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________________ संख्या ४] नई पुस्तकें श्रीयुत बच्चन जी के समीप है भावुकता की अँगूरी, उन्मद साधक की तो अमर पिपासा के लिए चाहिए स्वाति का एवं उद्भ्रान्त बना देनेवाला भाव-प्रवाह ! उन्होंने ऊपर बिन्दु, अगणित वर्षा-बिन्दु उसकी अतृप्त पिपासा को उठने का प्रयत्न किया है। उनके लिए कहीं बादल साकी कहाँ मिटा सकते हैं ? मीरा विशुद्ध प्रेम की भूखी थी; है तो कहीं पानी की वर्षा मदिरा; कहीं मत्त समीरण साकी उसकी भूख मिदी जीवन-परिवर्तन पर ! महाप्रभु चैतन्य है तो सागर-जल हाला है; कहीं पौधे साक्री हैं तो परिमल- प्रेम के दीवाने थे, इसलिए उन्होंने प्रेम का साक्षात्कार मिश्रित रस हाला है; कहीं रसाल-तरु साक़ी-सा है तो पाया। महाकवि कबीर अचेतन पड़े थे, उन्हें चेतन के उसका मादक सौरभ हाला है; कहीं अनिल साक़ी है तो असीम मिलन की साधना भी प्रारम्भ कर देने के लिए, मधु-ऋतु-सौरभ हाला है; कहीं उषा बाला साक़ी है तो अपने पैरों के मृदुल आघात से उन्हें जगा दिया गुरु वह धरा से हाला मोल लेती है, कहीं सन्ध्या बाला साकी रामानन्द ने । इसी लिए कबीर ने एक दिन कहा था, है तो पता नहीं हाला क्या है; कहीं शशि-बाला साकी है वीर की साधना रण में लड़कर क्षण भर में जीवनदान तो उसकी ज्योत्स्ना हाला है इत्यादि । तात्पर्य यह है कि दे देने से हो जाती है, सती की साधना अपने जीवनउन्मत्त कवि जहाँ देखता है वहीं उसे हाला, प्याला, स्वामी की चिता पर चढ़ जाने से अपने प्राण-विसर्जन साकी और मधुशाला दिखाई देती है। कर देने से घण्टे भर में ही समाप्त हो जाती है, पर किसी अोर मैं आँखें फेस दिखलाई देती हाला, साधक की साधना तो न क्षण भर में पूरी होगी, न घण्टे किसी ओर मैं आँखें फेरूँ दिखलाई देता प्याला। भर में ! उसकी साधना तो जीवनव्यापी है, जब तक किसी रेख मभको दिखलाई देता साकी, जियेगा तब तक उसे साधना का संग्राम लड़ना पड़ेगा-- किसी अोर देखू, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।। 'साध-संग्राम है रैन-दिन जूझना, पर इस निखिल जगत्व्यापी दृष्टि के भीतर कवि देहपर्यन्त का काम भाई ।' का सुकोमल हृदय किस स्थल पर जाकर, चोट खाकर, श्रीयुत बच्चन जी में एक प्रतिभाशाली कवि के गुण वेदना से कण्टकित होकर रोदन और हाहाकार कर उठता मौजूद हैं । जब समय भीगेगा तब उनके हृदय में एक है उसे भी देखिए । कवि कहता है असीम पिपासा जाग्रत होगी, तब वे दूसरों को भी पिला सुमुखि तुम्हारा सुन्दर मुख ही भाविक मदिरा का प्याला, कर उन्मत्त कर देंगे। अब हम भी उनके शब्दों में कहेंगेछलक रही है जिसमें छलछल रूप-मधुर मादक हाला। कभी न कण-भर खाली होगा, लाख पियें दो लाख पियें; मैं ही साक्की बनता, मैं ही, पीनेवाला बनता हूँ, पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला ! जहाँ कहीं मिल बैठे हम-तुम वहीं गई हो मधुशाला ।। इसकी पृष्ठ-संख्या १५०, आकार छोटा और मूल्य किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला, दोनों पुस्तकों का गेटप सुन्दर है। पता--साधनाढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी , किस्मत में थी मृगछाला। निकुंज, प्रयाग है । किसने अपना भाग्य समझने में मुझ-सा धोखा खाया ? -मंगलप्रसाद विश्वकर्मा किस्मत में था अवघट मरघट ढूंढ़ रहा था मधुशाला। ३-७ - श्री रामानन्द-साहित्य-प्रचारक-मण्डल, लहरीपुरा, बड़ौदा की पुस्तकें इस उलझन और एक सीमाबद्ध प्रेम की तड़फन में (१) श्रीभगवत्स्तव:--पृष्ठ-संख्या ८ और मल्य - अानन्द की अनुभूति कब हो सकती है ? यह उन्माद तो है। इस पुस्तक में प्रारम्भ तथा अन्त में हिन्दी-कवितात्रों अन्तस्तल की एक महान् पुकार के क्षुद्र अाघात से ही का समावेश हुश्रा है। प्रातः तथा सायंकाल की भारती काँच के प्याले के समान भङ्ग हो जानेवाली चीज़ है। के पीछे गाने के लिए इन स्तुतियों की रचना की गई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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