________________
सरस्वती
[भाग ३६
___उस दिन का प्रथम ‘प्राइज़ टिकट' मेरे ही नम्बर- उसने सिर हिलाकर जतलाया 'नहीं', किन्तु वाला निकला और मुझे पूरे सौ रुपये मिल गये। उसकी आँखों के ऊपर उठते ही मैंने देखा वे वेदना इन रुपयों को पाकर मैं फूला न समाया। रास्ते में से चिल्ला रही हैं- इसमें सन्देह ही क्या है ? . मैं जब चलने लगा तब मुझे जान पड़ा मानो हवा में "यह वेदना किसलिए ?" मैं कहने लगा--"मैं तो उड़ा जा रहा हूँ। कपड़े की एक बड़ी दूकान देखते पूर्व-जन्म, पर-जन्म, कर्म-फल आदि कुछ भी तुम्हारी ही- उसके भीतर जाकर मैंने साड़ियाँ दिखलाने की तरह नहीं मानता; परन्तु तुम जैसा मानती हो उसके फरमाइश की और एक साठ रुपये की साड़ी अनुसार तुम्हें इस तरह दुखी क्यों होना चाहिए ? पसन्द की।
तुम्हारे सिद्धान्तों के अनुसार तो मेरा-तुम्हारा वह इन साड़ियों को छूती तक नहीं, इसका सम्बन्ध इसी जन्म का नहीं है । तुम तो ऋण चुकाने खयाल करना मैंने मूर्खता ही समझी। घर पहुँचकर के लिए ही आई हो । फिर यह दुःख क्यों ?" दरवाजे की दराज से झाँककर देखा लालटेन जल "इसी लिए तो। हम तो सभी के प्रति ऋणी हैं, रही है और एक पुस्तक पढ़ी जा रही है। कान पर उस ऋण को तो राग-द्वेष को हटाकर, सच्ची लगाकर सुनने लगा। शायद कुछ शब्द सुनाई करुणा, सच्ची वेदना के उत्पन्न होने से ही हम पड़ें और यह मालूम हो जाय कि कौन पुस्तक पढ़ी चुकाने को कुछ शक्ति पा सकते हैं।" जा रही है । पर कुछ भी न सुनाई पड़ा। ___तो अब तुम मुझ पर दया करोगी-मेरे प्रति साँकल ज़ोर से खटखटाई।
करुणा और वेदना को तरंगें अपने हृदय-सागर में तेजी से उठकर उसने भीतर की जंजीर उत्पन्न करोगी !-नहीं जानता तुम्हारी इन पागलों खोल दी।
की-सी बातों पर हँसना चाहिए या रोना । क्या तुम किवाड़े खोलकर मैं सीधा उस पुस्तक के पास दुनिया की सीधी-सादी एक साधारण स्त्री नहीं पहुँचा । मुझे भय था कि कई पुस्तकें वहाँ न हों। बन सकती ? तुम्हारी पुस्तक को देखने के लिए मेरे पर केवल एक पुस्तक थी।
मन में इतनी अधिक उत्सुकता हुई, किन्तु मैं हाथ में उसे मैने उठाया नहीं। पूछा-क्या पढ़ एक बंडल लिये हूँ, इसे देखने या इसके बारे में पूछने रही थीं?
की तुम्हारे मन में तनिक भी इच्छा उत्पन्न नहीं हुई। वह बोली-रहस्य ।
यह विरक्ति तो अपमान-घोर अपमान-करने"क्या ? 'रहस्य' क्या ! जीवन-रहस्य, चरित- वाली है।" रहस्य, पेरिस-रहस्य-"
___ मैंने समझा था मेरी यह बात सुन वह लज्जा बात काटकर उसने गंभीरता से कहा-गीता- से सिर नीचा कर लेगी, परन्तु उसने तो बच्चे कीरहस्य ।
सी सरलता और उसी के-से आश्चर्य के साथ मेरी "लोकमान्य तिलक का गीता-रहस्य ?" ओर देखा ! न जाने क्यों मेरा ही सिर नीचे झुक "हाँ"।
गया ? "क्यों ? क्या तुम यह निर्णय करना चाहती हो मैं अपने पथ पर-जिसे वह पाप-पथ कहती थी कि यदि मैं एक ओर होऊँ और तुम दूसरी ओर उसी पर -चलता गया । तो तुम्हारा कर्तव्य क्या है ?"
वह चुप रही। मैंने कहा-मौन सम्मति का लक्षण है।
"मैं फिर अपना ऋण चुकाने आऊँगी। आशा
xx
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com