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भारत में औद्योगिक उन्नति का प्रश्न
लेखक, प्रोफेसर शंकरसहाय सक्सेना, एम० ए० (इकान), एम० ए० (काम), विशारद
हमारे देश की आर्थिक स्थिति बहुत डावाँडोल है वह किस प्रकार संभल सकती है और देश की ७५ प्रतिशत भूखी जनता की रोटी का प्रश्न कैसे हल किया जा सकता है ये ऐसे प्रश्न हैं जिन पर प्रत्येक भारतीय को विचार करने की आवश्यकता है। इस लेख में विद्वान लेखक ने कुछ
ऐसी ही विचार-मामग्री अत्यन्त रोचक और मौलिक ढङ्ग में उपस्थित की है।
मारा देश संसार के देशों में सकता है, नहीं तो देश निर्धन रहेगा। सम्पत्ति के मबसे निर्धन और निर्बल है, उत्पादन में चार चीज़ों की आवश्यकता है, प्रकृति की यह बात प्रत्येक भारतवासी देन, श्रमजीवी, पूँजी तथा औद्योगिक संगठन । इन चारों को खटकती है । जिस समय साधनों में से पिछले तीन साधन बढ़ाये जा सकते हैं, हमारी दृष्टि जीर्ण वस्त्रों में से अर्थात् जन-संख्या बढ़ने से श्रमजीवी बढ़ सकते हैं, दिखलाई देनेवाले निर्बल सम्पत्ति का बचा कर पूँजी अधिक बढ़ाई जा सकती है
शरीर तथा ३५ वर्ष की आयु और ऐसे व्यवसायी भी उत्पन्न हो सकते हैं जो धंधे में ही चेहरे पर बुढ़ापे के चिह्न धारण किये हुए देश- की जोखिम उठाकर उसका संगठन करें, किन्तु प्रकृति की वासियों पर पड़ती है, उस समय किस देशप्रेमी का हृदय देन किसी भी देश में बढ़ाई नहीं जा सकती। अभी तक सिहर नहीं उठता ? आज देश के सामने रोटी का प्रश्न मनुष्य भूमि, जलवायु, खनिज पदार्थ, बन-प्रदेश तथा भयंकर रूप में उपस्थित है। देश का शिक्षित समुदाय पर्वत और नदियाँ नहीं बना मका है। अस्तु प्रकृति इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने के उपरान्त की देन बढ़ाई जानेवाली चीज़ नहीं है। इस निश्चय पर पहुँचा है कि भारतवर्ष का भी ग्रेट ब्रिटेन, यही कारण है कि जिन देशों में जन संख्या अधिक जर्मनी, जापान तथा संयुक्तराज्य की ही भाँति औद्योगिक है, वहाँ सम्पत्ति का उत्पादन इस प्रकार किया जाता है कि देश बनना होगा तभी हमारी कल्पनातीत निर्धनता का प्रकृति की देन का कम से कम खर्च हो और जहाँ जनअन्त हो सकेगा। बात भी ठीक जान पड़ती है, औद्योगिक संख्या कम होती है, वहाँ प्रकृति की देन का अपव्यय होता देशों के वैभव और ऐश्वर्य को देखकर हम निर्धन भारत-' है। उदाहरण के लिए, जंगली जातियों को ही लीजिए। वासी चकित होकर यह सोचते हैं कि वैभव के स्रोत के इन जातियों के मनुष्य वनों के कंद-मूल तथा जन्तुओं पर खोलने का मुख्य साधन मिल और कारखाने खोलना है। निर्वाह करते हैं, अर्थात् ये लोग अपने भरण-पोषण के किन्तु जो लोग देश को मिलों और कारखानों से भर लिए केवल प्रकृति पर ही अवलंबित रहते हैं। यही कारण कर उसे समृद्धिशाली बनाने का स्वप्न देख रहे हैं, सम्भवतः है कि इनकी जन-संख्या प्रतिवर्गमील बहुत कम होती उन्होंने इंग्लेंड तथा अन्य औद्योगिक देशों के औद्योगिक है। ढोरों को चरानेवाली जातियाँ प्रकृति की देन का संगठन का अध्ययन नहीं किया है।
अपव्यय कम करती हैं, इस कारण प्रतिवर्गमील उनकी ____सम्पत्ति की उत्पत्ति से जन-संख्या का घनिष्ठ संख्या कुछ अधिक होती है। खेतिहर जातियाँ प्रकृति की सम्बन्ध है । यदि कोई देश अधिक सम्पत्ति उत्पन्न करता देन पर निर्भर तो रहती हैं, किन्तु श्रम और पूंजी के द्वारा है और वहाँ की धन-वितरण प्रणाली दूषित नहीं है तो वह थोड़ी-सी भूमि पर अधिक सम्पत्ति उत्पन्न करती हैं, इस देश अधिक जन-संख्या का भरण-पोषण भले प्रकार कर कारण वे प्रतिवर्गमील अधिक मनुष्यों का भरण-पोषण
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