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सरस्वती
[ कोणार्क मन्दिर के प्रकाण्ड शिलाखण्ड के हाथी जिनका वज़न ३५० मन से ऊपर माना जाता है । ] कृष्णपक्ष था । त्रयोदशी की अँधेरी रात थी। लालटेन की रोशनी के सिवा और कुछ भी दिखाई नहीं देता था। रास्ते से हम सब यात्री अपरिचित थे । बालू की खर-खर की आवाज़ के सिवा कुछ न सुनाई देता था । गाड़ी कहाँ जा रही है, पता नहीं था । रामभरोसे चल रहे थे। सूर्योदय की प्रतीक्षा में सारी रात बीत गई। जब सुदूर पूर्व की ओर लाल-लाल किरणें खेलती दिखलाई दीं, मन प्रफुल्लित हो उठा। गाड़ी से उतर कर सब पैदल ही चलने लगे। चारों ओर बालू थी। बालू के टीले थे । कहीं कहीं भाऊ के वृक्ष दिखलाई पड़ रहे थे । समुद्र का गर्जन सुनाई दे रहा था। चलते-चलते हम लोग एक नदी के पास आये । गाड़ीवालों से पूछने पर पता लगा कि इस नदी का नाम “लियाखिया” (लेना-खाना) है । गौराङ्ग महाप्रभु जिस समय कोणार्क के दर्शनार्थ यहाँ श्राये थे उस समय इस नदी में स्नान कर इसी ग्राम में लेकर भोजन किया था, इसी लिए इसका नाम पड़ा 'लियाखिया' । हम लोग भी प्रातःकर्म कर नदी के ऊपर के ग्राम में गये और मूड़ी (चावल भाजा) और नारियल लेकर खाया । गाड़ीवालों ने खाया । बैलों को भी खिलाया। गाँव छोटा था, १०-१५ घर थे ।
८ बजे यहाँ से प्रस्थान किया। बालू के सिवा दूर तक किसी बस्ती का पता न था। बालू में चलने में बड़ा
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[ भाग ३६
श्रानन्द श्राता था । बीच-बीच में कहीं-कहीं पीली, कहींकहीं कालो बालू भी मिलती थी । चलते चलते ४ मील चले ग्राये | समय ११ के क़रीब हो गया था। पूछने पर पता लगा कि समुद्र के किनारे रामचण्डी नाम का एक ग्राम है । यहाँ से क़रीब एक मील होगा । हम लोगों ने निश्चय किया कि वहीं समुद्र में स्नान करेंगे, भोजन आदि बना कर खायेंगे ।
यथासमय रामचण्डी पहुँच गये। यह स्थान एकदम समुद्र के किनारे पर था। यहाँ से कोणार्क दो-तीन मील
उत्तर-पूर्व के कोने में था । मन्दिर का ऊपरी भाग साफ़ दिखलाई देता था । रामचण्डी ६-७ घरों की बस्ती थी । एक काली मन्दिर भी था। हम समुद्र स्नान करने के लिए गये । नदी की छोटी लहरियाँ, सूर्य की किरणों से चकचक होती चल रही थीं। उधर महासागर की उत्ताल तरंगें आकर उनसे मिलती थीं। बड़े श्रानन्द के साथ दो घंटे तक समुद्रस्नान किया। दो बजे भोजन-सामग्री जुटाई गई। खापीकर ४ बजे कोणार्क को चल पड़े। फिर पैदल चलना आरम्भ किया । गाड़ी का मार्ग छोड़कर मन्दिर को देखते बालू से होकर सीधा चले और ६ बजे शाम को कोणार्क पहुँच गये ।
कोणार्क में बाबू दिव्यसिंह महन्ती के यहाँ हम लोग उतरे। उनके विनम्र, शान्त एवं सुशील स्वभाव से सबों को बड़ा आनन्द मिला । कोणार्क २०-२५ घर की बस्ती
[ मन्दिर के पीछे का रसोईघर, जिसमें भगवान् सूर्य्य का भोग बनता था | ]yanbhandar.ocn