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________________ सामयिक साहित्य संख्या ३] निकला हूँ । कांग्रेस का सबक थोड़ा ही मिटा दूँ । यदि मैं योग्यता होते हुए भी किसी की अभिप्राय देने का इनकार करूँ तो मैं धर्मच्युत हूँगा । रही बात कौंसिल प्रवेश की। मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस समय यह प्रवेश सामान्यतया धर्म है । मेरे लिये नहीं है, क्योंकि मेरा मन दूसरी ओर है । मेरी साधना हिंसक कानून भंग की है। इस वस्तु के संशोधन में मेरे लिये कौंसिल प्रवेश अयोग्य है । तुम कहाँ नहीं जानते हो कि एक ही वस्तु एक के लिए जहर होती है दूसरे के लिए अमृत, एक ही व्यक्ति के लिये एक समय वही वस्तु जहर रहती है दूसरे समय अमृत । मेरी आशा है कि अब तुम्हारे सब प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा और समाधान भी हुआ होगा । मेरी बात मानो तो कौंसिल प्रवेश की बात मेरे पर छोड़ दो और ग्राम प्रवेश का और हिंदी - प्रचार का काम पेट भर के करो । इसमें कहाँ कम सेवा है ? यदि इन कामों में तन्मय होगे तो दूसरी-तीसरी बातों का ख्याल तक करने का तुमको समय नहीं रहेगा । ईश्वर तुमको पूर्ण आरोग्य प्रदान करे । वर्धा ५-८-३५ बापू के आशीर्वाद भारत के पत्र और पत्रकार अखिल भारतीय पत्रकार सम्मेलन का गत १७ अगस्त को कलकत्ते में जो तीसरा अधिवेशन हुआ था, 'लीडर' के सम्पादक श्रीयुत सी० वाई : चिन्ता मरिण ने उसके सभापति के आसन से एक अत्यन्त सारगर्भित और सामयिक भाषण दिया है । अपने भाषण में आपने भारत के पत्रों और पत्रकारों की स्थिति के सम्बन्ध में बहुत-सी ज्ञातव्य बातें कहीं हैं । यहाँ हम आपके भाषण का उक्त अंश 'भारत' से उद्धृत करते हैं— पत्रकार का पेशा एक पवित्र कार्य है। समाचार-पत्रों का जन्म जनता की शिक्षा के उद्देश से हुआ था । उनके व्यापारिक पहलू का तो हाल में ही विकास हुआ है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat २७७ लोगों की यह भावना थी कि बालकों और नवयुवकों को तो विद्यालयों में शिक्षा मिल जाती है, परन्तु बड़े लोगों को भी जीवन भर शिक्षा की आवश्यकता रहती है और इस काम में समाचारों तथा विचारों को प्रकाशित करनेवाले पत्रों तथा पत्रिकाओं से बड़ी सहायता मिल सकती है। इसी भावना के कारण पत्र पत्रिकाओं का जन्म हुआ । हमारे देश की सौ वर्ष पहले की तथा आज की अवस्था की तुलना करने पर यह कहने का कौन साहस कर सकता है कि हमारे पूर्वजों का यह विचार ग़लत था ? मेरे कथन का अभिप्राय यह नहीं है कि पिछले सौ वर्षों में जनता की मनोवृत्ति में जो आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ है उसका श्रेय एकमात्र पत्र-पत्रिकाओं को ही है । निःसन्देह इसका श्रेय सबसे अधिक तो विद्यालयों को है, परन्तु उनके बाद दूसरा नम्बर पत्र-पत्रिकाओं का ही है । अगर आज देश में इतनी जाग्रति हो गई है तो हमारी राजनैतिक तथा अन्य संस्थाओं को भी इसका श्रेय अवश्य मिलना चाहिए । परन्तु क्या उन्हें पत्र-पत्रिकाओं से बड़ी भारी सहायता नहीं मिली है ? केवल राजनैतिक आन्दोलन में ही नहीं, बरन समाज-सुधार तथा औद्योगिक उन्नति के यत्नों में भी पत्रपत्रिकाओं से बड़ी सहायता मिली है। जिस समय हमारे अधिकांश देशवासी पत्र-पत्रिकाओं के महत्त्व को समझ भी नहीं सकते थे, उस समय हमारे जिन पूर्वजों ने उन्हें जन्म दिया वे हम सबकी कृतज्ञता के अधिकारी हैं । उनमें राजा राममोहन राय तथा ऋषिकल्प दादा भाई नौरोजी के नाम मुख्य हैं । तब से अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने विभिन्न प्रान्तों में सम्पादक के आसन को सुशोभित किया है । जिस पेशे में हरिश्चन्द्र मुकर्जी और कृष्णदास पाल, शम्भूचन्द्र मुकर्जी और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, शिशिर - कुमार घोष और मोतीलाल घोष, विश्वनाथ नारायण माण्डलिक और नारायण गणेश चन्द्रावरकर, बालगंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले, सुब्रह्मण्य अय्यर, करुणाकर मेनम और कस्तूरीरंग अय्यंगर, पंडित मदनमोहन मालवीय और पंडित विशननारायण दर, बाबू गंगाप्रसाद वर्मा और लाला लाजपत राय जैसे व्यक्ति कार्य कर चुके हैं, उसे लज्जित होने का कोई कारण नहीं हो सकता । www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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