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________________ मारिस दि कोवा की एक कहानी उपहार 'सरस्वती' के पाठकों को श्रीमती शान्तादेवी ज्ञानी की यह प्रथम और अन्तिम भेट है। 'सरस्वती' के लिए आपने बराबर ऐसी ही कृतियाँ भेजने का वादा किया था। पर खेद है कि कोयटा के भूकम्प में आप अपनी एक मात्र पुत्री के साथ सदा के लिए सो गई। लेखिका, श्रीमती शान्तादेवी ज्ञानी Roका मती एलिस ने अपनी चाबी भी कम जबर्दस्त नहीं है। देखो, उस मेज पर | से होटल का दरवाज़ा काग़ज़ में क्या लिपटा हुआ है।" खोला और अन्दर श्रीमान् एलिस ले आई। ह्यगो ने खोला। काग़ज़ की श्री ह्यूगो को आरामकुर्सी तहों में एक छोटी मखमली डिबिया छिपी थी। M पर पैर पसारे मुस्कराते एलिस ने उत्सुकता से पूछा- "अन्दर क्या है ?" - पाया। "देखो।" ह्युगो ने डिबिया एलिस के हाथों में "तुम भी गज़ब के दे दी। एलिस ने उसे खोला। अन्दर बढ़िया आबआदमी हो ? भला इस वक्त यहाँ कैसे ?" दार हीरे से जड़ी सोने की अँगूठी थी। __ "तुम्हारे लिए एक खुशखबरी लाया हूँ। कुछ "तो क्या यह मेरे लिए है ?” एलिस ने उत्सुकता इनाम दो तो सुनाऊँ ।” से पूछा। "अच्छा ! क्या इनाम चाहते हो ?" ____ “हाँ प्रिये ! तुम्हारे ही लिए । तुमसे बढ़कर मुझे "बस, वही............" और कौन प्रिय है ?" "मैं तुम्हारे इशारे नहीं समझती। तुम्हें अपनी "पुरुषों की प्रियाओं का क्या पता चलता है ? खुशखबरी सुनानी हो तो सुनाओ। इनाम-वनाम स्त्रियाँ तो उनकी खिलवाड़ की चीज हैं।" एलिस ने कुछ नहीं मिलेगा।" मुस्करा कर कहा। . "इनाम तो ज़रूर मिलेगा। अभी नहीं तो थोड़ी “सम्भव है, जो तुम कहती हो ठीक हो। परन्तु देर ठहरकर । अच्छा सुनो। तुम जानती हो कि सब अँगुलियाँ समान नहीं होती।" । आज से छः मास पूर्व मैंने 'सीमेण्ट वर्क्स' में नौकरी ह्यूगो ने प्रेम से वह अँगूठी एलिस की अंगुली में की थी। अफसर की कृपा से मेरा वेतन भी बढ़ा पहना दी और पूछा-"क्यों ! तुम्हें पसन्द है कि और मेरे काम से सन्तुष्ट होकर कम्पनी ने मुझे २० नहीं ?" हजार के हिस्से बोनस के रूप में दिये । मेरे सौभाग्य एलिस ने बड़े गौर से अपने हाथ को उठाकर से हिस्सों का दाम अल्प समय में ही दूना हो गया देखा। हीरे की चौंध परखी। चेहरे पर सन्तोष की और अब मैंने उन हिस्सों को पूरे ४० हजार में बेच लहर दौड़ गई। परन्तु उसी क्षण एक शंका की दिया है।" कालिमा भी उपस्थित हुई। "सचमुच तुम क़िस्मतवाले हो। अच्छा होता, "प्यारे ह्यूगो ! यह अँगूठी कितने की है ?" हमारी भी ऐसी ही किस्मत होती !” । "क्यों ? पैसे दोगी?" “एलिस ! जरा हौसला करो। तुम्हारी किस्मत "नहीं । योंही पूछती हूँ।" १५७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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