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सरस्वती
[भाग ३६
किसी लोक-सेवा के काम में बराबर लगे रहे हैं। इन मैं सब प्रकार से दुखी था, शरीर अलबत्ता अच्छा हो दिनों भी आप हमीरपुर जिले के कोही नामक स्थान में चुका था, केवल निर्बलता ही शेष थी जब कि यह स्वामी जी एक आदर्श कृषि-फ़ार्म के संगठन का काम कर रहे थे। मुझे यहाँ पकड़ लाये । प्रभो! बात यह है कि हम दोने श्राप देशभक्त संन्यासी के रूप में रहते थे। आपकी मृत्यु ने कानपुर-जेल में एक स्कीम बनाई थी। पर मैं तो लगा से हिन्दी में एक देशभक्त कर्तव्यपरायण लेखक का कर ३ वर्ष बीमारी के चक्कर में पड़ा रहा और इन्होंने विचार श्रभाव हुआ है।
को कार्य में परिणत कर डाला और ढूँढ़कर मुझे अपनी - आपने हमें ७ जुलाई को एक पत्र लिखा था, उससे प्रतिज्ञा पालन करने को पकड़ लाये । अाज हमारे विद्या. श्रापके पिछले दिनों के जीवन एवं विचारों पर काफ़ी लय के पास आधा ग्राम खोही (जिसमें ११०० बीघा प्रकाश पड़ता है। उसे हम यहाँ ज्यों का त्यों उद्धत करते हैं- धरती है) है। इसकी वार्षिक आय सरकारी देन काट प्यारे शुक्ल जी,
कर ३००) है। फिर हम अपने काम के लिए अन्न पैदा कर - आपका प्रेमपूर्ण पत्र मिला, पढकर असीम आनन्द लेते हैं, पशु भी रखते हैं। विचार है कि किसानों को हा। देव ! मैं सम्पादकों की कठिनाई, सुविधा-असुविधा, हम लोग वश भर लाभ पहुँचावें । आपका आशीर्वाद स्थान और विषयों के विचार आदि को अच्छी तरह जानता और हमारे अन्तःकरण में सचाई रही तो निस्सन्देह सफलता हूँ। उपालम्भ का तो मेरे हृदय में कभी विचार ही नहीं हमारे सामने हाथ जोड़कर आवेगी। होता। श्रापको अस्वीकृत रही लेखों को रद्दी की टोकरी में अवश्य 'सरस्वती' के लिए कुछ लिखकर भेजूंगा में भी तो डालने का अधिकार है। अपनी कृति सभी को और शीघ्र भेजूंगा। इसमें तो एक पंथ दो काजवाली उत्तम जान पड़ती है, परन्तु अपने बेटे का नाम पृथ्वी- बात है। कुछ जेब-खर्च मिल जाता है और आप सदृश पति रखने से वह पृथ्वीपति हो नहीं सकता। मेरा यह विद्वान् मित्र प्रसन्न होते हैं और शाबासी देते हैं । आजलेख किष्ट और विशेष लोगों के पढ़ने के लिए था, यदि कल मुझे ८) १०) मासिक बहुत ज़्यादा होता है और सर्वसाधारण के लिए निकलनेवाली पत्रिका में उसे समय पाकर साधन से सम्भव है, इसकी भी आवश्यकता स्थान न मिलता तो मैं रत्ती भर भी बरा न मानता। न रहे। स्वामा ब्रह्मानन्द बड़े त्यागी-उद्योगो और अध्यवफारसी की एक कहावत है कि 'मनानम कि मन दानम । सायी हैं। ये धन माँग कर लाते हैं, मैं स्टाक को लिए अर्थात् मैं खूब जानता हूँ कि मैं कौन हूँ। इस लेख को काम करता रहता हूँ। स्वामी जी पैसा हाथ से नहीं छते. छापने से मुझे निश्चय हुआ कि आप इस प्रकार के लेखों जहाँ जो मिलता है, रसीद देकर छोड़ देते हैं, बाद में और लेखकों को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं । कर्तव्य
विद्यालय में श्राता रहता है। इनका रहन-सहन श्राप वशात. पत्र के कल्याण की दृष्टि से आप ऐसे लेखों की देखेंगे तो प्रसन्न होंगे। कभी चित्रकूट पधारें तो हमको उपेक्षा करें, यह दूसरी बात है। क्यों न हो अाखिर बाप भा दशन द। विद्वान् और ब्राह्मण ही तो हैं । सच्चे जर्नेलिस्ट किसी के
आपका विचार पर पर्दा डालना उचित नहीं समझते । मैंने शुद्ध
राधे हृदय से आपको धन्यवाद दिया था।
भूल-सुधार __भगवान् ! श्रापको ज्ञात नहीं कि मैं अप्रेल के मध्य से पृष्ठ २६५ पर ब्रूसेल्स से हार्बिन शीर्षक लेख के साथ जुलाई के प्रारम्भ तक अनुमानतः तीन महीने बहुत बीमार प्रकाशित होनेवाली सम्पादकीय टिप्पणी में पाठक 'एलरहा, कुछ भी लिख-पढ़ नहीं सका। इस बीच में कानपुर को' के स्थान पर 'रंगून' और 'नायक' की जगह पर में पड़ा पड़ा मासिक पत्रिकाओं को लगातार पढ़ता रहा। 'नामक' पढ़ने की कृपा करें। और करता ही क्या ?
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