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________________ सरस्वती [भाग ३६ पोढ़ चढ़ाँगा गोरी ढोलिये, कर जिस समय लड़की ससुराल को जाती है, उस समय श्राय पोढ़ाँगा फूलडाँ री सेज ये गोरी। गाया करते हैं । उस अवसर के उपयुक्त बनाने के निमित्त, जाने के समय तो उस साधारण खटिया पर ही सो इसमें बहुत-सा संशोधन भी कर दिया गया है। किन्तु लूँगा प्रिये ! जब वापस आऊँगा तब फूलों की सेज बिछाना। जितना लालित्य उपर्युक्त गीत में है, उतना संशोधित ___ इतने प्रलोभन देने पर भी जब प्रेमिका अपने गीत के भावों में नहीं है । प्रियतम को परास्त नहीं कर सकी तब अपनी असफलता पर झुंझला कर वह कहती है प्रियतम के विछोह में प्रेमिका पति-मिलन का स्वप्न __ चढ़ाँये चढ़ाँडो ढाला के करो, देखती है - कोई पुछो म्हार मनड़ री बात जी ढोला। सुपन मैं देख्या भँवरजी न आवताँ जी, तुम तो केवल जाने ही जाने की बातें करते हो, मेरे काई माथ पचरंग येडी ये पाग; हृदय की तो तुमने एक भी बात नहीं पूछी। काँदे ये जी ये सबज रुमाल, निरुत्तर प्रियतम, अपनी सिसकती हुई वेदना को हाथ में शीशी-प्याला प्रेम का जी। हृदय में दबाये, घोड़े पर सवार हो जाने के लिए प्रस्तुत स्वप्न में प्रियतम को आते दुए देखा। उनके मस्तक हो गया। पर पचरंग पगड़ी थी, कंधों के ऊपर हरे रंग की चादर जद पग मेल्यो ढ़ाला पागड़, थी और हाथों में प्रेम की मदिरा का मधुघट एवं प्याला डब डब भरिया छै नैण जी ढोला। लिये हुए थे। जब प्रियतम ने पागड़े में पाँव डाला, उस समय आँगण मोचा भँवर जी रा मचकिया जी, प्रेमिका के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। काई थलिया ठिमक्या ये जी ये सेल; आँसू तो पुँछ्या ढाला पेच स्यूँ , गोरी रे आँगण खुड़को कुण करयो जी । लीनी छै हिवड़े लगाय जी ढोला । आँगन में प्रियतम के जूतों की चरचराहट एवं भाले प्रियतम ने अपनी पगड़ी के पेंच से आँसू पोंछे एवं की टिमकन की आवाज़ आने लगी। प्रेमिका को हृदय से लगा लिया। (सिसकती हुई प्रेमिका टग टग म्हलाँ भँवर जी चढ़ गया जी, कहती है।) कोई खोल्या धण सजड़ ये जी ये किवाड़, थारी तो अोलूँ ढाला म्हे कराँ, साँकल तो खोली बीजल सालकी जी । घड़ी दोय लस्कर थामो जी ढोला । वे टग टग महल में चढ़ गये और व्यग्रता के साथ तुम्हारी तो प्यारे ! मैं हमेशा याद करती रहूँगी, इस जिस कमरे में उनकी प्रेमिका सोई हुई थी उसके किवाड़ों समय कम से कम दो घड़ी के लिए अपना लश्कर रोक की साँकल खोली। रक्खोन! हाथ पकड़कर भँवर बैठी करी जी, म्हारो तो थाम्यो लस्कर न थम, कोई बू जी म्हार मनड़रीये जी ये बात, म्हारा बाबाजी रे हुक्मा लस्कर थमसी ये गोरी। अँखिया निमाणी पापण खुल गयी जी। प्रिये ! यह लश्कर मेरा रोका नहीं रुकेगा। यह तो हाथ पकड़ कर प्रियतम ने मुझे जगाया, और मेरे पिता जी की आज्ञा से ही रुक सकता है। हृदय की बातें पूछने लगे। इतने में निर्मोही आँखें खुल गई। उपर्युक्त गीत में सरलता, अाग्रह और करुणा के सुपना रे बैरी तन मार धू जी, भावों का सुन्दर समावेश हुया है। यह गीत जिस उद्देश कोई के थारी कतल ये जी ये कराय, से गाया जाता था, आज-कल इसे उस अवसर पर न गा सूती नै ठगली भँवर जी री गोरड़ी जी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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