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________________ संख्या २] १११ जिसके द्वारा मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होता है। एक “सौन्दर्य सभी जगह अभिमत अतिथि है।" फिर बड़ी हद तक यह और विषयों को उल्लंघन कर गया इसका वर्णन है कि किस समय में कैसे कपड़े है। इसका गोचर अतीत है। यह दूरवर्ती संसार पहने जाते थे और "कपड़े पहनने का प्रायः यह को हमारे सामने लाता है और हमें इसके योग्य अभिप्राय होता है कि पुरुष की यह इच्छा उत्पन्न हो बनाता है कि अपनी रचना के सूक्ष्म से सूक्ष्म कि स्त्री के शरीर को नग्न देखे, और इससे कामकारी विस्तार को समझ सकें । यही कलाओं के समझने इच्छायें पैदा होती हैं।” फिर “नग्नता कामकारी की नींव है और इसी कारण यह कोई आश्चर्य नहीं प्रभाव में प्रबल है, क्योंकि आँखों को अत्यन्त रुचिहै कि संभोग की निगाह से यह और सब विषयों कर है।" नग्नता के विरुद्ध आज-कल कल कहना से अति श्रेष्ठ है, और यह कि मनुष्य के स्नेहमय असभ्यता का टीका लगवाना है। विदेशों में इसकी विचार सुन्दरता की सदैव कल्पना करते रहे हैं।" बड़ी धूम है । इस विषय पर अगणित पुस्तकें प्रकाएक का यह मत है और दूसरे का यह है-“काम- शित हो चुकी हैं और रोज़ होती जाती हैं। मामले प्रिय जीवन में सबसे बड़ी, महान शक्तिशालिनी का यहीं अन्त नहीं हुआ। उन पुस्तकों में तसवीरें भी और उद्योगिनी इन्द्रिय आँख है। यह सत्य है कि हैं। कहा जाता है कि नग्नता में वह सौन्दर्य है जो हमारी आँख वही ढूँढ़ा करती है जो सुन्दरता कह- विश्व भर में और कहीं नहीं देखने को मिलेगा और लाती है।" 'सुन्दरता'-शब्द का अर्थ क्या है ? उस सौन्दर्य को वे ही पहचान सको हैं जो प्राकृतिक लेखक स्वयं उत्तर देता है-"इसका अर्थ है बहुत- सौन्दर्य पहचानने के लिए आँखें रखते हैं। यह सी दृष्टिगत उत्तेजक चीजों का जोड़, जो एक एक ईश्वर की परम कृपा है कि उस सौन्दर्य के पहचानने करके तुच्छ हैं, पर जिनकी संयुक्तता मस्तिष्क में के लिए उसने अभी तक भारतवासियों को आँखें आनन्द की, प्रशंसा को, और उसे प्राप्त करने को नहीं दी हैं। फैशन की तुलना एक संक्रामक रोग से भावना और इच्छा उत्पन्न कर देती है।" की जा सकती है, और यह भारतवर्ष का अभाग्य है हम सुन्दरता हूँढ़ते हैं, क्योंकि हम आनन्द के कि जो रोग अन्य देशों में फैला उसका आक्रमण इच्छुक हैं। नेत्र और सब ज्ञानेन्द्रियों को अपेक्षा हमारे देश पर अवश्य हुआ और जो आया वह यहीं कामप्रिय जीवन के अधिक सहायक हैं। हम भारत- का हो गया । बस यही डर है। एक दिन मुझ एक वासियों के लिए यह बतलाना कठिन है कि ऐसे योरपोय महाशय से बात-चीत करने का मौका पड़ा। लेखों का स्थान किस शास्त्र में होना चाहिए । आक्षेप आपको प्रयाग के मेले से लौटे हुए थोड़े ही दिन हम लोगों पर चाहे जितने हों, परन्तु यह कहना ही हुए थे। आपने बातें करते करते कहा कि आप चाहे पड़ेगा कि दर्शन या सांख्यशास्त्र यदि अन्य देशवालों जो कुछ कहें, परन्तु यह आपको मानना पड़ेगा कि का यही है तो उस साहित्य पर ईश्वर कृपा करे। हिन्दुस्तान को अभी सभ्य होने में बहुत दिनों की यह कुछ अप्रासंगिक-सा जान पड़ता है कि “पुरुष देर है, क्योंकि मैंने इलाहाबाद में बहुत-से नंगे को पराजित करने के लिए केवल थोड़ी-सी सुन्दरता, साधुओं को देखा है। और यह भी कहा कि हमारे मनोहर आकार या स्त्री की आसन्नता पर्याप्त है।" पादरियों को देखिए। मुझे बहुत बुरा मालूम हुआ। यदि वह ठीक है तो यह भी वाक्य दर्शन-शास्त्र में मैंने कहा कि आपके पादरी असभ्य हैं, क्योंकि स्थान पाने के योग्य है कि "खूबसूरत चेहरे की जर्मन देश की सभ्यता ने जिसे आप भी मानते हैं, हर जगह फोह है।" इसी तरह की एक और कपड़ों का पूर्ण बहिष्कार कर दिया है और उस कहावत जर्मन-भाषा में है, जिसका अनुवाद यह है- सभ्यता से बहुत-से आपके यहाँ के लोग भी सहमत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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