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________________ सरस्वती - [भाग ३६ - परिशिष्ट नं०२ जिसमें "क" स्तम्भ में वर्ष की संख्या दिखाई गई है और "ख" में वह रकम है जो सामने लिखे हुए वर्ष में एक रुपया मूलधन से उसी वर्ष में ४ फ़ी सदी के हिसाब से हो जाता है। (ख) ०६५६ १८७६ २७६२ ३६०६ ४४२१ ५.२०० ५६४७ on or in (ख) ८.०१२ ८६४३ ६२५० ६८३२ १०.३६१ १०६२६ ११४४० ११.६३३ १२४०६ १२८५६ १३२६४ १३७१२ १४.११२ १४.४६६ १४८६४ १५२१७ x tw o w ७३५१ हे देवि! लेखक, श्रीयुत जगन्नाथ प्रसाद, एम० ए . मैं मद का ऐसा-वैसा नहीं भिखारी, मैं सुख-दुख दोनों ही में रो लेता हूँ, मैं नहीं पतन का हूँ सामान्य पुजारी। अपकीर्ति-कीर्ति दोनों ही धो देता हूँ। अपने हाथों निज सर्वनाश करता हूँ, निर्धनता मेरा धन दुर्बलता बल है, मैं जी जी करके भी फिर फिर मरता हूँ। असफलता ही मेरा साफल्य अटल है। मुझमें हे देवि आत्म-सम्मान नहीं है, जिस जगह डाल देते चञ्चल पग डेरा, मैं नामी हूँ, यह भी अरमान नहीं है। बस वहीं उसी क्षण बन जाता घर मेरा॥ अब तिरस्कार की कुछ परवाह नहीं है, उनको देना क्या जिनसे काम निकलता, मिटनेवाली यह मेरी चाह नहीं है ।। यह जीवन क्या जिसका उद्देश्य सफलता। मैं नहीं जानता लिखने-पढ़नेवाली, मैं निरुद्देश्य दानी बनना सिखलाता, कोई प्रसिद्ध शैली या कला निराली। जब आता हूँ तो पीकर के ही जाता ।। कृत्रिम जग को दिखलाता भग्न हृदय हैं, हो धर्म-शास्त्र में मेरा काम निरर्थक, जो जी में आता कह देता निर्भय हूँ। हो अर्थ-शास्त्र में यह निषिद्ध अपकर्षक । जो मिल जाता उसका ही कर गह लेता, मुझको पागल कहती दुनिया कहने दे, अनजानों से भी सब रहस्य कह देता। मैं जैसा हूँ बस वैसा ही रहने दे॥ सपने मेरा करते हैं पालन-पोषण, यह मरना क्या जिसके पीछे फिर जीवन, जो जी में आता कर देता हूँ तत्क्षण । यह स्वार्थ-त्याग क्या जो उन्नति का साधन । दुख पड़ा अगर, तो अश्रु उसे हर लेते, मैं पतन-हेतु ही जीता हूँ मरता हूँ, सुख मिला अगर, तो उसे विमल कर देते । पतितों की मर्यादा पालन करता हूँ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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