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________________ संख्या १] बहुरूपिया साधु "यहाँ ही उड़ता रहता या नहीं, यह तो मैं नहीं "मैंने ही इस आदमी को बचाया है। हा-हा-हा ! जानती, लेकिन है यह पक्षी ही।" मेरी पत्नी बोली। आप लोग हँसते हैं। अगर आपको विश्वास नहीं ___ "तू भी पगली है।" मेरे मुँह से निकला। तो बेशक इसी समय कोई शख्स पानी में छलाँग "पता नहीं, उसने इस बात का बुरा माना या लगाकर देख ले।" उसे यों ही गुस्सा आ गया। ज़ोर से कहने लगी- इस पर सभी यात्री खूब हँसे । जब हँसी जरा अच्छा, अगर मछली है तो अभी अभी मेरे काग़ज़ कम हुई तब जादूगरनी ने लाठी डेक पर मारी और फेंकने पर वह नीचे क्यों नहीं चली गई थी?" चिल्लाई-"अच्छा तुम लोग अगर इस बात को ___ "बस, इसी बात पर झगड़ा शुरू हो गया। अंत सच नहीं मानते तो इस आदमी से पूछो। (यहाँ में मैंने कहा-अच्छा तो लो मैं शीशी करता हूँ। उसने साधु की ओर इशारा किया ।) अपने दिल में यह कह कर मैं अँगले के ऊपर चढ़ गया। मैने दोनों यह शख्स जानता है कि मैंने इसे क्योंकर हाथों से ताली बजाने की कोशिश की । इतने में उधर बचाया है।" से धक्का आया। जहाज डोल रहा था। मेरा सिर इतना कहकर जादूगरनी ने अपना लंबा-सा चकराया और मैं पानी के अंदर जा पड़ा। कहते हैं, चोगा उतार दिया। पहले झुकी हुई थी, अब सीधी जब मैं डूब रहा था तब मेरी पत्नी बहुत रोई। इतना खड़ी हो गई। यह एक साधारण महिला थी। उधर कि उससे समुद्र-देवता का दिल पिघल गया। यह उस साधु ने भी बहुरूपियों के कपड़े उतार दिये थे। उस भाग्यवती का ही काम था कि मैं बच गया ।" अब वे दोनों कुर्सियों पर साथ-साथ बैठ गये। __ साधु अभी अपनी बात खत्म न कर पाया था उधर जहाज का कप्तान अपनी कुर्सी पर खड़ा हो कि वह स्त्री जो जादूगरनी बनी हुई थी, लाठी टेकती गया। उसने सबको बताया--"यही साधु हैं जो हुई मैदान में आई । उसने सिर हिलाते हुए कहा- आज डूबते-डूबते बचे हैं।" लेखक, कुँवर हरिश्चन्द्रदेव वर्मा 'चातक' एकान्त शान्त में सञ्चय कर, लहरों की खींच खींच रेखा, गिरि की गृह गलियाँ छोड़ चुकी, यह स्नेह-धार अतिशय मनहर। या लगा रही हो यह लेखा। बाधा-बंधन सब तोड़ चुकीं । अब चली बाँटने ग्राम नगर, "देखें कब मिलते हैं प्यारे, अब जा अगाध से मिलो प्रिये ! सरिते ! किससे प्रेरित होकर ? जीवन-धन, नयनों के तारे" ? हाथों में फेनिल-फूल लिये !! प्रियतम का ध्यान हृदय में धर, दिन स्वर्ण लुटाता है आकर, मैं भी तुम-सा ही मिलनातुर, काल्पनिक मिलन भावों से भर। चाँदी बरसाती निशि लाकर। चल पडूं लगूं प्रियतम के उर। हो उठा रही लहरों के कर, पर तुम्हें न इनसे काम सखी!. फिर मेरापन सब बह जाये, सरिते ! तुम हो कितनी सुन्दर ? प्रियतम बिन कब आराम सखी! प्रियतम ही प्रियतम रह जाये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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