________________
संख्या १]
पशु-विज्ञान के कुछ उद्धरण दिये हैं । पशु-जगत् के सभी उदाहरण मनुष्यों पर लागू हो जायँ, ऐसी बात नहीं है । सामाजिक मनुष्य पशु का पशुत्रों की जिस श्रेणी से विकास हुआ है, हमें उसके सम्बन्ध में उदाहरण भी उसी श्रेणी के पशु का देना चाहिए | स्तनपायियों का स्वभाव पक्षियों से भिन्न होता है, अतः पक्षियों के वैषयिक सुकुमारता की तुलना एक स्तनपायी जीव से नहीं की जा सकती । पक्षियों में विवाह की ओर अग्रसर करनेवाली सौन्दर्योपासना बहुत ही विकसित है । वे साधारणतः बलात्कारी नहीं होते । फिर भी उनमें सबका जोड़ा स्थायी नहीं होता, बहुत-से स्थायी भी होते हैं ।
अब रहा पशु-जगत्, सेा उसमें अधिकतर बहुपत्नीक बलात्कारी होते हैं । रीछ, शेर आदि एकपत्नीक भी हैं। पर हमें तो मनुष्यों के सम्बन्ध में उदाहरण उस श्रेणी के पशुओं का लेना चाहिए जिसमें से उसका विकास हुआ है। मनुष्यों के सबसे निकट के सम्बन्धी गोरिला और शिम्पैज़ी हैं। ये छोटे छोटे गोलों में रहते हैं, जिसमें से प्रत्येक में एक नर होता है और बाक़ी मादायें । यह अवस्था मनुष्यों की सभ्य और जंगली जातियों में अभी तक विद्यमान है | अतः इस प्रकार के निरर्थक उद्धरणों और उदाहरणों से समाज की सामूहिक माँग की उपेक्षा नहीं की जा सकती । सच बात तो यह है कि हमें इस समय यह देखने का अवकाश नहीं है कि अमुक काल में अमुक राजा के समय में तलाक़ की प्रथा थी या नहीं अथवा शेर आदि दो-चार एकपत्नीक प्राणियों में जोड़ा विच्छेद होता है या नहीं। हमें तो इस समय अपने वर्तमान समाज, वर्तमान समय और वर्तमान परिस्थिति को सम्मुख रखकर इस प्रश्न पर विचार करना है। पहले क्या था, इसका सवाल यहाँ नहीं है । यहाँ तो प्रश्न यह है कि इस वर्तमान अवस्था में तलाक़ का जो प्रश्न उठाया गया है वह कहाँ तक सही है । यदि यह माँग सही है तो यह ज़रूरी नहीं कि हम अपने पूर्वजों की ग़लती में हाँ में हाँ मिलाकर अपने को गुमराह होने दें। हमें तो उसे सच्चे हृदय से स्वीकार करके उसका वैसा प्रबन्ध कर देना चाहिए । ईमानदारी का तकाज़ा तो कम से कम यही है !
V
तलाक़
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
वैसे भौतिक सुविधाओं के होने से इस प्रकार के सामाजिक परिवर्तन अपने आप ही हो जायँगे और किसी का इस ओर ध्यान भी नहीं जायगा । आज परिस्थिति के कुछ प्रतिकूल होने के कारण इस प्रश्न पर कुछ हल्ला ज़रूर मचा दिया गया है, नहीं तो जिस प्रकार बहुपत्नीक और बलात्कारी होते हुए भी भौतिक वातावरण के अनुसार मनुष्य सरीखा एक स्तनपायी पशु एकपत्नीक और सौन्दर्यप्रिय हो सकता है, उसी प्रकार उसका भावी विकास भी भौतिक सुविधाओं और परिस्थितियों के कारण ऐसा आकार ग्रहण कर सकता है जिसकी हम कल्पना नहीं कर सके हैं। इससे हमारे धर्म-प्रारण भाइयों को ज्यादा शोरगुल मचाने की आवश्यकता नहीं है । यदि यह प्रश्न कुछ विदेशी विचारों के नक्कालों की क्षीण पुकार है तो यह अपने आप ही शान्त हो जायगी और यदि यह हमारी बहनों की परम्परा की दासता का क्रान्तिमय सामूहिक विरोध है तो इस ज्वाला को कोई भी समाज शान्त नहीं कर सकता। तब इस जर्जर हिन्दू-समाज की तो बात ही दूसरी है ।
विदेशों में इस विषय पर काफ़ी छान-बीन हुई है और हो रही है । आज उन देशों में यह एक बड़ी जटिल समस्या-सी हो गई है । विवाह की निस्सारता और फिर खासकर हिन्दुओं की ज़बर्दस्ती स्थायी जोड़ा मिलाने की संकीर्णता का अनुभव धीरे-धीरे जन-समुदाय को हो रहा है।
पाश्चात्य में विवाह प्रथा में क्या भूल है, इस प्रश्न को तय करने के लिए सौ विवाहित पुरुषों और सौ विवाहिता स्त्रियों के सामने भिन्न प्रकार के लगभग ४०० प्रश्न रक्खे गये थे । इन प्रश्नोत्तरों को तैयार करने में चार वर्ष का समय लगा । उनको यदि हम किसी प्रथा को नष्ट कर देने का आधार न भी मानें तो भी उनसे हम जन-साधारण की प्रवृत्ति का अन्दाज़ा तो लगा ही सकते हैं ।
उन दो सौ स्त्री-पुरुषों में से केवल २६ पुरुष और २१ स्त्रियाँ ऐसी निकलीं जो अपने दाम्पत्य-जीवन से सुखी हैं। शेष लोगों में २२ पुरुष और २४ स्त्रियों के भाग्य में सुख-दुःख दोनों पड़े हैं । वे किसी प्रकार वैवाहिक सुखदुःख के मार्ग में होकर अपनी गृहस्थी की गाड़ी का खींचे
www.umaragyanbhandar.com