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________________ २९६ सरस्वती [भाग ३६ आराम के लिहाज़ से पेरिस का मुक़बिला करनेवाला लेकर जर्मनी आये हैं, उतना या उससे कम ले जा सकते जर्मनी अब कुछ सुधरा मिलेगा, उसका नैतिक धरातल हैं, ज्यादा नहीं। पहले से कहीं अधिक ऊँचा होगा। लेकिन मुझे अपने योरप की रेलगाड़ियाँ-वैसे तो योरप की रेलपुराने अनुभवों को बदलने का कोई मौका नहीं मिला। गाड़ियों का इन्तिज़ाम भारत से कई गुना अच्छा रहता है, हर गली और कुँचे में यौवन और सौंदर्य अपने सौगुने लेकिन मेवा में उनकी सानी मिलना मुश्किल है । जर्मन आकर्षण के साथ खेल रहे थे। वह एक मस्ती का अफसरों से छुटकारा पाकर मैंने पासपोर्ट कंडक्टर को दे आराम.था, जिसमें भौतिक के अंचल के अंतिम छोर तक दिया। इसी कंडक्टर ने पोलेंड की सीमा पर पासको छने की अभिलाषायें छलक रही थीं। होटल और पोर्ट बतला दिया और सामान भी कस्टमवालों से पास केफ़ भरे हुए थे। सजीली सुकुमारियों की मुस्कराहट, करा दिया। नयन-कटाक्ष तथा शोखी हर जगह कदम कदम पर बिखरे ग़रीब पोलेंड - फ्रांस, बेल्जियम और जर्मनी की थे। मुझे तो संदेह हो चला कि हिटलर जर्मन जाति तुलना में पोलेंड बहुत ग़रीब देश मालूम पड़ा। कृषकों के जीवन के इस पहलू को बदलने में किस तरह सफल के झोपड़े नज़र आये और बहुत-से नंगे पाँव फिरते देखे। होगा ! ११॥ बजे गाड़ी जानेवाली थी, इसलिए मुझे लौट महायुद्ध के बाद पोलेंड के स्वतंत्र राष्ट्र की उत्पत्ति हुई आना पड़ा। इस बार बर्लिन के द्वार तक ही गया, अतः थी, लेकिन तब से उसने बहुत थोड़ी ही उन्नति कर पाई प्रवेश की लालसा रह ही गई। है। ६ बजे सुबह गाड़ी पोलंड की राजधानी वारसा ___ गाड़ी आ लगी-ठीक ११॥ बजे गाड़ी स्टेशन पर पहुँची। वारसा शहर विश्चुला नदी के बायें किनारे पर है। श्रा लगी। मेरा स्लीपिंगकार का टिकट था, इसलिए गाड़ी दस लाख की आबादी का यह शहर ही पोलैंड के थोड़े में बिस्तर लगा हुआ था। सामान मेरे पास सिर्फ एक से चुने हुए स्थानों में से है, जहाँ पेरिस और बर्लिन की सटकेस और अटेची केस था। मुझे ज्यादा सामान की कुछ छाया प्राप्त होती है। पोलैंड में इस समय एक ज़रूरत ही नहीं थी, क्योंकि दस वर्षों तक विदेश की प्रकार से फ़ौजी शासन है। योरपीय राजनीति के इस घने मुसाफ़िरी करते करते मैं इतना सिद्धहस्त-सा हो गया हूँ वातावरण में और क्या उम्मीद की जा सकती है । कि अपटुडेट बने रहने पर भी हवाई जहाज़ के १६ सेर नुकीले तारों की सरहद-५॥ बजे सुबह गाड़ी तक वज़न ही ले जाने के नियम का पालन कर दो-तीन स्टलपसी पहुँची। पोलेंड की सरहद पर बसा हुआ यह महीने मजे से गुज़ारा कर सकता हूँ। ट्रेन में आकर छोटा-सा गाँव बड़ा ही रमणीक दिखाई दिया । यहाँ सिपाकपड़े बदले और सो रहा । करीब तीन बजे दरवाज़े पर खट- हियों का काफ़ी जमघट था। रूसी अफ़सर यहाँ गाड़ी में खटाहट सुनकर चौंक पड़ा। दरवाजा खोला तब जर्मन आये और पासपोर्ट ले लिया। गाड़ी चली और कुछ अफ़सर नज़र आये। उन्होंने मनी-सार्टिफ़िकेट माँगा और मिनटों में ही नीगोरलोज़ आ गया। यह गाँव रूस की रुपयों की तलाशी ली। सब मामला ठीक था और उनसे सीमा के अन्तर्गत है। रूस और पोलेंड की सीमा के बीच फसत पाई। जर्मनी के नियम के अनुसार हर शख्स का नुकीले तार गड़े पाये। रूस की सरहद पर लकड़ी जर्मनी की सरहद में घुसने के पहले अपने पास के रुपयों का एक बड़ा ऊँचा मचान बना हुआ है, जिस पर रूसी और उधार की चिट्ठी कस्टम अफ़सर को बतानी पड़ती सिपाहियों का बड़ा कड़ा पहरा लगा रहता है । यहीं गाड़ी है। उसे जाँचकर वह एक दूसरा सार्टिफ़िकेट देता है, खत्म हो जाती है और यात्रियों को रूसी गाड़ी पर चढ़ना जिसे मनी-सार्टिफिकेट कहते हैं । जर्मनी के बाहर जाने होता है। करीब २।। घण्टे का अवकाश रहता है, जिसमें पर सरहद पर यह सार्टिफिकेट दिखलाना पड़ता है और सामान की अच्छी तरह तलाशी ली जाती है। किताबें रुपयों की तलाशी ली जाती है, जिससे आप जितना रुपया तक पढ़ कर जाँची जाती हैं। कस्टमहाऊस के पास ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035248
Book TitleSaraswati 1935 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1935
Total Pages630
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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