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________________ १५६ सरस्वती [भाग ३६ कहाँ छुपूँ? वन में; ना सखि, वनमाली में। साहित्यिक पुरुषार्थ का विरोध है। सङ्केतवाद कवि की काली के सर के नर्तक उस काले-काले से ख्याली में। भावनाओं का सभ्य स्वरूप है। जिस प्रकार सामाजिक उड़ने दे मुझको तू उस तक बन्धन एवं शिष्टाचार में नमवाद सुरुचि के प्रतिकूल है, जिसने हैं अंगूर बिखेरे उसी प्रकार साहित्य में भावनाओं का नग्न चित्रण कला की सिर पर नीलम की थाली में । वन में। क्षति है । समाज में जो नमवाद के विरोधी हैं उन्हें जिसको बन्दी कर लेने को रूढ़ियों की हठधर्मी को दूरकर एक न एक दिन अवश्य Dथ रही बावली प्रतीक्षा सङ्केतवाद को अपनाना पड़ेगा, क्योंकि वह सभ्यता के मानस, यौवन की जाली में । वन में । अनुरूप वस्तु है। साहित्यिक रूप में विशेषत्व के जिसे खुमारी चढ़ जाने को अनुसार सङ्केतवाद कुछ ही वर्षों का प्रयत्न भले ही हो, पलकें पागलपन साधे हैं उसका आधार अमर है। युगल-पुतलियों की प्याली में । ____ सङ्केतवाद अनन्तकाल की कविता है । सृष्टि के साथ जिसकी साध-सुधा पाने को ही उसके विकास और अन्त गुंथे हुए हैं । अप्रत्यक्ष संसार पंखिनियाँ चाहों की चहकी, सदैव अप्रत्यक्ष रहेगा और मानव-जीवन की वियोग-व्यथा जी-तरु की डाली-डाली में । वन में । सदा बनी रहेगी। इसी वियोग-भावना से उत्पन्न वर्तमान जिसे मनाने को मैं आली, काव्य में हम करुणा का आधिक्य पाते हैं । आशावाद गली-गली सी बना भाग्य में, तो हमारे मानस के कृत्रिम संतोष की एक धारा है; वह ढूँढ़ रही गाली-गाली में । वन में । चिरस्थायी अथवा अन्तर्भूत नहीं है। जब तक हमारा हिन्दी में दिन-प्रति-दिन सङ्केतवाद की उन्नति हो रही अनुसन्धान बना रहेगा, हमारी वेदना-विभूति श्रीमती है। उसका स्वरूप निश्चित करने की चेष्टा की जा रही महादेवी वर्मा के शब्दों में – है । उसका अस्तित्व निःशंक है, क्योंकि वह क्रान्तिकर 'जन्म ही जिसको हुआ वियोग, नवीन रक्त-द्वारा उत्पन्न हुआ है । वह हिन्दी के 'लकीर के तुम्हारा ही तो हूँ उच्छ्वास ।' फकीर' साहित्य के क्रम-विकास का फल नहीं है, क्योंकि मानव-हृदय को स्पर्श करती रहेगी। काव्य-जीवन संसार में कोई भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन क्रम-विकास की की अनेकरूपता इसी प्रवाह में बहेगी और पूर्णता की ओर मन्थर गति से नहीं पाता। हिन्दी-साहित्य का आधुनिक अग्रसर होगी । सङ्केतवादी कवियों को तर्कपरास्त रूढ़िवादी स्वरूप विगत बीस-पचीस वर्षों के अदम्य साहस की कुशब्दों से भले ही सम्बोधित करें, उनकी रचनाओं को सफलता है और भारत की वर्तमान राजनैतिक जाग्रति भी 'उल्लू की वाणी' कहकर अपनी संकीर्णता का परिचय इतने ही थोड़े समय की क्रान्तिपूर्ण साधना है। सङ्केतवाद देते रहें, वास्तव में वर्तमान और भविष्य के साहित्य के हिन्दी की वांछित वस्तु है। उसका विरोध समूचे भावी निर्माता वेही हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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