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________________ एक मनोरञ्जक कहानी अोझा पर इस विषय की छान-बीन करते करते मुझे एक ऐसी जा छ दिनों की बात है। उन घटना से वास्ता पड़ा कि मेरा जादू पर से विश्वास उठMayायाला दिनों मैं कालेज में पढ़ रहा सा गया। घटना इस प्रकार है। || था। ज्यादा समय तो मेरा उन दिनों मेरी यादत थी कि जब कभी कालेज से खेल-कूद या पठन-पाठन में एक-दो दिन की भी छुट्टी मिलती तब मैं देहात में कहीं न ASTI व्यतीत होता, पर जो समय कहीं निकल जाता और धूम-फिरकर वापस आ जाता। दाल बचता उसमें मैं कालेज की देहात की स्वच्छ हवा मेरी थकावट हर लेती और मैं फिर लाइब्रेरी से प्राकल्ट विद्या, कार्य करने के योग्य हो जाता था। मेरे सैदपुर के एक इन्द्रजाल तथा मेस्मरिज्म के सम्बन्ध की किताबें लाकर मित्र का निमंत्रण बहुत दिनों से सैदपुर आने का था। पढ़ा करता। कर्नल पालकट की डायरी तथा थियोसा- इसलिए अब की संक्रान्ति की छुट्टी वहीं बिताई | बड़ा फ़िस्टों द्वारा लिखी इन विषयों पर की और भी बहुत-सी अानन्द अाया, खूब चहल-पहल रही। तीसरे दिन मैंने कितावें मुझे बड़ी रुचिकर प्रतीत होती थीं। पर इससे यह मित्र से विदा ली और ११|| बजे की दिनवाली गाड़ी पकड़ न सोचना चाहिए कि मेरा विश्वास इन बातों पर था। ली। प्रयाग का माघ-मेला होने के सबब से गाड़ी में इतनी केवल ज्ञानोपार्जन तथा मनबहलाव के लिए ही मैं ये भीड़ थी कि तिल रखने को भी जगह न थी। मैं भी किसी किताबें पढ़ा करता था। तांत्रिक या ऐन्द्रजालिक क्रियायें तरह धक्का खाता हुआ एक डिब्बे में जा घुसा। डिब्बे में पढ़ कर मेरे रोंगटे खड़े हो जाया करते थे और एक जासूसी भीड़ का यह हाल था कि लोग असबाब रखनेवाले रेक पर उपन्यास से कहीं ज्यादा मज़ा मुझे अाता था। बहुत दिन चढ़े हुए थे और जाड़े का महीना होते हुए भी देह के निकले बीत गये हैं, फिर भी कर्नल अालकट बफारे से कमरा भर गया था । तिस पर की वह बात मैं नहीं भूला हूँ जहाँ वे भी लोगों ने सर्दी के मारे किवाड़ बन्द कहते हैं कि अजन्ता की गुफाओं को कर रक्खे थे । मेरा तो डिब्बे में घुसते जब वे देखने गये तब रात्रि को चित्रों ही दम घुटने लगा। मैंने डाँट-ड्रेट कर के पीछे के दरवाज़े खुल गये और किसी तरह दो-एक खिड़कियाँ खुलआलकट ने बौद्धों के स्वर्ग का मज़ा वाई। इतने में गाड़ी सोटी देकर चल लिया। मेरा युवक मन भी उस स्वर्ग पड़ी। कुछ स्वस्थ होकर अब मैं बैठने को देखने के लिए सदा लालायित के लिए जगह खोजने लगा। सीटें सब रहता था। पर न तो मुझे कोई ऐसा भरी थीं। पर मैंने देखा कि एक पंडित जादूगर ही मिला जो मुझे वहाँ ले जी जिनकी उम्र चालीस वर्ष के करीब जाता, न अलाउद्दीन का चिराग़ रही होगी, पूरी प्राधी बेंच पर दरी ही मेरे पास था, जिसके द्वारा जिन को बिछाये हुए अानन्द से लेटे हैं । जो बुलाकर मैं उस स्वर्ग में पहुँच जाता । कोई पास जाता, फटकार देते । मुझे लेखक, श्रीयुत मोतीचन्द्र एम० ए०, पी० एच० डी० (लन्दन) १३९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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