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सरस्वती
[भाग ३६
संस्कृत-श्लोकों में भारत की दीन अवस्था का चित्रण सम्प्रदाय. के सिद्धान्तों के आधार पर लिखी जाने के कारण
और भगवान् रामानन्द जी से उसके उद्धार के लिए राम को परात्पर ईश्वर सिद्ध करने का प्रयास करती है। सुन्दर तथा ज़ोरदार शब्दों में प्रार्थना की गई है। राम भी किसी अन्य को अपना उपास्य देव मानते थे, हिन्दी-कविताओं की भाषा खिचड़ी है। हाँ, संस्कृत के यह स्वीकार करने से इस साम्प्रदायिक मत को हानि की श्लोक अवश्य सुन्दर हैं।
सम्भावना है। इसी विचार से इस पुस्तक में यह सारा (२) श्रीलोकोत्तराम्बाचरणाश्रयणम—मूल्य = विवेचन किया गया है । आश्चर्य है कि ब्रह्मचारी जी इन और पृष्ठ-संख्या १६ है।
बातों का प्रचार करने में अपने सम्प्रदाय का गौरव समयह पुस्तक भी संस्कृत-श्लोकों में लिखी गई है। झते हैं । पुस्तक का विषय उसके नाम से स्पष्ट है । सरल, प्रसाद- (४) काठकोपनिषत्-पृष्ठ-संख्या १०२ और मूल्य गुण-पूर्ण तथा सुन्दर भाषा में यह स्तुति-कुसुमाञ्जलि लिखी ॥ है। कठोपनिषद् का उपनिषदों में विशेष स्थान है। गई है। भक्ति और श्रद्धा के भावों से पद्य श्रोत-प्रोत हैं इस उपनिषद् पर शंकर प्रभृति अनेक प्राचार्यों के भाष्य और बड़े हृदयग्राही हैं । एक उदाहरण देखिए- प्रसिद्ध ही हैं । परन्तु श्री ब्रह्मचारी जी ने इस उपनिषद्
दीनोऽस्मि तेन न धनं, किल निर्गुणोऽस्मि, की अपनी टीका में इसका अर्थ ब्रह्म-ज्ञानपरक नहीं किया तस्माद् गुणो न मयि तिष्ठति मन्दभाग्ये । है। वे इसमें 'चारित्र्य' और 'उपासना' का चित्रण पाते निन्द्यं वपुर्मलिनमेव मनस्तु तस्मात् ,
हैं। 'मृत्यु' को भी वे अन्य भाष्यकारों के समान यमराज त्वत्पादयोर्मम शिरोऽवनतिर्हि पूजा ।।
नहीं मानते, अपितु मृत्यु नामक किसी विद्वान् पंडित की (३) रामेश्वरमीमांसा-पृष्ठ-संख्या ३० और मूल्य।) कल्पना करते हैं । द्वितीय वर-द्वारा 'स्वर्ग्य अग्नि' का जो है । इस पुस्तक में ब्रह्मचारी जी ने वाल्मीकिरामायण की उपदेश नचिकेता ने यम से माँगा है उसका भी एक भूषणादि टीकात्रों के आधार पर यह सिद्ध करने का यत्न दूसरा ही अर्थ उन्होंने किया है। स्वर्ग-लोक का अर्थ किया है कि भगवान् रामचन्द्र ने सेतुबन्ध के समय न तो 'श्री साकेत में निवास करनेवाले नित्य, मुक्त जीव' किया शिव की स्थापना की थी और न पूजा ही की। उन्होंने गया है। 'लोकादिमग्निम्' का 'विष्णुपूजन रूप भक्ति' लिखा है कि "अत्र पूर्व महादेवः प्रसादमकरोद्विभुः" इस अर्थ किया गया है । इस प्रकार अर्थों की खींचातानी से वाल्मीकीयरामायणस्थ पंक्ति का 'महादेव' शब्द 'समुद्रराज' इस उपनिषद् का स्वारस्य अच्छी तरह बिगाड़ा गया है। का वाचक है न कि शिव का । भूषण टीकाकार का जो पन्द्रहवें मंत्र में 'या इष्टका यावतीर्वा यथा वा०' का अर्थ प्रमाण इसकी पुष्टि के लिए उद्धृत किया गया है वह इस करते हुए ब्रह्मचारी जी ने लिखा है कि-"जितनी और प्रकार है
जिस प्रकार की इंटें इस भक्तिरूप अग्नि के लिए अपेक्षित __ "महादेव इति समुद्रराज उच्यते । औचित्यात् । प्रभुः थीं उनका भी उपदेश कर दिया"। नचिकेता और यम समुद्रजलाधिष्ठाता । प्रसादमकरोत् । 'सागरं शोषयिष्यामि' की कथा को केवल अर्थवाद मानकर इस उपनिषद् के इति कुपितस्य मे प्रसादं प्रसन्नत्वमकरोत् ।" इसी प्रकार भाष्यकारों ने जिस प्रकार इसके शब्दों का मुख्यार्थ लेकरपृष्ठ ६ पर सत्रह युक्तियों की एक सूची दी गई है, जिनसे अनायास ही सरल स्वाभाविक अर्थ किया है, वैसा इस यही प्रकट होता है कि शिवलिङ्ग-स्थापना करनेवाला अर्थ नूतन व्याख्या में नहीं हुआ है । शब्दों का मुख्यार्थं छोड़अप्रासंगिक है, अतएव अशुद्ध है। ब्रह्मचारी जी ने कर उनके लक्ष्यार्थ की अहेतुक कल्पनात्रों से श्री ब्रह्मतुलसीदास जी को श्री-सम्प्रदाय का नहीं माना है और चारी जी ने इस उपनिषद् के सरल भावों की खूब मिट्टी तदनुसार उनके ग्रन्थ और शिव-लिङ्ग-स्थापना के वर्णन पलीद की है। जिन्हें सम्प्रदायवादियों की लीला का अनु.
को भी अप्रामाणिक ही माना है। यह पुस्तक रामानन्द- भव प्राप्त करना हो उन्हें कठोपनिषद् के ब्रह्मचारी जी के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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