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संख्या १]
देहाती पढ़ की अपेक्षा व्यावहारिक ज्ञान में बिलकुल कच्चे ही रहते हैं । और तो और, वे गेहूँ, धान या कपास का पौधा तक नहीं पहचानते । रेज़ीडेंशियल स्कूलों में यह प्रबन्ध अच्छे प्रकार हो सकेगा कि वर्ष में कुछ सप्ताह के लिए वे व्यावहारिक शिक्षा देने के लिए, प्रकृति का निरीक्षण करने के लिए कारखानों या देहातों में ले जाये जायँ ।
शिक्षाप्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता
शिक्षा का महत्त्व इसी में है कि वह हमारे बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक भावों को सुषुप्ति से जाग्रत करती है तथा संकुचित अवस्था से विकसित अवस्था लाती है। शारीरिक विकास भी इसी की परिधि के अन्तर्गत है । मनुष्य शिक्षा की वास्तविक पूर्णता तब तक नहीं प्राप्त कर सकता जब तक उसकी शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक एवं श्राध्या - त्मिक शक्तियों का एकरस विकास न हो जाय । निरा ज्ञानसंग्रह शिक्षा नहीं है । यदि कोई मनुष्य शिक्षित कहलाने का अधिकारी है तो उसमें दृढ़ नैतिक विश्वास, श्राचरण की सभ्यता और दूसरों को समझने की शक्ति होनी चाहिए । शिक्षा का अर्थ यह नहीं है कि अमुक भाषा पढ़ी जाय । कोई मनुष्य एक अक्षर भी किसी भाषा का न जानता हो, परन्तु यदि वह विचारवान् विवेकी, विश्वासपात्र, पक्षपात हीन और धर्मात्मा है, यदि उसे इस बात का ज्ञान है कि मेघ कैसे बनते हैं, वर्षा का आवि - र्भाव कहाँ से होता है, एक ऋतु का अनुगमन दूसरी ऋतु कैसे करती है, स्वास्थ्य किस प्रकार बनाया जा सकता है, यदि वह भले प्रकार जानता है कि इस जगत् में उसके कर्त्तव्य क्या एवं उसके जीवन का उद्देश और अर्थ क्या है, यदि वह दूसरे प्राणियों सुख-दुःख को समझता है और ईश्वर की शक्ति और अपनी श्रात्मा में विश्वास रखकर कार्य करता है, तो वह वास्तव में शिक्षित मनुष्य है। प्रयाग-विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा अर्पण किये गये मानपत्र के उत्तर में राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्रप्रसाद ने उस दिन कहा था - " शिक्षा का ध्येय मनुष्य तैयार करना है । मनुष्य से मेरा अर्थ उस व्यक्ति से है जो ज्ञानी और दयावान् एवं सच्चा सेवक है। मनुष्य कई प्रकार के होते
| पुस्तकें पढ़ लेने से कोई ज्ञानवान् नहीं हो सकता
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. यदि आपने पुस्तकों को अपने मस्तिष्क में भर लिया अथवा लाद लिया तो श्राप मनुष्य नहीं बन सकते । पुस्तकों के ज्ञान तथा उस पर मनन करने से आप मनुष्य बन सकते हैं । धर्म और सचाई पर चले बिना पुस्तकों का ज्ञान अधूरा है । विद्या और ज्ञान में अन्तर है । हमारे विश्वविद्यालयों में विद्या का अंश अधिक होता हैज्ञान की ओर ध्यान नहीं दिया जाता ।"
भारत में शिक्षा की उपेक्षा जिस भयानकता से की गई है अथवा की जा रही है उसकी ओर बहुत कम लोगों का ध्यान गया है । इन सहस्रों नये ढंग के स्कूलों और बड़े बड़े कालेजों की इमारतों से यह समझना कि भारत में शिक्षा का प्रचार हो रहा है, भूल है । ये स्कूल और कालेज भारतवर्ष के प्रतीक नहीं, ये भारतीय सभ्यता के द्योतक नहीं, इनमें भारत की संकृति की छाप नहीं ।
हम यह अप्राकृतिक, अनुपयुक्त एवं भारतीय शिक्षा पुरुषों एवं स्त्रियों दोनों के ऊपर लाद रहे हैं । हम लोग अपनी कन्याओं को भी ऐसे ही पाठ्यक्रम को पढ़ने को कहते हैं जो हमारे नवयुवकों को पढ़ाया जाता है और इस बात का तनिक भी विचार नहीं करते कि इसका परिणाम क्या होगा । स्त्रियों और पुरुषों की प्रकृति में प्राकृतिक वैषम्य है । उनकी शिक्षा पृथक् एवं भिन्न पद्धति पर होनी चाहिए । सहशिक्षा से केवल शिक्षा-विषयक हानि ही नहीं होती, बरन चारित्रिक निर्बलता भी उत्पन्न होती है । फिर स्त्रियों की शिक्षा स्त्री-समाज के मध्य में होनी चाहिए । भारत का जीवन गार्हस्थ धर्ममय है - श्रर्थात् सम्मिलित जीवन; वह निर्द्वन्द्व और उच्छृङ्खल नहीं है ।
भारत की विशेषता श्राध्यात्मिकता से है, भौतिकता से नहीं । उसका सानिध्य प्रकृति से है, विलासिता और ऐश्वर्य से नहीं । उसकी संस्कृति का संस्कार एवं विकास सादगी, नम्रता, त्याग और तप के वातावरण में हुआ है- धूर्तता और दिखावट में नहीं । भारतीयता हृदय और मस्तिष्क के मेल में है - कोरा मस्तिष्क नहीं । जब तक योरप की नकल को छोड़कर स्वतन्त्र रूप से भारतीयता के आधार पर हम अपने विद्यालयों का पुनस्संस्कार नहीं कर लेते तब तक भारत ऐसी ही दयनीय दशा को प्राप्त रहेगा ।
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