सुख और प्रेम परा- चुका है और कर रहा है। धीनता की छाया में नहीं पलते। मेरा तो खयाल है कि अब तलाक की बात पर पाइए । विवाहरूपी मरुभूमि में स्नेह की मृगतृष्णा के पीछे दौड़ने- विवाह-विच्छेद के वैसे तो बहुत-से कारण भिन्न भिन्न वाले प्रेमी युगल अन्त में असंतोष के ही किनारे देशों में प्रचलित हैं, पर सबसे मुख्य कारण जिसे प्रायः पहुँचते हैं। सभी देश स्वीकार करते हैं-स्त्री का परपुरुष से अनुचित ___ यहाँ तलाक के प्रश्न पर विचार करने के पहले उससे सम्बन्ध स्थापित करना है। इस अवस्था को पुरुष-समाज अधिक महत्त्वपूर्ण विवाह के प्रश्न के बारे में भी कुछ महन नहीं कर सकता। अपने को तो वह इस नियम से जानकारी कर लेना ज़रूरी है। मुक्त रखता है, पर स्त्रियों को इसकी स्वतन्त्रता नहीं दी है।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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