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________________ ११० सरस्वती [ भाग ३६ भाव का अर्थ जब हम शहार्थ के अनुसार करेंगे में अग्नि का अंश है। इस गूढ विषय पर और या सरूपक को अरूपक समझ लेंगे तब अवश्य उल- अधिक प्रकाश डालने के लिए हमारे आचार्यों ने झन बढ़ जायगी। इसमें लेखक का तो कोई दोष नहीं बहत अधिक परिश्रम किया होगा। अग्नि और है, दोष है समझनेवाले का। इसी कारण यह कहा सूर्य में बहत घनिष्ठ सम्बन्ध है। सूर्य का एक नाम जाता है कि लेखक की शैली से परिचित होना संस्कृत में उष्णरश्मि है। उष्ण-शब्द अग्नि का आवश्यक है। काायल ने कहा है कि शैली लेखक बोधक है, क्योंकि अग्नि का प्रथम गुण उष्णता का कोट नहीं है, यह उसका चर्म है। शैली का है। और अग्नि का एक नाम संस्कृत में बृहद्भानु लेखक से ऐसा ही घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। कोई है। यह नाम इस बात का सूचक है कि बड़ा भानु अपने भावों को बहुत सीधे-मादे ढङ्ग से प्रकट अग्नि है। इससे यह सिद्ध होता है कि जहाँ उष्णता करता है, कोई उन्हीं भावों को चित्ताकर्षक भाषा के और प्रकाश का प्रश्न है, वहाँ अग्नि का प्रथम भूषणों से सुसज्जित करता है। यदि एक को व्यङ्गय स्थान है। फिर यदि हमारे आचार्यों ने 'रूप' का से रुचि है तो दूसरे को परिहाम से । इससे अधिक देवता अग्नि को माना तो कोई अपराध नहीं और कोई बड़ी भूल नहीं हो सकती है कि बिना किया। जिनमें वृद्धिविषयक शुचिता है वे तुरन्त भाषा पर पूर्ण ध्यान दिये हुए किसी लेखक के भावों स्वीकार कर लेंगे कि दर्शन-शास्त्र के हर एक विषय के समझने की कोशिश की जाय। हमारे आचार्यों पर भारत में बहुत अधिक खोज की गई होगी। ने 'रूप' का देवता अग्नि को माना है, जिसकी जैसी कि अंगरेजी में एक कहावत है, 'तसवीर की वजह से आक्षेप किये जाने हैं। अब जरा 'देवता' दूसरी ओर देखिए', मैं भी यही करूँगा कि ज़रूर शब्द पर ध्यान दीजिए। 'देव'-शब्द के अर्थ व्याव- देखिए, लेकिन दूसरी ओर' देखने से नसीम का हारिक भाषा में अपने से बड़े के हैं, जैसे हे देव, गुरु- एक मिसरा याद आ जाता है-"तब तो यक सूरत देव इत्यादि और उसी से देवता-शब्द बना है। भी थी अब साफ वीराना किया।" वहाँ कोई देखेगा हम उसी को अपने से बड़ा समझते हैं जिसकी क्या ? सफाचट मैदान है। अँगरेजी में 'रूप' का योग्यता, विद्वत्ता और गुरुता स्वीकार करते हैं। यदि अनुवाद फ़ार्म' होगा। अर्थ में भी अन्तर नहीं है, हमारे आचार्यो ने अग्नि की गणना देवताओं में और जहाँ अन्तर शुरू हुआ, वह बड़ा अन्तर है। की तो क्या भूल हुई। अग्नि उन पञ्चमहाभूतों में ज्ञानेन्द्रियों के विषयवर्ग की संज्ञा तन्मात्रा है, जैसे से एक है जिनसे शरीर का निर्माण हुआ है। यदि त्वचा का विषय स्पर्श है, नासिका का गन्ध है, वैसे आचार्यों ने कृतज्ञतावश अग्नि की झूठ ही प्रशंसा ही नेत्रों का विषय रूप है। हमारे शास्त्रानुसार देवता मान करके की होती तो भी कुछ बुरा नहीं तन्मात्रायें विषयों के नाम से प्रसिद्ध हैं, न कि ज्ञानेथा जब कि आधुनिक समय में तुच्छ स्वार्थ के लिए न्द्रियों के नाम से या उनके कर्मों के नाम से । और 'गधे को दादा' कहना राजनीति-कुशलता की प्रथम ठीक भी यही है । नेत्रों का विषय 'रूप' है न कि दृष्टि पहचान समझी जाती है। या देखना। यहीं से अन्तर की नींव पड़ती है। कोई भी चीज़ दिखलाई नहीं देगी यदि वह 'रूप' को नेत्रों का विषय न कहकर अँगरेजी प्रकाशरहित है। काले को रङ्गों की क्षयराशि इसी लेखकों ने 'दृष्टि' 'विजन' को तन्मात्रा मान लिया वजह से कहते हैं कि काले में प्रकाश का अभाव है और यही उनके लेखों का शीर्षक है। अब उनके होता है । जहाँ प्रकाश का प्रश्न है वहाँ अग्नि का दर्शन और सांख्य-शास्त्र का अवलोकन कीजिए। प्रश्न पहले है। प्रकाश में उष्णता है और उष्णता वे यो प्रारम्भ करते हैं-"दृष्टि एक मुख्य स्रोत है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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