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सरस्वती
[भाग ३६
कठिनाइयों का सामना करते हुए |
आगे बढ़े हैं, अतएव ऐसे आदमी में विशेषता होनी ही चाहिए।
अाखिर हमारी गाड़ी ने सीटी दी। 'सायोनारा' (विदाई का अभिवादन) कर हम एक-दूसरे से | अलग हुए। बिजली की रेल के | स्टेशन करीब करीब होते हैं। दो-तीन स्टेशनों के बाद गाँव श्रा गये। जहाँ-तहाँ घरौंदे-से छोटे छोटे खपरैलवाले मकान, दूर तक | फैले हरे-भरे धान के खेत । खेतो में पानी की नहरें भी हैं, और कहीं
कहीं पानी को ऊपर उठाने के लिए। [ प्राकृतिक दृश्य (गर्मी)]
हवा से चलनेवाले रहट लगे हैं।
सड़क के किनारेवाले खेतों में मोटे बर्ताव किया होता और मुझे सिर्फ एक शकाकिबारा के मोटे अक्षरों में कितने ही साइनबोर्ड लगे हैं । विज्ञापनबाज़ी साथ कुछ समय रहना पड़ता तो मेरी जापान के प्रति से किसानों के झोपड़ों की छतें तक नहीं बची हैं। प्रायः सारी बुरी धारणा लुप्त हो जाती। शकाकिबारा की उम्र पौन घंटा चलने पर हम पहाड़ में घुसे, किन्तु यहाँ बड़े ३३-३४ वर्ष की है। प्राइमरी शिक्षा के बाद वे बौद्ध पहाड़ नहीं हैं। हाँ, रेल की सुरंगें काफ़ी हैं। इतनी पुरोहित बनने की तैयारी करने लगे। वह शिक्षा पा ही सुरंगांवाली रेलवे लाइन कैसे कोई प्राइवेट कम्पनी एक रहे थे कि १६२३ का भूकम्प आया। उनकी कार्यतत्परता वाणिज्यरहित स्थान के लिए निकालेगी, हम तो इसी को देखकर भूकम्प-सहायता का काम करने के लिए उनके विचार में पड़े थे। हाशीमोतो-जंकशन से अब हम बड़ सम्प्रदाय के प्रधान केन्द्र (कोशो जी, क्योतो) ने उन्हें पहाड़ की ओर चले । यहाँ का पार्वत्य दृश्य देखने से तोक्यो भेजा। उनके कार्य से लोग इतना सन्तुष्ट हुए मालूम होता था कि हम कलिम्पोङ के आस-पास हिमालय कि उनसे तोक्यो में एक मन्दिर बनाकर रहने का आग्रह में चल रहे हैं। फूसवाले घरों की छतें तो बिलकुल नैपाल-सी करने लगे। उन्होंने नका-अोकाची माची में दस हज़ार मालूम होती थीं। धानों के खेत नीचे से ऊपर सीढ़ी की येन् (उस समय के तेरह हज़ार रुपये) की ज़मीन खरीदी, भाँति वैसे ही चले गये थे। किन्तु एक खास बात थी।
उतना ही और लगाकर मन्दिर बनवाया। हर जगह बिजली के तार के खम्भे थे। कहीं कहीं तो तारों जापान में दिन में कालेज या हाई स्कूल में न पढ़ सकने- का पिंजड़ा-सा बन गया था। कई दिनों से वर्षा न होने वालों के लिए रात में पढ़ने का सुन्दर प्रबन्ध है। शका- के कारण आज बहुत गर्मी थी। गर्मी के दिनों में छड़ी। किबारा ने रात्रि-कालेज में ही शिक्षा प्राप्त की थी। मंदिर छाता भले ही भूल जायँ, किन्तु कोई जापानी मुड़नेवाली का काम समाप्त कर १६३२ में विशेष अध्ययन के लिए पंखी नहीं भूल सकता। इन पंखियों में भी ज़नाना-मर्दाना वे जर्मनी चले गये थे। वहाँ से दो वर्ष बाद स्वदेश लौटे भेद रहता है। आज ही नम्बा-स्टेशन पर शकाकिबारा के हैं। इस संक्षिप्त कथा से मालूम होगा कि शकाकिबारा मित्र की स्त्री ने अपनी पंखी भेंट करनी चाही, और इस
और कर
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