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________________ _ संख्या ५] कोयासान ४२१ प्रकट किया। दूसरी बार भी मेरा वही भाव रहा। तीसरी बार जब मैंने गम्भीरता से पूछ-ताछ कीक्या बारह तेरह रोज़ाना या सालाना ? उत्तर मिला-रोज़ाना, रोज़ाना। बात यह है, हम लोग मृत्यु को बहुत महत्त्व देते हैं, उससे बहुत डरते हैं। जापानी उसको उस तरह नहीं लेते । उनके खयाल से · मरनेवाले के लिए अन्तिम निश्चय के बाद वह कुछ समय की मानसिक वेदना है। यदि मीहार जैसा सामान हो, तो मृत्यु की पीड़ा होती ही नहीं । और बचे लोगों के लिए–'अाह ! [प्राकृतिक दृश्य (जाळा)] हमारा मित्र चला गया । हमारा सम्बन्धी चला गया । अच्छा निप्पोन् (जापान) की भक्ति, अपने सम्राट के देव-तुल्य कर्म को कौन टाल सकता है ?' यदि कहा जाय जापानी- सम्मान का पाठ पढ़ा है। उसने स्वामिभक्त ४७ रोनिनों जाति मृत्युंजय है तो इसमें अतिशयोक्ति बहुत कम होगी। की कुर्बानियाँ पढ़ी हैं और शायद उनकी समाधियों को अपने आदर्श, अपने भाव के सामने एक जापानी अपने जाकर देखा है, अथवा उनके फ़िल्म देखे हैं। उसने जीवन का मूल्य तुच्छ समझता है। उसने लड़कपन से पोर्टअार्थर विजेता नेोगी को सपत्नीक अपने सम्राट (मेहजी) के वियोग में हराकिरी करते पढ़ा है । वह समझता है, जीवन का मूल्य किसी समय बहुत भी हो सकता है, किन्तु कुछ ऐसे अवसर, कुछ ऐसी वस्तुएँ हैं, जिनके बदले में जीवन दे देना सबसे सस्ता सौदा है। जापानियों में ये भाव इतने भीतर तक घुस गये हैं कि उसका अनुमान करना भी हमारे लिए मुश्किल है। मृत्यु के साथ खेलने में वे बड़े दक्ष हैं। यदि कोई बड़ा युद्ध हो जाय, जिससे दस लाख आदमी मर जायँ, जानते हैं, जापानी क्या कहेगा-भवितव्यता के साथ किसका वश ? अच्छा वह तो हो [ काङ्गो-बुजी] गया । मृत्यु का घाटा देखकर हमारी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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