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इस लेख में कुँवर साहब ने "शब्द" नाम की तन्मात्रा का विवेचन किया है। तन्मात्राओं-सम्बन्धी आपका यह अन्तिम लेख है।
शब्द
लेखक, श्रीयुत कुँवर राजेन्द्रसिंह भूतपूर्व मिनिस्टर
नॉगरेजी के लेखकों ने फिर
को माना है। हमारे आचार्यों ने वही गड़बड़ किया।
बातें बना करके टाल देनेवाला श्रवणेन्द्रिय के विषय
ढंग नहीं रक्खा था । जितनी तरह को छोड़कर उसके कर्म को तन्मात्र
से किसी गूढ विषय पर प्रकाश मान लिया है। उनके लेखों का
डाला जा सकता है, उतनी ही शीर्षक 'शब्द' नहीं, 'श्रुति' है।
तरह से प्रकाश डालने और समयदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो
झाने की कोशिश की गई है। प्रतीत होगा कि दोनों में महान
अमरकोप में शब्द के पर्यायअन्तर है । हमारे देश के आचार्यों
जैसे, “निनाद, निनद, ध्वनि, ने किसी विषय को क्षिप्रदृष्टि से नहीं देखा, बरन ध्वान, रव, स्वन, स्वान, निर्घोप, निर्हाद, नाद, उसका इतना मनन और मथन किया कि 'वाल की निःस्वान, निःस्वन, आरव, आराव, संराव, विराव खाल' निकल आई। किसी अन्य देशवासी से यदि इत्यादि कहे हैं । इसकी चौथाई सूची भी क्या किसी पूछा जाय कि शब्द कितने तरह के होते हैं तो वह और भाषा में मिलेगी ? विश्वकोप में लिखा हैमुस्करा देगा, और वह मुस्कराहट यह सूचित कर रही "ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक भेद से शब्द दो प्रकार का होगी कि क्या लड़कों का-सा सवाल करते हो। है। मृदङ्गादि के शब्द को ध्वन्यात्मक और कण्ठतालु___हम लोगों का यह कहना है कि शब्द श्रवणेन्द्रिय अभिघातजन्य क, ख इत्यादि शब्द को वर्णात्मक का विषय है और इसका देवता आकाश है। यह कहते हैं। दोनों प्रकार के शब्द आकाश से उत्पन्न माननीय है कि कानों का विषय शब्द ही हो सकता होते हैं तथा जब श्रोत्रेन्द्रिय के साथ उसका अभिहै न कि सुनना। और यह भी विवादरहित है कि योग होता है तब अविकृत श्रोत्रेन्द्रियवान जीवमात्र बिना आकाश के कोई शब्द नहीं सुनाई देगा। ही उसका अर्थ बोध कर सके या न कर सके, पर
आकाश की गणना पञ्च महाभूतों में है । 'क्षिति जल शब्द अवश्य अनुभव कर सकता है। फलतः जब पावक गगन समीरा, पञ्च रचित यह अधम शरीरा। तक शब्द के साथ श्रोत्रेन्द्रिय का अभिषङ्ग नहीं इसी कारण, और यथार्थतः, शब्द का देवता आकाश होता तब तक उसकी उपलब्धि नहीं होती । यही
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