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________________ सरस्वती [भाग ३६ यह देखकर बड़ा गुस्सा आया। मैंने आव देखा न ताव, झट लोगों को धर्म-कर्म में आस्था तो रहती नहीं । तब मैं अपने लोगों को हटाता-बढ़ाता पंडित जी की बेंच के पास जा बारे में आपसे कुछ कहूँ तो फ़ायदा क्या ? मसल है, पहुँचा और उनकी दरी एक ओर खिसका क आराम से अन्धे के आगे रोवे अपना दीदा खोवे। बैठ गया । मेरी देखा-देखी और भी दो-एक लोग घुसकर इस बात से मेरी उत्सुकता और बढ़ी और मैंने उनकी बैठ गये। पहले तो पंडित जी ने बड़ी तेवरियाँ चढ़ाई और खुशामद शुरू की और उनको विश्वास दिला दिया कि धौंस गाँठने का भी प्रयत्न किया, पर मैंने ऐसे आदमी से मेरी प्रकृति प्रास्तिक है। कुछ दिलजमई होते ही उन्होंने भाषण तक करना उचित न समझा और श्रानन्द से एक कहा-पूछकर क्या कीजिएगा ? मैं अोझा हूँ। कैसी सिगरेट निकाल कर पीने लगा । पंडित जी ने देखा, हुजत बीमारी हो, मैं मंत्र से अच्छा कर सकता हूँ। संसार में करना बेकार है, और वे मन मार कर बैठ रहे। कोई ऐसा भूत-प्रेत नहीं जो मुझे देखकर न काँप जाय । पास बैठने पर पंडित जी का श्राकार-प्रकार मैंने भली मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण इत्यादि सब क्रियाओं भाँति देखा। अापकी उम्र चालीस साल की रही होगी, के मंत्र जानता हूँ। आप दिल्लगी मानेंगे, पर सैकड़ों कद मॅझोला और रंग पक्का था। कछाड़ा मारकर धोती, विद्यार्थी मुझसे यंत्र लेकर इम्तिहान पास कर गये और एक चुस्त बग़लबंदी और सिर पर देहाती पगड़ी-यही हज़ारों आदमी मुक़द्दमे जीत गये। श्राज-कल ज़माना अापके वस्त्र थे। सिर पर का भस्म जिसके मध्य में लाल नास्तिकता का है, इसलिए पढ़े-लिखे लोग विश्वास नहीं बिंदी लगी हुई थी और गले में रुद्राक्ष की माला पंडित जी करते । नहीं तो मंत्रों में कौन-सी शक्ति नहीं है ? की धार्मिकता सूचित कर रहे थे। पास में एक झोला भी बस फिर क्या था ? पंडित जी तो मेरे मनचाहे व्यक्ति था, जिसमें सुरती-चूना से लेकर संस्कृत की पुस्तकें तक निकले। मैंने उनको अपनी पढ़ी हुई बहुत-सी भूतों-सम्बन्धी घास-भूसे की तरह भरी थीं। बीच बीच में सुरती-चूना घटनायें बतलाई और उन्होंने अपने ऊपर बीती बहुत-सी मिलाकर हथेली पर ठोंक कर खा जाते थे। एक स्टेशन घटनाओं का उल्लेख किया । कैसे एक आदमी को एक बाद मेरा गुस्सा शान्त हो गया और पंडित जी भी नरम चुडैल तंग करती थी, कैसे एक दिन पंडित जी उस पड़ गये और हम लोगों की बात-चीत होने लगी। आदमी के पलँग के पास सो रहे और जैसे ही चुडैल आई पंडित जी ने कहा-कहिए कहाँ से पाना होता है। उसके बदन में अभिमंत्रित सुई धुसेड़ दी, चुडैल भागी, कहाँ स्थान है ? पर सुई में लगा डारा खुलता गया, वह अपने वासस्थान __ मैं-सैदपुर से पा रहा हूँ। बनारस मेरा स्थान है। में जाकर एक हड्डी के टुकड़े में घुस गई और तब पंडित जी श्राप तो बतलाइए, कहाँ से आ रहे हैं और कहाँ तक ने उसे हँडिया में बन्द करके फूंक दिया। बात-चीत के जाने का इरादा है। सिलसिले में यह भी मालूम हुअा कि पंडित जी कीमिया __पंडित जी हँसकर बोले - वाह ! तब हम दोनों श्रादमी गर भी हैं। सोना-चाँदी बनाना तो उनके बायें हाथ का काशी जी ही जा रहे हैं । मेरा स्थान जिला बलिया में है। खेल है । श्राप गुटिका बना सकते हैं जिसको मुँह में रखते काशी जी में कुछ दिन रहेंगे और ग्रहण नहाकर वापस ही आदमी अंतर्हित हो जा सकता है और मिनट के मिनट आयेंगे। में जहाँ चाहे पहुँच सकता है। ____ इसी तरह धीरे धीरे बातें होते होते हम दोनों में उनकी धारा-प्रवाह बातों को काटकर मैं बोल उठाघनिष्टता बढ़ी और मैंने पंडित जी से उनका व्यवसाय पूछा। पंडित जी आप अपनी गुटिका को पेटेंट करालें । फिर एरो पंडित जी ने नीचे से ऊपर तक एक सशक दृष्टि से प्लेन जहाज़, मोटर, रेल इत्यादि सवारियों की कोई ज़रूरत मुझे देखते हुए कहा- अरे ! आपसे उसके बारे में कहना ही न रह जायगी और आपको भी गहरी रकम मिलेगी। वृथा है । आप कालेज के छात्र मालूम होते हैं। श्राप पंडित जी सीधे मालूम पड़ते थे। उन्होंने यह नहीं समझा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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