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________________ २१२ सरस्वती [ भाग ३६ में कुकाव्य-रचना प्रारम्भ ही की थी कि लोटा लहरों (२) पर नाचता हुआ किनारे आ लगा। सभी दर्शक कञ्चन के गजराज बनाय, कवि की इस अलौकिक शक्ति को देखकर आश्चर्य- जड़ाय जमाहिर लाल लसानी। चकित रह गये। पावन पुच्छक शुण्डन में मणि, ___ यदि इस घटना की अलौकिकता का अंश पृथक मस्तक दन्त कहाँ लो बखानी। कर दें तो पात्र का जलनिमग्न होकर उसका फिर मिल इक पर्व महोदय लागि गयो, जाना एक साधारण घटना ही प्रतीत होती है। पर तहँ दान कियो नृप की महरानी । इस साधारण घटना ने मँगनीराम को प्रकाश में लाने गंग तरंग में स्वस्ति दई कर, में बड़ी सहायता की। कडिरवाना के अधिकारियों ने । हाथी बुड़ी है हथेली के पानी ॥ शीघ्र ही नैपाल-सम्राट् का ध्यान इस होनहार नवयुवक मॅगन की सूझ और प्रत्युत्पन्नमति पर सभी कवि की देवोपम शक्ति एवं विलक्षण प्रतिभा की सुधीजन मुग्ध हो गये और वाहवाही से वह उत्तुंग ओर आकृष्ट किया। उन दिनों नैपाल के राजसिं- राजभवन प्रतिध्वनित हो उठा। इसके कुछ समय हासन पर सम्राट् रणबहादुरसिंह जी आसीन थे, बाद उनका नैपाल-दरबार में सिक्का जम गया जो सहृदयता एवं उदारता के साथ साहित्य, और वे स्वयं सम्राट् और सम्राज्ञी के स्नेहभाजन संगीत आदि ललित कलाओं की परख और उनका बन गये। नैपाल-दरबार में उन्होंने कितने दिनों तक संरक्षण करते थे। उनकी महारानी भी कवियों और निवास किया, इसका पता नहीं लगता, पर इतना कलाविदों का उचित सम्मान करती थीं। शीघ्र ही स्पष्ट है कि अपनी युवावस्था के कतिपय उत्तम वर्ष नैपाल-नरेश ने मँगनीराम के मामा के नाम आज्ञा- उन्होंने नैपाल-नरेश के आश्रय में ही व्यतीत किये पत्र भेजा। तदनुसार मॅगनीराम नैपाल-राजसभा में थे। इस प्रकार नैपाल में सम्मानित होकर वे जब उपस्थित किये गये। सम्राट ने एक समस्या दी। सभी स्वदेश को लौटने लगे तब महाराणा ने उन्हें प्रचुर उपस्थित कवियों की रचनाओं में मँगनीराम की द्रव्य, एक हाथी और 'गड़रिया' तथा 'डुमरिया' समस्यापूर्ति उत्कृष्ट हुई और प्रसन्न होकर सम्राट ने नामक दो ग्राम स्थायी रूप से देकर बिदा समस्त राजकवियों में उनको सर्वोच्च स्थान देकर किया। इन ग्रामों की सनद भी उन्हें दे दी गई। उनकी मेधाशक्ति तथा पांडित्य की प्रशंसा की। उक्त विद्वत्प्रेमी सम्राट् उनके व्यक्तित्व के प्रबल प्रशंसमस्या थी—'कर हाथी बुड़ी है हथेली के पानी'। सक हो चुके थे। उन्हें शीघ्र ही अपने दरबार में इसकी जो पूर्तियाँ मँगनीराम ने की वे ये हैं- देखने की तथा उनका काव्यरसामृत पान करने की अभिलाषा से सम्राट ने उनसे अनुरोध कियाभाग्य भगीरथ की पुड़िया महँ, "जब आप पुनः नैपाल आवेंगे तब और भी ज़मीशम्भु दियो मन्दाकिनी आनी। दारी देकर सनद में लाल मोहर कर दूंगा।" परन्तु विष्णु कियो छल देखन को तहँ, मालूम पड़ता है कि अनेक सांसारिक झंझटों से तथा छूटि पड़ी गिरि खोह समानी ॥ विशेषतः अपनी सुतवत्सला वयोवृद्धा जननी की वासव सै अहिरावत लै युग मनाही के कारण मँगनीराम दूसरी बार नैपाल-यात्रा दन्त धसाय सुमेरहु तानी। न कर सके। कुछ समय के बाद नैपाल-नरेश का बहरे जल धार पहाड़न ते कर, बुलावा भी आया, पर उपर्युक्त कारण से वे नहीं हाथी बुड़ी है हथेली के पानी ॥ जा सके। वस्तुतः उन्हें अब सांसारिक वैभव-सुख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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