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________________ ४२२ सरस्वती [भाग ३६ VIE MONT मिट्टी के स्तूपों को पढ़िए। ये सम्राटों और सम्राट्कुमारों की समाधियाँ हैं । इन सबकी यही अन्तिम कामना । थी कि मरने के बाद अपने | उपदेशक-अपने गुरु की। समाधि के पास उनको । जगह मिले । कहीं आप तीन हाथ लम्बे खम्भे-जैसे । चिकने पत्थरों को एक अोर खुले मुँहवाले अायत । क्षेत्र के रूप में देखेंगे। ये हैं क्योतो या तोक्यो, [शोजो शिन्-इन् ( द्वार)] अोसाका या योकोहामा की नर्तकियाँ (गेईशा)। जीवनजाति हर साल दस लाख प्राणियों के नफ़े में रहती है। काल में भी उन्होंने इसी तरह पंक्तिबद्ध हो नृत्य किया। चलो समझेंगे एक साल नफ़ा नहीं हुआ। वस्तुतः इतने था। मरने के बाद भी आज वे उसी प्रकार पंक्तिबद्ध भीषण जन-विनाश का जापानी दिल पर उतना ही असर खड़ी हैं। बीच बीच में आपको कोबोदाइशी की पीतल होगा, जितना काई से श्रावृत तालाब पर फेंके हुए डले या पत्थर की बाल्य, तारुण्य वा वार्धक्य की मूर्तियाँ का । संसार की किसी जाति और उसके योद्धाओं में यह दिखाई पड़ेंगी। और दो दो सौ फुट ऊँचे देवदार ! उनका | दृढ़ अधिष्ठान नहीं है । अधिष्ठान-बल, संख्या-बल, सेना- तो कहना ही क्या। सुन्दर पुल, स्वच्छ पत्थर बिछे हुए विज्ञान-बल-ये चीजें हैं जिनके कारण आज जापान रास्ते के छोर पर पहुँचिए । यहाँ कितने ही चिराग़ अहसंसार की बड़ी बड़ी शक्तियों को मुँहफट-सा जवाब दे रहा निश जल रहे हैं। किन्तु समाधि यह नहीं है। परिक्रमा है । योरप या अमेरिका चीन को आर्थिक सहायता करना करते हुए पीछे चलिए। चहारदीवारी से घिरे देवदार के चाहते हैं, जापान कहता है—खबरदार ! यह तुम्हारी वृक्षों के बीच देखिए वह छोटा झोंपड़ा-सा मकान । यही अनधिकार चेष्टा है। है उस महान् दार्शनिक, महान् कलाकार, महान् पर्यटक, । सब देखकर हम कोबोदाइशी की समाधि आकुनो- महान् सिद्ध का समाधि-गेह । दो पैसा खर्च कर धूपइन् की ओर चले। पहला पुल पार करते ही दोनों ओर बत्ती लीजिए। धूपदान पर रखकर जलाइए। ऐसे अद्समाधि-पाषाण दिखलाई देने लगते हैं। हर एक पत्थर भुतकर्मा पुरुष के प्रति अपना सत्कार प्रदर्शन करना । पर उस व्यक्ति का नाम खुदा हुअा है जिसकी राख हमारा कर्तव्य है। उसके नीचे दबी हुई है । यदि आप चीनी अक्षर पढ़ सकते लौटकर हम करुकायादो तथा कोङ्-गो-सामइ-दो में हैं तो एक एक पत्थर को पढ़ते जाइए । अथवा इन लाखों गये। हर जगह का वर्णन एक-दो लेख में नहीं किया पत्थरों का पढ़ना असंभव समझते हों तो बड़े बड़े स्तूपा- जा सकता। उनके लिए पाथा चाहिए। संक्षेप में तो कार पत्थरों को पढ़िए। इनमें आप पुराने जापान के कह ही दिया, ये विहार मूर्ति और चित्रकला के अपूर्व कितने ही सेनापतियों और सामन्त राजाओं को पायेंगे। या संग्रहालय हैं। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara. Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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