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सरस्वती
[भाग ३६
बन्द कर देंगे जो उस देश में बन सकता है। अब आर्थिक भूल है, जिसका फल उसे आये दिन भुगतना
औद्योगिक उन्नति देश की माँग पर ही निर्भर होगी। पड़ता है। विशेषज्ञों का मत है कि यदि भारतवर्ष में देश में जितने पक्के तैयार माल की माँग होगी उतने की वैज्ञानिक ढंग से खेती-बारी की जाय तो लगभग पचास पूर्ति के लिए कारखाने खोले जा सकते हैं। इससे अधिक प्रतिशत किसान ही सारी भूमि पर खेती-बारी कर सकते के लिए प्रयत्न करना भयंकर अार्थिक भूल होगी, जिसका हैं । किन्तु इन पचास प्रतिशत किसानों को भी खेती-बारी कुफल देश को अवश्य भोगना होगा।
के साथ साथ अवकाश के समय कोई न कोई ग्रामीण प्रश्न हो सकता है कि भारतवर्ष जैसे विशाल देश में धंधा करना ही होगा । तभी वे अकाल तथा आर्थिक संकट जहाँ समस्त संसार की जन-संख्या का पाँचवाँ भाग से छुटकारा पा सकेंगे। निवास करता है, कारखानों के तैयार माल की इतनी यदि ऊपर लिखे हुए विवरण में तनिक अतिशयोक्ति माँग होगी कि हमारे कारखाने देश की ही माँग पर की सम्भावना को भी मान लें तो भी यह बात सर्व. निर्भर रह कर चल सकेंगे। उस दशा में हमारा देश मान्य है कि खेती में लगी हुई जन-संख्या अत्यधिक है, इंग्लैंड, जापान तथा जर्मनी के समान कारखानों का जिसका पालन केवल खेती की भूमि के द्वारा नहीं हो सकता देश नहीं बन सकेगा, यह तो निर्विवाद है, हाँ, देश की है। अब प्रश्न यह है कि यह अधिक जन-संख्या किस माँग पर रह कर बहुत-से धंधे चलाये जा सकते हैं और कार्य में लगाई जाय जिससे यह अपना भरण-पोषण विदेशों से आनेवाला तैयार माल रोका जा सकता है। भले प्रकार कर सके, साथ ही बचे हुए किसानों को
देखना यह है कि क्या इतने कारखानों के खुलने से भी अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने का अवसर दे। संक्षेप देश की आर्थिक समस्या हल हो सकेगी। १६३१ की में भारतवर्ष की मुख्य आर्थिक समस्या यह है कि भूमि मनुष्य-गणना के अनुसार भारतवर्ष की जन-संख्या पैंतीस पर जन-संख्या का अत्यधिक भार है। करोड़ से कुछ अधिक है। इसमें से लगभग ७५ प्रतिशत भारतवर्ष के पास निज के उपनिवेश नहीं हैं, जहाँ खेती-बारी में लगी हुई है, तथा गाँवों में रहनेवाली शेष भारतीयों को प्रवास कर जाने के लिए कहा जाय । अन्य १५ प्रतिशत जन-संख्या अप्रत्यक्ष रूप से खेती-बारी पर देश जहाँ की आबादी बहुत कम है, पाश्चात्यों की अधीअपने भरण-पोषण के लिए निर्भर है। श्रार्थिक दृष्टि नता में हैं और उनमें एशियाई लोगों के लिए द्वार बन्द से देश की यही निर्बलता है। भारतवर्ष में जन-संख्या है। अस्तु, प्रवास हमारी समस्या को हल नहीं कर सकता। अधिक है और वह क्रमशः बढ़ती जा रही है, किन्तु खेती. अब उद्योग-धंधों के अतिरिक्त दूसरा उपाय ही क्या है ? बारी के योग्य भूमि तो परिमित ही है, वह बढ़ाई नहीं जा देखना यह है कि मिल और कारखाने खोलकर हम सकती। इसका फल यह हो रहा है कि प्रतिकिसान भूमि इस समस्या को कहाँ तक हल कर सकते हैं । श्राधुनिक बहुत कम पड़ती है, जिस पर खेती-बारी करके वह अपने ढंग के पुतलीघर और कारखानों की स्थापना इस देश में कुटुम्ब के भरण-पोषण के लिए यथेष्ट सम्पत्ति उत्पन्न नहीं सन् १८५० के उपरान्त हुई है, तब से उत्तरोत्तर फ़ैक्टरियों कर सकता। यही नहीं, खेती-बारी अत्यन्त अनिश्चित की संख्या यहाँ बढ़ती जा रही है । १६३३ की फैक्टरी-रिपोर्ट धंधा है। जो धंधा प्रकृति पर इतना अधिक निर्भर हो के अनुसार भारतवर्ष में ८,४५२ फैक्टरियाँ कार्य कर रहीं उसका अनिश्चित होना अनिवार्य भी है। वर्षा, वायु, धूप थीं, जिनमें १४,०३,२१२ श्रमजीवी कार्य कर रहे थे। तथा अन्य किसी जलवायु-सम्बन्धी गड़बड़ से खेती-बारी ध्यान रहे, भारतवर्ष में एक्ट के अनुसार फैक्टरी वह स्थान नष्ट हो जाती है और उस भाग की ग्रामीण जनता के है, जहाँ कम से कम १० मनुष्य कार्य करते हैं और जिसमें सामने अकाल भयंकर रूप में उपस्थित हो जाता है। शक्ति (बिजली, भाफ इत्यादि) का उपयोग होता है। अस्तु, किसान का केवल खेती-बारी में लगा रहना भयंकर फैक्टरियाँ दो प्रकार की होती हैं-- एक तो वे जो वर्ष भर
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