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________________ गूढ अर्थ रखनेवाली एक सुन्दर कहानी वह लेखक, श्रीयुत विजय वर्मा "और वह-?" नहीं? __ इस बार मैंने शीघ्रता के साथ कहा--अर्थात् । कहकर वह मेरी ओर देखने लगी। मानवरूपधारी होने से ही कुछ नहीं होता। यह मैंने कहा-जाने दा; सब कुछ इसी जीवन में तो बहुत पुरानी बात है। पा लेने की इच्छा की पूर्ति यदि न हो तो उसके लिए उसकी भौहें टेढ़ी होगई । “अब नई बात-इस इतनी बेचैनी 'संसार के सर्वश्रेष्ठ' विशेषण से युक्त युग की बात--यह है कि यह रूप-यह शरीरप्राणी को शोभा नहीं दे सकती। पा लेने से ही कर्तव्य की इतिश्री मानकर मन को वह विचलित हो उठी। मेरी ओर उसने जिस बेलगाम छोड़ देना चाहिए, इन्द्रियों के संयम की बात दृष्टि से देखा उसे भूलना असंभव है, किन्तु उसमें को हंसी उड़ानी चाहिए और तरह तरह के राग-द्वेष जो कुछ था उसका विश्लेषण करना भी मेरे लिए को जोरों के साथ पकड़ते जाना चाहिए ?" संभव नहीं। यही कह सकता हूँ-उसमें था क्या यह कहकर उसने व्यंग्यपूर्ण हँसी हँसी। मेरा सब शरीर जल उठा। सहने की भी एक मैं तो चुप रह गया। सीमा होती है । दर्शनशास्त्रियों की भाँति मैं भी ऐसी तब वही बोली-जिसके कारण यह विशेषण अनेक बातें कह सकता हूँ, किन्तु इस व्यावहारिक उचित हो सकता है उसी पर कुठार चलाकर तो जगत् में अपनी इस अवस्था में ऐसी बातें सुनकर उसका गर्व करना शोभा नहीं दे सकता । 'सब मुझे क्रोध आये बिना नहीं रहता। मुझे ये बातें कुछ न मिले पर जो जीवन के लिए अन्य सब कुछ या तो अबोध बच्चों को जान पड़ती हैं या भयंकर से भी बढकर है उसके लिए प्रयत्न किये बिना ढोंगियों की। कोई कैसे रहे? वह यह जानती है और जानने पर भी मुझसे ___ 'कोई' का तो प्रश्न ही न था। 'मैं' कैसे रह ऐसा कह रही है! सकती हूँ ?-यही स्पष्ट बात थी। ऐसा न होता तो जान पड़ता है फिर उसने मेरे मन की अवस्था कह देता, 'जैसे अन्य सब रहते हैं। पर उसके लिए समझ ली। परन्तु इस बार उसने उस बारे में कुछ तो मैं ऐसा कह नहीं सका।। कहना व्यर्थ समझा! परन्तु न कहने से क्या होता है ? यही उत्तर वह बोली-मैं तो नहीं जाऊँगी। आपको मैं मेरे मन में है, यह उसने समझ लिया और फिर कह जाने से रोक नहीं सकती। मेरा कहना तो यही उठी-जैसे हम हैं वैसे ही अन्य सब है, अथवा है कि ऐसे स्थान के निकट खड़े होना भी पाप है। जैसा हम समझते हैं, वैसे ही और सब लोग हैं, यह "पाप?" कैसे ठीक कहा जा सकता है ? संसार में सभी "निस्सन्देह पाप।" प्रकार के प्राणी हैं। ४९५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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